कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)
ओशो
प्रवचन-पहला
सारसूत्र:
दर्द दीवाने बावरे, अलमस्त फकीरा।
एक अकीदा लौ रहे, ऐसे मन धीरा।।
प्रेम पियाला पीवते, बिसरे सब साथी।
आठ पहर यों झूमत, मैगल माता हाथी।।
उनकी नजर न आवते, कोई राजा-रंक।
बंधन तोड़े मोह के, फिरते निहसंक।।
साहेब मिल साहेब भए, कुछ रही न तमाई।
कहैं मलूक तिस घर गए, जंह पवन न जाई।।
आपा मेटि न हरि भजे, तेई नर डूबे।।
हरि का मर्म न पाइया, कारन का ऊबे।
करें भरोसा पुत्र का, साहब बिसराया।
बूड़ गए तरबोर को, कहुं खोज न पाया।।
साध मंडली बैठिके, मूढ़ जाति बखानी
हम बड़ करि मुए, बूड़े बिना पानी।।
तबके बांधि तेई नर, अजहूं नहिं छूटे।
पकरि पकरि भलि भांति से, जमपूतन लूटे।।
काम को सब त्यागि के, जो रामहिं गावै।
दास मलूका यों कहै, तेहि अलख लखावै।।
बाबा
मलूकदास--यह नाम ही मेरी हृदय-वीणा को झंकृत कर जाता है। जैसे अचानक वसंत आ जाए!
जैसे हजारों फूल अचानक झर जाए!
नानक
से मैं प्रभावित हूं; कबीर
से चकित हूं;
बाबा
मलूकदास से मस्त। ऐसे शराब में डूबे हुए वचन किसी और दूसरे संत के नहीं है।
नानक
में धर्म का सारसूत्र है, पर
रूखा-सूखा। कबीर में अधर्म को चुनौती है--बड़ी क्रांतिकारी, बड़ी विद्रोही। मलूक में धर्म
की मस्ती है;
धर्म
का परमहंस रूप;
धर्म
को जिसने पीया है,
वह
कैसा होगा। न तो धर्म के सारतत्त्व को कहने की बहुत चिंता है, न अधर्म से लड़ने का कोई आग्रह
है। धर्म की शराब जिसने पी है, उसके
जीवन में कैसी मस्ती की तरंग होगी, उस तरंग से कैसे गीत फूट पड़ेंगे, उस तरंग से कैसे फूल झरेंगे, वैसे सरल अलमस्त फकीर का दिग्दर्शन
होगा मलूक में।
झिर-झिर
कर झरे फूल
बरस गया हरसिंगार।
मेघ ये
बरसते हैं
बूंद-बूंद
रिसते हैं
सजल मेघ बनकर सखी
बिखर
गया हरसिंगार।
दूर-दूर
छोरों तक
महंमे दे गंध दान
बिथुर
गया हरसिंगार।
फूलों
की अंजुली भर
कन-कन
को सुरभित कर
बन कर
सखी वीतराग
निखर गया
हरसिंगार।
जैसे
वृक्ष फूलों में झर जाता है, ऐसे
बाबा मलूकदास अपने वचनों में झरे हैं। न किसी का समर्थन है, न किसी का विरोध है। जो भीतर
भर गया है,
उसका
सहज प्रवाह है। जिन्हें मस्त होना है; जिन्हें डूबना है; जिन्हें न तो धर्म की कोई
तार्किक व्याख्या करना है, न
अधर्म के साथ कोई संघर्ष करना है; जिन्हें
उस अपने भीतर पड़ी वीणा के तारों को झंकृत कर लेना है, जिसके झंकृत हुए बिना न तो
सत्य को कोई जानता है और न असत्य से कोई संघर्ष संभव है।
मलूक
वे ज्यादा सुंदर सरोवर और कहीं न मिलेगा। जिन्हें प्यास है और जो प्यास को बुझाने
को आतुर है,
और जल
के संबंध में विवेचना की जिन्हें चिंता नहीं है; जो कहते हैं: हम प्यासे हैं
और हमें प्रयोजन नहीं कि जल की व्याख्या क्या है, हम जल चाहते हैं...।
और
प्यास मिटाने का जला को व्याख्या थोड़े ही समझनी पड़ती है। कितना ही तुम जान लो कि
जल कैसे बनता है;
कितना
ही कोई समझा दे कि ऑक्सीजन और उदजन से मिलकर बनता है; तुम्हारे हाथ में सूत्र दे दे
"एच टू ओ'
का कि
यह रहा जल का सूत्र--तो भी प्यास तो नहीं बुझती। प्यास तो जल से बुझती है। और
प्यास बुझाने के लिए, जल
कैसे निर्मित हुआ है, वह
जानना तो जरूरी ही नहीं है। प्यास बुझाने के लिए तो झुकना और जल का अंजुली में भर
लेना जरूरी है।
मलूक
वैसे सरोवर हैं;
तुम
अगर झुके,
तो
तृप्त हो कर उठोगे। तुम अगर राजी हुए और तुम हृदय के द्वार खोले, तो मलूक की तरंगें तुम्हें
झंकृत कर जायेंगी;
तुम
नाच उठोगे। उस नाच में ही रूपांतरण है। तुम्हारे भीतर भी गीत का आविर्भाव होगा और
उस गीत के जन्म में ही परमात्मा है।
शेख ने
काबा, बरहमन ने दैर
दर-ए-मैखाना
हमने ताका है।
मौलवी
है, वह काबा की तरफ देख रहा है।
ब्राह्मण है,
वह
मंदिर की तरफ देख रहा है, काशी
की तरफ देख रहा है। "देर-ए-मैखाना हमने ताका है'। लेकिन जो मस्त हैं, वे मधुशाला की तरफ देखते हैं।
परमात्मा उनके लिए न काबा है, न
काशी। परमात्मा उनके लिए मधुशाला है।
मलूकदास
