योग—सूत्र--
('विभूतिपाद')
क्षणतत्कमयौ:
संयमाद्विवेकजं
ज्ञानम्।। 53।।
वर्तमान
क्षण पर संयम
साधने से क्षण
विलीन हो जाता
है, और
आने वाला क्षण
परम तत्व के
बोध से जन्मे
ज्ञान को लेकर
आता है।
जातिलक्षमदेशैरन्यतानवच्छेदात्
तुल्ययोस्तत:
प्रतिपत्ति:।।
54।
इससे
वर्ग, चरित्र या
स्थान से न
पहचाने जा
सकने वाली समान
वस्तुओं मे विभेद
की योग्यता
आती है।
तारकं सर्वविषयं
सर्वथाविषयक्रमं
चेति विवेकजं
ज्ञानम्।। 55।।
यथार्थ
के बोध से
उत्पन्न उच्चतम
ज्ञान, सारी
वस्तुओं और
प्रक्रियाओं
के भूत,
भविष्य और
वर्तमान से
संबंधित
समस्त विषयों की
तत्क्षण
पहचान के परे
है, और यह
वैश्विक
प्रक्रिया का
अतिक्रमण कर
लेता है।
समय क्या है? अब
पतंजलि
समयातीत
प्रश्न, सनातन
प्रश्न पूछते
हैं; और वे
इस पर ' 'विभूतिपाद'
' के ठीक
समापन पर आते
हैं, क्योंकि
समय को जानना
महानतम
चमत्कार है।
यह जान लेना
कि समय क्या
है, जीवन
क्या है को
जान लेना है।
यह जानना कि
समय क्या है, यह जान लेना
है कि सत्य
क्या है। इसके
पूर्व कि हम
सूत्रों में
प्रवेश करें,
अनेक बातें
समझना पड़ेगी;
वे इन
सूत्रों का
परिचय बनेंगी।
सामान्यत:
जिसे हम समय
कहते हैं वह
वास्तविक समय
नहीं है। वह
क्रमागत
(क्रोनोलॉजिकल)
समय है। अत: स्मरण
रखो कि समय का
विभाजन और
वर्गीकरण तीन
ढंगों से किया
जा सकता है।
एक है : 'क्रमागत' दूसरा है : 'मनोवैज्ञानिक'
और तीसरा
है. 'वास्तविक।’
क्रमागत
समय वह है
जिसे घड़ी
बताती है। यह
उपयोगी है, यह वास्तविक
नहीं है। यह
समाज द्वारा
स्वीकार कर
लिया गया एक
भरोसा भर है।
हम एक दिन को
चौबीस घंटों
में बांटने पर
सहमत हैं।
पृथ्वी अपनी
धुरी पर एक
वर्तुल पूरा
करने में
चौबीस घंटे
लगाती है यह
नितांत
स्वैच्छिक है,
हमने इसको
चौबीस घंटों
में विभाजित
करने का निर्णय
लिया गया हुआ
है। फिर हमने
प्रत्येक
घंटे को साठ
मिनटों में बांटने
का निर्णय
किया। इसी रूप
में विभाजित करने
की कोई
आत्यंतिक
आवश्यकता
नहीं है। कोई
और सभ्यता
किसी और ढंग
से बांट सकती
है। हम एक घंटे
को सौ मिनटों
में बांट सकते
हैं और कोई हमें
रोकने नहीं जा
रहा है। फिर
प्रत्येक
मिनट को हमने साठ
सेकेंड में
बांट रखा है।
यह भी स्वैच्छिक
है, मात्र
उपयोगिता
हेतु। यह घड़ी
वाला समय है।
इसकी आवश्यकता
है, वरना
समाज बिखर
जाएगा।
सामान्य
मानक जैसी कोई
बात आवश्यक है—धन, चलने
वाली मुद्रा
की भांति। एक
सौ रुपये का नोट
या एक दस डालर
का बिल, या
और कुछ यह एक
सामान्य
विश्वास है
जिसे समाज उपयोग
करने के लिए
सहमत हो गया
है। लेकिन
इसका
अस्तित्व से
कुछ भी लेना—देना
नहीं है। यदि
पृथ्वी से
मनुष्य
विलुप्त हो
जाता है तो पाउंड
स्टर्लिंग, डालर, रुपये
सभी तुरंत मिट
जाएंगे।
मनुष्य के
बिना पृथ्वी
तुरंत ही बिना
धन की हो
जाएगी।
चट्टानें
होंगी, फूल
अब भी खिलेंगे,
वसंत आएगा
और पक्षी गीत
गाएंगे, और
पतझड़ में
पुरानी
पत्तियां गिर
जाएंगी, लेकिन
वहां धन जरा
भी न होगा।
भले ही सड्कों
पर धन के ढेर
लगे हों, लेकिन
यह धन जरा भी न
होगा, क्योंकि
इसको धन कहने
के लिए एक
आदमी की आवश्यकता
होगी, इसे
धन की भांति
सम्मान देने
के लिए एक
मनुष्य चाहिए।
सरकार
वचन दिए चली
जाती है, प्रत्येक
नोट पर एक वचन
लिखा होता है,
यदि तुम इस
नोट को बैंक
में प्रस्तुत
करो, तो
वित्तीय
गवर्नर दस
रुपये के
बराबर मूल्य का
सोना देने का
वचन देता है।
यह मात्र एक
वचन है। जब
वचन लेने के
लिए ही कोई न
हो, तो
मुद्रा खो
जाती है।
जब
मनुष्य
पृथ्वी पर न
हो, घड़ियां
समय बताना
जारी रख सकती
हैं, लेकिन
यह समय जरा भी
न होगा। किसी
को उनकी चिंता
न होगी, कोई
उनकी ओर
देखेगा भी
नहीं। यदि
मनुष्य वहां न
हो तो बड़ी
वाला समय
तुरंत रुक
जाएगा, यह
मनुष्य निर्मित
है, एक
सामाजिक उप—उत्पत्ति
है।
कोई
समाज जितना
ऊपर जाता है—और
जब मैं कहता
हूं ऊपर जाता
है, तो
मेरा आशय है
कि यह जितना
जटिल हो जाता
है उतना ही वह
और अधिक
क्रमागत समय
से ग्रस्त हो
जाता है। आदिम
मानव के पास
बड़ी का कोई
उपयोग नहीं है।
यदि तुम उसको
एक घड़ी उपहार
में दो, तो
वह बस
आश्चर्यचकित
हो जाएगा, यह
किसलिए? वह
इसका क्या
करेगा? एक
सभ्य मनुष्य
घड़ी के बिना
जी ही नहीं
सकता। सभ्य
समाज में घड़ी
के बिना जी
पाना करीब—करीब
असंभव है
क्योंकि पूरा
समाज घड़ी के
अनुसार जी रहा
है, कभी
कभी तो असंगत
स्थितियों
में भी।
मैं
तुम्हें एक
कहानी सुनाता
हूं:
जैसे
ही डाक्टर
साहब सोने को
तैयार हुए
दरवाजे को जोर
से खटखटाने की
आवाज आई। वे
उठ खड़े हुए और
दरवाजे पर खड़े
व्यक्ति से पूछा.
क्या बात है?
मुझे
एक कुत्ते ने
काट लिया है, वह
व्यक्ति बोला।
अच्छा, क्या तुम
नहीं जानते कि
मेरा रोगियों
को देखने का
समय बारह से
तीन के बीच है?
जी ही, कराहते
हुए रोगी ने
कहा लेकिन
कुत्ता यह
नहीं जानता और
उसने मुझे चार
बज कर बीस
मिनट पर काट लिया।
अब मुझे क्या
करना चाहिए?
कुत्ते
घड़ियों में
भरोसा नहीं
करते, और
मामले असंगत
अंत तक जा
सकते हैं।
एक बार
तुम घड़ी के
अनुसार सोच लो
तो तुम भूल
जाते हो कि यह
मात्र उपयोगी है।
यह वास्तविक
समय नहीं है।
एक और
डाक्टर की
कहानी
अस्पताल
के स्वागत
विभाग में लगे
सूचना—पट पर
लिखा था; आपातकालीन
दुर्घटनाओं
का पंजीकरण।
एक घायल और
गंदला
व्यक्ति
लड़खड़ाता हुआ अंदर
आया। उसकी
पट्टियां खून
से लथपथ हो गई
थीं, दोनों
पैर कांप रहे
थे, वह खून
का रिसाव
रोकने के लिए
अपनी बांह कस
कर पकड़े हुए
था। वह घिसटता
हुआ डेस्क तक
पहुंचा और
कराहते हुए
कहा : डाक्टर, डाक्टर।
रिसेपानिस्ट
ने पूछा :
महोदय, क्या आपने
पहले से ही
मिलने का समय ले
रखा है?
यह इस
आश्रम में भी
हो सकता है, यह शीला
के डेस्क पर
घट सकता है।
एक बार
क्रमागत समय
को बहुत
गंभीरता से ले
लिया जाए तो
व्यक्ति बाकी
सब कुछ भूल
जाता है। सारा
पश्चिम समय से
बहुत अधिक
ग्रस्त है।
प्रत्येक
कार्य को ठीक
समय से किया
जाना है।
मेरे
एक मित्र, अपने एक
अंग्रेज
मित्र के साथ,
इंगलैंड की
यात्रा पर थे,
और वे मुझसे
कहने लगे कि
इंगलैंड में
सब कुछ इतना
औपचारिक हो
गया है कि आप—चाय
का समय, संध्या
भोजन का समय, दोपहर के
भोजन का समय
जैसे शब्द
सुनते हैं, उनका
अभिप्राय
क्या है? समय
से भोजन के
समय का
निर्धारण
कैसे किया जा
सकता है जब तक
कि तुम्हें
भूख महसूस न
हो रही हो? जब
तुम कहते हो :
भोजन का समय, तो इसका
अर्थ है : भूख
का समय—अब
भूखे हो जाओ!
