दिनांक
28 सितंबर, 1970;
संध्या,
मनाली (कुल्लू)
"रासबिहारी होते हुए भी
श्रीकृष्ण
ब्रह्मचारी
कहलाए, इसका
मर्म क्या है?
आज के
आधुनिक समाज
में रासलीला
का क्या महत्व
होगा? कृपया
इस पर भी
प्रकाश
डालें।'
रास
को समझने के
लिए पहली
जरूरत तो यह
समझना है कि सारा
जीवन ही रास
है। जैसा
मैंने कहा, सारा जीवन
विरोधी
शक्तियों का
सम्मिलन है। और
जीवन का सारा
सुख विरोधी के
मिलन में छिपा
है। जीवन का
सारा आनंद और
रहस्य विरोधी
के मिलन में
छिपा है। तो
पहले तो रास
का जो
"मेटाफिजिकल',
जो जागतिक
अर्थ है, वह
समझ लेना उचित
है; फिर
कृष्ण के जीवन
में उसकी अनुछाया
है, वह
समझनी चाहिए।
चारों
तरफ आंखें
उठाएं तो रास
के अतिरिक्त
और क्या हो
रहा है? आकाश
में दौड़ते हुए
बादल हों, सागर
की तरफ दौड़ती
हुई सरिताएं
हों, बीज
फूलों की
यात्रा कर रहे
हों, या भंवरे
गीत गाते हों,
या पक्षी
चहचहाते हों,
या मनुष्य
प्रेम करता हो,
या ऋण और धन
विद्युत आपस
में आकर्षित
होती हों, या
स्त्री और
पुरुष की
निरंतर लीला
और प्रेम की
कथा चलती हो, इस पूरे
फैले हुए
विराट को अगर
हम देखें तो
रास के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
हो रहा है।
रास
बहुत "कॉस्मिक' अर्थ रखता
है। इसके बड़े
विराट जागतिक
अर्थ हैं।
पहला तो यही
कि इस जगत के
विनियोग में,
इसके
निर्माण में,
इसके सृजन
में जो मूल
आधार है, वह
विरोधी
शक्तियों के
मिलन का आधार
है। एक मकान
हम बनाते हैं,
एक द्वार हम
बनाते हैं, तो द्वार
में उल्टी ईंटें
लगाकर "आर्च'
बन जाता है।
एक-दूसरे के
खिलाफ ईंटें
लगा देते हैं।
एक-दूसरे के
खिलाफ लगी ईंटें
पूरे भवन को
सम्हाल लेती
हैं। हम चाहें
तो एक-सी ईंटें
लगा सकते हैं।
तब द्वार नहीं
बनेगा, और
भवन तो उठेगा
नहीं। शक्ति
जब दो हिस्सों
में विभाजित
हो जाती है, तो खेल शुरू
हो जाता है।
शक्ति का दो
हिस्सों में
विभाजित हो
जाना ही जीवन
की समस्त
पर्तों पर, समस्त
पहलुओं पर खेल
की शुरुआत है।
शक्ति एक हो
जाती है, खेल
बंद हो जाता
है। शक्ति एक
हो जाती है तो
प्रलय हो जाती
है। शक्ति दो
में बंट जाती
है तो सृजन हो
जाता है।
रास का
जो अर्थ है, वह सृष्टि
की जो धारा है,
उस धारा का
ही
गहरे-से-गहरा
सूचक है। जीवन
दो विरोधियों
के बीच खेल
है। ये विरोधी
लड़ भी सकते
हैं, तब
युद्ध हो जाता
है। ये दो
विरोधी मिल भी
सकते हैं, तब
प्रेम हो जाता
है। लेकिन
लड़ना हो कि
मिलना हो, दो
की अनिवार्यता
है। सृजन दो
के बिना
मुश्किल है। कृष्ण
के रास का
क्या अर्थ
होगा इस
संदर्भ में?
इतना
ही नहीं है
काफी कि हम
कृष्ण को गोपियों
के साथ नाचते
हुए देखते
हैं। यह हमारी
बहुत स्थूल
आंखें जो देख
सकती हैं, उतना ही
दिखाई पड़ रहा
है। लेकिन
कृष्ण का गोपियों
के साथ नाचना
साधारण नृत्य
नहीं है।
कृष्ण का गोपियों
के साथ नाचना
उस विराट रास
का छोटा-सा
नाटक है, उस
विराट का एक
आणविक
प्रतिबिंब
है। वह जो समस्त
में चल रहा है
नृत्य, उसकी
एक बहुत
छोटी-सी झलक
है। इस झलक के
कारण ही यह
संभव हो पाया
कि उस रास का
कोई कामुक
अर्थ नहीं रह
गया। उस रास
का कोई
"सेक्सुअल मीनिंग' नहीं है।
ऐसा नहीं है
कि "सेक्सुअल मीनिंग' के लिए, कामुक
अर्थ के लिए
कोई निषेध है।
लेकिन बहुत पीछे
छूट गई वह
बात। कृष्ण
कृष्ण की तरह
वहां नहीं
नाचते, कृष्ण
वहां पुरुष
तत्व की तरह
ही नाचते हैं।
गोपिकाएं
स्त्रियों की
तरह वहां नहीं
नाचती हैं, गहरे में वे
प्रकृति ही हो
जाती हैं।
प्रकृति और
पुरुष का
नृत्य है वह।
तो जिन
लोगों ने उसे
कामुक अर्थ
में ही समझा है, उन्होंने
नहीं समझा है,
वे नहीं समझ
पाएंगे। वहां
अगर हम ठीक से
समझें तो
पुरुष शक्ति
और स्त्री
शक्ति का
नृत्य चल रहा
है। वहां
व्यक्तियों
से कोई
लेना-देना
नहीं है। "इंडिवीजुअल्स''
को कोई मतलब
नहीं है।
इसलिए यह भी
संभव हो पाया
कि एक कृष्ण
बहुत गोपियों
के साथ नाच
सकता। अन्यथा
एक व्यक्ति
बहुत स्त्रियों
के साथ नाच
नहीं सकता है।
एक व्यक्ति बहुत
स्त्रियों के
साथ एक-साथ
प्रेम का खेल
नहीं खेल सकता
है। और
प्रत्येक
गोपी को ऐसा
दिखाई पड़ सका
कि कृष्ण उसके
साथ भी नाच
रहा है।
प्रत्येक
गोपी को अपना
कृष्ण मिल
सका। और कृष्ण
जैसे हजार में
बंट गए। और
हजार गोपियों
हैं तो हजार
कृष्ण हो गए।
निश्चित
ही, इसे हम व्यक्तिवाची
मानेंगे तो
कठिनाई में पड़ेंगे।
विराट
प्रकृति और
विराट पुरुष
के सम्मिलन का
वह नृत्य है।
नृत्य को ही
क्यों चुना होगा
इस
अभिव्यक्ति
के लिए? जैसा
मैंने सुबह
कहा, नृत्य
निकटतम है
अद्वैत के।
निकटतम
अद्वैत के है।
नृत्य निकटतम
है उत्सव के।
नृत्य निकटतम
है रहस्य के।
इसे एक
तरफ से और
देखें--
मनुष्य
की पहली भाषा
नृत्य है, क्योंकि
मनुष्य की
पहली भाषा
"गेस्चर' है।
आदमी जब नहीं
बोला था तब भी
हाथ-पैर से
बोला था। आज
भी गूंगा नहीं
बोल सकता, तो
हाथ-पैर से
बोलता है।
"गेस्चर' से,
मुद्रा से
बोलता है।
भाषा तो बहुत
बाद में विकसित
होती है।
तितलियां
भाषा नहीं जानतीं,
लेकिन
नृत्य जानती
हैं। पक्षी
भाषा नहीं जानते,
लेकिन
नृत्य जानते
हैं। "गेस्चर',
मुद्रा, इशारा
पहचानते हैं।
यह सारी
प्रकृति
पहचानती है।
इसलिए
रास के लिए
नृत्य ही
क्यों केंद्र
में आ गया, उसका भी
कारण है।
"गेस्चर'
की भाषा, इशारे की
भाषा गहनतम
है, गहरी-से-गहरी
है। मनुष्य के
चित्त के बहुत
गहरे हिस्सों
को स्पर्श
करती है। जहां
शब्द नहीं पहुंचते,
वहां नृत्य
पहुंच जाता
है। जहां
व्याकरण नहीं
पहुंचती, वहां
घुंघरू की
आवाज पहुंच
जाती है। जहां
कुछ समझ में
नहीं आता है, वहां भी
नृत्य कुछ
समझा पाता है।
इसलिए, दुनिया
के किसी कोने
में नर्तक चला
जाए, समझा
जा सकेगा।
आवश्यक नहीं
है कि भाषा
कोई उसे समझने
के लिए जरूरी
हो। यह भी
आवश्यक नहीं है
कि कोई सभ्यता
और कोई
संस्कृति की
विशेष आवश्यकता
हो उसे समझने
के लिए। नर्तक
कहीं भी चला
जाए, समझा
जा सकेगा।
मनुष्य के
अचेतन में, "कलेक्टिव
अनकांशस' में,
सामूहिक
अचेतन में भी
नृत्य की भाषा
का खयाल है।
यह जो
नृत्य चल रहा
है चांद के
नीचे, इस
नृत्य को
साधारण नृत्य
मैं नहीं कहता
हूं इसीलिए कि
यह किसी के
मनोरंजन के
लिए नहीं हो रहा
है, किसी
को दिखाने के
लिए नहीं हो
रहा है। कहना
चाहिए एक अर्थों
में "ओवरफ्लोइंग'
है। इतना
आनंद भीतर भरा
है कि वह सब
तरफ बह रहा है।
