दिनांक
10 फरवरी, 1977;
ओशो आश्रम,
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
जनमउवाच:
क्व प्रमाता
प्रमाणं वा क्व
प्रमेय क्व च
प्रमा।
क्व न
किंचित क्वा
न किंचिद्वा
सर्वदा
विमलस्य मे।।
292।।
क्व विक्षेप:
क्व
चैकाग्रयं क्व
निर्बोध क्व
मूढुता।
क्व
हर्ष: क्व
विषादो वा
सर्वदा
निस्कियस्थ
मे।। 293।।
क्व
चैष व्यवहारो
वा क्व च सा
परमार्थता।
क्व सूखं
क्व च वा
दुःखं
निर्विमर्शस्थ
मे सदा।। 294।।
क्व माया
क्व न संसार: क्व
प्रीतिर्विरति
क्व च वा।
क्व जीव:
क्व च
तद्ब्रह्म
सर्वदा
विमलस्य मे।।
295।।
क्व प्रवृत्तिर्निवृत्तिर्वा
क्व मुक्ति: क्व
व बंधनम्।
कूटस्थनिर्विभागस्थ
स्वस्थस्थ मम
सर्वदा।। 296।।
क्योयदेश:
क्व वा
शास्त्र क्व
शिष्य: क्व व
वा गठ।
क्व
चास्ति
पुरुषार्थो
वा निरुपाधे
शिवस्थ मे।। 297।।
क्व
चास्ति क्व च
वा नास्ति
क्यास्ति चैकं
क्व व
द्वयम्।
वही है मरकजे —काबा
वही है
राहे —बुतखाना?
जहां
दीवाने दो
मिलकर
सनम की
बात करते हैं
अष्टावक्र
और जनक, दो दीवानों
की बात हमने
सुनी। उनकी चर्चा
ने एक अपूर्व
तीर्थ का
निर्माण किया।
उसमें हमने
बहुत
डुबकियां
लगायीं। अगर
धुल गये, अगर
स्वच्छ हो गये,
तो सारा गुण
गंगा का है।
अगर न धुले, अस्वच्छ के
अस्वच्छ रह
गये, तो
सारा दोष अपना
है। अगर ऐसे
सुना जैसे
बहरा आदमी
सुने और ऐसे
देखा जैसे
अंधा आदमी
देखे, तो
तुम गंगा के
किनारे आकर भी
अस्वच्छ रह
जाओगे। तीर्थ
पर पहुंचकर भी
तीर्थ तक
पहुंचना न हो
पाएगा।
यह एक
अपूर्व
यात्रा थी। एक
दृष्टि से
बहुत लंबी—महीनों
—महीनों तक
इसमें हमने
डुबकियां
लगायीं। एक
दृष्टि से बड़ी
छोटी—श्रवणमात्रेण।
एक शब्द भी
कान में पड़
गया हो तो
जगाने के लिए
पर्याप्त।
इतने —इतने
ढंग से
अष्टावक्र और
जनक ने वही—वही
बात कही, शायद एक बार
चूको तो दूसरी
बार हो जाए, दूसरी बार
चूको तो तीसरी
बार हो जाए।
नयी—नयी बातें
नहीं कही हैं,
नये —नये
ढंग से भले
कही हों।
मौलिक बात एक
थी कि किसी
भांति
द्वंद्व के पार
हो जाओ, द्वंद्वातीत
हो जाओ, तो
महासुख की
वर्षा हो जाए।
महासुख की
वर्षा हो ही
रही है, तुम
द्वंद्व के
कारण उससे
वंचित रह जाते
हो। सुख बरस
रहा है, तुम्हारी
गगरी फूटी है।
तो तुम भर
नहीं पाते।
तुम कहते हो, सुख
क्षणभंगुर है।
गगरी फूटी हो
तो पानी क्षण
भर ही टिकता
है। दोष पानी
का नहीं है, दोष गगरी का
है। गगरी न
फूटी हो, तो
पानी सदा के
लिए टिक जाए।
अमृत बरस रहा
है, एक
क्षण को भी
उसकी रसधार
रुकती नहीं, अखंड़ है
उसकी रसधार, लेकिन हम
द्वंद्व में
उलझे हैं तो
चूक जाते हैं।
एक तरफ
दर्दीला मातम
एक तरफ
त्यौहार है
विधना
के बस इसी खेल
में यह मिट्टी
लाचार है
एक तरफ
वीरान सिसकता
एक तरफ
अमराइयां
एक तरफ
अर्थी उठती है
एक तरफ
शहनाइयां
एक तरफ
कंगन झड़ते हैं
एक तरफ सिंगार
है
विधना
के बस इसी खेल
में यह मिट्टी
लाचार है
लुटता
कभी पराग पवन
में कहीं चिता
की राख है
किरण
जादुई खड़ी कहीं
पर कहीं
वितप्त सलाख
है
एक तरफ
है फूल सेज पर
एक तरफ अंगार
है
विधना
के बस इसी खेल
में यह मिट्टी
लाचार है
ऋण पर
है अस्तित्व
हमारा उम्र
सूद में जा
रही
जब सब
हिसाब देना
होगा घड़ी निकट
वह आ रही
हाय
हमारी देह
सांस क्या सब
का सभी उधार
है
विधना
के बस इसी खेल
में यह मिट्टी
लाचार है
दुख ही
दुख ज्यादा है
जग में सुख के
क्षण तो अल्प
हैं
सौ आंसू
पर एक हंसी यह
विधना का
संकल्प है
उस
अनजान खिलाड़ी
का तो बहुत
निठुर खिलवार
है
विधना
के बस इसी खेल
में यह मिट्टी
लाचार है
यह जो
दो में बंटा
होना है, इसको तुम
विधि पर मत टालो।
तुम्हारे
गायक, तुम्हारे
विचारक, तुम्हें
सांत्वना
देने वाले लोग
इसे टालते हैं
कि यह विधि का
खेल है। यह
विधि का खेल
नहीं। समझो!
यह तुम्हारा
ही बनाया हुआ
जाल है। कोई
तुम्हें बांट
नहीं रहा है, तुमने बंटने
का निर्णय कर
लिया है। तुम
ही उत्तरदायी
हो, कोई और
नहीं। इसीलिए
तो अष्टावक्र
कहते हैं कि
श्रवणमात्रेण।
समझो।
अगर
किसी और ने
तुम्हारे
जीवन को खंड—खंड
किया हो, तो तुम अखंड
न कर सकोगे।
जब कोई और खंड—खंड
करता है तो तब
ही होगा अखंड
जब वही अखंड
करेगा, तुम्हारे
किये क्या
होगा? किसी
ने तुम्हें
गाली दी और
तुम कहते हो
कि मैं इसलिए
दुखी हो रहा
हूं कि उसने
गाली दी। तब
तो तुम अपने
दुख के मालिक
न रहे। जब वह
गाली देना बंद
करेगा तो शायद
तुम दुखी न होओ।
लेकिन वह गाली
देना बंद
करेगा, यह
तुम्हारे हाथ
में नहीं।
लेकिन किसी ने
गाली दी और
तुम दुखी न
हुए, या
दुखी हुए तो
भी तुमने जाना
कि यह दुखी
होना मेरा ही
निर्णय है—गाली
आए और जाए और
मैं बिना दुखी
हुए भी रह सकता
हूं
अस्पर्शित—तो
तुम मालिक हो
गये। अब दूसरे
के हाथ में
कुंजी न रही
तुम्हारे जीवन
की।
नहीं, विधि पर
मत टालो। बात
तो सच है कि
जीवन दो में
बंटा है, लेकिन
तुमने बांटा
है, किसी
भाग्य ने नहीं।
बांटने की
तरकीब को
पहचान लो तो
तुम अनबंटे हो
जाओ। और तुम
अनबंटे हो जाओ
तो वही तो
सारे योग का
लक्ष्य है।
सारे
अध्यात्म की
आकांक्षा। एक
हो जाओ, अद्वय
हो जाओ, दो
न रह जाएं, रात
और दिन दो न
रहें, जीवन
और मृत्यु दो
न रहें, सुख
और दुख दो न
रहें, इन
दोनों में तुम्हें
समभाव आ जाए, तुम इन
दोनों में एक
को ही देखने
में समर्थ हो जाओ।
यह हो
सकता है। थोड़े
साक्षी बनने
की बात है।
सुख को भी
देखो और देखते
क्षण में
सिर्फ देखने वाले
रहो, उलझ
मत जाओ, तादात्म्य
मत कर लो, ऐसा
मत कहो कि मैं
सुखी हूं,
इतना ही कहो कि
सुख होता है
और मैं देख
रहा हूं और
मैं देख रहा
हूं? और
मैं देख रहा
हूं।
तुम्हारा
देखना अछूता
खड़ा रहे, कर्ता
न बने, भोक्ता
न बने। दुख आए,
तब भी देखो—दुख
है, देख
रहा हूं। काटे
चुभे कि फूल
मिलें, देखते
रही। धीरे —
धीरे अपने को
द्रष्टा में
थिर कर लो।
धीरे — धीरे
अपने केंद्र
पर खडे हो जाओ।
कोई भी आए
तुम्हारी
अंतर्शिखा
कंपित न हो, तुम अकंप हो
जाओ। उस
अकंपता में जो
अनुभव होगा, वही सत्य है।
उसे कोई
ब्रह्म कहता
है, कोई
निर्वाण, कोई
मोक्ष। लेकिन
उस अकंप दशा
में जो जाना
जाता है, वही
जानने योग्य
है, वही
सच्चिदानंद
है।
इस
लंबी
तीर्थयात्रा
में जनक की
जिज्ञासा के कारण, मुमुक्षा
के कारण, अष्टावक्र
की अनुकंपा
करुणा के कारण
खूब रस बहा।
एक ने दूसरे
पर रस उलीचा।
तुम अगर थोड़े
भी सजग हो तो
कुछ बूंदें
तुम्हारे हाथ
जरूर पड़ गयी
होंगी।
कल
किसी ने एक
प्रश्न पूछा
था कि
अष्टावक्र की
बात सुनने
मात्र से जनक
को ज्ञान हो
गया और अब तो अष्टावक्र
की महागीता
पूरी होने आ
रही, यहां
कितने लोगों
को ज्ञान हुआ?
एक बात
पक्की है कि
जिसने पूछा, उसको
नहीं हुआ। और
उसे होना
मुश्किल है, क्योंकि
उसकी नजर
दूसरों पर लगी
है। अगर तुम
मुझसे पूछते
हो कि कितनों
को ज्ञान हुआ,
अगर तुम
मेरी तरफ से
पूछते हो, तो
मैं तो यही
कहूंगा कि
यहां कोई
अज्ञानी है ही
नहीं—कभी कोई
अज्ञानी हुआ
ही नहीं। यही
तो अष्टावक्र
का मूल संदेश
है। अज्ञानी
तुमने माना है,
तुम हो नहीं।
तो ज्ञानी
होने की
चेष्टा में ही
तुम्हारा अज्ञान
ही बचा रहता
है। ज्ञानी
होने की
चेष्टा नहीं
करनी है, सिर्फ
यह सत्य जानना
है कि ज्ञान
तुम्हारा स्वभाव
है, चैतन्य
तुम्हारा
स्वभाव है।
तुम ज्ञानी हो।
अज्ञानी होने
का न कोई उपाय
है न कोई विधि
है। अज्ञानी
होना संभव
नहीं है, लाख
उपाय करो तो
भी तुम
अज्ञानी नहीं
हो सकते।
तुम्हारे भीतर
ज्ञान का
अंगारा दग्ध
जलता ही रहता
है। कितनी ही
राख में ढंक
जाए, बुझता
नहीं। और राख
में रखा क्या
है? एक
फूंक मारो कि
उड़ जाए!
श्रवणमात्रेण।
सदगुरु
का इतना ही तो
काम है कि एक
फूंक मारे, तुम्हारी
राख हट जाए।
लेकिन अगर
तुमने जिद ही
कर रखी हो कि
तुम अंगारे को
स्वीकार ही न
करोगे, तो
तुम्हारी
मर्जी!
तुम्हारी
मर्जी के
खिलाफ तुम्हें
कोई जगा नहीं
सकता। और तुम
जागना चाहो तो
गहरी से गहरी
नींद से भी तुम
जाग सकते हो।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
नींद में भी
तुम निर्णय
लेते हो कि कब
जागना और कब
नहीं जागना।
तुम चकित
होओगे यह बात
जानकर, नींद
में भी
तुम्हारा
निर्णय काम
करता है। देखा
तुमने, एक
मां उसका छोटा
बच्चा उसके
पास सोया हो, छोटे बच्चे
की सांस में
जरा घरघराहट
हो जाए, जरा—सी
उसकी नींद खुल
जाती है। और
आकाश में बादल
गड्गड़ाते
रहें और उसकी
नींद नहीं
खुलती। मामला
क्या है? शायद
क्या सुनना और
क्या नहीं
सुनना, इसकी
भी नींद में
व्यवस्था है।
तुम इसका भीतर
निर्णय कर रहे
हो—क्या सुनना,
क्या नहीं
सुनना।
यहां
इतने लोग बैठे
हो, तुम
सब यहां सो
जाओ आज रात और
कोई आकर जोर
से पुकारे
राम! राम कहां
है? तो सब
सोए रहेंगे, किसी को
सुनायी न
पड़ेगा, लेकिन
जिसका नाम राम
है उसे सुनायी
पड़ जाएगा। वह
कहेगा, कौन
भाई आधी रात
जगाने आ गया?
सब सोए
थे, किसी
को सुनायी
नहीं पड़ना
चाहिए—या सभी
को सुनायी
पड़ना चाहिए—लेकिन
राम को सुनायी
पड़ गया। राम
ने निर्णय रखा
है अपने भीतर
कि अगर कोई 'राम' नाम
ले, यह
मेरा नाम है, तो मैं
सुनूंगा।
किसी और का
नाम ले तो मैं
नहीं सुनूंगा।
किसी के और के
नाम सं मुझे
क्या लेना—देना!
नींद में भी
कोई निर्णय कर
रहा है कि जाग या
न जाग? जागने
योग्य बात है,
या जागने
योग्य बात
नहीं है?