पियक्कड़ हैं। उनके शब्द-शब्द में शराब है, उनके शब्द-शब्द में रस है; अगर तुम डूबे तो उबर जाओगे।
तो समझने की चेष्टा कम करना, पीने
की चेष्टा ज्यादा करना। बुद्धि से संबंध मत जोड़ना। मलूकदास का बुद्धि से कुछ
लेना-देना नहीं है। सरल बालक की भांति उनके वचन हैं।
उनका
एक ही वचन लोगों का पता है, शेष
वचनों का कोई स्मरण नहीं है। वह वचन बहुत प्रसिद्ध हो गया है उसकी बड़ी गलत
व्याख्या हो गई।
अजगर
करै न चाकरी,
पंछी
करै न काम।
दास
मलूका कहि गया,
सबके
दाता राम।।
यह खूब
प्रसिद्ध हुआ--गलत कारणों से प्रसिद्ध हुआ। आलसियों ने प्रसिद्ध कर दिया। जिन्हें
भी काम से बचना था, उन्हें
इसमें आड़ मिल गई। आदमी बड़ा बेईमान है। मलूक का अर्थ कुछ और ही था। मलूक यह नहीं कह
रहे हैं कि कुछ न करो। यह तो कह ही नहीं सकते हैं। मलूक यह कह रहे हैं कि परमात्मा
को करने दो--तुम न करो।
अजगर
करै न चाकरी--सच है। किसने अजगर को नौकरी करते देखा? लेकिन अजगर भी सतत काम में
लगा रहता है। पंछी करै न काम--सच है। पंछी दफ्तर में क्लर्की नहीं करते, न मजिस्ट्रेट होते, न स्कूलों में मास्टरी करते, न दुकान चलाते हैं। लेकिन काम
में तो चौबीस घंटे लगे रहते हैं। सुबह सूरज निकला नहीं कि पंछी काम पर निकले नहीं।
सांझ सूरज ढलेगा,
तब काम
रुकेगा। अर्जित करेंगे दिन भर, तब रात
विश्राम करेंगे।
काम तो
विराट चलता है। काम तो छोटी-छोटी चींटी भी करती है। काम से यहां कोई भी खाली नहीं
है। फिर क्यों कहा होगा मलूक ने "अजगर करै न चाकरी, पंछी करै काम'? मलूक का अर्थ है: इस काम में कहीं कर्ता का
भाव नहीं है;
"मैं कर
रहा हूं,'
ऐसी
कोई धारणा नहीं है। जो परमात्मा कराये! जिहि विधि राखै रास! जो करा लेता है, वही कर रहे हैं। करने वाला वह
है, हम सिर्फ उपकरण मात्र है।
दास
मलूका कहि गया,
सबके
दाता राम।
तो न
तो हम कर्ता हैं,
न हम
भोक्ता है। न हम कर्ता हैं और न हम करने में सफल या असफल हो सकते हैं। वही करता
है--वही हो सफल,
वही हो
असफल। ऐसी जिसकी जीवन-दृष्टि हो, उसके
जीव में तनाव न रह जायेगा, चिंता
न रह जायेगी।
यह
सूत्र तनाव को मिटाने का सबसे बड़ा सूत्र है। यह सूत्र काफी है--मनुष्य के जीवन से
सारी चिंता छीन लेने के लिए। चिंता ही क्या है? चिंता एक ही है कि कहीं मैं न हार जाऊं।
चिंता एक ही हैं कि कहीं और कोई न जीत जाए। चिंता एक ही हैं कि मैं जी पाऊंगा पा
नहीं? चिंता एक ही है कि कोई
भूल-चूक न हो जाए। चिंता एक ही है जिस मंजिल पर निकला हूं, वह मुझे मिलकर रहे।
जिसने
समझा। "सबके दाता रात', उसकी सारी चिंता गई। अहंकार गया, तो चिंता गई। कर्ता का भाव
गया, तो बेचैनी गई। फिर चैन ही चैन
है। फिर असफलता में भी सफलता है; निर्धनता
में भी धन है। फिर मृत्यु में भी महाजीवन है। और अभी तो सफलता में भी असफलता ही
हाथ लगती है।
तुमने
देखा नहीं। सफल आदमी किसी बुरी तरह असफल हो जाता है! सफलता के शिखर पर पहुंच कर
कैसा उदास हो जाता है! सफलता तो मिल गई, और क्या मिला? सफलता तो हाथ आ गई, सारा जीवन हाथ से निकल गया।
और सफलता बड़ी थोथी है। सफलता सफलता लाती कहां है? धन इकट्ठा कर लिया जीवन भर
गंवाकर--और तब पता चलता है कि धन को खाओगे, पीओगे, ओढ़ोगे--क्या करोगे? और मौत करीब आने लगी। धन मौत
से बचा न सकेगा। तब याद आती है कि ध्यान ही कर लिया होता, ठीक था। क्योंकि ध्यान ही है
एक सूत्र,
जो
अमृत से जोड़ देता है।
बन गए
राष्ट्रपति कि प्रधानमंत्री; पहुंच
कर पद पर क्या होगा? मौत सब
छीन लेगी। तुमने जो दूसरों से छीना है, मौत तुमसे छीन लेगी। मौत सब छीना-झपटी
समाप्त कर देती है। मौत बड़ी समाजवादी है, सबको समान कर देती है--गरीब और अमीर को, हारे को और जीते को, सबको एक साथ मिट्टी में मिला
देती है,
एक
जैसा मिट्टी में मिला देती है। जीते के साथ कुछ भेद नहीं करती, हारे के साथ कुछ भेद नहीं
करती। गोरे के साथ कुछ भेद नहीं करती; काले के साथ कुछ भेद नहीं करती। मौत परम
समाजवादी है।
पा कर
क्या होगा?