और यदि तुम
भूखे न हुए, तो तुम्हारे
साथ कुछ गडबड़
है। चाय के
समय का अर्थ
है, अब चाय
के लिए तैयार
हो। यदि
तुम्हारे
भीतर इसकी
चाहत नहीं है
तो तुम्हारे
साथ कुछ गड़बड़
है; तुम्हें
चाय पीना
पड़ेगी। धीरे—
धीरे लोग अपनी
भूख, अपनी
असली प्यास को
भूल गए हैं।
सब कुछ समय पर
खाना— पीना है।
घड़ी निर्णय
करती है। घड़ी
शासक बन चुकी
है, वह
शासन करती है।
यह बहुत
अवास्तविक
संसार हैं—घड़ी
द्वारा शासित।
अब
शिक्षाशास्त्री
हैं, मनोवैज्ञानिक
हैं, जो
माताओं को
बताए चले जाते
हैं कि वे
अपने शिशु को
निश्चित
समयों पर हर
तीन घंटे बाद
दूध दिया करें।
बच्चा रो रहा
है, बच्चा
आ है; उसकी
मां घड़ी की ओर
देखती है। अभी
समय नहीं हुआ
है। बच्चा
भूखा है, यह
कोई चिंता
करने की बात
नहीं है। घड़ी
को देखा जाना
चाहिए।
क्योंकि जब
बच्चा भूखा है,
तो बच्चे का
विश्वास नहीं
किया जाता है,
वरन डाक्टर
का। अब यह कोई
डाक्टर का काम
नहीं है कि वह
हस्तक्षेप
करे। लेकिन एक
बार तुम
अवास्तविक से
ग्रस्त हो जाओ,
अनेक
अवास्तविक
चीजें
तुम्हारे
जीवन में आ जाती
हैं।
मैंने
सुना है, एक आयरिश
व्यक्ति पैट
सीडी से गिर
गया और जमीन
पर बेहोश पड़ा
था। उसके गये
ओर भीड़
एकत्रित हो गई
और एक डाक्टर
को बुलाया गया,
डाक्टर ने
तुरंत कह दिया
कि यह श्वास
मर गया है।
पैट ने अपनी आंखें
खोलीं और इस
आरोप का
तत्परता से
विरोध किया।’शsऽ
पैट, 'बगल में
खड़े एक
व्यक्ति ने
उसे टोका, 'कुछ
भी बोलो मत, निश्चित रूप
से डाक्टर
तुमसे बेहतर
जानता है।’
यदि
तुम जीवित हो
और डाक्टर कहे
कि तुम मर
चुके हो, तो तुमको
मुर्दा
व्यक्ति की
भांति
व्यवहार करना
पड़ेगा—क्योंकि
निसंदेह
विशेषज्ञ
जानता है और
वह सबसे बढ़िया
जानता है।
क्रमागत
समय के साथ
विशेषज्ञों
का संसार अस्तित्व
में आया, क्योंकि
तुमने
वास्तविकता
में लगी अपनी
जड़ों को
विस्मृत कर
दिया है।
प्रत्येक बात
के लिए
तुम्हें किसी
और से पूछना
पड़ता है। लोग
मेरे पास आते
हैं और वे
कहते हैं, 'ओशो,
कृपया हमें
बताइए कि हमें
कैसा लग रहा
है?' तुम्हें
कैसा लग रहा
है, तुम्हें
पता होना
चाहिए। लेकिन
मैं समझता हूं।
वास्तविकता
के साथ स्पर्श,
संपर्क, संबद्धता
खो चुकी है।
यहां तक कि
तुम्हें कैसा
लग रहा है, तुम्हें
उसे जानने के
लिए भी किसी
के पास पूछने
जाना पड़ता है,
जिसे पता है
तुम्हें किसी
और पर भरोसा
करना पड़ता है।
यह दुर्भाग्य
है, लेकिन
यह धीमे चरणों
में घटा है और
मानव—जाति
इसके प्रति
जागरूक नहीं
रही है।
क्रमागत
समय अब प्रयोग
नहीं किया जा
रहा है। अब यह
कोई साधन भर न
रहा, यह करीब—करीब
साध्य हो गया
है। याद रखो, यह नकली समय
है। इसका
वास्तविकता
से जरा भी
लेना—देना
नहीं है। इससे
गहराई में, बस इसके
नीचे ही, एक
और समय है, यह
भी यथार्थ
नहीं है, लेकिन
क्रमागत समय
से अधिक
वास्तविक है;
वह है
मनोवैज्ञानिक
समय।
तुम्हारे
भीतर एक घड़ी
है, जैविक
घड़ी। पुरुषों
से अधिक
स्त्रियां
इसके प्रति
संवेदी होती
हैं। बहुत
लंबे समय तक
वे भी संवेदी
नहीं रह पाएंगी
क्योंकि वे हर
भांति से
पुरुषों की
नकल करने की
कोशिश में लगी
हुई हैं। अभी
भी उनका शरीर
भीतरी घड़ी के
अनुरूप कार्य करता
है। प्रत्येक
अट्ठाइस दिन
बाद उन्हें
मासिक धर्म
होता है। शरीर
भीतरी घड़ी की
तरह, जैविक
घड़ी के रूप
में कार्य
करता है।
यदि
तुम निरीक्षण
करो, तो
तुम देखोगे कि
प्रतिदिन एक
निश्चित समय
पर भूख लगती
है। यदि तुम
ठीक—ठाक और
स्वस्थ हो, तब
आवश्यकताएं
एक निश्चित
क्रमबद्धता
ग्रहण कर लेती
हैं, और
वही क्रम
पुनरुक्त
होता रहता है।
यह केवल तभी
भंग होता है, जब तुम
स्वस्थ न हो, अन्यथा शरीर
सुचारु रूप से,
एक सरल ढंग
से संचालित
होता रहता है।
और यदि
तुम्हें उस
प्रारूप की
जानकारी है, तो तुम उस
व्यक्ति की
तुलना में
अधिक जीवंत होओगे
जो घड़ी के
अनुसार जीता
है'। तुम
सत्य के अधिक
निकट हो।
क्रमागत
समय निश्चित
होता है, इसे निश्चित
होना ही पड़ेगा,
क्योंकि यह
सामाजिक
अनिवार्यता
है; लेकिन
मनोवैज्ञानिक
समय तरल है, यह उतना ठोस
नहीं है, क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति का
अपना निजी मानसिक
ढंग, अपना
निजी मन होता
है। क्या
तुमने कभी
देखा है? जब
तुम प्रसन्न
होते हो, तो
समय तेज चलता
है। तुम्हारी
घड़ी तेज नहीं
चलेगी, घडी
को तुमसे कुछ
भी लेना—देना
नहीं है। यह
अपने हिसाब से
चलती है—साठ
सेकेंड में वह
एक मिनट चलती
है, साठ
मिनट में वह
एक घंटा चलती
है। वह चलती
रहेगी, भले
ही तुम
प्रसन्न हो या
अप्रसन्न हो,
इससे कोई
अंतर नहीं
पड़ता। यदि तुम
अप्रसन्न हो
तुम्हारा मन
एक अलग समय में
होगा, यदि
तुम प्रसन्न
हो तो
तुम्हारा मन
एक अलग समय
में होगा। यदि
अचानक
तुम्हारा
प्रियपात्र
आता है, अप्रत्याशित
रूप से द्वार
पर दस्तक देता
है, तो समय
करीब—करीब रुक
जाता है।
घंटों बीत जाएंगे—तुम
भले ही कुछ न
कर रहे हो, बस
हाथ पकड़े हुए
हो, बैठे
हुए हो, और
चंद्रमा को
देख रहे हो—घटों
बीत जाएंगे, और ऐसा
प्रतीत होगा
कि कुछ मिनट
ही बीते हों।
जब तुम
प्रसन्न होते
हो समय बहुत, बहुत ही तेज
चलता है। जब
तुम अप्रसन्न
होते हो, किसी
का निधन हो
गया है, कोई
ऐसा जिसको
तुमने चाहा था
उसकी मृत्यु
घटित हो गई है—तब
समय, बहुत,
बहुत, बहुत
ही धीरे— धीरे
गुजरता है।
अभी उस
रात्रि को ही
मीरा आई। कुछ
माह पूर्व
उसके पति की
मृत्यु हो गई।
वह उसकी
मृत्यु के बाद
मुझसे मिलने
आई थी, और
मैंने उससे
कहा था, चिंता
मत करो, घाव
ठीक हो जाएगा।
इसमें थोड़ा
वक्त लगेगा, करीब—करीब
तीन माह
लगेंगे।
लेकिन वे तीन
महीने एक औसत
समय है
क्योंकि यह उस
व्यक्ति पर
निर्भर करता
है। अब वह
पिछली रात
दुबारा आई और
उसने कहा : 'अब
पांच महीने
बीत चुके हैं
और पीड़ा अभी
भी है।
निःसंदेह कम
है, किंतु
यह अभी भी है, यह गई नहीं
है, और
आपने कहा था
कि तीन महीनों
में पीड़ा विदा
हो जाएगी।’ मैं जानता
हूं। कभी कभी
इसमें एक वर्ष
लगता है, कभी
यह छह माह
लेती है, कभी
इसके विदा
होने में तीन
माह भी नहीं
लगते, तीन
दिन ही
पर्याप्त
होते हैं। यह
क्रमागत नहीं
है, यह मनोवैज्ञानिक
है। यह
तुम्हारे ऊपर
निर्भर है, संबंधों पर
निर्भर है कि
तुम और
तुम्हारे पति के
मध्य किस
प्रकार का
संबंध रहा था।
और मैं
जानता हूं कि
संबंध अच्छा
नहीं था।
इसीलिए घाव
अच्छा तो होगा
लेकिन इसमें लंबा
समय लगेगा। यह
विरोधाभासी
प्रतीत होता
है, किंतु
ऐसा ही होता
है। यदि तुमने
किसी व्यक्ति
को प्रेम किया
था और उसकी
मृत्यु हो
जाती है, तुम्हैं
उदासी अनुभव
होगी, लेकिन
तुम शीघ्र ही
सामान्य हो
जाओगे। कोई
घाव नहीं होगा।
तुमने उस
व्यक्ति को
प्रेम किया था,
उसमें जरा
भी अपूर्णता
नहीं थी।
लेकिन मीरा और
उसके पति के बीच
संबंध अच्छे
नहीं थे, वर्षों
से वे करीब—करीब
अलग ही थे। वह
प्रेम करना
चाहती थी पर
प्रेम कर नहीं
पाई। वह उसके
साथ रहना
चाहती थी पर
ऐसा हो न सका।
अब पति विदा
हो चुका है, और उसके साथ
रह पाने की
मीरा की सारी
आशाएं भी उसी
के साथ मिट गई
हैं। उसके
अरमान थे, उसकी
इच्छा थी, वह
चाहती थी, किंतु
यह नहीं हो
सका। अब वह
व्यक्ति विदा
हो गया, अब
कोई संभावना
नहीं है। अब
उस पर अकेलेपन
का ठप्पा लग
गया है, अब
उस व्यक्ति को
प्रेम करने का
कोई उपाय नहीं
है। उसके
जीवित रहते, वह प्रेम न
कर पाई, उनके
मध्य
समस्याएं थीं;
अब वह
व्यक्ति विदा
हो गया, इसलिए
कोई संभावना न
बची। अब यह
घाव बहुत धीरे—
धीरे, बहुत
धीरे— धीरे
भरेगा। और जब
यह भर जाएगा
तो भी सदा
उसके चारों ओर
एक खास किस्म
की उदासी छाई
रहेगी।
किसी
भी अपूर्ण चीज
को गिरा देना
कठिन है।
चीजें पूरी पक
जाती हैं और
तब अपने से ही
गिर जाती हैं।
जब कोई पक
जाता है, यह गिर पड़ता
है। निःसंदेह
वृक्ष को कुछ
क्षण महसूस
होता है कि
कुछ खो गया है,
फिर यह भूल
जाता है।
समाप्त हो गई
बात, क्योंकि
पके हुए फलों
को गिर जाना
पड़ता है।
प्रत्येक
व्यक्ति को
मरना पडेगा।
जब वह व्यक्ति
जीवित था—तुमने
प्रेम किया, और तुमने
आत्यंतिक रूप
से और समग्रता
से प्रेम किया,
तुम तो करीब—करीब
परितृप्त हो;
तुम और अधिक
की मांग नहीं
कर सकतीं।
जैसा कि यह था
यह पहले से ही
बहुत अधिक था।
तुम आभारी हो
कि परमात्मा
ने तुम्हें
इतना अधिक समय
दिया। वह उस
व्यक्ति को थोड़ा
पहले भी वापस
बुला सकता था,
लेकिन उसने
तुमको
पर्याप्त समय
दिया और तुमने
प्रेम किया।
प्रेम में एक
पल भी
शाश्वतता बन
जाता है। तुम
इतना अधिक
प्रसन्न हो कि
समय रुक जाता
है। एक छोटा
सा जीवन बहुत,
बहुत अनंत
हो जाता है।
लेकिन यह इस
प्रकार से
नहीं हो सका
है, इसलिए
मैं मीरा की
पीड़ा को समझ
सकता हूं।
लेकिन
उसे इस बात का
सामना करना
पड़ेगा और इसे समझना
पड़ेगा। यह
केवल पति की
मृत्यु का ही
प्रश्न नहीं
है। यह कोई
इतनी बड़ी
समस्या नहीं
है। पतियों की
मृत्यु होती
है, पत्नियों
की मृत्यु
होती है, यह
कोई बड़ी
समस्या नहीं
है, स्वाभाविक
है यह। समस्या
यह है कि
प्रेम नहीं घट
सका। यह एक