तो
तुम्हारे
निर्णय के
खिलाफ तो
तुम्हें कोई भी
नहीं जगा सकता।
तुम अगर मन
में तो चाहते
हो कि सुबह
पांच बजे उठना
नहीं है, बड़ी सर्दी
है, लेकिन
पत्नी पीछे
पड़ी है कि
चलना है मंदिर,
जल्दी चलना
है, तो तुम
अलार्म भर
देते हो बेमन
से— भरते वक्त
भी तुम जानते
हो कि उठने की
इच्छा तो नहीं
है—तुम सुबह
अलार्म
सुनोगे नहीं।
अलार्म बजेगा,
तुम सुनोगे
कि मंदिर में
घंटियां बज
रही हैं और
तुम मंदिर में
पहुंच गये, सपना देखोगे।
तुम अलार्म की
घंटी को मंदिर
की घंटी बना
लोगे और एक
सपने में डूब
जाओगे और तुम
कहोगे अच्छा
हुआ आ गये, चलो
मंदिर आ गये, पत्नी की
बड़ी इच्छा थी,
बात भी पूरी
हो गयी। और
तुम सोए भी
रहे। ऐसा भी
हो जाता है कि
नींद में ही
आदमी हाथ उठाकर
अलार्म घड़ी
बंद कर देता
है और सुबह
कहता है कि
हुआ क्या!
मुझे उठना था,
घड़ी बजी
क्यों नहीं?
नींद
में भी
तुम्हारा
निर्णय ही काम
करता है। जिसे
तुम अपना जीवन
कह रहे हो, यह ज्ञानियों
की दृष्टि से
एक
आध्यात्मिक
निद्रा है।
तुम जागना
चाहो, तो
कोई भी बहाना
काफी है। एक
सूखे पत्ते का
गिरना वृक्ष
से काफी है।
उससे तुम्हें
अपनी मौत की
याद आ जाएगी।
याद आ जाएगी
कि एक दिन
अपने को भी
गिर जाना होगा।
उतना जगाने के
लिए काफी है।
और अगर तुमने
निर्णय किया
है न जागने का,
तो अष्टावक्र
तुम्हारे
द्वार पर दुदुंभी
पीटते रहें, कुछ भी न
होगा। तुम
सुनोगे और
अनसुना कर
दोगे।
जिन
मित्र ने पूछा
है कि यह तो
यात्रा का
अंतिम दिन आ
गया, कितने
लोग यहां
ज्ञान को
उपलब्ध हुए? पहली तो बात
दूसरे के
संबंध में
पूछना ही अज्ञान
का सबूत है।
फिर, कोई
उपाय नहीं है
कि दूसरा ज्ञान
को उपलब्ध हुआ
या नहीं, इसे
तुम कैसे जानो।
पूछनेवाले
ने यह भी कहा
है कि अगर
हमें पता चल जाए
कितने लोग
उपलब्ध हुए, तो इससे
हमें भरोसा
आएगा।
अष्टावक्र
ज्ञान को
उपलब्ध हुए, इससे
तुम्हें
भरोसा नहीं
आया, कृष्ण
ज्ञान को
उपलब्ध हुए, इससे
तुम्हें
भरोसा नहीं
आया, बुद्ध
ज्ञान को
उपलब्ध हुए, इससे
तुम्हें
भरोसा नहीं
आया, राम, कबीर, नानक,
मुहम्मद, फरीद, इनसे
तुम्हें
भरोसा नहीं
आया और चूहड़मल—फूहड्मल
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएंगे तो
तुम्हें
भरोसा आ जाएगा?
तुम
कृष्ण से भी
पूछते रहे, बुद्ध से
भी पूछते रहे
कि कैसे हम
मानें कि आपको
हो गया है? और
मैं यह भी
नहीं कहता कि
तुम्हारा
पूछना अकारण
है। असल में
दूसरे का
ज्ञान दिखेगा
कैसे? अंधे
आदमी को कैसे
समझ में आएगा
कि दूसरे की आंख
ठीक हो गयी है?
मुझे कहो।
अंधा आदमी
कहेगा, जब
तक मुझे
दिखायी नहीं
पड़ता, यह
भी दिखायी
कैसे पड़ेगा कि
दूसरे की आंख
ठीक हो
गयी है? बहरे को
कैसे पता
चलेगा कि
दूसरे को
सुनायी पड़ने
लगा है? यह
तो सुनायी पड़े
तो ही सुनायी
पडेगा, दिखायी
पड़े तो ही
दिखायी पड़ेगा।
यह तुम
फिकर मत करो
कि दूसरों को
ज्ञान उपलब्ध
हो जाएगा तो
तुम्हें
भरोसा आ जाएगा।
भरोसा तो तुम्हें
तभी आएगा जब
तुम्हें
उपलब्ध होगा।
इसलिए मैं
तुमसे कहता हूं, तुम
भरोसे की
प्रतीक्षा मत
करो कि पहले
भरोसा आएगा तब
हम ज्ञान की
तरफ जाएंगे।
तब तो तुम कभी
भी न जाओगे।
क्योंकि
ज्ञान में जो
गया, उसे
भरोसा आता है,
अनुभव से
भरोसा आता है,
और तो कोई
उपाय नहीं है।
और जिसको तुम
भरोसा कहते हो,
वह धोखा है,
थोथा है।
विश्वास है, भरोसा नहीं।
आस्था नहीं, श्रद्धा
नहीं। मान
लेते हो कि
हुआ होगा! मान
लेते हो कि
कौन झंझट करे।
मान लेते .हो
कि कौन विवाद
में पड़े। या
कि मान लेते
हो क्योंकि
भीतर वासना है
कि कभी हमको
भी हो, इसलिए
मान लेते हैं
कि औरों को भी
हुआ होगा या
होता होगा।
मगर भरोसा आ
नहीं सकता।
कैसे आएगा? जिस आदमी ने
मधु का स्वाद
नहीं लिया, लाख लोग
कहते रहें कि
बहुत मीठा है,
बडा
स्वादिष्ट है
उसे कैसे
भरोसा आएगा? और जो आदमी
मधु को लेने
गया था और
उल्टा, मधु
तो मिला नहीं
मधुमक्खियों
ने चीथ डाला, उसको तुम
भरोसा
दिलवाओगे कि
मधु बड़ा मीठा
है? वह
कहेगा, क्षमा
करौ, अब और
न उलझाओ, एक
दफा झंझट में
पड़ गया तो
सारा शरीर सूज
गया था, दिनों
तक घर बिस्तर
में पड़ा रहा, मुझे तो एक
ही अनुभव आता
है कि बड़ा
कडुवा है। मधु
का स्वाद तो
मधुमक्खी के
डंक का स्वाद
ही उसे मालूम
होगा।
लाख
कोई तुमसे कहे
कि मुझे
परमात्मा का
दर्शन हो रहा
है, तुम
कहोगे, हमें
तो कंकड़—पत्थर
वृक्ष
इत्यादि
दिखायी पड़ते
हैं, परमात्मा
दिखायी नहीं
पड़ता।
तुम्हें वही
दिखायी पड़ेगा
जितना तुम देख
सकते हो।
दूसरे की तो
चिंता ही मत
करो। अपनी चिंता
करो, तुम्हें
हुआ या नहीं? शायद बात
कुछ और है, तुम
कह कुछ और रहे
हो। तुम्हारे
भीतर यह बात
खल रही है कि
मुझे हुआ नहीं,
अगर यह
पक्का हो जाए
कि किसी को भी
नहीं हुआ, तो
निश्चितता हो।
कि कोई हम ही
अकेले नहीं खो
रहे हैं, सभी
खो रहे हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
घर में आग लग
गयी। सारा
पडोस जल गया।
मैंने उससे
पूछा कि
नसरुद्दीन
बड़ा बुरा हुआ।
उसने कहा, कुछ खास
बुरा नहीं हुआ।
मैंने कहा, मामला क्या
है? उसने
कहा, अपना
क्या जला, पड़ोसियों
का देखो! अपने
पास था ही
क्या? झोपड़ा
था, जल गया।
पड़ोसियों के
महल जल गये! आज
ही तो मजा आया
कि अपने पास
झोपड़ा था, अच्छा
हुआ। सदा तो
यह पीड़ा रहती
थी कि इनके
पास महल है और
अपने पास
झोपड़ा है, आज
सुख मिला कि
अपने पास
झोपड़ा और इनके
पास महल! जला
तब पता चला, कि बडा मजा
आया! प्रभु की
बड़ी कृपा है।
आदमी
दूसरे से
सोचता है।
तुम्हें पता
चल जाए कि
किसी को नहीं
हो रहा है, तुम
निश्चित हो
गये। रोज तुम
अखबार पढ लेते
हो, देखते
हो कितनी जगह
डाके पड़े, कितने
लोग मारे गये,
कितना
युद्ध हुआ, कितनी
चोरियां हुईं,
कितने लोग
बेईमानी कर
रहे हैं, कितने
लोग पत्नियों
को ले भागे
किसी की, तुम
कहते हो—हम ही
भले। करते हैं
थोड़ा —बहुत, मगर इतना
थोड़े ही!
चित्त में बड़ी
शांति मिलती
है, सांत्वना
होती है।
तुम कह
तो यह रहे हो
कि पता चल जाए
कि दूसरों को हुआ
तो आस्था आए, भरोसा आए।
नहीं, तुम यह
जानना चाहते
हो कि किसी को
न हुआ हो, कहीं
भूल—चूक से
किसी को हो न
गया हो। किसी
को भी नहीं
हुआ है तो
निश्चित होकर
फिर चादर ओढ़
कर सो जाएं कि कोई
हम ही नहीं
भटक रहे हैं, सारी दुनिया
भटक रही है।
कुछ अड़चन नहीं
है।
तुम
अगर मुझसे
पूछते हो तो
मैं कहता हूं
कि सबको हो
गया है—सबको
था ही—और सबसे
मेरा मतलब यह
नहीं है कि जो
यहां हैं —कहीं
भी जो हैं।
परमात्मा सबको
मिली हुई
संपदा है। तुम
पहचानो या न
पहचानो, तुम उपयोग
करो न उपयोग
करो, तुम
पर निर्भर है।
तुम्हारे
भीतर हीरा पड़ा
है, टटोलो,
न टटोलो—बहुत
जन्मों तक न
टटोला तो शायद
भूल भी जाओ—मगर
इससे भी कुछ
फर्क नहीं
पड़ता।
मैं
तुमसे एक छोटी—सी
कहानी कहना
चाहता:
एक
बादशाह ने
अपने दरबारी
मसखरे को खुश
होकर
पुरस्कार में एक
घोड़ा दिया।
घोड़ा बड़ा
मरियल और
कमजोर था। चल
भी सकेगा, यह भी
संदिग्ध था।
मसखरा तो
मसखरा ठहरा, उसने सम्राट
से तो कुछ न
कहा, छलांग
मारकर घोड़े पर
सवार हो गया
और एक ओर चलने
की कोशिश करने
लगा या घोडे
को चलाने की
कोशिश करने
लगा। बादशाह
ने आवाज देकर
पूछा, बड़े
मियां, कहां
चल दिये? उसने
कहा, हुजूर,
जुम्मे की
नमाज पढ़ने जा
रहा हूं। पर
सम्राट ने कहा,
आज तो
सोमवार है।
उसने कहा, यह
घोड़ा जुम्मे
तक भी पहुंच
जाए मस्जिद तो
बहुत है! अभी
से चले तो ही
पहुंच पाएंगे।
और मस्जिद दो
कदम पर है।
घोड़ों घोड़ों
की बात है।
कौन
पहुंचा, नहीं पहुंचा,
इसकी फिकिर
छोड़ो। घोड़ों
घोड़ों की बात
है। मस्जिद दो
कदम पर थी, मैं
तुमसे कहता हूं, दो कदम पर भी
नहीं है।
अष्टावक्र कह
रहे हैं कि
तुम्हारे
भीतर है। और
कल पहुंचोगे
ऐसा भी नहीं
है, घडी भर
बाद पहुंचोगे
ऐसा भी नहीं
है, तत्क्षण,
इसी क्षण, जैसे बिजली
कौंध जाए ऐसे
क्रांति होती
है। आंख बंद
करके तुम अगर
भीतर देखो तो
अभी पहुंच गये,
इसी क्षण
पहुंच गये। कल
पर टालने का
प्रश्न ही
नहीं है। जनक
को हुआ, तुम्हें
हो सकता है, क्योंकि जनक
से रत्ती भर
भी तुममें कमी
नहीं है। मुझे
हुआ, तुम्हें
हो सकता है, क्योंकि
मुझसे रत्ती
भर भी तुममें
कमी नहीं है।
और अगर नहीं
हो रहा है, तो
याद रखना, तुमने
कहीं गहरे में
निर्णय कर रखा
है कि अभी होने
नहीं देना है।
शायद न होने
में तुम्हारा
कुछ न्यस्त
स्वार्थ है।
शायद न होने
में तुम अभी
सोचते हो, थोड़ा
और रस ले लें, थोड़ा और
टटोल लें, शायद
संसार में कुछ
हो, यह तो
फिर कभी भी कर
लेंगे।
लोग
मेरे पास आते
हैं, कहते
हैं, अभी
तो जिंदगी पडी
है। ध्यान
करना जरूर है,
लेकिन आखिर
में कर लेंगे।
अभी के थोड़े
ही हो गये, जब
बूढे हो
जाएंगे तब कर
लेंगे। और का
आदमी कभी बूढ़ा
नहीं होता।
बूढ़े —से —बूढे
को पूछो, तो
वह भी अभी सोच
रहा है कि अभी
तो दिन पड़े
हैं। मरते दम
तक आदमी सोचता
है, अभी तो
दिन हैं, अभी
कर लेंगे।
परमात्मा को
टालता जाता है,
और सब कर
लेता है। जो न
करने जैसा है,
कर लेता है,
जो करने
जैसा है, उसे
टालता जाता है।
यह तुम्हारा
निर्णय है।
तुम मालिक हो।
पाना चाहो तो
अभी पा सकते
हो, न पाना
चाहो तो
तुम्हें कोई
देनेवाला
नहीं है।
जनक पा
सका, क्योंकि
कोई अड़चन न
डाली। सीधा
उपलब्ध हो गया।
अष्टावक्र ने
कहा और उसने
सुन लिया।
सुनने में और
अष्टावक्र के
कहने में जनक
ने कोई
व्याख्या न की।
उसने ऐसा नहीं
सोचा, कल
करेंगे, उसने
ऐसा नहीं सोचा
कि पता नहीं
ठीक हो या न हो,
उसने ऐसा भी
नहीं सोचा कि
यह हो भी सकता
है! यह संभव भी
है! अनूठा
प्रेम रहा
होगा जनक को।
उसके भीतर
अष्टावक्र के
प्रति अपूर्व
भाव का जन्म
हुआ होगा।
अष्टावक्र की
मौजूदगी
पर्याप्त
प्रमाण रही
होगी। और उसने
कोई प्रमाण न
मांगा। यही तो
अर्थ है शिष्य
होने का। गुरु
की मौजूदगी
प्रमाण हो, और कोई
प्रमाण न
मांगा जाए।
अगर तुमने औंर
कोई प्रमाण
मांगा, तो
तुम शिष्य
नहीं हो, विद्यार्थी
हो सकते हो।
शिष्य का इतना
ही अर्थ है कि
तुम प्रमाण हो।
तुम्हारी
मौजूदगी
प्रमाण है।
तुम्हें हो
गया, आ गया।
तुमने कहा, बात हो गयी।
हम पूरी तरह
सुन लेते, हम
रत्ती भर
इसमें इधर—उधर
डावाडोल न
होंगे।
लेकिन
कुछ कहा जाता
है, कुछ
तुम सुन लेते
हो। तुम जो
सुनना चाहते
हो, वही
सुन लेते हो।
ऐसा
हुआ। सड़क —दुर्घटना
में चंदूलाल
को घातक चोटें
आयीं। एक कार
वाले ने
उन्हें अपनी
कार में डाला
और पास ही के
एक निर्जन से
स्थान पर छोड़कर
आगे बढ़ गया।
एक तो चोटें
खाया हुआ आदमी, जब इस कार
वाले ने
उन्हें अपनी
कार में डाला,
तो वह थोड़ी
हिम्मत बढ़ी
उसकी और जब
स्वात स्थान
में इन्हें
छोड़ कर आगे बढ़
गया तो
चंदूलाल भी
बहुत चकित हुआ
कि मामला क्या
है! बोलने तक
की हिम्मत न
थी, जीवन—ऊर्जा
बिलकुल क्षीण
हो गयी, खून
बहुत बह गया।
छानबीन के
दौरान अदालत
में उस आदमी
को भी बुलाया
गया, वह
आदमी था
मुल्ला
नसरुद्दीन।
मजिस्ट्रेट
ने उससे पूछा
कि बड़े मियां,
जब
तुम्हारे पास इतना
समय नहीं था
कि घायल को
अस्पताल तक ले
जा सकते, तो
उसे एक निर्जन
स्थान तक लाकर
छोड़ने का क्या
आशय था? मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, हुजूर,
वजह यह थी
कि घटनास्थल
के सामने लगे
बोर्ड पर मेरी
नजर पड़ी तो उस
पर लिखा था, मौत को सड़क
से दूर रखिये।
तो मैंने कहा,
जो मुझसे बन
सके वह करना
चाहिए। यह
आदमी मरने को
था और सड़क पर
मौत होती, यह
सोचकर मैंने
मौत को सड़क से
दूर रख दिया।
स्वात स्थान
पर छोड़कर मैं
अपने घर गया।
घंटा भर लगा
हुजूर! सड्कों
पर ऐसे —ऐसे
बोर्ड लगे
हैं!
