कौशल नरेश का धन में उलझना—(एस धम्मो सनंतनो)
श्रावस्ती के एक अपुत्रक श्रेष्ठी के मर जाने के बाद कोशल नरेश ने सात दिन तक उसके धन को गाड़ियों में खुलवाकर राजमहल में मंगवाया। इन सात दिनों तक धन ढुलवाने में वह इस तरह उलझा कि भगवान के पास एक दिन भी न जा सका। वैसे साधारणत: वह नियम से प्रतिदिन प्रातःकाल भगवान के दर्शन और सत्संग के लिए आता था।
जिस
दिन धन
खुलवाने का
कार्य पूरा
हुआ उस दिन उसे
भगवान की याद
आयी सो वह भरी
दुपहरी में ही
भगवान के पास
जा पहुंचा।
भगवान
ने उससे दोपहर
में आने का
कारण पूछा। राजा
ने सब समाचार
बताए और फिर
पूछा भंते। एक
बात मेरे मन
को मथे डालती
है। उस
अपुत्रक
श्रेष्ठी के
पास इतना धन
था कि मुझे
सात दिन लग गए
गाडियों में
ढुलवाते—
ढुलवाते तब
बामुश्किल
उसके धन को
राजमहल ला
पाया हूं। फिर
भी वह रूखा—
सूखा खाता था!
फटा— पुराना
पहनता था! और
टूटे हुए.
जराजीर्ण रथों
पर चलता था!
इसे
सुनकर भगवान
ने कहा
महाराज! वह
पूर्वकाल में
तगरशिखी
बुद्ध को दान
दिया था। दान
तो कुछ बड़ा
नहीं दिया था।
बड़े दान देने
की उसकी क्षमता
नहीं थी। दान
तो बड़ा
क्षुद्र दिया
था। लेकिन
क्षुद्र दान
का विराट
परिणाम हुआ।
उस दान के
फलस्वरूप उसे
इतनी धन—
संपत्ति इस
जीवन में
मिली।
दान
तो उसने थोड़ा
ही दिया था पर
दान देकर पीछे
पछताया बहुत
था— कि यह भी
क्या भूल कर
ली! यह भी किन
बातों में आ
गया।
उस
पछतावे के
कारण उसका मन
अच्छा खाने—
पहनने में
नहीं लगता था।
वह पछतावा
पीछा कर रहा
था उस पछतावे
के कारण रुपया
हाथ से छोड़ने
की उसकी
क्षमता ही
विलीन हो गयी
थी। दान देना
तो मु अपने
उपयोग के लिए
भी धन को व्यय
करने की उसकी
क्षमता खो गयी
थी।
उस
दान को देने
से दो परिणाम
हुए थे एक
परिणाम हुआ था
कि दिया तो
बहुत उसके
उत्तर में
मिला। और देकर
पछताया बहुत
तो उसका जीवन
अत्यंत कृपणता
से भर गया।
इतना कि खुद
भी खा नहीं
सकता था कपड़े
नहीं पहन सकता
था। महाकंजूस
हो गया— पछतावे
के कारण!
इसने
संपत्ति के
लिए ही अपने
भाई के मरने
पर उसके
इकलौते बेटे
को भी जंगल
में ले जाकर
मार डाला था।
जिसके
फलस्वरूप उसे
स्वयं संतान
पैदा नहीं
हुई। उसके
बांझ रह जाने
का यही मूल
कारण था।
इस
समय मरकर वह
महा रौरव नरक
में उत्पन्न
हुआ है।
क्योंकि
पुराना किया हुआ
पुण्य समाप्त
हो गया है और
उसने कोई नया
पुण्य किया
नहीं।
राजा
ने भगवान की
बात सुन कहा
भंते! उसने
बडा बुरा कर्म
किया जो आप
जैसे बुद्ध के
पास ही विहार
में रहते हुए
भी न दान दिया
न धर्म— श्रवण
किया न अपनी
संपत्ति का
कोई सदुपयोग
किया। कोई
पुण्य न कमाया
और सब छोड़कर
अंतत: मर ही
गया!
शास्ता
हंसे और बोले
ऐसे ही
महाराज!
बुद्धिहीन पुरुष
धन— संपत्ति
पाकर भी
निर्वाण की
तलाश नहीं
करते हैं। और
धन— संपत्ति
के कारण
उत्पन्न तृष्णा
उनका
दीर्घकाल तक
हनन करती है।
तब उन्होंने
यह गाथा कही:
हन्नति
भोगा दुम्मेधं
नौ चे
पारगवेसिनो।
भोगतण्हाय
दुम्मेधो
हन्ति अज्जे’व
अत्तनं ।
'संसार को
पार होने की
कोशिश नहीं
करने वाले
दुर्बुद्धि
मनुष्य को भोग
नष्ट कर डालते
हैं। भोग की
तृष्णा में पड़कर
वह
दुर्बुद्धि
पराए की तरह
अपना ही घात करता
है।'
सूत्र
के पहले इस
घटना को
ठीक—ठीक
विश्लिष्ट करके
समझ लें।
पहली
तो बात.
श्रावस्ती के
एक अपुत्रक
श्रेष्ठी के
मर जाने के
बाद।
अक्सर
ऐसा होता है।
जिनके पास धन
है,
उनको पुत्र
नहीं होते।
जिनके पास धन
है, उनको
संतान नहीं
होती। अक्सर
ऐसा होता है
कि धनी
आदमियों को
गोद लेने पड़ते
हैं बेटे। यह
सारी दुनिया
में ऐसा है!
गरीबों के घर
खूब बेटे—बेटियां
पैदा हो जाते
हैं, अमीरों
के घर कुछ चूक
हो जाती है।
इस चूक के
पीछे जरूर कुछ
मनोविज्ञान
होगा।
मेरे
देखे
मनोविज्ञान
यही है कि धनी
आदमी में प्रेम
नहीं होता।
असल में धन को
कमाने में उसको
अपने प्रेम को
बिलकुल नष्ट
कर देना होता
है।
प्रेमी
धन कमा नहीं
सकता। कमा भी
ले,
तो बचा नहीं
सकता। एक तो
कमाना मुश्किल
होगा प्रेमी
को, क्योंकि
उसे हजार
करुणाएं
आएंगी। वह
किसी की छाती
में छुरा नहीं
भोंक सकेगा।
और किसी की जेब
भी नहीं काट
सकेगा। किसी
से ज्यादा भी
नहीं ले
सकेगा। डांडी
भी नहीं मार
सकेगा। धोखा
भी नहीं कर
सकेगा।
जालसाजी भी
नहीं कर
सकेगा। जिसके
हृदय में प्रेम
है, वह
ज्यादा से
ज्यादा अपनी
रोटी—रोजी कमा
ले, बस, बहुत।
उतना भी हो
जाए तो बहुत!