स्वप्न, एक
इच्छा बना रहा
और अब यह
अतृप्त रहेगा।
तुम्हें वह
व्यक्ति पुन:
नहीं मिल सकता,
अत: यह
अध्याय पूरा
नहीं किया जा
सकता। यह
अपूर्णता एक
घाव की भांति
कार्य करेगी।
इसीलिए इसने
अधिक लंबा समय
ले लिया है।
यह थोड़ा और
अधिक समय लेगी।
मनोवैज्ञानिक
समय तुम्हारा आंतरिक
समय है, और हम सदैव
ही क्रमागत
समय, .ग्रीनविच
समय में जीया
करते हैं—यह
वैयक्तिक
नहीं है।
मनोवैज्ञानिक
समय
व्यक्तिगत है
और यह प्रत्येक
का अपना निजी
होता है। यदि
तुम प्रसन्न
हो, तुम्हारा
समय का बोध
धीमा हो जाता
है। यदि तुम
अप्रसन्न हो,
समय की
लंबाई बढ़ जाती
है। यदि तुम
ध्यान में
गहरे उतरो समय
रुक जाता है।
वस्तुत: पूरब
में हम मन की
अवस्थाओं को
समय से मापते
रहे हैं। यदि
समय पूर्णत:
रुक जाता है
तो यह आनंद की
अवस्था है।
यदि समय बहुत
अधिक धीमा हो
जाए तो यह संताप
की अवस्था है।
ईसाइयत
में कहा गया
है कि नरक
शाश्वत है।
बर्ट्रेंड
रसल ने एक
पुस्तक लिखी
है : वॉय आई एम
नॉट ए
क्रिश्चियन? मैं ईसाई
क्यों नहीं
हूं? इसमें
वह बहुत से
तर्क देता है
कि वह ईसाई
क्यों नहीं है।
उसके तर्कों
में से एक यह
है कि 'मैं
भरोसा नहीं कर
सकता कि नरक
शाश्वत हो
सकता है, क्योंकि
जो भी पाप हों,
वे सीमित
हैं। तुम
असीमित पाप
नहीं कर सकते
हो। इसलिए
सीमित पापों
के लिए असीमित
दंड—यह
अन्यायपूर्ण
है।’ यह
तर्क सीधा है।
कोई भी
बर्ट्रेड रसल
के विरोध में
तर्क नहीं दे
सकता; वह
एक साधारण
तथ्य कह रहा
है। वह स्वयं
कहता है, 'यदि
मुझे उन सभी
पापों का दंड
दे दिया जाए
जो मैंने अपने
पूरे जीवन में
किए हैं, तो
भी यह चार
वर्ष के
कारावास से
अधिक नहीं होगा।
और यदि वे पाप
भी सम्मिलित
कर लिए जायें
जो मैंने नहीं
किए हैं बल्कि
केवल सोचे हैं
तो अधिक से
अधिक आठ वर्ष,
और थोड़ा सा
बढ़ाए तो दस
वर्ष। लेकिन
अनंत, शाश्वत
नरक?' तब
परमात्मा
बहुत
प्रतिशोधपूर्ण
प्रतीत होता
है, दिव्य
नहीं मालूम
पड़ता, ईश्वर
जैसा नहीं
लगता बहुत
भयानक, शैतानी
ताकत की तरह
दिखाई पड़ता है।
क्योंकि
तुमने एक
स्त्री से
प्रेम कर लिया
जो तुम्हारी
पत्नी नहीं थी, अब तुम
दंडित होगे—अनंत
काल तक। यह
बहुत अधिक है।
तुमने कोई
इतना बड़ा पाप
नहीं कर दिया
है। प्रेम में
पड़ना मानवीय
है, और जब
कोई प्रेम में
पड़ जाता है तो
यह तय करना कठिन
है कि ऐसी
स्त्री से
प्रेम किया
जाए या नहीं, जो किसी और
की पत्नी है।
हूं. ...प्रेम
करीब—करीब
अंधा होता है।
यह तुम पर
हावी हो जाता
है।
हां, बर्ट्रेड
रसल ठीक
प्रतीत होता
है, उसके
तर्क उचित ही
प्रतीत होते
हैं, किंतु
मैं कहता हूं
कि तर्क उचित
नहीं है। वह
असली बात से
चूक गया है।
और किसी ईसाई
धर्मशास्त्री
ने अभी तक
उसको इस बिंदु
पर उत्तर नहीं
दिया है। वे
उत्तर नहीं दे
सकते क्योंकि
वे भी भूल चुके
हैं। वे
सिद्धांतों
की बातें करते
रहते हैं, लेकिन
वे
वास्तविकताओं
को विस्मृत कर
चुके हैं। जब
जीसस कहते हैं
कि नरक शाश्वत
है तो उनका
अभिप्राय
मनोवैज्ञानिक
समय से है, न
कि क्रमागत
समय से। ही, यदि उनका
अभिप्राय
क्रमागत समय
होता तो किसी व्यक्ति
को शाश्वत नरक
में डाल देना
नितांत असंगत
है। उनका
अभिप्राय है
मनोवैज्ञानिक
समय। उनका
अभिप्राय यह
है कि नरक में
एक क्षण भी अनंत
काल जैसा
प्रतीत होगा।
यह बहुत अधिक
धीमा हो जाएगा
क्योंकि तुम
इस प्रकार से
संताप और दर्द
में होंगे कि
एक क्षण भी
अनंतकाल जैसा
प्रतीत होगा।
तुम्हें
अनुभव होगा कि
यह किसी भी
समय समाप्त
नही होगा, यह
मिटने वाला
नहीं है।
तुम्हें
लगेगा कि इसका
सातत्य जारी
है, चल रहा
है, चलता
जा रहा है।
यह समय
के बारे में
कुछ नहीं कहता, यह
तुम्हारी उस
अनुभूति के
बारे में कुछ
बताता है जब
तुम गहरी पीड़ा
और कष्ट में
होते हो। और
निःसंदेह नरक
दर्द की चरम
अवस्था है। और
जीसस बिलकुल सही
हैं, बर्ट्रेड
रसल गलत है, लेकिन
बर्ट्रेड रसल
इसे गलत समझा
क्योंकि जीसस
ने ठीक
मनोवैज्ञानिक
समय नहीं कहा
था। वे कहते
हैं, अनंतकाल,
क्योंकि उन
दिनों यही
भाषा समझी
जाती थी। ऐसी विशिष्टता
से बोलने की
कोई आवश्यकता
न थी।
मनोवैज्ञानिक
समय
व्यक्तिगत
होता है।
तुम्हारे पास
अपना है, तुम्हारी
पत्नी के पास
उसका है, तुम्हारे
पुत्र के पास
उसका है, और
सभी भिन्न हैं।
संसार में
संघर्षों का
यह भी एक कारण है।
तुम हार्न बजा
रहे हो और
पत्नी खिड़की
से कहती है, मैं आ रही
हूं और वह
दर्पण के
सम्मुख खड़ी
रहती है और
तुम हार्न पर
हार्न बजाए जा
रहे हो कि समय
हुआ जा रहा है
और हमारी
ट्रेन छूट
जाएंगी, और
वह क्रोधित हो
उठती है, और
तुम क्रोध में
आ जाते हो। हो
क्या रहा है? प्रत्येक
पति चिढ़ा हुआ
है कि वह तो
ड्राइवर की
सीट पर बैठा
हुआ है और
हार्न बजाए जा
रहा है और पत्नी
अभी तक तैयार
हो रही है, तैयार
ही हो रही है।
अभी भी वह
साड़ी का चुनाव
कर रही है। अब
रेलगाड़ियां
इस बात की
चिंता नहीं
लेतीं कि तुमने
कौन सी साड़ी
पहनी हुई है, वे समय पर
चली जाती हैं।
पति बहुत अधिक
हैरान है, क्या
चल रहा है। दो
विभिन्न
मनोवैज्ञानिक
समय विवाद में
हैं।
पुरुष
क्रमागत समय
पर पहुंच गया
है; स्त्री
अभी भी
मनोवैज्ञानिक
समय में जीती
है। जहां तक
मैं देखता हूं
स्त्रियां
कलाई घड़ी का
उपयोग करती
हैं, लेकिन
आभूषण की
भांति। मैं
नहीं देखता कि
वे वास्तव में
उनका उपयोग करती
हों, विशेषत:
भारत में तो
नहीं। मैं ऐसी
कई महिलाओं के
संपर्क में
आया हूं जो यह
भी नहीं जानती
कि समय कैसे
देखा जाए, और
उनके पास
घड़ियां हैं, सुंदर सोने
की घड़ियां— वे
उन पर धन खर्च
सकती हैं।
बच्चा
एक बिलकुल ही
भिन्न संसार
में जीता है।
बच्चे के पास
अपना स्वयं का
मनोवैज्ञानिक
समय है, पूरी तरह से
बिना
जल्दबाजी का,
करीब—करीब
स्वप्न में।
वह तुम्हें
नहीं समझ सकता,
तुम उसको
नहीं समझ सकते।
तुम बहुत दूर
हो, जोड्ने
का कोई उपाय
भी नहीं है।
जब एक वृद्ध
व्यक्ति किसी
बच्चे से बात
कर रहा होता
है, तो वह
जैसे दूसरे
ग्रह से बोल
रहा होता है, यह बात
बच्चे तक कभी
नहीं पहुंचती।
बच्चा देख
नहीं पाता कि
इतनी अधिक
जल्दबाजी क्यों,
किसलिए?
मनोवैज्ञानिक
समय नितांत
वैयक्तिक है।
इसीलिए
क्रमागत समय
महत्वपूर्ण
हो गया है, वरना
कहां मिला जाए,
कैसे कार्य
किया जाए किस
भांति कुशल
हुआ जाए? यदि
प्रत्येक
व्यक्ति अपनी
अनुभूति के
अनुसार
कार्यालय में
आता है तो
कार्यालय चला
पाना असंभव है।
यदि प्रत्येक
व्यक्ति उसके
अपने समय पर
स्टेशन आता है
तो रेलगाड़ी
कभी न जाएगी।
सभी को सुविधा
देने वाला कुछ
निश्चित करना
पड़ता है।
क्रमागत
समय इतिहास है, और
मनोवैज्ञानिक
समय पुराण है।
इतिहास और
पुराण के मध्य
यही अंतर है।
पश्चिम में
इतिहास लिखा
गया और पूरब
में पुराण।
यदि तुम पूछो
कृष्ण का जन्म
कब हुआ, बिलकुल
सही—सही
दिनांक, कहीं
से कोई उत्तर
नहीं आएगा। और
इतिहासकारों
के लिए यह
सिद्ध करना
आसान है कि
यदि तुम यह
नहीं सिद्ध कर
सकते
ऐतिहासिक रूप
से कि किस
तारीख को, कितने
बजे, किस
स्थान पर, कृष्ण
का जन्म हुआ
था—यदि तुम वह
स्थान और समय
जहां कृष्ण
जन्म की घटना
घटी थी न दिखा
सको—तो यह
संदेहास्पद
है कि कृष्ण
का जन्म कभी
हुआ भी था या
नहीं।
पूरब
ने कभी यह
चिंता नहीं की।
पूरब इसकी
सारी असंगतता
पर हंसता है। कृष्ण
के जन्म से
ऐतिहासिक समय
का क्या लेना—देना
है? हमारे
पास कोई
अभिलेख नहीं
है। या हमारे
पास अनेक
अभिलेख हैं जो
विरोधाभासी
हैं, एक—दूसरे
का खंडन कर
रहे हैं।
लेकिन
देखो, मेरा
जन्म ग्यारह
दिसंबर को हुआ
था। यदि यह
सिद्ध कर दिया
जाए कि ग्यारह
दिसंबर को मैं
नहीं जन्मा था,
क्या यह इस
बात का
पर्याप्त
प्रमाण होगा
कि मैं कभी
पैदा ही नहीं
हुआ था? पूरब
में कोई अपना
जन्म—दिन भी
याद नहीं रखता।
अभी उसी दिन
विवेक अपने
पिता के जन्म—दिन
के बारे में
चिंतित थी।
शायद यह
सत्ताइस हो, या कोई अन्य
दिन, और वह
चिंतित थी, यदि वह
लिखती है और
उनसे पूछती है
तो उसके माता—पिता
अपमान अनुभव
करेंगे। और
मैंने उसको
बताया कि मुझे
अपनी मां का
जन्म—दिन, अपने
पिता का जन्म—दिन
नहीं पता है, और मैं तो यह
भी नहीं जानता
कि उन्हें
स्वयं पता है
भी या नहीं।
किंतु इससे यह
कदापि सिद्ध
नहीं हो सकता
कि वे कभी थे
ही नहीं या
उनका जन्म ही
नहीं हुआ।
पूरब
ने पुराण लिखे
हैं। पुराण
पूर्णत भिन्न
हैं, ये
मनोवैज्ञानिक
समय के अनुरूप
हैं।
क्रमागत
समय रेखीय रूप
में, एक
सरल रेखा में
चलता है।
इसीलिए
पश्चिम में
कहा जाता है
कि सूर्य के नीचे
नया कुछ भी
नहीं है—लेकिन
इतिहास कभी
अपने आप को
दोहराता नहीं
है। समय एक
रेखा में चलता
है अत: इतिहास
एक पंक्ति में
स्वयं को किस
भांति दोहरा
सकता है। हर
घटना अनूठी
प्रतीत होती
है। पूरब में
हम कहते हैं
कि इतिहास एक
चक्र है। यह
सीधी रेखा में
नहीं चलता, इसकी गति
वर्तुलाकार
है। और पूरब
में हम कहते
हैं सूर्य के
नीचे नया कुछ
भी नहीं है और
इतिहास स्वयं
को लगातार
दोहराता रहता
है। यह सभी
पुनरुक्ति है,
अत: क्यों
चिंता करना कि
कृष्ण कब
जन्मे?
