अध्याय—12
सूत्र—
अथ
चित्तं
समाधातुं न
शक्नोषि मयि
स्थिरम्।
अभ्यातयोगेन
नो मामिच्छाप्तुं
धनंजय।। 9।।
अभ्यासेऽध्यसमर्थोऽसि
मत्कर्मयरमो
भव।
मदर्थमीय
कमगॅण
कुर्वीन्सघ्रईमवाप्स्यीस।।
10।।
और
तू यदि मन को
मेरे में अचल
स्थापन करने
के लिए समर्थ
नहीं है, तो है
अर्जुनु
अभ्यासरूप—
योग से मेरे
को प्राप्त
होने के लिए इच्छा
कर।
और
यदि तू ऊपर कहे
हुए अभ्यास
में भी असमर्थ
है,
तो केवल मेरे
लिए कर्म करने
के ही परायण
हो। हस कार
मेरे अर्थ
कर्मो को करता
हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप
सिद्धि को ही
प्राप्त
होगा।
पहले
कुछ प्रश्न:
एक
मित्र ने पूछा
है, क्या
संसारी ईश्वर
को प्राप्त
नहीं कर सकता?
घर—बार और
स्त्री ही
क्या ईश्वर को
पाने में बाधा
है? संसारी
के लिए क्या
ईश्वर को पाने
का कोई उपाय
नहीं है?
ऐसी
भ्रांति
प्रचलित है कि
संसारी
परमात्मा को
प्राप्त नहीं
कर सकता है।
इससे बड़ी और
कोई भ्रांति
की बात नहीं
हो सकती, क्योंकि
होने का अर्थ
ही संसार में
होना है। आप
संसार में किस
ढंग से होते
हैं, इससे
फर्क नहीं
पड़ता। संसार
में होना ही
पड़ता है, अगर
आप हैं। होने
का अर्थ ही
संसार में
होना है। फिर
आप घर में
बैठते हैं कि
आश्रम में, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
घर भी
उतना ही संसार
में है, जितना आश्रम।
और आप पत्नी—बच्चों
के साथ रहते
हैं या उनको छोड़कर
भागते हैं, जहां। आप
रहते हैं, वह
भी संसार है; जहां आप
भागते हैं, वह भी संसार
है। होना है
संसार में ही।
और जब
परमात्मा भी
संसार से
भयभीत नहीं है, तो आप
इतने। क्यों
भयभीत हैं?
और जब हम
परमात्मा को
मानते हैं कि
वही कण—कण में
समाया हुआ है,
इस संसार
में भी वही है;
संसार भी
वही है...।
संसार
से भागकर वह
नहीं मिलेगा।
क्योंकि गहरे
में तो जो भाग
रहा है, वह उसे पा ही
नहीं सकेगा।
उसे तो पाता
वह है, जो
ठहर गया है।
भगोड़ों के लिए
नहीं है
परमात्मा।
ठहर जाने वाले
लोगों के लिए
है, घिर हो
जाने वाले
लोगों के लिए
है।
आप
कहां हैं, इससे
फर्क नहीं
पड़ता। अगर आप
शात हैं और
ठहरे हुए हैं,
तो वहीं
परमात्मा से
मिलन हो जाएगा।
अगर आप दुकान
पर बैठे हुए
भी शात हैं और
आपके मन में
कोई दुविधा, कोई अड़चन, कोई द्वंद्व,
कोई संघर्ष,
कोई तनाव
नहीं है, तो
उस दुकान पर
ही परमात्मा
उतर आएगा। और
आप आश्रम में
भी बैठे हो
सकते हैं, और
मन में
द्वंद्व और
दुविधा और
परेशानी हो, तो वहा भी
परमात्मा से कोई
संपर्क न हो
पाएगा।
न तो
पत्नी रोकती
है, न
बच्चे रोकते
हैं। आपके मन
की ही
द्वंद्वग्रस्त
स्थिति रोकती
है। संसार
नहीं रोकता, आपके ही मन
की
विक्षिप्तता
रोकती है।
संसार
से भागने से
कुछ भी न होगा।
क्योंकि
संसार सै
भागना एक तो
असंभव है।
जहां भी
जाएंगे, पाएंगे
संसार है। और
फिर आप तो
अपने साथ ही
चले जाएंगे, कहीं भी
भागें। घर छूट
सकता है, पत्नी
छूट सकती है, बच्चे छूट
सकते हैं। आप
अपने को छोड़कर
कहां भागिएगा?
और
पत्नी वहां
आपके कारण थी, और बच्चे
आपके कारण थे।
आप जहां भी
जाएंगे, वहा
पत्नी पैदा कर
लेंगे। आप बच
नहीं सकते। वह
घर आपने बनाया
था। और जिसने
बनाया था, वह
साथ ही रहेगा।
वह फिर बना
लेगा। आप असली
कारीगर को तो
साथ ले जा रहे
हैं। वह आप
हैं।
अगर यहां
धन को पकड़ते
थे, तो
वहा भी कुछ न
कुछ आप पकड़।
लेंगे। वह
पकड़ने वाला
भीतर है। अगर
यहां मुकदमा
लड़ते थे अपने
मकान के लिए
तो वहां आश्रम
के लिए लडिएगा।
लेकिन मुकदमा
! आप लडिएगा।
यहां कहते थे,
यह मेरा
मकान है; वहा
आप कहिएगा, यह मेरा
आश्रम है।
लेकिन वह मेरा
आपके साथ होगा।
आप भाग
नहीं सकते।
अपने से कैसे
भाग सकते हैं? और आप ही
हैं रोग। यह
तो ऐसा हुआ कि
टी बी. का मरीज
भाग खड़ा हो।
सोचे कि भागने
से टी. बी से
छुटकारा हो
जाएगा। मगर वह
टी .बी. आपके
साथ ही भाग
रही है। और
भागने में और
हालत खराब हो
जाएगी।
भागना
बचकाना है।
भागना नहीं है, जागना है।
संसार से
भागने से
परमात्मा
नहीं मिलता, और न संसार
में रहने से
मिलता है।
संसार में
जागने से
मिलता है।
संसार एक
परिस्थिति है।
उस परिस्थिति
में आप सोए
हुए हों, तो
परमात्मा को
खोए रहेंगे।
उस परिस्थिति
में आप जाग
जाएं, तो
परमात्मा मिल
जाएगा।
ऐसा
समझें कि एक
आदमी सुबह एक
बगीचे में सो
रहा है। सूरज
निकल आया है, और पक्षी
गीत गा रहे
हैं, और
फूल खिल गए
हैं, और
हवाएं सुगंध
से भरी हैं, और वह सो रहा
है। उसे कुछ
भी पता नहीं
कि क्या मौजूद
है। आंख खोले,
जागे, तो
उसे पता चले
कि क्या मौजूद
है। जब तक सो
रहा है, तब
तक अपने ही
सपनों में है।
हो
सकता है—यह
फूलों से भरा
बगीचा, यह आकाश, ये
हवाएं, यह
सूरज, ये
पक्षियों के
गीत तो उसके
लिए हैं ही
नही—हो सकता
है, वह एक
दुखस्वप्न
देख रहा हो, एक नरक में
पड़ा हो। इस
बगीचे के बीच,
इस सौंदर्य
के बीच वह एक
सपना देख रहा
हो कि मैं नरक
में सड़ रहा
हूं और आग की
लपटों में जल
रहा हूं।
जिसे
हम संसार कह
रहे हैं, वह संसार
नहीं है।
हमारा सपना, हमारा सोया
हुआ होना ही
संसार है।
परमात्मा तो
चारों तरफ
मौजूद है, पर
हम सोए हुए
हैं। वह अभी
और यहां भी
मौजूद है। वही
आपका निकटतम
पड़ोसी है। वही
आपकी धड़कन में
है, वही
आपके भीतर है;
वही आप हैं।
उससे ज्यादा
निकट और कुछ भी
नहीं है। उसे
पाने के लिए
कहीं भी जाने
की जरूरत नहीं
है। वह यहां
है, अभी है।
लेकिन हम सोए
हुए हैं।
इस
नींद को तोड़े।
भागने से कुछ
भी न होगा। इस
नींद को हटाए।
यह मन होश से
भरे, इस
मन के सपने
विदा हो जाएं,
इस मन में
विचारों की
तरंगें न रहें,
यह मन शात
और मौन हो जाए
तो आपको अभी
उसका स्पर्श
शुरू हो जाएगा।
उसके फूल
खिलने लगेंगे;
उसकी सुगंध
आने लगेगी; उसका गीत
सुनाई पड़ने
लगेगा, उसका
सूरज अभी— अभी
आपके अंधेरे
को काट देगा
और आप प्रकाश
से भर जाएंगे।
इसलिए
मेरी दृष्टि
में, जो
भाग रहा है, उसे तो कुछ
भी पता नहीं
है। यह हो
सकता है कि आप
संसार से
पीड़ित हो गए
हैं, इसलिए
भागते हों।
लेकिन संसार
की पीड़ा भी
आपका ही सृजन
है। तो आप
भागकर जहां भी
जाइएगा, वहा
आप नई पीड़ा के
स्रोत तैयार
कर लेंगे।
यह ऊपर
से दिखाई नहीं
पड़ता, तो
आप जाकर देखें।
आश्रमों में
बैठे हुए
लोगों को
देखें, संन्यासियों
को देखें। अगर
वे जागे नहीं
हैं, तो आप
उनको पाएंगे
वे ऐसी ही
गृहस्थी में
उलझे हैं जैसे
आप। और उनकी
उलझनें भी ऐसी
ही हैं, जैसे
आप। उनकी
परेशानी भी
यही है। वे भी
इतने ही
चिंतित और
दुखी हैं।
इतना
आसान नहीं
परमात्मा को
पाना कि आप घर
से निकलकर
मंदिर में आ
गए और
परमात्मा मिल
गया! कि आप
जंगल में चले
गए, और
परमात्मा मिल
गया! परमात्मा
को पाने के
लिए आपकी। जो
चित्त—अवस्था
है, इससे
निकलना पड़ेगा
और एक नई
चित्त—अवस्था
में प्रवेश
करना पड़ेगा।
ये
ध्यान और
प्रार्थनाएं
उसके ही मार्ग
हैं कि आप
कैसे बदलें।
आम हमारी मन
की यही तर्कना
है कि
परिस्थिति को
बदल लें, तो सब हो जाए।
हम जिंदगी भर
इसी ढंग से
सोचते हैं।
लेकिन
परिस्थिति
हमारी
उत्पन्न की
हुई है।
मनःस्थिति
असली चीज है, परिस्थिति
नहीं।
एक
आदमी गाली
देता है, तो आप सोचते
हैं, इसके
गाली देने से
दुख होता है, पीड़ा होती
है, क्रोध
होता है। इस
आदमी से हट
जाएं, तो न
क्रोध होगा, न पीड़ा होगी,
न अपमान
होगा, न मन
में संताप
होगा।
लेकिन
जो आदमी गाली
देता है, वह क्रोध
पैदा नहीं
करता। क्रोध
तो आपके भीतर
है; उसको
केवल हिलाता
है। आप भाग
जाएं; क्रोध
को आप भीतर ले
जा रहे हैं।
अगर कोई आदमी
न होगा, तो
आप चीजों पर
क्रोध करने
लगेंगे।
लोग
दरवाजे इस तरह
लगाते हैं, जैसे
किसी दुश्मन
को धक्का मार
रहे हों! लोग जूतों
को गाली देते
हैं और फेंकते
हैं। लोग
लिखती हुई कलम
को जमीन पर, फर्श पर पटक
देते हैं।
क्रोध में
चीजें. एक कलम
क्या क्रोध
पैदा करेगी? एक दरवाजा
क्या क्रोध
पैदा करेगा?
लेकिन
क्रोध भीतर
भरा है। उसे
आप निकालेंगे; कोई न कोई
बहाना आप
खोजेंगे। और
बहाने मिल
जाएंगे।
बहानों की कमी
नहीं है। तब
फिर आप
सोचेंगे, इस
परिस्थिति से
हटूं तो शायद
किसी दिन शात
हो जाऊं। तो
आप जन्मों—जन्मों
से यही कर रहे
हैं, परिस्थिति
को बदलो और
अपने को जैसे
हो वैसे ही सम्हाले
रही!