और इस आनंद के
बहने के लिए
अगर दोनों
विरोधी
शक्तियां
एक-साथ मौजूद
हों तो सुविधा
हो जाती है।
पुरुष बह नहीं
पाता है, अगर
स्त्री मौजूद
न हो। कुंठित
और बंद हो
जाता है।
सरिता नहीं बन
पाता, सरोवर
बन जाता है।
स्त्री नहीं
बह पाती, अगर
पुरुष उपलब्ध
न हो। बंद है।
उन दोनों की मौजूदगी
तत्काल उनके
भीतर जो छिपी
हुई शक्तियां
हैं, उनका
बहाव बन जाती
है। वह जो
हमने निरंतर
स्त्री-पुरुष
का प्रेम समझा
है, उस
प्रेम में भी
वही बहाव है।
काश, हम
उसे व्यक्तिवाची
न बनाएं, तो वह बहाव
बड़ा
पारमार्थिक
अर्थ ले लेता
है।
स्त्री
और पुरुष के
बीच जो आकर्षण
है, वह
आकर्षण
एक-दूसरे की
निकटता में
उनके भीतर स्त्री
पुरुष के पास
अपने को हल्का
अनुभव करती है।
अलग-अलग होकर
वे "टेंस'
और तनाव से
भर जाते हैं।
वह हल्कापन
क्या है? उनके
भीतर कुछ भरा
है जो बह गया
और वे हल्के
हो गए, पीछे
"वेटलेसनेस'
छूट जाती
है। लेकिन हम
स्त्री और
पुरुष को बांधने
की कोशिश में
लगे रहते हैं।
जैसे ही हम स्त्री
और पुरुष को बांधते
हैं, नियम
और व्यवस्था
देते हैं, वैसे
ही बहाव क्षीण
हो जाते हैं।
वैसे ही बहाव
रुक जाते हैं।
व्यवस्था से
जीवन की गहरी
लीला का कोई
संबंध नहीं
है। और कृष्ण
का यह रास
बिलकुल ही अव्यवस्थित
है। कहना
चाहिए बिलकुल
"केऑटिक'
है। "केऑस'
है। नीत्से
का एक बहुत
अदभुत वचन है,
जिसमें
उसने कहा है,
"ओनली आउट ऑफ केऑस
स्टार्स आर बॉर्न', सिर्फ
गहन अराजकता
से सितारों का
जन्म होता है।
जहां कोई
व्यवस्था नहीं
है, वहां
सिर्फ
शक्तियों का
खेल रह जाता
है। बहुत जल्दी
कृष्ण मिट
जाते हैं
व्यक्ति की
तरह, शक्ति
रह जाते हैं।
बहुत शीघ्र गोपियां
मिट जाती हैं
व्यक्ति की
तरह, सिर्फ
शक्तियां रह
जाती हैं।
स्त्री और
पुरुष की
शक्ति का वह
नृत्य गहन
तृप्ति लाता
है। गहन आनंद
लाता है। और "ओवरफ्लोइंग'
बन जाता है,
वह आनंद फिर
बहने लगता है।
और फिर उस
नृत्य से वह
सारा आनंद
चारों ओर जगत
के कण-कण तक
व्याप्त हो
जाता है।
कृष्ण
जिस चांद के
नीचे नाचे हैं, वह चांद तो
आज भी है; जिन
वृक्षों के
नीचे नाचे हैं,
उन वृक्षों
का होना आज भी
है; जिन
पहाड़ों के पास
नाचे हैं, वे
पहाड़ भी आज
हैं। जिस धरती
पर नाचे हैं, वह धरती भी
आज है। कृष्ण
से जो बहा
होगा उस क्षण
में, वह सब
इनमें छिपा है
और यह सब उसे
पी गया है।
अब ये
वैज्ञानिक एक
बहुत नई बात
करते हैं। वे यह
कहते हैं कि
व्यक्ति तो
विदा हो जाते
हैं लेकिन
उनसे छोड़ी
हुई तरंगें
सदा के लिए रह
जाती हैं।
व्यक्ति तो
विदा हो जाते
हैं लेकिन
उन्होंने जो
जिआ, उसके
संघात, उसकी
"वेव्ज', वह सब-की-सब
पूरे
अस्तित्व में
समा जाती हैं
और लीन हो
जाती हैं। उस
पृथ्वी पर
जहां कृष्ण
नाचे, उस
पृथ्वी पर आज
भी कोई नाचे
तो कृष्ण की प्रतिध्वनियां
सुनाई पड़ती
हैं। जहां
उन्होंने
बांसुरी बजाई,
जिन पहाड़ों
ने उस बांसुरी
को सुना, उन
पहाड़ों के पास
आज भी कोई
बांसुरी बजाए
तो
प्रतिध्वनि
सुनाई पड़ती
है। जिस यमुना
के तट ने
उन्हें देखा
और जाना और
जिसने उनके
स्पर्श को
अनुभव किया, उस यमुना के
तट पर आज भी
नृत्य हो तो
व्यक्ति मिट
जाता है, वह
अव्यक्ति फिर
घेर लेता है।
रास को
स्त्री और
पुरुष के बीच
विभक्त जो
विराट की
शक्ति है, उसके मिलन, उसकी "ओवरफ्लोइंग'
का प्रतीक मैं
मानता हूं। और
इस भाषा में
अगर हम ले
सकें, तो
आज भी रास का
उपयोग है और
सदा रहेगा।
इधर मैंने
निरंतर अनुभव
किया है, जो
मैं आप से
कहूं, ध्यान
के लिए हम
बैठते हैं, कई बार
मित्रों ने
मुझे कहा कि
स्त्रियों को
अलग कर दें, पुरुषों को
अलग कर दें।
ये दोनों अलग
रहेंगे तो
सुविधा होगी।
उनकी सुविधा
की दृष्टि नासमझी
से भरी हुई
है। वे नहीं
जानते हैं कि
स्त्रियां
अगर इकट्ठी कर
दी जाएं एक ओर
और पुरुष एक
ओर इकट्ठे कर
दिए जाएं तो
यह बिलकुल
सजातीय, एक-सी
शक्तियां
इकट्ठी हो
जाती हैं, और
इनके बीच जो
बहाव की
संभावना है वह
कम हो जाती
है। लेकिन
उन्हें खयाल
में नहीं है।
मेरी तो समझ
ही यही है कि
अगर ध्यान हम
कर रहे हैं तो
स्त्रियां और
पुरुष एकदम
सम्मिलित और
मिले-जुले
हों। उन दोनों
की समझ के
बाहर कुछ
घटनाएं घटेंगी,
जो उनकी समझ
से उसका कोई
संबंध भी नहीं
है। उन दोनों
की मौजूदगी, और अकारण
मौजूदगी--कोई
आप अपनी पत्नी
के पास नहीं
खड़े
हैं--अकारण
मौजूदगी आपके
भीतर से कुछ
बहने में, प्रगट
होने में, निकल
जाने में, "केथार्सिस'
में सहयोगी
होगी। स्त्री
के भीतर से भी
कुछ बह जाने
में सहयोग
मिलेगा।
मनुष्य
जाति के चित्त
का इतना बड़ा
तनाव, इतना
बड़ा "टेंशन' स्त्री और
पुरुष को दो
जातियों में
तोड़ देने से
पैदा हुआ है।
स्कूल में, कालेज में
हम लड़के और
लड़कियों को
पढ़ा रहे हैं, दो हिस्सों
में बांट कर
बिठाया हुआ
है। जहां भी
स्त्री और
पुरुष हैं, हम उनको
बांट रहे हैं।
जब कि जगत की
पूरी व्यवस्था
विरोधी
शक्तियों के
निकट होने पर
निर्भर हैं।
और जितनी यह
निकटता सहज और
सरल हो, उतनी
ही
परिणामकारी
है।
रास का
मूल्य सदा ही
रहेगा। रास का
मूल्य उसके
भीतर छिपे हुए
गहन तत्त्वों
में हैं। वह
तत्त्व इतना
ही है कि
स्त्री और पुरुष
अपने-अपने में
अधूरे हैं, आधे-आधे
हैं। निकट
होकर वे पूरे हो
जाते हैं। और
अगर "अनकंडीशनली'
निकट हों, तो बहुत
अदभुत अर्थों
में पूरे हो
जाते हैं। अगर
"कंडीशंस'
के साथ, शर्तों
के साथ निकट
हों, तो
शर्तें
बाधाएं बन
जाती हैं और
उनकी पूर्णता
पूरी नहीं हो
पाती। जब तक
पुरुष है
पृथ्वी पर, जब तक
स्त्री है
पृथ्वी पर, तब तक रास
बहुत-बहुत
रूपों में
जारी रहेगा।
यह हो सकता है
कि वह उतनी
महत्ता और
उतनी गहनता और
उतनी ऊंचाई को
न पा सके जो
कृष्ण के साथ
पाई जा सकी।
लेकिन अगर हम
समझ सकें तो
वह पाई जा
सकती है। और
सभी आदिम
जातियों को
उसका अनुभव
है। दिन भर
काम करने के
बाद आदिम
जातियां रात
इकट्ठा हो
जाएंगी--फिर
स्त्री-पुरुष,
पति-पत्नी
का सवाल न
रहेगा, स्त्री
और पुरुष ही
रह
जाएंगे--फिर
वे नाचेंगे
आधी रात, रात
बीतते-बीतते,
और फिर सो
जाएंगे, वृक्षों
के तले, या
अपने झोपड़ों
में।
नाचते-नाचते थकेंगे, और सो
जाएंगे। और
इसलिए
आदिवासी के मन
में जो शांति
है, और
आदिवासी के मन
में जैसी
प्रफुल्लता
है, और
आदिवासी की
दीनता में, हीनता में
भी जैसी गरिमा
है, वह
सभ्य-से-सभ्य
आदमी भी सारी
