स्वस्थ
राजनीति के प्रतीकपुरुष
कृष्ण—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक
30 सितंबर, 1970;
प्रात:,
मनाली (कुल्लू्)
"भगवान
श्रीकृष्ण
आध्यात्मिक
पुरुष थे।
साथ-ही-साथ
उन्होंने
राजनीति में
भी भाग लिया।
और राजनीतिज्ञ
के रूप में जो
उन्होंने
महाभारत के
युद्ध में
किया वह यह:
भीष्म के आगे
शिखंडी को खड़ा
करके उन्हें
धोखे से मरवाया।
द्रोण को, "अश्वत्थामा मारा गया', ऐसा झूठ
बुलवाकर मरवाया।
कर्ण को, जब
रथ का पहिया
फंस गया, तब
उस निहत्थे को
मरवाया।
दुर्योधन को
उसकी जंघा पर
गदा-प्रहार
करवाकर मरवाया।
तो क्या
धार्मिक
व्यक्ति
राजनीति में
आएगा? और
अगर आएगा, तो
राजनीति में
यह चाल और यह
छल-कपट खेलेगा?
और क्या
इससे जीवन में
हम भी यही
सीखें कि अपनी
विजय के लिए
इस प्रकार के
कार्य, जो
धोखे से भरे
हुए हों, करें?
महात्मा
गांधी ने जो
साध्य की
शुद्धता के
साथ-साथ साधन
की शुद्धता पर
भी बल दिया, वह निरर्थक
था? क्या
राजनीति में
इसकी कोई
आवश्यकता
नहीं?'
धर्म
और अध्यात्म
का थोड़ा-सा
भेद सबसे पहले
समझना चाहिए।
धर्म और
अध्यात्म एक
ही बात नहीं।
धर्म जीवन की
एक दिशा है।
जैसे राजनीति
एक दिशा है, कला एक दिशा
है, विज्ञान
एक दिशा है, ऐसे धर्म
जीवन की एक
दिशा है।
अध्यात्म
पूरा जीवन है।
अध्यात्म
जीवन की दिशा
नहीं है, समग्र
जीवन
अध्यात्म है।
तो हो
सकता है कि
धार्मिक व्यक्ति
राजनीति में
जाने से डरे, आध्यात्मिक
व्यक्ति नहीं
डरेगा।
धार्मिक व्यक्ति
के लिए
राजनीति कठिन
पड़े, क्योंकि
धार्मिक
व्यक्ति ने
कुछ धारणाएं
ग्रहण की हैं
जो कि राजनीति
में विपरीत
हैं। आध्यात्मिक
व्यक्ति किसी
तरह की
धारणाएं
ग्रहण नहीं
करता, समग्र
जीवन को स्वीकार
करता है, जैसा
है।
कृष्ण
धार्मिक
व्यक्ति नहीं, आध्यात्मिक
व्यक्ति हैं।
महावीर
धार्मिक व्यक्ति
हैं इस अर्थ
में, बुद्ध
धार्मिक
व्यक्ति हैं
इस अर्थ में
कि उन्होंने
जीवन की एक
दिशा को चुना
है। उस दिशा के
लिए उन्होंने
जीवन की अन्य
सारी दिशाओं
को कुर्बान
कर दिया है।
उन सबको
उन्होंने काट
कर अलग कर दिया
है। कृष्ण
आध्यात्मिक
व्यक्ति हैं
इस अर्थ में
कि उन्होंने
पूरे जीवन को
चुना है। इसलिए
कृष्ण को
राजनीति डरा
नहीं सकती।
कृष्ण को राजनीति
में खड़े होने
में जरा भी
संकोच नहीं है,
कोई कारण
नहीं है।
राजनीति भी
जीवन का
हिस्सा है। और
समझना जरूरी
है कि जो लोग
धर्म के नाम
पर राजनीति को
छोड़कर हट गए
हैं, उन्होंने
राजनीति को
ज्यादा
अधार्मिक
बनाने में
सहायता दी है,
राजनीति को
धार्मिक
बनाने में
सहायता नहीं दी।
इसलिए
पहली बात तो
यह समझनी है
कि कृष्ण के
लिए जीवन के
सब फूल और सब कांटे
एकसाथ
स्वीकृत हैं।
जीवन में उनका
कोई चुनाव
नहीं है, "च्वॉइसलेस',
जीवन को
उन्होंने
बिना चुनाव के
स्वीकार कर लिया
है, जीवन
जैसा है। फूल
को वह नहीं
चुनते हैं, कांटे को भी
गुलाब का यह
जो फूल है, कांटा
इसका दुश्मन
है। दुश्मन
नहीं है। गुलाब
के फूल की
रक्षा के लिए
ही कांटा है।
दोनों गहरे
में जुड़े हैं।
दोनों एक ही
से संयुक्त
हैं। दोनों की
एक ही जड़ है और
दोनों का एक
ही प्रयोजन
है। कांटे को
काटकर गुलाब
को बचा लेने
की बहुत लोगों
की इच्छा होगी,
लेकिन
कांटा गुलाब
का हिस्सा है,
यह उन्हें
समझना होगा।
तब फिर कांटा
और गुलाब
दोनों को साथ
ही बचाना है।
तो
कृष्ण
राजनीति को
सहज ही
स्वीकार करते
हैं। वे उसमें
खड़े हो जाते
हैं, उसकी
उन्हें कोई
कठिनाई नहीं
है।
दूसरा
जो सवाल उठाया
है, वह और भी
सोचने जैसा
है। वह सोचने
जैसा है कि कृष्ण
ऐसे साधनों का
उपयोग करते
हैं, जो कि
उचित नहीं कहे
जा सकते। ऐसे
साधनों का
उपयोग करते
हैं, जिनका
औचित्य कोई भी
सिद्ध नहीं कर
सकेगा। झूठ का,
छल का, कपट
का उपयोग करते
हैं। लेकिन एक
बात इसमें समझेंगे
तो बहुत आसानी
हो जाएगी।
जिंदगी में शुभ
और अशुभ के
बीच कभी भी
चुनाव नहीं है,
सिवाय
सिद्धांतों
को छोड़कर।
जिंदगी में
"गुड' और
"बैड' के
बीच कोई चुनाव
नहीं है, सिवाय
सिद्धांतों
को छोड़कर।
जिंदगी में सब
चुनाव कम
बुराई, ज्यादा
बुराई के बीच
हैं। जिंदगी
के सब चुनाव "रिलेटिव'
हैं। सवाल
यह नहीं है कि
कृष्ण ने जो
किया वह बुरा
था, सवाल
यह है कि अगर
वह न करते तो
क्या उससे भला
घटित होता कि
और भी बुरा
घटित होता? चुनाव अच्छे
और बुरे के
बीच होते तब
तो मामला बहुत
आसान था।
चुनाव अच्छे
और बुरे के
बीच नहीं है, चुनाव सदा
"लेसर इविल'
और "ग्रेटर
इविल' के
बीच है। पूरी
जिंदगी ऐसी
है।
मैंने
सुनी है एक
घटना। एक चर्च
का पादरी एक रास्ते
से गुजर रहा
है। जोर से
आवाज आती है
कि बचाओ, बचाओ,
मैं मर जाऊंगा।
अंधेरा है, गलियारा है।
वह पादरी भागा
हुआ भीतर
पहुंचता है।
देखता है वहां
कि एक बहुत
कमजोर आदमी के
ऊपर एक बहुत
मजबूत आदमी
छाती पर चढ़ा
बैठा है। वह
उसको
चिल्लाकर
कहता है कि हट,
उस गरीब
आदमी को क्यों
दबा रहा है? लेकिन वह
हटता नहीं, तो वह उस पर
टूट पड़ता है
पादरी, और
उस मजबूत आदमी
को नीचे गिरा
देता है। वह
जो नीचे आदमी
है, वह ऊपर
निकल आता है।
भाग खड़ा होता
है। तब वह ताकतवर
आदमी उससे
कहता है कि
तुम आदमी कैसे
हो? उस
आदमी ने मेरा
जेब काट लिया
था और वह जेब
काटकर भाग
गया। वह पादरी
कहता है, तूने
यह पहले क्यों
न कहा, मैं
तो यह समझा कि
तू ताकतवर है
और कमजोर को
दबाए हुए है; मैं समझा कि
तू उसको मार
रहा है! यह तो
भूल हो गई। यह
तो शुभ करते
अशुभ हो गया।
लेकिन वह आदमी
तो उसकी जेब
लेकर नदारद ही
हो चुका था।
जिंदगी
में जब हम शुभ
करने जाते हैं, तब भी देखना
जरूरी है कि
अशुभ तो न हो
जाएगा? इससे
उल्टा भी
देखना जरूरी
है कि कुछ
अशुभ करने से
शुभ तो नहीं
हो जाएगा? कृष्ण
के सामने जो
चुनाव है, वह
बुरे और अच्छे
के बीच नहीं
है। कृष्ण के
सामने जो
चुनाव है वह
कम बुरे और
ज्यादा बुरे
के बीच है। और
कृष्ण ने
जिन-जिन
छल-कपट का
उपयोग किया, उनसे बहुत
ज्यादा छल-कपट
का उपयोग
सामने का पक्ष
कर रहा था और
कर सकता था।
और उस सामने
के पक्ष से
लड़ने के लिए गांधीजी
काम न पड़ते।
वह सामने का
पक्ष गांधीजी
को मिट्टी में
मिला देता।
सामने का पक्ष
साधारण बुरा
नहीं था, असाधारण
रूप से बुरा
था। उस
असाधारण रूप
से बुरे के
सामने भले की
कोई जीत की
संभावना न थी।
गांधी जी को
भी अगर
हिंदुस्तान
में हुकूमत
हिटलर की
मिलती तो पता
चलता!
हिंदुस्तान
में हुकूमत
हिटलर की नहीं
थी, एक
बहुत उदार कौम
की थी। और उस
कौम में भी
अगर चर्चिल
हुकूमत में
रहता तो आजादी
मिलनी बहुत
मुश्किल बात
थी। उसमें भी एटली का
हुकूमत में
आना बुनियादी
फर्क पड़ गया।
गांधीजी
जिस
साधन-शुद्धि
की बात करते
हैं, वह थोड़ी
समझने जैसी
है। उचित ही
है बात कि शुद्ध
साधन के बिना
शुद्ध साध्य
कैसे पाया जा
सकता है।
लेकिन इस जगत
में न तो कोई
शुद्ध साध्य
होता है, और
न कोई शुद्ध
साधन होते
हैं। यहां कम
अशुद्ध, ज्यादा
अशुद्ध, ऐसी
ही स्थितियां
हैं। यहां
पूर्ण स्वस्थ
पूर्ण बीमार
आदमी नहीं
होते, कम
बीमार और
ज्यादा बीमार
आदमी होते
हैं। जिंदगी
में सफेद और
काला, ऐसा
नहीं है, "ग्रे
कलर' है
जिंदगी का।
उसमें सफेद और
काला सब
मिश्रित है।
इसलिए गांधी
जैसे लोग कई
अर्थों में "उटोपियन' हैं। कृष्ण
बहुत ही जीवन
के सीधे-साफ
निकट हैं। "उटोपिया' कृष्ण के मन
में नहीं है।
जिंदगी जैसी
है उसको वैसा
स्वीकार करके
काम करने की
बात है। और फिर,
जिन्हें गांधीजी
शुद्ध साधन
कहते हैं, वे
भी शुद्ध कहां
हैं? हो
नहीं सकते। इस
जगत में--हां, मोक्ष में
कहीं हो सकते
होंगे शुद्ध
साधन और शुद्ध
साध्य--इस जगत
में सभी कुछ
मिट्टी से मिला-जुला
है। इस जगत
में सोना भी
है तो मिट्टी
मिलनी हुई है।
इस जगत में
हीरा भी है तो
वह पत्थर का
ही हिस्सा है।
गांधीजी
जिसे शुद्ध
साधन समझते
हैं, वह भी
शुद्ध है
नहीं। जैसे
गांधी जी कहते
हैं कि अनशन।
उसे वह शुद्ध
साधन कहते
हैं। मैं नहीं
कह सकता।
कृष्ण भी नहीं
कहेंगे।
क्योंकि दूसरे
आदमी को मारने
की धमकी देना
अशुद्ध है, तो स्वयं के
मर जाने की
धमकी देना
शुद्ध कैसे हो
सकता है? मैं
आपकी छाती पर
छुरा रख दूं
और कहूं कि
मेरी बात नहीं
मानेंगे तो
मार डालूंगा,
यह अशुद्ध
है। और मैं
अपनी छाती पर
छुरा रख लूं
और कहूं कि
मेरी बात नहीं
मानेंगे तो
मैं मर जाऊंगा,
यह शुद्ध हो
जाएगा? छुरे
की सिर्फ दिशा
बदलने से
शुद्धि हो
जाती है? यह
भी उतना ही
अशुद्ध है। और
एक अर्थ में
पहले वाले
मामले से यह
ज्यादा नाजुक
रूप से अशुद्ध
है। क्योंकि
पहली बात में
आदमी कह सकता
है कि ठीक है, मार डालो,
नहीं
मानेंगे।
उसको एक मौका
है। एक "मॉरल अपर्चूंनिटी'
है। वह मर
तो सकता है न!
लेकिन दूसरे
मौके में आप
उसे बहुत
कमजोर कर जाते
हैं। आपको
मारने की
जिम्मेदारी
शायद वह न भी
लेना चाहे।
अंबेदकर
के खिलाफ गांधीजी
ने अनशन किया।
अंबेदकर
झुके बाद में।
इसलिए नहीं कि
गांधीजी
की बात सही थी, बल्कि इसलिए
कि गांधीजी
को मारना
उतनी-सी बात
के लिए उचित न
था। इतनी हिंसा
अंबेदकर
लेने को राजी
न हुआ। बाद
में अंबेदकर
ने कहा कि
गांधी जी अगर
समझते हों कि
मेरा हृदय-परिवर्तन
हो गया तो गलत
समझते हैं, मेरी बात तो
ठीक और गांधीजी
की बात गलत
है। और अब भी
मैं अपनी बात
पर टिका हूं।
लेकिन इतनी-सी
जिद्द के
पीछे गांधीजी
को मारने की
हिंसा मैं
अपने ऊपर न लेना
चाहूंगा। अब
सोचना जरूरी
है कि शुद्ध
साधन अंबेदकर
का हुआ कि
गांधी का हुआ!
इसमें अहिंसक
कौन है? मैं
मानता हूं, अंबेदकर ने ज्यादा
अहिंसा
दिखलाई। गांधीजी
ने पूरी हिंसा
की। वह आखिरी
दम तक लगे रहे
जब तक अंबेदकर
राजी नहीं
होते, तब
तक तो मैं
मरने की
तैयारी रखूंगा।
इस
पृथ्वी पर या
तो दूसरे को
धमकी दो, या
खुद को मारने
की धमकी दो।
जब हम दूसरे
को मारने की
धमकी देते हैं,
तब हम
कम-से-कम उसे
एक मौका तो
देते हैं कि
वह शान के साथ
मर जाए और कह
दे तुम गलत हो
और मैं मरने को
राजी हूं।
लेकिन अगर हम
खुद को मारने
की धमकी देते हैं
तब हम उसे शान
से मरने का
मौका भी नहीं
देते। वह
दोनों हालत
में दिक्कत
में पड़ जाता
है। या तो वह
कहे कि गलत है
और झुके, या
वह कहे कि वह
सही है और
आपकी हत्या का
बोझ ले। हम
उसे हर हालत
में अपराधी
करार करवा
देते हैं। गांधीजी
के साधन शुद्ध
नहीं हैं।
दिखाई शुद्ध
पड़ते हैं। और
मैं कहता हूं
कि कृष्ण ने
जो भी किया वह
शुद्ध है।
तुलनात्मक
अर्थों में, "रिलेटिव' अर्थों में,
सापेक्ष
अर्थों में, जिनसे वे लड़
रहे थे उनके
सामने जो
कृष्ण ने किया,
उसके
अतिरिक्त और
कुछ करने का
उपाय न था।
"वे
शस्त्रों से
नहीं मार सकते
थे उन्हें, स्वयं?'