धन
इकट्ठा करने
के लिए तो
हिंसा होनी
चाहिए। धन
इकट्ठा करने
के लिए तो
कठोरता होनी
चाहिए। धन
इकट्ठा करने
के लिए तो
छाती में हृदय
नहीं, पत्थर
होना चाहिए, तभी धन
इकट्ठा होता
है।
तो
धन प्रेम की
हत्या पर
इकट्ठा होता
है। और जिसके
प्रेम की
हत्या हो जाती
है,
वह बांझ हो
जाता है। वह
सब अर्थों में
बांझ हो जाता
है। उसके जीवन
में फूल लगते
ही नहीं। संतति
तो फूल है।
जैसे वृक्ष
में फूल लगते,
फल लगते।
लेकिन अगर
वृक्ष में
रसधार बहनी
बंद हो जाए, तो फिर फूल
भी नहीं
लगेंगे, फल
भी नहीं
लगेंगे।
संतति तो फल
और फूल हैं तुम्हारे
जीवन में।
तुम्हारे
प्रेम की धारा
बहती रहे, तो
ही लग सकते
हैं।
इसके
पीछे बड़ा
मनोवैज्ञानिक
कारण है।
जितना ज्यादा
धनी,
उतना ही
प्रेम में दीन
हो जाता है।
अक्सर तुम गरीबों
को प्रेम से
भर हुआ पाओगे,
अमीरों को
प्रेम से
रिक्त पाओगे।
यह आकस्मिक नहीं
है। बात उलटी
है।
तुम
सोचते हो.
गरीब आदमी
प्रेमी है।
असल बात यह है
कि प्रेमी
आदमी गरीब रह
जाता है। बात
उलटी है। तुम
सोचते हो
अमीरों में
प्रेम क्यों
नहीं? तुम
समझे ही नहीं।
प्रेम ही होता,
तो वे अमीर
कैसे होते!
अमीर होना
कठिन हो जाता।
प्रेम को तो
मारकर चलना
पडा। प्रेम को
तो काट देना पड़ा।
प्रेम को तो
गड़ा देना पडा
जमीन में। जिस
दिन उन्होंने
अमीर होना
चाहा, जिस
दिन अमीर होने
की आकांक्षा
जगी, उसी
दिन प्रेम की
हत्या हो गयी।
प्रेम की लाश पर
ही अमीरी के महल
खड़े हो सकते
हैं, नहीं
तो नहीं खड़े
हो सकते।
प्रेम से कीमत
चुकानी पड़ती
है।
और
प्रेम
तुम्हारी
आत्मा की
सुगंध है।
आत्मा की
सुगंध खो जाती
है और
तुम्हारी देह
धन से घिर
जाती है।
तुम्हारे पास
जड़ वस्तुएं
इकट्ठी हो
जाती हैं, और
तुम्हारा
जीवन—स्रोत
सूखता चला
जाता है।
इसलिए
अमीर से
ज्यादा गरीब
आदमी तुम न
पाओगे। उसकी
गरीबी भीतरी
है। उसके भीतर
सब सूख गया। उसके
भीतर कोई रस
नहीं बहता अब।
उसका जीवन
बिलकुल
मरुस्थल जैसा
है। वहां कोई
हरियाली नहीं
है। कोई पक्षी
गीत नहीं
गाते। कोई मोर
नहीं नाचते।
कोई बांसुरी
नहीं बजती।
कोई रास नहीं
होता। सूख गयी
इस जीवन चेतना
में ही संतति
के फल लगने
कठिन हो जाते
हैं।
श्रावस्ती
के एक अपुत्रक
श्रेष्ठी के
मर जाने के
बाद...। और
स्वभावत:, कोई
बेटा नहीं था
उसका। और मर
गया, तो
सारा धन राजा
के घर चला
जाएगा।
कोशल
नरेश ने सात
दिन तक उसके
धन को गाड़ियों
में ढुलवाकर
राजमहल में
मंगवाया। इन
सात दिनों तक
धन ढुलवाने
में वह इस तरह
उलझा कि भगवान
के पास एक दिन
भी न जा सका।
अब
यह जरा मजा
देखना! यही
कोशल नरेश
जिज्ञासा से
भरता है कि यह
धनी आदमी है!
इतना धन था!
फिर भी न कभी
ठीक से पहना, न
कभी ठीक से
खाया, न
कभी ठीक रथों
में चला! यह
धनी आदमी, बुद्ध
इसके पास ही
विहार करते, कभी सत्संग
को नहीं गया!
इस धन में से
कुछ बुद्ध के
विराट काम में
लगा देता, यह
भी नहीं किया।
और अब मर गया; और अब सब
यहीं पड़ा रह
गया!
यह
दूसरे के
संबंध में तो
सोच रहा है, अपने
संबंध में
नहीं सोच रहा
है! यह दूसरे
का धन अपने घर
बुलवा रहा है
सात दिन तक; यह बुद्ध को
भूल गया। ये
सात दिन इसे
बुद्ध की याद
ही न आयी! साफ
है बात कि
बुद्ध की याद
भी तभी आती है,
जब फुरसत हो,
जब और कोई
काम न हो।
बुद्ध इसकी
जीवन—सूची में
प्रथम नहीं
हैं। प्रथम धन
ही है।
जब
सब तरह राहत
होती है, और
कोई काम नहीं
होता, तब
सोचता है.
बैठे —ठाले
क्या करना है!
चलो र सत्संग
कर आएं।
सत्संग पर
इसका जीवन
दांव पर नहीं
लगा है। यह
सात दिन दूसरे
का धन अपने घर
लाने में
व्यस्त है।
खड़ा
रहा होगा वहा
कि कहीं कोई
और न ले जाए!
कहीं धन यहां
—वहां न बिखर
जाए। कहीं
लाने वाले
नौकर—चाकर कुछ
न लूट लें।
कहीं कोई
बैलगाड़ी महल
की तरफ न आकर
किसी और तरफ न
मुड़ जाए। यह
खड़ा रहा होगा।
संभावना यही
है कि बैलगाड़ियों
के साथ —साथ
धनी के घर से
राजमहल आया
होगा। भूल ही
गया बुद्ध को!
और
ध्यान रखना.
अगर बुद्ध
प्रथम नहीं
हैं तुम्हारी
जीवन —सूची
में,
तो हैं ही
नहीं। अगर
धर्म प्रथम
नहीं है तुम्हारी
जीवन—सूची में,
तो है ही
नहीं।
परमात्मा
को तो सभी ने
जीवन—सूची के
अंत में रख
दिया है! लोग
कहते हैं धन
कमा लें पहले, पद
कमा लें पहले,
बेटे की
शादी कर लें, बच्चे बड़े
हो जाएं, घर
सब सम्हल जाए,
फिर—फिर
प्रभु — भजन
में लगेंगे।
अंतिम!