सुविधा के बाद
उपलब्ध नहीं
कर पा रहा है।
कहीं कोई चूक
हो रही है, कहीं
कोई बहुत गहरे
सत्य को नहीं
समझा जा रहा है।
"भगवान
श्री, रामावतार में जैसे
अहिल्या का
शिला-व्यक्तित्व
राम का इंतजार
करता था और
शिला में से
अहिल्या हुई,
इसी तरह कृष्णावतार
में भगवान
कृष्णचंद्र
का जो समागम
कुब्जा के साथ
हुआ, क्या
उसका कोई
"स्प्रिचुअल'
अर्थ घटाते
हैं? वह
क्या है, उसे
कृपया स्पष्ट
करें।'
जीवन
में सभी कुछ, सभी समय
घटित नहीं
होता है; क्षण
हैं, जिनके
लिए
प्रतीक्षा
करनी होती है।
समय है, जिसकी
राह देखनी
होती है। अवसर
हैं, जिनके
लिए रुकना
पड़ता है।
बहुत-बहुत
आयामों में इस
बात को देखना
जरूरी है।
पत्थर
की तरह पड़ी
हुई कोई
स्त्री-नहीं
मैं कहता हूं
कि पत्थर ही
हो गई होगी, पत्थर हो
जाना कवि की
कल्पना
है--लेकिन, कोई
स्त्री जो राम
से ही खिल
पाएगी और राम
के स्पर्श से
ही खिल पाएगी,
जब तक राम न
मिलें तब तक
पत्थर ही रहती
है। ऐसा नहीं
है कि कोई
शिला की तरह
पड़ी थी। वह तो
कवि की
व्यवस्था है,
सोचने के
ढंग हैं, और
कवि के "मेटाफॅर'
हैं। लेकिन
जो स्त्री राम
के स्पर्श से
ही खिल सकती
है और जीवंत
हो सकती है और
चेतना पा सकती
है, कोई
किसी और का
स्पर्श उसे जड़
ही छोड़ जाएगा।
कहानी का मर्म
इतना ही है कि
हर एक की अपनी
प्रतीक्षा
है। हर एक की
अपनी
"अवेटिंग' है।
और क्षण आए
बिना वह घटित
नहीं होती है।
जो पत्थर की
तरह पड़ी थी, पत्थर ही हो
गई थी, और
यह सोचने जैसा
है--जब तक किसी
स्त्री को उसका
प्रेम न मिल
जाए, तब तक
वह पत्थर ही
होती है। तब
तक उसके भीतर
सब शिलाखंड हो
गया होता है।
और उसके पास
हृदय पथरीला
हो गया होता
है। जब तक उसे
उसका प्रेमी न
मिल जाए, तब
तब उसे उसके
प्रेम का
स्पर्श, जब
तक उसे उसके
प्रेम की छाया
और जब तक उसे
प्रेम की
ऊष्मा न मिल
जाए, तब तक
उसके भीतर कुछ
पत्थर की तरह
ही पड़ा रह जाता
है। वह
अनंतकाल तक
पत्थर ही
रहेगा।
इसे एक
तरह से और समझ
लेना चाहिए।
स्त्री जो है, "पैसिविटी'
है। स्त्री
जो है, वह
ग्राहक
अस्तित्व है,
"रिसेप्टिव
एक्जिसटेंस'
है। "एग्रेसिव'
नहीं है, आक्रामक
नहीं है, ग्राहक
है। स्त्री के
व्यक्तित्व
में गर्भ ही
नहीं है, उसका
चित्त भी गर्भ
की भांति है।
इसलिए अंग्रेजी
का शब्द "वूमन'
तो बहुत
मजेदार है।
उसका मतलब है,
"मैन विद ए वूंब'।
स्त्री जो है,
वह गर्भसहित
एक पुरुष है।
स्त्री का
समस्त
अस्तित्व
ग्राहक है, "रिसेप्टिव'
है।
आक्रामक नहीं
है। पुरुष का
सारा व्यक्तित्व
आक्रामक है, ग्राहक
बिलकुल नहीं
है। और यह
दोनों "कांप्लिमेंटरी'
हैं, और
स्त्री और
पुरुष का सब
कुछ "कांप्लिमेंटरी'
है। जो
पुरुष में
नहीं है वह
स्त्री में है,
जो स्त्री
में नहीं है
वह पुरुष में
है। इसलिए वे
दोनों मिलकर
पूरे हो पाते
हैं।
स्त्री
की जो
ग्राहकता है, वह
प्रतीक्षा बन
जाएगी और
पुरुष का जो
आक्रमण है, वह खोज बनती
है। अहिल्या
जो शिलाखंड की
तरह प्रतीक्षा
करेगी, राम
नहीं
प्रतीक्षा
करेंगे। राम
अनेक पथों पर
खोजेंगे। यह
बड़े मजे की
बात है कि
शायद ही किसी
स्त्री ने कभी
प्रेम-निवेदन
किया हो।
प्रेम-निवेदन
लिया है, किया
नहीं है। शायद
ही किसी
स्त्री ने
अपनी तरफ से
प्रेम में "इनीशिएटिव'
लिया हो, अपनी तरफ से
पहल की हो।
ऐसा नहीं है कि
स्त्री पहल
नहीं करना
चाहती, ऐसा
भी नहीं है कि
पहल उसके भीतर
पैदा नहीं होती,
लेकिन उसकी
पहल
प्रतीक्षा ही
बनती है। उसकी
पहल मार्ग ही
देखती है, राह
देखती है और
अनंत जन्मों
तक देख सकती
है। असल में
जब भी स्त्री
आक्रमण करती
है, तभी
उसके भीतर से
कुछ स्त्रैण
खो जाता है, और तभी वह कम
आकर्षक हो
जाती है। उसकी
अनंत प्रतीक्षा
में ही उसका
अर्थ और उसका
व्यक्तित्व, उसकी आत्मा
है। अनंत काल
तक प्रतीक्षा
चल सकती है
लेकिन स्त्री
आक्रमण नहीं
कर सकती। वह
जाकर किसी से
कह नहीं सकती
कि मैं
तुम्हें
प्रेम करती
हूं। वह जिसे
प्रेम करती है,
उससे भी
नहीं कह सकती
है। वह यही
प्रतीक्षा करेगी
कि वह जो उसे
प्रेम करता है,
कभी कहे, और कहने पर
भी उसका हां
एकदम सीधा
नहीं आ जाता।
उसका हां भी न
की शकल लेकर
ही आता है।
उसका सारा
"गेस्चर' कहेगा,
उसका सारा
व्यक्तित्व
कहेगा, हां।
लेकिन उसकी
वाणी कहेगी, ना। क्योंकि
अगर वह जल्दी
हां कहे तो
उसमें भी
आक्रमण
थोड़ा-सा हो
जाता है। वह
ना ही कहती
चली जाएगी।
पुरुष ही पहल
करेगा।
कृष्ण
के लिए भी कोई
प्रतीक्षारत
हो सकता है। और, कृष्ण के
बिना शायद कोई
स्त्री उस
हर्ष को, उस
प्रफुल्लता
को, उस खिल
जाने को
उपलब्ध ही न
हो सके। तो इस
देश के नियमों
में एक बहुत
अदभुत नियम था,
वह समझ लेने
जैसा है। वह
नियम यह था कि
स्त्री साधारणतः,
सामान्यतया
न आक्रमण करती,
न निवेदन
करती, न
प्रार्थना
करती। लेकिन,
यदि कभी
स्त्री
प्रार्थना
करे तो पुरुष
का इनकार
अनैतिक है
क्योंकि यह
बहुत "रेयर'
मामला है।
एक स्त्री तो
निवेदन करती
नहीं, लेकिन
यदि कभी
स्त्री
निवेदन करे तो
पुरुष का इनकार
अनैतिक है। और
अगर पुरुष
इनकार करे, तो उसने
अपने
पुरुषत्व से
इनकार कर
लिया। यह नियम
इसलिए बनाया
जा सका कि ऐसे
यह सामान्य
घटने वाला
नियम नहीं है,
ऐसा होता
नहीं है।
लेकिन कभी ऐसे
क्षण आते हैं।
अर्जुन के
जीवन में एक उल्लेख
है और उल्लेख
मैं आपको याद
दिलाना चाहूं।
अर्जुन
एक वर्ष के
ब्रह्मचर्य
की साधना कर
रहा है। और एक
सुंदर युवती
ने उसे देखकर, उस साधनारत
अर्जुन को
देखकर उससे
निवेदन किया
है कि मैं चाहूंगी
कि मुझे
तुम्हारे
जैसे बेटे, तुम्हारे
जैसे पुत्र
उपलब्ध हों।
यह भी बड़े मजे
की बात है कि
स्त्री अगर
निवेदन भी
करेगी, तो
भी प्रेयसी और
पत्नी बनने का
न कर पाएगी, मां बनने का
कर पाएगी।
अर्जुन बहुत
मुश्किल में
पड़ गया है। वह
एक वर्ष का
ब्रह्मचर्य
का काल व्यतीत
कर रहा है।
ब्रह्मचर्य तोड़ा
नहीं जा सकता।
और नियम! और
नियम बड़ा
अर्थपूर्ण है
और बड़ा पुरुषगत
है। नियम कि
स्त्री
निवेदन करे तो
अस्वीकार करना
अनैतिक है। और
अर्जुन
अनैतिक भी न
होना चाहेगा।
पुरुष-ऊर्जा
से जब किसी ने,
किसी
ग्राहक शक्ति
ने निवेदन
किया हो और
अगर पुरुष-ऊर्जा
बहने से इनकार
कर दे, तो
वह
पुरुष-ऊर्जा न
रही। अर्जुन
बड़ी मुश्किल में
पड़ गया है।
लेकिन अर्जुन
ने कहा कि मैं
तैयार हूं, पर पक्का
कहां है कि
मेरे पुत्र
मेरे जैसे होंगे?