जैसे
रात कोई सपना देखे और सुबह आये और नींद टूटे और सपना खो जाये, ऐसे एक दिन मौत आती है और सब
सपने टूट जाते हैं; पाया न
पाया सब बराबर हो गया। लेकिन पाने की दौड़ में उस जीवन को गंवा दिया, जिसके माध्यम से उसे जाना जा
सकता था--जिसे मौत नहीं छीन सकती है।
मलूक
के इस सूत्र का अर्थ था...यह अपूर्व सूत्र है...इसका अर्थ था कि अगर तुम निश्चिंत
होना चाहो,
तो
छोटा-सा काम है बस; जरा-सी
तरकीब है;
जरा-सी
कला है--और कला यह है: अपने को हटा लो और परमात्मा को करने दे जो कराए। कराए तो
ठीक, न कराए तो ठीक। पहुंचाए कहीं
तो ठीक,
न
पहुंचाए तो ठीक। तुम सारी चिंता उस पर छोड़ दो। जिस पर इतना विराट जीवन ठहरा हुआ है, चांदत्तारे चलते हैं, ऋतुएं घूमती हैं, सूरज निकलता है, डूबता है; इतना विराट जीवन का सागर, इतनी लहर जो सम्हालना है, तुम्हारी भी छोटी लहर सम्हाल
लेगा।
इसका
यह अर्थ नहीं कि तुम कुछ भी न करो। लहराना तो तुम्हें होगा, लेकिन उसे तुम अपने भीतर
लहरने दो। तुम अपनी लहर को अपना अहंकार मत बनाओ। तुम अपनी लहर को उसके हाथ में
समर्पित कर दो।
एक यह
छोटा-सा सूत्र मलूकदास का लोगों को पता है और वह भी गलत कारणों से पता है; वह भी आलसी दोहराते हैं जो
कुछ नहीं करना चाहते; जो
कर्ता होना तो नहीं छोड़ते, लेकिन
धर्म की झंझट छोड़ देते हैं। और असली बात कर्म छोड़ना नहीं है; असली बात कर्ता का भाव छोड़ना
है।
और
अदभुत सूत्र हैं मलूकदास के, लोगों
की याददाश्त में नहीं रहे। आज जिन सूत्रों से हम मलूकदास पर बात शुरू करेंगे, वे सूत्र अपूर्व हैं। पहली तो
बात, वे संन्यास के संबंध में हैं।
दुनिया में बहुत मनीषी हुए, वे सभी
संसार से शुरू करते हैं बात; मलूकदास
ने संन्यास से शुरू की है बात।
स्वाभाविक
भी है कि संसार से शुरू हो बात, क्योंकि
जहां हम उलझे हैं,
उसके
ही बात करो। बीमार से स्वास्थ्य की बात क्या अर्थ होगा? बीमारी की बात करो। वही भाषा
है उसकी,
वही वह
समझेगा भी। स्वास्थ्य तो पीछे आयेगा, जब बीमारी छूटेगी। इसलिए आमतौर से संतों के
वचन संसार से शुरू होते हैं; फिर
धीरे-धीरे फुसला कर संन्यास की बात आती है। धीरे-धीरे सरका-सरका कर संन्यास को
तुम्हारे भीतर आरोपित किया जाता है।
मलूकदास
से संन्यास शुरू करते हैं। कारण बहुत खूबी का है। मलूकदास कहते है: बीमारी की बात
ही क्या करनी?
स्वास्थ्य
की बात समझ में आ जाए, तो
बीमारी टिकती नहीं। बीमारी इसलिए टिकी है कि हम बीमारी ही बीमारी की बात कर रहे
हैं। बीमारी इसलिए टिकी है कि हमारा सारा ध्यान बीमारी पर टिका है। बीमारी इसलिए
टिकी है कि हम बीमारी से आंख नहीं हटाते। या तो कुछ लोग बीमारी में रस ले रहे हैं।
जिनको हम भोगी कहते हैं, उनकी
नजर भी बीमारी पर टिकी है--एकटक, एकजुट!
या कुछ लोग जिनको हम योगी कहते हैं,बीमारी से भागने में संलग्न हैं; लेकिन नजर भी बीमारी पर टिकी
है, कि बीमारी कहीं पकड़ न ले! कुछ
हैं जो बीमारी में डूबे हैं, कुछ
हैं जो बीमारी से भागे हैं; लेकिन
दोनों का मन बीमारी में उलझा है।
मलूक
कहते हैं: कुछ संन्यास की बात हो, कुछ
पार की बात हो,
कुछ
चांदत्तारों की बात हो। जमीन पर आंखें गड़ाए-गड़ाए ही तो हम कीड़े-मकोड़े हो गए हैं।
इसलिए बात शुरू करते हैं संन्यास से।
मेरे
पास लोग आ कर अकसर पूछते हैं: आप एकदम से संन्यास में उतार देते हैं लोगों को!