आप अगर
रहे, तो
आप ऐसा ही
संसार बनाते
चले जाएंगे।
आप स्रष्टा
हैं संसार के।
मन को बदलें; वह जो भीतर
चित्त है, उसको
बदलें। अगर
कोई गाली देता
है, तो
उससे यह अर्थ
नहीं है कि
उसकी गाली आप
में क्रोध
पैदा करती है।
उसका केवल
इतना ही अर्थ
है, क्रोध
तो भीतर भरा
था, गाली
चोट मार देती
है और क्रोध
बाहर आ जाता
है। ऐसे ही
जैसे कोई कुएं
में बालटी
डाले और पानी भरकर
बालटी में आ
जाए। बालटी
पानी नहीं
पैदा करती, वह कुएं में
भरा हुआ था।
खाली कुएं में
डालिए बालटी,
खाली वापस लौट
आएगी।
बुद्ध
में, महावीर
में गाली
डालिए, खाली
वापस लौट आएगी।
कोई
प्रत्युत्तर
नहीं आएगा।
वहां क्रोध
नहीं है।
और
आपको जो आदमी
गाली देता है, अगर समझ
हो, तो
आपको उसका
धन्यवाद करना
चाहिए कि आपके
भीतर जो छिपा
था, उसने
बाहर निकालकर
बता दिया।
उसकी बड़ी कृपा
है। वह न
मिलता, तो
शायद आप इसी
खयाल में रहते
कि आप अक्रोधी
हैं, बड़े
शांत आदमी हैं।
उसने मिलकर
आपकी असली
हालत बता दी
कि भीतर आप क्रोधी
हैं; बाहर—बाहर,
ऊपर—ऊपर से
रंग—रोगन किया
हुआ है। सब
व्हाइट—वाश है;
भीतर आग जल
रही है। यह
आदमी मित्र है,
क्योंकि
इसने आपके रोग
की खबर दी। यह
आदमी डाक्टर
है, इसने
आपका निदान कर
दिया। इसकी
डायग्नोसिस
से पता चल गया
कि आपके भीतर क्या
छिपा है। इसे
धन्यवाद दें
और अपने को
बदलने में लग
जाएं।
पत्नी
आपको नहीं
बांधे हुए है।
स्त्री के
प्रति आपका
आकर्षण हैं, वह
बांधेगा।
पत्नी से क्या
तकलीफ है न: या
पति से क्या
तकलीफ है? आप
भाग सकते हैं।
लेकिन आकर्षण
तो भीतर भरा
है। कोई दूसरी
स्त्री उसे छू
लेगी, और
वह आकर्षण फिर
फैलना शुरू हो
जाएगा। फिर आप
संसार खड़ा कर
लेंगे।
वह जो
बेटा है आपका, वह आपको
बांधे हुए
नहीं है। बेटे
से आप बंधे
हैं, क्योंकि
आप अपने को
चलाना चाहते
हैं मृत्यु के
बाद भी। बेटे
के कंधों से
आप जीना चाहते
हैं। आप तो मर
जाएंगे; यह
पता है कि यह
शरीर गिरेगा;
तो आप अब
बेटे के सहारे
इस जगत में
रहना चाहते हैं।
कम से कम नाम
तो रहेगा मेरा
मेरे बेटे के
साथ! वह आपको
बांधे हुए है।
बेटे
को छोड़कर भाग
जाइए; शिष्य
मिल जाएगा।
फिर आप उसके
सहारे संसार
में बचने की
कोशिश में लग
जाएंगे। बाकी
कोशिश वही
रहेगी, जो
आप भीतर हैं।
नाम बदल
जाएंगे, रंग
बदल जाएंगे, लेबल बदल
जाएंगे, लेकिन
आप इतनी आसानी
से नहीं बदलते
हैं।
तो
ध्यान रखें, क्षुद्र
धर्म
परिस्थिति
बदलने की
कोशिश करता है।
सत्य धर्म
मनःस्थिति
बदलने की
कोशिश करता है।
आप बदल जाएं, जहां भी हैं।
और आप पाएंगे,
संसार मिट
गया। आप बदले
कि संसार खो
जाता है; और
जो बचता है, वही
परमात्मा है।
यहीं संसार की
हर पर्त के
पीछे वह छिपा
है।
आपको
संसार दिखाई
पड़ता है, क्योंकि आप
संसार को ही
देखने वाला मन
लिए बैठे हैं।
जो आपको दिखाई
पड़ रहा है, वह
आपके कारण
दिखाई पड़ रहा
है। जैसे ही
आप बदले, आपकी
दृष्टि बदली,
देखने का
ढंग बदला, संसार
तिरोहित हो
जाता है और आप
पाते हैं कि चारों
तरफ वही है।
फिर वृक्ष में
वही दिखाई
पड़ता है और
पत्थर में भी
वही दिखाई
पड़ता है।
मित्र में भी
वही दिखाई
पड़ता है और
शत्रु में भी
वही दिखाई
पड़ता है। फिर
जीवन का सारा
विस्तार उसका
ही विस्तार है।
संसार
आपकी दृष्टि
के अतिरिक्त
और कहीं भी नहीं
है। और
परमात्मा भी
आपकी दृष्टि के
ही अनुभव में
उतरेगा; आपके दृष्टि
के परिवर्तन
में उतरेगा।
क्रांति
चाहिए आंतरिक, भीतरी, स्वयं को
बदलने वाली।
भागने में समय
खराब करने की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
भागने में
व्यर्थ उलझने
की कोई भी
जरूरत नहीं है।
संसार
परमात्मा को
पाने का अवसर
है; एक
मौका है। उस
मौके का उपयोग
करना आना
चाहिए। सुना
है मैंने कि
एक घर में एक
बहुत पुराना
वाद्य रखा था,
लेकिन घर के
लोग पीढ़ियों
से भूल गए थे
उसको बजाने की
कला। वह कोने
में रखा था।
बड़ा वाद्य था।
जगह भी घिरती
थी। घर में
भीड़ भी बढ़ गई
थी। और आखिर
एक दिन घर के
लोगों ने तय
किया कि यह उपद्रव
यहां से हटा
दें।
वह
उपद्रव हो गया
था। क्योंकि
जब संगीत
बजाना न आता
हो और उसके
तारों को
छेड़ना न आता
हो.। तो कभी
बच्चे छेड़
देते थे, तो घर में
शोरगुल मचता
था। कभी कोई
चूहा कूद जाता,
कभी कोई
बिल्ली कूद
जाती। आवाज
होती। रात
नींद टूटती।
वह उपद्रव हो
गया था।
तो
उन्होंने एक
दिन उसे उठाकर
घर के बाहर
कचरेघर में
डाल दिया।
लेकिन वे लौट
भी नहीं पाए
थे कि कचरेघर
के पास से अनूठा
संगीत उठने
लगा। देखा, राह चलता
एक भिखारी उसे
उठा लिया है
और बजा रहा है।
भागे हुए वापस
पहुंचे और कहा
कि लौटा दो।
यह वाद्य
हमारा है। पर
उस भिखारी ने
कहा, तुम
इसे फेंक चुके
हो कचरेघर में।
अगर यह वाद्य
ही था, तो
तुमने फेंका
क्यों? और
उस भिखारी ने
कहा कि वाद्य
उसका है, जो
बजाना जानता
है। तुम्हारा
वाद्य कैसे
होगा?
जीवन
एक अवसर है।
उससे संगीत भी
पैदा हो सकता
है। वही संगीत
परमात्मा है।
लेकिन बजाने
की कला आनी
चाहिए। अभी तो
सिर्फ उपद्रव
पैदा हो रहा
है, पागलपन
पैदा हो रहा
है। आप गुस्सा
होते हैं कि
इस वाद्य को छोड़कर
भाग जाओ, क्योंकि
यह उपद्रव है।
यह
वाद्य उपद्रव
नहीं है। एक
ही है जगत का
अस्तित्व। जब? बजाना आता
है, तो वह
परमात्मा
मालूम पड़ता है।
जब बजाना नहीं
आता, तो वह
संसार मालूम
पड़ता है।
अपने
को बदलें। वह
कला सीखें कि
कैसे इसी
वाद्य सै
संगीत उठ आए।
और कैसे ये
पत्थर
प्राणवान हो
जाएं। और कैसे
ये एक—एक फूल
प्रभु की
मुस्कुराहट
बन जाएं। धर्म
उसकी ही कला
है।
तो जो
धर्म भागना
सिखाता है, समझना कि
वह धर्म ही
नहीं है। कहीं
कोई भूल—चूक
हो रही है। जो
धर्म
रूपांतरण, आंतरिक
क्रांति
सिखाता है, वही
वास्तविक
विज्ञान है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि आपने
बताया कि
बेहोशी में
किया हुआ
कृत्य पाप है।
लेकिन भाव से
भी तो बेहोशी
होती है? कृपया
समाधान कीजिए।
बेहोशी
बेहोशी में
बड़ा फर्क है।
एक बेहोशी
नींद में होती
है, तब
आपको कुछ भी
पता नहीं होता।
एक बेहोशी
शराब पीने से
भी होती है, तब भी आपको
कुछ पता नहीं
होता। एक
बेहोशी भाव से
भी होती है, आप पूरे
बेहोश भी होते
हैं और आपको
पूरा पता भी
होता है। जब
आप मग्न होकर
गीत में नाच
रहे होते हैं,
तो यह नृत्य
भी होता है, इस नृत्य
में पूरा डूबा
हुआ होना भी
होता है, और
भीतर दीए की
तरह चेतना भी
जलती है, जो
जानती है, जो
देखती है, जो
साक्षी होती
है।
अगर
आपके भाव में
बेहोशी शराब
जैसी आ जाए, तो आप।
समझना कि चूक
गए। तो समझना
कि यह भाव भी
फिर शराब ही हो
गई।
प्रार्थना
में बेहोशी का
मतलब इतना है
कि आप इतने
लीन हो गए हैं
कि मैं हूं, इसका कोई
पता नहीं है।
मैं हूं,
इसका कोई शब्द
निर्मित नहीं
होता। लेकिन
जो भी हो रहा
है, उसके
आप साक्षी हैं।
जो साक्षी है,
उसमें कोई
मैं का भाव
नहीं है। और
वह जो साक्षी
है, वह आप
नहीं हैं; आप
तो लीन हो गए
हैं। और आपके
लीन होने के
बाद जो भीतर
असली आपका स्वरूप
है, वह भर
देखता है। उस
दर्शन में, उस द्रष्टा
के होने में, जरा भी
बेहोशी नहीं
है।
भाव की
बेहोशी में
आपके जो—जो
रोग हैं, वे सो गए
होते हैं, और
आपके भीतर जो
शुद्ध चेतन है,
वह जाग गया
होता है।
जब
चैतन्य नाच
रहे हैं
सड्कों पर, तो आप यह
मत सोचना कि
वे बेहोश हैं।
हालांकि वे
कहते हैं कि
मैं बेहोश हूं।
और हालांकि वे
कहते हैं कि
हमने शराब पी
ली परमात्मा
की। वे सिर्फ
इसलिए कहते
हैं कि आप
इन्ही
प्रतीकों को
समझ सकते हैं।
उमर
खय्याम ने कहा
है कि अब हमने
ऐसी शराब पी
ली है, जिसका
नशा कभी न
उतरेगा। और अब
बार—बार पीने
की कोई जरूरत
न रहेगी। अब
तो पीकर हम
सदा के लिए खो
गए हैं।
शराब
का उपयोग किया
है प्रतीक की
तरह। क्योंकि
आप एक ही तरह
का खोना जानते
हैं, जिसमें
आपकी सारी
चेतना ही
शून्य हो जाती
है।
भाव
में शराब का
थोड़ा—सा
हिस्सा है।
आपकी सब
बीमारियां सो
जाती हैं, आपका
अहंकार सो
जाता है, आपका
मन सो जाता है,
आपके विचार
सो जाते हैं।
लेकिन आप? आप
पूरी तरह जाग
गए होते हैं
और भीतर पूरा
होश होता है।
लेकिन यह तो
अनुभव से ही
होगा, तो
ही खयाल में
आएगा। यह तो
बात जटिल है।
यह तो आपको
कैसे खयाल में
आएगी! भाव में
डूबकर देखें।
लेकिन
हम डरते हैं।
डर यही होता
है, कहीं
अगर भाव में
पूरे डूब गए, तो जो—जो
हमने दबा रखा
है, अगर वह
बाहर निकल पड़ा,
तो लोग क्या
कहेंगे! डरते
हैं हम, क्योंकि
हमने बहुत कुछ
छिपा रखा है।
और हमने चारों
तरफ से अपने
को बांध रखा
है नियंत्रण
में। तो कहीं
नियंत्रण
ढीला हो गया, और जरा—सा भी
कहीं छिद्र हो
गया, और
हमने जो रोक
रखा है, वह
बाहर निकल पड़ा
तो? उस भय
के कारण हम
अपने को कभी
छोड़ते नहीं, समर्पण नहीं
करते।
हम
कहीं भी अपने
को शिथिल नहीं
करते। हम
चौबीस घंटे
डरे हुए हैं
और अपने को
सम्हाले हुए
हैं। यह जिंदगी
नरक जैसी हो
जाती है।
इसमें सिवाय
संताप के और
विष के कुछ भी
नहीं बचता। यह
रोग ही रोग का
विस्तार हो
जाता है।
खुलें, फूल की तरह
खिल जाएं।
माना कि बहुत—सी
बीमारियां
आपके भीतर पड़ी
हैं। लेकिन आप
उनको जितना
सम्हाले
रखेंगे, उतनी
ही वे आपके
भीतर बढ़ती
जाएंगी। उनको
भी गिर जाने
दें। उनको भी
परमात्मा के
चरणों मै
समर्पित कर
दें। और आप
जल्दी ही
पाएंगे कि
बीमारियां हट
गईं और आपके
भीतर फूल का
खिलना शुरू हो
गया। आपके
भीतर का कमल
खिलने लगा।
जिस
दिन यह भीतर
का कमल खिलना
शुरू होता है, उसी दिन
पता चलता है
कि बेहोशी भी
है और होश भी है।
एक तल पर हम बिलकुल
बेहोश हो गए
हैं, और एक
तल पर हम पूरी
तरह होशवान हो
गए हैं। ये
घटनाएं एक साथ
घटती हैं।
शराब
में हम केवल
बेहोश होते
हैं, कोई
होश नहीं होता।
इसलिए कुछ
साधकों ने तो
इस भाव की
जागरूकता को
पाने के बाद
शराबें पीकर
भी देखी हैं, कि क्या
हमारी इस भाव
की जागरूकता
को शराब डुबा
सकती है?