और
न कभी घर
सम्हलता पूरा, क्योंकि
एक समस्या से
दूसरी उठती
चली जाती है।
बच्चों का
विवाह हो जाता
है, तो
उनके बच्चे
खड़े हो जाते
हैं। अब इन
बच्चों का
विवाह करना
है। अब इनकी
चिंता पकड़ने
लगती है।
यहां
उलझनें कभी
समाप्त थोड़े
ही होती हैं।
जिंदगी में
कभी ऐसा थोड़े
ही होता है, जैसा
फिल्मों में
होता है—दि
एंड। यहां कभी
ऐसा होता ही
नहीं कि खतम
हो गयी
कहानी—इतिश्री!
नहीं; यहां
तो जिंदगी
चलती चली जाती
है। तुम खतम
हो जाओगे, जिंदगी
चलती चली जाती
है। तुम कई
बार खतम हो गए
और जिंदगी
चलती रही। जिंदगी
कभी खतम नहीं
होती।
व्यक्ति आते
हैं और चले
जाते हैं, और
जिंदगी बहती
रहती है।
इसलिए
तुम यह मत
सोचना कि
जिंदगी की
धारा जब रुक
जाएगी, सब
चिंताओं से
मुक्त हुए, सब समस्याएं
हल हो गयीं, सब
हिसाब—किताब
पूरा हो गया, फिर बैठकर
हरि— भजन
करेंगे।
फिर
तुम न करोगे। तुम्हारी
लाश चलेगी; दूसरे
लोग हरि— भजन
करेंगे : राम
—नाम सत्य है।
वह दूसरे लोग
हरि— भजन
करेंगे, वह
भी तुम्हारे
लिए—कि बेचारा
खुद तो नहीं
कर पाया, अब
इसको मरघट
पहुंचाते तक
तो कर दो!
हालांकि अब
लाश ही पड़ी
है, वहां
कोई सुनने
वाला भी नहीं
है!
तुम
तो गंगा नहीं
जा पाते, जब मर
रहे होओगे, तो दूसरे
बोतलों में
बंद गंगाजल तुम्हारे
मुंह में डाल
देंगे! तुम
गटक भी न पाओगे;
आधा तो बाहर
ही बह जाएगा!
अब तो गटकने
की भी क्षमता
नहीं रह गयी।
तुम
मर रहे हो, तुम्हारा
होश खो रहा है,
और लोग
तुम्हारे कान
में भगवान का
नाम लेंगे या
नमोकार मंत्र
पढ़ेंगे, या
भक्तांबर
स्त्रोत या
गीता—पाठ या
वेद की ऋचाएं!
वह मर रहा है
आदमी! उसे अब
कुछ सुनायी
नहीं पड़ता!
जिंदगीभर यह
सोचता था कि
कभी पूरा
निश्चित हो
जाऊंगा, तो
बैठकर प्रभु
का स्मरण कर
लूंगा। मगर यह
हो नहीं पाता।
प्रभु—स्मरण
करना हो, तो
अभी, या कभी
नहीं। यही
क्षण! एक क्षण
के लिए भी
टालना मत, क्योंकि
एक क्षण का भी
भरोसा नहीं।
कोन जाने, दूसरे
क्षण मौत आती
हो, राम—नाम
सत्य हो जाए!
तो इसके पहले
तुम राम—नाम को
सत्य कर
लो—अपने जीवन
में।
यह
कोशल नरेश धन
ढोने में भूल
गया बुद्ध को।
हालांकि यह
बड़े मजे की बात
है,
और यह सब के
जीवन में होता
है। दूसरे की
आंख में तो
अगर जरा सा
कूड़ा—कर्कट
पड़ा हो, तो
तुम्हें ऐसा
लगता है जैसे
पहाड़। और अपनी
आंख में पहाड़
भी पड़ा हो, तो
कूड़ा—कर्कट भी
नहीं मालूम
होता!
हम
दूसरे के
संबंध में
निर्णय लेने
में बड़े कुशल
हैं! हम अपने
को बचाए ही
चले जाते हैं।
हम कभी नहीं
सोचते अपने
संबंध में।
धन
ढोते वक्त
इसने यह न
सोचा कि सात
दिन हो गए! मैं
रोज सुबह जाता
था बुद्ध के
प्रवचन सुनने, रोज
सत्संग करने,
दर्शन करने!
सात दिन में
फुरसत न मिली!
धन में ऐसा
उलझा! और
दूसरे का धन!
अपना भी नहीं।
और यह भी देख रहा
है कि दूसरा
मर गया सब
छोड़कर, ऐसे
ही मैं भी मर
जाऊंगा।
मगर
वह सवाल नहीं
है। वह सवाल
उठता ही नहीं।
बुद्धिमान
जिंदगी के सब
सवालों को
अपनी तरफ मोड
देता है और
बुद्ध सदा
दूसरों की तरफ
मोड़े रखता
है। यह आदमी
अगर थोड़ा
बुद्धिमान
होता, तो बजाय
बैलगाड़ियों
को राजमहल ले
जाने के, बैलगाड़ियों
को वहीं छोड़ता,
राजमहल
छोडता; जाकर
बुद्ध से कहता
कि आ गया शरण
में। बुद्धं शरणं
गच्छामि! अब
कहीं न
जाऊंगा। देख
लिया : एक आदमी
इतना धन
छोड़कर मर गया,
किसी काम
नहीं पड़ा। और
जब मर गया, तो
एक कोड़ी साथ न
ले जा सका। अब
मैं क्या ले
जाऊंगा! मेरी
भी मौत करीब
आती है।
उस
अपुत्रक
श्रेष्ठी की
मृत्यु में
अपनी मौत दिख
गयी होती। उस
अपुत्रक
श्रेष्ठी की
व्यर्थ जीवन—
धारा में, अपने
जीवन की
व्यर्थता दिख
गयी होती।
क्रांति घट
जाती। लेकिन
सात दिन तो
याद भी न आयी
बुद्ध की। हां,
कई बार यह
सवाल उठा कि
यह भी कैसा
आदमी था! सब
पड़ा रह गया
आखिर! अरे! भोग
लेता। कुछ
उपयोग कर
लेता। अब सब
दूसरे ले जा
रहे हैं!