संन्यास से ही बात शुरू करनी है। बहुत रह चुके संसारी तो तुम। और अगर
जन्मों-जन्मों तक संसारी रह कर भी तुम नहीं समझे कि संसार व्यर्थ है, तो अब और कुछ बात कहने से समझ
जाओगे,
इसकी
आशा व्यर्थ है।
तुम्हारे
हाथ में कंकड़-पत्थर हैं। अगर तुम जन्मों के अनुभव से नहीं समझे कि ये कंकड़-पत्थर
है, तो जब इनको बार-बार
कंकड़-पत्थर कहने से तुम समझोगे, ऐसी
आशा नहीं हो सकती। अब तो कुछ हीरों की बात हो। शायद हीरों की बात से ही तुम्हें
खयाल आये कि तुम जिन्हें ढो रहे हो--कंकड़-पत्थर हैं। शायद हीरों की बात से ही
तुम्हारे जीवन में पहली बार तुलना उठे, तुम विचार करो कि मेरे पास जो है, वह पत्थर है या हीरा; क्योंकि हीरे की तो यह रही
व्याख्या। तुम शायद अपनी आंख खोलो और अपने कंकड़-पत्थरों को एक बार पुनः देखो, इनमें कोई भी हीरा नहीं है।
हीरे
की परख मिलनी चाहिए; कंकड़-पत्थर
की निंदा से कुछ भी न होगा। हीरे की परख आ जाए, तो तुम खुद ही इन कंकड़-पत्थरों को छोड़ दोगे, हीरों की तलाश में लग जाओगे।
तलाश तो तुम खूब करते हो; परख
तुम्हारे पास नहीं है। दौड़ते नहीं हो, ऐसा नहीं है; गलत दिशाओं में दौड़ते हो। तो
चलो, ठीक दिशा की बात हो।
इसलिए
मैं भी संन्यास की बात करता हूं और मेरा मलूकदास से बहुत ताल-मेल है, गहरी आत्मीयता है। एक ही जैसी
तरंग है। मेरी भी दृष्टि यही है कि असार छोड़ने से नहीं छूटता, सार के अनुभव से छूटता है।
श्रेष्ठ को पा लो,
अश्रेष्ठ
छूट जाता है। अश्रेष्ठ को छोड़ने से श्रेष्ठ नहीं मिलता।
त्यागियों
ने तुम्हें कुछ और ही समझाया है। वे कहते हैं: संसार छोड़ो तो परमात्मा मिलेगा। मैं
तुमसे कहता हूं: तुम परमात्मा पाने में लग जाओ, संसार की फिक्र ही छोड़ दो। तुम परमात्मा की
थोड़ी-सी भी अनुभूति में उतर गए, तो
संसार छूटने लगेगा। जिस मात्रा में परमात्मा का प्रकाश आयेगा, उसी मात्रा में संसार का
अंधकार अलग हो जायेगा।
अंधेरे
से मत लड़ो--दिये को जलाओ। और अंधेरे की निंदा बहुत हो चुकी। कब तक अंधेरे की निंदा
करते रहोगे?
अंधेरे
की निंदा व्यर्थ है। अंधेरे का कोई कसूर भी नहीं है। दीया जलाओ। एक छोटा दीया जला
लो। इस अंधेरी रात की बहुत निंदा मत करो। अंधेरे की हजारों वर्षों तक निंदा करने
से भी कुछ नहीं होता: निंदा से दीया नो नहीं जलता। एक छोटा दीया जला लो। और छोटे
दिये के हलते ही अंधेरा नष्ट हो जाता है--जन्मों-जन्मों का अंधेरा भी नष्ट हो जाता
है। अंधेरा यह तो नहीं कह सकता कि मैं बहुत प्राचीन हूं, तुम छोकरे, अभी-अभी पैदा हुए दीये से
बुझूंगा?
अंधेरे
की कोई सामर्थ्य ही नहीं है; अंधेरा
नपुंसक है।
संसार
नपुंसक है। संसार को कोई बल नहीं है। तुम जरा संन्यास का स्वाद ले लो; एक बूंद तुम्हारे ओंठ से लग
जाए संन्यास की,
तो
संसार जायेगा।
एक
धारणा है संन्यास की कि संसार छोड़ो, तब संन्यास। एक और धारणा है जिस पर मैं काम
में लगा हूं कि तुम संन्यासी हो जाओ; संसार छूटेगा, अपने से छूट जायेगा। छूटे, न छूटे, अंतर ही नहीं पड?ता; तुम उसके भीतर रहते भी उसके
बाहर हो जाओगे।
तुमने
मुझसे बहुत बार पूछा है: "संन्यास क्या, संन्यास की परिभाषा क्या? ये सूत्र तुम्हें परिभाषा
देंगे।
"दर्द दीवाने बावरे, अलमस्त फकीरा।
एक
अकीदा ले रहे,
ऐसे मन
धीरा।।'
दर्द
दीवाने बावरे...संन्यासी की पहली परिभाषा, कि जो प्रभु के विरह और मिलन की पीड़ा में
मस्त है। समझना--विरह और मिलन की पीड़ा में मस्त। दर्द दीवाने बावरे...। प्रभु को
पाया है,
तब तक
दर्द है--यह तो सच है। प्रभु को पा कर भी बहुत दर्द होता है। दर्द का गुण बदल जाता
है, दर्द नहीं बदलता। मीठा हो
जाता है दर्द। दर्द का दंश चला जाता है, बड़ी मिठास आ जाती है, मधुमय हो जाता है। प्रभु के
विरह में एक दर्द है, जैसे
कांटा चुभता है;
प्रभु
के मिलन में भी एक दर्द है, जैसे
घाव पर किसी ने फूल रख दिया। मगर दर्द दोनों हैं।
संन्यासी
इस दर्द मग मस्त है और संसारी इस दर्द को भुलाने की चेष्टा मग लगा है। संसारी का