आदमी
वही पढ़ लेता
है जो पढ़ना
चाहता है।
आदमी अपने को
पढ़ लेता है, आदमी
अपने को सुन
लेता है, आदमी
अपनी
व्याख्या
निकाल लेता है।
तुम जब सुन
रहे हो, सुन
कहां रहे हो!
और हजार काम
कर रहे हो। मन
में न—मालूम
कितने विचार
चल रहे हैं।
उन विचारों की
तरंगों को पार
करके मैं
तुमसे जो कह
रहा हूं वह
पहुंच पाएगा?
तुम
पहुंचने नहीं
देते। तुम
हजार—हजार बीच
में पर्दे खड़े
किये हो, उनसे
छन—छन कर जब
किसी तरह बात
पहुंचती है तो
इतनी बदल जाती
है कि किसी
काम की नहीं
रह जाती। उससे
कोई क्रांति
नहीं घटती।
दवा इतने जल
में मिल जाती
है कि उसका
सारा असर खो
जाता है।
सुनने का अर्थ
है—जब
अष्टावक्र
कहते हैं, श्रवणमात्रेण,
तो उनका
अर्थ है—ऐसे
सुनो जैसे
तुम्हारे
भीतर एक भी
पर्दा नहीं है,
हृदय को
खोलकर सुनो।
जैसा प्यासा
पानी को पीता
है ऐसा गुरु
को पी जाओ। तो
घटना घटती है।
और तब जनक
जैसी घटना घट
जाती है।
आज जनक
का अंतिम
सूत्र है। इस
अंतिम सूत्र
में जनक आखिरी
ऊंचाई लेते
हैं। शिष्य
जिस आखिरी
ऊंचाई तक
पहुंच सकता है, जहां
पहुंचकर
शिष्य शिष्य
नहीं रह जाता
और गुरु में
लीन हो जाता
है। जो भी वह
कह रहे हैं, वह वही है जो
अष्टावक्र ने
कहा था, फिर
भी पुनरुक्ति
नहीं है। कह
तो वही रहे
हैं जो
अष्टावक्र ने
कहा था, लेकिन
अपने प्राणों
में उसे
पुनरुज्जीवन
दिया है। उन
शब्दों में
अपने प्राण
डाल दिये हैं।
वह जो गुरु का
है, वह
गुरु को ही दे
रहे हैं, कुछ
नया नहीं है, लेकिन
मुर्दा
नहीं दे रहे
हैं, उसे
जीवंत करके दे
रहे हैं।
ऐसा ही
समझो कि एक
प्रेमी अपनी
प्रेयसी को
गर्भिष्ट कर
देता है। तो
प्रेमी से
नवजीवन का
अंकुर
प्रेयसी में
जाता है। फिर
प्रेयसी नौ
महीने के बाद
उसी अंकुर को
नये —नये जीवन, नयी—नयी
महिमा से भरकर
वापिस लौटाती
है। प्रेमी
पहचान भी न
सकेगा, यह
वही बीज है जो
प्रेमी ने
दिया था। वह
बीज तो बड़ा
छोटा था। और
वह बीज तो कोई
बहुत जीवंत न
था। अपने— आप
रहता तो घडी—दो
—घडी में मर
जाता। दो घंटे
से ज्यादा
नहीं जी सकता
था। वीर्य —
अणु दो घंटे
से ज्यादा
नहीं जी सकता।
बड़ी छोटी—सी
उसकी जीवन—लीला
है। और बड़ी
धीमी—सी ऊर्जा
है, जरा—सी
ऊर्जा है। जरा—सी
ऊर्जा दी थी, प्रेयसी ने
उसे संभाला, वह जरा—सी
ऊर्जा विराट
ऊर्जा बनी। एक
नये बच्चे, एक नये
अतिथि का आगमन
हो गया। और जब
प्रेमी अपने
बच्चे को
देखता है तो
भरोसा भी नहीं
कर सकता कि यह
बच्चा किसी
दिन मेरे ही
भीतर से एक
बीज के रूप
में गया था।
वही है, और
फिर भी वही
नहीं है। वही
है, बहुत
होकर वही है।
वही है, और
विराट होकर
वही है।
प्रेयसी ने
वही का वही
नहीं लौटा
दिया है।
एक
सम्राट अपने
बेटों में तय
करना चाहता था, किसको
राज्य का
मालिक बनाऊं।
तो उसने अपने
बेटों को एक—एक
बोरे फूलों के
बीज दिये और
कहा, तुम
संभाल कर रखना,
मैं
तीर्थयात्रा
को जा रहा हूं?
वर्ष लगें,
दो वर्ष
लगें, जब
लौटूंगा तब ये
बीज मैं तुमसे
वापिस चाहता हूं।
संभाल कर रखना,
इस पर
तुम्हारा
भाग्य निर्भर
है। क्योंकि
जो व्यक्ति इन
बीजों को ठीक
से, सम्यकरूपेण
लौटा देगा, वही मेरे
राज्य का
मालिक होगा।
तीनों
बेटे बड़े
विचार किये, बड़े
हिसाब लगाये।
एक बेटे ने सोचा
कि कहीं खो
जाएं, कहीं
गुम जाएं, चोरी
चले जाएं, कुछ
हो जाएं, झंझट
हो जाए, तो
राज्य गंवा
बैठूंगा। तो
उसने तिजोड़ी
में बीज बंद
करके खूब बड़े
ताले लगाकर
कुंजियां
संभालकर रख
लीं।
होशियारी तो
दिखायी, लेकिन
कई दफा
होशियारी बड़ी
मूर्खतापूर्ण
हो जाती है।
अब बीज तिजोडियो
में बंद नहीं
किये जाते।
बीज सड़ गये जब
तक बाप आया।
जब निकाला तो
वहां से बदबू
निकली। बीज तो
निकले नहीं, राख का ढेर
निकला। और
सड़ाध और बास।
जो फूल बन
सकते थे वह
दुर्गंध बन
गये, जो
सुगंध बन सकते
थे वह दुर्गंध
बन गये। एक
अर्थ में लड़के
ने बचाया, लेकिन
अकल न थी, समझ
न थी।
दूसरे
लड़के ने सोचा
कि यह झंझट का
काम है बीजों
को घर में
रखना, पता
नहीं कब लौटे
कब न लौटे, इनको
बाजार में बेच
दो, पैसा
संभालकर रख लो।
जब बाप आएगा, बाजार से
फिर बीज
खरीदकर दे
देंगे। यह
दूसरे से थोड़ी
ज्यादा
बुद्धिमानी
थी, लेकिन
फिर भी बहुत
बुद्धिमानी न
थी। बीज तो
उसने बेच दिये,
पैसे
संभालकर रख
लिए। पैसे
संभालकर रखना
सदा आसान है।
इसलिए तो लोग
पैसे को इतना
संभालकर रखते
हैं। और सब
बेच देते हैं,
पैसे को
संभालकर रख
लेते हैं।
क्योंकि पैसे
में सभी कुछ
संचित है। जब
मौका होगा, खरीद लेंगे,
फिर खरीद
लेंगे।
तुम्हारी
जेब में एक
रुपया पड़ा है, बहुत—सी
चीजें पड़ी हैं।
अभी चाहो तो
एक आदमी आकर
सिर पर मालिश
करे, वह भी
तुम्हारी जेब
में पड़ा है।
अभी चाहो तो
एक गिलास दूध
आ जाए, वह
भी तुम्हारी
जेब में पडा
है। हजार काम
हो सकते हैं
एक रुपये से।
सब विकल्प
मौजूद हैं। अब
इतनी चीजें
अगर तुम जेब
में रखकर चलो
तो बडी मुश्किल
होगी—कि एक चंपीवाले
को भी जेब में
रख हैं, दूध
की बोतल भी
इधर ही, बहुत
मुश्किल हो
जाएगी। चल न
पाओगे, जिंदगी
दूभर हो जाएगी।
एक रुपया पड़ा
है, उसमें
कई चीजें पड़ी
हैं, जब
जैसी जरूरत
हुई, उपयोग
कर लिया।
चौपाटी पहुंच
गये, चंपी
करवा ली। कि
दूध पी लिया।
कि गरीब को
दान दे दिया।
कुछ भी हो
सकता है।
रुपये में
हजार विकल्प
की संभावना है।
रुपये में बड़ी
स्वतंत्रता
है।
तो
उसने सोचा कि
बीज कभी भी
खरीद लेंगे, बीज की
क्या दिक्कत
है! रुपये
संभालकर रख
लिए। लेकिन
बाप जब आया तो
वह भागा बाजार।
बाप ने कहा कि
नहीं, जो
मैंने दिये थे
वही वापिस
चाहिए। यह तो
शर्त ही थी कि
जो दिये थे
वही वापिस। यह
तो बात ही न थी
कि तू इनको
बेचेगा
खरीदेगा। यह
तो तूने मेरी
अमानत को
सुरक्षित न
रखा।
तीसरे
बेटे ने सोचा
कि बीज कोई
वस्तु थोड़े ही
है, बीज
तो संभावना है।
समझो।
बीज कोई वस्तु
नहीं है, बीज तो एक
प्रक्रिया है।
बीज तो एक
संभावना है, फूल होने की
एक यात्रा है।
बीज तो एक
तीर्थयात्रा
है, एक
प्रॉसेस। बीज
कोई चीज नहीं
है। कंकड़ एक
चीज है, क्योंकि
कंकड़ न बढ़ता, न बडा होता, न कुछ हो
सकता, जो
होना था हो
चुका है। कंकड़
मुर्दा है, बीज जीवंत
है। जीवन की
प्रक्रिया है।
उसने सोचा, जीवन की
प्रक्रियाओं
को तिजोडियों
में बंद नहीं
किया जाता, अन्यथा वे
मर जाती हैं।
और जीवनों को
बेचा नहीं
जाता। बेचने
में तो बड़ी
निर्दयता है।
तो क्या किया
जाए?