शस्त्रों
से ही मार रहे
हैं। लेकिन
युद्ध में छल
और कपट शस्त्र
हैं। और जब
सामने वाला
दुश्मन उनका
पूरा उपयोग
करने की
तैयारी रखता
हो, तो अपने
को कटवा
देना सिवाय
नासमझी के और
कुछ भी नहीं
है। कृष्ण
सामने किसी
भले आदमी को
धोखा नहीं दे
रहे हैं। कृष्ण
किसी महात्मा
को धोखा नहीं
दे रहे हैं।
और जिनका गैर-महात्मापन
हजार तरह से
जांचा जा चुका
है, उनके
साथ ही वह यह
व्यवहार कर
रहे हैं। और
कृष्ण ने सारे
उपाय कर लिए
थे युद्ध के
पहले कि ये लोग
राजी हो जाएं,
यह युद्ध न
हो। इस सब
उपाय के
बावजूद, कोई
मार्ग न छूटने
पर यह युद्ध
हुआ है। और
जिन्होंने सब
तरह की बेईमानियां
की हों, जिनकी
पूरी-की-पूरी
कथा बेईमानियों
और धोखे और
चालबाजी की
हों, उनके
साथ कृष्ण अगर
भलेपन का
उपयोग करें, तो मैं
मानता हूं कि
महाभारत के
परिणाम दूसरे हुए
होते। उसमें
कौरव जीते
होते और पांडव
हारे होते। और
मजे की तो बात
यह है इससे
बड़ी, कि हम
कहते तो यही
हैं कि "सत्यमेव
जयते', सत्य
जीतता है, लेकिन
इतिहास कुछ और
कहता है।
इतिहास तो जो
जीत जाता है, उसी को सत्य
कहने लगता है।
अगर कौरव जीत
गए होते, तो
पंडित कौरवों
की कथा लिखने
के लिए राजी
हो गए होते, और हमें पता
भी नहीं चलता
कि कभी पांडव
भी थे और कभी
कृष्ण भी थे!
कथा बिलकुल और
होती।
कृष्ण
ने जो किया, वह मैं
मानता हूं कि
सामने जो था
उसको देखते हुए
जो किया जा
सकता था, "एक्चुअलिटी'
के भीतर, वास्तविकता
के भीतर जो
किया जा सकता
था, वही
किया।
साधन-शुद्धि
की सारी बातें
आकाश में संभव
हैं। पृथ्वी
पर कैसे भी
साधन का उपयोग
किया जाए, वह
थोड़ा न बहुत
अशुद्ध होगा।
अगर साधन पूरे
शुद्ध हो जाएं,
तो साध्य बन
जाएगा। साध्य
तक जाने की
जरूरत न रह
जाएगी। अगर
साधन पूरा
शुद्ध है तो
साध्य और साधन
में फर्क ही
नहीं रह जाएगा,
वे एक ही हो
जाएंगे। साधन
और साध्य का
फर्क ही इसलिए
है कि साधन
अशुद्ध है और
साध्य शुद्ध
है। और इसलिए
अशुद्ध साधन
से कभी शुद्ध
साध्य पूरी
तरह मिलता नहीं,
यह भी सच
है। साध्य
मिलते ही कब
हैं पृथ्वी
पर! सिर्फ
आकांक्षा
होती है पाने
की, मिलते
तो कभी नहीं
हैं। गांधीजी
भी यह कहकर
नहीं मर सकते
हैं कि मैं
पूरा अहिंसक
होकर मर रहा
हूं और गांधीजी
यह भी नहीं
कहकर मर सकते
हैं कि मैं
पूरे ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होकर मर रहा
हूं और न यह कह
सकते हैं कि
मैंने सत्य को
पा लिया है और
मर रहा हूं।
सत्य के
प्रयोग करते
ही मरते हैं।
शुद्ध
अगर साधन थे तो
साध्य मिल
क्यों नहीं
गया? बाधा
क्या रह गई है?
अगर साधन
शुद्ध है तो
साध्य मिल ही
जाना चाहिए, बाधा क्या
है? नहीं, साधन शुद्ध
हो नहीं सकते।
स्थितियां
करीब-करीब ऐसी
हैं जैसे हम
पानी में लकड़ी
को डालें तो
वह तिरछी हो
जाए। अब पानी
में लकड़ी को सीधा
ही बनाए रखने
का कोई उपाय
नहीं है। लकड़ी
तिरछी होती
नहीं, तिरछी
दिखाई पड़ने
लगती है। वह
पानी का जो
"मीडियम' है,
वह लकड़ी को
तिरछा कर जाता
है। पानी के
बाहर ही लकड़ी
सीधी हो पाती
है, पानी
के भीतर डाली
कि तिरछी हो
जाती है।
इस
विराट
सापेक्ष के
जगत में, "इन
दिस रिलेटिव
वर्ल्ड', जहां
सब चीजें
तुलना में हैं,
वहां सब
चीजें तिरछी
हो जाती हैं।
इसलिए सवाल यह
नहीं है कि हम
सीधे हों, सवाल
यह है कि
कम-से-कम
तिरछे हों। और
कृष्ण मुझे मालूम
पड़ता है, कम-से-कम
तिरछे आदमी
हों, सवाल
यह है कि हम
कम-से-कम
तिरछे आदमी
हैं। और यह
बड़े मजे की
बात है कि ऊपर
से देखने पर
हमें कुछ और
दिखाई पड़ेगा।
हमें गांधीजी
बहुत सीधे
आदमी दिखाई
पड़ेंगे, गांधी
जी मेरे हिसाब
से बहुत तिरछे
आदमी हैं। वे
कई बार कान को
बिलकुल सिर घुमाकर पकड़ते हैं,
दूसरी तरफ
से पकड़ते
हैं, कृष्ण
सीधा पकड़ लेते
हैं। गांधीजी
वही काम
करेंगे दूसरे
को दबाने का, अपने को दबा
कर करेंगे।
बड़ी लंबी
यात्रा लेंगे।
दबाएंगे
दूसरे को ही,
"कोयरेशन'
जारी रहेगा,
लेकिन
प्रयोग जो वे
करेंगे, वह
अपने को दबाकर
उसको दबाएंगे।
कृष्ण उसको
सीधा दबा
देंगे! ऐसा
गांधी
सीधे-साफ
मालूम
पड़ेंगे। मैं
मानता हूं, बहुत तिरछा
व्यक्तित्व
है। बहुत जटिल,
बहुत "कांप्लेक्स'
व्यक्तित्व
है। लेकिन
हमें आमतौर से
खयाल में नहीं
आता, क्योंकि
चीजें हम जैसी
पकड़ लेते हैं
वैसे माने चले
जाते हैं।
"भगवान
श्री, कृष्ण
के जमाने में
एक पौंड्रक
नामक राजा था,
जो साक्षात
कृष्ण को नकली
कृष्ण जाहिर
कर अपने को
असली कृष्ण
मानता था और
बताता था।
बुद्ध, महावीर
आदि अवतारों
के जीवन में, क्राइस्ट के
चरित्र में
ऐसी साम्य
रखने वाली कुछ
घटनाएं घटी
हैं?'
हां, घटी है। महावीर
के समय गोशालक
नाम के
व्यक्ति ने
घोषणा की कि
असली
तीर्थंकर मैं
हूं। महावीर
असली तीर्थंकर
नहीं हैं।
और
क्राइस्ट के
समय में भी
घटी, क्योंकि
यहूदियों ने
सूली ही इसलिए
दी कि यह बढ़ई
का लड़का नाहक
अपने को
क्राइस्ट कह
रहा है, यह
असली
क्राइस्ट
नहीं है। अभी
असली
क्राइस्ट
पैदा होने
वाला है।
यहूदी-परंपरा
में ऐसा खयाल
था कि
क्राइस्ट नाम
का एक पैगंबर
पैदा होने
वाला है। बहुत
"प्रॉफेट्स'
ने उसकी
घोषणा की थी। इजेकियल
ने घोषणा की
थी, ईसिया ने घोषणा की
थी, उन सब
पुराने
पैगंबरों ने
घोषणा की थी
कि क्राइस्ट
नाम का एक
पैगंबर आने
वाला है। फिर
क्राइस्ट के
ठीक जन्म लेने
के पहले
बपतिस्मा
वाले जॉन ने
गांव-गांव
घूमकर घोषणा
की थी कि
क्राइस्ट आने
वाला है।
क्राइस्ट का
मतलब, मसीहा।
मसीहा आने
वाला है, जो
सबका उद्धार
करेगा। और फिर
एक दिन जीसस
नाम के इस
जवान ने घोषणा
कर दी कि मैं
वह मसीहा हूं।
यहूदियों ने
मानने से
इनकार कर दिया,
कि यह आदमी
वह मसीहा नहीं
है। इसलिए
सूली दी गई।
सूली दी गई कि
तुम झूठी
घोषणा कर रहे
हो। तुम मसीहा
नहीं हो।
दूसरे
व्यक्ति ने
ठीक जीसस के
सामने दावा
नहीं किया।
लेकिन बहुत
लोगों ने यह
दावा किया कि तुम
मसीहा नहीं हो, तुम
क्राइस्ट
नहीं हो। हम
तुम्हें
क्राइस्ट मानने
से इनकार करते
हैं। क्यों
इनकार किया? क्योंकि वे
कहते थे, कुछ
लक्षण हैं, जो कि तुम
पूरे करो। कुछ
चमत्कार हैं,
जो तुम
दिखाओ। उनमें
एक चमत्कार यह
भी था कि जब हम
तुम्हें सूली
लगाएं, तो
तुम जिंदा
सूली से उतर
आओ। तो जीसस
के जो भक्त थे,
वे मानते थे
कि सूली लग
जाने के बाद
जीसस उतर आएंगे
जीवित और
चमत्कार घटित
हो जाएगा, और
फिर लोग मान
लेंगे। अब बड़ी
मुश्किल है तय
करना यह बात, क्योंकि
जीसस के भक्त
अब भी कहते
हैं कि तीन दिन
बाद वे देखे
गए। लेकिन
जिन्होंने
देखा वे दो
औरतें थीं, दो
स्त्रियां
थीं, जो
जीसस को बहुत
प्रेम करती
थीं, उन्होंने
उन्हें देखा।
विरोधी उनके
वक्तव्य को
मानने को
तैयार नहीं
हैं।
विरोधियों का
खयाल है कि वे
इतनी प्रेम से
भरी थीं कि
जीसस उन्हें
दिखाई पड़ सकते
हैं, और
जीसस न हों।
लेकिन कोई
यहूदी
वक्तव्य ऐसा नहीं
है कि जीसस
उतर आए सूली
से और प्रमाण
उन्होंने दे
दिया, वह
प्रमाण नहीं
दिया जा सका।
इसलिए उस
क्राइस्ट की
प्रतीक्षा तो
यहूदी अभी भी
करते हैं, जिसकी
घोषणा
पैगंबरों ने
की है।
लेकिन
महावीर के
वक्त में तो
बहुत ही
स्पष्ट गोशालक
ने घोषणा की
कि मैं असली
तीर्थंकर हूं, महावीर असली
तीर्थंकर
नहीं हैं।
गोशालक को भी
मानने वाले
लोग थे। थोड़ी
संख्या न थी, काफी संख्या
थी। और यह
विवाद लंबा
चला कि कौन असली
तीर्थंकर है।
क्योंकि
जैन-परंपरा
में घोषणा थी
कि चौबीसवां
तीर्थंकर आने
वाला है। वह
अंतिम
तीर्थंकर होने
को था, तेईस
हो चुके थे, और अब एक ही
आदमी
तीर्थंकर हो
सकता था। और न
केवल गोशालक
ने घोषणा की
कि वह चौबीसवां
तीर्थंकर है,
एक बड़ा वर्ग
था जो उसे चौबीसवां
तीर्थंकर
मानता था।
यह तो
था ही, और भी
पांच-छः लोग
थे जिनको कुछ
लोग मानते थे
वही असली
तीर्थंकर हैं,
हालांकि
उन्होंने कभी
घोषणा नहीं
की। मक्खली
गोशालक तो
स्वयं घोषणा
करता था कि वह
तीर्थंकर है।
लेकिन संजय
वेलट्ठीपुत्त,
अजित केसकंबल,
इनके भी
भक्त थे; जो
मानते थे कि
ये असली
तीर्थंकर
हैं। ऐसा बुद्ध
को जो मानते
थे उनका भी
खयाल था कि
असली तीर्थंकर
बुद्ध हैं। और
बुद्ध के
मानने वालों
ने महावीर का
बहुत मजाक उड़ाया।
इसकी
बहुत संभावना
है। सदा
संभावना है कि
कृष्ण जैसा
व्यक्ति जब
पैदा हो, या
जब समाज ऐसे
व्यक्ति की
किन्हीं
घोषणाओं के
आधार पर
प्रतीक्षा कर
रहा हो, तो
कोई और लोग भी
दावेदार हो
जाएं। इसमें
बहुत कठिनाई
नहीं है।
लेकिन समय तय
कर देता है कि दावेदार
सही थे कि
नहीं थे। सच
तो यह है कि जब
कोई दावा करता
है, तभी वह
कह देता है कि
वह सही आदमी
नहीं है। दावेदारी
ही गलत आदमी
करता है।
कृष्ण को दावा
करने की जरूरत
नहीं है कि
मैं, कृष्ण
वह हैं। किसी
को दावे की
जरूरत पड़ती है,
उसका मतलब
यह है कि उसके
होने से सिद्ध
नहीं होता कि
वह कृष्ण है, उसे दावा भी
करना पड़ता है।
उसे खुद ही शक
है। असल में
हमारी आत्महीनता
ही दावा बनती
है। अगर कोई
आदमी दावा
करता है कि
मैं महात्मा
हूं, तो
उसका दावा ही
कहता है कि वह
महात्मा नहीं
होगा।
दावेदारी
हमेशा उलटी
खबर देती है।
लेकिन
वह बिलकुल
स्वाभाविक है, मानवीय है
कि कोई दावा
कर सके। इसमें
बहुत कठिनाई
नहीं है।
"जीसस ने
क्यों दावा
किया?'
जीसस
ने दावा नहीं
किया। जीसस ने
दावा नहीं
किया कि मैं
क्राइस्ट
हूं। जीसस ने
तो दावे बहुत
दूसरे किए
हैं।
क्राइस्ट
होने का दावा
नहीं किया।
जीसस के दावे
वक्तव्यों
में नहीं हैं, व्यक्तित्व
में हैं।
लोगों ने
पहचाना कि यह
आदमी
क्राइस्ट है।
दूसरे लोगों
ने घोषणा की
कि यह आदमी
क्राइस्ट है।
जिस आदमी का
मैंने नाम लिया,
जॉन दि
बैपटिस्ट--जीसस
के पहले बहुत
अदभुत संत
हुआ--उसने
घोषणा कर रखी
थी कि
क्राइस्ट आने
वाला है। और
मैं सिर्फ
अगुआ हूं जो
पहले खबर देने
आया हूं। जिस
दिन क्राइस्ट
आ जाएगा उस
दिन मैं विदा हो
जाऊंगा।
वह नदी के
किनारे, जोर्डन
नदी के किनारे,
नदी में
लोगों को
दीक्षा देता
था। हजारों
लोग उससे
दीक्षा लेते
थे। जीसस भी
उससे दीक्षा
लेने गए। जीसस
ने संत जॉन से
दीक्षा ली। जोर्डन
नदी में वे
खड़े हुए, गले
डूबे पानी में
जॉन ने दीक्षा
दी और कहा कि अब
तुम अपना काम
सम्हालो,
मैं जाता हूं।
इस बात से
सारे मुल्क
में खबर फैल
गई कि
क्राइस्ट आ
गया और जॉन
उसी दिन से
फिर नहीं देखा
गया कि कहां
चला गया। फिर
उसका कोई पता
नहीं चला। उस
दिन से जॉन खो
गया।
इससे
खबर पूरे
मुल्क में फैल
गई कि वह जो
जॉन चिल्ला-चिल्ला
कर गांव-गांव
में कहता था
कि क्राइस्ट
आने वाला है, जिस दिन आ
जाएगा उस दिन
मेरा काम खत्म
हो जाएगा, मैं
उसके आने तक
रुका हूं, मैं
सिर्फ आगे की
सड़क साफ कर
रहा हूं, "पायलट'
का काम कर
रहा हूं, वह
उसी दिन से
नदारद हो गया।
जॉन के खो
जाने से सारे
मुल्क में खबर
फैल गई कि
क्राइस्ट आ
गया। अब लोग
जीसस से पूछने
लगे कि आप कौन
हैं? दावा
उन्होंने
नहीं किया
लेकिन झूठ भी
कैसे बोला जा
सकता है। दावा
उन्होंने
नहीं किया। लोग
उनसे पूछने
लगे कि तुम
कौन हो? तो
उन्होंने जो
वक्तव्य दिए,
उन
वक्तव्यों
में उन्होंने
कहा कि मैं
वही हूं, जो
सदा से है।
मैं वही हूं, जो पैगंबर
नहीं हुए उसके
पहले भी था।
अब्राहम के
पहले जो मौजूद
था, मैं
वही हूं। जब
लोगों ने पूछा
कि तुम कौन हो,
तो
उन्होंने कहा
कि तुम जिसे
खोजते हो, मैं
वही हूं। मगर
इसमें दावा
नहीं था कोई।
लोगों ने पूछा
था, और
उत्तर देना
जरूरी था।
"हिंदू
अवतार के क्रम
में मत्स्यावतार
से शुरू होकर
राम आदि
अंशावतार आते
हैं। फिर
पूर्णावतार
कृष्ण के बाद
भी बुद्धावतार
होता है।
कल्कि की
आगाही भी
समाविष्ट है।
तो बुद्ध
कालक्रम
दृष्टि से
पूर्णावतार
क्यों नहीं
माने गए? उत्क्रांति की दृष्टि
से कृष्ण का
बुद्ध के
पूर्व का जाने
का कोई राज हो
तो बताएं। काल
की गति को
यहां
वर्तुलाकार कहने
में किस हद तक
औचित्य है?'