इसलिए
अच्छा हो कि
तू मुझे ही
पुत्र मान ले।
मैं तेरा
पुत्र हुआ
जाता हूं।
तेरी
आकांक्षा पूरी
हो जाएगी। मेरे
जैसे पुत्र ही
चाहिए न! मेरा
पुत्र मेरे
जैसा होगा, यह पक्का
कहां है? इसलिए
मैं तेरा
पुत्र हुआ
जाता हूं।
ऐसी
ठीक एक घटना
बर्नार्ड शॉ
के जीवन में
है। एक फ्रेंच
अभिनेत्री ने
बर्नार्ड शॉ
को निवेदन
किया--सुंदरतम
अभिनेत्री
है। उसने
बर्नार्ड शॉ
को लिखा एक
पत्र और कहा
कि मैं आपसे
विवाह करना
चाहती हूं।
पश्चिम की
स्त्री
यद्यपि
स्त्री होने
से काफी दूर चली
गई है, लेकिन
फिर भी वह
निवेदन मां का
ही कर सकी।
उसने भी
निवेदन में यह
कहा कि मैं
चाहती हूं, ऐसे बेटे
हों हमारे
जिनको मेरा
सौंदर्य मिल जाए
और तुम्हारी
बुद्धि मिल
जाए। कहता हूं
कि पश्चिम की
स्त्री
स्त्री होने से
काफी दूर चली
गई है, फिर
भी निवेदन मां
का ही कर पाई।
स्त्री मां होने
के निवेदन में
कहीं भी हीन
अनुभव नहीं
करती।
क्योंकि
स्त्री मां
होने का जब
निवेदन करती
है तब भी वह
निवेदन नहीं
है। हीन होती
नहीं मां होने
में वह। वह
पुरुष से कहीं
पीछे पड़ती
नहीं, नीचे
कहीं उतरती
नहीं। मां
होने में तो
पुरुष का
छोटा-सा उपयोग
भर है, फिर
तो वह पूरा
खुद ही कर
लेती है।
लेकिन पत्नी
होने में बात
और है। पुरुष
का थोड़ा-सा
उपयोग नहीं
है। पुरुष का
फिर पूरा ही
उपयोग है।
बर्नार्ड
शॉ को भी वही मुसीबत
है जो अर्जुन
को हुई होगी।
लेकिन अर्जुन
पूरब की हवा
में पला हुआ
था, इसलिए जो
उत्तर दिया वह
पूरब का था।
बर्नार्ड शॉ
ने जो उत्तर
दिया वह
पश्चिम का है।
इसलिए बर्नार्ड
शॉ के उत्तर
की बेहूदगी
बड़ी साफ है। बर्नार्ड
शॉ ने उसे
पत्र लिखा कि
देवी, इससे
उल्टा भी हो
सकता है जैसा
आप कहती हैं।
ऐसा भी हो
सकता है कि
आपकी बुद्धि
मिल जाए हमारे
बेटों को और मेरी
शक्ल-सूरत मिल
जाए! पूरब में
कोई पुरुष ऐसा
उत्तर नहीं दे
सकता था। यह
तो
स्त्री-शक्ति का
सीधा अपमान हो
गया। स्त्री
के द्वारा किए
गए निवेदन का
सीधा इनकार हो
गया। और इनकार
भी शिष्ट न
रहा, अशिष्ट
हो गया।
कृष्ण
के लिए कुब्जा
की प्रतीक्षा
है। वह प्रतीक्षा
जन्मों की है।
कृष्ण इनकार
नहीं कर सकते।
इनकार ही
कृष्ण के जीवन
में नहीं है।
और अगर कुब्जा
चाहे कि शरीर
के तल पर
संभोग हो तो कृष्ण
उसका भी इनकार
नहीं कर सकते, क्योंकि कृष्ण
के मन में
शरीर का भी
कोई विरोध
नहीं है। शरीर
भी है, शरीर
की अपनी जगह
है। शरीर ही
सब कुछ नहीं
है, यह बात
दूसरी है, लेकिन
शरीर भी है।
और शरीर की
अपनी जगह है, अपना रस है, अपना आनंद
है। शरीर का
अपना होना है।
कृष्ण के मन
में उसकी भी
काई निषेध बात
नहीं है। कृष्ण
एक-साथ शरीर
और आत्मा को
पी गए हैं, एक-साथ
पदार्थ और
परमात्मा को
ले गए हैं।
इसलिए कृष्ण
के द्वारा
स्त्री-शक्ति
का अपमान ही होगा।
वे शरीर के तल
पर भी संभोग
करने को राजी
हैं। कुब्जा
की जो
आकांक्षा है,
वह पूरा
करने को राजी
हैं। इस राजी
होने में कोई
उन्हें राजी
होने की
चेष्टा नहीं
करनी पड़ रही
है। इस राजी
होने में कोई
प्रयास नहीं
है। इस राजी
होने में, जो
घटित हो रहा
है उसकी सहज
स्वीकृति है।
कठिन
पड़ता है हमें।
कृष्ण का शरीर
के तल पर संभोग
हमें कठिन
पड़ता है, क्योंकि
हम द्वैतवादी
हैं। हम शरीर
और आत्मा को
अलग-अलग मानकर
चलने वाले लोग
हैं। मेरे
देखे--और ऐसा ही
देखना कृष्ण
का भी है--कि
शरीर और आत्मा
दो नहीं हैं, संभोग और
योग दो नहीं
हैं, पदार्थ
और परमात्मा
दो नहीं हैं।
शरीर आत्मा का
वह छोर है जो
हमारी आंखों
और हाथों के
पकड़ में आ
जाता है। और
आत्मा शरीर का
वह छोर है जो
हमारे हाथ, आंख और
बुद्धि की पकड़
के बाहर छूट
जाता है। शरीर
दृश्य आत्मा
है और आत्मा
अदृश्य शरीर
है। और दोनों
एक हैं, और
ये कहीं टूटते
नहीं, कहीं
खंडित नहीं
होते। शरीर के
तल पर जिसे हम संभोग
कहते हैं, आत्मा
के तल पर वही
योग है। शरीर
के तल पर जिसे हम
संभोग कहते
हैं, आत्मा
के तल पर वही
समाधि है।
कृष्ण के मन
में संभोग और
समाधि में
विरोध नहीं
है। संभोग ही
समाधि तक
द्वार बन जाता
है। समाधि ही
संभोग तक उतर
कर अपनी
किरणें पहुंचाती
है।
लेकिन
कुब्जा की बात
कुब्जा जाने।
कुब्जा के लिए
क्या है, इसे
कृष्ण से
कोई...कृष्ण के
लिए क्या है, वह मैं कह
रहा हूं।
कुब्जा की ऐसी
भूमिका है, ऐसा मुझे
नहीं लगता।
उसके लिए
संभोग समाधि
बन सकता है, ऐसा भी मुझे
नहीं लगता।
लेकिन यह
प्रयोजन के बाहर
है। कुब्जा ने
जो मांगा है, जितना उसका
पात्र है, कृष्ण
उतने पात्र को
भी भरने को
राजी हैं। वे नहीं
कहते कि तेरे
पास सागर जैसा
पात्र चाहिए,
क्योंकि
मेरे पास सागर
जैसा देने को
है। कुब्जा
कहती है, मेरे
पास तो
छोटा-सा भिक्षापात्र
है; इसमें
सिर्फ शरीर ही
समाता है।
इसमें आत्मा वगैरह
की मुझे कुछ
खबर नहीं है।
तो कुब्जा के
पात्र को वह
इसलिए खाली न
लौटा देंगे कि
सागर जैसा
पात्र लेकर वह
नहीं आई। नहीं,
कृष्ण
कहेंगे जितना
पात्र है उतना
ले जाओ। इसलिए
शरीर के तल पर
भी कृष्ण का
मिलन संभव हो
सका है।
"आपने
आज प्रातः राम
और कृष्ण की
तुलना की, मीरा
और हनुमान की
तुलना की।
हमारी परंपरा
राम और कृष्ण,
मीरा और
हनुमान, दोनों
को ही समकक्ष
रखती है। कोई
उनमें "इनफीरियर'
है, या
"सुपीरियर' है, ऐसा
भाव नहीं
रखती। यह हो
सकता है कि
हनुमान की
निजता वही हो
जो वह हैं।
राम की निजता
वही हो जो वह
हैं, और
हममें कुछ लोग
ऐसे हों
जिन्हें
हनुमान और राम
की निजता ही
अनुकूल पड़े।
तो क्या यह
परधर्म न होगा
कि वे हनुमान
और राम को कुछ
"इनफीरियर'
मानकर
कृष्ण और मीरा
का ही मार्ग
अपनाना चाहें?'