पूरब
में हम कहते
हैं कि हर युग
में कृष्ण बार—बार
जन्म लेते हैं, यह एक
चक्र है। सृजन
और विनाश के
मध्य के हर
युग में कृष्ण
बार—बार जन्म
लेते है। उनका
रूप भिन्न हो
सकता है, उनका
नाम अलग हो
सकता है, लेकिन
वे बार बार
जन्म लेते हैं,
इसलिए चिंता
क्यों करनी? बस इसका
वर्णन कर दो
कि वे कौन हैं
और गैर—जरूरी
विवरणों की
बहुत अधिक
चिंता मत लो, इसलिए कृष्ण
का यह रूप हो
सकता है कि
किसी विशिष्ट
कृष्ण का न हो।
यह सभी
कृष्णावतारों
का समन्वित
रूप भी हो सकता
है। यह इसी
प्रकार का है।
यदि
तुम पूछो, 'क्या
बुद्ध की
मूर्ति उनका
सही प्रतिरूप
है?' यह
नहीं है। फिर
भी यह सत्य है
कि बुद्ध को
इसी भांति का
होना चाहिए।
यह प्रश्न
नहीं है कि यह
बुद्ध—गौतम
सिद्धार्थ, शुद्धोदन के
पुत्र, जो
एक निश्चित
तारीख को
कपिलवस्तु
में जन्में थे,
क्या इस
मूर्ति की
भांति थे।
नहीं यह बात
ही नहीं है। लेकिन
इस मूर्ति में
सभी बुद्ध
सदैव समाहित हैं।
उनका
प्रतिनिधित्व
है। यह मूर्ति
बस बुद्धत्व
की है, किसी
विशेष बुद्ध
की नहीं है।
इसमें सारे
बुद्ध समा गए
हैं।
अब
पश्चिम के लिए
यह कठिन है।
तुम बुद्ध और
महावीर की
मूर्तियों के
बीच अंतर नहीं
कर सकते हो, बस एक
छोटा सा चिह्न
उनके पैरों के
नीचे होता है,
वरना उनमें
तुम कोई भेद
नहीं कर सकते
हो। जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर, चौबीस
महान सदगुरु
हैं, लेकिन
तुम कोई अंतर
नहीं कर सकते
हो। किसी जैन
मंदिर में जाओ
और बस देखो, वे सभी एक सी
दिखती हैं।
ऐसा हो ही
नहीं सकता कि
चौबीस
व्यक्ति एक से
हों। असंभव।
दो व्यक्ति
कभी एक से
नहीं हो सकते,
लेकिन वे
मूर्तियां
बाहर का
प्रतिनिधित्व
नहीं करती हैं।
वे अंतर
अनुभूति का
प्रतिनिधित्व
करती हैं। ही,
दो व्यक्ति
एक हो नहीं
सकते लेकिन दो
अनुभूतियां
एक सी हो सकती
हैं।
जब तुम
प्रेम में
पड़ते हो और
कोई दूसरा भी
प्रेम में
पड़ता है तो
प्रेम एक सा
ही होता है।
जब तुम ध्यान
करते हो, तथा कोई और
भी ध्यान करता
है तो ध्यान
एक जैसा ही है।
जब तुम संबुद्ध
होते हो और
कोई दूसरा भी
संवुद्ध होता
है तो संबोधि
एक ही है। ये
जैन तीर्थंकरों
की चौबीस
मूर्तियां
चौबीस
व्यक्तियों
की नहीं हैं
बल्कि उस एक
अवस्था की है
जो उनमें
प्रतिबिंबित
हुई। वे सभी
प्रतिनिधि
हैं।
अगर
तुम जैन
तीर्थंकर को
देखो, तो
तुम्हें बहुत
लंबे कान
दिखाई पड़ेंगे
जो करीब—करीब
उनके कंधों को
छूते हैं। अब
जैन कहते हैं
कि सारे
तीर्थंकरों
के कान लंबे
थे। और ऐसे
मूढ़ हैं जो
सोचते हैं कि
महावीर के कान
वास्तव में
इतने अधिक
लंबे थे।
मुझे
एक जैनी, आचार्य
तुलसी ने अपने
एक सम्मेलन
में निमंत्रित
किया था, उनके
कान बहुत लंबे
हैं, इसलिए
उनका एक शिष्य
मेरे पास आया
और बोला, 'आचार्य
तुलसी जी महाराज
को देखिए, उनके
कान कितने
लंबे हैं। यह
महान सदगुरु
होने का
प्रतीक है।
जल्दी ही अपने
किसी 'अगले
जन्म में वे
तीर्थंकर
होने वाले हैं।’
संयोगवश या
किसी
इत्तेफाक से
एक गधा उधर से
गुजरा, अत:
मैंने उस
शिष्य से कहा : 'आचार्य गधे
जी महाराज को
देखिए। वे
पहले से ही
तीर्थंकर हैं।’
वह शिष्य उस
बात से इतना
क्रोधित हो
गया, वह
मेरे पास कभी
नहीं आया।
लंबे
कान मात्र इस
बात का प्रतीक
हैं कि ये लोग
सुनने में
समर्थ हैं, बस यही
बात है। वे
ध्वनि को, ध्वनि—विहीन
ध्वनि को, एक
हाथ की ताली
की ध्वनि को
सुनने में
समर्थ थे। वे
सत्य को सुनने
में समर्थ थे।
ये प्रतिमाएं
मात्र
प्रतीकात्मक
हैं, ऐसा
नहीं है किं
वे किसी
वास्तविक
व्यक्ति का प्रतिनिधित्व
करती हैं। ऐसी
गलत ढंग की
व्याख्या
मूढ़तापूर्ण
है। पुराण—कथा
प्रतीकात्मक
हैं। ऐसा कहा
जाता है कि
राम का जन्म
अयोध्या में हुआ
था। अब भीतर
की शांति की
एक अवस्था का
नाम अयोध्या
है, इसका
अयोध्या नाम
के नगर से कुछ
भी लेना—देना
नहीं है। नगर
का नाम अंतस
की अयोध्या
जैसी दशा एक
बहुत शांतिपूर्ण,
मौन, आनंदित
अवस्था के
प्रतिनिधि के
रूप में रखा गया
है। निःसंदेह
उस अवस्था से
राम को जन्म
लेना ही होगा।
जीसस
का कुंआरी
माता से जन्म
का यही अर्थ
है। ऐसा नहीं
है कि वास्तव
में उनका जन्म
कुंआरी मेरी
से हुआ हो, नहीं, बल्कि
अस्तित्व की
शुद्धता
कुंआरेपन, भोलेपन
और अविकृत
पवित्रता से
ही उनका जन्म
हुआ था। यही
उनका असली
गर्भ था।
ये
प्रतीकात्मक
बातें हैं, ये पुराण
कथाएं हैं। वे
ऐतिहासिक
नहीं हैं।
इतिहासकार
अनावश्यक
विवरण, बकवास
एकत्रित करते
रहते हैं। तुम
जरा इतिहास की
किसी पुस्तक
में देखो। तुम
आश्चर्यचकित
हो जाओगे।
इतने सारे लोग
इतना
मूर्खतापूर्ण
कार्य क्यों
कर रहे हैं? तिथियां, तिथियां और
तिथियां और
नाम, नाम
और नाम और वे
चलते चले जाते
हैं। और
हजारों लोग
अपना सारा
जीवन बरबाद कर
देते है और वे
इसे शोध कहते
हैं। और फिर
पत्रकार हैं,
संपादक, समाचार
पत्र के
कार्यकर्ता
हैं, वे
सभी क्रमागत
समय में जीते
हैं। वे बस
संसार की
अनावश्यक
बातों को
समाचार लिखने
के लिए खोजते
रहते हैं
सत्य
कभी समाचार
नहीं बनता, क्योंकि
यह सदैव वहां
है। यह घटित
नहीं होता, यह पहले से
ही घट चुका है।
असत्य समाचार
है।
किसी
ने जार्ज
बर्नार्ड शॉ
से पूछा.
स्माचार क्या
है? उसने
कहा. जब कोई
कुत्ता किसी
आदमी को काट
ले, तो यह
समाचार नहीं
है; लेकिन
जब कोई मनुष्य
किसी कुत्ते
को काट ले, तो
यह समाचार है,
क्योंकि
समाचार को कुछ
नया होना
चाहिए।
मनुष्य को
कुत्ते
द्वारा काटा
जाना कोई समाचार
नहीं, क्योंकि
इसमें नया कुछ
भी नहीं है।
ऐसा तो सदा से
होता रहा है, और यह हमेशा
ऐसे ही होगा।
लेकिन जब कोई
मनुष्य
कुत्ते को काट
लेता है तो
निश्चित रूप
से यह समाचार
है।
तुम्हें
पत्रकारों से
अधिक सतही और
ओछे व्यक्ति
कहीं न
मिलेंगे। वे
लोग व्यर्थ की
चीजें खोज
लेने में कुशल
होते हैं।
पत्रकार
निकम्मे
राजनेता होते
हैं। राजनेता
समाचार
निर्मित करते
हैं, पत्रकार
समाचार एकत्रित
करते हैं।
पत्रकार
राजनेताओं की
छाया की भांति
है। इसीलिए
समाचार पत्र
पूरी तरह
राजनेताओं से
भरे होते हैं,
इस छोर से
उस छोर तक, आदि
से अंत तक, बस
राजनीति, राजनीति,
राजनीति।
पत्रकार वह
व्यक्ति है जो
समाचार बनाने
में असफल हो
गया है, अब
वह इन्हें
एकत्रित करता
है। उसका
राजनेता से
ठीक वही संबंध
है जो आलोचक
का कवि से
होता है; जो
कवि बनने में
असफल रहता है,
वही आलोचक बन
जाता है।
मैंने
एक प्रसिद्ध
अभिनेता के
बारे में सुना
है। एक फिल्म
में उसे एक
घोड़े की
आवश्यकता पड़ी, और एक
घोड़े का मालिक
'अपना घोड़ा
लेकर आया। यह एक
सामान्य घोड़ा
था, लेकिन
घोड़े के मालिक
ने उसकी बहुत
अधिक प्रशंसा
करना आरंभ कर
दी, और वह
बोला, यह
कोई आम घोड़ा
नहीं है। इसकी
कद काठी को मत
देखिए उसकी
आत्मा को देखिए।
यह एक बहुत
श्रेष्ठ घोड़ा
है। और इसने
इतनी अधिक
फिल्मों में
काम किया है
कि उसको आप
करीब—करीब एक
अभिनेता ही कह
सकते हैं।
ठीक
उसी समय घोड़े
ने जोर से हवा
छोड़ी, तेज
आवाज हुई।
वह
अभिनेता बोला
: मैं देख सकता
हूं यह सिर्फ
अभिनेता ही
नहीं है, यह एक
समीक्षक भी है।
पत्रकार, समीक्षक,
इतिहासकार,
राजनेता, वे सभी
ऐतिहासिक समय,
जीवन की
बाहरी परिधि
से संबद्ध हैं,
और सबसे
व्यर्थ और
अनुपयोगी
प्रयास जो
संसार में
चलता रहता है—इतना
महत्वपूर्ण
हो गया है।
हमने इसको
इतना
महत्वपूर्ण
इसीलिए बना
दिया है
क्योंकि हम
भूल गए हैं कि
घड़ी ही जीवन
नहीं है।
मनोवैज्ञानिक
समय स्वप्न का
समय है। पुराण,
काव्य, प्रेम,
कला, चित्रकारी,
नृत्य, संगीत,
भाव, ये
सभी
मनोवैज्ञानिक
समय से जुड़े
हैं। तुम्हें
मनोवैज्ञानिक
समय की ओर
उन्मुख होना
पड़ेगा।
क्रमागत समय
बहिर्मुखी मन
के लिए है।
मनोवैज्ञानिक
समय
अंतर्मुखी, वह जिसने
अंतरात्मा की
ओर जाना आरंभ
कर दिया है, के लिए है।
मनोवैज्ञानिक
समय में खतरे
भी हैं।
इसीलिए वे लोग
जो क्रमागत
समय से आसक्त
हैं, मनोवैज्ञानिक
समय के विरोध
में हैं।
इसमें खतरे
हैं। एक खतरा
यही है कि तुम
इसके जाल में
फंस सकते हो।
तब तुम करीब—करीब
पागल हो जाओगे,
क्योंकि
तुम समाज के, संसार के
लोगों के
संपर्क से हट जाते
हो। मैं
तुम्हें एक
कहानी सुनाता
हूं
एक भला
दिखने वाला
आदमी अपने एक
पुराने मित्र से
गपशप में इतना
व्यस्त हो गया
कि उसे समय का होश
नहीं रहा।
अचानक उसने
अपनी घड़ी पर
निगाह डाली और
बोला. अरे
मित्र, तीन बज रहे
हैं और मैंने
अपने
मनोचिकित्सक
से तीन बजे का
समय लिया हुआ
है, और
वहां तक
पहुंचने में
कम से कम
पंद्रह मिनट तो
लगेंगे ही।
उसके
मित्र ने कहा :
अब परेशान
होने की जरूरत
नहीं है, तुम कुछ ही
मिनट देर से
पहुंचोगे।
तुम
उसे जानते
नहीं, यदि
मैं ठीक समय
से वहां नहीं
पहुंचा तो वह
मेरे बिना ही
शुरू हो जाएगा।