अवतार
आंशिक भी उतना
ही अवतार है, जितना
पूर्ण। अवतार
होने में कोई
फर्क नहीं है।
अवतार से तो
मतलब इतना ही
है कि
परमात्म-चेतना
प्रगट हुई। वह
कितने आयामों
में प्रगट हुई,
यह बात
दूसरी है। तो
कृष्ण का
अवतार
पूर्णावतार
इस अर्थों में
है कि जीवन के
समस्त आयामों
में, जीवन
के सब "डायमेंसंस'
में उनका
स्पर्श है।
बुद्ध का
अवतार फिर
पूर्ण अवतार
नहीं है।
कल्कि अवतार
भी पूर्ण
अवतार होने
वाला नहीं है।
अवतरण तो पूरा
होगा। अवतरण
की जो
प्रक्रिया
है। कल्कि
अवतार भी
पूर्ण अवतार
होने वाला
नहीं है। अवतरण
तो पूरा होगा।
अवतरण की जो प्रक्रिया
है, चेतना
का जो उतरना
है, वह तो
पूरा होगा, लेकिन वह सब
आयामों का
स्पर्श नहीं
करेगा।
इसके
कारण हैं, बहुत कारण
हैं। ऐसा नहीं
कि जो धारा है,
विकास का जो
क्रम
है--साधारणतः ऐसा
ही होना चाहिए
कि पूर्ण
अवतार अंत में
आए; विकास
के क्रम में
पूर्णता अंत
में आनी
चाहिए--लेकिन
विकास का जो
क्रम है, अवतार
उस क्रम के
बाहर से आता
है। अवतार का
अर्थ है--"पेनीट्रेशन
फ्रॉम दॅ बियांड'। वह पार से
उतरता है। वह
हमारी
विकास-प्रक्रिया
का अंग नहीं है।
वह हमारे
विकास में
विकसित हुआ
नहीं है। वह
हमारी
विकास-धारा के
पार से उतरता
है। और जब भी
कोई
चेतना...जैसे
एक ऐसा उदाहरण
से समझें। हम सारे
लोग यहां बैठे
हैं, सूरज
निकला है, हम
सब आंखें बंद
किए बैठे हैं,
किसी ने
थोड़ी-सी आंख
खोली और
थोड़ी-सी रोशनी
दिखाई पड़ी।
फिर किसी ने
पूरी आंख खोली
और पूरी रोशनी
दिखाई पड़ी।
फिर किसी ने
थोड़ी-सी आंख
खोली और थोड़ी रोशनी
दिखाई पड़ी।
इसमें कोई
विकास-क्रम
नहीं है। असल
में आंख पूरी
कभी भी खोली
जा सकती है। और
पूरी आंख
खोलने के बाद
भी पीछे वाला
पूरी आंख खोले,
इसकी कोई
अनिवार्यता
नहीं है।
कृष्ण
का जो
व्यक्तित्व
है वह पूरा
खुला है, इसलिए
पूरे
परमात्मा को
समा सका है।
बुद्ध का व्यक्तित्व
आंशिक खुला है,
इसलिए
अंश-परमात्मा
को समा सका
है। अगर आज भी कोई
पूरे
व्यक्तित्व
को खोलेगा, तो पूरा
परमात्मा समा
जाएगा। और अगर
कल भी कोई
व्यक्तित्व
को बिलकुल बंद
रखेगा, तो
परमात्मा
बिलकुल नहीं समाएगा।
इसमें कोई "एवॅलूशनरी'
क्रम नहीं
है। हो भी
नहीं सकता।
विकास
का जो क्रम है, उस क्रम को
अगर हम ठीक से
समझें तो
सिर्फ "जनरल',
सामान्य
अर्थों में
पकड़ सकते हैं,
व्यक्तिवादी अर्थों में
नहीं पकड़
सकते। बुद्ध
को हुए बहुत दिन
हो गए। हम तो
बुद्ध के ढाई
हजार साल बाद
हुए हैं, लेकिन
इससे हम यह
नहीं कह सकते
कि बुद्ध से
हम ज्यादा "इवाल्व्ड'
हैं। यह
नहीं कह सकते
हम। हां, इतना
हम कह सकते
हैं कि बुद्ध
के समाज से
हमारा समाज
ज्यादा "इवाल्व्ड'
है। बुद्ध
के समाज से
हमारा समाज
ज्यादा विकसित
कहा जा सकता
है। असल में
विकास दोहरा
चल रहा
है--समूह का, व्यक्ति का।
समूह के पहले
भी व्यक्ति
विकसित हो
सकता है। हां,
जो अपने को
विकसित करने
की कोई कोशिश
नहीं करेंगे,
वे समूह के
साथ घसिटते
हुए विकसित
होते हैं। और
सभी, समूह
के सभी
व्यक्ति
एक-जैसे
विकसित नहीं
हो रहे हैं, प्रत्येक
व्यक्ति
अलग-अलग धारा
में विकसित हो
रहा है। हम
यहां इतने लोग
बैठे हैं, लेकिन
सभी विकास की
एक ही पायरी
पर नहीं हैं।
कोई विकास की
पहली सीढ़ी पर
खड़ा है, कोई
विकास की
दसवीं सीढ़ी पर
खड़ा है, कोई
विकास का
अंतिम छोर भी
छू सकता है।
समूह के बाबत
सामान्य नियम
सत्य होते
हैं। विकास का
नियम समूह के
बाबत है, इसे
एक उदाहरण से
समझें--
यह हम
कह सकते हैं
कि दिल्ली में
पिछले दस वर्षों
में
प्रतिवर्ष
कितने लोग सड़क
पर "एक्सीडेंट' से मरे। हर
वर्ष अगर पचास
आदमी मरते हैं,
और उसके
पहले वर्ष
पैंतालीस मरे
थे और उसके
पहले चालीस
मरे थे, तो
हम कह सकते
हैं कि अगले
वर्ष पचपन
आदमी सड़क पर
कार
"एक्सीडेंट' से मरेंगे।
और बहुत दूर
तक यह सही हो
जाएगा। लेकिन
हम यह नहीं कह
सकते कि वे
पचपन आदमी कौन
से होंगे? हम
खोजकर नहीं
बता सकते कि
ये पचपन आदमी
मरेंगे। अगर
दिल्ली की
आबादी बीस लाख
है, तो
पचपन में हो
सकता है, चौवन
मरें, या
हो सकता है
छप्पन मर
जाएं। लेकिन
अगर आबादी बीस
करोड़ है, तो पचपन का आंकड़ा और
भी करीब आ
जाएगा। और अगर
आबादी अनंत है,
तो पचपन का आंकड़ा
बिलकुल "फिक्स्ड'
हो जाएगा।
यानी हम
बिलकुल कह
सकते हैं कि
पचपन मरेंगे,
न साढ़े
चौवन मरेंगे,
न साढ़े
पचपन मरेंगे।
पचपन मरेंगे।
जितनी बड़ी
संख्या होती
जाएगी, सामान्य
"स्टेटिक्स' उतने ही
सत्य हो जाते
हैं। जितना
व्यक्ति को हम
पकड़ते
हैं, उतने
ही
"स्टेटिक्स' गलत हो जाते
हैं। विकास की
जो धारा है, वह समूह की
धारा है।
इसमें
व्यक्ति पहले
भी हो जाते
हैं। जैसे जब
वसंत आता है
तो किसी एक
पक्षी की
चहचहाहट से
घोषणा हो जाती
है वसंत के आने
की, लेकिन
सभी पक्षियों
की चहचहाहट
में वक्त लग जाता
है। वसंत आता
है तो एक फूल
भी खिलकर
खबर कर देता
है कि वसंत आ
रहा है, लेकिन
सभी फूल के खिलने
में वक्त लग
जाता है। आता
तो वसंत पूरा
तभी है जब सब
फूल खिलते हैं,
लेकिन कुछ
फूल पहले भी
खिल जाते हैं।
एक फूल के खिलने
से हम यह नहीं
कह सकते कि
वसंत आ गया, लेकिन इतना
कह सकते हैं, वसंत की
पहली पगध्वनि
आ गई है।
व्यक्तिगत
फूल तो पहले
भी खिल सकते
हैं, पीछे
भी खिल सकते
हैं, लेकिन
सब फूल वसंत
में खिल जाते
हैं।
कृष्ण
का बीच में
पूर्ण हो जाना
सिर्फ इस बात की
सूचना है कि
कृष्ण अपने
व्यक्तित्व
को पूरा खोल
सके। बुद्ध
अपने
व्यक्तित्व
को पूरा नहीं
खोलते हैं। यह
भी बुद्ध का
अपना निर्णय
है। अगर
उन्हें कोई
पूर्ण करने को
कहे भी, अगर
कोई उनसे कहे
भी कि
तुम्हारे
कृष्ण होने की
भी संभावना है,
तो बुद्ध
इनकार कर
देंगे। वह
बुद्ध का
चुनाव नहीं
है। इसमें
बुद्ध कुछ
पीछे पड़ जाते
हैं कृष्ण से,
ऐसा नहीं
है। यह बुद्ध
का अपना चुनाव
है, कृष्ण
का चुनाव है।
और चुनाव के
मामले में दोनों
मालिक हैं। और
उनका अपना "डिसीजन' है। बुद्ध
चाहते हैं
जैसा, वैसे
वे खिलते हैं।
कृष्ण जैसा
चाहते हैं वैसे
वे खिलते हैं।
कृष्ण का पूरा
खिलने का
स्वभाव है।
बुद्ध को जैसा
खिलना है, उसमें
ही पूरा खिलने
का स्वभाव है।
इसमें कोई
विकास की धारा
नहीं है।
व्यक्तियों
पर विकास लागू
नहीं होता, विकास सिर्फ
समूहों पर
लागू होता है।
"भगवान
श्री, नौ
सौ निन्यानबे
गाली सहने
वाले कृष्ण
उससे आगे की
एक भी गाली को
न सुन सके और
चक्र से शिशुपाल
का वध कर
बैठे। इससे
क्या यह तय
नहीं होता कि
पहले दी गई
गालियों को भी
सिर्फ वे
प्रकट रूप से
ही सह रहे थे
और अंतर में
तो असहिष्णु
ही थे?'
ऐसा
सोचा जा सकता
है, क्योंकि
ऐसे हम सब
हैं। अगर हम
चौथी गाली पर
बिगड़ उठते हैं,
तो हम
भलीभांति
जानते हैं कि
बिगड़ तो हम
पहली ही गाली
पर गए थे।
लेकिन तीन दिन
तक साहस रखा। तीन
तक सहिष्णुता
थी, फिर हम
चूक गए, फिर
हमारी
सहिष्णुता और
न सह सकी। तो चौथी
गाली पर प्रगट
हो गए। लेकिन
इससे उलटा भी
हो सकता है।
और कृष्ण बड़े
उलटे आदमी
हैं। ठीक हमारे
जैसे आदमी
नहीं हैं।
इसलिए उलटे
होने की
संभावना ही उन
पर ज्यादा है।
ऐसा
नहीं कि नौ सौ
निन्यानबे
गाली सहने तक
उनकी
सहिष्णुता
थी। नौ सौ
निन्यानबे
गालियां काफी
गालियां हैं।
और जो नौ सौ
निन्यानबे सह
सकता होगा, वह हजारवीं
नहीं सह सकता
होगा, सोचना
जरा मुश्किल
है। बड़ा सवाल
कृष्ण के लिए यह
नहीं है कि
उनकी
सहिष्णुता
चुक गई, बड़ा
सवाल यह है कि
अब सामने का
जो आदमी है, अब उसकी
सीमा आ गई। अब
उसकी सीमा आ
गई। अब इससे ज्यादा
सहे जाना
सहिष्णुता का
सवाल नहीं है,
इससे
ज्यादा सहे
जाना बुराई को
बनाए रखने का
सवाल है। इससे
ज्यादा सहे
जाना अब अधर्म
को बचाना
होगा।
क्योंकि इतना
तो बहुत ही
साफ है कि नौ
सौ निन्यानबे
गालियां काफी
हैं।
जीसस
से कोई पूछता
है एक शिष्य, कि कोई हमें
एक बार चांटा
मारे, तो
हम क्या करें?