तो
उसने जाकर
बगीचे में बीज
बो दिये। जब
बाप तीन साल
बाद लौटा, तो एक
बोरे की बात
हजारों बोरे
बीज थे! और जब
बाप को ले
जाकर उसने
दिखाया और
उसने कहा कि
ये रहे आपके
बीज, तो
बाप ने कहा, मैं खुश हूं।
क्योंकि अगर
बीज दिये जाएं
तो उसका अर्थ
ही यह है कि
उनको बढाकर
लौटाना। बीज
का अर्थ ही यह
है कि बड़ा
करके लौटाना।
तू मेरे राज्य
का मालिक है।
तेरे हाथ में
राज्य दूंगा
तो बढ़ेगा, फैलेगा।
पहले के हाथ
में तिजोड़ी
में बंद होगा,
मर जाएगा।
दूसरे के हाथ
में बिक जाएगा।
तेरे हाथ में
बढ़ेगा, समृद्ध
होगा, विस्तीर्ण
होगा, बड़ा
होगा। तू
मालिक। तू
प्रक्रिया को
समझा।
अष्टावक्र
ने जो बीज
दिये हैं जनक
को, जनक
ने उनको जन्म
दे दिया। बीज
अनूठे थे और
अनूठा उनसे
जन्म हुआ।
खयाल
करना, तुम
बड़े अजीब हो, तुम कभी
व्यर्थ के
बीजों को तो
खूब संभाल
लेते हो और
सार्थक बीजों
को छोड़ते चले
जाते हो। एक
आदमी राह से
जा रहा है और
गाली दे देता
है, तुम
गाली को संभाल
कर रख लेते हो,
जैसे कोई
महामंत्र है।
इसको तुम
वर्षों
संभालकर
रखोगे। इसको
बीस साल बीत
जाएंगे तो भी
तुम ताजा रखोगे।
हरी रहेगी यह
बात। बीस साल
के बाद भी यह
आदमी दिखेगा
तो गाली फिर जिंदा
हो जाएगी। फिर
मरने —मारने
का मन होने
लगेगा। घाव को
तुम भरने न दोगे,
उधेड़ते
रहोगे। घाव
में मवाद पड़ती
ही रहेगी। घाव
सड़ता रहेगा।
नासूर बनता
रहेगा।
गाली
को तो ऐसा
संभालकर रख
लेते हो, लेकिन अगर
अष्टावक्र
जैसा कोई वचन
देने वाला मिले,
पहले तो तुम
सुनते ही नहीं,
सुन भी लो
तो भूल जाते
हो। बीस साल
की बात पूछ
रहे हो, दो
घंटे बाद तुम
वही न कह
सकोगे जो कहा
गया है। ही, गाली तुम
बीस साल बाद
भी वैसी की
वैसी दोहरा दोगे,
उसमें
तुम्हारी
कुशलता बड़ी है।
फिर तुम जो
संभालते हो, उसी से
तुम्हारा
जन्म होता है, वही तुम
बनते हो। तो
अगर जीवन के
अंत में तुम
कुरूप हो जाते
हो, जीवन
के अंत में अगर
तुम बेढंगे हो
जाते हो, व्यर्थ
हो जाते हो, तो कुछ
आश्चर्य तो
नहीं है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
शादी की। तो
उसको बच्चा
नहीं होता था।
तो डाक्टरों
ने कहा कि
आपरेशन करवा
लें और बंदर
की ग्रंथि
लगानी पड़ेगी।
तो मुल्ला ने
कहा, कुछ
भी हो, बच्चा
होना चाहिए।
बंदर की
ग्रंथि लगवा
ली। फिर बड़ा
खुश हुआ और
बड़ी मिठाइयां
बांटी, क्योंकि
पत्नी
गर्भवती हो
गयी। और बड़े
बैडंबाजे
बजवाए। फिर नौ
महीने भी पूरे
हो गये। फिर
पत्नी
अस्पताल में
भर्ती हुई।
मुल्ला
दरवाजे पर खड़ा
आतुरता से
प्रतीक्षा कर
रहा है, उसका
दिल धड़क रहा
है। डाक्टर
बाहर आया, तो
उसने पूछा कि
डाक्टर साहब,
लड़का हुआ कि
लड़की? उसने
कहा, भई, ठहरो जरा! जो
भी हुआ है
छलांग मार कर
सीलिंग फैन पर
चढ़ गया है।
उतरे तो पता
लगाएं कि लड़का
है कि लड़की।
अब बंदर की
ग्रंथि
लगवाओगे, तो
तुम और ज्यादा
आशा कर भी
नहीं सकते!
तुम्हारे
जीवन में अगर
सिर्फ रोग ही
रोग हाथ में
आता है और
तुम्हारे
जीवन में अगर
दुर्गंध ही
दुर्गंध मिलती
है और दुख ही
दुख मिलता है
तो कुछ आश्चर्य
नहीं है, सीधा—साधा
गणित है। तुम
गलत बीजों को
इकट्ठा करते
हो। तुम घास—पात
तो इकट्ठा कर
लेते हो, फूलों
को नष्ट कर
देते हो। जनक
ने फूलों को
संभाल लिया।
बड़ी अपूर्व
सुगंध पैदा
हुई। उसी
सुगंध के आज
अंतिम सूत्र
हैं। पहला
सूत्र—
क्व
प्रमाता
प्रमाणं वा क्व
प्रमेयं क्व
च प्रमा।
क्व
किंचित् क्व
न किचिद्वा
सर्वदा
विमलस्य मे।।
'सर्वदा
विमलरूप
मुझको कहां
प्रमाता है और
कहां प्रमाण
है? कहां
प्रमेय है और
कहां प्रमा है?
कहां
किंचित है और
कहां अकिचित
है?'
प्रमाता
का अर्थ होता
है—ज्ञाता; प्रमाण
का अर्थ होता
है —ज्ञान के
साधन, जिनसे
ज्ञान
उत्पन्न होता,
प्रमेय का
अर्थ होता है—जो
जाना जाए, ज्ञेय,
प्रमा का
अर्थ होता है —ज्ञान।
जनक कह रहे
हैं कि अब न तो
मुझे कुछ ज्ञान
जैसा है, न
मेरे भीतर
ज्ञाता जैसा
कुछ बचा, न
कुछ ज्ञेय शेष
रहा, न ज्ञान
के कुछ साधन
बचे। ये सारे
भेद तो अज्ञान
के हैं।
अब तुम
समझना, यह बड़ी क्रांतिकारी
बात है।
अगर
तुम पंडितों
से पूछो तो वे
कहेंगे, ये भेद ज्ञान
के हैं।
प्रमाता, प्रमाण,
प्रमेय, प्रमा।
प्रमा का अर्थ
होता है—ज्ञान।
प्रामाणिक ज्ञान
का नाम प्रमा।
जिससे प्रमा
सिद्ध हो, वह
प्रमाण।
जिसके ऊपर
सिद्ध हो, वह
प्रमाता।
जिसके संबंध
में सिद्ध हो,
वह प्रमेय।
यह तो ज्ञान
का विभाजन है,
इसको तो
पूरा—पूरा
इपेस्टोमोलाजी,
ज्ञानमीमांसा
कहते हैं। और
जनक कह रहे
हैं, अब यह
कुछ भी नहीं
बचे। न कोई
जानने वाला है,
न कुछ जाना
जानेवाला। दो
तो गये, तो
अब कैसा
सब्जेक्ट, कैसा
आब्जेक्ट! अब
कैसा ज्ञाता
और कैसा ज्ञेय।
अब कौन
द्रष्टा और
कैसा दर्शन!
दो तो रहे
नहीं। यह तो
दो हों तो ये
बातें घट सकती
हैं। जब एक ही
बचा तो कौन
जाने, किसको
जाने, कैसे
जाने, क्या
जाने। ज्ञान
की अंतिम घडी
में ज्ञान भी
समाप्त हो
जाता है, यह
इस सूत्र का
मूल है।
इसलिए
तो सुकरात ने
अंतिम क्षणों
में कहा, मैं कुछ भी
नहीं जानता
हूं। उपनिषद
कहते हैं जो
कहे मैं जानता
हूं, जान
लेना कि नहीं
जानता। और जो
कहे कि मैं
नहीं जानता
हूं पकड़ लेना
उसका पीछा, वहां कुछ है।
उसे कुछ मिला
है। लाओत्सु
ने कहा है, सत्य
को मैं न
कहूंगा, क्योंकि
कहा कि चूक हो
जाएगी। सत्य
कहते ही झूठ
हो जाता है।
क्यौंकि कहने
में दावा हो
जाता है, कहने
वाला आ जाता
है। तो मैं सत्य
को न कहूंगा, मैं चुप ही
रहूंगा। मैं
मौन ही रहूंगा।
तुम मेरे मौन
से ही समझ लो
तो ठीक।
परम
सदगुरु हुआ, रिंझाई।
उससे एक
सम्राट ने
पूछा है कि
मुझे कुछ
मार्ग बता दें।
कैसे पहुंचूं
सत्य तक? तो
रिंझाई चुप
बैठा रहा, देखता
रहा, देखता
रहा सम्राट को,
सम्राट जरा
बेचैन हो गया।
उसने कहा, महानुभाव,
क्या आपने
सुना नहीं
मैंने क्या
पूछा रम मैंने
पूछा कि सत्य
को पाने का
कोई मार्ग बता
दें। फिर भी
रिंझाई चुप
रहा। सम्राट
ने अपने वजीर
से कहा कि यह
सज्जन सुनते
हैं कि नहीं? कान वगैरह
खराब तो नहीं
हैं। वजीर ने
कहा कि नहीं, कोई कान
खराब नहीं है,
वह बराबर
सुन रहे हैं, उत्तर भी दे
रहे हैं।
सम्राट ने कहा,
यह कैसा
उत्तर हुआ? रिंझाई ने
कहा कि तुमने
बात ही ऐसी
पूछी है कि उसका
उत्तर चुप
रहकर ही हो
सकता है।
सम्राट ने कहा,
मैं न
समझूंगा, यह
बात मैं न
समझूंगा। चुप
रही सूचना
मेरे पकड़ में
न आएगी, तुम
कुछ बोलो।
तो
रिंझाई ने, रेत पर
बैठा था, सामने
ही लकड़ी उठाकर
लिख दिया, ध्यान।
सम्राट ने कहा
कि कुछ और
थोड़ा विस्तार
करो। ध्यान, बस इतना कह
दिया काम हो
जाएगा? तो
रिंझाई ने
दुबारा लिख
दिया और बडे
अक्षरों में—
ध्यान।
सम्राट ने कहा
कि आपका दिमाग
ठीक है? मैं
पूछता हूं,
थोड़ा विस्तार
करो। तो
रिंझाई ने
बहुत बड़े —बड़े
अक्षरों में
लिख दिया—ध्यान।
और जब सम्राट
ने कहा कि
नहीं, मेरी
समझ में इतने
से न आएगा। तो
रिंझाई ने कहा—तुम
क्या मेरी
बदनामी
करवाकर रहोगे? अब मैं
ज्यादा बोला
तो फंस जाऊंगा।
इतना ही काफी
हो गया फंसने
के लिए। चुप
था, तब तक
सत्य के
बिलकुल निकट
था, जो कह
रहा था चुप से,
वह बिलकुल
सत्य था। फिर
जब ध्यान लिखा
तो कुछ तो
असत्य हो गया।
जब और बड़ा
लिखा तो और
असत्य हो गया।
जब और बड़े में
लिखना पड़ा तो
और असत्य हो
गया। अब अगर
मैं बोला, और
विस्तार किया,
तो मुश्किल
हो जाएगी।
बुद्ध
बोले हैं, अष्टावक्र
बोले हैं, लेकिन
ध्यान रखना—उनके
बोलने की सारी
चेष्टा ऐसे ही
है जैसे पैर
में एक काटा
लगा हो तो
दूसरे काटे से
निकाल देना।
दूसरे काटे का
कोई मूल्य
नहीं है, बस
पहला काटा
निकल गया कि
दूसरा भी पहले
ही जैसा
व्यर्थ है।
दोनों कौ फेंक
देना है। ऐसा
नहीं है कि
दूसरे को
संभालकर रख
लेंगे छाती
में, मंदिर
बनाएंगे
दूसरे के लिए,
पूजा
करेंगे कि यह
काटा बडा
अदभुत है, इसने
कांटे से
बचाया। दूसरा
भी काटा है।
शब्द
से शब्द को
निकाल लेना है, ताकि
पीछे निःशब्द
रह जाए।
जनक
कहते हैं, अब न कोई
जाननेवाला, न कुछ जाना
जानेवाला, न
कोई प्रमाण, न कोई प्रमा।
ज्ञान गया। जब
ज्ञान चला जाए,
तभी ज्ञान
है।
अब
समझो।
साधारण
हालत तो ऐसी
है कि ज्ञान
तो बिलकुल नहीं, लेकिन
दावा हर एक को
है कि हम
जानते हैं।
तुम्हें ऐसा
आदमी मिलेगा
जो कहे कि मैं
नहीं जानता? मूढ़ से मूढ़
भी यही कहेगा,
मैं जानता
हूं। जानने का
दावा कौन
छोड़ता है! तुम
जब नहीं भी जानते
तब भी तुम
जानने का दावा
करते हो। कोई
तुमसे पूछता
है, ईश्वर
है? तुम्हें
जरा—सा भी पता
नहीं है, तुम्हें
जरा भी खबर
नहीं है, तुम
कहते हो—हा, है। तुम
मरने—मारने को
तैयार हो जाते
हो, उस पर
जिसका
तुम्हें कुछ
भी पता नहीं
है। तुमने कभी
सोचा तुम क्या
कह रहे हो?
मेरे
गांव में एक
वैद्यराज थे।
उनका मेरे घर
से लगांव था
बहुत, और
अक्सर मैं
उनके वहां
जाता। उनको रस
था उपनिषद, वेद पढ़ने
में। और वे
सदा शिक्षा
देते रहते कि
सच बोलो, सच
बोलो। मैंने उनसे
पूछा एक दिन, ईश्वर है? मैं उनसे
दादा कहता, मैंने कहा—दादा,
ईश्वर है? उन्होंने
कहा, है।
मैंने कहा, सच बोल रहे
हैं? वे
थोड़े घबडाए।
ईमानदार आदमी
थे। छोटे
बच्चे को भी
धोखा नहीं दे
सके।
उन्होंने कहा,
तो फिर मैं
जरा सोचूंगा।
मैंने कहा, सोचना क्या
है? या तो आपको
पता है, या
आपको पता नहीं
है। इसमें
सोचना क्या है?
पता हो तो
कह दें कि पता
है, मैं
मान लूंगा।
पता न हो तो कह
दें कि पता
नहीं है। तो
उन्होंने कहा,
झूठ तुझसे
नहीं बोल
सकूंगा, मुझे
पता तो नहीं
है। तो फिर
मैंने कहा, अब दो में से
कुछ एक तय कर
लें, या तो
यह सच बोलना
चाहिए यह बात
आप बंद कर दें।
आप निरंतर
उपदेश दे रहे
हैं कि सच
बोलना चाहिए।
और या फिर सच
बोलना शुरू
करें।
जब मैं
चलने लगा, उन्होंने
कहा, सुन!
जो मैंने
तुझसे कहा, किसी और को
मत बताना।
क्योंकि उनकी
सारी
प्रतिष्ठा इस
पर थी। गांव
भर उनको मानता,
आदर देता कि
वे जानी हैं।
किसी और से मत
कहना! मैंने
कहा, यह
किस प्रकार का
सच हुआ? अगर
आपको पता नहीं,
तो कह दें, कम—से—कम सच
ही के तो पीछे
चलें। सच के
पीछे
चलनेवाला
शायद कभी
परमात्मा तक
पहुंच जाए।
लेकिन झूठ
परमात्मा के
संबंध में जो
बोल रहा है, वह तो कैसे
कहीं पहुंचेगा!