और
इस कोशल नरेश
को खयाल ही
नहीं कि ऐसे
ही तुम मरोगे
और इसी तरह
दूसरे ले
जाएंगे।
कोई
इकट्ठा करता
है,
कोई ले जाता
है! जो ले जाता
है, वह भी
इकट्ठा कर रहा
है, वह भी मरेगा,
फिर कोई ले
जाएगा। धन
यहीं का यहीं
पड़ा रहता है, हम आते और
चले जाते हैं।
न कोई धन लेकर
आता, न कोई
लेकर
जाता—जिसको यह
दिखायी पड़
जाता है, उसके
जीवन में बड़े
अर्थ, बड़ी
भाव— भंगिमाओं
में रूपांतरण
हो जाते हैं, नए अर्थ आ
जाते हैं। तब
दान की
संभावना है।
जो
है ही नहीं
मेरा, उसको
पकड़ना क्या!
जिसको मुझे
छोड़कर जाना
ही पड़ेगा, उसको
फिर मौज से ही
क्यों न दे
देना! मजे से
क्यों न दे
देना! जो
दूसरे के हाथ
लगने ही वाला
है, उसे
अपने ही हाथ
से देने का
मौका क्यों
चूक जाना! और
फिर पता नहीं
किसके हाथ
लगेगा?
अब
सोचना. यह
श्रेष्ठी मरा, यह
चाहता तो
बुद्ध को भी
दे सकता था।
लेकिन अब राजा
के हाथ लगा।
शायद इसी राजा
से चुराया होगा
टैक्स
इत्यादि में।
इसी राजा से
बचाया होगा।
उसी के हाथ लग
गया! यह दान भी
हो सकता था।
उस गांव में
गरीब भी थे
बहुत। उनको दे
गया होता। उस गांव
में बीमार भी
थे बहुत, उनकी
औषधि का
इंतजाम कर गया
होता। लेकिन
कुछ भी न कर
पाया। अपने
लिए ही नहीं
कर पाया, तो
दूसरे के लिए
क्या करेगा?
इसलिए
तुमसे एक बात
और इस संदर्भ
में कह दूं। जब
मैं कहता हूं
प्रेम करो, तो
कभी भूलकर यह
मत समझना कि
मैं कहता हूं
अपने से प्रेम
नहीं करो। जो
अपने से करता
है प्रेम, वही
दूसरे से कर
सकता है।
यह
श्रेष्ठी खुद
ही ठीक से
खाया—पीया
नहीं, इसको
गरीब को भूखा
मरते देखकर
दया नहीं आ
सकती। कैसे
आएगी? यह
खुद ही गरीब
की तरह रह रहा
है! यह कहेगा.
इसमें क्या
खास बात है! हम
भी ऐसा ही
रूखा—सूखा
खाते हैं। तो
धन का क्या
करोगे? धन
हमारे पास है,
फिर भी हम
रूखा—सूखा
खाते हैं। और
तुम भी रूखा—सूखा
खाते हो, धन
तुम्हारे पास
नहीं है। धन
की जरूरत क्या
है? हमें
भी देखो, इस
तरह के
फटे—पुराने
कपड़े पहनते
हैं। तुम पहनो,
तो कोई बहुत
बड़ी कुरबानी
कर दी! कि तुम
बड़े शहीद हो
गए! हमारी बैलगाड़ी
देखो! यह भी
टूटी—फूटी; तुम्हारी भी
टूटी—फूटी। हम
तुम्हीं जैसे
हैं। धन के
होने, न
होने से क्या
जरूरत है!
जो
आदमी स्वयं
ठीक से नहीं
खाया, वह किसी
की भूख नहीं
समझ सकेगा।
आमतोर से तुम उलटा
तर्क सोचते
हो। तुम आमतोर
से सोचते हो : जिस
आदमी ने दुख
देखा, वह
दूसरे के दुख
समझ सकेगा।
गलत बात है।
क्योंकि जिसने
खुद दुख देखा,
वह दुख के
कारण जड़ हो
जाता है, वह
दूसरे का दुख
नहीं देख
पाता। जिसने
सुख देखा, वह
दूसरे का दुख
देख पाता है।
सुख के कारण
तुलना पैदा
होती है। गरीब
आदमी दूसरे
गरीब आदमी के
प्रति कोई दया
नहीं कर पाता।
तुमने
किसी भिखमंगे
को किसी
भिखमंगे के
प्रति दया
करते कभी देखा? भिखमंगा
छीन लेगा
दूसरे
भिखमंगे से।
भिखमंगों के
भी अपने दादा
होते हैं!
उनके भी गुरु
होते हैं।
भिखमंगा छीन
लेगा दूसरे
भिखमंगे से। लेकिन
भिखमंगों ने
कभी दान नहीं
दिया है।
यह
कोशल नरेश! यह
तो सोच रहा है
कि यह आदमी
नर्क जाएगा। न
कभी सुख से जीया, न
खाया, न
पीया। सब पडा
रह गया! दान कर
लेता। पुण्य
कर लेता। कुछ
कर लेता।
लेकिन स्वयं
बुद्ध को भूल
गया। वह इस
तरह उलझा रहा
धन को ढुलवाने
में कि एक भी
दिन भगवान के
पास न आ सका।
वैसे साधारणत:
वह नियम से
प्रतिदिन
प्रातःकाल
भगवान के
दर्शन और
सत्संग के लिए
आता था।
आज
कसौटी थी। धन
को छोड़कर आना
संभव नहीं
हुआ। सब
सुविधा में चल
रहा था, तो
आने में कोई
अड़चन न थी।
वहां भी बैठकर
झपकी लेता
होगा। वहा भी
बैठकर
विश्राम करता
होगा। वहा भी
बुद्ध जो कहते
होंगे, सुनता
नहीं होगा। सुना
होता, तो
सात दिन तक
भूल कैसे जाता?
वह सब सुना
मिट्टी में
गया। उस सब
सुने में कुछ
सार नहीं।
सुना
होता, तो आज तो
यह बड़ा प्रमाण
मिल गया था, बुद्ध जो
कहते थे उसी
का. कि यह सब
पडा रहा जाएगा।
यह सब ठाठ पड़ा
रह जाएगा, जब
बांध चलेगा
बनजारा! आज तो
प्रमाण मिल
जाता, आज
तो देखकर
आंखें खुल
जातीं, कि
बुद्ध ठीक ही
कहते हैं। अब
और देर करनी
उचित नहीं।
जैसे यह
श्रेष्ठी मर
गया, ऐसे
कल मैं मर
जाऊंगा। उसके
पहले कुछ कर
लूं कुछ खोज
लूं कुछ सत्य
से नाता जोड़
लूं। बुद्ध के
चरण पकड़ लूं।
बुद्ध जो कहते
हैं, उसे
गुन लूं उसे
जीवन में उतार
लूं।
लेकिन
जिस दिन धन
ढुलवाने का
काम पूरा हुआ, उसे
उस दिन फिर
भगवान की याद
आयी!