तो जीसस
कहते हैं, सहो। वह
पूछता है कोई
हमें सात बार
चांटा मारे, तो हम क्या
करें? तो
जीसस कहते हैं,
सात बार
नहीं, सतहत्तर
बार सहो।
उस आदमी ने
आगे पूछा नहीं,
इसलिए हमें
पता नहीं कि
जीसस क्या
कहते हैं। उसने
आगे पूछा नहीं
कि अठहत्तरवीं
बार? लेकिन
मैं मानता हूं
कि जीसस कहते
कि अठहत्तरवीं
बार अब बिलकुल
मत सहो।
क्योंकि
तुम्हारी
सहिष्णुता ही
काफी नहीं है,
दूसरे आदमी
का अधर्म भी
विचारने
योग्य है।
मैंने
एक मजाक सुना
है। मैंने
सुना है कि
जीसस को मानने
वाला एक भक्त
एक गांव से
गुजरा है। और
किसी ने एक चांटा
उसके चेहरे पर
मार दिया। तो
जीसस का वचन है
कि जब कोई
तुम्हारे
बायें गाल पर
चांटा मारे तो
दायां उसके
सामने कर दो।
उसने दायां
गाल उसके
सामने कर
दिया। उस आदमी
ने, जैसा कि
उस बेचारे ने
सोचा भी नहीं
था, दायें
पर भी चांटा
और करारा
मारा। तब वह
बड़ी मुश्किल
में पड़ा, क्योंकि
इसके आगे जीसस
का कोई
वक्तव्य नहीं
है, कि अब
वह क्या करे? तो उसने
उठाकर एक हाथ
करारा उस
दुश्मन को
मारा। उस आदमी
ने कहा कि अरे,
तुम तो जीसस
को मानते हो? और जीसस ने
तो कहा कि जब
कोई तुम्हारे
एक गाल पर
चांटा मारे तो
दूसरा सामने
कर दो। उसने
कहा, लेकिन
तीसरा कोई गाल
नहीं है। और
अब मैं छुट्टी
लेता हूं जीसस
से। क्योंकि
दो गाल तक
जीसस के साथ
चला, तीसरा
कोई गाल नहीं
है। अब तीसरा
गाल तुम्हारे
पास है। उस
आदमी ने कहा, अब तीसरा
गाल तुम्हारे
पास है। मेरे
दोनों गाल चुक
गए, अब
तुम्हारे गाल
पर ही चांटा
पड़ सकता है।
एक वक्त है जब
तीसरा गाल आ
जाता है।
उसमें
कृष्ण नहीं
चुक जाते।
हमें ऐसा ही
लगेगा, क्योंकि
हम चुक जाते
हैं जल्दी।
उसमें कृष्ण नहीं
चुक जाते।
लेकिन सब
चीजों की
सीमाएं हैं और
सीमाओं के आगे
चीजों को सहे
जाना खतरनाक
है, अधर्म
है। सीमाओं के
आगे चीजों को
सहे जाना
बुराई को
प्रोत्साहन
है। अगर मैं
सहिष्णु हूं,
तो इसीलिए
तो हूं न कि
असहिष्णुता
बुरी है। और
तो कोई कारण
नहीं है।
सहिष्णु होने
का यही तो अर्थ
है कि
असहिष्णुता
बुरी है।
लेकिन मैं तो बुरा
होने से बच
जाऊं और दूसरे
को बुरा होते
ही जाने दूं, यह दूसरे पर
दया न हुई। यह
दूसरे से अति
कठोरता हो गई।
एक जगह दूसरे
को भी बुरा
होने से रोकना
ही पड़ेगा। ऐसा
मैं देखता
हूं।
कृष्ण
के पूरे
व्यक्तित्व
को देखकर ऐसा
लगता है कि
उनकी
सहिष्णुता को
चुकाना बहुत
मुश्किल है।
लेकिन ऐसा भी
लगता है कि
बुराई को
प्रोत्साहन
देना उनके लिए
असंभव है। इन
दोनों के बीच
कहीं उन्हें
"गोल्डन मीन' खोजनी पड़ती
है, कहीं
उन्हें
"स्वर्ण-नियम'
खोजना पड़ता
है जहां से
आगे चीजें बदल
जाती हैं।
"कृष्ण को
क्या आप
अपहरण-भूषण
नहीं कहेंगे? खुद
ने तो
रुक्मिणी का
अपहरण किया ही
था, अर्जुन
को भी बहन
सुभद्रा का
अपहरण करने को
लालायित करते
हैं।'
असल
में समाज की व्यवस्थायें
जब बदल जाती
हैं, तो
बहुत-सी
बेतुकी हो
जाती हैं। एक
युग था जब किसी
स्त्री का
अपहरण न किया
जाए, तो
उसका एक ही
मतलब था कि उस
स्त्री को
किसी ने भी
नहीं चाहा। एक
युग था कि जब
किसी स्त्री
का अपहरण न
किया जाए, तो
उसका मतलब था
कि उसकी
कुरूपता
सुनिश्चित
है। एक युग था
जब सौंदर्य का
सम्मान अपहरण
था। और अब वह
युग नहीं है।
लेकिन आज भी
अगर
यूनिवर्सिटी
कैंपस में
किसी लड़की को
कोई भी धक्का
नहीं मारता तो
उसके दुख का
कोई अंत नहीं
है। कोई अंत
नहीं है उसके
दुख का। और जब
कोई लड़की आकर
दुख प्रगट
करती है कि
उसे बहुत
धक्के मारे जा
रहे हैं तब
उसके चेहरे को
गौर से देखें,
उसके रस का
कोई अंत नहीं
है। स्त्री
चाहती रही है
कोई अपहरण
करने वाला उसे
मिले। कोई उसे
इतना चाहे कि
चुराना
मजबूरी, जरूरी
हो जाए। कोई
उसे इतना चाहे
कि मांगेंगे
नहीं, चुराने
को तैयार हो
जाए।
तो
कृष्ण जिस युग
में थे उस युग
को समझेंगे तब
यह बात खयाल
में आ सकती
है। और मैं
मानता हूं कि
यह हिम्मतवर
युग था। यह भी
कोई बात कि
पंचांग और
पत्रा को
दिखाकर कोई
विवाह कर ले!
लेकिन कृष्ण
जब किसी को
उत्प्रेरित
भी कर रहे हैं
अपहरण के लिए, तो इसीलिए
कि वह कहते
हैं कि प्रेम
इतनी बड़ी चीज
है कि अगर वह
है, तो
अपहरण भी किया
जा सकता है, दांव लगाया
जा सकता है।
और प्रेम कोई
नियम नहीं
मानता। और युग
था वह जो
प्रेम का युग
था। जिस दिन
नियम शुरू हो
जाते हैं, उसी
दिन मानना
चाहिए कि
प्रेम की
शक्ति शिथिल हो
गई है। अब
प्रेम बहुत चुनौतियां
नहीं लेता, दांव नहीं
लगाता। उस युग
के
पूरे-के-पूरे
ढांचे को
समझेंगे तो
खयाल में
आएगा। यह
कृष्ण किसी
विशेष युग में
पैदा हुए हैं।
उस युग की
व्यवस्था का
हमें खयाल
नहीं है।
हमारे युग की
व्यवस्था को
हम उन पर
थोपने जाएंगे
तो वह कई बार
अनैतिक मालूम
पड़ने लगेंगे।
लेकिन मुझे भी
लगता है कि
शौर्य के युग,
जब जिंदगी
में तेज होता
है और जब
जिंदगी में शान
होती है, तो
चुनौती के और
दांव के युग
होते हैं।
शिथिल और मरे
हुए समाज, जब
जिंदगी में सब
चुनौती खो
जाती है और सब
ढीला-ढाला
होता है, और
तरह की नीतियां
बनाते हैं जो
मुर्दा
नीतियां होती
हैं। न, मैं
तो कहूंगा कि
कृष्ण अगर
अपहरण करके न
लाएं किसी
स्त्री का और
उसी स्त्री के
बगैर खबर भेजें,
उसके पिता
के हाथ-पैर
पड़ें और सब
उपाय करें, तो उस
स्त्री का
अपमान होगा, उस युग में
अपमान होगा।
वह स्त्री इसे
पसंद नहीं
करती। वह कहती
कि इतनी भी
हिम्मत नहीं
है मुझे चुरा
सको, तो छोड़ो
यह बात!
हमें
खयाल नहीं है
कि आज भी--युग
तो बदल जाते
हैं, लेकिन
कुछ ढांचे
चलते चले जाते
हैं--आज भी जिसे
हम बरात कहते
हैं, किसी
दिन वे प्रेमी
के साथ गए हुए
सैनिक थे। और
जिसे आज हम
दूल्हा को घोड़ा
पर बिठाते हैं,
दूल्हे
को--दूल्हे को
घोड़े पर
बिठाना
बिलकुल बेमानी
है, कोई
मतलब नहीं
है--और एक छुरी
भी लटका देते
हैं उसके बगल
में, वह
कभी तलवार थी
और कभी वह
घोड़ा किसी को
चुराने गया था
और कुछ साथी
थे उसके जो
उसके साथ गए
थे, वह
बरात थी। और
आज भी आपको
पता होगा कि
जब बरात आती
है तो लड़की के
घरवाली स्त्रियां
गालियां देना
शुरू करती
हैं। कभी सोचा
कि वे गालियां
क्यों देती
हैं? वह
जिसके घर की
लड़की चुराई जा
रही होगी, उसकी
दी गई गालियां
होंगी। लेकिन
अब काहे के लिए
गालियां दे
रही हैं, वह
खुद ही इंतजाम
किए हैं सब।
आज की लड़की का
पिता झुकता है,
आज भी। अब
कोई कारण नहीं
है लड़की के
पिता के झुकने
का। कभी उसे
झुकना पड़ा था।
कभी जो उसे
छीनकर ले जाता
था, जो
विजेता होता
था, उसके
सामने झुक
जाना पड़ा था।
वह कभी के
नियम थे, जो
अब भी सरकते
हुए मुर्दा
हालत में चलते
चले जाते हैं।
"भगवान
श्री, एक
बार कृष्ण
इंद्रप्रस्थ
से द्वारका
जाते थे तब
कुंता मिली, कुंता ने
कहा, "विपद संतु नश्वस
तत्र जगत्गुरु'। यानी यह
गूंजने वाली
कुंता कृष्ण
के पास कष्ट
की याचना करती
थी, ताकि
कृष्ण
कष्ट-दर्शन
करा सकें। मगर
आनंदवादी
कृष्ण हंसते
हैं, समझाते
भी नहीं कि कष्ट-याचना
ठीक नहीं।
उसका क्या
तात्पर्य है?'
भक्त
का भगवान से
कष्ट के लिए
प्रार्थना
करना बड़ा
अर्थपूर्ण
है। दोत्तीन
कारणों से। एक
तो भगवान से
सुख की
प्रार्थना करना
कुछ
स्वार्थपूर्ण
मालूम पड़ता
है। और जो भगवान
से सुख की
प्रार्थना
करता है, वह
भगवान से प्रार्थना
नहीं करता, सुख के लिए
ही प्रार्थना
करता है। अगर
भगवान के बिना
उसे सुख मिल
जाए तो भगवान
को छोड़कर सुख की
तरफ जाएगा।
चूंकि भगवान
से मिल सकता
है, इसलिए
भगवान के पास
भी जाता है।
लेकिन भगवान का
उपयोग वह साधन
की तरह करता
है, साध्य
तो सुख है।
इसलिए भक्त का
मन सुख की
प्रार्थना
नहीं करेगा।
नहीं करेगा
इसी कारण कि
वह भगवान से
ऊपर किसी चीज
को रखना न
चाहेगा।
और जब
वह दुख की
प्रार्थना
करता है तो वह दोत्तीन
बातों की घोषणाएं
करता है। वह
कहता है कि
तुम्हारे
द्वारा दिया
गया दुख भी और
कहीं से मिले
सुख से बड़ा
है। तुम्हारा
दुख भी चुन
लेंगे, और
कोई सुख न चुनेंगे।
अब इस आदमी का
भगवान से जाने
का कोई उपाय न
रहा। क्योंकि
आदमी वहीं से
हटता है जहां
सुख होता है।
और वहां के
लिए हटता है
जहां सुख होता
है। जिस भक्त
ने सुख मांगा
है वह भगवान
से हट सकता
है। लेकिन जिस
भक्त ने दुख
मांगा है, अब
उसके हटने का
उपाय क्या रहा?
अब वह भगवान
से हट नहीं
सकता।
इसलिए
बड़ी गहरी मांग
है यह कि हमें
दुख ही दे दो।
हमें वही दे
दो जिससे लोग
हट जाते हैं।
हम वही मांगने
तुम्हारे पास
आते हैं।
और
दूसरी भी मजे
की बात है कि
भगवान से दुख
मांगा जा सकता
है, क्योंकि
भगवान से दुख
मिलता नहीं।
उससे तो जो भी
मिलता है, वह
सुख ही है। जब
उससे सुख ही
मिलता है तो
हम नाहक सुख
के भिखारी
क्यों बनें? जिससे सुख
मिलने की
संभावना न हो,
उससे सुख
मांगा जाना
चाहिए। जिससे
सुख ही मिलता
हो, जिससे
जो मिलता हो
वह सुख ही
होता हो, उससे
हम दुख ही
क्यों न मांग
लें। इसमें
भक्त बड़ी
चालाकी कर रहा
है। इसमें वह
भगवान को भी
एक धोखा दे
रहा है। वह यह
कह रहा है कि
सुख हम न मांगेंगे,
क्योंकि
तुम जो देते
हो वह सुख ही
है। हम तुमसे
दुख ही मांग
लेते हैं। ऐसे
वह भगवान को
थोड़ी दिक्कत
में भी डाल
रहा है। और
जहां प्रेम है,
वहां थोड़ी
दिक्कत में
डालने का मन
स्वाभाविक है।
यानी वह कह
रहा है, दो
तो दुख दो, देखें
कैसे समर्थ हो,
देखें कैसे
सर्वशक्तिमान
हो! उसने एक
जगह पकड़ ली है
जहां वह तुमको
सिद्ध कर देगा
कि सर्वशक्तिमान
तुम नहीं हो, क्योंकि दुख
तुम नहीं दे
सकते हो।
और भी
कुछ कारण हैं, जो बहुत
मनोवैज्ञानिक
हैं। सुख क्षण
भर का होता
है। आता है, चला जाता
है। दुख में
लंबाई है। सुख
में लंबाई
नहीं होती।
दुख में लंबाई
होगी। आता है
तो जाने का
नाम लेता
मालूम नहीं
पड़ता। सुख आता
है तो आ भी
नहीं पाता और
चला जाता है।
सुख में गहराई
भी नहीं होती।
सुख बहुत उथला
होता है।
इसलिए जो लोग,
जिन्हें हम
साधारणतः
सुखी कहते हैं,
हमेशा
"शैलो' हो
जाते हैं, उथले
हो जाते हैं।
उनकी जिंदगी
में कुछ गहरा
नहीं रह जाता,
ऊपर-ऊपर हो
जाता है। दुख
बहुत गहराई
रखता है, उसकी
बड़ी "डेप्थ'
है। इसलिए
दुख गहराई दे
जाता है। इसलिए
जो लोग दुख से
गुजरते हैं, उनकी आंखों
में, उनके
चेहरों में, उनकी जिंदगी
में एक गहराई
होती है, जो
साधारणतः
सुखी आदमी की
जिंदगी में
नहीं होती।
दुख दुख ही
नहीं देता, मांजता भी है। दुख
दुख ही नहीं
देता, निखारता
भी है। दुख
दुख ही नहीं
देता, गहरा
भी कर जाता
है। दुख में
बड़ी गहराई है।
सुख में
बिलकुल गहराई
नहीं है--न कोई
लंबाई है, न
कोई गहराई है।
अगर भगवान से
कुछ मांगना ही
है, तो सुख
नहीं मांगा जा
सकता। ऐसी चीज
जिसमें न कोई
गहराई है और न
कोई लंबाई है,
जो यूकलिड
के बिंदु की
भांति है, सुख।
यूकलिड
कहता है, बिंदु
की परिभाषा
में, "प्वाइंट'
की परिभाषा
में कि न कोई "लेंग्थ', न कोई "ब्रेथ',
जिसमें न
कोई लंबाई, न कोई चौड़ाई,
ऐसी चीज
बिंदु है। सुख
यूकलिड
का बिंदु है। यूकलिड का
बिंदु भी कहीं
होता नहीं। जब
हम खींचते हैं
कागज पर, तो
उसमें लंबाई-चौड़ाई हो
जाती है। सुख
भी नहीं होता
कहीं, जब
हम खींचते हैं
तब पता चलता
है कि नहीं
है। जब तक
नहीं खिंचा, तब तक है।
सुख यूकलिड
का बिंदु है।
भक्त
मांगता है, दुख दे दो; जिसमें
गहराई हो, जिसमें
लंबाई हो, वे
दे दो। जो रहे,
जो टिके, जो हो, जो
मेरे भीतर चला
जाए और फैल
जाए, जो
मेरे साथ रहे,
वह दे दो।
जो आए तो जाने
का नाम न ले, वे दे दो।
दुख मांगकर
वह यह सब कह
रहा है कि जो
आए वह जाए न, वे दे दो। जो
आए तो मेरे
प्राणों की
गहराई तक डूब
जाए, वे दे
दो। जो आए तो
मैं उथला न रह
जाऊं, लंबा
और गहरा हो
जाऊं, वह
दे दो। इस दुख
शब्द में वह