मैंने
जो कहा, उसमें
किसी को "इनफीरियर'
नहीं कहा, सिर्फ
भिन्न-भिन्न
कहा। हीन नहीं
कहा, अलग-अलग
कहा। और जिसकी
निजता हनुमान
के करीब पड़ती
है, वह
मेरे कहने से
हनुमान को हीन
न मान सकेगा।
अब मेरी निजता
में तो हनुमान
करीब नहीं
पड़ते हैं। तो
मैं किसी और
की निजता का ध्यान
रखकर झूठा
वक्तव्य नहीं
दे सकता हूं।
मुझसे आपने
पूछा है।
मैंने ही
उत्तर दिया
है। मुझे अगर
चुनना हो, तो
मीरा चुनने
जैसी लगेगी।
मुझे अगर
चुनना हो, तो
राम छोड़ देने
जैसे लगेंगे
और कृष्ण
चुनने जैसे
लगेंगे। और मुझे
क्या लगेंगे,
उसके कारण
मैंने कहे।
ऐसा नहीं है
कि आप कृष्ण
को चुनें और
राम को छोड़ें।
समझ लें मेरी
बात को, उतना
काफी है। आपकी
निजता आपको
जहां ले जाए
वहीं जाना है।
मेरी
दृष्टि में, राम का
व्यक्तित्व
मर्यादित है और
मैं मानता हूं
कि राम को
मानने वाले
लोग भी नहीं
कहेंगे कि
अमर्यादित
है। असल में
राम को मानने
वाले लोग भी
राम को इसीलिए
मानते हैं कि वह
मर्यादा में
हैं। और
जिन-जिन के
चित्त मर्यादा
में जीते हैं,
उन-उनके लिए
राम अनुकूल
पड़ेंगे।
लेकिन मैं कह यह
रहा हूं कि
मर्यादा का
मतलब सीमा
होता है। सीमा
के बाहर भी चीजों
का होना है।
सीमा के बाहर
भी सत्य है।
इसलिए पूर्ण
सत्य को तो
अमर्याद ही
घेर सकेगा, पूर्ण सत्य
को मर्यादित
नहीं घेर
सकता। पूर्ण
सत्य को तो
कृष्ण ही घेर
सकेंगे, राम
नहीं घेर
सकते। और ऐसा
नहीं है कि
आपकी परंपरा ने
भेद नहीं किया
है। आपकी
परंपरा भी राम
को कभी पूर्ण
अवतार नहीं
कहती है।
कृष्ण को ही
पूर्ण अवतार
कहती है। आपकी
परंपरा भी
फर्क निश्चित
करती है।
हनुमान
और मीरा की
बाबत कभी आपकी
परंपरा ने तुलना
भी की है, यह
भी मुझे पता
नहीं है।
तुलना भी नहीं
की है। राम और
कृष्ण की बाबत
तो तुलना आपकी
परंपरा में है
और उसमें
कृष्ण पूर्ण
अवतार हैं। और
यह भी साफ है कि
राम को मानने
वाला कृष्ण को
नहीं मान सका
है। कान भी
बंद कर लिए
हैं उसने कि
कृष्ण का नाम
न पड़ जाए। और
कृष्ण को
मानने वाला
राम को कुछ भी नहीं
समझ पाया है।
स्वाभाविक
है। लेकिन
तथ्य की बात
कहूं, क्योंकि
मैं तो किसी
को मानने वाला
नहीं, मुझे
जैसा दिखाई
पड़ता है, वह
मैं कहता हूं।
मैं किसी का
मानने वाला
नहीं हूं। मैं
न कृष्ण का
मानने वाला
हूं, न राम
का मानने वाला
हूं। मुझे तो
जो दिखाई पड़ता
है वह यह है कि
राम का एक
व्यक्तित्व साफ-सुथरा,
निखरा।
उतना निखरा और
साफ-सुथरा
व्यक्तित्व कृष्ण
का नहीं है।
हो नहीं सकता।
वही उसकी गहराई
है। राम ने एक
बड़े जंगल का
छोटा-सा
हिस्सा काट-कूट
कर साफ-सुथरा
कर लिया है।
वहां से वृक्ष
हटा दिए हैं, लताएं हटा
दी हैं, घास
काट दिया है, पत्थर हटा
दिए हैं। वह
जगह बड़ी
साफ-सुथरी, बैठने योग्य
हो गई है।
लेकिन वह
विराट जंगल भी
है, जो उस
जगह को चारों
तरफ से घेरे
हुए हैं। अस्तित्व
उसका भी है।
डी.एच.लारेंस
निरंतर कहा
करता था कि कब
हम आदमी को
जंगल की तरह
देखेंगे? अभी
तक हमने आदमी
को बगिया की
तरह देखा है।
राम एक बगिया हैं,
कृष्ण एक
विराट जंगल
हैं, जिसमें
कोई व्यवस्था
नहीं है, जिसमें
क्यारियां
कटी हुई और
साफ-सुथरी
नहीं हैं, जिसमें
रास्ते बने
हुए नहीं हैं,
पगडंडियां
तय नहीं हैं; जिसमें
भयंकर जंतु भी
हैं, हमलावर
शेर भी है, सिंह
भी है, अंधेरा
भी है, चोर-डाकू
भी हो सकते
हैं, जीवन
को खतरा भी हो
सकता है।
कृष्ण का
व्यक्तित्व
तो एक विराट
जंगल की भांति
है--अनियोजित,
"अनप्लांड;
जैसा है
वैसा है। राम
का
व्यक्तित्व
एक छोटी-सी
बगिया की तरह
है, "किचन
गार्डन' की
तरह है जो
आपने अपने घर
के बगल में
लगा रखा है।
सब साफ-सुथरा
है। कोई खतरा
नहीं है, कोई
जंगली जानवर
नहीं हैं। मैं
नहीं कहता कि
आप "किचन
गार्डन' से
ऊब जाएंगे तो
पाएंगे कि
जंगल में ही
असली राज है।
वह हमारा
लगाया हुआ
नहीं है।
आपकी
परंपरा ने राम
और कृष्ण में
तो तुलना कर ली
है, लेकिन
मीरा और
हनुमान में
नहीं की। मीरा
और हनुमान में
करने का बहुत
कारण भी नहीं
है। लेकिन, कल बात उठी, इसलिए मैंने
कहा। मैंने
कहा कि हनुमान,
जब राम ही
"किचन गार्डन'
हैं, तो
हनुमान को
कहां रखियेगा?
एक गमला ही
रह जाएंगे। जब
मैं राम को
कहूंगा कि एक
छोटी-सी बगिया
हैं बंगले के
बाहर लगी हुई--बंगले
के बाहर बगिया
होनी चाहिए, और बंगले के
बाहर जंगल
नहीं लगाया जा
सकता वह भी
मुझे
भलीभांति
ज्ञात है।
लेकिन फिर भी
बगिया बगिया
है, जंगल
जंगल है। और
कभी-कभी जब
बगिया से ऊब
जाते हैं तो
जंगल की तरफ
जाना पड़ता है।
और एक दिन ऊब जाना
चाहिए बगिया
से, वह भी
जरूरी है। तो
हनुमान को
कहां रखियेगा?
हनुमान तो
फिर एक गमला
रह जाते हैं।
बहुत साफ-सुथरे
हैं। कई बार
राम से भी
ज्यादा
साफ-सुथरे
हैं। क्योंकि
और छोटी जगह
घेरते हैं, इसलिए और
साफ-सुथरे हो
सकते हैं।
"हनुमान
नर्तन करते
हैं कभी-कभी?'
नर्तन
कर सकते हैं।
नर्तन कर सकते
हैं, बंगले के बगीचे पर
जब हवा बहती
है तो उसके
पौधे भी नाचते
हैं। और गमले
में लगे पौधे
पर भी जब हवा
बहती है, तो
वह भी डोलता
है। लेकिन
जंगल में
तांडव चलता
है। उसकी बात
ही और है। हम
उससे ही तो घबड़ाते
हैं। वह नर्तन
विराट है, हमारे
"कंट्रोल' के
बाहर है। यह
नर्तन हमारे
भीतर है। हनुमान
नर्तन करते
हैं, लेकिन
राम की आज्ञा
मान लेंगे।
मीरा नर्तन करती
है और कृष्ण
भी अगर रोकें
तो नहीं रुकेगी।
फर्क बड़े
बुनियादी
हैं। मीरा
कृष्ण को भी
डांट-डपट
देगी। हनुमान
न डांट-डपट
सकेंगे। मीरा कृष्ण
को भी कह देगी,
बैठे एक तरफ,
हटो रास्ते
से, नाच
चलने दो, बीच
में मत आओ। वह
हनुमान न कर
सकेंगे।
हनुमान एक
आज्ञाकारी
व्यक्ति हैं,
एक "डिसिप्लिंड'
आदमी हैं।
दुनिया
में
"डिसिप्लिन' की जरूरत है,
बिलकुल है।
अनुशासन की
जरूरत है।
लेकिन, जीवन
में जो भी
विराट है, जो
भी गहन-गंभीर
है, वह सब अनुशासनमुक्त
है। वह जीवन
में जो भी
सुंदर है, सत्य
है, शिव है,
वह बिना
किसी अनुशासन
के अचानक फूट
पड़ता है। तो
मुझे तो जैसा
दिखाई पड़ा, वह मैंने
कहा है। ऐसे
हनुमान हैं, ऐसी मीरा
है। मेरे देखे
में चुनाव
मेरा मीरा का
है, आपसे
नहीं कहता। और
भिन्नता कहता
हूं। हीनता और
श्रेष्ठता
क्या है, वह
हरेक व्यक्ति
अपनी तय
करेगा। अपने
से ही तय होगी
वह। किसी को
हनुमान
श्रेष्ठ
दिखाई पड़ सकते
हैं। उससे वह
सिर्फ इतनी ही
खबर देगा कि
उसकी श्रेष्ठता
का मापदंड
क्या है? और
जब मैं कहता
हूं कि मीरा
कहीं श्रेष्ठ
दिखाई पड़ती है
तो उसका कुल
मतलब इतना है
कि मेरी श्रेष्ठता
का अर्थ क्या
है? इसमें
हनुमान और
मीरा गौण हैं,
खूंटियों की तरह हैं, मैं अपने को
उन पर टांगता
हूं।
"भगवान
श्री, श्रीकृष्ण
की गो-भक्ति
को आप किस
दृष्टि से देखते
हैं? उत्क्रांति की
प्रक्रिया
में डार्विन
के वानर को
मनुष्य-देह का
पूर्वगामी और
आत्मा के
विकास में आपके
अनुसार
गो-माता को
पूर्वगामी
मानने को अगर
राजी हों, तो
स्पष्ट नहीं
होता कि समस्त
पशुजाति
में गाय ही
आत्मा के साथ
क्या ताल्लुक
रखती है! क्या
कृषि-प्रधान
देश होने के
कारण हम गाय को
माता कहते हैं?