अब
फिर खाली था।
फिर फुरसत थी।
तो भगवान यानी
एक तरह का
मनोरंजन।
काम—वाम अब
नहीं है कुछ।
अब चलो, वहा
हो आएं। इस
संसार को तो
सम्हाल ही लें,
उस संसार को
भी सम्हाले
रहें। और जब भी
दोनों में
संघर्ष हो, तो इसको
पहले
सम्हालना है,
उसको बाद दे
देनी है।
सो
वह भरी दुपहरी
में भगवान के
पास जा
पहुंचा।
शायद
थोड़ा भीतर
अपराध— भाव भी
हुआ होगा—कि
सात दिन से
नहीं गया हूं
भगवान
पूछेंगे :
कहां रहे! शायद
भीतर कुछ कलुष
भी लगा होगा, कालिमा
भी लगी होगी
कि यह भी
मैंने क्या
किया! शायद
उसी अपराध के कारण
दोपहर में ही
पहुंच गया।
जाता सुबह था,
वही मिलने
का समय भी था।
असमय पहुंच
गया। भर दोपहर!
भगवान
ने उससे दोपहर
में आने का
कारण पूछा। भगवान
ने यह नहीं
पूछा कि सात
दिन क्यों
नहीं आया!
नहीं, बुद्ध
जैसे व्यक्ति तुम्हें
पीड़ा देना ही
नहीं चाहते, किसी तरह की
पीड़ा नहीं
देना चाहते।
यह पूछना अशोभन
होगा कि सात
दिन क्यों
नहीं आया! यह
उसके घाव को
छूना होगा। अब
जो हुआ, हुआ।
बुद्ध
जैसे व्यक्ति
क्षमा करना
जानते हैं। देख
तो रहे हैं कि
सात दिन से
नहीं आया। पता
भी चल चुका
होगा, खबर भी आ
गयी होगी कि
श्रेष्ठी मर
गया, उसका
धन ढो रहा है
कोशल नरेश।
लेकिन यह नहीं
पूछा कि सात
दिन क्यों
नहीं आए। पूछा
यही आज भर दुपहरी
में कैसे चले
आए!
बुद्ध
जैसे व्यक्ति
सदा विधायक को
देखते हैं, नकारात्मक
को नहीं।
अंधेरे को छोड़
देते हैं, रोशनी
को पकड़ते हैं।
क्योंकि
रोशनी में ही
ले जाना है, तो रोशनी को
ही पकड़ना उचित
है।
राजा
ने सब समाचार
बताए और फिर
पूछा : भंते! उस
अपुत्रक
श्रेष्ठी के
पास इतना धन
था,
फिर भी वह
रूखा—सूखा
खाता था, फटा—पुराना
पहनता था, टूटे
हुए जराजीर्ण
रथों पर चलता
था! मामला क्या
है? इसका
राज क्या है?
सुनकर
भगवान ने कहा
महाराज! वह
पूर्व काल में
तगरशिखी
बुद्ध को दान
दिया था, जिसके
फलस्वरूप
इतनी
धन—संपत्ति
उसे मिली थी।
दान तो बहुत
छोटा था...।
बीज
बड़ा छोटा होता
है जैसे, और
फिर विराट
वृक्ष बन जाता
है, ऐसा ही
दान का बीज
है। और ध्यान
रखना : ऐसा ही पाप
का बीज भी है।
तुम जो बोओगे,
वही बड़ा
होता चला जाता
है। तो बोते
समय खयाल रखना।
कहीं जहर के
बीज मत बो
लेना। एक बार
जो तुमने बो
दिया है, उसकी
फसल काटनी
पड़ेगी। और जो
बोया है, वही
बड़ा होकर
मिलेगा।
छोटा
सा बीज तुम
बोते हो, और
बड़ा वृक्ष हो
जाता है, जिसके
नीचे सैकड़ों
लोग बैठ सकें
छाया में; कि
अनेक
बैलगाड़ियां
विश्राम कर
सकें; कि
अनेक पक्षी
बसेरा कर
सकें। बड़ा हो
जाता है वृक्ष।
खूब फल लगते
हैं, खूब
फूल लगते हैं।
एक बीज से फिर
अनंत बीज लगते
हैं। इसलिए
सोच—समझकर बीज
बोना।
दान
तो उसने किसी
बुद्धपुरुष
को—तगरशिखी
कों—थोड़ा सा
ही दिया था।
ज्यादा देने
की उसकी
क्षमता भी
नहीं थी। देने
की क्षमता
होती, तो फिर
पछताता ही क्यों?
दे गया होगा
किसी संवेग के
क्षण में।
इस
बात को खयाल
में लेना।
अक्सर संवेग
का क्षण होता
है। किसी की
वाणी सुनी, तगरशिखी
को सुना होगा,
उनके
अपूर्व वचन!
भाव में आ गया
होगा, संवेग
में आ गया
होगा। उस
संवेग के क्षण
में ही बोल
गया होगा खड़े
होकर—कि चलो, इतना दान
करता हूं। वह
भावाविष्ट
दशा रही होगी।
जब घर लौटा
होगा, तब
रास्ते में
सोचा होगा. यह
मैं क्या कर
गया!
यह
धनपति बुद्ध
को दान दिया, जिसके
फलस्वरूप उसे
इतनी धन—संपत्ति
मिली। इस
धन—संपत्ति को
जो तूने सात
दिन तक
बैलगाड़ियों
में ढोया है, यह उस एक
छोटे से बीज
से पैदा हुई।
दों—बहुत
मिलता है। जो
दोगे—वही
मिलता है। जितना
दोगे, उससे
अनंत गुना
मिलता है। और
जरूरी नहीं है
कि तुम जाकर
मंदिर में दो,
कि मस्जिद
में दो; जहां
देना हो, वहां
दो। पत्नी को
दो, बच्चों
को दो, पड़ोसियों
को दो, मित्रों
को दो। देने
की भावदशा
रहे।
दान
तो उसने थोड़ा
दिया था, बुद्ध
ने कहा, पर
दान देकर
पछताया बहुत।
जितना दिया था,
उससे अनंत
गुना पछताया।
ऐसे एक बीज तो
अमृत का बोया
और हजार बीज
उसी के आसपास
जहर के बो दिए।
अमृत का वृक्ष
भी बड़ा हुआ, जहर के फूल
भी लगे। तो वह
जहर की बागुड़
में घिर गया
अमृत का
वृक्ष।
जहरीले फलों
ने सब तरफ से
कंटीली
झाड़ियों की
तरह अमृत के
वृक्ष को घेर
लिया। वे बहुत
थे।
उस
पछतावे के
कारण ही उसका
मन फिर अच्छा
खाने —पहनने
में नहीं लगता
था। यह उसी
जन्म से —शुरू
हो गया। दे
आया होगा कुछ
दान,
अब सोचता
होगा. कैसे
उतना दान
निकाल लूं
वापस! कहां से
निकालूं? तो
चलो, थोड़ा
कम खाओ, थोड़ा
कम पहनो। इस
वर्ष नहीं
बनाएंगे नया
कोट सर्दियों
में, तो
चलेगा।
पुराना
बिलकुल ठीक
है। और नहीं
लेंगे नया रथ।
अब लोग कारें
लेते हैं, तब
रथ लेते थे!