यह सब कह रहा
है।
और फिर, आखिरी बात, जिन्हें हम
प्रेम करते
हैं, उनके
दुख का भी
आनंद है। और
जिन्हें हम
प्रेम नहीं
करते हैं, उनसे
मिले सुख में
भी कोई आनंद
नहीं है। दुख
का अपना आनंद
है, यह कभी
खयाल में आया
आपको? पीड़ा
का अपना सुख
है, पीड़ा
का अपना रस है,
"मैसोचिस्ट'
नहीं। एक
आदमी हुआ मैसोच,
वह अपने को कोड़े मार
कर सताता। तो
ऐसे आदमी जो
अपने को सताते
हैं, "सेल्फ
टार्चर' में लगते
हैं, ये "मैसोचिस्ट'
हैं। ये
कहते हैं कि
हमें अपने को सताने में
सुख मिलता है।
गांधी को "मैसोचिस्ट'
में गिना जा
सकता है। यह
जो भक्त कह
रहा है कि दुख
दे दो, यह किसी
और दुख की बात
कर रहा है, यह
उस दुख की
नहीं जो
"सेल्फ टार्चर'
है, जो
अपने को सताना
है, उस दुख
की नहीं। उस
दुख की मांग
कर रहा है जो
प्रेम की पीड़ा
जिसे हम कहें।
प्रेम की बड़ी
गहरी पीड़ा है।
और इतना दुख
भी नहीं सताता,
जितना
प्रेम की पीड़ा
रोयें-रोयें
और पोर-पोर
में भर जाती
है। सब तरफ से
टूट जाता है।
दुख तोड़ नहीं
पाता, प्रेम
तोड़ देता है।
दुख मिटा नहीं
पाता, प्रेम
मिटा देता है।
दुख में तो आप
पीछे बच जाते
हैं, प्रेम
में आप बचते
ही नहीं, खो
जाते हैं और
विदा हो जाते
हैं। ऐसा दुख
दे दो जिसमें
भक्त मिट ही
जाए, जिसमें
वह बचे ही न।
ऐसी मृत्यु दे
दो जिसमें वह
खो ही जाए, बचे
ही न। इस अर्थ
में। और
इसीलिए कृष्ण
समझाते नहीं,
हंस कर रह
जाते हैं। कुछ
चीजें हैं जो
हंसने से ही
समझाई जा सकती
हैं। जिनको
समझाने से
नासमझी पैदा
हो जाती है।
इसलिए हंसकर
चुप रह जाते हैं,
वे कुछ
समझाने नहीं
जाते। वे समझ
जाते हैं राज
को कि मांगने वाला
बहुत तरकीब की
बात कर रहा
है। मांगने
वाला बहुत
चालाकी की बात
कर रहा है।
मांगने वाला उनको
बहुत झंझट में
डाल रहा है।
इसलिए हंसकर चुप
रह जाते हैं, उसमें
समझाने को कुछ
है नहीं।
"भगवान
श्री, एक
विरोध पैदा हो
जाता है। जैसा
आपने कृष्ण के
संबंध में
बंबई में भी
कहा और यहां
भी
विषय-प्रवेश
के मौके पर
कहा कि कृष्ण
का जीवन
अलौकिक, चमत्कारिक,
हंसता हुआ,
खेलता हुआ,
फूलों की
तरफ खिलता हुआ
जीवन रहा है।
बाकी जितने भी
दूसरे लोग हुए
उनका जीवन दुखवादी
जीवन रहा।
जैसे, ईसा
को कभी किसी
ने जीवन में
हंसते हुए
नहीं देखा। तो
भक्त अगर दुख
मांगता है, उदास रहता
है, कभी
हंसता नहीं है,
तो फिर
कृष्ण के उस
अलौकिक दर्शन
की पूर्ति कैसे
होती है, यह
बात मैं आपसे
जानना
चाहूंगा।'
जो
भक्त दुख
मांगता है, वह दुखवादी
नहीं है।
क्योंकि दुखवादी
तो इतने दुख
पैदा कर लेता
है कि किसी से
मांगने की कोई
जरूरत नहीं
है। दुखवादी
किसी से दुख
मांगने जाता
है? दुखवादी तो इतने दुख
में रहता है
कि अब आप उसको
और ज्यादा दे
नहीं सकते।
भक्त
इसलिए दुख
मांग लेता है
कि सुख तो वह
खूब पा रहा है, दुख को भी
चखना चाहता है,
जिसका
परिवार
अपरिचय है।
भक्त कभी भी
दुखी नहीं है
और भक्त अगर
रोता भी है तो
उसके आंसू आनंद
के ही आंसू
हैं। भक्त
रोता है बहुत,
लेकिन उसके
आंसू दुख के
आंसू नहीं
हैं। लेकिन हमें
बहुत भूल हो
जाती है, क्योंकि
हम सिर्फ दुख
में ही रोए
हैं, हम
कभी आनंद में
नहीं रोए
हैं। इसलिए
आंसुओं के साथ
हमने दुख की
अनिवार्यता
बांध ली है।
लेकिन आंसुओं
का कोई संबंध
दुख से नहीं
है। आंसुओं का
संबंध "ओवरफ्लोइंग'
से है। मन
का कोई भी भाव
मन की सीमा के
पार हो जाए तो
आंसुओं में
बहना शुरू हो
जाता है, कोई
भी भाव। दुख
ज्यादा हो जाए
तो आंसुओं में
बहता है, सुख
ज्यादा हो जाए
तो आंसुओं में
बहता है, प्रेम
ज्यादा हो जाए
तो आंसुओं में
बहता है, क्रोध
ज्यादा हो जाए
तो आंसुओं में
बहता है। लेकिन
चूंकि हमने
दुख के ही
आंसू देखे
हैं--वही ज्यादा
हुआ है, आनंद
कभी इतना
ज्यादा हुआ
नहीं कि
आंसुओं में बह
जाए, इसलिए
हमने आंसुओं
का "एसोसिएशन'
दुख से बना
रखा है। दुख
का आंसुओं से
कोई संबंध
नहीं है, आंसुओं
का संबंध "ओवरफ्लोइंग'
से है। जो
हमारे भीतर
ज्यादा हो
जाता है, वह
आंसुओं से बह
जाता है।
भक्त
भी रोता है, प्रेमी भी
रोता है, आनंद
में ही रोता
है। और यह जो
आनंद की पीड़ा
है, यह जो
आनंद का दंश
है, यह जो
आनंद के कांटे
की चुभन है, यह जो आनंद
के आंसू हैं, इनका दुखवाद
से कोई भी
संबंध नहीं
है।
"आपने भक्त
और भगवान की
बात कही, और
कृष्ण को
भगवान कहा, तो मुझे
प्रश्न याद
आया कि क्या
कृष्ण भक्त थे? थे
तो किसके भक्त
थे? अगर
नहीं थे तो
फिर भक्ति की
इतनी महिमा
क्यों गाई?'
इस
संबंध में
थोड़ी-सी बात
पीछे हुई है, लेकिन हमें
समझ में नहीं
आती है, इसलिए
फिर दूसरी तरह
से लौट आती
है। मैंने प्रार्थना
के संबंध में
जो कहा, वह
थोड़ा खयाल में
लेंगे तो समझ
में आ जाएगा।
जैसा मैंने
कहा कि "प्रेयर'
नहीं, "प्रेयरफुलनेस'। ऐसा भक्ति
का मतलब किसी
की भक्ति नहीं
होती, भक्ति
का मतलब है, "डिवोशनल एटिटयूड'। भक्ति का
मतलब है, भक्त
का भाव। उसके
लिए भगवान
होना जरूरी
नहीं है।
भक्ति भगवान
के बिना हो
सकती है। सच
तो यह है कि
भगवान कहीं भी
नहीं है, भक्ति
के कारण पैदा
हुआ है। भगवान
के कारण भक्ति
है, ऐसा
नहीं, भक्त
के कारण भगवान
दिखाई पड़ना
शुरू हुआ है।
जिन लोगों का
हृदय भक्ति से
भरा है, उन्हें
यह जगत भगवान
हो जाता है।
जिनका हृदय भक्ति
से नहीं भरा
है, वे
पूछते हैं
भगवान कहां है?
वे
पूछेंगे। और
उन्हें बताया
नहीं जा सकता,
क्योंकि वह
भक्त के हृदय
से देखा गया
जगत है। वह
भक्ति के
मार्ग से देखा
गया जगत है।
जगत
भगवान नहीं है, भक्तिपूर्ण
हृदय जगत को
भगवान की तरह
देख पाता है।
जगत पत्थर भी
नहीं है, पत्थर
की तरह हृदय
जगत को पत्थर
की तरह देख पाता
है। जगत में
जो हम देख रहे
हैं, वह "प्रोजेक्शन'
है, वह
हमारे भीतर जो
है उसका
प्रतिफलन है।
जगत में हमें
वही दिखाई
पड़ता है, जो
हम हैं। अगर
भीतर भक्ति का
भाव गहरा हुआ,
तो जगत
भगवान हो जाता
है। फिर ऐसा
नहीं है कि भगवान
कहीं बैठा
होता है किसी
मंदिर में, फिर जो होता
है वह भगवान
ही होता है।
कृष्ण
भक्त हैं, और भगवान भी
हैं। और जो भी
भक्ति से
प्रवेश करेगा,
वह भक्त से
शुरू होगा और
भगवान पर पूरा
हो जाएगा। एक
दिन जब वह
बाहर भगवान को
देख लेगा, तो
उसने खुद ऐसा
क्या कसूर
किया है कि
उसे भीतर
भगवान नहीं
दिखाई
पड़ेंगे। भक्त
शुरू होता है
भक्त की तरह, पूरा होता
है भगवान की
तरह। यात्रा
शुरू करता है
जगत को देखने
की और देखता
है उसे जो जगत
में है, भक्तिपूर्ण
हृदय से, "डिवोशनल माइंड' से
"प्रेयरफुल',
भक्तिपूर्ण,
भावपूर्ण, प्रार्थनापूर्ण,
मन से देखता
है जगत को।
फिर धीरे-धीरे
अपने को भी
उसी तरह देख
पाता है, कोई
उपाय नहीं रह
जाता है। फिर
ऐसा भी हो
जाता है, जैसा
रामकृष्ण को
एक बार हुआ।
बहुत मजे की
घटना है।
रामकृष्ण
को एक मंदिर
में पुरोहित
की तरह रखा गया
था, दक्षिणेश्वर
में। बहुत
सस्ती नौकरी
थी, शायद
सोलह रुपये
महीने की
नौकरी थी।
पुजारी की तरह
रखा था उनको, लेकिन
दस-पांच दिन
में ही तकलीफ
शुरू हो गई, क्योंकि
ट्रस्टियों
को खबर मिली
कि यह आदमी तो
ठीक नहीं
मालूम होता।
भगवान को जो
भोग लगाता है,
पहले खुद चख
लेता है। और
भगवान पर जो
फूल चढ़ाता
है, सूंघ
लेता है। तो
छिपकर
ट्रस्टियों
ने आकर देखा
मंदिर में कि
मामला क्या है?
देखा कि बड़े
भाव से
रामकृष्ण
नाचते हुए
भीतर आए, भोग
पहले खुद को
लगाया, फिर
भगवान को
लगाया; फूल
पहले सूंघे,
फिर भगवान
को सुंघाए,
ट्रस्टियों
ने उनको पकड़
लिया और कहा, यह क्या कर
रहे हो? यह
कोई ढंग है
भक्ति का? रामकृष्ण
ने कहा--भक्ति
का ढंग होता
है, यह कभी
सुना नहीं। भक्त
देखे हैं, भक्त
सुने हैं, भक्ति
का कोई ढंग
होता है! कोई
ढांचा, कोई
"डिसिप्लिन' होती है? उन्होंने
कहा, निकाल
बाहर करेंगे।
कहीं सूंघा
हुआ फूल भगवान
को चढ़ाया
जा सकता है? रामकृष्ण ने
कहा, बिना सूंघे चढ़ा
कैसे सकता हूं?
पता नहीं
सुगंध हो भी
या न हो।
ट्रस्टियों
ने कहा, बिना
भगवान को
प्रसाद लगाए
तुम खुद कैसे
खा लेते हो? रामकृष्ण ने
कहा, मेरी
मां मुझे
खिलाती थी तो
पहले चख लेती
थी। मैं बिना
चखे नहीं चढ़ा
सकता। नौकरी
तुम सम्हालो।
अन्यथा मुझे
यहां रखना है,
तो मैं चखूंगा,
फिर चढ़ाऊंगा।
पता नहीं खाने
योग्य हो भी
या न हो!
अब यह
जो आदमी है, यह आदमी
बाहरी भगवान
को कैसे देख
पाएगा? बहुत
जल्दी वह वक्त
आ जाएगा, यह
कहेगा कि भीतर
भी भगवान है।
तो भक्त से तो
शुरू होती है
यात्रा, भगवान
पर पूरी होती
है। ऐसा नहीं
है कि बाहर कहीं
किसी भगवान पर
पूरी होती है,
अंततः सारी
दुनिया की
यात्रा करके
हम अपने पर
लौट आते हैं
और पाते हैं:
जिसे तुम
खोजने गए थे
वह घर में
बैठा हुआ है।
कृष्ण
दोनों हैं।
तुम भी दोनों
हो, सभी
दोनों हैं।
लेकिन भगवान
से शुरू नहीं
कर सकते हो
तुम। भक्त से
ही शुरू करना
पड़ेगा। क्योंकि
अगर तुमने यह
कहा कि मैं
भगवान हूं, तो खतरा है।
ऐसे कई लोग
खतरा पैदा
करते हैं, जो
भगवान से ही
शुरू कर देते
हैं, वे
कहते हैं: मैं
भगवान हूं।
उनके भीतर
भक्ति का तो
कोई भाव होता
नहीं, इसलिए
भगवान की
घोषणा तो कर
देते हैं, तब
ऐसे लोग अहंकेंद्रित
होकर हैं; "इगोसेंट्रिक'
होकर
दूसरों को
भक्त बनाने की
कोशिश में लग
जाते हैं।
क्योंकि उनके
भगवान के लिए
भक्तों की
जरूरत है। पर
वे दूसरे में
भगवान नहीं देख
पाते। अपने
में भगवान
देखते हैं, दूसरे में
भक्त देखते
हैं। ऐसे "गुरुडम'
के बहुत
घेरे हैं सारी
दुनिया में।
यात्रा शुरू
करनी पड़ेगी
भक्ति से।
अब
कृष्ण को
भगवान माना जा
सकता है, क्योंकि
यह आदमी घोड़े
तक की भक्ति
कर सकता है।
सांझ को जब
घोड़े थक जाते
हैं तो उन्हें
ले जाता है
नदी पर स्नान
कराने। उनको
नहलाता है, उनको खुर से
साफ करता है।
यह आदमी भगवान
होने की
हैसियत रखता
है। क्योंकि
घोड़े को भी
भगवान की तरह
स्नान करवा
सकता है। इस आदमी
में डर नहीं
है, इससे
खतरा नहीं है।
यह अगर भगवान
की अकड़ वाला आदमी
होता तो सारथी
की जगह बैठ
नहीं सकता।
अर्जुन से
कहता, बैठो
नीचे, बैठने
दो ऊपर! रहा
मैं भगवान, तुम हो भक्त!
भगवान
बैठेंगे रथ
में, भक्त
चलाएगा। जो
अपने को भगवान
घोषित करते हैं,
जरा उन्हें
तख्त के नीचे बिठालकर
आप तख्त पर
बैठकर देखिए,
तब पता
चलेगा!
भक्त
से शुरू होगी
यात्रा, भगवान
पर पूरी होती
है।
"हमारी
कृष्ण-प्रेम
की चरम सीमा
की कसौटी क्या
होगी?'
जैसा
मैंने कहा, भक्ति का
कोई ढंग नहीं
होता, प्रेम
की कोई कसौटी
नहीं होती।
प्रेम हो तो
काफी है, कसौटी
की क्यों फिकिर
करते हैं।
प्रेम नहीं
होता तो आदमी
कसौटी की फिकिर
करता है। आप
प्रेम की फिकिर
करें। कसौटी
की क्या जरूरत
है? प्रेम
नहीं है, इसलिए
सोचते हैं कि
कसौटी मिल जाए
तो जांच कर लें।
लेकिन नहीं है
तो जांच करने
की जरूरत क्या
है? पता है
कि नहीं है। प्रेम
है, इसकी फिकिर
करें। और जब
प्रेम होता है
तो सच्चा ही
होता है, झूठा
कोई प्रेम
होता नहीं।
झूठा प्रेम
गलत शब्द है।
या तो होता है,
या नहीं
होता है।
इसलिए कसौटी
की कोई जरूरत
नहीं है। हां,
सोने को जांचने
के लिए कसौटी
की जरूरत पड़ती
है, क्योंकि
गलत सोना होता
है। प्रेम तो
झूठा होता ही
नहीं। होता है,
या नहीं
होता। और जब
होता है तब आप
उसी भांति जानते
हैं जैसा पैर
में कांटा गड़ा
है तब जानते
हैं। क्या
कसौटी होगी? पैर में
कांटा गड़ता
है, पैर
में दर्द हो
रहा है, क्या
कसौटी है कि
दर्द हो रहा
है कि नहीं हो
रहा है? आपको
तो पता ही
होगा कि दर्द
हो रहा है या
नहीं हो रहा है।
हां, अगर
दूसरा कोई
कहता हो कि
क्या कसौटी है,
तो उसके पैर
में भी कांटा गड़ाने के
सिवाय और क्या
उपाय है? उसके
पैर में भी एक
कांटा गड़ा
दें और कहें
कि देखो हो
रहा है कि
नहीं हो रहा है?