कम—से —कम इतनी
सचाई तो हो।
लेकिन
बहुत कठिन है।
अगर तुमसे कोई
पूछे, तो
उत्तर दिये
बिना नहीं रहा
जाता। एक बड़ी
उत्तेजना
उठती है कि
उत्तर देना ही
है, क्योंकि
नहीं तो लोग
समझेंगे कि
तुम जानते ही नहीं
हो। और ध्यान
रखना, अज्ञानी
दावा करता है ज्ञान
का और ज्ञानी
कोई दावा नहीं
करता।
अज्ञानी ही
दावा करता है।
ज्ञानी का
दावा नहीं है,
ज्ञानी
दावेदार नहीं
है।
इसलिए
बुद्ध चुप रह
गये। जब लोगों
ने पूछा, ईश्वर है? तो बुद्ध
चुप रह गये।
हिंदुस्तान
के पंडितों ने
यह घोषणा की
कि बुद्ध को
पता नहीं है, इसलिए चुप
हैं।
हिंदुस्तान
के पंडितों ने
बुद्ध के धर्म
को उखाड़कर
फेंक दिया, ब्राह्मणों
ने टिकने न
दिया।
क्योंकि उनके
लिए एक बड़ी
सहूलियत की
बात मिल गयी।
लेकिन उनको
पढ़ना चाहिए
अष्टावक्र को,
सुनना
चाहिए जनक के
वचन। उन्हें
अपने
उपनिषदों में
ही खोज करनी
चाहिए। बुद्ध
जो व्यवहार कर
रहे थे चुप
रहकर, वह
शुद्धतम
उपनिषद का
व्यवहार है।
उन्होंने
नहीं उत्तर
दिया, क्योंकि
बुद्ध ने जाना,
जो भी उत्तर
दिया जाएगा, गलत होगा।
उत्तर मात्र
में यह दावा आ
जाएगा कि मैं
जानता हूं —ही
कहूं, या न
कहूं। मैं
कहां? जानना
कहां? जानने
को शेष क्या? ऐसी परम
शून्यता की जो
दशा है। और तब
जनक कहते हैं,
कहां
किंचित और कहां
अकिचित! अब
ऐसा भी नहीं
है कि थोडा
जानता हूं और
थोड़ा नहीं
जानता—कहां
किंचित, कहां
अकिचित?
इस बात
को भी समझना।
तुम कई
दफा किसी से
कहते हो कि
मुझे तुमसे
बहुत प्रेम है।
तुमने शायद
कभी विचार
नहीं किया।
प्रेम भी बहुत
और थोड़ा हो
सकता है? प्रेम होता
है या नहीं
होता, यह
बात समझ में
आती है, लेकिन
थोड़ा और
ज्यादा कैसे
होता है ?
प्रेम थोड़ा और
ज्यादा कैसे
हो सकता है? शायद तुमने
बहुत सोच—विचार
कर नहीं बात
कही। शायद
तुमने बहुत
होशपूर्वक
नहीं कही। यह
तो ऐसे ही हुआ
कि कोई आदमी
एक लकीर खींच
दे और कहे कि
यह आधा वर्तुल
है। आधा
वर्तुल नहीं
होता, वर्तुल
तो तब होता है,
तब पूरा ही
होता है। अगर
आधा है वर्तुल
तो वर्तुल
नहीं है, लकीर
ही है। कुछ और
होगा, वर्तुल
नहीं है।
शून्य आधा
थोड़े ही होता
है। कम—ज्यादा
थोड़े ही होता
है। पूर्ण भी
कम —ज्यादा
थोड़े ही होता
है, पूर्ण
ही होता है।
जीवन में जो
परम मूल्य हैं,
उनके खंड़
नहीं होते।
इसलिए
जनक कहते हैं, कहां
किंचित और
कहां अकिचित?
अब न तो मैं
यह कह सकता
हूं कि मैंने
थोड़ा पाया, न मैं यह कह
सकता हूं कि
मैंने ज्यादा
पाया। तुलना,
सापेक्षताएं,
मात्राएं, सब खो गयीं।
एक गुणात्मक
रूपातरण हुआ,
एक क्रांति
हुई। पुराना
सब गया, उससे
जरा भी संबंध
नहीं रहा। और
जो नया हुआ है,
वह इतना नया
है कि उसको
पुरानी भाषा
में ढाला नहीं
जा सकता।
पुराने और नये
में सारे
संबंध
विच्छिन्न हो
गये हैं।
सातत्य टूट
गया है।
एक ही
बच रहता है।
इसलिए ज्ञान
के, द्वैत
के सब संबंध
विलीन हो जाते
हैं।
झुका
हर माथ है तब
तक
तुम्हारा
साथ है जब तक
सिद्धि
हो तुम शक्ति
भी हो
त्याग
भी आसक्ति भी
हो
वंदना
हो वंद्य भी
हो
गीत
हो तुम गद्य
भी हो
अभय
हूं सीस पर
मेरे
तुम्हारा
हाथ है जब तक
गान हो
तुम गेय भी हो
प्राण
हो तुम प्रेय
भी हो
सिद्धि
हो तुम साधना
भी
ज्ञान
हो तुम ज्ञेय
भी हो
राग
हो तुम रागिनी
भी
दिवस
हो तुम यामिनी
भी
क्यों
ड़रूं मैं घन
तिमिर से
कृपा
का प्रात है
जब तक
ध्यान
हो ध्यातव्य
भी हो
कर्म हो
कर्तव्य भी हो
तुम्हीं
में सब समाहित
है
चरण हो
गंतव्य भी हो
दान हो
तुम याचना भी
तृप्ति
हो तुम कामना
भी
अमर बन
कर रहूंगा मैं
तुम्हारा
गात है जब तक
एक ही
बच रहता। भक्त
उस एक को कहता
है, भगवान।
प्रेमी उस एक
को कहता है, परमात्मा।
ज्ञानी उस एक
को कहता है, शून्य, पूर्ण,
सत्य। जनक
की भाषा
ज्ञानी की
भाषा है, यह
जो मैंने गीत
कहा यह भक्त
की भाषा है।
भक्त अपने को
डुबा देता, परमात्मा को
बचा लेता। ज्ञानी
स्वरूप को बचा
लेता और सब
डुबा देता।
इसलिए इन
वचनों से
घबड़ाना मत, क्योंकि ये
ज्ञानी के वचन
हैं। इनमें
धीरे — धीरे
परमात्मा भी
खो जाएगा। और
अंतिम बड़ी में
गुरु भी खो
जाएगा। रह
जाएगा शुद्ध
चिन्मात्र।
मगर यह वही
दशा है जिसको
भक्त भगवान की
अवस्था कहता
है, भगवत्ता
कहता है।
'सर्वदा
क्रियारहित
मुझको कहीं न
विक्षेप है और
कहीं न
एकाग्रता है।
कहां बोध है
और कहां मूढ़ता
है, कहां
हर्ष और कहां
विषाद।’
क्व
विक्षेप: क्व
चैकाग्रयं क्व
निर्बोध: क्व
मूढ़ता।
क्व
हर्ष: क्व
विषादो वा
सर्वदा
निष्कियस्य
मे।।
मैं
सदा
क्रियारहित हूं, मुझ
क्रियारहित
में अब कोई भी
क्रिया नहीं
है—एकाग्रता
तक की क्रिया
नहीं है—तो
ज्ञान कैसे हो?
मुझ
निक्तिय में
अब कोई
विक्षेप नहीं
है, कोई
विचार नहीं है,
कोई तरंग
नहीं है, तो
बोध कैसे हो? मगर ध्यान
रखना, जनक
कह रहे हैं कि
न तो मैं
ज्ञानी हूं और
न मैं मूढ़ हूं।
क्योंकि मूढ़
और ज्ञानी
होना एक साथ
चलते हैं।
अज्ञानी होना
और ज्ञानी
होना एक साथ
चलते हैं।
इसलिए जहां
सुकरात ने कहा
है कि मैं
अज्ञानी हूं, वहां जनक का
वचन एक कदम और
ऊपर जाता है।
पहले सुकरात
मानता था, मैं
ज्ञानी हूं
फिर उसने माना
कि मैं
अज्ञानी हूं
यह पहले से तो
ऊपर गयी बात, लेकिन जनक
एक कदम और ऊपर
जाते हैं। वह
कहते हैं, मैं
अज्ञानी हूं
यह भी कैसे
कहूं? जानने
को कुछ नहीं
बचा तो न
जानने को भी
कुछ नहीं बचा।
जान और अज्ञान
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। इसलिए न
तो मैं कह
सकता हूं कि
मैं बोध को
उपलब्ध हुआ
हूं न मैं कह
सकता हूं मैं
मूढ़ हूं।
दोनों गये, दो गये। जो
बचा है वह
निर्विशेष है,
विशेषणशून्य
है, निराकार
है। अब उसके
ऊपर कोई भी
नाम नहीं थोपा
जा सकता। अब
उसे कोई रूप नहीं
दिया जा सकता।
अब उसका कोई
भी
क्लासीफिकेशन,
किसी भी
कोटि में उसे
रखने का उपाय
नहीं है।
'सर्वदा
निर्विचार
रूप मुझको कहां
यह व्यवहार है
और कहां वह
परमार्थता है,
अथवा कहां
सुख है, कहां
दुख है?'
क्व
चैष व्यवहारो
वा क्व च सा
परमार्थता।
क्व
सुखं क्व च
वा दुःखं
निर्विमर्शस्य
मे यदा।
'मुझ
निर्विचार
रूप में.।’
निर्विमर्शस्य
मे सदा।
जहां
कोई विचार और
विमर्श नहीं
उठता, जहां
सब शून्य और
शात हुआ है, जहां झील पर
एक भी तरंग
नहीं रही—झील
बिलकुल
विश्रांत हो
गयी, शात
हो गयी—अपने
में लीन बैठा हूं, ऐसी इस
शून्य की दशा
में—जिसको झेन
फकीर नो —माइड़
कहते हैं, चित्तमुक्ति
की दशा, जिसको
कबीर ने अ—मनी
दशा कहा है, नानक ने
उन्मनी दशा
कहा है, मन
से मुक्त हो
गयी जो दशा।
जब तक मन है तब
तक तरंग है।
मन एक तरह की
तरंगायित
अवस्था है। मन
का अर्थ है, झील पर बहुत
लहरें उठ रही
हैं। न—मन का
अर्थ है, सब
लहरें शांत हो
गया, झील
बिलकुल दर्पण
की तरह मौन हो
गयी, जरा
भी तरंग नहीं
होती। सतह
कंपती ही नहीं।
अकंप हो गई।
ऐसी जो मेरी
निर्विचार
रूप दशा है, इसमें कहां
व्यवहार और
कहां परमार्थ?
समझना।
व्यवहार
और परमार्थ
शब्द
दार्शनिकों
के शब्द हैं, पारिभाषिक
शब्द हैं।
दार्शनिक
कहते हैं, जगत
व्यवहार रूप
से सत्य है और
परमार्थ रूप
से असत्य है।
परमात्मा
परमार्थ रूप
से सत्य है और
व्यवहार रूप
से असत्य है।
यह दार्शनिक
तरकीब है, जिससे
दो विपरीत को
मिलाने की
चेष्टा की
जाती है। जैसे
पश्चिम में एक
विचारक हुआ, बर्कले।
उसने घोषणा की—ठीक
शंकर जैसी
घोषणा की—कि
जगत माया है।
वस्तुओं का
कोई अस्तित्व
नहीं है।
विचार ही का
अस्तित्व है,
वस्तु का
कोई अस्तित्व
नहीं है। वह
डाक्टर जानसन
के साथ घूमने
गया था, रास्ते
पर उसने उनसे
कहा कि मैं एक
किताब प्रकाशित
कर रहा हूं
उसमें मैंने सिद्ध
किया है कि
वस्तुओं का
कोई अस्तित्व
नहीं है, केवल
विचार का
अस्तित्व है।
डाक्टर जानसन
जिद्दी किस्म
का आदमी था, उसने एक
पत्थर उठाकर
और बर्कले के
पैर पर दे मारा।
लहूलुहान हो
गया पैर, खून
बहने लगा और
बर्कले उसे
पकड़कर बैठ गया।
जानसन हंसने
लगा, उसने
कहा, वस्तुओं
का कोई
अस्तित्व
नहीं है, तो
इस पत्थर के
कारण चोट कैसे
लगी? खून
कैसे बहा? बर्कले
कोई उत्तर न
दे सका।
बर्कले
ने पश्चिम में
नयी—नयी यह
बात कही थी, उसे पूरब
का कुछ पता
नहीं था, पूरब
में यह बहुत
पुरानी बात है,
इसके उत्तर
बहुत खोज लिए
गये हैं।
बौद्ध भी ऐसा ही
कहते हैं कि
जगत सत्य नहीं
है जैसा शंकर
कहते हैं।
वस्तुत: शंकर
जो कहते हैं, वह
प्रच्छन्न
रूप से
बौद्धों की ही
बात है उसमें
कुछ नया नहीं
है।
ऐसा
कहा जाता है
कि एक बौद्ध
भिक्षु को एक
सम्राट ने पकड़
लिया और उसने
कहा कि मैंने
सुना है कि
तुम कहते हो
जगत असत्य है, सिद्ध
करना होगा।
उसने कहा कि
सिद्ध कर देता
हूं। उसने बड़े
तर्क दिये। और
जगत को असत्य
सिद्ध किया जा
सकता है। समझो
कि तुम यहां
मेरे सामने
बैठे हो, कैसे
सिद्ध करें कि
तुम असत्य हो!
उस दार्शनिक
ने कहा कि रात
सपने में भी
मैं देखता हूं
कि लोग सामने
बैठे हैं। सुबह
जागकर पाता
हूं कि नहीं
हैं। तो अभी
भी क्या पक्का
है कि लोग
बैठे ही हों? अभी भी क्या
पक्का है कि
सुबह जागकर
मैं नहीं पाऊंगा
कि असत्य नहीं
है!
च्चांग्त्सु
ने कहा है, रात
मैंने सपना
देखा कि मैं
तितली हो गया।
फिर सुबह उठकर
मैं बड़ा चिंतन
करने लगा, विचार
करने लगा कि
यह तो बड़ी
उलझन हो गयी!