आपको
पता हो या न हो, योग और
तंत्र के ऐसे
संप्रदाय रहे
हैं, जहां
कि शराब भी
पिलाई जाएगी।
जब भाव की
पूरी अवस्था आ
जाएगी और साधक
कहेगा कि अब
मैं बाहर से
तो बिलकुल
बेहोश हो जाता
हूं लेकिन
मेरा भीतर होश
पूरा बना रहता
है, तो फिर
गुरु उसको
शराब भी
पिलाएगा, अफीम
भी खिलाएगा।
और धीरे— धीरे
बेहोशी की, मादकता की
मात्रा बढ़ाई
जाएगी और उससे
कहा जाएगा कि
यहां बाहर
बेहोशी घेरने
लगे, शरीर
बेहोश होने
लगे, तो भी
तू भीतर अपने
होश को मत
खोना।
और यह
बात यहां तक
प्रयोग की गई
है कि सब तरह
की शराब और सब
तरह के मादक
द्रव्य पीकर
भी साधक भीतर
होश में बना
रहता है, तब फिर सांप
को भी कटवाते
हैं उसकी जीभ
पर; कि जब
सांप काट ले, उसका जहर भी
पूरे शरीर में
फैल जाए, तो
भी भीतर का
होश जरा भी न
डिगे, तभी
वे मानते हैं
कि अब तूने उस
होश को पा
लिया, जिसको
मौत भी न हिला
सकेगी।
पर
अनुभव के बिना
कुछ खयाल न आ
सकेगा। थोड़ा
भाव में डूबना
सीखें। भाव
में जो डूबता
है, वह उबर
जाता है। और
भाव से जो
बचता है, वह
डूब ही जाता
है, नष्ट
ही हो जाता है।
लेकिन
कुछ चीजें हैं, जो समझ से
नहीं समझाई जा
सकतीं। कोई
उपाय नहीं है।
और जितनी
भीतरी बात
होगी, उतना
ही अनुभव पर
निर्भर रहना
पड़ेगा।
अगर
मेरे पैर में
दर्द है, तो आपको
मानना ही
पड़ेगा कि दर्द
है। और क्या
उपाय है! और
अगर मैं आपको
समझाने जाऊं और
आपके पैर में
कभी दर्द न
हुआ हो, तो
बड़ी मुश्किल
हो जाएगी। मैं
कितना ही कहूं
कि पैर में
दर्द है, लेकिन
आपको अगर दर्द
का कोई अनुभव
नहीं है, तो
शब्द ही सुनाई
पड़ेगा; अर्थ
कुछ भी समझ
में न आएगा।
आपको भी दर्द
हो, तो ही..।
अनुभव को शब्द
से हस्तांतरित
करने की कोई
भी सुगमता
नहीं है।
बुद्ध
के पास कोई
आया और उसने
कहा कि जो
आपको हुआ है, थोड़ा
मुझे भी
समझाएं। तो
बुद्ध ने कहा
कि समझा मैं न
सकूंगा। तुम
रुको और
वर्षभर जो मैं
कहूं वह करो।
समझ में आ
जाएगा।
क्योंकि
जब तक भीतर
प्रतीति न हो
इस बात की कि
सब बेहोशी हो
गई है और फिर
भी भीतर कोई
जागा है, दीया जल रहा
है, तब तक
कैसे, तब
तक आप बाहर से
ही देखेंगे।
तो आप बाहर से
नाचते हुए
देखेंगे मीरा
को, तो
आपको लगेगा कि
बेहोश है, होश
नहीं है इसे।
लगेगा ही।
कपड़ा गिर गया।
साड़ी का पल्लू
हरि गया। अगर
होश होता, तो
मीरा अपना
पल्लू
सम्हालती, कपड़ा
सम्हालती।
होश में नहीं
है, बेहोश
है।
निश्चित
ही, शरीर
के तल पर
बेहोशी है:।
कपड़े के तल से
होश हट गया है।
वहां मीरा अब
नहीं है। न
कपड़े में है, न शरीर में
है। भीतर कहीं
सरक गई है।
लेकिन वहा होश
है।
पर यह
तो आप भी मीरा
हो जाएं, तभी खयाल
में आए, अन्यथा
कैसे खयाल में
आए! मीरा के
भीतर झांकने
का कोई भी
उपाय नहीं है।
कोई खिड़की—दरवाजा
नहीं, जिससे
हम भीतर झांक
सकें। अगर
मीरा के भीतर
झांकना है, तो अपने ही
भीतर झांकना
पड़े, और
कोई उपाय नहीं
है। बुद्ध को
समझना हो, तो
बुद्ध हुए
बिना कोई
रास्ता नहीं
है।
इसलिए
शिष्य जब तक
गुरु ही नहीं
हो जाता, तब तक गुरु
को नहीं समझ
पाता है। कैसे
समझेगा? अलग—अलग
तल पर खड़े हुए
लोग हैं। वे
अलग भाषाएं
बोल रहे हैं।
अलग अनुभवों
की बातें कर
रहे हैं। तब
तक
मिसअंडरस्टैंडिंग
ज्यादा होगी,
नासमझी
ज्यादा होगी,
समझ कम होगी।
अगर सच में ही
समझना चाहते
हैं, तो
प्रयोग की
हिम्मत
जुटानी चाहिए।
विज्ञान
भी प्रयोग पर
निर्भर करता
है और धर्म भी।
दोनों
एक्सपेरिमेंटल
हैं। विज्ञान
भी कहता है कि
जाओ
प्रयोगशाला
में और प्रयोग
करो। और जब
तुम भी पाओ कि
ऐसा होता है, तो ही
मानना, अन्यथा
मत मानना।
धर्म भी कहता
है कि जाओ
प्रयोगशाला
में, प्रयोग
करो। हालांकि
प्रयोगशालाएं
दोनों की अलग
हैं। विज्ञान
की प्रयोग
शाला बाहर है,
धर्म की
प्रयोगशाला
भीतर है। आप
ही हो धर्म की
प्रयोगशाला।
इसलिए
विज्ञान की
प्रयोगशाला
तो निर्मित करनी
पड़ती है, और आप अपनी
प्रयोगशाला
अपने साथ लिए
चल रहे हो।
नाहक ढो रहे
हो वजन। बड़ा
अदभुत यंत्र
आपको मिला है,
उसमें आप
प्रयोग कर लो,
तो अभी आपको
खयाल में आ
जाए कि क्या
हो सकता है।
भाव की बेहोशी
बहुत गहन होश
का नाम है। वह
किसी दूसरे तल
पर होश है, जागरूकता
है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि अपने आप
को भगवान के
चरणों में
समर्पित कर
देने के बाद
क्या सुख—दुख
के भाव हममें
नहीं उठेंगे? उन्हें
उठने देने से
रोकने का क्या
उपाय है?
फिर आपको
रोकने की
जरूरत नहीं, जब भगवान
के चरणों में
समर्पित ही कर
दिया। तो
समर्पण पूरा
नहीं कर रहे
हैं। पीछे आप
भी इंतजाम
रखेंगे अपना
जारी! हमें खयाल
नहीं है कि हम
क्या सोचते
हैं, किस
ढंग से सोचते
हैं! अगर अपने
को भगवान के
हाथ में
समर्पण कर
दिया, तो
फिर सुख—दुख
के भाव उठेंगे
या नहीं, यह
भी भगवान पर
छोड़ दें। क्या
पहले तय कर लेंगे,
फिर समर्पण
करेंगे? तब
तो समर्पण
झूठा हो जाएगा,
सशर्त, कंडीशनल
हो जाएगा।
क्या भगवान से
यह कहकर
समर्पण
करेंगे कि
समर्पण करता
हूं लेकिन
ध्यान रहे, अब सुख—दुख
का भाव नहीं
उठना चाहिए!
अगर उठा, तो
समर्पण वापस
ले लूंगा। रह
कर दूंगा
काट्रेक्ट।
यह कोई
समझौता तो
नहीं है कि आप
इसमें शर्त
रखेंगे।
समर्पण का
मतलब है, बेशर्त। आप
कहते हैं, छोड़ता
हूं तुम्हारे
हाथ में। अब
दुख देना हो
तो दुख देना, मैं राजी
रहूंगा।
समर्पण का
मतलब यह है।
सुख देना तो
सुख देना, मैं
राजी रहूंगा।
दोनों छीन
लेना, राजी
रहूंगा।
दोनों जारी
रखना, राजी
रहूंगा। मेरी
तरफ से, तुम
कुछ भी करो, राजीपन
रहेगा।
समर्पण का यह
अर्थ है। तुम
क्या करोगे, अब मैं उस पर
कोई विचार न
करूंगा। मैं
सिर्फ राजी
रहूंगा।
यह जो
राजीपन है...।
स्वीकार कर
लूंगा कि
तुम्हारी
मर्जी है, जरूर कुछ
बात होगी, जरूर
कुछ लाभ होगा।
सुख—दुख कैसे
बचेंगे! जिस
आदमी ने अपने
को छोड़ दिया, उसके सुख—दुख
बच सकते हैं?
सुख—दुख
है क्या? आपकी अपने
आप पर पकड़ ही
तो जड़ में है।
और समर्पण में
आप अपनी पकड़
छोड़ते हैं। जो
आदमी कहता है
कि सुख होगा
तो राजी, दुख
होगा तो राजी,
क्या उसको
सुख—दुख हो
सकते हैं? सवाल
यह है। कैसे
हो सकते हैं!
क्योंकि सुख
का मतलब ही
होता है कि
चाहता हूं।
दुख का मतलब
होता है, नहीं
चाहता हूं।
सुख का मतलब
होता है, कहीं
छिन न जाए, यह
भय। दुख का
मतलब होता है,
कहीं टिक न
जाए, यह भय।
समर्पण
का अर्थ है, सुख तो
राजी, दुख
तो राजी। सुख
छिन जाए तो
राजी, दुख
बना रहे तो
राजी। सुख—दुख
बचेंगे कैसे?
सुख—दुख के
बचने की
आधारशिला खो
गई।
सुख है
क्या? जिसको
आप चाहते हैं।
दुख है क्या? जिसको आप
नहीं चाहते
हैं। और कभी
आपने खयाल
किया कि कैसा
चमत्कार है कि
आज जिसे आप
चाहते हैं, वह सुख है; और कल अगर न
चाहें, तो
वही दुख हो
जाता है। और
आज जिसे आप
नहीं चाहते थे,
वह दुख था; और कल अगर आप
उसी को चाहने
लगें, तो
सुख हो जाता
है।
एक
प्रेमी है। वह
कहता है कि इस
स्त्री के
बिना मैं जी न
सकूंगा। यही
मेरा सुख है।
और लगता है
उसे कि इसके
बिना मैं नहीं
जी सकूंगा। और
कल शादी हो
जाती है। और
परसों वह
अदालतों में
घूम रहा है कि
तलाक कैसे
करूं! स्त्री
वही है। पहले
कहता था, इसके बिना न
जी सकूंगा। अब
कहता है, इसके
साथ न जी
सकूंगा। वह कल
सुख था, आज
दुख हो गया।
और आप ऐसा मत
सोचना, कुछ
हैरानी की बात
नहीं है। ऐसी
घटनाएं घटती
हैं।
मेरे
एक परिचित हैं।
स्पेन में
रहते हैं।
उन्होंने
अपनी पत्नी को
तलाक दिया और
दो साल बाद
उसी स्त्री से
दुबारा शादी
कर ली! पहले सुख
पाया, फिर
दुख पाया। दो
साल उसके बिना
रहे, और
फिर लगा कि वह
सुख है। जब
उन्होंने
मुझे खबर की, तो मैंने
कहा कि तुम
पहले अनुभव से
कुछ भी सीखे
नहीं मालूम
पड़ता। यह
स्त्री कभी
सुख थी, फिर
दुख हो गई थी।
अभी फिर सुख
हो गई है!
कितनी देर
चलेगा? और
कब दुख हो जाए,
ज्यादा देर
नहीं चलेगा
मामला।
क्योंकि
व्यक्ति वे
वही के वही
हैं। फिर दुख
हो जाएगा।
इतने
दूर जाने की
जरूरत नहीं है।
आपकी पत्नी ही
थोड़े दिन मायके
चली जाती है, तो सुखद
मालूम पड़ने
लगती है। लौट
आती है, तो
देखते ही से
फिर तबीयत
घबडाती है कि
वापस आ गई!