नहीं लेंगे
नया रथ, नया
माडल नहीं
लेंगे।
पुराने ही
माडल से एक साल
और खींच
लेंगे। थोड़ा
इसी में
टीम—टाम, रंग
वगैरह करवा
लो। यह घोड़ा
यद्यपि बूढ़ा
हो गया है, लेकिन
अभी दो साल और
चल जाएगा।
वह
जो दान कर आया
था,
उसको बचाना
जरूरी है। तो
उसको रस चला
गया खाने
—पहनने में।
और वह जो रस
गया, सो
गया। वह अभी
तक नहीं लौटा।
अनंत जन्म बीत
गए होंगे इस
बीच, क्योंकि
तगरशिखी
बुद्ध गौतम
बुद्ध से कोई
पांच हजार साल
पहले थे।
कितने जन्म इस
आदमी के हो गए
होंगे!
लेकिन
खयाल रखना.
गंगोत्री में
गंगा बड़ी छोटी
है,
गो—मुख से
गिरती है। फिर
गंगासागर में
जाकर बहुत बड़ी
हो जाती है, सागर हो
जाती है। ऐसे
ही जीवन है
तुम्हारा। जो
किया है, वह
रोज बड़ा होता
जाता है।
एक—एक
कृत्य सोचकर
करना, एक—एक
कृत्य
ध्यानपूर्वक
करना, नहीं
तो बहुत
पछताओगे।
अशुभ से बच
सको, तो
अच्छा। शुभ कर
सको, तो
अच्छा। और एक
ही बात से तोल
लेना : अहंकार
और निरअहंकार।
जिस बात से भी
अहंकार को
पुष्टि मिलती
हो, समझ
लेना कि कुछ
गलत करने जा
रहे हो। और
जिस बात से भी
अहंकार गलता
हो, विसर्जित
होता हो, समझ
लेना कि पुण्य
हो रहा है।
क्योंकि
मौलिक रूप से
एक ही पाप
है—अहंकार।
उस
पछतावे के
कारण रुपया
हाथ से छोड़ने
की इसकी
क्षमता ही चली
गयी। दूसरों
के लिए तो
सवाल ही नहीं
रहा,
यह अपने लिए
भी अब कठिन हो
गया इसे। इसने
संपत्ति के
लिए ही अपने
भाई के मरने
पर उसके इकलौते
बेटे को भी
जंगल में ले
जाकर मार
डाला—कि उसकी
संपत्ति भी
इसे मिल जाए।
इसका
बेटा नहीं है
कोई। यह
निःसंतान है।
इसके पास अपना
बहुत है।
लेकिन भाई का
भी मिल जाए; तो
उसके बेटे को
मार डाला!
जो
इतना कठोर हो
गया कि अपने
भाई के बेटे
को मार सका! और
कोई जरूरत
नहीं थी इसको, क्योंकि
इसके पास अपना
खुद बहुत है, वह भी पड़ा रह
जाने वाला है,
उसका भी कोई
मालिक नहीं
है।
भाई
के बेटे को
मारकर इसका
प्रेम बिलकुल
सूख गया।
इसीलिए यह
निःसंतान रह
गया। इसके बौझ
रह जाने का
यही मूल कारण
है। इस समय
मरकर वह महा
रौरव नरक में
उत्पन्न हुआ
है। क्योंकि
पुराना किया
हुआ पुण्य
समाप्त हो गया
है और नया
पुण्य उसने
किया नहीं।
ध्यान
रखना पुण्य भी
समाप्त हो
जाते हैं!
पुण्यों की भी
सीमा है।
कमाते ही
रहोगे, तो ही
साथ रहेंगे।
बहती ही रहे
पुण्य की धारा,
तो ही ठीक
है। रुकी—कि
गयी। ऐसा ही
समझो कि जैसे
तुम आग जलाते
हो। ईंधन
झोंकते रहो, तो आग जलती
रहेगी, जलती
रहेगी। ईंधन
बंद हो गया, थोड़ी —बहुत
देर जलेगी
पुराने ईंधन
के कारण, फिर
आखिर चुक
जाएगी।
हर
चीज चुक जाती
है। पुण्य भी
चुक जाते हैं।
सिर्फ एक चीज
है जो नहीं
चुकती, वह
पुण्य और पाप
के भी अतीत है,
उसको
साक्षी भाव
कहा है। वही
भर नहीं
चुकता। वही भर
शाश्वत है, बाकी सब
चीजें
क्षणभंगुर
हैं।
पुण्य
भी दूर तक साथ
जाता है।
लेकिन सदा साथ
नहीं जा सकता।
कमायी है एक
तरह की, उसका
लाभ ले लोगे, समाप्त हो
जाएगी।
इसलिए
जब अवसर मिले
शुभ का, तो
करते रहना।
ऐसा मत सोचना
कि बहुत कर
चुके शुभ, अब
क्या करना!
जिस दिन तुमने
ऐसा सोचा कि
बहुत कर चुके
शुभ, अब
क्या करना है!
उसी दिन से
शुभ मरने
लगेगा, उसी
दिन से
तुम्हारी
पूंजी चुकने
लगेगी। जैसे
आदमी को कमाते
रहना चाहिए, तो ही पूंजी
आती है, ऐसे
ही पुण्य करते
रहना चाहिए, तो ही पुण्य
में धारा बहती
रहती है, सातत्य
रहता है।
राजा
ने भगवान की
बात सुनकर कहा
भंते! उसने बडा
बुरा कर्म किया, जो
आप जैसे बुद्ध
के पास ही
विहार में
रहते हुए भी
दान नहीं दिया,
न धर्म—
श्रवण किया।
और अपनी इतनी
संपत्ति को छोड़कर
मर गया!