गो-वध के
संबंध में
आपका क्या
खयाल है?'
चार्ल्स
डार्विन ने जब
सबसे पहले यह
बात कही कि
आदमियों के
शरीर को देखकर
ऐसा मालूम
पड़ता है कि वह
बंदरों की ही किसी
जाति की
शृंखला की आगे
की कड़ी है, तो स्वीकार
करना बहुत
मुश्किल हुआ
था। क्योंकि
जो आदमी
परमात्मा को
अपना पिता
मानता रहा हो,
वह आदमी
अचानक बंदर को
अपा पिता
मानने को राजी
हो जाए, यह
कठिन था। एकदम
परमात्मा की
जगह बंदर बैठ
जाए, तो
अहंकार को बड़ी
गहरी चोट थी।
लेकिन कोई
रास्ता न था।
डार्विन जो कह
रहा था, प्रबल
प्रमाण थे।
डार्विन जो कह
रहा था उसके लिए
समस्त
वैज्ञानिक
साधन सहारा दे
रहे थे। इसलिए
विरोध तो बहुत
हुआ, लेकिन
धीरे-धीरे
स्वीकार कर
लेना पड़ा।
इसके सिवाय
कोई रास्ता
नहीं था।
बंदर
के शरीर और
आदमी के शरीर
में इतनी ही
निकटता है, बंदर की
बुद्धि और
आदमी की
बुद्धि में भी
इतनी ही
निकटता है, बंदर के
जीने और होने
के ढंग और
आदमी के जीने
और होने के
ढंग में भी
इतनी निकटता
है कि यह इनकार
करना मुश्किल
है कि आदमी
किसी-न-किसी
रूप में बंदर
की कड़ियों
से जुड़ा हुआ
है। आज भी जब
हम रास्ते पर
चलते हैं तो
हमारे बायें
पैर के साथ
दायां हाथ
हिलता है।
जरूरत नहीं है
अब कोई, "मोशन' के
लिए कोई जरूरत
नहीं है। आप
दोनों हाथ
बिलकुल रोक कर
चलें तो भी चल
सकते हैं।
दोनों हाथ कट जाते
हैं तो भी
आदमी इतनी ही
गति से चलता
है। लेकिन
बायें पैर के
साथ दायें हाथ
का हिलना, डार्विन
कहेगा, बंदर
जब चारों
हाथ-पैर से
चलता था, तब
की आदत है, वह
छूटती नहीं।
वह अभी भी आप
जब चलते हैं, तो बस, उल्टे
हाथ के साथ
उल्टा पैर जुड़
जाता है। वह चार
हाथ-पैर से
कभी-न-कभी
मनुष्य जाति
का कोई पूर्वज
चलता रहा है।
अन्यथा इसका
कोई कारण नहीं
है। जहां बंदर
की पूंछ है, वहां वह अभी
खाली जगह
हमारे पास है,
सबके पास है,
जहां पूंछ
होनी चाहिए थी,
लेकिन अब है
नहीं। वह
हड्डी, जहां
पूंछ जुड़ी
होनी चाहिए थी,
वह "लिंकेज'
हमारे शरीर
में है। पूंछ
तो नहीं है, लेकिन वह "लिंकेज' है। वह खबर
देती है कि
कभी पूंछ रही
होगी।
इस
लिहाज से
हनुमान बड़े
कीमती आदमी
हैं। डार्विन
को कुछ पता
नहीं था
हनुमान का, नहीं तो बड़ा
प्रसन्न
होता। अगर
उसको हनुमान का
पता चलता, तो
वह बड़ा
प्रसन्न
होता।
क्योंकि
हनुमान का बंदर
होना, ऐसा
मालूम पड़ता है
कि हनुमान उस
बीच-कड़ी के आदमी
होंगे, जब
वह पूरे बंदर
भी नहीं रह गए
थे, पूरे
आदमी भी नहीं
हो गए थे।
कहीं "लिंकेज'
बीच की होनी
चाहिए। हां, "ट्रांजिटरी पीरियड' के
आदमी होने
चाहिए।
क्योंकि बंदर
एकदम से आदमी
नहीं हो गए
होंगे, लाखों
साल तक बंदर
आदमी होते रहे
होंगे। कुछ चीजें
गिरती गई
होंगी, कुछ
बढ़ती गई
होंगी। लाखों
साल में ऐसा
हुआ होगा कि
कड़ी टूट गई, कुछ बंदर
बंदर रह गए और
कुछ आदमी हो
गए और बीच का
हिस्सा गिर
गया। वह जो बीच
का हिस्सा गिर
गया, हनुमान
उसी के
कहीं-न-कहीं
प्रतीक हैं।
वह जो बीच का
हिस्सा, अब
उपलब्ध नहीं
है--उसको खोजा
जा रहा है
बहुत, और
सारी जमीन पर
हजार तरह की, लाख तरह की
खोजें चलती
हैं कि हम उस
बीच की कड़ी की
हड्डियों को
खोज लें जो
आदमी और बंदर
के बीच में
रही होंगी।
हनुमान की
हड्डियां
कहीं मिल जाएं
तो काम आ सकती
हैं। डार्विन
ने जब यह कहा, तो कठिन हुआ
था, लेकिन
धीरे-धीरे
स्वीकृत हुआ।
क्योंकि प्रमाण
प्रबल थे और
पक्ष में थे।
मैं एक दूसरी
बात भी कहता
हूं, और वह
मैं यह कहता
हूं कि आदमी
के शरीर का
जहां तक विकास
है, आदमी
का शरीर बंदर
के विकास की
अगली कड़ी है, लेकिन जहां
तक आदमी की
आत्मा का
संबंध है, वहां
तक आदमी की
आत्मा गाय की
आत्मा की अगली
कड़ी है। आदमी
के पास आत्मा
की जो यात्रा
है वह तो गाय
से होकर आई है
और शरीर की जो
यात्रा है, वह बंदर से
होकर आई है।
निश्चित ही
जैसे प्रमाण
डार्विन बंदर
से आदमी होने
के लिए जुटा
सकता है, ठीक
वैसे प्रमाण
इस बात के लिए
नहीं जुटाए जा
सकते, लेकिन
दूसरे तरह के
प्रमाण जुटाए
जा सकते हैं।
गाय को
मां कहने का
कारण सिर्फ
कृषि करने
वाला देश नहीं
है। क्योंकि
बैल को हमने
पिता नहीं
कहा। गाय को
मां कहने का
कारण सिर्फ
गाय की
कृषि-प्रधान
देश में उपादेयता
और उपयोगिता
मात्र नहीं
है। अगर यह
सिर्फ
उपादेयता
होती, तो उपादेय
चीजों को हम
मां नहीं बना
लेते हैं! कोई
कारण नहीं है।
रेलगाड़ी को
कोई मां नहीं
कहता, बहुत
उपादेय है।
और रेलगाड़ी के
बिना एक क्षण
नहीं चला जा
सकता। हवाई
जहाज को कोई
मां नहीं बना
लेता। बहुत उपादेय
है। दुनिया
में उपादेय
के लिए
कुछ-न-कुछ रही
हैं, जिनकी
"यूटिलिटी'
रही है, लेकिन
जिस चीज की "यूटिलिटी'
हो, उसको
मां कहने का
क्या संबंध है?
"यूटिलिटी'
हो तो ठीक
है, मां
कहने का कोई
वास्ता नहीं
है। मां कहने
के पीछे कोई
और कारण है।
वह
कारण, मेरे
अपने अनुभव
में, जैसे
बंदर पिता है
डार्विन के
हिसाब से, वैसे
गाय मां है।
यह किन आधारों
पर मैं कहता हूं?