अगर च्चांग्त्सु
रात में तितली
हो सकता है तो
तितली सो गयी हो
और सपना देखती
हो कि
च्चांग्त्सु
हो गयी है! यह
भी हो सकता है।
फिर कोई कभी
अपने से बाहर
तो गया नहीं—मैं
अपने भीतर
बैठा हूं,
तुम अपने भीतर
बैठे हो।
तुम्हें तो
मैंने कभी
देखा नहीं, मेरे भीतर
मस्तिष्क में
कुछ
प्रतिबिंब
बनते हैं
उन्हीं को
देखता हूं। वे
प्रतिबिंब
सच भी हो सकते
हैं, झूठ
भी हो सकते
हैं। सपने में
भी बन जाते
हैं। ध्री—डायमेंशनल
फिल्म देखते
हो? जब
पहली दफा थी
डायमेंशनल
फिल्म लंदन
में चली, तो
एक घुड़सवार आता
है दौड़ता हुआ
और एक भाला
फेंकता है। वह
पहली थी
डायमेंशनल
फिल्म थी, लोग
एकदम झुक गये—वह
जो हाल में
बैठे हुए लोग
थे, भाले
को निकलने के
लिए उन्होंने
जगह दे दी, एकदम
दोनों तरफ झुक
गये। क्योंकि
भाला कहीं छिद
जाए! तब उनको
खयाल आया कि
अरे, हम
फिल्म देख रहे
हैं, झुकने
की क्या जरूरत
थी? लेकिन
चूक हो गयी।
वह भाला जो
नहीं था, बिलकुल
लग गया कि
जैसे है।
उस
दार्शनिक ने
बड़े तर्क दिये
और सम्राट ने
कहा, सब
ठीक है, लेकिन
सम्राट भी
डाक्टर जानसन
जैसा रहा होगा,
उसने कहा, अपना पागल
हाथी ले आओ।
उसके पास एक
पागल हाथी था,
वह पागल हाथी
ले आया गया।
उसने पागल
हाथी छुड़वा
दिया इस
दार्शनिक के
पीछे, भिक्षु
के पीछे।
भिक्षु भागा,
चिल्लाए और
वह पागल हाथी
उसके पीछे
चिंघाड़े और
भागे। और बड़ा
शोरगुल मच गया।
और राजा के
महल के आयन
में हजारों की
भीड़ इकट्ठी हो
गयी और राजा
छत पर खड़े
होकर देख रहा
है और हंस रहा
है। और वह
उससे कहने लगा,
अब बोलो, अगर सब
असत्य है, तो
यह हाथी भी
असत्य है, इतने
रो —चिल्ला
क्यों रहे हो?
वह कहने लगा,
मुझे बचाओ,
फिर पीछे
बात करेंगे, पहले तो इस
हाथी से बचाओ।
हाथी ने उसे
अपनी सूंड़
में लपेट लिया,
बमुश्किल
उसे छुड़ाया
गया। वह कैप
रहा है, रो
रहा है।
छुड़ाकर
जब उसे लाया
गया और सम्राट
ने कहा, अब बोलो!
उसने कहा, महाराज!
मेरा रोना, मेरा
चिल्लाना, सब
असत्य है।
माया मात्र।
आपका मुझ पर
दया करना, मुझे
बचा लेना, हाथी
का मुझे पकड़ना,
फिर महावत
का मुझे छुड़ा
देना, सब
असत्य है।
बर्कले
को यह पता
नहीं था, क्योंकि वहा
नयी—नयी बात
वह कह रहा था, भारत में तो
बहुत पुराने
दिन से लोग कह
रहे हैं।
लेकिन
जो असत्य कहा
जाता है, माया कही
जाती है, वह
भी है तो।
किसी तरह है, सपने ही सही,
सपने जैसे
ही सही, मगर
सपना भी तो है।
तो इस सपने को
कहते हैं—व्यावहारिक
सत्य। आभास
होता है, वस्तुत:
नहीं है। और
परमात्मा को
कहते हैं, आभास
भी नहीं होता
उसका और
वस्तुत: है।
जब कोई
समाधि में
जागेगा तब
परमात्मा को
जानेगा और
संसार खो
जाएगा। जैसे
रोज तो होता
है—रोज रात
तुम सोते हो, ये पहाड़—पत्थर,
वृक्ष, पशु
—पक्षी, पति,
पत्नी, बेटे,
सब खो जाते
हैं। इनका कोई
अस्तित्व
नहीं रह जाता।
और सपने में
नये बेटे और
नयी पत्नियां
और नये मकान
और नये काम
शुरू हो जाते
हैं। उनका
अस्तित्व हो
जाता है। सुबह
जागकर फिर
उनका
अस्तित्व खो
जाता है। फिर
पुरानी पत्नी,
मकान, द्वार—दरवाजा,
—सब आ जाता
है।
ध्यानी
कहते हैं कि
ऐसा ही एक
जागरण समाधि
में घटित होता
है जब सब विचार
शांत हो जाते
हैं—परम जागरण।
उस जागरण में
यह जगत जो अभी
दिखायी पड़ रहा
है, असत्य
मालूम होने
लगता है—आभास
मात्र, प्रतीति
मात्र, स्वप्नवत।
और परमात्मा
सत्य मालूम
होने लगता है,
जिसका कि
पहले आभास भी
नहीं होता था।
लेकिन
जनक की बात
इससे भी ऊपर
जाती है। वह
कहते हैं, क्या
व्यवहार और
क्या परमार्थ!
न संसार बचा
है, न
मोक्ष बचा है।
असत्य तो गया
ही गया, उसके
साथ—साथ सत्य
भी जा चुका है।
सत्य और
असत्य एक ही
तराजू के दो
पलड़े थे। वे
भिन्न—भिन्न
नहीं थे। जब
झूठ ही गया तो
सच कैसे बचेगा? इसे कभी
तुमने सोचा? रावण को हटा
दो, तो
रामायण खराब
हो जाएगी, बच
नहीं सकती।
अकेले राम से
नहीं चलेगी।
कि तुम चला
लोगे? रावण
को काट दो
बिलकुल
रामायण से, फिर बनाओ
रामायण! या
कभी रामलीला
करो, रावण
को हटा दो, बस
बिना ही रावण
के चलने दो
रामलीला, तुम
पाओगे, चलती
ही नहीं। थोड़े
राम उछलेंगे —कूदेंगे,
करेंगे
क्या? इधर—उधर
जाएंगे, करेंगे
क्या? रावण
के बिना नहीं
चलती है। और
राम को हटा लो
तो रावण भी
व्यर्थ हो
जाता है। साथ—साथ
उनकी
सार्थकता है।
शुभ और अशुभ
साथ—साथ जुड़े
हैं। सच और
झूठ साथ —साथ
जुड़े हैं। सुंदर—
असुंदर साथ—साथ
जुडे हैं। एक
ही साथ उनकी
सार्थकता है।
लाओत्सु
ने कहा है, जब तक
दुनिया में
साधु हैं तब
तक असाधु भी
रहेंगे। बात
ठीक कही है।
जिस दिन असाधु
मिटेंगे, उस
दिन साधुओं को
भी मिट जाना
होगा। होनी
चाहिए एक ऐसी
दुनिया जहां न
साधु हों न असाधु
हों। वहां
जीवन सरल होगा।
वहा जीवन परम
निसर्ग को
उपलब्ध होगा।
वहां जीवन में
तथाता होगी, ऋत होगा। न
कोई साधु न
कोई असाधु। न
कोई राम, न
कोई रावण।
इसको खयाल करो।
तुम्हारे
साधु असाधुओं
को मिटाने में
लगे रहते हैं
कि जो भी
असाधु आए उसको
साधु बनाओ। पर
उनको पता नहीं
कि असाधु अगर
मिट जाएं तो
साधु भी न
बचेंगे। वह
आत्महत्या
में लगे हैं।
बुरे आदमी के
सहारे ही भला
आदमी जी रहा
है। दुर्जन के
सहारे ही
सज्जन की
इज्जत है। वे
जो लोग
कारागृह में
बंद हैं उनके
कारण तुम कारागृह
के बाहर हो।
नहीं तो तुम
बाहर कहां? वे जो लोग
पागल हैं, उनके
कारण तुम
स्वस्थ हो। जो
के हैं, उनके
कारण तुम जवान
हो। अन्यथा
तुम न रहोगे।
द्वैत जब जाता
है तो पूरा
चला जाता है।
तो जनक
की बात बड़ी
महत्वपूर्ण
है। जनक कहते
हैं, ऐसा
नहीं है कि जब
व्यवहार—सत्य
चला जाएगा तो
परमार्थ —सत्य
होगा।
व्यवहार गया
तो परमार्थ भी
गया, संसार
गया तो सत्य
भी गया। फिर
जो शेष रह
जाता है, उसके
लिए कोई शब्द
नहीं है।
'सर्वदा
विमल रूप
मुझको कहां
माया है और
कहां संसार है,
कहां
प्रीति है, कहां विरति
है, कहां
जीव है, कहां
ब्रह्म है?'
सुनते
हैं यह अपूर्व
घोषणा कि न
आत्मा, न ब्रह्म, कहां जीवन, कहां ब्रह्म?
क्व
माया क्व च
संसार: क्व
प्रीतिर्विरति
क्व च वा।
क्व
जीव: क्व च
तद्ब्रह्म
सर्वदा
विमलस्य मे।।
'मुझ
सर्वांगशुद्ध
निर्मल हो गये
में अब कहां आत्मा
है, कहां
परमात्मा है,
कहां जीव, कहां ब्रह्म?'
इस संबंध
में एक बात और
खयाल में ले
लेना। गुरु—शिष्य
के निषेध के
पहले जनक
परमात्मा और
आत्मा का निषेध
कर देते हैं।
अभी गुरु—शिष्य
का निषेध नहीं
किया, वह
आगे के सूत्र
में—करीब—करीब
अंतिम चरण में
—गुरु—शिष्य
का निषेध होता
है।
तुमने
कबीर का वचन
सुना है, मैंने बहुत
बार उसकी बात
की है—गुरु
गोविंद दोई
खड़े काके लागू
पाय, बलिहारी
गुरु आपने
गोविंद दियो
बताय। गुरु—गोविंद
दोनों खड़े हैं
अब, किसके
चरण छुऊं? और
कबीर कहते हैं
कि गुरु, तुम्हारी
बलिहारी कि
तुमने इशारा
कर दिया गोविंद
की तरफ।
बहुतों ने
सोचा है कि
इसका अर्थ यह
हुआ कि कबीर
ने गोविंद के
पैर छुए—बलिहारी
गुरु आपने गोविंद
दियो बताय।
बहुतों ने
इसका यही अर्थ
किया है कि
गुरु ने कह
दिया कि मेरे
नहीं, गोविंद
के पैर छुओ।
मैं
तुमसे कहता हूं, यहां तक
तो बात ठीक है
कि गुरु ने
कहा, मेरे
नहीं गोविंद
के पैर छुओ।
मगर छुए कबीर
ने गुरु के ही
पैर, क्योंकि
बलिहारी शब्द
पर ध्यान दो। वे
यह कह रहे हैं
कि अब तो कैसे
गोविंद के पैर
छुओ। अब तो
तुम्हारे पैर
छुऊंगा।
क्योंकि—बलिहारी
गुरु आपने
गोविंद दियो
बताय। तुमने
गोविंद की तरफ
इशारा कर दिया,
इसलिए
धन्यवाद
तुम्हीं को
देना होगा।
तुमने गोविंद
की तरफ हाथ
उठा दिया, इसलिए
धन्यवाद
तुम्हीं को
देना पडेगा।
तुमने गोविंद
तक पहुंचा
दिया, इसलिए
धन्यवाद
तुम्हीं को
देना होगा।
मेरी
दृष्टि में
कबीर ने गुरु
के पैर छुए।
इसलिए गुरु के
पैर छुए कि
गुरु ने
गोविंद को बता
दिया।
बलिहारी! इस
सूत्र के साथ
आज तुम यह भी
समझ लो कि जनक
निषेध करते चल
रहे हैं। सारी
चीजें निषिद्ध
होती चली जा
रही हैं। परम
अद्वैत की
घोषणा हो रही
है। जहां एक
और एक और
बिलकुल एक
बचेगा—एकरसता
बचेगी—वहा
इसके पहले कि
वह गुरु—शिष्य
का निषेध करें, वह आत्मा
और परमात्मा
का निषेध कर
देते हैं।
साधारणत:
तर्कयुक्त यह
होता कि पहले
गुरु —शिष्य
का निषेध हो, अंतिम घड़ी
में परमात्मा
और आत्मा का
निषेध हो।
नहीं, जनक
पहले कहते हैं—
क्व
जीव: क्व च
तद्ब्रह्म
सर्वदा
विमलस्य मे।
मुझ
निर्मल हो गये
में, मुझ
शुद्ध—शात हो
गये में, मुझ
शून्य हो गये
में न कोई
आत्मा है, न
परमात्मा।
इसके बाद
अंतिम चरण में,
आखिरी
सूत्र में
जाकर वह
कहेंगे कि अब
कोई शिष्य
नहीं, कोई
गुरु नहीं।
जिसके
जीवन में
परमात्मा और
आत्मा का भेद
गिर गया, उसी के जीवन
में गुरु —शिष्य
का भेद गिरता
है, उसके
पहले नहीं।
अहंकार तो
बहुत दफे
चाहता है कि
गुरु—शिष्य का
भेद जल्दी
गिरा दें।
अहंकार तो
पहले बनाना ही
नहीं चाहता भेद।
अहंकार तो
कहता है, शिष्य
बनने की जरूरत
क्या है? असल
में अहंकार तो
गुरु बनना
चाहता है, शिष्य
बनना ही नहीं
चाहता। अगर
शिष्य भी बनता
है तो इसी आशा
में बनता है कि
चलो, शायद
यही रास्ता है
गुरु बनने का।
फिर जल्दी
होती है कि
किस तरह यह
बात खतम हो जाए,
क्योंकि यह
पीड़ा देती है।
लेकिन यह बात
तब खतम होती
है जब
तुम्हारे जीवन
में वह परम
घड़ी आ जाती है
जहां
परमात्मा और आत्मा
का भेद भी गिर
जाता है। उसके
बाद ही। गुरु
और शिष्य के
संबंध से
यात्रा शुरू
होती है सत्य
की और गुरु—शिष्य
के संबंध के
समाप्त होने
पर यात्रा भी
समाप्त होती
है सत्य की।
जो प्रारंभ है,
वही अंत है।
जहां स्रोत है,
वहीं
गंतव्य है।’कहां प्रीति,
कहां विरति?'