वह
पुराने बुद्ध
से जो एक दफे
भूल हो गयी, उस
कारण वह इन
बुद्ध के पास
आया भी नहीं
होगा! मेरे
देखने में ऐसा
ही है। वह
पछतावा इतना गहरा
हो गया है कि
एक दफा गया
था—ऐसा कोई
चेतन उसके मन
में नहीं है, लेकिन गहरे
अचेतन में
संस्कार है—एक
दफा गया था
बुद्ध के पास,
तब भूल हो
गयी थी, दान
कर बैठा था।
अब ऐसी जगह
फटकना भी
नहीं। अब ऐसी
जगह जाना भी
नहीं। अब ऐसे
लोगों से
बचना।
ये
खतरनाक लोग
हैं। इनके पास
आदमी
भावाविष्ट हो
जाता है और
कुछ का कुछ कर
बैठता है! होश
गंवा बैठता
है! प्रेम में
पड जाता है
इनके। इनके
साथ मदहोश हो
जाता है। ऐसी जगह
जाना ही नहीं।
ऐसा मजबूत कर
लिया होगा। ऐसी
मजबूत धारा बन
गयी होगी।
अब
बुद्ध का पड़ाव
पास में ही था, दो—चार
घर के पास ही
होगा। शायद
वहीं से रोज
निकलता होगा।
लेकिन निकलते
वक्त मुंह फेर
लेता होगा, या कानों
में
अंगुलियां
डाल लेता
होगा। हालाकि
कानों में
अंगुलियां
डालने की
जरूरत नहीं, क्योंकि लोग
वैसे ही बहरे
हैं! आंख उस
तरफ कर लेता
होगा।
हालांकि कोई
जरूरत नहीं, क्योंकि लोग
आंख के रहते
भी देखते कहां
हैं!
जल्दी—जल्दी
निकल जाता
होगा कि कहीं
कोई जान—पहचान
का आदमी न मिल
जाए और कहे कि
आओ,
आज तो
सत्संग कर लो।
कहीं कोशल
नरेश न मिल
जाएं सत्संग
से आते हुए—कि
अरे, कभी
आते नहीं!
कहीं
लाज—संकोच में,
किसी की बात
के प्रभाव में
फंस न जाऊं! उस
रास्ते से न
निकलता होगा।
दूसरे
रास्तों से जाता
होगा। बचता
होगा।
कोशल
नरेश ने कहा :
भंते! उसने
बड़ा बुरा कर्म
किया, जो आप
जैसे बुद्ध के
पास ही विहार
में रहते हुए
न दान दिया, न धर्म—
श्रवण किया और
अपनी इतनी
संपत्ति को छोड़कर
अंततः मर ही
गया न! काम
क्या आया!
अब
ये कोशल नरेश
किससे कह रहे
हैं?
इनको भी यह
समझ में नहीं
आया कि वह
संपत्ति अपनी
नहीं है, जिसको
घर ढो लाए।
अपनी न दें, कम से कम जो
अपनी नहीं है,
उसको तो दान
कर दें!
इन्हें यह भी
याद नहीं आ रहा
है कि सात दिन
दूसरे की
संपत्ति घर
ढोने में बुद्ध
को भूल गए थे।
वह बेचारा तो
अपनी संपत्ति
को बचाने में
भूला था; ये
तो दूसरे की
संपत्ति
लूटने में भूल
गए थे! यह भी
दिखायी नहीं
पड़ता।
कुछ
बड़ा मजा है।
इस सत्य को
ठीक से समझना।
हमें दूसरों
के कृत्य
दिखायी पड़ते
हैं,
उनके
मनोभाव नहीं
दिखायी पड़ते।
हमें अपने मनोभाव
दिखायी पड़ते
हैं, अपने
कृत्य नहीं
दिखायी पड़ते।
और यह एक बड़ी
जटिल
मनोवैज्ञानिक
गुत्थी है।
जैसे
कोई आदमी चोरी
करता है। तो
हमें उसका कृत्य
दिखायी पड़ता
है कि इसने
चोरी की। हमें
यह नहीं
दिखायी पड़ता
कि इसके भीतर
मनोभाव क्या
थे। उस चोर को
स्वयं अपना
चोरी का कृत्य
नहीं दिखायी
पड़ता। उसको
अपने मनोभाव
दिखायी पड़ते
हैं। उसके मनोभाव
समझो।
इसलिए
चोर कहेगा :
मुझे कोई
समझता नहीं
है। मुझे कोई
समझ नहीं
पाता। तुम सभी
यही कहते हो :
कोई मुझे
समझता नहीं!
पत्नी पति को
नहीं समझती; पति
पत्नी को नहीं
समझता। बाप
बेटे को नहीं
समझता; बेटा
बाप को नहीं समझता।
भाई— भाई को
नहीं समझता।
कोई किसी को
समझता ही
नहीं! इस
दुनिया में
हरेक को एक ही
शिकायत है, कोई मुझे
समझता नहीं।
कारण
क्या होगा इस
शिकायत का? यह
इतनी
सार्वभौम है!
कारण यही है।
तुम्हें अपना
मनोभाव
दिखायी पड़ता
है।
ऐसी
भूल रोज होती
है। आदमी अपने
भीतर अपना
मनोभाव देखता
है। दूसरा
व्यक्ति उसके
बाहर क्या
कृत्य घट रहा
है,
वह देखता
है। इसलिए कोई
किसी को समझ
नहीं पाता।
यह
कोशल नरेश
उसका कृत्य तो
देख रहा है, उसका
मनोभाव नहीं
देखा। कैसे
देखे? अपना
मनोभाव देख
रहा है, अपना
कृत्य नहीं
देख रहा है।
कैसे देखे?
जो
अपना कृत्य
देखने लगे और
दूसरों के
मनोभाव देखने
लगे,
वही
बुद्धत्व को
उपलब्ध है।
फिर उससे भूल
नहीं होती।
फिर किसी को
समझने में
उससे भूल नहीं
होती।
शास्ता
हंसे और
बोले.। इसलिए
बुद्ध हंसे, यह
देखकर कोशल
नरेश की बात, कि यह दया खा
रहा है उस
गरीब पर, जो
मर गया है।
इसे दया अपने
पर नहीं आ रही!
यह सोच रहा है
कि उसने कैसा
महापाप किया।
लेकिन यह अपने
बाबत जरा भी विचार
नहीं कर रहा
है!
असल
में हम दूसरों
के संबंध में
इसलिए विचार करते
हैं,
ताकि हम
अपने संबंध
में विचार
करने से बच
जाएं।
हम
सोचते ही रहते
हैं दूसरों के
संबंध में! तुमने
कभी अपने
संबंध में
सोचा? कभी घड़ी
आधा घड़ी बैठकर
तुमने कभी
अपने संबंध में
सोचा? जब
तुम घड़ी आधा
घडी बैठते हो
शांत, तब
भी तुम दूसरों
के संबंध में
सोचते हो!