इसके सारे
आधार "साइकिक
रिसर्च' के
ही आधार हो
सकते हैं। मनस
की, और
"जाति-स्मरण' के आधार हो
सकते हैं।
हजारों
योगियों ने
निरंतर इस पर
प्रयोग करके
यह अनुभव किया
कि वह जितने
पीछे लौटते
हैं, जब तक
याद आती है, तब तक
मनुष्य के
जन्म होते हैं,
लेकिन
मनुष्यों के
जन्मों के
पीछे जो स्मरण
आना शुरू होता
है, वह गाय
का जन्म शुरू
हो जाता है।
अगर आप अपने
पिछले जन्मों
की स्मृति में
उतरेंगे, तो
बहुत से जन्म
तो मनुष्य के
होंगे--सबके, कुछ के कम, कुछ के
ज्यादा--यह
"जाति-स्मरण' के परिणामों
का फल है। जिन
लोगों ने
"जाति-स्मरण' पर प्रयोग
किए, अपने
पिछले जन्म की
स्मृतियों की
खोजबीन की, उन्होंने
पाया कि आदमी
की स्मृतियों
के बाद जो
पहली पर्त
मिलती है, वह
पर्त गाय की
स्मृति की है।
इस गाय की
स्मृति के
आधार पर गाय
को मां कहा
गया।
ऐसे भी, अगर हम सारे
पशु-जगत में
खोजने जाएं, तो गाय के
पास जैसी
आत्मा दिखाई
पड़ती है, वैसी
किसी दूसरे
पशु के पास
दिखाई नहीं
पड़ती। अगर हम
गाय की आंख
में झांकें,
तो जैसी
मानवीयता गाय
की आंख में
झलकती है वैसी
मानवीयता
किसी दूसरे
पशु की आंख
में नहीं झलकती।
जैसी सरलता, जैसी
विनम्रता गाय
में दिखाई
पड़ती है वैसी
किसी दूसरे
पशु में नहीं
दिखाई पड़ती
है। आत्मिक दृष्टि
से गाय विकसिततम
मालूम पड़ती है,
समस्त
पशु-जगत में।
उसकी आत्मिक
गुणवत्ता साफ
स्पष्ट रूप से
सर्वाधिक
विकसित मालूम
पड़ती है। उसका
यह जो विकसित
होना है, यह
भी प्रमाण बन
सकता है, खयाल
दे सकता है कि
अगला चरण गाय
का जो होगा, वह आत्मिक
छलांग का
होगा। बंदर की
अगर हम शारीरिक
बेचैनी समझें,
तो हमें खयाल
में आ सकता है
कि यह जल्दी
अपने शरीर के
बाहर छलांग
लगाएगा। यह
रुक नहीं
सकता। यह इसी
शरीर से राजी
नहीं हो सकता।
बंदर राजी ही
नहीं है किसी
चीज से। वह
पूरे वक्त
बेचैन और चंचल
और परेशान है।
आपने ध्यान
किया, जब
बच्चे पैदा
होते हैं तो
उनकी आंखों
में गाय का
भाव होता है
और शरीर में
बंदर की
व्यवस्था
होती है। छोटे
बच्चे को
देखें, तो
शरीर तो उसके
पास बिलकुल
निपट बंदर का
होता है, लेकिन
आंख में झांकें
तो गाय की आंख
होती है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि गाय को मां
कहने का कारण
है। यह सिर्फ
कृषि-प्रधान
होने की वजह
से ऐसा नहीं हुआ।
इसके "साइकिक', इसके बहुत
मानसिक खोजों
का कारण है।
अब दुनिया में
जब "साइकिक
रिसर्च' बढ़ती
चली जाती है, तो मैं नहीं
समझता हूं कि
बहुत देर
लगेगी कि इस
देश की इस खोज
को समर्थन
विज्ञान से
मिल जाए। बहुत
देर नहीं
लगेगी, समर्थन
मिल जाएगा।
कठिनाई
क्या होती है?
अगर हम
हिंदुओं के
अवतार देखें
तो हमें खयाल
में आ सकता
है। हिंदुओं
का अवतार मछली
से शुरू होता
है और बुद्ध
तक चला जाता
है। पहले यह
बात बड़ी
मुश्किल की थी
कि मछली का
अवतार! मत्स्य
का अवतार!
पागल तो नहीं
हैं आप! लेकिन
अब जब विज्ञान
और जीवशास्त्र
कहता है कि
जीवन का पहला
अस्तित्व
मछली से शुरू
हुआ, तब हमें
बड़ी मुश्किल
पड़ जाती है।
अब आज मजाक नहीं
उड़ा सकते इस
बात का। आज इस
बात का मजाक उड़ाना
मुश्किल हो
गया, क्योंकि
विज्ञान कहने
लगा। और
विज्ञान की कुछ
ऐसी छाप है
हमारे मन पर
कि फिर हम
मजाक नहीं उड़ा
सकते।
विज्ञान कहता
है कि मछली ही
शायद पहला
जीवन का
विकसित रूप
है। फिर मछली
से ही सारा
विकास हुआ।
मछली इस देश ने
पहला अवतार
माना
है--अवतार का
कुल मतलब होता
है, चेतना
का अवतरण।
शायद मछली पर
जीवन-चेतना
पहली बार
उतरी। इसलिए
मछली को अवतार
कहने में बुरा
नहीं है। यह
भाषा धर्म की
है। और जब
विज्ञान कहता
है कि मछली
पहला जीवन
मालूम पड़ती है,
तब भाषा
उसके पास
विज्ञान की हो
जाती है। हमारे
पास एक अवतार
और भी अदभुत
है--नरसिंह
अवतार। जो आधा
पशु और आधा
मनुष्य का
अवतार है। जब
डार्विन कहता
है कि बीच में कड़ियां
रही होंगी जो
आधी पशुता की
और आधी मनुष्यता
की रही होंगी,
तब हमें
कठिनाई नहीं
होती, लेकिन
नरसिंह अवतार
को पकड़ने
में कठिनाई
होती है। वह
भाषा धर्म की
है। लेकिन
उसके भी पीछे
गहन अंतर्दृष्टियां
समाविष्ट
हैं।
गाय
मां है, उन्हीं
अर्थों में, जिन अर्थों
में बंदर पिता
है। और
डार्विन ने फिक्र
की शरीर की, क्योंकि
पश्चिम शरीर
की चिंता में
संलग्न है। इस
देश ने फिक्र
की आत्मा की, क्योंकि यह
देश आत्मा की
चिंता में
संलग्न है। इस
देश को इसकी
बहुत फिक्र
नहीं रही कि
शरीर कहां से
आता है--कहीं
से भी आता हो, लेकिन आत्मा
कहां से आती
है, यह हम
जरूर जानना
चाहते रहे
हैं। इसलिए
हमारी "एम्फेसिस'
शरीर के
विकास पर न
होकर आत्मा के
विकास पर गई है।
दूसरी
बात पूछी है
कि गो-वध के
संबंध में
मेरा क्या
खयाल है?
मैं
किसी वध के
पक्ष में नहीं
हूं। तो गो-वध
के पक्ष में
होने की तो
बात ही नहीं
उठती। लेकिन मैं
पक्ष में हूं
या नहीं, इससे
वध रुकेगा
नहीं।
परिस्थितियां
गो-वध कराती
ही रहेंगी।
मैं मांसाहार
के पक्ष में
नहीं हूं। लेकिन,
मांसाहार
के पक्ष में
हूं या नहीं, इससे फर्क
नहीं पड़ता।
परिस्थितियां
ऐसी हैं कि
मांसाहार
जारी रहेगा।
जारी इसलिए
रहेगा कि आज
भी हम इस
स्थिति में
नहीं हो पाए
कि शाकाहारी
भोजन सारे जगत
को दे सकें।
सारा जगत तो
बहुत दूर है, अगर एक
मुल्क भी पूरा
शाकाहारी
होने का निर्णय
कर ले, तो
मर जाएगा।
शाकाहारी
होने के लिए
जो सारी व्यवस्था
हमें जुटानी
चाहिए, वह
हम जुटा नहीं
पाए। इसलिए
मांसाहार
मजबूरी की तरह
जारी रहेगा, "नेसेसरी इविल' की तरह।
गो-वध भी जारी
रहेगा "नेसेसरी
इविल' की
तरह।
और बड़े
मजे की बात यह
है कि जो लोग
गो-वध बंद हो इसके
लिए आतुर हैं, वह गो-वध से
जो मिलता है
लोगों को, उसको
देने के लिए
उनकी कोई
चेष्टा नहीं
है। गो-वध
किसी दिन बंद
हो सकेगा, हो
सकता है। और
मैं मानता हूं
कि वह गो-वध भी
बंद उनकी वजह
से होगा जो
गो-वध बंद
करने के
बिलकुल पक्ष
में नहीं हैं।
यह गो-वध बंद
करने वाले
लोगों की वजह
से बंद नहीं
होने वाला है,
क्योंकि
बंद करने की
वह कोई
व्यवस्था
नहीं जुटा
पाते। बस
सिर्फ नारेबाजी,
या कानून, या नियम, इनसे
कुछ होने वाला
नहीं है। आज
भी जमीन पर
सर्वाधिक
गायें हमारे
पास हैं, और
सबसे कमजोर और
सबसे मरीज।
जिनके पास
बहुत कम
गायें
हैं और जो
बहुत गो-वध
करते हैं, उनके
पास बड़ी
स्वस्थ, बड़ी
जीवंत गायें
हैं। एक-एक
गाय भी चालीस
किलो दूध दे
सके। हमारी
गाय आधा किलो
भी दे तो भी बड़ी
कृपा है! इन
अस्थिपंजरों
को हम जिंदा
रखने की कोशिश
में लगे हैं।
इनको जिंदा
रखने की कोशिश
"इनडायरेक्ट'
ही हो सकती
है। भोजन के
अतिरिक्त
साधन इकट्ठे करने
जरूरी हैं।
अभी तक भी
शाकाहारी ठीक
से मांसाहारी
के योग्य भोजन
का उत्तर नहीं
दे पाए हैं।
उनकी बात सही
है, उनका
तर्क उचित है।
यह बड़े
मजे की बात है
कि गाय भी
गैर-मांसाहारी
है और बंदर भी
गैर-मांसाहारी
है। शरीर भी
आदमी का जहां
से आया है वह
गैर
मांसाहारी
प्राणी से आया
है, और आत्मा
भी जहां से आई
है वह भी
गैर-मांसाहारी
प्राणी से आई
है। छोटी-मोटी
चींटियों
वगैरह को बंदर
कभी खा गए, बात
अलग, ऐसे
मांसाहारी
नहीं है। गाय
तो मांसाहारी
है ही नहीं।
मजबूरी में
मांस खा जाए, बात अलग; खिला
दे कोई बात
अलग। ये दोनों
यात्रापथ
गैर-मांसाहारी
हैं और आदमी
मांसाहारी
क्यों हो गया?