अपना
कुछ है ही
नहीं, किसको
अपना कहें, किसको पराया
कहें? किसको
पकड़े, किसे
छोड़े? किसका
भोग करें, किसका
त्याग करें? अपने से
अतिरिक्त यहां
कुछ है ही
नहीं।
न घर
मेरा न घर
तेरा
दुनिया
तो बस रैन
बसेरा
कभी एक
सी दशा न रहती
पुरवा
बनकर पछुवा
बहती
ऋतुएं
आती जाती रहती
देह मेह
शीतातप सहती
कहीं
धूप तो कहीं
छाह है
श्वास
पथिक की कठिन
राह है
मंजिल
सिर्फ उसे ही
मिलती
जो तिर
जाता अगम
अंधेरा
न घर
मेरा न घर
तेरा
दुनिया
तो बस रैन
बसेरा
हानि—लाभ
सुख—दुख
परिमित है
विजय—पराजय
भी सीमित है
यश— अपयश
विधि के हाथों
में
जीवन—मरण
सभी निश्चित
है
वही
बनाता वही
मिटाता
वही
बढ़ाता वही
घटाता
रीती
रेखा में गति
भरता
बड़ा
कुशल है
सृष्टि
चितेरा
मंजिल
सिर्फ उसे ही
मिलती
जो तिर
जाता अगम अंधेरा
न घर
मेरा न घर
तेरा
दुनिया
तो बस रैन
बसेरा
यहां
कुछ न अपना, न कुछ
औरों का। सब
उसका। सब एक
का। यह मैं —तू
का भेद कल्पित
आरोपित। जहां
मैं और तू का
भेद गिर जाता
और उसका अनुभव
होता जो मैं
में भी मौजूद
है, तू में
भी मौजूद है, फिर न कुछ
प्रीति है, न कुछ विरति
है, फिर न
ही कोई जीव है,
न कोई
ब्रह्म है।
क्योंकि जीव
और ब्रह्म का
संबंध भी दो
का संबंध है।
और जब तक दो है
तब तक अज्ञान
है। तुम ऐसा
समझ लेना, द्वैत
यानी अंधकार,
अद्वैत
यानी प्रकाश।
'सर्वदा
स्वस्थ, कूटस्थ
और अखंड़ रूप
मुझको कहां
प्रवृत्ति है
और कहां
निवृत्ति है;
कहां
मुक्ति है, कहां बंध है?'
क्व
प्रवृत्तिर्निवृत्तिर्वा
क्व मुक्ति: क्व
च बंधनम्।
कूटस्थनिर्विभागस्य
स्वस्थस्य मम
सर्वदा।।
मैं
सदा स्वयं में
स्थित, कूटस्थ, मैं
सदा
निर्विभागस्य
—कोई विभाजन
मैं नहीं, कोई
खंड़ मैं नहीं—न
प्रवृत्ति है
कोई, न
निवृत्ति है;
न किसी से लगांव,
न दुराव, गये सब
द्वंद्व के
जाल। इतना भी
कि न कुछ बंधन,
न कुछ
मुक्ति—तभी
मुक्ति।
इसे
तुम समझना। यह
अपूर्व घोषणा
है। इसका अर्थ
है कि अगर तुम
ठीक से समझो
तो गलती कभी
हुई ही नहीं
है। गलती हो
ही नहीं सकती।
गलती होने का
उपाय ही नहीं
है। अगर तुम
ठीक से समझो
तो पाप कभी
हुआ नहीं, पाप हो ही
नहीं सकता।
पाप होने का
उपाय नहीं है।
और न पुण्य हो
सकता है। और न
पुण्य कभी
किया गया है।
पाप हो कि
पुण्य, भूल
हो कि ठीक, दोनों
में कर्ताभाव
है। और तुमने
कभी कुछ नहों
किया है। तुम
सदा एकरस, अकर्ता,
साक्षी हो।
सिर्फ
देखनेवाले हो।
कभी तुमने
देखा कि चोरी
हो रही है और
कभी तुमने
देखा कि दान
दे रहे हो, मगर
दोनों हालत
में तुम
द्रष्टा हो। न
तुमने चोरी की
है, न तुमने
दान दिया है।
दान भी हुआ है,
चोरी भी हुई
है, सच! पर
तुमने न दान
दिया है, न
चोरी की है।
इसको
खयाल में ले
लेना।
साधारणत:
धार्मिक गुरु
लोगों को
समझाते हैं—चोरी
छोडो, दान
करो। वह
साधारण धर्म
है। यह
असाधारण धर्म
है। यह धर्म
की आत्यतिक
घोषणा है। तुम
चोरी भी छोड़ो,
तुम दान भी
छोड़ो, तुम
कर्ता होना
छोड़ो। न तुम
पापी बनो, न
पुण्यात्मा।
तुम कर्ता न
रहो, तुम
साक्षी हो जाओ।
अब तुम
समझना। अगर
कोई पापी
पुण्यात्मा
बनना चाहे तो
बड़ी कठिनाई है।
पहले तो पाप
इतनी आसानी से
छूटता नहीं, इतनी
आसानी से कोई
आदत नहों जाती।
जन्मों —जन्मों
में बनायी है,
लाख —लाख
उपाय करो, नहीं
जाती। तुम जरा
सोचो, छोटी—मोटी
आदतें नहीं
छूटती। किसी
आदमी को पान
चबाने की आदत
है, वहो
नहीं छूटती और
क्या तुम खाक
छोड़ोगे! किसी को
तमाखू....।
एक
सज्जन मेरे
पास आते थे, बंगाली
सज्जन।
यूइनवर्सिटी
मे प्रोफेसर
थे। वह मुझसे
पूछते कि यह
पाप कैसे छूटे,
वह पाप कैसे? उटे, और
जब भी वह आते
तो 'नास' अपनी नाक
में भरते रहते।
बैठे रहते, थोड़ी— थोड़ी
देर में 'नास'!
मैंने उनसे
कहा कि पाप
इत्यादि को तो
छोड़ो, पहले
तुम यह 'नास'
तो छोड़ो।
उन्होंने कहा,
यह न छूटेगी।
यह बहुत मुाrSएकल है, इसके
बिना तो मैं
जी ही नहीं
सकता। मैंने
कहा, मैं
जी रहा हूं, सारी
दुनिया जी रही
है इसके बिना।
तुम 'नास' कै बिना न जी
सकोगे!
उन्होंने कहा,
नहीं जी
सकता। इससे ही
तो 'मुझे
ताकत बनी रहती
है, नहीं
तो सब ढीला—डाला
हो जाता है, सब सुस्त हो
जाता है। ले
ली ड़टकर 'नास',
आ गयी अच्छी
छींक, ताजे
हां गये। तो
जीवन में
ताजगो मालूम पड़ती
है। यह नहीं
छूटेगी, यह
तो बात ही मत
उठाना। मैंने
कहा कि अगर यह
नहीं छूटना, तो क्या
छूटना है!
आदतें नहीं
छूटती साधारण,
तो जन्मों—जन्मों
को आदतें कैसे
छूटेगी? पाप
नहों छूट सकता।
और अगर
कोई पापी किसी
तरह पाप को छोड़ने
का उपाय भी
करे, तो
पाप पीछे के
दरवाजों से
प्रवेश कर
जाता है। ऐसा
भी हो सकता है
कि तुम, चलो
दान करें, पुण्य
करें, मगर
तुम पुण्य
करोगे कहां से?
तुम और चोरी
करने लगोगे।
देखते
नहीं रोज? जो दान
देते हैं वह
दान देते ही
तब हैं, जब
वह दस हजार
देते हैं अगर
वह दस लाख का
इंतजाम कर
लेते हैं, तब
दस हजार देते
हैं। देते ही
तब हैं जब
निकालने का इंतजाम
हो जाता है।
जब वह देख
लेते हैं कि
कोई हर्जा नही,
सौदा करने
जैसा है। तो
अभी चुनाव आ
रहा है तो वह
पार्टियों को
दान देंगे।
देश कै हित
में दान देते
हैं। कोई लोकतंत्र
के हित में
दान देगा, कोई
समाजवाद के
हित में दान
देगा। सच तो
यह है कि जो
होशियार हैं
वे दोनों को
दान देंगे।
समाजवादियों
को भी और लोकतंत्रियों
को भी, क्योंकि
पता नहीं कौन
आ जाए!
होशियार तो
दोनों नाव पर
सवार रहता है।
कि इंदिरा हों
कि मोरारजी, दोनों को
दान देगा। जो
आ जाए।
मेरे
एक मित्र हैं, ज्योतिषी
हैं। ज्योतिष
उनका चलता—करता
नहीं। आदमी
भले हैं ओर
झूठ भी नहीं
बोल पाते हैं,
इसलिए।
ज्योतिष तो
धंधा ही झूठ
का है। उसमें
अगर सच
इत्यादि बोले
तो वह चलेगा
ही नहीं। वह
तो झूठ का ही
मामला है। वह
तो सारा काम
ही पूरा
बेईमानी का है।
तो वह मुझसे
कहने लगे कि
क्या करूं, कुछ
सर्टिफिकेट
भी नहीं है
मेरे पास कि
किसी. तो
मैंने कहा, तुम एक काम
करो।
राष्ट्रपति
का चुनाव हो
रहा था। मैंने
कहा, तुम
चले जाओ और दो
आदमी खड़े हैं,
तुम दोनों
को जाकर कह आओ
कि आपकी जीत
बिलकुल निश्चित
है, लिखकर
दे सकता हूं।
तुम लिखकर ही
दे आना।
उन्होंने कहा,
फिर पीछे
फंसेंगे!
मैंने कहा, तुम फिक्र
छोड़ो। एक ही
जीतेगा, दोनों
तो जीतनेवाले
नहीं हैं। जो
हारा उसकी तुम
फिकर ही छोड़
देना। और वह
कोई तुम्हारे
पीछे मुकदमे
थोड़े ही चलाएगा—कौन
फिक्र करता
है!
यही
हुआ। वह दोनों
राष्ट्रपतियों
को जाकर दे आए।
एक जीत गया।
जो जीत गया, उसके पास
वह पहुंच गये
बाद में। वह
बड़ा प्रसन्न,
उसने फोटो
भी साथ उतरवाए,
फिर
सर्टिफिकेट
भी लिखकर दिया।
तबसे उनका
ज्योतिष बहुत
चल रहा है। जब
राष्ट्रपति
तक की घोषणा
कर दी!
तो
होशियार
दोनों नाव पर
सवार हो जाते
हैं। वह दोनों
को दान दे
देंगे। जो भी
आएगा कल ताकत
में, दस
हजार दिया तो
दस लाख निकल
लेंगे।
लाइसेंस है और
हजार उपाय हैं।
चोर अगर दे, तो भी चोरी
का इंतजाम
पहले कर लेता
है। अहंकारी
अगर विनम्र भी
बने, तो
विनम्रता में
भी अहंकार को
ही पोषित कर
लेता है। भागने
का इतना सुगम
उपाय नहीं है।
पाप से पुण्य
में जाने का
कोई उपाय नहीं
है। पापी और
पुण्यात्मा
एक ही खेल के
हिस्सेदार हैं,
साझीदार
हैं।
परम
धर्म कहता है, अकर्ता
भाव—न पुण्य, न पाप।
दोनों मैंने
नहीं किये। और
अगर दोनों हुए,
तो
परमात्मा
जाने। वह परम
ऊर्जा जाने।
यही तो कृष्ण
से निकला
अर्जुन के लिए
गीता में कि
तू
निमित्तमात्र
हो जा।
उपकरणमात्र।
जो हो, होने
दे। जैसा हो, वैसा ही
होने दे। तू
अपने को बीच
में मत ला।
वही
अष्टावक्र का
सूत्र है —कहां
प्रीति, कहां
विरति; कहां
जीव, कहां
ब्रह्म?
सर्वदा
स्वस्थ, कूटस्थ,
अखंड़ रूप
मुझको कहां
प्रवृत्ति है,
कहां
निवृत्ति है,
कहां
मुक्ति है, कहां बंध है?
'उपाधिरहित
शिवरूप मुझको
कहां उपदेश है
अथवा कहां
शास्त्र है रम
कहा शिष्य है
और कहा गुरु है
और कहां
पुरुषार्थ है?'
यह
शिखर के
बिलकुल करीब
आने गो।
क्योपदेश
क्व वा
शास्त्रं क्व
शिष्य: क्व च
आ गुरु:।
क्व
चास्ति
पुरुषार्थो
वा निरुपाधे
शिवस्य में।।
मैं
निरुपाधि में
ठहर गया। न
ऐसा हूं न
वैसा हूं। मैं
नेति —नेति
में पहुच गया।
न साधु, न असाधु, न
पापी, न
पुण्यात्मा; न बुरा, न
भला; न
आत्मा, न
ब्रह्म, मैं
ऐसी
उपाधिरहित
दशा में आ गया
हूं। अब यहां
मेरे ऊपर कोई
भी वक्तव्य
लागू नहीं
होता।
'उपाधिरहित
शिवरूप मुझको
कहा उपदेश?'
अब
किससे तो मैं
उपदेश लूं और
किसको मैं
उपदेश दूं? उपदेश
में तो
स्वीकार कर ली
गयी
बात कि
दो होने चाहिए।
गुरु —शिष्य
तभी तो बन
सकते हैं न, जब दो हों।
कोई कहे, कोई
सुने, कोई
दे, कोई ले।
जनक कहते हैं,
अब कैसा
उपदेश? न
तो मैं ले
सकता उपदेश, क्योंकि
दूसरा कोई है
नहीं जिससे ले
लूं और न मैं
दे सकता, क्योंकि
दूसरा कोई है
नहीं जिसको
मैं दे दूं।
यह परम घड़ी आ
रही, यह
परम सौभाग्य
का क्षण है जब
कोई व्यक्ति
ऐसी दशा में
आता है जहां
उपदेश देना—लेना
भी संभव नहीं।
'मुझको
कहां उपदेश है
अथवा कहां
शास्त्र है?'
और जब
उपदेश ही न हो
तो शास्त्र
नहीं बनता।
शास्त्र तो
उपदेश का ही
संग्रहीत रूप
है। फिर कोई
वेद, कुरान,
बाइबिल, गीता
कुछ अर्थ नहीं
रखते।
'फिर
कहां शिष्य, कहां गुरु?'
जब
उपदेश ही नहीं
हो सकता तो
कौन होगा गुरु
और कौन होगा
शिष्य?