अर्थ है: जो इस बात को भुलाने की चेष्टा में लगा है कि प्रभु के न मिलने से कोई
दर्द होता है। संसारी इस खोज में लगा है कि मैं किसी तरह प्रभु को भुलाने में पूरी
तरह समर्थन हो जाऊं। पीठ किये है प्रभु की तरह। जीवन क्या है, जीवन का सत्य क्या है--इस
सबकी तरफ पीठ किये है। खिलौनों से खेल रहा है। पीठ करने का कारण है।
यह याद
भी आ जाये कि प्रभु है, तो
पीड़ा शुरू हो जाती है। इस याद के साथ ही तुम्हारे जीवन में क्रांति का सूत्रपात
होता है। और प्रभु है, तो फिर
तुम क्या कर रहे हो--धन बटोर कर? अगर
प्रभु है,
तो
दुकान चला कर तुम क्या कर रहे हो? अगर
प्रभु है,
तो
पद-प्रतिष्ठा पा कर तुम क्या कर रहे हो? अगर प्रभु है, तो फिर सारी जीवन-ऊर्जा उसी
की दिशा में लगा दो, क्योंकि
उसी को पाने से कुछ पाया जायेगा और तो कुछ भी पाने से कुछ न होगा।
मगर
प्रभु है,
यह बात
ही पीड़ादायी है। प्रभु है और मुझे तो मिला नहीं, तो पीड़ा तो होगी। प्रभु है और
मैं क्या करता रहा जन्मों-जन्मों तक, मैं कहां भटकता रहा, मैं किन दुःख स्वप्न में खोया
रहा? प्रभु है और मैंने उसके द्वार
पर दस्तक भी न दी! तो पीड़ा होगी।
इस
पीड़ा से बचने की जो कोशिश करता है, वह संसारी है। इस पीड़ा में जो मस्त हो जाता
है; जो कहता है: धन्यभागी मैं, चलो यह भी क्या कम है कि मुझे
प्रभु-विरह की पीड़ा हुई! प्रभु-विरह आ गया, तो मिलन भी आता ही होगा; पतझड़ आ गई, तो वसंत भी ज्यादा दूर ही
होगा--प्रभु-विरह की पीड़ा में जिसे मस्ती आ गई, जो नाच उठा; यद्यपि उसके नाच में आंसू
मिले होगे--मिश्रित होंगे आंसू, लेकिन
अब बड़ी पुलक से भरे होंगे, बड़े
उत्साह से भरे होगे, आंसू
बस, आंसू ही न होंगे अब।
संसार
को पाकर तुम हंसो भी, तो
हंसी में कुछ खास हंसी नहीं होती, क्योंकि
तुम्हारी हंसी में भी मौत हंसती है। और प्रभु को खोया है, प्रभु को खोये बैठे हैं, ऐसी पीड़ा में तुम रोओ भी, तो तुम्हारे आंसुओं में रुदन
नहीं होता;
मिलन
की छाया पड़ने लगती है, मिलन
के प्रतिबिंब बनने लगते हैं।
दर्द-दीवाने
बावरे,
अलमस्त
फकीर।
जो
प्रभु के विरह और मिलन के दर्द में मस्त है--संन्यासी। जो कहता है: प्रभु मुझे
मिला नहीं,
लेकिन
यह भी क्या है कि मुझे याद आ गई कि प्रभु मुझे मिला नहीं। अगर यह हो गया तो मिलन
भी होगा। विरह की रात कितनी लंबी हो सकती है? आखिर की सुबह भी होगी। विरह है, तो मिलन है। विरह ही नहीं, तो फिर मिलन का कोई उपाय
नहीं।
संसारी
वही है,
जो यह
भुलाने की कोशिश कर रहा है कि मैं परमात्मा से बिछुड़ गया हूं। वह हजार तरह से नकार
रहा है। पहले तो वह कहता है: परमात्मा इत्यादि कुछ है नहीं; सब व्यर्थ की बात है। ऐसा कह
कर वह मन को सांत्वना देता है। वह यह कहता है: परमात्मा है ही नहीं, इसलिए करने योग्य यही संसार
है; और तो कुछ करने योग्य है ही
नहीं।
परमात्मा
नहीं है,
ऐसा कह
कर हम उस विरह से अपने को बचा रहे हैं, जो परमात्मा की मौजूदगी स्वीकार करते ही
जीवन में खड़ा हो जायेगा; एक
तूफान की भांति,
एक
आंधी की भांति आयेगा और हमें झकझोर देगा। हम पतझड़ से बच रहे हैं।
लेकिन
ध्यान रहे। पतझड़ बसंत के लिए मार्ग बनाता है। सूखे पत्ते गिरते हैं, तो नई कोंपल के आने के लिए
द्वार खुलता है। नहीं तो कोंपल के लिए आने के लिए द्वार कहां? सूखे पत्ते अड्डा जमाए रहें, तो ये पत्ते पैदा न हो
सकेंगे। सूखे पत्ते स्थान खाली कर देते हैं, तो नये पत्ते आते हैं। रात सुबह के लिए
आयोजन करती है। रात के अंधेरे में ही सुबह निर्मित होती है। रात्रि के गर्भ में ही
सुबह का जन्म है।
संसारी
वह जो कहता है: मुझे कोई विरह इत्यादि नहीं। है ही नहीं ईश्वर तो विरह क्या होगा? अगर मुझे विरह इत्यादि है भी, तो धन का विरह हो रहा है कि
धन होना चाहिए,
वह
नहीं है;
पत्नी
का विरह हो रहा है, पत्नी
मायके गई है;
कि पति
का विरह हो रहा है कि पति ने मुझे छोड़ दिया; कि बेटे का विरह हो रहा है कि बेटा नहीं