प्रेम जब
घटित होता है
तो हम जानते
हैं उसी तरह, जैसे हम और
सब जानते हैं।
जब प्रेम घटित
नहीं होता है
तब भी हम
जानते हैं कि
पैर में कांटा
नहीं है। अपने
भीतर देखें, पहचानने में
कठिनाई न
आएगी। जान
सकेंगे कि मेरी
जिंदगी में
प्रेम है या
नहीं है। नहीं
है, तो
कसौटी का क्या
करियेगा?
है, तो कसौटी
बेकार है।
कसौटी का कोई
संबंध नहीं
है। प्रेम की
फिक्र करें, है या नहीं।
लेकिन
हम डरते हैं
फिक्र करने
से। भीतर
झांकने से
डरते हैं, क्योंकि
हमें
भलीभांति पता
है कि प्रेम
नहीं है।
इसलिए हम भीतर
देखते ही
नहीं। इसलिए
अक्सर दूसरे
कि फिक्र करते
हैं कि दूसरे का
प्रेम मेरी
तरफ है या
नहीं? शायद
ही कोई कभी
पूछता हो कि
मेरा प्रेम
दूसरे की तरफ
है या नहीं।
इसलिए लड़ते
हैं दिन-रात
कि दूसरा कम
प्रेम करता है,
पति कम
प्रेम करता है,
पत्नी कम
प्रेम करती है,
बेटा कम
प्रेम करता है,
बाप कम
प्रेम करता है,
सब लड़ रहे
दूसरे से कि
दूसरा कम
प्रेम करता
है। और कोई भी
यह नहीं पूछता
कि मैंने
प्रेम किया है?
और जब हम
जीवित चारों
तरफ फैले हुए
व्यक्तियों
को भी प्रेम
नहीं कर पाते
हैं, जब हम
दिखाई पड़ने
वाले फूलों को
नहीं प्रेम नहीं
कर पाते, जब
चारों ओर खड़े
हुए पर्वतों
को प्रेम नहीं
कर पाते हैं, आकाश के चांदत्तारों
को प्रेम नहीं
कर पाते हैं, तो हम
अदृश्य को
कैसे प्रेम कर
पाएंगे? इस
दृश्य से शुरू
करें।
और बड़े
मजे की बात है
कि जो आदमी
दृश्य को प्रेम
करता है, वह
दृश्य के भीतर
तत्काल
अदृश्य को
अनुभव करने
लगता है।
पत्थर को
प्रेम करें और
पत्थर परमात्मा
हो जाता है।
फूल को प्रेम
करें और
अदृश्य फूल की
प्राण-ऊर्जा
दिखाई पड़नी
शुरू हो जाती
है। व्यक्ति
को प्रेम करें
और तत्काल
शरीर मिट जाता
है और आत्मा
शुरू हो जाती
है। प्रेम
कीमिया है
अदृश्य को
खोजने का। प्रेम
रासायनिक
विधि है, रासायनिक
दृश्य है, रासायनिक
झरोखा है
अदृश्य को खोज
लेने का।
प्रेम की
फिक्र करें, फिर कभी
फिक्र नहीं
करनी पड़ेगी
किस कसौटी पर तौलें। और
यह बात कभी मत
पूछें कि
प्रेम की चरम
अवस्था क्या
है? प्रेम
जब भी होता है,
चरम ही होता
है। प्रेम की
दूसरी कोई
अवस्था होती
ही नहीं।
प्रेम की "डिग्रीज'
नहीं होतीं।
यह
थोड़ा समझ लेना
उचित होगा।
ऐसा
नहीं होता कि
मैं कहूं कि
मुझे आपसे
थोड़ा-थोड़ा
प्रेम है। यह
होता ही नहीं।
थोड़ा-थोड़ा प्रेम
का कोई मतलब
होता है? मैं
कहूं कि जरा
अभी आपसे थोड़ा
कम प्रेम है।
ऐसा नहीं
होता। जैसे
कोई आदमी दो
पैसे की चोरी करे
और कोई आदमी
दो लाख की
चोरी करे, तो
दो लाख की
चोरी बड़ी चोरी
है और दो पैसे
की चोरी छोटी
चोरी है, ऐसा
कहिएगा? हां,
जो लोग पैसे
का हिसाब रखते
हैं वे कहेंगे
कि दो लाख की
चोरी बड़ी चोरी
होगी और दो
पैसे की चोरी
छोटी हुई।
लेकिन चोरी
छोटी और बड़ी
हो सकती है!
चोरी तो सिर्फ
चोरी है। चोरी
में कोई "डिग्रीज'
नहीं होतीं,
कम और
ज्यादा नहीं
होतीं। दो
पैसे चुराते
वक्त आदमी
उतना ही चोर
होता है जितना
दो लाख चुराते
वक्त होता है।
प्रेम
न दो पैसे का
होता है, न
दो लाख का
होता है, बस
होता है। चरम
कोई अवस्था
नहीं होती, प्रेम चरम
ही होता है।
प्रेम जो है
वह "क्लाइमेक्स'
ही है। वह
हमेशा सौ
डिग्री पर ही
होता है। जैसे
कि पानी गरम
होता है तो
ऐसा नहीं होता
है कि नब्बे
डिग्री पर
थोड़ा-सा भाप
हो, फिर, और पंचान्नबे
डिग्री पर
थोड़ा ज्यादा
भाप हो जाए।
नहीं, सौ
डिग्री पर ही
भाप होता है।
सौ डिग्री पर
बस एकदम भाप
होने लगता है।
तो अगर कोई
पूछे कि भाप
बनने का चरम बिंदु
क्या है? तो
हम कहेंगे, जो प्रथम
बिंदु है, वही
चरम भी है। जो
पहला बिंदु है,
वही आखिरी
भी। सौ डिग्री
पहला है और सौ
डिग्री आखिरी
है। प्रेम भी
प्रथम और
अंतिम एक ही
है, "द
फर्स्ट एंड द
लास्ट'।
प्रेम में कोई
अंतर नहीं है।
प्रेम चरम ही
है। उसका पहला
कदम ही आखिरी
कदम है। उसकी
मंजिल की पहली
सीढ़ी ही मंदिर
की आखिरी सीढ़ी
है। मगर हमें
पता ही नहीं
है, इसलिए
हम अजीब सवाल
पूछते हैं।
अभी तक मैंने
प्रेम के
संबंध में ठीक
सवाल किसी
आदमी को पूछते
नहीं देखा।
मुझे खयाल आती
है एक घटना।
एक
बहुत बड़ा करोड़पति
मार्गन अपने
एक विरोधी करोड़पति
के साथ बातचीत
कर रहा था। तो
उसने अपने
विरोधी करोड़पति
से, जो उसका
प्रतियोगी था,
उससे उसने
कहा कि दुनिया
में हजार ढंग
हैं धन कमाने
के, लेकिन
ईमानदारी का
ढंग एक ही है।
उसके विरोधी ने
कहा, वह
कौन-सा ढंग है?
मार्गन ने
कहा, मैं
जानता था कि
तुम पूछोगे, क्योंकि
तुमको उसका
पता नहीं है।
मैं जानता था
कि तुम पूछोगे
क्योंकि
तुम्हें उसका
पता नहीं है!
ऐसा ही
मामला प्रेम
का है। प्रेम
के बाबत हम ऐसे
सवाल पूछते
हैं जो कि
बनता ही नहीं, जो कि होते
ही नहीं, "इर्रेलिवेंट'। क्योंकि
मुझे पता है
कि हम पूछेंगे,
क्योंकि
प्रेम भर एक
चीज है जिसका
हमें कोई पता
नहीं है। उसके
संबंध में हम
गलत ही पूछ
सकते हैं। और
ध्यान रहे, जिसे उसका
पता है वह ठीक
नहीं पूछ सकता,
क्योंकि
पूछने का कोई
सवाल नहीं है,
वह जानता
है।
"भगवान
श्री, महाभारत
संग्राम में
कृष्ण अर्जुन
को युद्ध में
प्रवृत्त
करते हैं! मगर
एक दफा, ऐसा
सुना जाता है,
कि कृष्ण
अर्जुन से
संग्राम करने
गए थे। वह क्या
बात थी?'
असल
में कृष्ण
जैसे व्यक्ति
न तो किसी के
मित्र हैं और
न किसी के
शत्रु हैं।
कृष्ण की कोई
निश्चित
धारणा किसी के
बाबत नहीं है।
इसलिए शत्रु
मित्र हो सकता
है, मित्र
शत्रु हो सकता
है। स्थितियां
तय करेंगी। "सिचुएशंस'
तय करेंगी।
हम और तरह से
जीते हैं। हम
किसी के मित्र
होते हैं, किसी
के शत्रु होते
हैं। फिर
परिस्थितियां
बदल जाती हैं
तो बड़ी
मुश्किल होती
है। फिर भी हम
मित्र और शत्रु
को खींचने की
कोशिश करते
हैं। कृष्ण
कुछ भी खींचते
नहीं। जैसी
स्थिति हो।
अगर अर्जुन भी
लड़ने को सामने
पड़ जाए, तो
कृष्ण-अर्जुन
युद्ध हो
जाएगा। इसमें
कोई अड़चन नहीं
आएगी। उसी मौज
से अर्जुन से
भी लड़ लेंगे।
जिस मौज से
अर्जुन के लिए
लड़ते हैं, उसी
मौज से अर्जुन
से भी लड़ा
जा सकता है।
असल
में कृष्ण
मित्रता और
शत्रुता को "फिक्स्ड
प्वाइंट' नहीं
बनाते। वे कोई
सुनिश्चित
चीजें नहीं हैं,
वे तरलताएं
हैं। और
जिंदगी की
तरलता में
कहां तय किया
जा सकता है, कौन मित्र
है और कौन
शत्रु है? जो
आज मित्र है, वह कल शत्रु
हो सकता है; जो आज शत्रु
है, वह कल
मित्र हो सकता
है। इसलिए
मित्र के साथ
भी कल की
शत्रुता को
ध्यान में
रखकर चलना
उचित है और
शत्रु के साथ
भी कल की
मित्रता को
ध्यान में
रखकर व्यवहार
करना उचित है।
क्योंकि कल का
कोई भरोसा
नहीं। क्षण का
कोई भरोसा
नहीं। क्षण
बदला और सब
बदल जाएगा।
जिंदगी पूरे
वक्त बदलता
हुआ "पैटर्न' है। जैसे
धूप पड़ रही है
अभी, छायायें पड़ रही हैं
जमीन पर। कहीं
छाया है, कहीं
धूप है। घड़ी
भर बाद धूप
कहीं और होगी,
छाया कहीं
और होगी। सब
बदलता रहेगा।
सांझ तक बैठे
देखते रहें इस
बगिया को, सब
बदलता
रहेगा--धूप
बदलेगी, छाया
बदलेगी, बदलियां
आएंगी-जाएंगी,
दिन
निकलेगा, सांझ
होगी, रात
होगी, प्रकाश
होगा, अंधेरा
हो जाएगा, यह
सब होता
रहेगा। पूरी
जिंदगी भी इसी
तरह बदलता हुआ
"पैटर्न' है।
वहां कोई चीज
शतरंज के खांचों
की तरह तय
नहीं है। वहां
धूप-छाया की
तरह सब बदलता
हुआ है।
इसलिए
हम कभी सोच भी
नहीं सकते, हम कभी यह
सोच नहीं सकते
कि अर्जुन और
कृष्ण कैसे
आमने-सामने हो
सकते हैं।
कृष्ण मित्र
के सामने भी
हो सकते हैं, और ऐसे तो
पूरा महाभारत
ही बड़े मजे का
है! उसमें सब
मित्र
आमने-सामने
खड़े हैं! उसने,
जिन द्रोण
से सीखा है
अर्जुन ने सब,
उन्हीं पर तीर
खींचे खड़ा है।
जिन भीष्म से
पाया है बहुत कुछ,
उन्हीं को
मारने के लिए
तत्पर है।
महाभारत ऐसे
बड़ा अदभुत है।
वह बता रहा है
कि जिंदगी में
कुछ तय नहीं
है, सब
बदलता हुआ है।
जो कल भाई थे, आज शत्रु
हैं। जो कल
मित्र थे, आज
सामने खड़े
हैं। जो कल
गुरु थे, आज
उनसे लड़ना पड़
रहा है। लेकिन
इससे भी, इससे
दोनों बातें
साफ हैं। दिन
भर लड़ते भी
हैं, सांझ
उनकी
कुशल-क्षेम भी
पूछ आते हैं।
दिन भर लड़ते
भी हैं। सांझ
जाकर पूछ भी
आते हैं कि
किसी को चोट
तो नहीं लग गई?
जिनको दिनभर
चोट मारी, जिनसे
दिनभर
दिल खोलकर लड़े
हैं--उस लड़ाई
में कोई "डिसऑनेस्टी'
नहीं है, लड़ाई बिलकुल
"ऑनेस्ट'
है, लड़ाई
बिलकुल
ईमानदारी से
भरी हुई है, उस लड़ाई में
जरा धोखा नहीं
है, अगर
भीष्म सामने
पड़ेंगे तो
गर्दन उतारने
में देर न की
जाएगी--लेकिन
सांझ को दुख
मनाने में भी
कोई बाधा नहीं
है कि भीष्म
जैसा आदमी खो
गया। यह बहुत
अजीब है! इससे
यह सूचना
मिलती है कि
एक युग था, जब
हम
मित्रतापूर्ण
ढंग से लड़ भी
सकते थे। आज युग
बिलकुल उलटा
है, आज तो
हम
शत्रुतापूर्ण
ढंग से मित्र
ही हो पाते
हैं।
मित्रतापूर्ण
ढंग से युद्ध
भी हो सकता था,
आज तो
मित्रता भी शत्रुतापूर्ण
ढंग से ही
चलती है। आज
तो मित्र भी
प्रतियोगी
है। तब शत्रु
भी साथी था।
और
जिंदगी के बड़े
अर्थों में
सोचने जैसा
है। यह सोचने
जैसा है कि
अगर मेरा कोई
शत्रु है, तो शत्रु के
मरने के साथ
मेरे भीतर भी
कुछ मर जाता
है। शत्रु ही
नहीं मरता, मैं भी कुछ
मरता हूं।
शत्रु के होने
के साथ मेरा
होना भी है।
मित्र के मरने
के साथ ही
मेरे भीतर से
कुछ खोता हो, ऐसा नहीं है,
शत्रु के
खोने के साथ
भी मेरे भीतर
से कुछ खो जाता
है। तो शत्रु
भी मेरे
व्यक्तित्व
का हिस्सा है।
इसलिए शत्रु
के प्रति भी
बहुत शत्रुतापूर्ण
होने का अर्थ
नहीं है।
शत्रु भी किसी
गहरे अर्थों
में मित्र है।
और मित्र भी
किसी गहरे
अर्थों में
शत्रु है।
क्यों? क्योंकि
असल में जैसा
कि मैं निरंतर
इन पिछले दिनों
में आपसे कहा
हूं, जिंदगी
में जिनको हम "पोलेरिटीज'
में बांटते
हैं, ध्रुव
बना देते हैं,
वे हमारे
शब्दों और सिद्धांतों
में ही सत्य
हैं। जिंदगी
के सीधे गहराई
में कोई "पोलेरिटी'
सत्य नहीं
है, सब "पोलेरिटीज'
जुड़ी हुई
हैं। उत्तर और
दक्षिण जुड़े
हुए हैं। ऊपर
और नीचे जुड़ा
हुआ है।
ऐसा
अगर हम देख
पाएं, तो
फिर कृष्ण का
अर्जुन से
युद्ध समझ में
आ सकता है।
ऐसे कृष्ण को
समझाने वालों
को नहीं समझ
में आया है, बहुत
मुश्किल पड़ी
है, बहुत
मुश्किल पड़ती
रही है, क्योंकि
जब भी हम
समझाने जाते
हैं तब हमारी
धारणाएं बीच
में खड़ी हो
जाती हैं, और
वे कहती हैं, यह भी क्या
बात है, यह
कैसी बात है, यह नहीं
होनी चाहिए!