' और
कहं।
पुरुषार्थ है
त्र: '
फिर न
कुछ पाने को
बचा तो
पुरुषार्थ का
भी कोई सवाल
नहीं है। समझो।
जनक
बोल तो रहे
हैं। यह वचन
तो बोल ही रहे
हैं।
अष्टावक्र ने
इतना लंबा
उपदेश भी दिया
है और जनक भी
कुछ कंजूसी
नहीं कर रहे
हैं बोलने में।
फिर भी वह
कहते हैं, कहां
उपदेश? तो
बात कुछ समझ
लेनी चाहिए।
बुद्धपुरुष
बोलते हैं, ऐसा कहना
ठीक नहीं, बुद्धपुरुषों
से बोला जाता
है, ऐसा
कहना ठीक है।
फूल खिलते हैं
जैसे, सुगंध
झरती है जैसे,
बादल उमड़—घुमड़
कर आते हैं
जैसे, और
वर्षा होती है
जैसे, दीया
जलता है तो
प्रकाश झरता
है जैसे, ऐसे
बुद्धत्व से
रोशनी झरती है,
सुगंध झरती
है। मगर उपदेश
देने की आकांक्षा
नहीं है।
इसलिए
बुद्ध ने
चालीस साल
बोलने के बाद
कहा है कि मैं
कभी भी नहीं
बोला। मैं
बोला ही नहीं।
कठिन हो जाती
है बात।
क्योंकि
बुद्ध के वचन
इतने हैं, सैकड़ों
शास्त्र
निर्मित हुए।
जितने वचन
बुद्ध के हैं
उतने किसी के
भी नहीं हैं।
बाइबिल और
कुरान सब बहुत
छोटी —छोटी
किताबें रह
जाती हैं।
बुद्ध के अगर
सारे वचन
संग्रहीत
होते हैं तो पूरा
एक पुस्तकालय
निर्मित होता
है, एक
पूरा
एनसाइक्लोपीडिया—इतना
बोले हैं —और
आखिर में कहते
हैं कि मैं
बोला नहीं।
बात फिर भी
ठीक कहते हैं।
बोले नहीं, क्योंकि
बोलना किससे,
दूसरा कोई
है नहीं।
लेकिन
कभी—कभी तुमने
ऐसी घड़ी जानी
है, जब
तुम अकेले
बैठे हो और
गीत
गुनगुनाते हो?
तब तुम किसी
को कह नहीं
रहे, अपनी
मौज में कह
रहे हो। बुद्ध
से वचन निकले
हैं, झरे
हैं, जैसे
झरनों से जल
बह रहा है, जैसे
वृक्षों से
फूल निकल रहे
हैं, ठीक
ऐसे। जैसे
पक्षी गीत
गुनगुना रहे
हैं, ठीक
ऐसे। इसमें
कुछ चेष्टा
नहीं है, प्रयोजन
नहीं है। यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
दीया जल जाएगा
तो रोशनी
निकलेगी। और
फूल खिलेगा तो
गंध भी उड़ेगी।
ऐसे ही बुद्ध
से वचन उड़े
हैं।
ठीक
वही जनक कह
रहे हैं, कहा उपदेश, कहां
शास्त्र? कहां
शिष्य, कहां
गुरु? कैसा
पुरुषार्थ? और अंतिम
सूत्र—
क्व
चास्ति क्व च
व नास्ति
क्यास्ति चैक क्व
च द्वयम्।
बहुनात्र
किमुक्तेन किंचित्रोत्तिष्ठते
मन।।
'कहां
अस्ति है, कहां
नास्ति है, अथवा कहां
एक है और कहां
दो हैं? इसमें
बहुत कहने से
क्या प्रयोजन,
मुझको तो
कुछ भी नहीं
प्रकाश करता
है।’
यह
आखिरी बात।
गुरु —शिष्य
के गिर जाने
के बाद कुछ
बचा नहीं
गिरने को।
सिर्फ एक छोटा—सा
वक्तव्य.
बहुनात्र
किमुक्तेन।
अब
क्या कहूं? अब कहने
को कुछ भी
नहीं है। न तो
कुछ है और न
कुछ नहीं है।
न आस्तिकता का
कुछ अर्थ है, न नास्तिकता
का। न अस्ति
का कोई अर्थ
है, न
नास्ति का।
क्व
चास्ति क्व च
व नास्ति
क्यास्ति चैकं
क्व च द्वयम्।
अब तक
कहा कि एक है, एक है, अद्वय है, अद्वैत है, अब कहा कि अब
एक भी कहना
व्यर्थ और दो
भी कहना
व्यर्थ। गयीं
सब वे बातें, गया सब वह
गणित। और अब
कुछ कहने जैसा
नहीं है।
किंचिन्नोत्तिष्ठते
मम।
यह वचन
बड़ा अदभुत है।
इसका अर्थ
होता है —कुछ
भी नहीं उठता
अब मुझमें।
किंचित्रोत्तिष्ठते
मम।
कोई
लहर नहीं उठती।
कोई तरंग नहीं
उठती, सब
शून्य हुआ, या सब पूर्ण
हुआ। अधूरे
में उठाव है।
पूरे में कैसा
उठाव! अधूरे
में गति है, पूरे में
कैसी गति! आधी
गागर आवाज
करती है, अधभरी
गागर आवाज
करती है। पूरी
भरी गागर आवाज
नहीं करती या
पूरी खाली गागर
आवाज नहीं
करती। जहां
पूर्णता है, वहां आवाज
नहीं, वहां
शून्य है।
वहां शून्य का
परम संगीत है।
जहां अधूरापन
है, वहां
आवाज है।
किचिन्नोत्तिष्ठते
मम।
अब
मुझमें कुछ भी
नहीं उठ रहा
है। सब परम
विश्रांति को
उपलब्ध हो गया
है।
ऐसी
घड़ी तुम्हारे
जीवन में भी आ
सकती है।
तुम्हारे
सहयोग की
जरूरत है। ऐसा
परम भाव
तुम्हारा भी
हो सकता है, तुम पर ही
निर्भर है। एक
छोटी—सी कहानी
कहूंगा
एक संत
था, बहुत
वृद्ध और बहुत
प्रसिद्ध।
दूर—दूर से
लोग जिज्ञासा
लेकर आते, लेकिन
वह सदा चुप ही
रहता। हा, कभी—कभी
अपने डंडे से
वह रेत पर
जरूर कुछ लिख
देता था। कोई
बहुत पूछता, कोई बहुत ही
जिज्ञासा
उठाता, तो
लिख देता—संतोषी
सुखी; भागो
मत, जागो; सोच मत, खो;
मिट और पा, इस तरह के
छोटे —छोटे
वचन।
जिज्ञासुओं
को इससे
तृप्ति न होती,
और प्यास बढ
जाती। वे
शास्त्रीय
निर्वचन
चाहते थे। वे
विस्तारपूर्ण
उत्तर चाहते
थे। और उनकी
समझ में न आता
था कि यह परम
संत बुद्धत्व
को उपलब्ध
होकर भी उनके प्रश्नों
का उत्तर सीधे
—सीधे क्यों
नहीं देता। यह
भी क्या बात
है कि रेत पर
डंडे से
उलटबासिया
लिखना! हम
पूछते हैं, सीधा—सीधा
समझा दो। वे
चाहते थे कि
जैसे और
महात्मा जप —तप,
यज्ञ —याश, मंत्र —तंत्र,
विधि —विधान
देते थे, वह
भी दे। लेकिन
वह मुस्काता,
चुप रहता, ज्यादा से
ज्यादा फिर
कोई उसे खोदता—बिदीरता
तो वह फिर लिख
देता—संतोषी
सदा सुखी, भागो
मत, जागो, बस उसके
बंधे —बंधाये
शब्द थे। बड़े —बड़े
पंडित आए और
थक गये और हार
गये और उदास
होकर चले गये,
कोई उसे
बोलने को राजी
न कर सका। कोई
उसे ज्यादा
विस्तार में
जाने को भी राजी
न कर सका।
लेकिन
एक बात थी कि
उसके पास कुछ
था, ऐसी
प्रतीति सभी
को होती। उसके
पास एक
दैदीप्य
प्रतिभा थी।
उसके चारों
तरफ एक प्रकाश
था, एक
अपूर्व शांति
थी। उसके पास
एक ठंडी, शीतल
लहर थी, जो
छूती।
पंडितों तक को
एहसास होता, क्योंकि
पंडित तो सबसे
अंधे लोग हैं
इस पृथ्वी पर।
उनको भी लगता
कि कुछ है, कोई
चुंबक। दूर—दूर
काशी से आते, पर फिर उदास
लौटते, क्योंकि
वह ज्यादा कुछ
बोलता न।
लेकिन
एक दिन ऐसा
हुआ, एक
युवक आया और
बजाय इसके कि
वह कुछ पूछे, उसने के के
हाथ से डंडा
छीन लिया।
उसकी आंखों
में कुतूहल भी
नहीं था, उसके
चेहरे पर
जिज्ञासा भी
नहीं थी, उसके
सिर पर
पांडित्य का
बोझ भी नहीं
था, वह बड़ा
भोला— भाला
युवक था, बड़ा
शात। एक गहरी
मुमुक्षा थी।
जीवन को दाव
पर लगाने की आकांक्षा
थी। खोजी था।
उसने
डंडा हाथ में
ले लिया और
उसने भी मौन
का व्रत लिया
था, वह
मौन ही रहता
था, उसने
डंडे से रेत
पर लिखा—आपकी
ज्योति मेरे
अंधेरे को
कैसे दूर
करेगी? उसने
रेत पर लिखा।
संत ने उत्तर
में रेत पर
लिखा—कैसा
अंधेरा, अंधेरा
है कहां? क्या
तुम अंधेरे
में खोए हो? यह पहला
मौका था कि
संत ने इतनी
बात लिखी। भीड़
इकट्ठी हो गयी
पृ गांव भर
में खबर पहुंच
गयी कि कोई
आदमी आया है
जिसने सोए संत
को जगा लिया
मालूम होता है।
उसने कुछ लिखा
है जैसा कभी
नहीं लिखा था।
उसने लिखा है,
कैसा
अंधेरा? अंधेरा
है कहां? क्या
तुम अंधेरे
में खोए हो? वह युवक
थोड़ा ठिठका और
उसने फिर लिखा—क्या
खो जाना
वस्तुत: खो
जाना है? क्या
खो जाना मार्ग
से वस्तुत:
स्मृत हो जाना
है? संत ने
युवक की आंखों
में झांका, अनंत प्रेम
और करुणा और
आशीष से और
फिर रेत पर लिखा—नहीं,
खो जाना भी
खो जाना नहीं,
बस
विस्मृतिमात्र।
याद भर खो गयी
है और कुछ खो
नहीं गया है।
खो जाना भी खो
जाना नहीं है,
बस
विस्मृति।
अब तक
तो दर्शकों की
बड़ी भीड़
इकट्ठी हो गयी
थी। यह उत्तर
पढ़ कर भीड़ में
हंसी का
फव्वारा फूट पड़ा।
और संत ने जो
लिखा था उसे
तब्धण पोंछ
डाला और पुन:
लिखा—कौन सी
इच्छा
तुम्हें यहां
ले आयी है, युवक? डंडा
सतत हाथ बदलता
रहा। युवक ने
लिखा—इच्छा? इच्छाएं? नहीं मेरी
कोई इच्छा शेष
नहीं है। ऐसा
सुनते ही संत
उठकर खड़ा हो
गया, दायां
पैर उठाकर
भूमि पर तीन
बार थाप दी, फिर आंखें
कंद करके सांस
को रोककर
मूर्तिवत खड़ा
हो गया।
सन्नाटा छा
गया। भीड़ भी
ग्रतइrवत
हो गयी, युवक
भी कुछ समझा
नहीं, इस
पर युवक भूल
गया कि उसने
मौन का व्रत
लिया है और बोल
उठा. यह आपने
क्या किया और
क्यों किया? संत हंसा' और उसने पुन:
रेत पर लिखा—कुतूहल
इच्छा का ही
एक रूप है। इस
पर युवक चाख
उठा मैंने
सुना है कि एक
ऐसा महामंत्र
है जिसके
उच्चार मात्र
से व्यक्ति विश्व
के साथ एक हो
जाता है, ब्रह्म
के साथ एक हो
जाता है, मैं
उसी मंत्र की
खोज में आया
हूं। ज्यादा
मुझे कहना
नहीं। और मुझे
पता है कि वह
मंत्र आपके
पास है—मैं
देख रहा हूं, उसकी ध्वनि
मुझे सुनायी
पड़ रही है।
संत ने
शीघ्रता से
लिखा—तत्वमसि।
वह तू ही है।
वह मंत्र तू
ही है। और
क्या तू एक
क्षण को भी
ब्रह्म से
भिन्न हुआ है? और तब उस
के संत ने
अचानक डंडा
उठाया और उस
युवक के सिर
पर दे मारा।
युवक की आंखों
के सामने तारे
घूम गये।
लेकिन वह किसी
अनिर्वचनीय
समाधि में भी डूब
गया। उसकी आंखों
से अविरल आनंद
के आंसू बहने
लगे। पल पर पल
बीते, घडियां
बीती, दिन
बीता, दिन बीते,
वह युवक
अपूर्व आनंद
में डूबा रहा
तो डूबा ही
रहा।
और तब
तीसरे दिन के
संत ने न—मालूम
किस
अनिर्वचनीय
क्षण में भूल
गया कि मौन का
व्रत लिया है, मौन टूट
गया के संत का
और उसने कहा.
सो अंततः तुम
घर वापिस आ ही
गये! सो अंततः
तुम घर वापिस
आ ही गये? पर
युवक बोला
नहीं और बिना
बोले ही अनंत
कृतज्ञता से
के की आंखों
में देखता रहा
और तब उसने
डंडा उठाकर
रेत पर लिखा —केवल
स्मृति लौट
आयी, कौन
गया था, कौन
लौटा? सिर्फ
स्मृति लौट
आयी।
बस
इतना ही
सारसूत्र है
अष्टावक्र और
जनक के इस परम
संवाद का, इतना ही—स्मृति
लौट आयी।
वही है
मरकजे —काबा
वही है राहे —बुतखाना
जहां
दीवाने दो
मिलकर सनम की
बात करते हैं
इन दो
दीवानों की
बात तुमने
सुनी। प्रभु
करे तुम्हें
भी दीवाना
बनाये, तुम्हारे
जीवन में भी
वह अपूर्व
अमृत बरसे। और
देर जरा भी
नहीं है, बस
स्मृति की बात
है।
हरि —ओंम
तत्सत्।
आज
इतना ही।
(अष्टावक्र:
गीता—समप्त)
यह प्रवचन माला की अंतिम कड़ी के अंतिम कथा ही मानों माला के मुख्य-प्रमुख मोती बराबर हैं ! सच में पूरी श्रृंखला अद्भुत हैं |
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