दूरी
सुख के भावों
को जन्म देने
लगती है, निकटता
उबाने लगती है।
जो भी हमारे
पास है, उससे
ही हम ऊब जाते
हैं। तो ऐसा
कुछ नहीं है
कि कोई चीज
सुख है और कोई
चीज दुख है।
भाव! आपका भाव
अगर चाह का है,
तो सुख है; और अगर
बेचाह का हो
गया, तो
दुख है। चीज
वही हो, इससे
कोई भी अंतर
नहीं पड़ता है।
लेकिन
समर्पण करने
वाले ने अपनी
चाह छोड़ दी, अपना भाव
छोड़ दिया। अब
उसे दुख देना
मुश्किल है।
अब उसे सुख
देना भी
मुश्किल है।
और जिस
व्यक्ति को
सुख और दुख
दोनों देना
मुश्किल हो
जाता है, वही
आनंद को
उपलब्ध होता
है।
आनंद
सुख नहीं है।
शब्दकोश में
ऐसा ही लगता
है, भाषा
में ऐसा ही
लगता है कि
महासूख का नाम
आनंद है।
भूलकर भी ऐसा
मत सोचना।
आनंद का सुख
से उतना ही
संबंध है, जितना
दुख से। या
उतना ही संबंध
नहीं है। आनंद
का अर्थ है, जहां सुख—दुख
दोनों व्यर्थ
हो गए वह
चित्त की दशा।
समर्पण
के बाद आनंद
है। लेकिन अगर
न हो, तो
समझना कि
समर्पण नहीं
है। यह मत
समझना कि
समर्पण के बाद
आनंद नहीं है।
समर्पण के बाद
आनंद न हो, तो
समझना कि
समर्पण नहीं
है। समर्पण के
बाद आनंद है
ही। समर्पण
शरीर है और
आनंद उसकी
आत्मा है।
लेकिन समर्पण
पूरा होना
चाहिए।
पूरे
समर्पण का
अर्थ है कि अब
मेरा कोई
चुनाव नहीं।
अब मैं नहीं
कहता, यह
मिले, अब
मैं यह नहीं
कहता, यह न
मिले। अब मैं
हूं ही नहीं।
अब मेरा कोई
निर्णय नहीं
है। अब मैंने
अपनी बागडोर
उसके हाथ में
डाल दी है। वह
पूरब ले जाए
तो ठीक, पश्चिम
ले जाए तो ठीक,
कहीं न ले
जाए तो ठीक।
जो भी वह करे, ठीक। मेरी
ही बेशर्त है।
वह जो भी
कहेगा, मैं
कहूंगा, हा।
फिर
चिंता आपको
नहीं रह जाएगी
कि सुख—दुख के
भाव उठेंगे, तो हम
उनको कैसे
रोकेंगे। आप
ही न बचेंगे, उनको रोकने
की आपको कोई
भी जरूरत न रह
जाएगी। वे भी
न बचेंगे।
आपके साथ ही
समाप्त हो
जाएंगे। वे
आपके ही संगी—साथी
हैं।
अहंकार
का ही पहलू है
एक सुख, और एक दुख।
अहंकार को जो
बात रुचती है
वह सुख, जो
बात नहीं
रुचती वह दुख।
अहंकार खो
जाता है, दोनों
भी खो जाते
हैं। जो शेष
रह जाता है, उसको
नियंत्रण
करने की जरूरत
भी नहीं है।
और
जिसने
परमात्मा के
हाथ में अपनी
नाव छोड़ दी, अब उसको
अपने साथ
नियंत्रण की
समझदारी ले
जाने की जरूरत
नहीं है। उसकी
समझदारी अब
काम भी नहीं
पडेगी।
एक
मित्र ने पूछा
है, आपकी
बातों को
समझने के लिए
तो बुद्धि की
ही आवश्यकता
पड़ती है, तो
इस अवसर पर
बुद्धि को ही
प्राथमिकता
देनी चाहिए या
भाव को? क्या
सिर्फ भाव को
प्रधानता
देने से आपकी
बातें समझ में
आ जाएंगी?
निश्चित ही, मेरी बात
समझनी है, तो
बुद्धि से
समझनी पड़ती है।
लेकिन अगर
मेरी बात अनुभव
करनी है, तो
भाव से करनी
पड़ेगी। समझ के
लिए बुद्धि
जरूरी है।
लेकिन समझ
अनुभव नहीं है।
अगर समझ पर ही
रुक गए और
समझदार होकर
ही रुक गए, तो
आप बड़े नासमझ
हैं।
मैं जो
कह रहा हूं
उसे समझने के
लिए बुद्धि की
जरूरत है।
लेकिन मैं जो
कह रहा हूं
उसका अनुभव
करने के लिए
भाव की जरूरत
है। तो बुद्धि
से समझ लेना, और फिर
भाव से करने
में उतर जाना।
अगर बुद्धि पर
ही रुक गए और
भाव तक न गए, तो वह समझ
बेकार हो गई
और मैं आपका
दुश्मन साबित
हुआ। आप वैसे
ही काफी बोझ
से भरे थे और
मैंने थोड़ा
बोझ बढ़ा दिया।
आपके
मस्तिष्क पर
ऐसे ही काफी
कूड़ा—करकट
इकट्ठा है, उसमें मैंने
और थोड़ा
उपद्रव जोड़
दिया।
बुद्धि
का काम है समझ
लेना। लेकिन
वहीं रुक जाना
बुद्धिमान का
लक्षण नहीं है।
समझकर उसे
प्रयोग में ले
आना और भाव
में उतार देना, अनुभव
बना लेना।
और जब
तक कोई चीज
अनुभव न बन
जाए, तब
तक ऐसी ही
हालत होती है
कि आप कोई चीज
पेट में गटक
लें और पचा न
पाएं। तो
बीमारी पैदा
करेगी, विजातीय
हो जाएगी, जहर
बन जाएगी, और
शरीर से बाहर
निकालने का
उपाय करना
पड़ेगा। लेकिन
आप कोई चीज
चबाएं, ठीक
से पचाएं, तो
खून बनती है, मांस—मज्जा
बनती है।
बीमारी नहीं
होती, फिर
उससे
स्वास्थ्य
पैदा होता है।
बुद्धि
का काम है कि
आपके भीतर ले
जाए लेकिन भाव
का काम है कि
पचाए। और जब
तक आप भाव से
पचा न सकें, डायजेस्ट
न कर सकें, तब
तक सब ज्ञान
जहर हो जाता
है। तो अच्छा
हो कि अपने
कान बंद कर
लेना चाहिए।
जो बात भाव
में न उतारनी
हो, उसे न
सुनना ही
बेहतर है।
क्या सार है?
हम
खाने में
उन्हीं चीजों
को खाते हैं, जिन्हें
हमें पचाना है।
जिन्हें नहीं
पचाना है, उन्हें
नहीं खाते।
नहीं खाना
चाहिए, क्योंकि
उन्हें खाने
का अर्थ है कि
हम पेट पर व्यर्थ
का बोझ डाल
रहे हैं और
शरीर की
व्यवस्था को
रुग्ण कर रहे
हैं। और अगर
इस तरह की
चीजें हम खाते
ही चले जाएं, तो हम शरीर
को पूरी तरह
नष्ट कर
डालेंगे। तो
भोजन हमारा
जीवन नहीं
बनेगा, मृत्यु
बन जाएगा।
शब्द
भी भोजन हैं।
आप ऐसा मत
सोचना कि सुन
लिया। सुन
लिया नहीं, आपके
भीतर चली गई
बात। अब आप इससे
बच नहीं सकते।
कुछ करना
पड़ेगा। या तो
इसे पचाना
पड़ेगा और या
फिर
यह आपके
भीतर बीमारी
पैदा करेगी।
बहुत
लोग ज्ञान से
बीमार हैं।
उनको ज्ञान का
अपच हो गया है।
काफी सुन लिया
है, पढ़
लिया है, चारों
तरफ से इकट्ठा
कर लिया है और
पचाने की उन्हें
कोई सुध—बुध
नहीं है। वे
भूल ही गए कि
पचाना भी है।
अब वह सब
पत्थर की तरह
उनकी छाती पर
बैठ गया है।
उससे तो बेहतर
है सुनना ही
मत, पढ़ना
ही मत। जब लगे
कि पचाने की
तैयारी है, तो!
बुद्धि
भीतर ले जाने
का द्वार है।
भाव पचाने की
व्यवस्था है।
सुनें, बुद्धि से
समझें, और
भाव तक
पहुंचने दें।
निश्चित
ही, बुद्धि
दो तरह के काम
कर सकती है।
या तो भाव तक
पहुंचने दे और
या बाहर ठेलने
की कोशिश करे,
भीतर न आने
दे। अगर आप
सिर्फ तर्क का
ही भरोसा करते
हों, तो
आपकी बुद्धि
चीजों को बाहर
धक्का देना
शुरू कर देगी।
क्योंकि जो
बात तर्क की
पकड़ में नहीं
आएगी, बुद्धि
कहेगी, भीतर
मत लाओ। और
जितनी कीमती
बातें हैं, कोई भी तर्क
की पकड़ में
नहीं आतीं।
क्योंकि तर्क
की पकड़ में
वही बात आ
सकती है, जो
केवल तर्क हो।
अनुभव की कोई
भी बात तर्क
की पकड़ में
नहीं आ सकती।
तर्क और अनुभव
का कहीं मेल
नहीं होता।
एक
अंधा आदमी है, उसको प्रकाश
नहीं दिखाई
पड़ता। आप उसको
कितना ही तर्क
करिए, समझ
में नहीं आ
सकता। वह
इनकार करता
चला जाएगा। वह
तर्क देगा, आपको गलत
सिद्ध करेगा।
उसकी बुद्धि
अगर तर्क से
ही चले...।
हम सब
भी ऐसा ही कर
रहे हैं
परमात्मा के
संबंध में।
तर्क से ही
चलते हैं, इनकार
करते चले जाते
हैं। इनकार का
एक अवरोध खड़ा
हो जाता है।
फिर कोई चीज
भीतर प्रवेश
नहीं करती।
तर्क पहले ही
कह देता है, बेकार है।
गणित में नहीं
आती। अनुभव की
बात रहस्य
मालूम पड़ती है।
यह अपनी सीमा
नहीं। तर्क कह
देता है, इसे
बाहर छोड़ो।
बुद्धि
दूसरा काम कर
सकती है कि
द्वार बन जाए।
जो अनुभव में
आने योग्य हो, चाहे
तर्क की समझ
में न भी आता
हो, उस पर
भी प्रयोग
करने की
हिम्मत
सदबुद्धि है।
नहीं तो
बुद्धि
दुर्बुद्धि
हो जाती है।
तर्क कुतर्क
हो जाता है।
नहीं, मुझे
अनुभव में
नहीं है, लेकिन
मैं प्रयोग
करके देखूंगा।
हजार
चीजें हैं, जो आपके
अनुभव में
नहीं हैं।
लेकिन आप
प्रयोग करके
देखें, तो
आपका अनुभव बढ़
सकता है। और
अनुभव में
चीजें आ सकती
हैं। और न आएं
अनुभव में, तो मत मानना।
लेकिन अनुभव
के पहले इनकार
कर देना
अज्ञान है।
तो
ईश्वर को, आत्मा को,
मुक्ति को,
आनंद को, अद्वैत को
बिना अनुभव के
इनकार कर देना
अज्ञान है।
अनुभव का एक
मौका अपने को
दें। अब तक
जिसने भी
अनुभव किया, वह इनकार
नहीं कर पाया।
और जिन्होंने
इनकार किया, उन्होंने
अनुभव नहीं
किया, सिर्फ
तर्क से ही
बात चलाई है।
तर्क
बड़े खतरनाक हो
सकते हैं और
गलत चीजों के पक्ष
में भी दिए जा
सकते हैं। सही
चीजों के
विपरीत भी दिए
जा सकते हैं।
मैंने सुना है
कि मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने लड़के का
विवाह करना
चाहता था। एक
धनी लड़की थी—कुरूप, बेडौल, बदशक्ल।
मुल्ला का
इरादा धन पर
था। तो अपने
लड़के को कहा
कि सुना तूने,
सुलताना से
तेरे विवाह की
बात चलाई है।
लड़के
ने कहा, सुलताना!
क्या मतलब? गांव के
नगरसेठ की
लड़की? उससे?
लेकिन उसे
तो कम दिखाई
पड़ता है!
मुल्ला
ने कहा, अभागे, अपने
को भाग्यवान
समझ। पत्नी को
कम दिखाई पड़ता
हो, इससे
ज्यादा अच्छी
बात पति के
लिए और क्या
हो सकती है! तू
सदा स्वतंत्र
रहेगा। जो भी
करना हो कर।
पत्नी को कुछ
दिखाई भी नहीं
पड़ेगा।
लड़का
थोड़ा चौंका।
उसने कहा, लेकिन
मैंने सुना है
कि वह तुतलाती
भी है, हकलाती
भी है!
मुल्ला
ने कहा, अगर मुझे
शादी करनी
होती दोबारा,
तो मैं ऐसी
ही स्त्री से
शादी करता। यह
तो भगवान का
वरदान समझ।
क्योंकि
स्त्री अगर
तुतलाए, हकलाए
तो ज्यादा
बोलने की
हिम्मत नहीं
जुटाती। पति शांति
से जीता है!
उसके
लड़के ने कहा, लेकिन
मैंने तो सुना
है कि वह बहरी
भी है! उसे ठीक
सुनाई भी नहीं
पड़ता!
नसरुद्दीन
ने कहा कि
नालायक, मैं तो
सोचता था
तुझमें थोड़ी
बुद्धि है।
अरे, पत्नी
बहरी हो, इससे
बेहतर और क्या।
तू गाली दे, चिल्ला, नाराज
हो, वह कुछ
भी नहीं समझ
पाएगी।
लड़के
ने आखिरी बार
हिम्मत जुटाई।
उसने कहा, यह भी सब
ठीक। लेकिन
उसकी उम्र
मुझसे बीस साल
ज्यादा है!