पड़ोसियों के
संबंध में, अखबार में
छपी खबरें, फिल्मों में
देखी
कहानियां, रेडियो
पर सुने
गीत—वही
गूंजते रहते
हैं। और तुम
उसी विचार में
तल्लीन रहते हो!
दूसरा
महत्वपूर्ण
नहीं है। पहले
अपने में तो जाग
लो,
अपने को तो
देख लो! पहले
दर्पण अपने
चेहरे के सामने
करो, उससे
ही क्रांति की
शुरुआत है, उससे ही
धर्म का
प्रारंभ है।
इसलिए
शास्ता हंसे
और बोले. ऐसे
ही महाराज! बुद्धिहीन
पुरुष
धन—संपत्ति
पाकर भी
निर्वाण की तलाश
नहीं करते
हैं। और
धन—संपत्ति के
कारण उत्पन्न
तृष्णा उनका
दीर्घकाल तक
हनन करती है।
फिर
भी बुद्ध ने
सीधा नहीं
कहा। फिर भी
बुद्ध ने
परोक्ष ही 'कहा।
बुद्ध ने फिर
भी सत्य ही
कहा, लेकिन
उस सत्य को
व्यक्ति—सूचक
नहीं बनाया।
सिर्फ इतना ही
कक्ष : ऐसे ही
महाराज! बुद्धिहीन
पुरुष
धन—संपत्ति
पाकर भी
निर्वाण की
तलाश नहीं
करते हैं।
जिनके
पास
धन—संपत्ति
नहीं है, जिनके
पास भोजन नहीं
है, कपड़े
नहीं, छप्पर
नहीं, अगर
वे निर्वाण की
तलाश न करें, उन्हें
क्षमा किया जा
सकता है।
क्योंकि अभी
उनके जीवन की
छोटी—छोटी
समस्याएं ही
इतनी बड़ी हैं,
उनको ही
नहीं सुलझा पा
रहे हैं।
लेकिन जिनके पास
सब है, जिन्हें
अब कोई उलझाव
नहीं रहा है, वे भी अगर
सत्य की तलाश
न करते हों, तो उन्हें
क्षमा नहीं
किया जा सकता।
अगर
गरीब धार्मिक
न हो,
क्षम्य है।
अगर अमीर धार्मिक
न हो, तो
बुद्ध है, क्षम्य
नहीं है। तो
जड़ है। मंद
है। अगर गरीब
धार्मिक हो, तो
महाबुद्धिशाली
है। और अगर
अमीर धार्मिक
हो, तो
होना ही चाहिए;
इसमें कुछ
महाबुद्धिशाली
होने की बात
नहीं है।
इन
सत्यों को
खयाल में
रखना। जब
तुम्हारे पास सब
सुविधा हो, जब
तुम घडीभर
शांत बैठ सकते
हो —द्वार बंद
करके, संसार
को भूलने की
सुविधा हो
तुम्हें
घडीभर के लिए,
तो भूलना।
क्योंकि उसी
भूलने से
तुम्हें परमात्मा
की सुधि आनी
शुरू होगी, सुरति
जगेंगी।
बुद्ध
ने कहा. ही
महाराज! ऐसा
ही हाल है। और
हंसे। शायद
कोशल नरेश ने
उनके हंसने का
भी यही अर्थ
लगाया होगा कि
हंस रहे हैं
उस दुर्बुद्धि
निःसंतान
श्रेष्ठी के
लिए। फिर भी
शायद न सोचा
होगा कि यह
हंसने का तीर
कोशल नरेश की
तरफ है।
आदमी
अपने को बचा
लेता है। बच
जाता है। तीर
आता है, तो
इधर सरक जाता,
उधर सरक
जाता। तीर को
निकल जाने
देता है।
यह
तीर सीधा था।
बुद्ध ने
हंसकर जो कहना
था,
कहा था।
देखकर हंसे
होंगे कि कैसी
दुर्दशा है मनुष्य
की! यह दूसरे
की भूलें देख
रहा है और उन्हीं
भूलों में खुद
पड़ा है!
धन—सपत्ति
के कारण
उत्पन्न
तृष्णा
अनंतकाल तक
स्वयं का हनन
करती है।’संसार
को पार होने
की कोशिश नहीं
करने वाले
दुर्बुद्धि
मनुष्य को भोग
नष्ट करते
हैं। भोग की
तृष्णा में
पड़कर वह
दुर्बुद्धि
पराए की तरह
अपना ही घात
करता है।’
तुम
ध्यान रखना.
जो व्यक्ति
ध्यान नहीं कर
रहा है, वह
जाने — अनजाने
आत्मघात कर
रहा है।
क्योंकि जो
ध्यान नहीं कर
रहा है, वह
आत्मा को न पा
सकेगा। जो
ध्यान नहीं कर
रहा है, वह
मरणधर्मा में
उलझा रहेगा।
और मरणधर्मा
में जीवन का
सार नहीं है।
वह क्षुद्र
में ही लगा रहेगा।
और क्षुद्र
में कोई आनंद
नहीं है। क्षुद्र
में कोई
मुक्ति नहीं
है। यह
आत्मघात है।
जिसको
तुम जीवन कहते
हो,
यह आत्मघात
है, रोज—रोज
मरते जाते हो।
एक—एक दिन
बीतता और जीवन
कम होता जाता
है। जितने दिन
बीत गए, उतने
अवसर बीत गए।
उतने दिन बीत
गए, जिनमें
तुम स्वयं को
उपलब्ध हो
सकते थे, जिनमें
परमात्मा का
साक्षात हो
सकता था, जिनमें
शून्य घट सकता
था, पूर्ण
घट सकता
था—उतने अवसर
बीत गए।
मगर
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
जो बीत गए दिन, उनके
लिए बैठकर रोओ
अब। अब जो बीत
गए, सो बीत
गए। अब रोने
में इसको भी
मत गंवा देना।
और
सुबह का भूला
सांझ भी घर आ
जाए,
तो भूला
नहीं है; भूला
नहीं कहाता
है। और सदा
समय है। अगर
एक पल भी बाकी
है तुम्हारे
जीवन का.. और
निश्चित ही अभी
जीवित हो, तो
यह पल तो है
ही। आने वाले
पल की कोई बात
नहीं, यह
पल तो
तुम्हारे हाथ
में है। यह पल
भी अगर तुम
पूरी त्वरा से
अपने को देख
लो, तो
रूपांतरण का
पल हो जाए।
एक
क्षण में
संसार मिट
सकता है और
परमात्मा सामने
हो सकता है।
गहन तीव्रता
चाहिए, उत्तप्तता
चाहिए, सब
दाव पर लगाने
की क्षमता
चाहिए।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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