आदमी के
शरीर की पूरी
व्यवस्था
गैर-मांसाहारी
है। उसके पेट
की अस्थियों
का ढांचा गैर-मांसाहारी
का है। उसके
चित्त के
सोचने का ढंग
गैर-मांसाहारी
का है। लेकिन
आदमी मांसाहारी
क्यों हैं? मांसाहार
आदमी की
मजबूरी है, मांसाहारी
होना। अभी तक
शाकाहार का हम
पूरा भोजन
नहीं जुटा
पाए।
इसलिए
मेरी अपनी समझ
में, गो-वध
जारी रहेगा।
जारी नहीं
रहना चाहिए। जारी
रखना पड़ेगा।
जारी नहीं
रखना चाहिए, और सिर्फ
उसी दिन रुक
सकेगा जिस दिन
हम "सिंथेटिक
फूड' पर
आदमी को ले
जाने के लिए
राजी हो जाएं।
उसके पहले
नहीं रुक सकता
है। जिस दिन
हम भोजन के मामले
में
वैज्ञानिक
भोजन पर आदमी
को ले जाएं, उस दिन रुक
सकेगा। इसलिए
मेरी चेष्टा
गो-वध बंद हो, न हो, इसमें
जरा भी नहीं
है। यह सब
बिलकुल फिजूल
बातें हैं, जिनको चलाकर
हम समय खराब
करते हैं और
कुछ होता नहीं,
हो सकता
नहीं। मेरी
चिंता इसमें
है कि आदमी को
हम ऐसा भोजन
दे सकें जो
उसे मांसाहार
से मुक्त कर
सके।
"सिंथेटिक
फूड' के
बिना अब पृथ्वी
में पर कोई
रास्ता नहीं
है। अब जमीन
से पैदा हुआ
भोजन काम नहीं
कर सकेगा, अब
तो हमें फैक्ट्री
में बनाई गई
गोली भोजन के
लिए उपयोग में
लानी पड़ेगी। साढ़े तीन
अरब और चार
अरब के बीच
संख्या डोलने
लगी है मनुष्य
की। इस संख्या
के लिए भोजन
का कोई उपाय
नहीं। और यह
संख्या रोज
बढ़ती जाएगी, हमारे सब
उपाय के
बावजूद बढ़ती
जाएगी। और
गो-वध तो बहुत
दूर की बात है,
हो सकता है
तीस-चालीस साल
के भीतर
आंदोलन शुरू
करना पड़े कि
नर-वध किया
जाए, आदमी
को खाया जाए।
जैसे आज एक
आदमी मरता है
तो हम उससे
कहते हैं कि
अपनी आंख "डोनेट'
कर दो, हम
मरते हुए आदमी
से कहेंगे, अपना मांस "डोनेट' कर
जाओ। और कोई
उपाय नहीं रह
जाएगा।
संख्या इतनी
तीव्र होगी तो
इसके सिवा कोई
उपाय नहीं रह जाएगा।
और जो आदमी
अपना मांस "डोनेट' कर
जाएगा, उसकी
हम इज्जत
करेंगे, जैसे
अभी हम आंख
वाले की करते
हैं। वह कह
जाएगा कि मरने
के पहले तुम
मुझे
काट-पीटकर खा
लेना। बहुत
जल्दी वह वक्त
आ जाएगा कि जो कौमें
लोगों को
जलाती हैं, लाशों को, वह अनुचित
और
अन्यायपूर्ण
मालूम होने
लगेगा। और ऐसा
कोई आज ही हो
गया, ऐसा
नहीं, मनुष्य
को खाने वाली
जातियां थीं,
जिनके पास
कुछ और खाने
को न था, वह
मनुष्य को खाती
रही हैं। यहां
मनुष्य को
खाने की
स्थिति करीब
आई जाती है, वहां हम
आंदोलन चलाए
जाते हैं
गो-वध को
रोकने का। यह
नहीं चलेगा, इसमें कोई
वैज्ञानिकता
नहीं है।
लेकिन
गो-वध रुक
सकता है, सभी
वध रुक सकते
हैं। हमें
भोजन के संबंध
में बड़े
क्रांतिकारी
कदम उठाने की
जरूरत है।
गो-वध के मैं
पक्ष में नहीं
हूं, लेकिन
गो-वध
विरोधियों के
भी पक्ष में
नहीं हूं।
गो-वध विरोधी
निपट नासमझी
की बातें करते
हैं। उनके पास
कोई बहुत बड़ी
योजना नहीं है
जिससे कि
गो-वध रुक
सके। रुक तो
जाना चाहिए।
गऊ आखिरी
जानवर होना
चाहिए जो मारा
जाए। वह विकास
की पशुओं में
आखिरी, मनुष्य
के पहले की
कड़ी है। उस पर
दया होनी जरूरी
है। उससे
हमारे बहुत
आंतरिक संबंध
हैं। उनका
ध्यान रखना
जरूरी है।
लेकिन, यह
ध्यान तक तक
ही रखा जा
सकता है जब
सुविधा हो सके,
अन्यथा
नहीं रखा जा
सकता है। एक
छोटी-सी कहानी
मैं कहूं--
परसों
ही रास्ते में
मैं कह रहा
था। एक पादरी
एक चर्च में
व्याख्यान
करने को गया
है। कोई
तीन-चार मील
का फासला है
और पहाड़ी
रास्ता है, ऊंचा-नीचा
रास्ता है, बूढ़ा पादरी
है। उसने गांव
के अपने एक तांगेवाले
को कहा कि
मुझे वहां तक
पहुंचा दो, जो तुम पैसे
लो, ले
लेना। उस तांगेवाले
ने कहा कि ठीक
है, पैसे
तो ठीक हैं, लेकिन मेरा
बूढ़ा घोड़ा है गफ्फार, उसका जरा
ध्यान रखना
पड़ेगा। तो
उसने कहा, यह
तो ठीक ही है, तुम जितनी
दया घोड़े पर
करते हो, उससे
कम मैं नहीं
करता। घोड़े का
ध्यान रखा जाएगा।
फिर
यात्रा शुरू
हुई। कोई आधा
मील बीतने के
बाद ही चढ़ाई
शुरू हुई, तो उस तांगेवाले
ने कहा, अब
कृपा करके आप
नीचे उतर
जाएं। घोड़ा
बूढ़ा है, और
ध्यान रखना
जरूरी है।
पादरी नीचे
उतर गया। फिर
ऐसा ही चलता
रहा। घाट आता,
पादरी को
नीचे उतरना
पड़ता। कभी-कभी
घाट और ज्यादा
आ जाता, तो तांगेवाले
को भी नीचे
उतरना पड़ता।
चार मील के
रास्ते पर
मुश्किल से एक
मील पादरी
तांगे में
बैठा, तीन
मील नीचे चला।
और जो असली
जगह जहां
तांगे की
जरूरत थी वहां
पैदल चला और
जहां तांगे की
जरूरत नहीं थी
वहां तांगे
में बैठा। जब
वे चर्च के
पास पहुंच गए
और तांगेवाले
को पादरी ने
पैसे चुकाए तो
उसने कहा पैसे
तो तुम लो, लेकिन
एक सवाल का
जवाब देते
जाओ। मैं तो
यहां भाषण
देने आया, समझ
में आता है।
तुम पैसा
कमाने आए, वह
भी समझ में
आता है। गफ्फार
को किसलिए
लाए हो? हम
दोनों आते तो
भी आसान पड़ता।
इस बेचारे गफ्फार
को किसलिए
लाए हो?
जीवन
आवश्यकताओं
में जिआ जाता
है, सिद्धांतों
में नहीं।
आदमी मरने के
करीब है, गाय
नहीं बचाई जा
सकती। गाय
बचाई जा सकती
है, आदमी
इतने "एफयुलेंस'
में हो जाए
कि गाय को
बचाना "एफॅर्ड'
कर सके। फिर
गाय भी बचाई
जा सकती है।
फिर और जानवर
भी बचाए जा
सकते हैं।
क्योंकि गाय
अगर एक कड़ी
पीछे है, तो
दूसरे जानवर
थोड़ी और कड़ी
पीछे हैं।
मछली भी मां
तो है, जरा
रिश्ता दूर का
है। और तो कुछ
बात नहीं है। अगर
गाय मां है, तो मछली मां
क्यों नहीं है?
जरा रिश्ता
दूर का है, बस
इतना ही फर्क
है। लेकिन
जैसे-जैसे
आदमी समृद्ध
होता चला जाए,
सुविधा
जुटाता जाए, वह गाय को ही
क्यों बचाएगा,
वह मछली को
भी बचाएगा।
बचाने
की दृष्टि तो
साफ होनी
चाहिए। लेकिन
बचाने का
आग्रह
सुविधाएं न
हों तो मूढ़तापूर्ण
हो जाता है।
अब
ध्यान के लिए बैठें, शेष फिर कल
पूछेंगे।
THANK YOU GURUJI
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