हम मानते हैं
कि मित्र को मित्र
ही होना चाहिए,
शत्रु को
शत्रु ही होना
चाहिए। हम
जिंदगी को फांकों
में बांटते
हैं और उनको
थिर कर देते
हैं। जिंदगी
नदी की भांति
तरल है। जो
लहर यहां थी, वह लहर अब
बहुत दूर है।
जो लहर कल
सांझ थी, आज
बहुत दूर हट
गई है। और इस
पूरे जिंदगी
के रास्ते पर
कौन हमारे साथ
है, यह क्षणभर
की बात है! क्षणभर
बाद साथ होगा
कि नहीं होगा,
नहीं कहा जा
सकता। कौन आज
विरोध में खड़ा
है, क्षणभर बाद विरोध
में खड़ा होगा,
नहीं खड़ा
होगा, नहीं
कहा जा सकता।
जो इस जिंदगी
को नदी की धार की
तरह जीते हैं,
वे न शत्रु
बनाते, न
मित्र बनाते।
जो शत्रु बन जाता
है, उसे
शत्रु मान
लेते हैं, जो
मित्र बन जाता
है, उसे
मित्र मान
लेते हैं, वे
कुछ बनाते
नहीं, जिंदगी
में से गुजरते
हैं; जो भी
जैसा बन जाता
है, उसे
वैसा ही मान
लेते हैं।
कृष्ण
के लिए न कोई
शत्रु है, न कोई मित्र
है। समय, परिस्थिति,
अवसर जिसको
मित्रता के खेमे
में ढकेल देता
है, उसके
मित्र हो जाते
हैं; जिसको
शत्रुता के
खेमे में ढकेल
देते हैं उसके
शत्रु हो जाते
हैं। फौजें
कृष्ण की लड़
रही हैं
कौरवों की तरफ
से, कृष्ण
लड़ रहे हैं
पांडवों की
तरफ से।
विभाजन कर
लिया है दोनों
का, क्योंकि
दोनों ही ऐसे
कृष्ण को
मित्र मानते
थे। और दोनों
ही साथ पहुंच
गए थे। दोनों
ही साथ पहुंच
गए थे, और
दोनों को खुली
छूट दे दी
थी--अब यह बड़े
मजे की बात
है--दोनों को
छूट दे दी थी
कि जो तुम्हें
मांगना हो, क्योंकि
दोनों ही साथ
आ गए हो, दोनों
ही अपने हो, तो एक तरफ से
मैं लड़ लूंगा,
एक तरफ से
मेरी फौजें
लड़ लेंगी।
"वह
यह भी तो कह
सकते थे कि
दोनों मेरे
मित्र हो, इसलिए
मैं किसी की
भी तरफ से
नहीं लडूंगा?'
ऐसा
वह इसलिए नहीं
कह सकते थे कि
वह जो महाभारत
की घटना घटने
वाली थी, वह
इतनी विराट थी
कि उसमें
कृष्ण का होना
एकदम जरूरी
था--उनके बिना
शायद वह घट भी नहीं
सकती थी। और
मित्र से अगर
वे कहते कि
मैं दोनों के
बाहर रहा जाता
हूं, अगर
वह भारतीय
विदेश नीति
अख्तियार
करते "न्यूट्रिलिटी'
की, तटस्थता
की और वे कहते
मैं दोनों तरफ
नहीं हूं, तो
वह बेईमानी
होती, क्योंकि
जिंदगी में
तटस्थता होती
ही नहीं। उसमें
किसी तरफ हम होते
ही हैं।
जिंदगी में
तटस्थता होती
ही नहीं।
तटस्थता
सिर्फ आंतरिक
भाव हो सकती
है, जिंदगी
में होती नहीं
है, जिंदगी
में हम किसी
तरफ होते ही
हैं। इस तरह या
उस तरफ।
दिखावा हो
सकता है
तटस्थता का।
दिखावा वे कर
सकते थे।
लेकिन दिखावे
का कोई मतलब न था।
और दोनों ही
मित्र सहायता
मांगने आए थे,
तटस्थता
मांगने नहीं
आए थे। यह
कहने आए थे कि हमें
साथ दो। उत्तर
साथ के लिए
देना था।
दोनों का साथ
न देने का
मतलब यह न
होता कि दोनों
के मित्र हैं,
दोनों का
साथ न देने का
मतलब होता कि
दोनों से कोई
मतलब नहीं है,
दोनों के
मित्र नहीं हैं।
तटस्थता का
तभी मतलब होता
है। तटस्थता
का मतलब है, हम उदास
हैं। उदासीन,
हमें मतलब
नहीं है कौन
जीतता है, कौन
हारता है। कोई
प्रयोजन नहीं
तुमसे।
कृष्ण
निष्प्रयोजन
नहीं हैं।
कृष्ण मित्र दोनों
के हैं, लेकिन
चाहते यही हैं
कि पांडव जीतें।
जीतें
इसलिए कि
उन्हें लगता
है कि पांडव
धर्म के पक्ष
में हैं और
कौरव अधर्म के
पक्ष में हैं।
लेकिन मित्र
दोनों के
हैं--वे जो
अधर्मी हैं, वे भी उनके
प्रति
मित्रतापूर्ण
हैं। कृष्ण से
उनकी कोई
शत्रुता नहीं
है। कृष्ण के
प्रति उनका
सद्भाव है।
कृष्ण को वे
भी चाहते हैं।
और उस जमाने
में बहुत सीधे,
साफ-सुथरे
हिसाब होते
थे। सभी बंट
जाते थे। छोटी
लड़ाई होती तो
सभी बंट जाते
थे। साफ
निर्णय हो
जाता था।
ज्यादा देर खींचनेत्तानने
की जरूरत नहीं
होती थी। "पोलेरिटीज'
साफ हो जाती
थीं तो जल्दी
निर्णय हो
जाता था और
निर्णायक हो
जाता था।
तो
कृष्ण
उपेक्षा से
नहीं भरे हैं, अपेक्षा
उनकी है।
उदासीन वे
नहीं हैं, इसलिए
तटस्थ नहीं हो
सकते। दोनों
बराबर नहीं हैं
उन्हें, फिर
भी दोनों की
तरफ से
मित्रता है।
इसलिए बंटने
को वे तैयार
हैं। और इतना
भी वे जानते
हैं कि बंटवारा
बहुत कुछ
निर्णय करेगा,
इसलिए बंटवारे
का जो नियम उन्होंने
चुना वह अदभुत
है, बहुत
गणित का है।
उन्होंने कहा
यह कि एक तो मुझे
चुन लो, मुझ
अकेले को, और
एक मेरी सारी फौजों को
चुन लो। इस बंटवारे
से कृष्ण को
बहुत साफ हो
गया कि धर्म
का पक्ष किसका
है। इससे बहुत
साफ हो गया
मामला।
क्योंकि
कृष्ण को
अकेले को कौन चुनेगा? जो हारने की
तैयारी रखते
हैं, वही न!
कृष्ण को
अकेले को कौन चुनेगा? जिनका शक्ति
पर भरोसा नहीं
है, वही न!
कृष्ण को
अकेला कौन चुनेगा?
जिसको
पौद्गलिक
शक्ति पर नहीं,
आत्मिक
शक्ति का
भरोसा है, वह
कृष्ण को चुन
लेगा। कौरव तो
बड़े प्रसन्न
हुए। डर गए थे
बहुत, क्योंकि
पहला चुनाव
पांडवों को
दिया गया था।
क्योंकि
पांडव बैठ गए
हैं नीचे, पांडवों
का प्रतिनिधि
बैठ गया है
पैरों में, कौरवों का
प्रतिनिधि
बैठ गया है
कृष्ण के सिर के
पास--वह सोए
हैं। दोनों गए
हैं, तो
जाग आएं तब तक
प्रतीक्षा
करनी है।
पांडवों का
प्रतिनिधि
बैठा है पैरों
के पास। वह भी
सूचक था।
कौरवों का
प्रतिनिधि
बैठा है सिर
के पास। पैर
के पास कौरव
कैसे बैठ सकते
हैं! पैर के
पास तो वही
बैठ सकता है
जो विनम्र हो।
ये सब
बहुत
छोटी-छोटी
बातें बड़ी
सूचक बन जाती हैं।
हम जिंदगी में
वही करते हैं, जो हम हैं।
यह आकस्मिक
नहीं है। यह
इतनी-सी घटना
भी कि कौरवों
का बैठना सिर
के पास, पांडवों
का बैठना पैर
के पास "एक्सिडेंटल'
नहीं है।
इसलिए आंख
स्वभावतः जो
पैर के पास बैठे
हैं, उन पर
पहले पड़ी।
इसलिए चुनाव
का पहला मौका
उन्हें दिया
गया। निश्चित
ही जो विनम्र
हैं, वे
पहले
जीतेंगे।
पहला मौका उनका
होगा। "ब्लेसेड
आर द मीक, दे शैल इनहेरिट
द अर्थ', वह
जो जीसस कहते
हैं, धन्य
हैं वे जो
विनम्र हैं, क्योंकि
पृथ्वी का
राज्य उन्हीं
का होगा। तो वे
जो विनम्र थे
उनके जिए पहला
मौका था कि
तुम चुनाव कर
लो। कौरव तो
बहुत डरे और घबड़ाए कि
यह तो बड़ी
मुश्किल हो गई,
क्योंकि
उन्होंने
पक्का समझा कि
कौन चुनेगा
कृष्ण को! फौजें
हैं विराट की,
वे ही
निर्णायक
होंगी युद्ध
में, वे
बहुत घबड़ाए
कि यह धोखा हो
गया! यह गलती
हो गई, यह
हमसे भूल हो
गई, हम पैर
के पास ही
क्यों न बैठ
गए! यह पहला
मौका पांडवों
का दिया गया
चुनाव का, इसमें
पक्षपात हुआ
जा रहा है!
क्योंकि
निश्चित ही
पांडव फौजों
को चुन लेंगे
और कृष्ण को
अकेले को कौन चुनेगा! और
हम अकेले
कृष्ण का क्या
करेंगे? लेकिन
वे बड़े
प्रसन्न हुए
जब उन्होंने
देखा कि नासमझ
पांडवों ने
कृष्ण को चुन
लिया और सारी फौजें
कौरवों को छोड़
दीं। तब वे
बड़े प्रसन्न
हुए और
उन्होंने
माना कि इन नासमझों
की हार
निश्चित ही
है। ये हर बार
नासमझी का दांव
लगाए चले जाते
हैं, हर
बार हारे चले
जाते हैं। फिर
मौका था जीतने
का, वह भी
चूक गए। अब
जीत निश्चित
है अपनी।
लेकिन वहीं
उनकी हार
निश्चित हो गई
थी। पांडवों
के चुनाव ने
कह दिया था कि
चुनाव आत्मिक
हो गया है, चुनाव
गहरा हो गया
है, धर्म
का हो गया है
और कृष्ण उनके
साथ खड़े होकर निर्णायक
हो गए हैं।
यह जो
मैंने कहा कि
पैर के पास
बैठ जाना बड़ा
महत्वपूर्ण
हो गया, छोटी
घटना मुझे याद
आती है, उससे
समझ में आ
जाएगी।
विवेकानंद
हिंदुस्तान
से अमरीका
जाते थे। तो
उन्होंने
शारदा मां को
जाकर
आशीर्वाद
मांगा और कहा
कि मैं अमरीका
जाता हूं। तो
रामकृष्ण की
पत्नी शारदा
मां ने कहा कि--रामकृष्ण
नहीं रहे थे, शारदा ही रह
गई थी, उससे
ही पूछा जा
सकता
था--शारदा ने
कहा कि क्या करोगे
अमरीका जाकर?
तो
उन्होंने कहा
कि मैं धर्म
का संदेश ले जाऊंगा।
तो शारदा चौके
में अपना काम
करती थी, उसने
कहा, वह
छुरी पड़ी है
सब्जी काटने
की, वह
उठाकर मुझे दे
दो।
विवेकानंद ने
वह छुरी उठाई
और शारदा को
दी। शारदा ने
कहा, जाओ, मेरा
आशीर्वाद है।
लेकिन
विवेकानंद ने
कहा कि छुरी
उठाने से इसका
क्या संबंध? शारदा ने
कहा, मैं
देखती थी कि
छुरी उठाकर
तुम कैसे मुझे
देते हो।
हममें से किसी
ने भी उठाकर
दी होती तो डंडी
खुद पकड़ी
होती, फलक
शारदा की तरफ
किया होता।
विवेकानंद ने
फलक खुद पकड़ा
और डंडी शारदा
की तरफ की। तो
शारदा ने कहा,
मैं सोचती
हूं कि तुमसे
धर्म का संदेश
जा सकता है।
साधारणतः कोई
भी शायद ही संभावना
है इस बात की
कि आप फलक पकड़ते।
फलक कहीं पकड़ा
जाता है छुरी
का? पकड़ी तो डंडी ही
जाती है, मूठ
ही पकड़ी
जाती है।
अब यह
बिलकुल "एक्सिडेंटल' नहीं है। यह
विवेकानंद
कोई सोच-समझकर
"रेडीमेड'
उत्तर भी
नहीं ला सकते।
यह किसी किताब
में लिखा नहीं
कि जब तुम
अमरीका जाओगे,
तो शारदा
तुमसे पूछेगी
तो छुरी ऐसी
पकड़ लेना। यह
किसी शास्त्र
में नहीं लिखा
हुआ है। और यह शारदा
जैसे
व्यक्तित्व
भरोसे के नहीं
हैं। ये क्या,
अब यह कोई
बात थी! यह कोई
पता लगाने का
ढंग था! यह कोई
धर्म की
परीक्षा हो
सकती थी!
लेकिन शारदा
ने कहा, रहा
आशीर्वाद, जाओ।
तुम्हारे मन
में धर्म है।
ऐसा उस
दिन कृष्ण के
पैरों के नीचे
बैठे पांडवों
ने सूचना दे
दी कि धर्म
उनकी तरफ है, पैरों के
पास बैठने की
उनकी हिम्मत
है। फिर कृष्ण
को चुनकर
उन्होंने
घोषणा कर दी
कि हम हारने
को तैयार हैं,
लेकिन धर्म
छोड़ने को
तैयार नहीं
हैं। हम धर्म के
साथ रह कर हार
जाएंगे, लेकिन
अधर्म के साथ
रह कर जीतेंगे
नहीं। और धर्म
के साथ सिर्फ
वही हो सकता
है, जो
हारने को
तैयार है।
जैसा मैंने
कहा, परमात्मा
के साथ सिर्फ
वही हो सकता
है, जो दुख
की मांग करता
है, जो दुख
को चुन लेता
है। धर्म के
साथ वही हो
सकता है, जो
हारने को
तैयार है। जो
जीतने को आतुर
है, हर
हालत में वह
अधर्म के साथ
हो ही जाएगा।
क्योंकि
अधर्म सुझाव
देता है, सरल,
"इजी शार्टकट'
देता है कि
यहां से जीत
लोगे। धर्म का
रास्ता लंबा
पड़ जाता है।
अधर्म "शार्टकट'
से खोजता है,
हमेशा।
धर्म का
रास्ता लंबा
है, श्रमसाध्य
है, "आरडुअस'
है। धर्म के
साथ हार भी हो
सकती है। धर्म
के साथ विनाश
भी हो सकता
है। लेकिन जो
धर्म के साथ विनष्ट
होने को तैयार
है और हारने
को तैयार है, उसकी हार
कभी होती
नहीं। लेकिन
तैयारी वह रखनी
होती है।
अधर्म
कहता है, यह
रही जीत। हाथ बढ़ाओ और
मिल जाएगी।
अधर्म का रस
और आकर्षण
उसके आश्वासन
में है, उसकी
"प्रॉमिस' में
है। वह कहता
है यह कि हाथ
बढ़ाया नहीं कि
मिला, कहां
धर्म का
रास्ता पकड़ते
हो! लंबा है
रास्ता! पहाड़
है दुर्गम!