जन्मा;
कि पद
का विरह हो रहा है कि पद मिलना था, मैं योग्य था--और नहीं मिला। इस तरह के
हमारे हजार विरह हैं। एक विरह से बचने के लिए हमने हजार थोथे विरह पैदा कर लिए हैं
और इनमें से कोई भी विरह मिलन नहीं लाता। यह तुमने देखा।
धन का
विरह होता है,
तो
आदमी पीड़ित होता है और धन जब मिल जाता है तो कोई तृप्ति नहीं आती। ये विरह नपुंसक
हैं, क्योंकि इनके बाद मिलन नहीं
आता। पद न हो तो पीड़ा होती है, यह सच
है; लेकिन पद के मिलने से तुमने
कब किसी को सुखी देखो? कोई पद
के मिलने से सुख नहीं आता। निश्चित ही विरह झूठा रहा होगा। पुराना पत्ता तो गिर
गया, नया पत्ता पैदा नहीं होता; तो पुराना पत्ता प्लास्टिक का
रहा होगा,
झूठा
रहा होगा। धोखा था, मान्यता
थी, आभास था। अगर पुराना पत्ता सच
था, तो उसके गिरने से नये पत्ते
को जगह मिलनी चाहिए थी।
अलेक्जेंडर
दुःखी मरा,
रोते
हुए मरा,
क्योंकि
सारी दुनिया तो जीत ली, लेकिन
अपना जीवन गंवा दिया। पूछो बड़े से बड़े धनपतियों से। अगर वे ईमानदार हों, तो वे कहेंगे कि जीवन में राख
के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिला; राख
मिली। सब चुका कर बैठे हैं, हार कर
बैठे हैं।
दर्द
दीवाने बावरे,
अलमस्त
फकीरा।
और जो
प्रभु के मिलन-विरह में दुःखी हो रहा है, लेकिन दुःख में मस्ती है। दर्द-दीवाने बावरे? जो दुःख नहीं मान रहा है; अब कैसे दुःख! प्रभु का विरह
भी सुख है। प्रेमी की याद भी परम आनंद है। रो रहा है, लेकिन आंसुओं में उसके आने की
पगध्वनि है।...अलमस्त फकीरा। रो रहा है, लेकिन मस्ती है। रो रहा है, लेकिन निर्द्वंद्व है, अलमस्त है।
फकीरा
का अर्थ होता है: जिसके पास अपना कुछ भी नहीं। इसका ठीक वही अर्थ होता है, जो जीसस के इस वचन का
है--जीसस ने कहा: धन्य हैं दरिद्र, क्योंकि प्रभु का राज्य उनका ही होगा। धन्य
हैं दरिद्र!
किन
दरिद्रों की बात कर रहे हैं ईसा? उन
दरिद्रों की,
जो
कहता है: हमारा अपने पास कुछ भी नहीं है; जो है, सब परमात्मा का है, हमारा क्या है; जिनकी कोई मालकियत का दावा
नहीं है। खयाल करना फर्क। यह भी हो सकता है कि तुम सब धन छोड़ कर फकीर हो जाओ।
लेकिन धन छोड़कर भी तुम यह दावा करते रहो कि वे लाखों तुम्हारे थे, तुमने त्यागे, तुमने बड़ा कृत्य किया! तो तुम
फकीर नहीं हो! तुम अभी धन का हिसाब रखे हो।
फकीर
का अर्थ है: जिसने यह जाना कि मेरा यहां क्या हो सकता है! मैं नहीं था, तब यह संसार था। मैं नहीं
रहूंगा,
तब भी
यह संसार रहेगा। मेरे न होने, होने
से कुछ भी तो अंतर नहीं पड़ता। तो मैं थोड़े दिन के लिए बीच में आ जाता हूं और दावे
कर लेता हूं!
तुम
देखते हो,
जमीन पर
लोग लकीरें खींच कर दावे कर लिए हैं कि यह मेरी जमीन, यह मेरा देश! सीमाएं खींच ली
हैं। जमीन को पता ही नहीं है कि किसकी जमीन। तुम आये और तुम चले जाओगे। तुम जमीन
से पैदा हुए और जमीन में डूब जाओगे और खो जाओगे, और बीच में तुमने थोड़ी देर को
बड़े सपने देखे,
दावे कर
लिए!
दावेदार
जो नहीं है,
वही
दरिद्र,
वही
फकीर। जो कहता है,
मेरा
तो कुछ था ही नहीं, तो
त्याग कैसे हो सकता है? इसको
समझना।
भोगी
है, तो वह कहता है: मेरे पास
लाखों रुपये हैं। और त्यागी है, तो
कहता है,
मैंने
लाखों छोड़ दिये हैं। मगर दोनों एक बात में राजी हैं कि लाखों उनके थे या उनके हैं।
फकीर वह है,
जो
कहता है: मेरा कुछ भी नहीं। उपयोग कर लेता हूं, लेकिन मेरा नहीं है। उपयोग छोड़ दूं, लेकिन मेरा नहीं है। है तो सब
परमात्मा का। सबै भूमि गोपाल की। सब उसका है।
दर्द-दीवाने
बावरे,
अलमस्त
फकीरा।
जिसने
कह दिया,
सब
उसका है,
मेरा
कुछ भी नहीं,
उसका
अहंकार अपने आप विसर्जित हो जायेगा। क्योंकि अहंकार के लिए सहारे चाहिए। मेरा मकान, मेरा धन, मेरा पद, मेरी प्रतिष्ठा--मैं के लिए
मेरे का सहारा चाहिए। अगर मेरे की बैसाखियां अलग कर लो, तो मैं तत्क्षण गिर जाता है।
मैं बिलकुल लंगड़ा है।
तुम