मुल्ला
ने कहा, एक छोटे—से
दोष के लिए कि
वह बीस साल
पहले पैदा हुई,
इतना महान
अवसर चूकता
है! इतनी—सी
छोटी—सी बात
को नाहक शोर—गुल
मचाता है! ऐसी
सुंदर स्त्री
तेरे लिए ढूंढ
रहा हूं और तू
छोटी—सी बात
कि बीस साल
ज्यादा है! तो
दुनिया में पूर्णता
तो कहीं भी
नहीं होती।
आदमी
किस—किस बात
के लिए क्या—क्या
तर्क नहीं खोज
सकता है! ऐसी
कोई बात आपने
सुनी, जिसके
विपरीत तर्क न
खोजा जा सके? या ऐसी कोई
बात सुनी, जिसके
पक्ष में तर्क
न खोजा जा सके?
तर्क का
अपना कोई पक्ष
नहीं है, न
कोई विपक्ष है।
तर्क तो नंगी
तलवार है।
उससे मित्र को
भी काट सकते
हैं, शत्रु
को भी काट
सकते हैं। और
चाहें तो अपने
को भी काट
सकते हैं।
तलवार का कोई
आग्रह नहीं है
कि किसको
काटें।
इसलिए
जरा तलवार
सम्हालकर हाथ
में लेना।
उससे क्या काट
रहे हैं, थोड़ा सोच
लेना। बहुत—से
लोग अपने ही
तर्क से खुद
को काट डालते
हैं।
तर्क
का उपयोग करना, अगर वह
अनुभव की तरफ
ले जाए। तर्क
का उपयोग करना,
अगर वह जीवन
की गहराई की
तरफ ले जाए।
तर्क का उपयोग
करना, अगर
वह शिखरों का
दर्शन कराए।
तर्क का उपयोग
करना, अगर
वह गहराइयों
में उतारे।
अगर तर्क
गहराइयों में
उतरने से
रोकता हो, तो
ऐसे तर्क को
कुतर्क समझना;
छोड़ देना, क्योंकि वह
आत्महत्या है।
मेरी
बात बुद्धि से
समझें। लेकिन
वह बात केवल
बुद्धि की नहीं
है। बुद्धि का
हम उपयोग कर
रहे हैं एक
माध्यम की तरह, एक साधन
की तरह। वह
बात भाव की है।
और जब तक आपके
भाव में न आ
जाए, तब तक
यात्रा अधूरी
है। और यात्रा
शुरू ही करनी
हो, तो
मंजिल तक जाने
की चेष्टा
करनी चाहिए।
क्योंकि तभी
रहस्य खुलता
है।
आखिरी
प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है कि क्या यह
संभव है कि
अहंकार से भरे
हुए इस जगत
में कोई
व्यक्ति निरहंकारी
होकर जी सके
और सफल भी हो
सके? क्या
जहां सारे लोग
अहंकार से भरे
हैं, वहां
निरहंकारी
होकर जीना
धारा के
विपरीत तैरना
न होगा? क्या
इससे अड़चन, कठिनाइयां,
असफलताएं न
आएंगी?
थोडा समझें।
पहली तो बात
कि क्या
अहंकार से भरे
हुए इस जगत में
कोई व्यक्ति
निरहंकारी
होकर सफल हो
सकता है? निरहंकार
सफलता की मांग
नहीं करता। अहंकार
सफलता की मांग
करता है।
निरहंकार
सफलता की मांग
ही नहीं करता।
सफलता
का मतलब क्या
है? सफलता
का मतलब है कि मैं
दूसरों से आगे।
सफलता का मतलब
है कि क्या
मैं दूसरों को
असफल कर
सकूंगा? सफलता
का मतलब है, क्या मैं
दूसरों को
पीछे छोड़कर
उनके आगे खड़ा
हो सकूंगा? सफलता का
अर्थ है, महत्वाकांक्षा,
एंबीशन। ये
सब तो अहंकार
के लक्षण हैं।
अहंकार कहता
है कि मुझे
आगे खड़े होना
है, नंबर
एक होना है।
नंबर दो में
बड़ी पीड़ा है।
पंक्ति में
पीछे खड़ा हूं
क्यू में, तो
भारी दुख है।
जितना पीछे
हूं उतनी पीड़ा
है। नंबर एक
होना है।
अहंकार
की खोज
महत्वाकांक्षा
की खोज है। और
जब मुझे नंबर
एक होना है, तो
दूसरों को
मुझे हटाना
पड़ेगा; और
दूसरों को
मुझे रौंदना
पड़ेगा; और
दूसरों के
सिरों का मुझे
सीढ़ियों की
तरह उपयोग
करना पड़ेगा; और दूसरों
के ऊपर, छाती
पर चढ़कर मुझे
आगे जाना
पड़ेगा।
सिंहासनों के
रास्ते लोगों
की लाशों से
पटे हैं।
तो
अहंकार की तो
खोज ही यही है
कि मैं सफल हो
जाऊं। तो आपको
खयाल में नहीं
है। जब आप
पूछते हैं कि
अगर मैं निरहंकारी
हो जाऊं, तो क्या मैं
सफल हो सकूंगा?
इसका मतलब
हुआ कि आप
निरहंकारी भी
सफल होने के
लिए होना
चाहते हैं! तो
आप चूक गए बात
ही।
निरहंकारी
होने का अर्थ
यह है कि
सफलता का
मूल्य अब मेरा
मूल्य नहीं है।
मैं कहां खड़ा
हूं इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
मैं पंक्ति
में सबसे पीछे
खड़ा हूं तो भी
उतना ही
आनंदित हूं
जितना प्रथम
खड़ा हो जाऊं।
जीसस
ने कहा है, इस जगत
में जो सबसे
पीछे खड़े हैं,
मेरे प्रभु
के राज्य में
वे सबसे प्रथम
होंगे। लेकिन
इस जगत में जो
सबसे पीछे खड़े
हैं!
निरहंकार
का मतलब है कि
पीछे खड़े होने
में भी मुझे
उतना ही मजा
है। मेरे मजे
में कोई फर्क
नहीं पड़ता। वह
मेरे खड़े होने
में है। मेरे
होने में मेरा
मजा है।
लाओत्से
ने कहा है, मुझे कभी
कोई हरा न सका,
क्योंकि
मैं लड़ने के
पहले ही हारा
हुआ हूं। मेरा
कोई कभी अपमान
न कर सका,
क्योंकि
मैंने अपने
मान की कोई
चेष्टा नहीं
की। और सभाओं
में जहां लोग
जूते उतारते
हैं, वहां
मैं बैठ जाता हूं, ताकि कभी
किसी को उठाने
का मौका न आए।
तो लाओत्से ने
कहा है कि
मेरी विजय
असंदिग्ध है।
मुझे कोई हरा
नहीं सकता, क्योंकि मैं
लड़ने के पहले
ही हार जाता
हूं। मैं हारा
ही हुआ हूं।
निरहंकार
का अर्थ है कि
जो कहता है, हमने
तुम्हारे
लड़ने की
नासमझी, विजय
की मूढ़ता, तुम्हारा
संघर्ष, तुम्हारी
महत्वाकांक्षा,
इसका
पागलपन अच्छी
तरह समझ लिया
और अब हम इसमें
सम्मिलित
नहीं हैं।
निरहंकार सफल
नहीं होना
चाहता।
इसका
यह मतलब नहीं है
कि वह सफल
होगा नहीं।
बारीक फासले
हैं।
निरहंकार सफल
नहीं होना
चाहता, लेकिन इसका
यह मतलब नहीं
है कि वह सफल
नहीं होगा।
वही सफल होता
है। लेकिन
उसकी सफलता की
यात्रा का पथ
बिलकुल दूसरा
है।
लोग धन
इकट्ठा कर
लेते हैं बाहर
का। निरहंकारी
भीतर के धन को
उपलब्ध हो जाता
है। लोग बाहर
की विजय
इकट्ठी कर
लेते हैं। निरहंकारी
भीतर उस जगह
पहुंच जाता है, जहां कोई
हार संभव नहीं
है। लोग जीवन
के लिए सामान
जुटा लेते हैं,
निरहंकारी
जीवन को ही पा
लेता है। लोग
क्षुद्र को
इकट्ठा करने
में समय
व्यतीत कर
देते हैं, लड़ते
हैं, झगड़ते
हैं; निरहंकारी
विराट से जुड़
जाता है।
निरहंकार
की सफलता
अदभुत है।
लेकिन वह
सफलता का आयाम
दूसरा है। उसे
कौड़ियों में, रुपए—पैसे
में नहीं तौला
जा सकता। इस
संसार की
सफलता से उस
सफलता का कोई
सीधा संबंध
नहीं है।
लेकिन इस
संसार में भी
निरहंकारी से
ज्यादा शात और
आनंदित आदमी
नहीं पाया जा
सकता।
तो अगर
आप सफल होना
चाहते हैं, तो कृपा
करके अहंकार
के रास्ते पर
ही चलें। अगर
आपको सफलता की
मूढ़ता दिखाई
पड़ गई है कि सफल
होकर भी कौन
सफल हुआ है? कौन
नेपोलियन, कौन
सिकंदर, कहां
है? किसने
क्या पा लिया
है? अगर
आपको यह समझ
में आ गया हो, तो सफलता
शब्द को छोड़
दें। वह
अज्ञानपूर्ण
है। बच्चों के
लिए शोभा देता
है। आप सफलता
की बात ही छोड़
दें।
किसी
से आगे होने
का मतलब भी
क्या है? और आगे होकर
भी क्या
करिएगा? आगे
ही क्यू में
खड़े हो गए, तो
वहां है क्या?
जो आगे खड़े
हो जाते हैं, बड़ी मुश्किल
में पड़ जाते हैं।
क्योंकि फिर
उनको तकलीफ यह
होती है कि अब
क्या करें!
सिकंदर
से किसी ने
कहा था कि अगर
तू सारी दुनिया
जीत लेगा, तो तूने
कभी सोचा है
कि फिर क्या
करेगा! तो सिकंदर
एकदम उदास हो
गया था और
उसने कहा कि
नहीं, मुझे
यह खयाल नहीं
आया। लेकिन
तुम ऐसी बात
मत करो। इससे
मन बड़ा उदास
होता है। कि
अगर मैं सारी
दुनिया जीत
लूंगा, तो
कोई दूसरी
दुनिया तो है
नहीं। तो फिर
मैं क्या
करूंगा!
पूछें
राष्ट्रपतियों
से, प्रधानमंत्रियों
से कि जब वे
क्यू के आगे
पहुंच जाते
हैं, तो
वहां कोई बस
भी नहीं जिस
पर सवार हो
जाएं। वहा कुछ
भी नहीं है।
बस, क्यू
के आगे खड़े
हैं। और पीछे
से लोग धक्का
दे रहे हैं, क्योंकि वे
आगे आने की
कोशिश कर रहे
हैं। और वह जो
आगे आ गया है, उसकी हालत
ऐसी हो जाती
है कि अब वह यह
भी नहीं कह
सकता कि अपनी
पूंछ कट गई; यहां आकर
कुछ मिला नहीं।
और अब पीछे
लौटने में भी
बेचैनी मालूम
पड़ती है कि अब
क्यू में कहीं
भी खड़ा होना बहुत
कष्टपूर्ण
होगा। इसलिए
वह कोशिश करता
है कि जमा रहे
वहीं।
लेकिन
वह अकेला ही
तो नहीं है।
सारी दुनिया
वहीं पहुंचने
की कोशिश कर
रही है। तो
पीछे धक्के
हैं! लोग टांग
खींच रहे हैं।
सब उतारने की
कोशिश में लगे
हैं। सब मित्र
भी शत्रु हैं
वहां।
क्योंकि वे जो
आस—पास खड़े
हैं, वे
सब वहीं
पहुंचना चाह
रहे हैं।
इसलिए
राजनीतिज्ञ
का कोई दोस्त
नहीं होता। हो
नहीं सकता। सब
मित्र शत्रु
होते हैं।
मित्रता ऊपर—ऊपर
होती है, भीतर
शत्रुता होती
है। क्योंकि
वे भी उसी जगह
के लिए, क्यू
में नंबर एक
आने की कोशिश
में लगे हैं।
इसलिए
राजनीतिज्ञ
को जितना अपने
शत्रुओं से सावधान
रहना पड़ता है, उससे
ज्यादा अपने
मित्रों से।
क्योंकि
शत्रु तो काफी
दूर रहते हैं,
उनके आने
में काफी वक्त
लगता है। उतनी
देर में कुछ
तैयारी हो
सकती है।
मित्र बिलकुल
करीब रहते हैं।
जरा—सा धक्का
और वे छाती पर
सवार हो
जाएंगे। तो
उनको ठिकाने
पर रखना पड़ता
है चौबीस घंटे।
तो
प्राइम
मिनिस्टर्स
का काम इतना
है कि अपने कैबिनेट
के मित्रों को
ठिकाने पर रखे।
कि कोई भी जरा
ज्यादा न हो
जाए! और जरा
ज्यादा अकड़ न
दिखाने लगे, और जरा
तेजी में न आ
जाए कोई। तेजी
में आया, तो
उसको दुरुस्त
करना एकदम
जरूरी है।
क्योंकि वह
वही काम कर
रहा है, जो
कि पहले इन
सज्जन ने किया
था! तो यह जो
मूढ़ता है, जिसको
दिखाई पड़ जाए—चाहे
धन का हो, चाहे
पद का हो, चाहे
यश का हो—जिसको
यह मूढ़ता
दिखाई पड़ जाए
कि यह
विक्षिप्तता
है, कि
पहले पहुंचकर
करिएगा क्या!