स्वप्न को
यथार्थ मान
लेने का खतरा
है। अपनी
कल्पनाओं में
बहुत अधिक
विश्वास कर
लेने का खतरा
है। तुम अपनी आंतरिक
कल्पना, अपने
स्वप्न—संसार
से इतना अधिक
ग्रस्त हो
सकते हो कि
तुम एक वहम
में जी सकते
हो, लेकिन
इन खतरों के
साथ भी इसे
समझना और इससे
होकर गुजरना
आवश्यक है। लेकिन
याद रखो, यह
एक सेतु है, जिससे होकर
गुजर जाना है।
जब तुमने इसको
पार कर लिया, तो तुम
वास्तविक समय
के सम्मुख आ
जाओगे।
क्रमागत
समय शरीर से
संबद्ध है, मनोवैज्ञानिक
समय मन से
जुड़ा है, वास्तविक
समय तुम्हारे
अस्तित्व
से। क्रमागत
समय
बहिर्मुखी मन
है, मनोवैज्ञानिक
समय
अंतर्मुखी मन
है, और
वास्तविक समय
मनातीत है।
किंतु
व्यक्ति को
मनोवैज्ञानिक
समय से गुजरना
पड़ता है। उस
क्षेत्र के
पार पूर्ण होश
से जाना पड़ता
है। तुम्हें
वहां अपना
ठिकाना नहीं
बनाना चाहिए।
यदि तुम वहां
अपना आवास बना
लों तो तुम
विक्षिप्त हो
जाते हो। यही
उन बहुत सारे
लोगों के साथ
हो गया है जो
पागलखानों
में हैं। वे
क्रमागत समय
को भूल चुके
हैं, वे
वास्तविक समय
में नहीं
पहुंचे, और
उन्होंने पुल
पर, मनोवैज्ञानिक
समय में रहना
आरंभ कर दिया
है। इसी कारण
उनकी सच्चाई
व्यक्तिगत और निजी
बन गई है। एक
पागल व्यक्ति
अपने निजी
संसार में
रहता है, और
वह व्यक्ति
जिसको तुम
सामान्य कहते,
सार्वजनिक
संसार में
रहता है।
सार्वजनिक
संसार लोगों
के साथ है, निजी
संसार तुम में
सीमित है, लेकिन
वास्तविक
संसार न तो
निजी है और न
ही सार्वजनिक,
यह
सार्वभौम है,
यह दोनों के
पार है। और
व्यक्ति को
दोनों के परे
जाना पड़ता है।
एक
आदमी सड़क के
आवारागर्द के
रूप मे जाना
जाता था। वह
एक दुर्घटना
के बाद
अस्पताल में
पड़ा हुआ था।
डाक्टर
ने नर्स से
पूछा. सुबह
इसका क्या हाल
रहा?
वह
बोली : ओह! वह
अपना दायां
हाथ बाहर किए
रहता है।
आह!
डाक्टर ने
कहा. वह मोड़ पर
मुड़ रहा है।
सड्कों
पर भटकने वाला, मोटर
साइकिल जिसकी
लत बन चुकी हो,
अपनी नींद
में भी तेज
रफ्तार बनाए
रहता है। जो
कुछ भी तुम
अपने सपनों
में करते हो
वह तुम्हारी
इच्छा, तुम्हारे
लक्ष्य, तुम
क्या पाना
चाहते हो, को
प्रतिबिंबित
करता है।
आदिम
समाज
मनोवैज्ञानिक
समय में जीया
करते हैं।
पूरब
मनोवैज्ञानिक
समय में जीता
रहा है, पश्चिम
क्रमागत समय
में जीया करता
है। यदि तुम
पर्वतों के
पीछे और
जंगलों में
काफी भीतर
रहने वाले
छिपे हुए
समाजों में
जाकर देखो, तो तुम
पाओगे कि वे
पूरी तरह
मनोवैज्ञानिक
समय में जीते
हैं। कुछ ऐसे
भी आदिम समाज
हैं जहां
स्वप्न
वास्तविकता
से अधिक
महत्वपूर्ण
हैं, और
सुबह नाश्ते
से पहले
बच्चों को
पहला काम यही
करना पड़ता है
कि वे अपने
बड़ों को अपने
स्वप्न
सुनाया करते
हैं। पहली बात
है, मनोविश्लेषण।
नाश्ते से
पहले ही बड़ों
के सामने स्वप्न
का वर्णन कर
दिया जाना है।
और वे एक साथ
एकत्रित होते
हैं और वे
स्वप्न का 'विश्लेषण
करते हैं। और
फिर वे बच्चे
को कुछ करने
के लिए कहते
हैं, क्योंकि
स्वर्ण
प्रतीकात्मक
है और यह
प्रदर्शित
करता है कि कुछ
किए जाने की
जरूरत है।
उदाहरण
के लिए एक
बच्चे ने
स्वप्न में
देखा कि वह एक
मित्र से लड़
रहा है, और सुबह वह
इस बात को
अपने बड़ों को
बताता है। वे
इसकी
व्याख्या
करेंगे, और
वे इस बच्चे
को उपहारों और
मिठाइयों और
खिलौनों के
साथ उसके घर, उसी बच्चे
के पास
भेजेंगे
जिससे वह
स्वप्न में लड़
रहा था और उसे
वे उपहार दिए
जाएं और उसको
वह स्वप्न बताया
जाए, क्योंकि
उसने एक अपराध
किया है।
पश्चिम
में तुम इसकी
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
तुमने किया
क्या है? तुमने कुछ
नहीं किया, तुमने केवल
स्वप्न देखा,
लेकिन उस
विशेष
आदिवासी
समुदाय का
कहना है कि तुमने
स्वप्न देखा
क्योंकि तुम
इस प्रकार की
कोई बात करना
चाहते थे, वरना
क्यों ऐसा
स्वप्न आया? एक छिपी हुई
दमित इच्छा
रही होगी यह।
जहां तक मन का
संबंध है, तुमने
ऐसा कर लिया
है। जाओ और उस
बच्चे को बता
दो ताकि
तुम्हारे चारों
ओर कोई
सूक्ष्म
क्रोध न बना
रहे। उससे
पूरी बात कह
दो और उससे
क्षमा मांग लो
और इन उपहारों
को उसे भेंट
में दे दो।
स्वप्न
की लड़ाई के
लिए असली
उपहार.....किंतु
उस समुदाय में
एक चमत्कार घट
गया है। धीरे—
धीरे जब बालक
बड़ा होता है
वह स्वप्न
देखना छोड़
देता है।
स्वप्न खो
जाते हैं। उस
आदिम समाज के
अनुसार वयस्क
व्यक्ति वही
है जिसे
स्वप्न नहीं
आते। सुंदर
मालूम पड़ती है
यह बात।
निःसंदेह
मनोविश्लेषक
उस समाज की
प्रशंसा नहीं
करेंगे, क्योंकि
उनका सारा
धंधा चौपट हो
जाएगा।
एक
युवती अपने
चिकित्सक से
मिलने गई और
चिकित्सक ने
उससे पूछा कि
पिछली रात
तुमने स्वप्न
में क्या देखा? उस युवती
ने बताया कि
उसे कल पूरी
रात कोई
स्वप्न ही नहीं
आया। इस पर वह
मनोचिकित्सक
बहुत क्रोधित
हुआ और बोला.
देखो, यदि
तुम अपना
गृहकार्य
नहीं करोगी तो
मैं तुम्हारी
मदद कैसे कर
पाऊंगा?
स्वप्न
देखना एक
गृहकार्य है
और
मनोविश्लेषक
तुम्हारे
स्वप्नों पर
जीता है। वह
उनका विश्लेषण
किए चला जाता
है। किंतु यह
कुछ असंगत बात
है। तुम अपने
स्वप्नों का
विश्लेषण
स्वयं नहीं कर
सकते कोई और
इसे कैसे कर
सकता है? क्योंकि
मनोवैज्ञानिक
समय निजी है, इसलिए
तुम्हारे स्वप्नों
को तुमसे
बेहतर और कोई
समझ ही नहीं
सकता है। सपने
तुम्हारे हैं,
कोई दूसरा
उनको किस
प्रकार समझ
सकता है? उसकी
व्याख्याएं
झूठ होने वाली
हैं। उसकी
व्याख्याएं
उसके द्वारा
की जाएंगी। जब
कोई फ्रायड
तुम्हारे
स्वप्न का
विश्लेषण करता
है, तो
उसकी
व्याख्या
भिन्न होगी।
जब जुग उसी
स्वप्न का
विश्लेषण
करता है, तो
उसकी
व्याख्या अलग
होगी। जब एडलर
उसी स्वप्न का
विश्लेषण
करता है, तो
उसकी
व्याख्या और
किस्म की होती
है। अत: इसके
बारे में क्या
सोचा जाना
चाहिए? तुमने
एक स्वप्न
देखा है और
तीन महान
मनोविश्लेषकों
ने तीन अलग
ढंगों से इसको
समझाया।
फ्रायड
हर बात को
कामवासना की
ओर मोड़ देता
है। चाहे तुम
जो स्वप्न
देखो, कोई
अंतर नहीं
पड़ता। वह उसे
कामवासना से
संबद्ध करने
का उपाय खोज लेगा।
ऐसा प्रतीत
होता है कि वह
कामवासना से
ग्रसित था। वह
एक महान
अग्रदूत था, उसने एक बड़ा
द्वार खोल
दिया, लेकिन
वह भयग्रस्त
था, और वह
कामवासना से
डरा हुआ था, और वह दूसरी
कई चीजों से
भी आतंकित था।
वह इतना
भयग्रस्त था
कि उसको सड़क
पार करने में
भय लगता था, यह उसके बड़े
भयों में से
एक था। अब तुम
यह नहीं सोच
सकते बुद्ध
सड़क पार करने
से भयभीत हों।
यह आदमी स्वयं
ही रुग्ण है।
वह लोगों के
साथ बातचीत
करने से इतना घबड़ाता
था, तभी तो
उसने
मनोविश्लेषण
निर्मित किया।
मनोविश्लेषण
में
मनोविश्लेषक
एक पर्दे के पीछे
बैठता है और
रोगी एक कोच
पर लेटता है
और बोलता रहता
है और
मनोविश्लेषक
केवल सुनता है—कोई
संवाद नहीं।
वह संवाद से
भयभीत था।
व्यक्तिगत
मुलाकातों
में, आमने—सामने
की बातचीत में
वह सदा असहज
रहता था। अब
उसका सारा मन
उसकी
व्याख्या में
समा गया है।
यह स्वाभाविक
है, इसे
ऐसे ही होना
चाहिए।
जुंग
हर बात को, प्रत्येक
चीज को धर्म
पर ले आता है।
स्वप्न में
तुम चाहे कुछ
भी देखो, वह
इसकी व्याख्य
इस भाति करेगा
कि यह धार्मिक
स्वप्न बन
जाएगा। वही
स्वप्न
फ्रायड के साथ
कामुक हो जाता
है, जुग के
साथ यह
धार्मिक हो
जाता है। एडलर
के साथ यह
राजनीति बन
जाता है। हर
बात
महत्वाकांक्षा
है। और
प्रत्येक
व्यक्ति
हीनता की
ग्रंथि से पीड़ित
है। और
प्रत्येक
व्यक्ति और
शक्ति
प्राप्त करने के
लिए—शक्ति की
आकांक्षा हेतु
प्रयासरत है।
और अब तो सारे
संसार में
हजारों
मनोविश्लेषक हैं
जो विभिन्न
विचारधाराओं
के हैं। जितनी
विविध
विचारधाराएं
ईसाइयत में
हैं उतनी ही
हैं। बहुत से
वाद हैं और हर
मनोविश्लेषक
अपना स्वयं का
वाद आरंभ कर
देता है। और
किसी को रोगी
की फिकर नहीं
कि यह उसका
स्वप्न है।
मनोविश्लेषकों
की समस्याएं
उनके
विश्लेषणों
और
व्याख्याओं
में समा जाती
हैं। सहायता
करने का यह
कोई ढंग नहीं
है। वस्तुत:
यह तो चीजों
को और अधिक
जटिल बना देने
वाला है। एक
बेहतर समाज
तुम्हें
सिखाएगा कि
अपने स्वप्न
का किस भांति
विश्लेषण
किया जाए, अपने
स्वयं के
स्वप्नों का
मनोविश्लेषण
कैसे किया जाए।
क्योंकि
तुमसे अधिक
तुम्हारे
स्वप्न के बारे
में कोई नहीं
जानता, क्योंकि
तुम्हारे
अतिरिक्त
तुमसे और निकट
अन्य कोई हो
ही नहीं सकता।
एक
सुंदर युवा
महिला
मनोचिकित्सक
से मिलने गई।
वह कुछ सेकंड
उस महिला का
मुख देखता रहा
और बोला :
कृपया यहां
मेरे पास आओ।
तब अचानक उसको
अपनी बांहों
में लेकर
मनोचिकित्सक
ने उसका चुंबन
लिया, फिर
उसको अपने से
अलग करके वह
कहने लगा, मेरी
समस्या का तो
समाधान हो गया
है, अब
बताओ
तुम्हारी
क्या समस्या
है?