में से बहुत लोग सोचते हैं: अहंकार कैसे छूटे? अहंकार न छूटेगा; जब तक मेरा न छूटे, तब तक मैं न छूटेगा। मेरा जाए, तो फिर तुम मैं को बचाना भी
चाहो, तो न बचा सकोगे। मेरा मेरा
मेरा--इसका जो जोड़ है, वही
मैं है। इसलिए तुम्हारे पास जितना मेरा कहने को होगा, उतना बड़ा मैं होगा।
तुम
देखते हो एक आदमी पद पर पहुंच गया, तो उसका मैं खूब फूल जाता है! फिर यही आदमी
पद पर न रहा,
तब तुम
उसे देखने जाओ;
उसको
मैं बिलकुल सिकुड़ जाता है, जैसे
गुब्बारे में से हवा निकल गई हो! वह सारा फैलाव गया। वह सिकुड़ गया।
तुम्हारे
पास धन है,
तुम एक
तरह से चलते हो। तुम्हारे पास धन नहीं है, तुम्हारी चाल में से प्राण निकल जाते हैं।
मैंने
सुना है: दो फकीर एक नाला पार कर रहे थे। छोटा-सा नाला था। एक फकीर तो छलांग लगा
गया और निकल गया उस पर। दूसरा फकीर बड़ा चकित हुआ, क्योंकि नाला यद्यपि छोटा था, फिर भी काफी बड़ा था और
छलांग...। उसने कभी सोचा भी न था कि कोई आदमी लगा सकेगा इतनी बड़ी छलांग। उसने भी
लगाने की कोशिश की, लेकिन
बीच में ही गिर गया। वह बड़ा हैरान हुआ। पानी से कपड़े तरह-बतर हो गए। बाहर निकला
किसी तरह,
उसने
अपने मित्र से पूछा कि भाई, तुमने
यह छलांग लगानी कहां सीखी! इतने दिन साथ रहे हो गए, मुझे बताया भी नहीं तुमने
कभी! इतनी लंबी छलांग! तुम तो अगर ओलम्पिक प्रतियोगिता में जाओ तो विश्व-रिकार्ड
तोड़ दो। मगर साखी कहां? उसने
कहा, इसका सीखने इत्यादि से कोई
संबंध नहीं।
पर तुम
छलांग इतनी लगाए कैसे? मैं भी
लगाया;
बीच में
गिर गया!
उसने
फकीर से कहा,
इसका
राज है कि मेरे जेब में रुपये हैं। जब जेब में रुपये होते हैं तो आदमी में गरमी
होती है! उसने कहा, तुम्हारे
जेब में क्या है?
खाली
जब छलांग लगाओगे कैसे?
आदमी
के पास रुपये हों,
तो
उसकी देखते हैं चला! उसकी सींग निकल आते हैं। रुपये न हों तो सिकुड़ जाता, ऊंचाई कम हो जाती है।
गुब्बारा फूट जाता है; हवा
निकल जाती है।
फकीर
अर्थ है: जिसने यह कहा कि मेरा कुछ भी नहीं है। यह कहते ही उसने कह दिया: मैं कुछ
भी नहीं हूं। तो फकीर का पहला परिधिगत अर्थ तो होता है कि मेरा कुछ नहीं गहरा
केंद्रगत अर्थ होता है कि मैं कुछ नहीं।
जिसके
पास कुछ भी नहीं है, स्व भी
नहीं, वही फकीर। फिर स्वभावतः मस्ती
का क्या कहना! जितना तुम्हारे पास है उतनी चिंता है, उतना द्वंद्व है, उतनी फिक्र है, उतनी सुरक्षा करनी, व्यवस्था करनी। जब तुम्हारा
कुछ भी नहीं है,
फिर
कैसी चिंता,
फिर
कैसा द्वंद्व,
फिर
कैसी सुरक्षा?
फिर
तुम सो सकते हो--पैर पसार कर।
एक
प्रधानमंत्री संन्यस्थ हो गया। जंगल चला गया। सम्राट उसे बहुत चाहता था। धीरे-धीरे
खबरें आने लगी कि वह परम ज्ञानी हो गया। तो सम्राट उसके दर्शन करने को गया। लेकिन
पुराना मंत्री था सम्राट का ही, तो
अनजानी अपेक्षाएं भी थी। जब सम्राट वहां पहुंचा, तो वह प्रधानमंत्री पैर फैलाए
एक वृक्ष के नीचे बैठा था, नंग-धड़ंग; एक ढपली बजा रहा था। न तो
उसने ढपली बजाना बंद किया, न उठ
कर नमस्कार किया,
न पैर
सिकोड़े। यह जरा सीमा के बाहर थी बात। यह जरा अशिष्ट था। सम्राट ने कहा, और सब तो ठीक है। मैंने सुना
है, तुम ज्ञानी हो गए; मगर यह कैसा ज्ञान? तुमने पैर भी न सिकोड़े! तुमने
ढपली भी अपनी बंद नहीं की। तुम उठ कर खड़े भी नहीं हुए। आखिर मैं तुम्हारा पुराना
मालिक हूं। कम से कम पैर सिकोड़ो। शिष्टाचार तो न भूल जाओ।
वह
फकीर हंसने लगा। उसने कहा, जाने
दो जी। अब क्या पैर सिकोड़ने? पैर
सिकोड़ता था,
क्योंकि
भीतर द्वंद्व था;
पद को
बचाना था। तुम्हारे लिए पैर सिकोड़े थे, इस भूल में तुम पड़ना भी मत; अपने ही लिए पैर सिकोड़े थे।
और तुम्हारे लिए उठ-उठ खड़ा होता था, इस झंझट में तुम पड़ना ही मत; इस भ्रांति में मत रहना। अपने
लिए ही उठ-उठ कर खड़ा होता था। भय था, पद को बचाना था। प्रतिष्ठा बचानी थी। धन
बचाना था,
नौकरी
बचानी थी। अब किसलिए उठना जी? किसके
लिए उठना?