तो आदमी
निरहंकार की
यात्रा पर
चलता है।
निरहंकार
सफलता—असफलता
की व्यर्थता
का बोध है।
लेकिन तब
सफलता होती है।
पर वह आंतरिक
है। हो सकता
है, इस
जगत में उसका
कोई
मूल्यांकन भी
न हो। बुद्ध
को कितनी
सफलता मिली, हम कैसे
आंके? क्योंकि
बैंक बैलेंस
तो कुछ है
नहीं। बुद्ध
को कुछ मिला
कि नहीं मिला,
हम कैसे
पहचानें? क्योंकि
इतिहास में
कहीं कोई
मूल्यांकन
नहीं हो सकता।
जो मिला है, वह कुछ
दूसरे आयाम, किसी दूसरे
डायमेंशन का
है। इस जगत
में उसकी कोई
पहचान नहीं है।
लेकिन
फिर भी हमको
उसकी सुगंध
लगती है। बुद्ध
के उठने में, बैठने
में हमें लगता
है कि कुछ मिल
गया है। उनकी आंखों
में लगता है
कि कुछ मिल
गया है। उनका
मौन, उनकी
शांति, उनका
आनंद! जीवन
में उनका अभय,
जीवन के
प्रति उनकी
गहन आस्था!
मृत्यु से भी
जरा—सा संकोच
नहीं। खो जाने
की सदा तैयारी।
जैसे वह पा
लिया हो, जो
खोता ही नहीं
है। अमृत का
कोई अनुभव
उन्हें हुआ है।
उसकी हमें
सुगंध, उसकी
थोड़ी झलक, उसकी
भनक, उनके
स्पर्श से, उनकी
मौजूदगी से
लगती है।
लेकिन संसार
की भाषा में
उसे तौलने का
कोई उपाय नहीं,
कोई तराजू
नहीं, कोई
कशिश नहीं कि
नाप लें, जांच
लें, क्या
मिला है।
सफलता
तो निरहंकार
की है। सच तो
यह है कि
सिर्फ
निरहंकार ही
सफल होता है।
लेकिन वे फल, जो
निरहंकार की
सफलता में
लगते हैं, आंतरिक
हैं, भीतरी
हैं। संसार की
सफलता
निरहंकार की
सफलता नहीं है।
लेकिन संसार
की कोई सफलता
सफलता ही नहीं
है।
तो यह
मत पूछें। और
यह भी मत
पूछें कि इतने
जहां लोग
अहंकार से भरे
हैं, अगर
हम इन सबके
विपरीत बहने
लगें, तो
बड़ी अड़चन
होगी! आप गलती
में हैं।
अहंकार का
मतलब ही होता
है, धारा
के विपरीत
बहना। अहंकार
का मतलब होता
है कि नदी से
विपरीत बहना।
नदी की धार बह
रही है पश्चिम
की तरफ, तो आप
बह रहे हैं
पूरब की तरफ।
अहंकार का
मतलब ही होता
है, उलटे
जाना।
क्योंकि लड़ने
में अहंकार का
रस है। जब
धारा से कोई
विपरीत लड़ता
है, तभी तो
पता चलता है
कि मैं हूं।
जब आप नदी में
धारा के साथ
बहते हैं, तो
कैसे पता
चलेगा कि आप
हैं! जब आप
लड़ते हैं धारा
से, तब पता
चलता है कि
मैं हूं।
तो
अहंकार है, जीवन की
धारा के
विपरीत।
निरहंकार है,
धारा के साथ।
माना कि और सब
लोग जो ऊपर की
तरफ जा रहे
हैं धारा में,
आप उनसे
नीचे की तरफ
जाएंगे।
लेकिन आप यह
मत सोचिए कि
इससे वे दुखी
होंगे। इससे
वे प्रसन्न
होंगे, क्योंकि
एक कापिटीटर
कम हुआ, एक
प्रतियोगी
अलग हटा।
इसलिए
आप जरा देखें, अहंकारी
भी निरहंकारियो
को सम्मान देते
हैं!
राजनीतिज्ञ
भी कभी साधु
के चरणों में
आकर बैठता है।
यह आदमी अलग
हट गया मैदान
से। एक दुश्मन
कम हुआ। इसने
लड़ाई छोड़ दी।
यह बहने लगा
धारा में।
तो
आपको लगता है
कि आप विपरीत धारा
में बहेंगे निरहंकारी
होकर, तो
गलत लगता है।
आप अहंकारी
होकर धारा के
विपरीत बह रहे
हैं, जीवन
की धारा के
विपरीत। निरहंकारी
होकर आप जीवन
की धारा में
बहेंगे। ही, और
अहकारियों के
विपरीत आप
जाएंगे, लेकिन
इससे कोई अड़चन
न होगी। अड़चन
हो सकती है, अगर आप
निरहंकार से
भी संसार का
धन, संसार
की प्रतिष्ठा
और पद पाना
चाहते हों। तो
हो सकती है।
सुना
है मैंने, एक
सम्राट
प्रार्थना कर
रहा था एक
मंदिर में।
वर्ष का पहला
दिन था और
सम्राट वर्ष
के पहले दिन
मंदिर में
प्रार्थना
करने आता था।
वह प्रार्थना
कर रहा था और
परमात्मा से
कह रहा था कि
मैं क्या हूं!
धूल हूं तेरे
चरणों की। धूल
से भी गया
बीता हूं।
पापी हूं।
मेरे पापों का
कोई अंत नहीं
है। दुष्ट हूं
क्रूर हूं
कठोर हूं। मैं
कुछ भी नहीं
हूं। आई एम
जस्ट ए नोबडी,
ए नथिंग।
बड़े भाव से कह
रहा था।
और तभी
पास में बैठा
एक फकीर भी
परमात्मा से प्रार्थना
कर रहा था और
वह भी कह रहा
था कि मैं भी
कुछ नहीं हूं।
आई एम नोबडी, नथिंग।
सम्राट को
क्रोध आ गया।
उसने कहा, लिसेन,
हू इज
क्लेमिंग दैट
ही इज नथिंग? एंड बिफोर
मी! सुन, कौन
कह रहा है कि
मैं कुछ भी
नहीं हूं? और
मेरे सामने!
जब कि मैं कह
रहा हूं कि
मैं कुछ भी
नहीं हूं तो
कौन
प्रतियोगिता
कर रहा है?
जो
आदमी कह रहा
है, मैं
कुछ भी नहीं हूं, वह भी इसकी
फिक्र में लगा
हुआ है कि कोई
दूसरा न कह दे
कि मैं कुछ भी
नहीं हूं। कोई
प्रतियोगिता
न कर दे। अब जब
तुम कुछ भी
नहीं हो, तो
अब क्या
दिक्कत है! अब
क्या डर है!
लेकिन कहीं
दूसरा इसमें
भी आगे न निकल
जाए!
अहंकार
के खेल बहुत
सूक्ष्म हैं।
तो अगर आप
किसी निरहंकारी
से कहें कि
तुमसे भी बड़े निरहंकारी
को मैंने खोज
लिया है, तो उसको भी
दुख होता है, कि अच्छा, मुझसे बड़ा? मुझसे बड़ा
भी कोई विनम्र
है? तुम
गलती में हो।
मैं आखिरी हूं।
उसके आगे, मुझसे
बड़ा विनम्र
कोई भी नहीं
है। उसको भी
पीड़ा होती है।
निरहंकारी को
भी लगता है कि
मुझसे आगे कोई
न निकल जाए! तो
फिर यह अहंकार
की ही यात्रा
रही। फिर यह
निरहंकार
झूठा है, थोथा
है।
निरहंकार
का मतलब है, हम प्रतियोगिता
के बाहर हट गए।
अब हमसे कोई
आगे—पीछे कहीं
भी हो, इससे
कोई प्रयोजन
नहीं है। हम
अपने होने से
राजी हो गए।
अब हमारी
दूसरे से कोई
स्पर्धा नहीं
है।
निरहंकार
का मतलब है, मैं जैसा
हूं हूं। अब
मैं किसी के
आगे और पीछे
अपने को रखकर
नहीं सोचता।
अब मैं अपनी तुलना
नहीं करता हूं।
और मेरा मूल्य
मैं तुलना से
नहीं आंकता
हूं।
जिस
दिन कोई
व्यक्ति अपना
मूल्य तुलना
से नहीं आंकता, उसने
संसार के
तराजू से अपने
को हटा लिया।
लेकिन ऐसा
व्यक्ति
परमात्मा की आंखों
में मूल्यवान
हो जाता है।
जो व्यक्ति
पड़ोसियों की आंखों
का मूल्य खोने
को राजी है, वह परमात्मा
की आंखों में
मूल्यवान हो
जाता है। और
जो व्यक्ति
पडोसियों की आंखों
में ही अपने
मूल्य को थिर
करने में लगा
है, उसका
कोई मूल्य
परमात्मा की आंखों
में नहीं हो
सकता है।
यहां
से जो हटता है
प्रतियोगिता
से, तत्क्षण
परमात्मा के
हाथों में
उसका गौरव है।
इसलिए जीसस ने
कहा कि जो यहां
अंतिम हैं, वे मेरे
प्रभु के
राज्य में
प्रथम हो
जाएंगे।
लेकिन
आप अंतिम होने
की कोशिश
इसलिए मत करना
कि प्रभु के
राज्य में
प्रथम होना
है! नहीं तो आप
अंतिम हो ही
नहीं रहे हैं।
जीसस जिस दिन
पकड़े गए और
जिस दिन, दूसरे दिन
उनकी मौत हुई,
रात जब उनके
शिष्य उन्हें
छोड़ने लगे, तो एक शिष्य
ने उनसे पूछा
कि जाते—जाते
यह तो बता दो!
माना कि
तुम्हारे
प्रभु के राज्य
में हम प्रथम
होंगे, लेकिन
हम भी बारह
हैं। तो सबसे
प्रथम कौन
होगा? माना
कि तुम तो
प्रभु के
पुत्र हो, तो
बिलकुल
सिंहासन के
बगल में
बैठोगे।
लेकिन
तुम्हारे बगल
में कौन
बैठेगा?
वे
बारह जो शिष्य
हैं, उनको
भी चिंता है
कि वहां बारह
की पोजीशन!
कौन कहां
बैठेगा? तो
बात ही चूक गई।
जीसस को खो गए।
फिर जीसस को
समझे ही नहीं।
प्रभु
के राज्य में
प्रथम होंगे, यह
परिणाम है, अगर आप अंतिम
होने को राजी
हैं। लेकिन
अगर यह आपकी
वासना है, तो
यह कभी भी
नहीं होगा।
क्योंकि तब आप
अंतिम होने को
राजी ही नहीं
हैं। तब तो आप
प्रथम ही होने
को राजी हैं।
यह संसार हो
कि वह संसार
हो, कहीं
भी, लेकिन
होना प्रथम है।
आप लगे हैं
उपद्रव में
प्रतियोगिता
के।
निरहंकार
का अर्थ है कि
परमात्मा की आंखों
में जैसा भी
मैं हूं, मैं आनंदित
हूं। और अब
मैं किसी से
तुलना नहीं
करता हूं। और
मैं छोड़ता हूं
प्रतियोगिता।
यह समझ, यह
बोध जिसे आ
जाए, फिर वह
इसकी फिक्र
नहीं करेगा कि
क्या तकलीफें
होंगी। कोई
तकलीफ न होगी।
सब तकलीफें
अहंकार से
होती हैं। निरहंकारी
को कोई भी
तकलीफ नहीं है।
चुभता ही
कांटा, अहंकार
के घाव में है।
एक
आदमी निकला और
उसने नमस्कार
नहीं किया।
रोज करता था।
तकलीफ शुरू हो
गई! कुछ भी
नहीं था। यह
हाथ जोड़ लेता
था, तो
क्या मिलता
था! और आज नहीं
जोड़े, तो
क्या तकलीफ हो
रही है। किसी
ने गाली दे दी,
तो तकलीफ हो
गई! किसी ने
जरा ढंग से न
देखा, तो
तकलीफ हो गई!
रास्ते से जा
रहे थे, कोई
हंसने लगा, तो तकलीफ हो
गई! कहां, यह
घाव है कहां?
यह
आपका अहंकार
है, जिसमें
यह घाव है। तो
आप सोचते हैं
कि कोई हंस
रहा है, तो
बस, मुझे
ही सोचकर हंस
रहा है। कोई
गाली दे रहा
है, तो
मुझे नीचे
उतार रहा है।
आप ऊपर चढ़े
क्यों हैं? कोई गाली भी
देकर कितना
नीचे उतारेगा?