उनकी
अपनी
समस्याएं हैं।
उनकी अपनी मनोग्रस्तताएं
हैं, मनःस्थितिया
हैं।
पूरब
में
मनोविश्लेषण
जैसा कभी कुछ
नहीं रहा है।
ऐसा नहीं है
कि हमें
मनोवैज्ञानिक
संसार के बारे
में कुछ पता
नहीं है। हमें
संसार के किसी
भी समाज की
तुलना में
इसका अधिक गहराई
से
बोध रहा
है, लेकिन
हमने सहायता
के लिए एक
नितांत भिन्न
प्रकार का
व्यक्ति
निर्मित किया
है, हम उस
व्यक्ति को
गुरु कहते हैं।
गुरु और
मनोविश्लेषक
में क्या अंतर
है? अंतर
यह है कि
मनोविश्लेषक
के पास अभी भी
समस्याएं हैं
अनसुलझी, लेकिन
गुरु के पास
कोई समस्या
नहीं है। जब
तुम्हारे पास
कोई समस्या न
हो तभी
तुम्हारी
दृष्टि
सुस्पष्ट
होती है, तभी
तुम स्वयं को
दूसरे की
स्थिति में रख
सकते हो। जब
तुम्हारे पास
कोई समस्याएं
कोई मनोग्रस्तताएं,
कोई
जटिलताएं कुछ
भी नहीं होता,
तुम मन से
पूर्णत:
निर्मल होते
हो, मन
तिरोहित हो
चुका है, तुम
अ—मन को उपलब्ध
हो चुके हो, तभी, तभी
तुम देख सकते
हो। तब तुम
निजी ढंग से
व्याख्या
नहीं करोगे।
तुम्हारी
व्याख्या
सार्वभौमिक
होगी, वह
अस्तित्वगत
होगी।
और
तीसरा है
वास्तविक, अस्तित्वगत
समय।
वास्तविक समय
समय जरा भी
नहीं है, क्योंकि
वास्तविक समय
शाश्वतता है।
मैं तुम्हें
इसे समझाता
हूं।
क्रमागत
समय
स्वैच्छिक
होता है।
पश्चिम में
जेनो ने इसे
बहुत पहले हीर
सिद्ध कर दिया
है। पूरब में
नागार्जुन ने
इस बात को
इतनी गहराई से
सिद्ध किया है
कि उसे कोई
कभी खंडित
नहीं कर पाया।
वस्तुत: जेनो
और नागार्जुन
दोनों
व्यक्तियों
को कोई तर्क
में हरा नहीं
सका है।
उन्हें कोई
पराजित नहीं
कर सकता, उनके तर्क
अत्याधिक
गहरे और परम
हैं। जेनो और
नागार्जुन
कहते हैं कि
समय की, क्रमागत
समय की
संपूर्ण
अवधारणा
असंगत है। उन
दोनों
व्यक्तियों
के बारे में
और उनके द्वारा
किए गए
क्रमागत समय
के विश्लेषण
के बारे में
मैं तुम्हें
कुछ बातें और
बताता हूं।
उन्होंने
समय के
विश्लेषण की
चरम ऊंचाइयां
छू ली हैं।
अभी तक कोई भी
उनसे आगे
निकलने में या
उनके तर्कों
में सुधार
करने में सफल
नहीं हो पाया
है। उन्होंने
पूछा 'समय
क्या है?' तुमने
बताया : 'यह
एक प्रक्रिया
है। एक क्षण
अतीत में चला
जाता है, मिट
जाता है, एक
और क्षण
भविष्य से
वर्तमान में
आता है, समय
के एक अंतराल
के लिए वहां
ठहरता हैं, फिर पुन:
अतीत में चला
जाता है, तिरोहित
हो जाता है, ' यह है समय की
प्रक्रिया।
तुम्हारे पास
एक समय में
केवल एक क्षण
होता है, दो
क्षण कभी एक
साथ नहीं होते।
अतीत, भविष्य
और बस उनके
ठीक बीच में
अंतराल में
वर्तमान।
अब
नागार्जुन और
जेनो प्रश्न
उठाते हैं, वह क्षण
कहां से आता
है? क्या
भविष्य पहले
से ही
अस्तित्व में
है? यदि
अस्तित्व में
नहीं है तो वह
क्षण अन अस्तित्व
से किस भांति
आ सकता है? अब
वे उलझन खड़ी
कर देते हैं।
वे कहते हैं, वर्तमान का
क्षण अतीत में
कहां चला जाता
है? क्या
यह अभी भी
अतीत में
संचित है? यदि
तुम कहो ही, यह अभी भी
अतीत में
उपस्थित है, तो यह अभी
अतीत नहीं हुआ
है। यदि तुम
कहो कि यह
भविष्य में था,
और बस अभी
यह हमारे
समक्ष
उदघाटित हुआ
है, यह
भविष्य में
सदा से था, तब
नागार्जुन और
जेनो कहते हैं
तब तुम इसे
भविष्य नहीं
कह सकते, यह
सदा से
वर्तमान था।
यदि भविष्य है,
तो यह
भविष्य नहीं
है क्योंकि
भविष्य का
अर्थ है जो
अभी नही है।
यदि अतीत है, तो यह अतीत
नहीं है, क्योंकि
अतीत का अर्थ
है जो
अस्तित्व से
बाहर हो गया
है।
इसलिए
जो भी विकल्प
तुम चुनते हो..
.यदि तुम कहो कि
भविष्य नहीं
है और अचानक
शून्य में से
वर्तमान का
क्षण प्रकट हो
जाता है, वे दोनों
हंसते हैं। वे
कहते हैं, 'तुम
मूर्खतापूर्ण
बात कह रहे हो।
अनअस्तित्व
से अस्तित्व
किस प्रकार आ
सकता है? और
किस भांति
अस्तित्ववान
पुन:
अनअस्तित्व में
चला जाता है? वे कहते हैं,
'यदि दोनों
ओर
अनअस्तित्व
है तो ठीक बीच
में अस्तित्व
कैसे हो सकता
है? इसे भी
अनअस्तित्व
होना चाहिए।
तुम भ्रम में
थे।’
फिर वे
कहते हैं, तुम समय
को एक
प्रक्रिया
ऊहने हो? तुम्हारा
कथन है कि एक
क्षण दूसरे से
जुड़ा हुआ है? नागार्जुन
और जेनो तुमसे
पूछते हैं, दो क्षण हैं,
वे किस
प्रकार से
संबंधित हैं?
क्या ज्यू
दोनों के मध्य
कोई तीसरा
क्षण भी है जो
उनको जोड़ता है।
फिर वे एक
कठिनाई पैदा
कर देते हैं, क्योंकि
संबंध बनाने
के लिए एक
सेतु की जरूरत
होती है। दो
चीजों को
जोड्ने के लिए,
अतीत को
वर्तमान से
जोड्ने के लिए,
और वर्तमान
को भविष्य से
जोड्ने के लिए
सेतुओं की
आवश्यकता
पड़ती है। तो
इन सेतुओं का
अस्तित्व
कहां है? वे
सेतु क्या हैं?
वे समय से
ही निर्मित हो
सकते हैं।
इसलिए एक क्षण
और दूसरे क्षण
के मध्य में
उन दोनों को
जोड्ने के लिए
एक क्षण और है।
इसलिए दो के
स्थान पर वहां
तीन हैं, लेकिन
फिर उनको भी
जोड़ना पड़ेगा।
एक अनंत
श्रृंखला बन
जाती है।
मेरी
दो अंगुलियों
की ओर देखो।
इन दो को जोड़े
जाने की
आवश्यकता है, वे तीन
अंगुलियां बन
जाती हैं। अब
एक के स्थान
पर दो स्थान, दो अंतराल
हो गए। उन्हें
जोड़ा जाना है;
वे पांच हो
गए हैं। अब
जोड़े जाने के
लिए और अधिक
रिक्त स्थान
हो जाते हैं
और इसी प्रकार
यह चलता रहता
है।
नागार्जुन
और जेनों के
अनुसार
क्रमागत समय एक
उपयोगिता है।
यह सारभूत
नहीं है।
वास्तविक समय
कोई
प्रक्रिया
नहीं है, क्योंकि
नागार्जुन का
कहना है यदि
समय स्वयं में
प्रक्रिया हो
तो इसे एक और
समय की जरूरत
होगी। उदाहरण
के लिए तुम
चलते हो।
तुम्हें समय
की आवश्यकता
होती है।
तुमको अपने घर
से, इस
च्चांगत्सु
सभागार में, मेरे पास
आना है। तुमको
यहा तक आने
में पंद्रह
मिनट लगे। यदि
समय न हो तुम
यहां कैसे आ
सकोगे, क्योंकि
चलने के लिए
समय की जरूरत
है, चलना
एक प्रक्रिया
है, तुम्हें
समय चाहिए।
सभी
प्रक्रियाओं
को समय की
जरूरत पडती है।
अब नागार्जुन
कहते हैं, 'यदि
तुम कहते हो
समय स्वयं में
एक प्रक्रिया
है तो इसको एक
महा समय, एक
अतिरिक्त समय
की आवश्यकता
होगी। और वह
भी एक
प्रक्रिया है,
तो उसे भी
एक अन्य समय, महा, महा
समय...,'पुन:
अनंत
श्रृंखला खड़ी
हो जाती है।
फिर तुम इसका
समाधान नहीं
खोज सकते।
नहीं, समय, वास्तविक
समय
प्रक्रिया
नहीं है, यह
समकालिकता है।
भविष्य, भूत,
वर्तमान तीन
भिन्न चीजें
नहीं हैं, अत:
उनको जोड्ने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है। यह
शाश्वत अभी है,
यह
निरंतरता है।
ऐसा नहीं है
कि तुम्हारी
बगल से समय
गुजर रहा है।
यह कहां जाएगा?