पहुंचने का
पक्का पता
नहीं है, और
कौन कब पहुंचा
है! यह रहा
अधर्म, यह
रही पास की
व्यवस्था।
जरा करो और
पहुंच जाते
हो! अधर्म का
आश्वासन सदा
जीत का है। उस
जीत के आकर्षण
में आदमी
अधर्म को पकड़ता
है। अधर्म को पकड़कर कोई
कभी जीतता
नहीं। धर्म की
चुनौती सदा
हार की है।
हार के डर को
जानते हुए जो
धर्म के साथ
होता है, वह
कभी हारता
नहीं। लेकिन
ये बड़ी उलटी
बातें हैं, बड़ी "कांट्रडिक्ट्री'
बातें हैं।
लेकिन ऐसा ही
है।
"भगवान
श्री, आपने
कहा, "ब्लेसेड आर द मीक,
फॉर देयर्स
इज़ द किंग्डम
ऑफ अर्थ।' लेकिन,
"ब्लेसेड आर द प्योर
इन हॉर्ट,
फॉर देयर्स
इज़ द किंग्डम
ऑफ हेवन', इस संबंध
में आप क्या
कहते हैं?'
जीसस
का दूसरा वचन
भी है कि धन्य
हैं वे जिनके
हृदय पवित्र
हैं, क्योंकि
स्वर्ग का
राज्य उन्हीं
का होगा। इन दोनों
वचनों में
थोड़ा-सा फर्क
है। धन्य हैं
वे जो विनम्र
हैं, पृथ्वी
का राज्य उनका
होगा, "किंग्डम ऑफ द अर्थ'। धन्य हैं
वे जो पवित्र
हैं, स्वर्ग
का राज्य उनका
होगा, "किंग्डम ऑफ द हेवन'। असल में
विनम्रता जो
है, वह
शुरुआत है, पवित्रता जो
है, वह अंत
है। "हयुमिलिटी'
प्रारंभ है,
"प्यारिटी'
उपलब्धि
है। जो विनम्र
हैं, वे
पहली सीढ़ी पर
गए। उन्होंने
पवित्र होने
के लिए द्वार
खोला। वे अभी
पवित्र हो
नहीं गए। जो
विनम्र हैं, उन्होंने
पवित्र होने
का द्वार
खोला। जो विनम्र
नहीं हैं, वे
तो कभी पवित्र
नहीं हो सकते।
क्योंकि अहंकार
से बड़ी और कोई
अपवित्रता
नहीं है। जो
अहंकार से भरे
हैं, वे तो
कभी पवित्र
नहीं हो सकते,
लेकिन जो
विनम्र हुए, जिन्होंने
अहंकार छोड़ा,
जो झुके, समर्पित हुए,
उन्होंने
पवित्र होने
का द्वार
खोला। लेकिन झुक
जाना ही पा
लेना नहीं है।
आप झुक जाने
से सिर्फ
द्वार बने।
एक
आदमी नदी के
किनारे खड़ा है, नदी में खड़ा
है, पानी
नीचे बह रहा
है, वह
आदमी प्यासा
है। वह झुक
जाए तो पानी
अंजुली में भर
सकता है, लेकिन
झुकने को वह
राजी नहीं। वह
अकड़कर
खड़ा है। वह
प्यासा है, पानी पैर के
पास से बहा
जाता है, लेकिन
झुकने को वह
राजी नहीं।
खड़ा रहे
प्यासा, नदी
नीचे बहती
रहेगी। नदी का
कोई कसूर नहीं
उसकी प्यास
में। उस आदमी
की अकड़ ही
उसको प्यासा किए
हुए है। झुकने
की उसकी
तैयारी नहीं।
वह झुक जाए तो
अंजुली में
पानी आ जाए।
झुकने से
शुरुआत होगी।
अंजुली में
पानी आने का
द्वार
खुलेगा।
ठीक
ऐसे ही जो
विनम्र हैं, वे द्वार
खोलते हैं
अपनी
पवित्रता के
लिए, और जब
वे पवित्र हो
जाते
हैं--विनम्रता
सब तरह से
पवित्र हो
जाएगी।
क्योंकि
विनम्रता उन
सब चीजों को
काट देगी
जिनसे आदमी
अपवित्र होता
है। विनम्र
आदमी अहंकारी
न रह जाएगा।
विनम्र आदमी
आक्रामक न रह
जाएगा। विनम्र
आदमी क्रोधी न
रह जाएगा।
विनम्र आदमी
लोभी न रह
जाएगा।
विनम्र आदमी
कामी न रह
जाएगा। असल
में इन सबमें
आक्रमण जरूरी
है। तो विनम्रता
इन सबके लिए
रास्ता नहीं
रह जाएगी।
विनम्र आदमी
क्रोध की जगह
क्षमा को
उपलब्ध होने
लगेगा।
विनम्र आदमी
लोभ की जगह
दान को उपलब्ध
होने लगेगा।
विनम्र आदमी
आक्रमण की जगह
हारने की
तैयारी
दिखाने
लगेगा।
विनम्र आदमी
परिग्रह की
जगह
अपरिग्रही
होने लगेगा।
विनम्र आदमी
अपनी घोषणा
करने की जगह
अंधेरे और
छाया में हटने
लगेगा, अदृश्य
होने लगेगा।
जिस दिन
विनम्रता
पूरी हो जाएगी,
उस दिन
पवित्रता
पूरी हो
जाएगी। इसलिए
दूसरे वचन में
जीसस कहते हैं,
"ब्लेसेड आर द प्योर,
दे शैल इनहेरिट
द किंग्डम
ऑफ गॉड'।
वे परमात्मा
के राज्य के
मालिक हो
जाएंगे, जो
पवित्र हैं।
एक और
वचन है जीसस
का इसी तरह
का--"ब्लेसेड
आर द पुअर इन स्प्रिट'।
वे, जो
आत्मा से
दरिद्र हैं।
बड़ा अजीब
वाक्य है--"पुअर
इन स्प्रिट'। उसमें
दोनों बातें
सम्मिलित हो
गई हैं। उसमें
विनम्रता और
पवित्रता
दोनों ही उस
वचन में आ
गईं। इतने गरीब
हैं हम
भीतर--अपवित्र
होने के लिए
कुछ तो चाहिए?
कुछ बचा ही
नहीं।
"वैक्यूम' हो
गए हैं। इतने
गरीब हैं भीतर
कि कुछ बचा ही
नहीं। कुछ तो
चाहिए? अविनम्र
होने के लिए
कुछ तो चाहिए?
कुछ तो "पजेसन'
होना चाहिए?
कोई
मालकियत होनी
चाहिए? धन
होना चाहिए, पद होना
चाहिए, पदवी
होना चाहिए, नाम होना
चाहिए, यश
होना चाहिए, कुछ तो होना
चाहिए? अपवित्र
होने के लिए
भी कुछ तो
होना
चाहिए--क्रोध
होना चाहिए।
अब यह बड़े मजे
की बात है कि
क्रोध कुछ है,
अक्रोध
सिर्फ अभाव
है। अक्रोध
कुछ है नहीं।
लोभ कुछ है, अलोभ सिर्फ "एब्सेंस' हैं, अभाव
है। हिंसा कुछ
है, अहिंसा
सिर्फ अभाव
है। इतना गरीब
है आदमी भीतर
कि न हिंसा है
अब उसके पास, न क्रोध है
उसके पास, न
लोभ, न पद, न प्रतिष्ठा,
न नाम, न
धन, कुछ भी
नहीं है, "पुअर
इन स्प्रिट'।
दीन-दरिद्र
आत्मा से।
लेकिन उसकी
समृद्धि का
कोई मुकाबला
नहीं। इसलिए
दूसरे वचन में
वे कहते हैं
कि सब कुछ का
वह मालिक हो
जाएगा। जो सबसे
ज्यादा दीन हो
गया है, भीतर
वह सबका मालिक
हो जाएगा, वह
सब पा लेगा।
सब जो पाने
योग्य है, वह
सब उसे मिल
जाएगा।
जीसस
का एक वचन है
इसके संदर्भ
में, जिसमें
वह कहते हैं:
"सीक यी
फर्स्ट द किंग्डम
ऑफ गॉड एंड आल एल्स शैल
बी एडेड अनटू यू'। पहले तुम
परमात्मा के
राज्य को खोज
लो और फिर सब
तुम्हें मिल
जाएगा। लेकिन
जब उनसे कोई
पूछता है, परमात्मा
के राज्य को
खोज लो और फिर
सब तुम्हें
मिल जाएगा।
लेकिन जब उनसे
कोई पूछता है,
परमात्मा
के राज्य को
कैसे खोजें? तब वह कहते
हैं, विनम्र
हो जाओ, पवित्र
हो जाओ, दरिद्र
हो जाओ, तो
परमात्मा का
राज्य मिल
जाएगा। और जब
परमात्मा का
राज्य मिल
जाएगा, तो
"आल एल्स
शैल बी एडेड
अनटू यू', और फिर सब, जो भी है, सब
तुम्हें मिल
जाएगा। उसके
पीछे सब चला
जाएगा। अजीब
शर्त है। सब
खो दो, तो
सब पा लोगे।
कुछ भी बचाया,
तो सब खो
दोगे। जो अपने
को खोने को
राजी हैं, वे
सब पाने के
मालिक हो
जाएंगे, जो
अपने को बचाने
की जिद्द
करेंगे, वे
सब खो देंगे।
संन्यासी
का यही अर्थ
है मेरे मन
में। जो सब
खोने को राजी
है, वह सब
पाने का
अधिकारी हो
जाता है।
"लेकिन वह
खोने के बाद
पाने की क्यों
सोचे?'
हां, तुम्हारे
सोचने की बात
नहीं है। ऐसा
होता है। तुम सोचोगी तब
तो खो ही न सकोगी।
अगर प्रभु का
राज्य पाने के
लिए विनम्र
हुए, तब तो
विनम्र हुए ही
नहीं। वह जो
है, आश्वासन
नहीं है, "कांसीक्वेंस'
है। वह जो
दूसरी बात है,
वह परिणाम
है। वह आपके
लिए आश्वासन
नहीं है। क्योंकि
अगर कोई आदमी
कहता है कि
मैं सब पाने के
लिए सब छोड़ने
को राजी हूं, तो छोड़ेगा
कैसे? वह
तो सब पाने के
लिए? कुछ
नहीं छोड़
सकता। नहीं, वह जो दूसरा
हिस्सा है, वह आश्वासन
नहीं है, परिणाम
है। ऐसा देखा
गया है कि
जिन्होंने सब
छोड़ा, उन्होंने
सब पाया है।
लेकिन
जिन्होंने सब
पाना चाहा है,
वे कुछ भी
नहीं छोड़ सके
हैं।
"उपरोक्त
बातें तो लगता
है कि
स्थितप्रज्ञ-पुरुष
में ही संभव
हैं। और हमें
आपके
व्यक्तित्व
में वह सब दिखता
है। आप अति
विनम्र हैं।
मगर कभी-कभी
अति कठोर
आलोचक भी हो
जाते हैं, तब
हमारी दुविधा
का पार नहीं
रह जाता।'
हां, मैं दुविधा
को मिटाऊंगा
भी नहीं।
क्योंकि जो
विनम्रता ओढ़ी
गई होती है, जो विनम्रता
साधी गई होती
है, जो
विनम्रता लाई
गई होती है, वह सदा
विनम्र होती
है। लेकिन जो
विनम्रता सहज
होगी, वह
इतनी विनम्र
होती है कि
अविनम्र होने
की भी हिम्मत
कर सकती है।
सिर्फ विनम्र
आदमी ही निर्मम
रूप से
अविनम्र होने
का साहस कर
सकता है। सिर्फ
प्रेमी ही
कठोर हो सकता
है।
तो ऐसा
निरंतर
लगेगा--वही जो
मैं कृष्ण के
लिए कह रहा हूं--निरंतर
ऐसा लगेगा, मुझमें
निरंतर उलटी
बातें, बहुत
तरह की उलटी
बातें हैं।
लेकिन मैं
पूरी जिंदगी
को ही स्वीकार
करता हूं, वही
मेरी
विनम्रता है।
अगर मेरे भीतर
कभी मुझे कठोर
होने जैसा
होता है, तो
मैं रोकता
नहीं, क्योंकि
रोके कौन? मैं
कठोर हो जाता
हूं। कभी मुझे
विनम्र होने
जैसा होता है,
तो मैं क्या
करूं, विनम्र
हो जाता हूं।
जो होता है, वह मैं होने
देता हूं।
अपनी तरफ से
मेरी होने की
कोई भी चेष्टा
नहीं है। मेरा
कोई प्रयास नहीं
है। इसलिए
मेरे साथ
दुविधा जारी
रहेगी। मेरे
साथ दुविधा
कभी मिटने
वाली नहीं है।
और जिनको हम
स्थितप्रज्ञ
कहते रहे
हैं--कृष्ण को
स्थितप्रज्ञ कहियेगा
कि नहीं कहियेगा!
लेकिन
दुविधापूर्ण
है मामला।
कृष्ण बहुत बार
प्रज्ञा को
बिलकुल खोते
हुए मालूम
पड़ते हैं।
सुदर्शन हाथ
में उठाया
होगा, तब
हमें लगेगा कि
प्रज्ञा खो दी,
स्थिरता न
रही।
यह जो
स्थितप्रज्ञ की
हमारी धारणा
है कि जिसकी
प्रज्ञा
स्थिर हो गई
है, इसका
मतलब क्या
होता है? इसका
क्या यह मतलब
होता है कि जो
हम ठीक समझते हैं,
वही वह करता
है? यानी
हमारे पक्ष
में स्थिर हो
गई है? स्थिर
हो जाने का
कुल मतलब इतना
है--स्थिर हो जाने
का मतलब जड़ हो
जाना नहीं
है--स्थिर हो
जाने का मतलब
कुल इतना है
कि प्रज्ञा उपलब्ध
हो गई है, और
जब जो प्रज्ञा
करवाती है वह
करता है, अब
अपनी तरफ से
कुछ भी नहीं
करता है। अब न
दोष उसके हैं,
न गुण उसके
हैं। अब न आदर
उसका है, न
अनादर उसका
है। अब न तो वह
यह कहता है कि
जो मैं कर रहा
हूं ठीक कर रहा
हूं, न वह
यह कहता है कि
जो मैं कर रहा
हूं वह
गैर-ठीक कर
रहा हूं। अब न
तो वह पछताता,
अब न वह
प्रायश्चित्त
करता--अब वह
पीछे लौट कर ही
नहीं देखता, अब जो होता
है, होता
है; और वह
उसको होने
देता है। अब
उसके पास कोई
भी इस होने
देने के ऊपर
खड़ा हुआ नहीं
है जो रोके और
निर्णय करे कि
यह करो और यह
मत करो। वह निर्विकल्प
हुआ, वह "च्वॉइसलेस'
हुआ।
इसलिए
अगर कभी आप
पाएं कि मैं
बहुत गर्म
मालूम पड़ता
हूं, तो पा
सकते हैं। कोई
उपाय नहीं है।
गर्मी आती है
तो मैं गर्म
होता हूं, ठंडी
आती है तो मैं
ठंडा हो जाता
हूं। और मैंने
अपनी तरफ से
होना छोड़
दिया--मैंने जिद्द छोड़
दी कि मैं यह
होऊं और यह न
होऊं। इसको ही
मैं कहता हूं
कि प्रज्ञा की
स्थिरता है।
अतिसुंदर 🙏🙏 🌷
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