आप उससे
पहले ही नीचे
खड़े हो जाएं।
कोई
सम्मान नहीं
कर रहा है, तो पीड़ा
हो रही है।
क्योंकि
सम्मान की मांग।
दुख दूसरा रहा।
दुख का घाव आप
पहले बनाए हैं;
दूसरा तो
घाव को छू रहा
है सिर्फ।
अहंकार
छूटते ही
पीड़ा का
विसर्जन हो
जाता हे। आपका
घाव ही समाप्त
हो गया।
आपने
खयाल किया है, अगर पैर
में चोट लग
जाए किसी दिन,
तो फिर
दिनभर उसी जगह
चोट लगती है।
लेकिन आपने
खयाल किया कि
सारी जमीन आपके
घाव की इतनी
फिक्र कर रही
है! दरवाजे से
निकलें, तो
दरवाजा उसी
में चोट मारता
है। कुर्सी के
पास जाएं, तो
कुर्सी उसमें
चोट मारती है।
बच्चे से बात
करने लगें, तो बच्चा उस
पर पैर रख
देता है। यह
मामला क्या है
कि सारी
दुनिया को पता
हो गया है कि
आपके पैर में
चोट लगी है! और
सब उसी को चोट
मार रहे हैं।
किसी
को पता नहीं
है। लेकिन आज
आपको चोट लगती
है, क्योंकि
घाव है। कल भी
लगती थी, लेकिन
पता नहीं चलता
था, क्योंकि
घाव नहीं था।
कल भी इस
बच्चे ने यहीं
पैर रखा था, और यह
कुर्सी कल भी
यहीं छू गई थी,
लेकिन तब
आपको पता भी नहीं
चला था, क्योंकि
घाव नहीं था।
अहंकार
घाव है। फिर
हर चीज—उसी
में लगती है।
आप तैयार ही
खड़े हैं कि आओ
और लगो! और जब
तक कुछ न लगे, तब तक
आपको बेचैनी
लगती है कि आज
बात क्या है, कुछ लग नहीं
रहा है! और हर
आदमी सम्हला
हुआ चल रहा है
कि कोई न कोई लगाने
आ रहा है।
इतनी
भीड़ है, इतनी बड़ी
दुनिया है, किसी को
मतलब है आपसे!
कोई आपको चोट
पहुंचाने को
उत्सुक नहीं
है। और अगर
कोई पहुंचा भी
देता है, तो
वह चोट आपको
इसलिए
पहुंचती है कि
आप घाव तैयार
रखे हैं। नहीं
तो पता भी
नहीं चलता।
ठीक था, किसी
ने गाली दी और
आप अपने
रास्ते पर चले
गए।
बुद्ध
को लोगों ने
गालियां दी
हैं। तो बुद्ध
ने कहा है कि
जब तुम गाली
देते हो, तब मैं
सोचता हूं कि
तुम किसको
गाली दे रहे
हो! इस शरीर को?
तो यह तो
मिट ही जाएगा।
और जो मिट ही
जाने वाला है
उसके साथ गाली
का क्या लेना—देना!
तुम मुझको
गाली दे रहे
हो? तुम्हें
मेरा क्या पता
होगा? तुम्हें
अपना ही पता
नहीं है। तो
मैं सोचता हूं
और हंसता हूं
कि क्या हो
गया है!
स्वामी
राम कहते थे
कि कोई उन्हें
गाली दे दे, तो वे
हंसते हुए आते
थे और कहते थे,
आज बाजार
में बड़ा मजा आ
गया! राम को
लोग गालियां
देने लगे। और
हम खडे होकर
हंसने लगे कि अच्छे
फंसे राम! और
चाहो नाम, उपद्रव
होगा!
जब वे
पहली दफा
अमेरिका गए, तो लोग
समझे नहीं कि
वे किसको राम
कहते हैं। वे
खुद को ही राम
कहते थे, खुद
के शरीर को।
वे कहते कि
राम को आज बड़ी
भूख लगी है, हम बड़े
हंसने लगे। या
राम को लोगों
ने गालियां
दीं, और हम हंसने
लगे। तो लोग
पूछते कि आप
किसकी बात कर
रहे हैं? तो
वे कहते, इस
राम की। इसको
जब गाली पड़ती
है, तो हम
पीछे खड़े होकर
हंसते हैं कि
देखो, अब
क्या होता है!
अब यह राम
क्या करता है!
यह अहंकार अब
क्या करता है!
अगर आप
पीछे खड़े होकर
हंसने लगें, तो फिर यह
कुछ भी नहीं
कर सकेगा। यह
गिर ही जाएगा।
यह करता ही तब
तक है, जब
तक आप मानते
हैं कि यही
मैं हूं। जब
तक यह
आइडेंटिफिकेशन
है, यह
तादात्म्य है,
तभी तक इसकी
पीड़ा है।
अहंकार
से हटकर देखें।
अहंकार से
हटते ही आप
नरक से हट गए।
अहंकार से
हटते ही
स्वर्ग का
द्वार खुल गया।
अहंकार से
हटते ही इस
जगत में आपका
न कोई संघर्ष
है, न
कोई
प्रतिस्पर्धा
है। अहंकार से
हटते ही यह
जगत आपको
स्वीकार कर लेगा,
जैसे आप हैं।
अहंकार से
हटते ही आप
परमात्मा की आंखों
में ऊपर उठ गए।
अब हम सूत्र
को लें।
और यदि
तू मन को मेरे
में अचल
स्थापन करने
के लिए समर्थ
नहीं है, तो हे
अर्जुन, अभ्यासरूप—योग
के द्वारा
मेरे को
प्राप्त होने के
लिए इच्छा कर।
कृष्ण
ने कहा, और अगर तू
पाए कि एकदम
से भाव कैसे
करूं, और
एकदम से मन को
कैसे लगा दूं
प्रभु में, और एकदम से
कैसे डूब जाऊं,
लीन हो जाऊं;
अगर तुझे
ऐसा प्रश्न
उठे कि कैसे, तो फिर
अभ्यासरूप—योग
के द्वारा
मुझको
प्राप्त करने
की इच्छा कर।
यह बात समझ
लेने जैसी है।
दो तरह
के लोग हैं।
एक तो वे लोग
हैं, जिनको
यह कहते से ही
कि डूब जाओ, डूब जाएंगे।
वे नहीं
पूछेंगे, कैसे?
छोटे
बच्चे हैं।
उनसे कहो कि
नाचो और नाच
में डूब जाओ।
तो वे यह नहीं
पूछेंगे, कैसे? नाचने
लगेंगे और डूब
जाएंगे। और
अगर कोई बच्चा
पूछे कैसे, तो समझना कि
का उसमें पैदा
हो गया, वह
अब बच्चा है
नहीं। कैसे का
मतलब ही यह है
कि पहले कोई
तरकीब बताओ, तब हम
डूबेंगे। डूब
सीधा नहीं
सकते। इसका
मतलब यह हुआ
कि डूबने और
हमारे बीच में
कोई बाधा है, जिसको
तोड्ने के लिए
तरकीब की
जरूरत होगी।
बच्चा
डूब जाएगा; नाचने
लगेगा। बच्चा
जानता ही है।
खेल में डूब
जाता है। बच्चे
को खेल से
निकालना पड़ता
है, डुबाना
नहीं पड़ता।
बच्चा डूबा
होता है; मां—बाप
को खींच—खींचकर
बाहर निकालना
पड़ता है, कि
निकल आओ। अब
चलो। और वह है
कि खिंचा जा
रहा है। खेल
में डूबा हुआ
था। ये मा—बाप
उसे कहा खाने
की, पीने
की, सोने
की, व्यर्थ
की बातें कर
रहे हैं! वह
लीन था। उस
लीनता में वह
अस्तित्व के
साथ एक था।
चाहे वह
गुड्डी हो, चाहे वह कोई
खिलौना हो, चाहे कोई
खेल हो। वह
जानता है।
बच्चे कभी नहीं
पूछते कि खेल
में कैसे डूबे?
आपने किसी
बच्चे को सुना
है पूछते कि
खेल में कैसे
डूबे? वह
डूबना जानता
है। वह पूछता
नहीं।
जो लोग
बच्चों की तरह
ताजे होते हैं—थोड़े
से लोग, और उनकी
संख्या रोज कम
होती जाती है—वे
लोग सीधे डूब
सकते हैं।
पुरानी
कहानियां हैं
साधकों की।
तिलोपा ने
अपने शिष्य
नारोपा को कहा
कि तू आंख बंद
कर और डूब जा।
और नारोपा ने आंख
बंद कर लीं और
डूब गया। और ज्ञान
को उपलब्ध हो
गया।
बड़ा
मुश्किल
मालूम पड़ता है।
इतना मामला
आसान! हम भी आंख
बंद करते हैं।
और कोई कितना
ही कहे, डूब जाओ, आंख
बंद हो जाती
है, विचार
चलते रहते हैं।
डूबने का कुछ
पता नहीं चलता।
बल्कि आंख बंद
करके और
ज्यादा चलने
लगते हैं। आंख
खुली रहती है,
थोड़े कम
चलते हैं।
बाहर उलझे
रहते हैं, तो
थोड़ा खयाल कम
रहता है। आंख
बंद की कि
मुश्किल हो
जाती है।
आपसे
लोग कहते हैं, एकांत
में बैठ जाओ।
आप कहते हैं, एकांत में
तो और मुसीबत
हो जाती है।
इतना तो लोगों
से बातचीत
करते रहते हैं,
तो मन सुलझा
रहता है। उलझा
रहता है, इसलिए
लगता है, सुलझा
है! अकेले में
तो हम ही रह
जाते हैं, और
बड़ी तकलीफ
होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने डाक्टर
के पास गया था।
और डाक्टर से
कहने लगा, एक बड़ी
मुसीबत हो गई
है। सुबह—सांझ,
रात—सुबह, जाग कि सोऊ, बस एक
मुश्किल हो गई
है, अपने
से बातें, अपने
से बातें, अपने
से बातें करने
में लगा हूं।
कुछ इलाज? डाक्टर
ने कहा, इतने
परेशान मत होओ।
लाखों लोग
अपने से बातें
करते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, आप
समझे नहीं।
तुम्हें पता
नहीं है, अपने
से बात करने
से मैं भी
इतना न घबड़ाता।
लेकिन मैं
इतना उबाने
वाला हूं कि
अभी तक मैं दूसरों
को बोर करता
था? अब खुद
ही को कर रहा
हूं। अभी तक
दूसरों को
उबाता था। तब
तक भी थोड़ी
राहत थी। अब
मैं अपने को
ही उबाता हूं
चौबीस घंटे।
वही बातें जो
हजार दफे कह
चुका हूं? कह
रहा हूं।
इसलिए
हम भागते हैं
अकेलेपन से।
जल्दी पकड़ो
किसी को। कहीं
भी कोई मिल
जाए तो एकदम
झपट पड़ते हैं, आक्रमण
कर देते हैं।
हमारे प्रश्न,
हमारी
बातचीत कुछ
नहीं है, भीतर
की बेचैनी
अब
मौसम आपको भी
पता है कि
कैसा है।
जिससे आप पूछ
रहे हैं, उसको भी पता
है कि कैसा है।
आप कहते हैं, कहो, कैसा
मौसम है?
क्या
पूछना है!
नहीं लेकिन
सिलसिला शुरू
कर रहे हैं आप
सिर्फ। ये तो
सिर्फ
ट्रिक्स हैं
प्राथमिक।
फिर जल्दी से
आप जो आपके
भीतर उबल रहा
है, वह
उसके ऊपर उबाल
देंगे। फिर जो
ज्यादा
ताकतवर होगा,
वह दूसरे को
दबाकर उसकी
खोपड़ी में
बातें डालकर
भाग खड़ा होगा।
जो कमजोर होगा,
वह बेचारा
सुन लेगा, कि
ठीक है। अब
दुबारा जरा
सावधान रहना
इस आदमी से।
जब यह पूछे कि
मौसम कैसा है,
तभी निकल
जाना।
लेकिन
अकेले में
घबड़ाहट होती
है, क्योंकि
अकेले में आप
ही अपने से
पूछ रहे हैं
कि मौसम कैसा
है और आपको पता
है कि मौसम
कैसा है। कुछ.।
लेकिन
तिलोपा ने
नारोपा को कहा, आंख बंद
कर और डूब जा।
और वह डूब गया।
छोटे बच्चे
जैसा रहा होगा।
जमीन
बचपन में थी।
अब जमीन जवान
है; अडल्ट
हो गई है।
हजार, दो
हजार, तीन
हजार साल पहले,
पांच हजार
साल पहले जो
लोग थे, बच्चों
जैसे थे। उनसे
कहा कि डूब
जाओ, तो वे
डूब गए।
उन्होंने
नहीं पूछा कि
कैसे? हम
पूछेंगे, कैसे?