इसे होकर
गुजरने के लिए
किसी और
माध्यम की आवश्यकता
पड़ेगी, और
यह कहां जाएगा,
और यह कहां
से आएगा? यह
वहां है; बल्कि
यह यहां है।
समय है। यह
कोई
प्रक्रिया
नहीं है।
क्योंकि
हम पूर्ण समय
को देख नहीं
सकते—हमारी आंखें
संकुचित हैं, सीमित
हैं। हम एक
छोटी सी खिड़की
से देख रहे
हैं, इसीलिए
ऐसा प्रतीत
होता है कि
तुम एक बार
में एक ही
क्षण को देख
सकते हो। यह
तुम्हारी
सीमा है, समय
का विभाजन
नहीं है।
क्योंकि तुम
संपूर्ण समय
को जैसा कि यह
है नहीं देख
सकते, क्योंकि
अभी तक तुम
समग्र नहीं हो,
इसीलिए तुम
समय का विभाजन
भूत, वर्तमान,
भविष्य में
करते हो।
अब
सूत्र:
'वर्तमान
क्षण पर संयम
साधने से क्षण
विलीन हो जाता
है, और आने
वाला क्षण परम
तत्व के बोध
से जन्मे ज्ञान
को लेकर आता
है।’
यदि तुम
समय की
प्रक्रिया पर, उस क्षण
पर जो है, उस
क्षण पर जो
चला गया, उस
क्षण पर जो
आने वाला है, अपनी समाधि
चेतना को ले
आओ, यदि
तुम अपनी
समाधि ले आओ, अचानक परम
तत्व का ज्ञान
हो जाता है।
क्योंकि जिस
क्षण तुम
समाधि के साथ
देखते हो—वर्तमान,
भविष्य और
भूत का विभेद
खो जाता है, वे विलय हो
जाते हैं।
उनमें विभाजन
झूठा है।
अचानक तुम
शाश्वत के
प्रति
बोधपूर्ण हो
जाते हो तिब
समय
समकालिकता है।
कुछ भी जा
नहीं रहा है, कुछ भी भीतर
नहीं आ रहा है,
सब कुछ है, मात्र है।
यह 'है—पन' परमात्मा
के रूप में
जाना जाता है;
यही 'है—पन'
ईश्वर की
अवधारणा है।
'वर्तमान
क्षण पर संयम
साधने से क्षण
विलीन हो जाता
है, और आने
वाला क्षण परम
तत्व के बोध
से जन्मे शान
को लेकर आता
है।’
यदि
तुम समय को
सतोरी, समाधि की आंखों
से देख सको, समय तिरोहित
हो जाता है।
लेकिन
यह अंतिम
चमत्कार है, इसके
उपरांत सिर्फ
कैवल्य, मुक्ति
है। जब समय खो
जाता है, सब
कुछ खो जाता
है—क्योंकि
इच्छा, महत्वाकांक्षा,
प्रेरणा का
सारा संसार
वहां है, क्योंकि
हमारे पास समय
ही गलत
अवधारणा है।
समय निर्मित
किया गया है; समय एक
प्रक्रिया की
भांति—भूत, वर्तमान, के रूप में—इच्छाओं
द्वारा
निर्मित किया
गया है। पूरब
के संतों की
श्रेष्ठतम
अंतर्दृष्टियों
में से एक बात
यही है कि
प्रक्रिया के
रूप में समय
वास्तव में
इच्छा का
प्रक्षेपण है।
क्योंकि तुम
किसी चीज की
इच्छा रखते हो,
तुम भविष्य
निर्मित करते
हो। और
क्योंकि तुम
आसक्त होते हो,
तुम अतीत
निर्मित करते
हो। क्योंकि
तुम उसे नहीं
छोड़ सकते जो
अब तुम्हारे
सामने नहीं
रहा, और
तुम इससे
चिपके रहना
चाहते हो, तुम
स्मृति
निर्मित करते
हो। और
क्योंकि वह जो
अभी नहीं आया
तुम इसकी अपने
निजी ढंग से
अपेक्षा करते
हो, तुम
भविष्य
निर्मित करते
हो। भविष्य और
अतीत मन की
अवस्थाएं हैं,
समय के भाग
नहीं हैं। समय
शाश्वत है। यह
बंटा हुआ नहीं
है। यह एक है, समग्र है।
क्षण
तत्कमयो
संयमाद्विवेकज
ज्ञानम्।
जिसने
यह जान लिया
कि क्षण और
समय की
प्रक्रिया
क्या है, वह परम के
प्रति
बोधपूर्ण हो
जाता है; समय
के बोध से
व्यक्ति को
परम का बोध
प्राप्त हो
जाता है।
क्यों? क्योंकि
परम की सत्ता.
वास्तविक समय
की भांति है।
तुम
क्रमागत समय
में जीते हो, तो तुम
समाचार पत्र
के संसार में
जीते हो—तब
तुम
राजनेताओं, पागल, महात्वाकांक्षी
लोगों के
संसार में
जीते हो। या
अगर तुम
मनोवैज्ञानिक
समय में जीते
हो, तो तुम
पागल, सनकी,
या कल्पना,
स्वप्न, काव्य
के संसार में
जीते हो।
एक नया
डाक्टर
पागलखाने में
चारों तरफ देख
रहा था। उसे
एक रोगी मिला, उस
डाक्टर ने
रोगी से पूछा,
आप कौन हैं?
वह
व्यक्ति तन कर
खड़ा हो गया और
बोला, मैं
श्रीमान, नेपोलियन
हूं।
डाक्टर
ने पूछा :
वास्तव में? आपसे यह
किसने कहा?
उस
रोगी ने कहा :
ईश्वर ने
बताया, और कौन बता
सकता है?
पड़ोस
के बिस्तर पर
पड़े हुए एक
छोटे से आदमी
ने ऊपर की ओर
देखा और बोला, मैंने
नहीं कहा।
पागलखानों
में जाओ; यह
जाने लायक
स्थान है। बस
लोगों को देखो।
वे एक कल्पना
के संसार में
जी रहे हैं।
वे सामूहिक
संसार से पूरी
तरह बाहर चले
गए हैं और वे
सार्वभौमिक
संसार में
नहीं जा पाए
हैं, वे
मध्य में लटके
हैं, वे
सीमा रेखा पर
हैं।
मनोचिकित्सक
यह देख कर
बहुत हैरान
हुआ कि उसकी
रोगी युवा
महिला उसके
कार्यालय के
बाहर खड़ी है
और बेहद
परेशान दीख
रही है। उसे
अभी उसकी
चिकित्सा
करते हुए आधा
घंटा ही हुआ
था। उसने
पूछा. क्या
मामला है? वह बोली
ओह, मुझे
पता नहीं है
कि मैं आ रही
हूं या जा रही
हूं।
मनोचिकित्सक
ने कहा बिलकुल
ठीक यही बात
है, इसीलिए
तुम मुझसे
मिलने आई हो।
ओह। वह
बोली : तब आप
कौन हैं?
मैं
तुम्हारा
मूर्ख
चिकित्सक हूं
झल्ला कर वह
बोला।
सीमा
रेखा का एक
संसार
निर्मित हो
जाता है। यदि
तुम क्रमागत
संसार से
संपर्क खो
देते हो और
तुम्हारा
संपर्क सार्वभौम, परम से
नहीं जुड़ पाता,
तो अचानक
तुम नहीं जान
पाते कि तुम आ
रहे हो या जा
रहे हो:। सब
कुछ
संदेहास्पद
हो जाता है, हर बात संशय
उत्पन्न करती
है, तुम
स्वयं पर
भरोसा नहीं कर
सकते, तुम्हें
अपनी आंखों पर
भरोसा नहीं आता,
तुम किसी पर
भरोसा नहीं कर
पाते। तुम बंद
हो जाते हो, सीमित हो
जाते हो। तुम
झरोखा विहीन
अस्तित्व, एक
मोनैड, एक
इकाई बन जाते
हो। यही तो
नरक है। तुम
स्वयं से बाहर
नहीं आ सकते, तुम पंगु हो
गए हो।
स्मरण
रखना, ध्यानी
पागल के संसार
से होशपूर्वक
गुजरता है—होशपूर्वक।
और होशपूर्वक
गुजरना शुभ है,
क्योंकि
यदि तुम
होशपूर्वक
नहीं गुजरोगे
तो इस बात की
पूरी संभावना
है कि तुम
अचेतन में इसके
शिकार हो जाओ।
इसमें
जबरदस्ती
धकेले जाने की
तुलना में इससे
जाग्रत, होशपूर्वक
होकर गुजरना
श्रेयस्कर है।
यदि जीवन
तुम्हें
इसमें धकेल दे
तो तुम इससे
बाहर निकलने
में समर्थ न
हो सकोगे। यह
बहुत ही
दुष्कर है।
और
मनोचिकित्सक
तुम्हारी
केवल क्रमागत
संसार में
वापस लौटने
में सहायता कर
सकता है।
सदगुरु और
मनोचिकित्सक
में यही अंतर
है।
मनोचिकित्सक
उस व्यक्ति को
जो 'मनोवैज्ञानिक'
में खो गया
है वापस क्रमागत
में—आघात
चिकित्सा से,
बिजली के
झटकों से, इंसुलिन
के झटकों सें—क्योंकि
तुम अत्याधिक
आघातग्रस्त
हो—वापस ले
आता है। अचानक
तुम्हारा
स्वप्न तोड़
दिया जाता है।
तुम थोड़े से
चौकन्ने हो
जाते हो, तुम
क्रमागत
संसार में
वापस लौट आते
हो।
सदगुरु, यदि तुम
मनोवैज्ञानिक
समय में खो
चुके हो, तो
तुम्हें और
पीछे ले जाकर
तुम्हें
सार्वभौम में
ले जाता है।
अब तुम कभी
क्रमागत समय
के संसार का
हिस्सा नहीं
बन पाओगे, बल्कि
तुम सार्वभौम
के हिस्से हो
जाओगे।
'इससे
वर्ग, चरित्र
या स्थान से न
पहचाने जा
सकने वाली समान
वस्तुओं में
विभेद की
योग्यता आती
है।’
एक बार
तुम परम को
जान लो तो
तुम्हारे
भीतर एक बिलकुल
भिन्न प्रकार
के शान का उदय
होता है। अभी
तो तुम
वस्तुओं को
केवल बाहर से
जानते हों—कोई
आता है तुम
कपड़ों को
देखते हो और
तुम सोचते हो, हां, वह
एक स्त्री है
या एक पुरुष
है। एक वृक्ष
को तुम देखते
हो और तुम
इसको पहचान
लेते हो—यह
चीड़ का वृक्ष
है, क्योंकि
तुम इसके बारे
में जानते हो।
एक व्यक्ति को
तुम देखते हो
और उसके
स्टेथस्कोप
के कारण तुम
यह जान लेते
हो कि वह
चिकित्सक है।
लेकिन चीजों
के ये बाह्य
संकेत हैं। वह
चिकित्सक
नहीं हो सकता
है, वह कोई
छद्य वेशधारी
भी हो सकता है।
और चीड़ का
वृक्ष चीड़ का
वृक्ष नहीं हो
सकता है, वह
चीड़ के वृक्ष
जैसा दिखाई पड़
सकता है। और वह
स्त्री
स्त्री नहीं
हो सकती है, हो सकता है
कि वह अभिनय
कर रही हो; वह
पुरुष भी हो
सकती है, वह
'शी' के
स्थान पर 'ही'
भी हो सकती
है। तुम इसके
बारे में
पूर्णत:
निश्चित नहीं
हो सकते, क्योंकि
तुम उसे केवल
बाहर से ही
जानते हो।
जब समय
खो जाता है और
शाश्वत
तुम्हें
चारों ओर से
घेर लेता है, जब समय एक
प्रक्रिया
नहीं रह जाता
बल्कि ऊर्जा
का एक कुंड, सनातन, अभी
हो जाता है, तब तुम
वस्तुओं के
भीतर प्रवेश
करने और बाहर
की परिभाषाओं
के बिना ज्ञान
में समर्थ हो
जाते हो।
यही है
जो सदगुरु और
शिष्य के मध्य
घटित होता है।
उसे वास्तव
में तुमसे
पूछने की
आवश्यकता नहीं
है। वह
तुम्हारे परम
अस्तित्व से
झांक सकता है।
तुम्हारे
भीतर वह खड़ा
हो सकता है—न
सिर्फ
तुम्हारी
आपाद मस्तक
देह में, बल्कि
तुम्हारे
अस्तित्व के
भीतर। वह
तुम्हारे
अंतर्तम
शून्य में
पूरी तरह समा जाता
है। वह तुम बन
सकता है और
वहां से देख
सकता है।
'यथार्थ
के बोध से
उत्पन्न
उच्चतम ज्ञान,
सारी
वस्तुओं और
प्रक्रियाओं
के भूत, भविष्य
और वर्तमान से
संबंधित
समस्त विषयों
की तत्क्षण
पहचान के परे
है, और यह
वैश्विक
प्रक्रिया का
अतिक्रमण कर
लेता है।’
और
प्रक्रिया के
संसार का
अतिक्रमण कर
लेता है, और सभी
प्रक्रियाओं
के संसार का
अतिक्रमण कर लेता
है।
तारक
सर्व विषय
सर्वथाविषयमक्रम
चेति विवेकजं
शानम्।
आंखों
के माध्यम से
हम
वास्तविकता
का केवल एक
भाग ही देख
सकते हैं। उस
भाग के कारण
जीवन एक
प्रक्रिया
जैसा प्रतीत
होता है।
उदाहरण के लिए, तुम सड़क
के किनारे लगे
हुए एक वृक्ष
के नीचे बैठे
हो और सड़क
सुनसान है और
तभी अचानक एक
व्यक्ति बाईं
तरफ से सड़क पर
प्रकट होता है,
वह दाईं
दिशा में चला
जाता है; कुछ
दूरी चलने के
बाद पुन: वह
निगाह से ओझल
हो जाता है।
एक व्यक्ति है
जो वृक्ष के
ऊपर चढ़ा बैठा
है; इससे
पहले कि वह
व्यक्ति
तुम्हारे
सम्मुख आए, वह उस
व्यक्ति को जो
वृक्ष पर बैठा
है, दिखाई
पड़ गया। जब वह
व्यक्ति
तुम्हारी आंखों
से ओझल हो गया
है तो उस
व्यक्ति के
लिए जो वृक्ष
पर बैठा हुआ
है वह ओझल
नहीं हुआ है; किंतु कुछ
समय के बाद वह
व्यक्ति उसके
लिए भी ओझल हो
जाएगा। लेकिन
कोई
हेलीकाप्टर
में हो; अब
उसकी दृष्टि
और दूर जाती
है; उस
व्यक्ति का
चलना जारी
रहता है—इससे
पहले जब
तुम्हें पता
लगा कि वह सड़क
पर था और उसके
बहुत बाद तक
जब वह
तुम्हारी
दृष्टि से ओझल
हो गया था।
क्या
घटित हो रहा
है? वस्तुओं
के साथ बिलकुल
ठीक यही मामला
है। जितना ऊपर
तुम उठते हो, जितना तुम
सहस्रार के
निकट पहुंचते
हों—तुम जीवन
के वृक्ष पर
चढ़ रहे हो।
सहस्रार देख
पाने के लिए उच्चतम
बिंदु है।
उससे ऊंची कोई
और ऊंचाई नहीं
है। सहस्रार
से तुम चीजों
को देखते हो, हर चीज सतत
गतिमान है और
गतिशील रहती
है। न कोई
रुकता है, न
कुछ मिटता है।
कठिन
है यह बात; यह उतनी
ही कठिन है
जैसे कोई
भौतिकविद चरम
इलेक्ट्रान, क्वांटा के
बारे में
समझाए, कि
यह तरंग और कण,
दोनों एक
साथ, बिंदु
और रेखा दोनों
हैं।
तुम एक
वायुयान में
बैठ कर गंगा
के ऊपर से उड़ान
भर रहे हो, और गंगा
बह रही है, यदि
मैं तुमसे
पूछूं क्या
गंगा एक
प्रक्रिया है?
क्या गंगा
प्रवाहित हो
रही है या यह
कि गंगा है? तुम क्या
कहोगे? तुम
कहोगे, दोनों।
तुम कहोगे, गंगा है, क्योंकि
तुम इसको एक
छोर से दूसरे
तक एक साथ ही
देख सकते हो। तुम
गंगा को
हिमालय में
देख सकते हो, तुम गंगा को
मैदानों में
देख सकते हो, तुम गंगा को
सागर में
गिरता हुआ देख
सकते हों—एक
ही साथ—अतीत, वर्तमान, भविष्य खो
गए हैं। एक
निश्चित
ऊंचाई से
देखने पर
तुम्हारे लिए
पूरी गंगा
उपलब्ध है। यह
है और फिर भी
तुम जानते हो
कि यह
प्रवाहित हो
रही है। यह
दोनों है—होना
और हो जाना, यह दोनों है,
तरंग और कण,
बिंदु और
रेखा है, और
फिर भी एक
प्रक्रिया है।
यह
विरोधाभासी
है, यह
विरोधाभासी
प्रतीत होता
है, क्योंकि
हमें नहीं पता
कि ऊंचाई से
चीजें कैसी
दिखाई पड़ती
हैं।
सूत्र
कहता है : 'यथार्थ के
बोध से
उत्पन्न
उच्चतम शान
अतिक्रमण कर
लेता है... '
यह सभी
द्वैतों का, और
प्रक्रिया की
ध्रुवीयताओं
का, स्थैतिक
और गतिशील, तरंग और कण
जीवन और
मृत्यु का, अतीत और
भविष्य का—सभी
द्वैतों का, सभी
ध्रुवीयताओं
का अतिक्रमण
कर लेता है।
यह परे है।’तारक
सर्वविषयं' —यह शान की
सभी वस्तुओं
का अतिक्रमण
कर लेता है।
'..….सभी
विषयों की तत्क्षण
पहचान को
समाहित किए
हुए है...'और
इस चेतना के
लिए 'सर्वज्ञ'
शब्द प्रयोग
किया जाता है।
यह समझने में
बहुत कठिन है,
इस बात को
समझ पाना करीब—करीब
असंभव है।
इसका
अभिप्राय है
परम समझ वाला
व्यक्ति, यदि
वह तुम्हारी
ओर देखता है, वह तुमको एक
साथ ही—जब तुम
मां के गर्भ
में थे और
तुम्हारा
जन्म हो रहा
था; इसके
साथ ही साथ
तुम बड़े हो रहे
थे और तुम
बच्चे थे, और
तुम युवक बन
गए और तुमने
एक स्त्री के
साथ विवाह
किया था, और
फिर तुम उसके
प्रेम में पड़
गए थे; फिर
तुम्हारे
यहां बच्चों
का जन्म हुआ, और तुम के हो
गए, और तुम
मर गए, और
लोग तुम्हारी
शवयात्रा में
जा रहे हैं—सभी
कुछ एक साथ
देख लेता है। सभी
कुछ एक साथ
दिखाई दे जाता
है।
समझने
में दुरूह है
यह बात लेकिन
ऐसा कैसे हो सकता
है? एक
बच्चे का जन्म
हो रहा है।
इसी क्षण अभी
उसकी मृत्यु
कैसे हो सकती
है? वह या
तो बच्चा है, या युवक है
या वृद्ध है; या तो गर्भ
में है या ताबूत
में है, या
तो पालने में
है या कब में
है। क्योंकि
यह हमारा
विभाजन है, क्योंकि हम
सच्चाई को
नहीं देख सकते।
सोवियत
रूस में एक
वैज्ञानिक ने
कलियों का इतनी
संवेदनशील
फिल्म पर
चित्र उतारा
है, ऐसा
प्रयास पहले
कभी किसी ने
नहीं किया था,
और चित्र
फूल का आया है।
चित्र कली का
उतारा गया है
लेकिन चित्र
में फूल आ गया
है। अभी भी यह
कली है। क्या
हुआ है? क्योंकि
साथ ही साथ
कली फूल भी है।
तुम इसे नहीं
देख सकते, क्योंकि
तुम केवल
खंडों में
देखते हो, पहले
तुम इसे कली
की भांति
देखते हो, फिर
कुछ
पंखुड़ियां
खुलती हैं, फिर कुछ और
खुलती हैं, फिर कुछ और
खुलती हैं, फिर पूरा
फूल खिल जाता
है। लेकिन एक
बहुत
संवेदनशील
कैमरे से
किरलियान फोटोग्राफी
ने सत्य में
गहरी
अंतर्दृष्टि
प्रदान कर दी
है। तुम एक
कली का चित्र
उतार सकते हो
और फूल का चित्र
आ जाता है।
क्योंकि जब
कली वहां है, कहीं गहरे में
कली के चारों
ओर, ऊर्जा
के रूप में
फूल पहले ही
खिल चुका है।
उसकी दृश्य
पंखुड़ियां
इसका अनुगमन
करेंगी, लेकिन
ऊर्जा
क्षेत्र पहले
ही खिल चुका
है। यह वहां
है। और बाद
में जब असली
फूल खिला; वे
यह देख कर
हैरान रह गए
कि पहले लिया
गया चित्र
आत्यंतिक रूप
से ठीक वही था।
बाद में वे
इसकी असली फूल
से तुलना कर
सके जो ठीक
पूर्व में
उतारे गए
चित्र का
प्रतिरूप था।
कभी
किसी दिन ऐसा
संभव हो सकेगा
कि हम एक बीज का
चित्र उतारें
और एक ही
चित्र न आए
बल्कि अनेक
चित्र आ जाएं
बीज का, अंकुर का, कलियों का, फूलों का, वृक्ष का, और वृक्ष के
गिर जाने का, और उस वृक्ष
के मिट जाने
का।
'तारक..
सर्वथाविषयक्रमं..
'—सामान्यत
हम प्रत्येक
चीज को क्रमिक
प्रक्रिया
में, क्रम
में, क्रमबद्ध
प्रक्रिया
में देखते हैं—एक
बच्चा युवा
होता है, युवक
वृद्ध हो जाता
है—धीरे— धीरे,
जैसे कि
पर्दे पर कोई
फिल्म धीरे—
धीरे दिखाई जा
रही हो। इसी
भांति हम इसे
देखा करते हैं।
लेकिन परम
ज्ञान पूर्ण
और निरपेक्ष
है। एक ही
क्षण में सब
कुछ उदघाटित
हो जाता है।
आमतौर
से हम अंधेरी
रात में एक
छोटी टार्च
लेकर घूमते
हैं। जब यह
टार्च हमें एक
वृक्ष दिखाती
है, तो
दूसरे वृक्ष
अंधकार में
छिपे होते हैं।
जब यह टार्च
दूसरे
वृक्षों की ओर
मुड़ती है, तो
पहले वाला
वृक्ष अंधकार
में चला जाता
है। तुम
रास्ते का
केवल एक भाग
ही देख पाते
हो। लेकिन परम
ज्ञान बिजली
चमकने की तरह
है अचानक तुम
एक दृष्टि में
ही सारा जंगल
देख लेते हो।
ये सभी
बस प्रतीक हैं।..
.हूं. .इन
प्रतीकों को
बहुत अधिक न
फैलाओ, न खींचो।
क्या घटता है,
बस वे इसका
सूक्ष्म
संकेत देने के
लिए हैं।
सच्चाई तो यह
है कि इसे कहा
ही नहीं जा
सकता।
तो
क्रमागत समय
है—राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र,
धन, वस्तुएं
बुद्धि, बाजार,
वाल
स्ट्रीट। मनोवैज्ञानिक
समय है—स्वप्न,
पुराण, काव्य,
प्रेम, कला,
भाव, चित्रकारी,
नृत्य, नाटक।
वास्तविक समय
है—अस्तित्व,
विज्ञान और
धर्म।
विज्ञान
अस्तित्व में
विषयगत दिशा
से प्रवेश
करने का
प्रयास कर रहा
है और र्ज्र,उसी
सच्चाई में
विषयीगत दिशा
से प्रवेश का
प्रयास है, और योग
दोनों का
संश्लेषण है।
'साइंस'
शब्द सुंदर
हैं, इसका
अर्थ है :
देखने की
क्षमता। इसका
बिलकुल ठीक
अर्थ वही है
जो भारतीय
शब्द 'दर्शन'
का अर्थ है।
दर्शन शब्द को
फिलासफी की
भांति
अनुवादित नहीं
किया जाना
चाहिए; इसे
और ठीक ढंग से
साइंस, देखने
की क्षमता के
रूप में
अनुवादित
करना चाहिए।
विज्ञान
परम में वस्तु
के माध्यम से
प्रविष्ट
होने का
प्रयास कर रहा
है बाहर की ओर
से। धर्म उसी
परम में विषयी
के माध्यम से
प्रविष्ट
होने का
प्रयास कर रहा
है। और योग
उच्चतम
संश्लेषण है, योग
दोनों है—धर्म
और विज्ञान
दोनों साथ—साथ।
योग
विज्ञान से
परे है और
धर्म के पार
है। योग न
हिंदू है, न
मुसलमान, न
ईसाई—यह
धर्मों के परे
है। और
निसंदेह यह
विज्ञान से भी
आगे है, क्योंकि
यह मनुष्य का
विज्ञान है—यह
स्वयं
वैज्ञानिक का
विज्ञान है।
यह परम को
स्पर्श करता
है। यही कारण
है, मैं
इसे अल्फा और
ओमेगा, आदि
और अंत, यूनियो
मिष्टिका, रहस्यमय
मिलन, परम
संश्लेषण
कहता हूं।
आज इतना
ही।
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