तो
कृष्ण अर्जुन
से कहते हैं
कि अगर तू डूब
सकता हो
मुझमें, तो डूब जा।
फिर तो कोई
बात करने की
नहीं है।
लेकिन अर्जुन
सुसंस्कृत
क्षत्रिय है।
पढ़ा—लिखा है।
उस समय का
बुद्धिमान से
बुद्धिमान
आदमी है। तो
कृष्ण को भी
शक है कि वह
डूब सकेगा कि
नहीं। तो वे
कहते हैं, और
अगर न डूब सके,
तो फिर
अभ्यासरूप—योग
द्वारा मुझको
प्राप्त होने
की इच्छा कर।
फिर तुझे
अभ्यास करना
पड़ेगा।
भक्त
बिना योग के
पहुंच जाता है।
जो भक्त नहीं
हो सकता, उसको योग से
जाना पड़ता है।
योग का मतलब
है, टेक्यालाजी।
अगर सीधे नहीं
डूब सकते, तो
टेक्नीक का
उपयोग करो। तो
फिर एक बिंदु
बनाओ। उस पर
चित्त को
एकाग्र करो।
कि एक मंत्र
लो। सब शब्दों
को छोड़कर, ओम, ओम, एक ही मंत्र
को दोहराओ, दोहराओ।
सारा ध्यान उस
पर एकाग्र करो।
अगर
मंत्र से काम
न चलता हो, तो शरीर
को बिलकुल थिर
करके आसन में
रोक रखो।
क्योंकि जब
शरीर बिलकुल
थिर हो जाता
है, तो मन
को थिर होने
में सहायता
पहुंचाता है।
तो शरीर को
बिलकुल पत्थर
की तरह, मूर्ति
की तरह थिर कर
लो। सिद्धासन
है, पद्यासन
है, उसमें
बैठ जाओ।
अगर आंख
खोलने से बाहर
की चीजें
दिखाई पड़ती
हैं, और आंख
बंद करने से
भीतर की चीजें
दिखाई पड़ती
हैं, तो
आधी आंख खोलो।
तो नाक ही
दिखाई पड़े बस,
इतना बाहर।
और भीतर भी
नहीं, बाहर
भी नहीं। तो
नाक पर ही
अपने को थिर
कर लो।
ये सब
टेक्नीक हैं।
ये उनके लिए
हैं, जो
भक्त नहीं हो
सकते। जो
प्रेम नहीं कर
सकते, उनके
लिए हैं। योग
उनके लिए है, जो प्रेम
में असमर्थ
हैं। जो प्रेम
में समर्थ हैं,
उनके लिए
योग की कोई भी
जरूरत नहीं है।
लेकिन जो
प्रेम में
समर्थ नहीं
हैं, उनको
पहले अपने को
तैयार करना
पड़े कि कैसे
डूबे। तो नाक
के बिंदु पर
डूबो; कि
नाभि पर ध्यान
को केंद्रित
करो; कि
बंद कर लो
अपनी आंखों को
और भीतर एक
प्रकाश का
बिंदु कल्पित
करो, उस पर
ध्यान को
एकाग्र करो।
वर्षों मेहनत
करो।
अभ्यासरूप—योग
द्वारा!
और जब
इन छोटे—छोटे, छोटे—छोटे
प्रयोगों से
अभ्यास करते—करते
वर्षों में
तुम इस जगह आ
जाओ कि अब तुम
न पूछो कि
कैसे।
क्योंकि
तुम्हें पता
हो गया कि ऐसे
डूबा जा सकता
है; तब
सीधे
परमात्मा में
डूब जाओ। तब
अपने बिंदु, और अपने
मंत्र, और
अपने यंत्र, सब छोड़ दो, और सीधी
छलांग लगा लो।
जो
सीधा कूद सके, इससे
बेहतर कुछ भी
नहीं है।
प्रेमी सीधा
कूद सकता है।
लेकिन अगर
बुद्धि बहुत
काम करती हो, तो फिर
पूछेगी, हाउ?
कैसे? तो
फिर योग की
परंपरा है, पतंजलि के
सूत्र हैं, फिर साधो।
फिर उनको साध—साधकर
पहले सीखो
एकाग्रता, फिर
तन्मयता में
उतरो।
अभ्यासरूप—योग
के द्वारा
मुझे प्राप्त
करने की इच्छा
कर। और यदि तू
ऊपर कहे हुए
अभ्यास में भी
असमर्थ हो.।
यह भी
हो सकता है कि
तू कहे कि बड़ा
कठिन है। कहां
बैठें! और
कितना ही बैठो
सम्हालकर, शरीर
कंपता है। और
मन को कितना
ही रोको, मन
रुकता नहीं।
और ध्यान लगाओ,
तो नींद आती
है, तल्लीनता
नहीं होती।
अगर तू
इसमें भी
समर्थ न हो, तो फिर एक
काम कर। तो
केवल मेरे लिए
कर्म करने के
ही परायण हो।
इस प्रकार
मेरे अर्थ
कर्मों को
करता हुआ मेरी
प्राप्ति, मेरी
सिद्धि को पा
सकेगा।
अगर
तुझे यह भी
तकलीफ मालूम
पड़ती हो, अगर भक्ति—योग
तुझे कठिन
मालूम पड़े, तो फिर
ज्ञान—योग है।
ज्ञान—योग का
अर्थ है, योग
की साधना, अभ्यास।
अगर तुझे वह
भी कठिन मालूम
पड़ता हो, तो
फिर कर्म—योग
है। तो फिर तू
इतना ही कर कि
सारे कर्मों
को मुझमें
समर्पित कर दे।
और ऐसा मान ले
कि तेरे भीतर
मैं ही कर रहा
हूं। और मैं
ही तुझसे करवा
रहा हूं। और
तू ऐसे कर
जैसे कि मेरा
साधन हो गया
है, एक
उपकरण मात्र।
न पाप तेरा, न पुण्य
तेरा। न अच्छा
तेरा, न
बुरा तेरा। सब
तू छोड़ दे और
कर्म को मेरे
प्रति
समर्पित कर दे।
ये तीन
हैं।
श्रेष्ठतम तो
प्रेम है।
क्योंकि छलांग
सीधी लग जाएगी।
नंबर दो पर
साधना है।
क्योंकि
प्रयास और
अभ्यास से लग
सकेगी। अगर वह
भी न हो सके, तो नंबर
तीन पर जीवन
का कर्म है।
फिर पूरे जीवन
के कर्म को
प्रभु—अर्पित
मानकर चलता जा।
इन तीन में से
ही किसी को
चुनाव करना
पड़ता है। और
ध्यान रहे, जल्दी से
तीसरा मत चुन
लेना। पहले तो
कोशिश करना, खयाल करना
पहले की, प्रेम
की। अगर
बिलकुल ही
असमर्थ अपने
को पाएं कि
नहीं, यह
हो ही नहीं
सकता.।
कुछ
लोग प्रेम में
बिलकुल
असमर्थ हैं।
असमर्थ हो गए
हैं अपने ही
अभ्यास से।
जैसे कोई आदमी
अगर धन को
बहुत पकड़ता हो, पैसे को
बहुत पकड़ता हो,
तो प्रेम
में असमर्थ हो
जाता है।
क्योंकि
विपरीत बातें
हैं। अगर पैसे
को जोर से
पकड़ना है, तो
आदमी को प्रेम
से बचना पड़ता
है। क्योंकि
प्रेम में
पैसे को खतरा
है। प्रेमी
पैसा इकट्ठा
नहीं कर सकता।
जिनसे प्रेम
करेगा, वे
ही उसका पैसा
खराब करवा
देंगे। प्रेम
किया कि पैसा
हाथ से गया।
तो जो
पैसे को पकड़ता
है, वह
प्रेम से सावधान
रहता है कि
प्रेम की झंझट
में नहीं पड़ना
है। वह अपने
बच्चों तक से
भी जरा
सम्हलकर
बोलता है।
क्योंकि बाप
भी जानते हैं,
अगर जरा
मुस्कुराओ, तो बच्चा
खीसे में हाथ
डालता है। मत
मुस्कुराओ, अकड़े रहो, घर में
अकड़कर घुसो।
बच्चा डरता है
कि कोई गलती
तो पता नहीं
चल गई! गलती तो
बच्चे कर ही
रहे हैं। और
बच्चे नहीं
करेंगे, तो
कौन करेगा! तो
समझता है कि
कोई गड़बड़ हो
गई है; जरा
दूर ही रहो।
लेकिन बाप अगर
मुस्कुरा दे,
तो बच्चा
फौरन खीसे में
हाथ डालता है।
तो बाप
पत्नी से भी
सम्हलकर बात
करता है।
क्योंकि जरा
ही वह ढीला
हुआ और उसकी जरा
कमर झुकी कि
पत्नी ने
बताया कि उसने
साड़ियां देखी
हैं! फलां
देखा हैं।
तो
जिसको पैसे पर
बहुत पकड़ है, वह प्रेम
से तो बहुत
डरा हुआ रहता
है। और हम
सबकी पैसे पर
भारी पकड़ है।
एक—एक पैसे पर
पकड़ है। और
बहाने हम कई
तरह के
निकालते हैं
कि पैसे पर हमारी
पकड़ क्यों है।
लेकिन बहाने
सिर्फ बहाने
हैं। एक बात
पक्की है कि
पैसे की पकड़
हो, तो
प्रेम जीवन
में नहीं होता।
तो
जितना ज्यादा
पैसे की पकड़
वाला युग होगा, उतना
प्रेमशून्य
होगा। और
प्रेमपूर्ण
युग होगा, तो
बहुत आर्थिक
रूप से संपन्न
नहीं हो सकता।
पैसे पर पकड़
छूट जाएगी।
प्रेमी
आदमी बहुत
समृद्ध नहीं
हो सकता। उपाय
नहीं है। पैसा
छोड़कर भाग
जाएगा उसके
हाथ से। किसी
को भी दे देगा।
कोई भी उससे
निकाल लेगा।
तो हम
अगर प्रेम में
समर्थ हो सकें, तब तो
श्रेष्ठतम।
अगर न हो सकें,
तो फिर
अभ्यास की
फिक्र करनी
चाहिए। फिर
योग—साधन हैं।
अगर उनमें भी
असफल हो जाएं,
तो ही तीसरे
का प्रयोग
करना चाहिए, कि फिर हम
कर्म को।
क्योंकि वह
मजबूरी है। जब
कुछ भी न बने, तो आखिरी है।
जैसे
पहले आप
एलोपैथ
डाक्टर के पास
जाते हैं। अगर
वह असफल हो
जाए, फिर
होमियोपैथ के
पास जाते हैं।
वह भी असफल हो
जाए तो फिर
नेचरोपैथ के
पास जाते हैं।
वह नेचरोपैथी है,
वह आखिरी है।
जब कि ऐसा लगे
कि अब कुछ
होता ही नहीं
है; कि
ज्यादा से
ज्यादा
नेचरोपैथ
मारेगा और क्या
करेगा, तो
ठीक है अब। सब
हार गए तो अब
कहीं भी जाया
जा सकता है।
कर्म—योग
आखिरी है।
क्योंकि उसके
बाद फिर कुछ
भी नहीं है
उपाय। तो सीधा
कर्म—योग से
प्रयोग शुरू
मत करना, नहीं तो
दिक्कत में पड़
जाएंगे।
क्योंकि उससे
नीचे गिरने की
कोई जगह नहीं
है।
पहले
प्रेम से शुरू
करना। अगर हो
जाए अदभुत। न
हो पाए, तो अभी दो
उपाय हैं। अभी
दो इलाज बाकी
हैं। फिर
अभ्यास का
प्रयोग करना।
और जल्दी मत
छोड़ देना।
क्योंकि
अभ्यास तो
वर्षों लेता
है। तो वर्षों
मेहनत करना।
अगर हो जाए तो
बेहतर है। अगर
न हो पाए, तो
फिर कर्म पर
उतरना।
और
ध्यान रहे, जिसने
प्रेम का
प्रयोग किया
और असफल हुआ, और जिसने
योग का अभ्यास
किया—अभ्यास
किया, मेहनत
की—और असफल
हुआ, वह
कर्म—योग में
जरूर सफल हो
जाता है।
लेकिन जिसने न
प्रेम का
प्रयोग किया,
न असफल हुआ;
न जिसने योग
साधा, न
असफल हुआ; वह
कर्म—योग में
भी सफल नहीं
हो पाता।
वे दो
असफलताएं
जरूरी हैं
तीसरे की
सफलता के लिए।
क्योंकि फिर
वह आखिरी कदम
है और जीवन—मृत्यु
का सवाल है।
फिर आप पूरी
ताकत लगा देते
हैं। क्योंकि
उसके बाद फिर
कोई विकल्प
नहीं है।
इसलिए
निकृष्ट से
शुरू मत करना।
कई लोग
अपने को धोखा
देते रहते हैं।
वे कहते हैं, हम तो
कर्म—योग में
लगे हैं! मेरे
पास लोग आ
जाते हैं।
धंधा करते हैं,
नौकरी करते
हैं। वे कहते
हैं, हम तो
कर्म—योग में
लगे हैं! जैसे
कोई भी काम
करना कर्म—योग
है!
कोई भी
काम करना कर्म—योग
नहीं है। कर्म—योग
का मतलब है, काम आप
नहीं कर रहे, परमात्मा कर
रहा है, यह
भाव। दुकान आप
नहीं चला रहे,
परमात्मा
चला रहा है।
और फिर जो भी
सफलता—असफलता
हो रही है, वह
आपकी नहीं हो
रही है, परमात्मा
की हो रही है।
और जिस दिन आप
दीवालिया हो
जाएं, तो
कह देना कि
परमात्मा
दीवालिया हो
गया। और जिस
दिन धन बरस
पड़े, तो
कहना कि उसका
ही श्रेय है।
मैं नहीं हूं।
अपने को हटा
लेना और सारा
कर्म उस पर
छोड़ देना।
आज
इतना ही।
अब हम
कीर्तन करें।
बीच में उठें
मत। थोड़े—से
पांच मिनट के
लिए नासमझी कर
देते हैं। और
जब कीर्तन
चलता है, तब आप खड़े
हो जाते हैं, तो फिर सबको
खड़ा होना पड़ता
है। पांच मिनट
बैठकर कीर्तन
में सम्मिलित
हों।
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