अब तो
जब उठना होगा उठेंगे, नहीं
उठना होगा नहीं उठेंगे। अब कैसा शिष्टाचार और कैसा आचार? वे सब बातें थी, बकवास थीं; भीतर तो अहंकार था।
फकीर
का अर्थ होता है: जिसके पास अब अपना कुछ भी नहीं।
अलमस्त
शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ तो होता है: अपनी मस्ती में डूबा हुआ है, असीम मस्ती में डूबा हुआ। और
दूसरा अर्थ होता है: निर्द्वंद्व; जिसके
भीतर अब कोई द्वंद्व न रहा। अब कोई नहीं उठती। अब जो है, ठीक है। अब जैसा है, बिलकुल ठीक है। अब जिसके भीतर, अस्तित्व में कुछ भेद होना
चाहिए तब वह सुखी होगा--ऐसा भाव नहीं उठता। वह सुखी है ही। जैसा जगत चलता हो चलता
रहे, उसके सुख में कोई अंतर नहीं
पड़ता।
दर्द
दीवाने बावरे,
अलमस्त
फकीरा।
एक
अकीदा ले रहे,
ऐसे मन
धीरा।।
और
संन्यासी का अर्थ है: जो एक पर आस्था ले आया। एक अकीदा ले रहे...जिसने एक पर आस्था
जमा ली--और एकजुट आस जमा ली; जिसने
उस एक पर अपना सब समर्पित कर दिया; जिसने उस एक पर सब न्योछावर कर दिया, सब भेंट कर दिया।
एक अकीदा
ले रहे,
ऐसा मन
धीरा।
और फिर
जो प्रतीक्षा का रहस्य जानता है...ऐसे मन धीरा। उस एक पर जिसने सब छोड़ दिया और जो
प्रतीक्षा करने को अनंत रूप में तैयार है। क्योंकि तुम्हारे छोड़ते ही सब नहीं मिल
जाता। छोड़ते-छोड़ते-छोड़ते-छोड़ते छूटता है। तुम जब कहते हो: मैंने सब छोड़ दिया तब भी
सब नहीं छूटता;
कुछ न
कुछ बचा रह जाता है। पर्त-पर्त बचाव है। बड़ी गहराई तक तुम्हारा अहंकार छाया है।
जितना तुम जानते हो उतना तुम्हारा अहंकार नहीं, उससे बहुत ज्यादा है। तुमने तो ऊपर-ऊपर की
भनक सुनी है,
भीतर
अचेतन तक गहरे में जड़ चली गई हैं अहंकार की। तुम पते समर्पित कर देते हो, फूल समर्पित कर देते हो, शाखाएं काट डालते हो, वृक्ष काट डालते हो; लेकिन जड़े छिपी हैं--गहरे
अंतसचेतन में। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे जिस दिन तुम सब समर्पित कर देते हो, वस्तुतः सब समर्पित हो जाता
है, उस दिन क्रांति घटती है। पर
उसकी प्रतीक्षा करनी जरूरी है।
तो
प्रभु को पाने के लिए दो उपाय है--प्रार्थना और प्रतीक्षा। प्रार्थना का अर्थ है:
दास मलूका कहि गया, सबके
दाता राम। प्रार्थना का अर्थ है: तुम जो करोगे होगा। तुम जैसा करोगे, वैसा होगा। तुम जब करोगे, तब होगा। और प्रतीक्षा का
अर्थ है: मैं राजी हूं; मैं
प्रतीक्षा करूंगा;
जल्दी
नहीं है। तुम अगर अनंत तक भी प्रतीक्षा कराओगे, तो मैं प्रतीक्षा करूंगा। जल्दबाजी किसकी हो?
जल्दबाजी
भी अहंकार की है। जल्दबाजी भी अहंकार का हिस्सा है। अधैर्य अहंकार की छाया है।
अहंकारी जल्दी चाहता है--अभी हो जाए। उसका कारण भी समझने जैसा है।
अहंकारी
इतनी जल्दी क्यों चाहता है? क्योंकि
उसे पता है: मौत आ रही है। मौत के आने के कारण जल्द बाजी है। समय जा रहा है। एक
दिन गया,
एक दिन
कम हुआ। दो दिन गए , दो दिन
कम हुए।
तुम
देखते हो,
पश्चिम
के मुल्कों में ज्यादा जल्दबाजी है--बजाय पूरब के मुल्कों के! कारण? कारण है ईसाइयत की धारणा कि
एक ही जीवन है। जब एक ही जीवन है, तो
घबड़ाहट ज्यादा है। मौत आ रही है और एक ही जीवन है; अभी भोग भी नहीं पाये, कुछ भी नहीं पाये, यह मौत की पगध्वनि सुनाई पड़ने
लगी। यह ब्लड-प्रेशर बढ़ा; यह
हार्ट-अटैक होने लगा; ये मौत
के दो कदम पास पड़ने लगे; यह
द्वार पर दस्तक साफ होने लगी; ये मौत
की छायाएं दिखाई पड़ने लगीं। और अभी तो कुछ कर भी नहीं पाये और अभी कुछ हो भी नहीं
पाया और एक ही जीवन है। तो घबड़ाहट--बेचैनी!
पूरब
के मुल्कों में इतनी बेचैनी नहीं है। अनंत जीवन है। यह जीवन गया, कुछ गया नहीं; और जीवन आयेगा। यह ऋतु खो गई, कोई हर्जा नहीं; और ऋतु आयेगी। इस वसंत में
फूल न खिले,
अगले
वसंत में खिलेंगे;
वसंत
आता रहेगा।
ऋतु
शब्द बना है ऋतु से। वेद में शब्द है--ऋत्। ऋत् का अर्थ होता है, जो सदा लौटा-लौटा कर आ जाए; जो आता ही रहे; जो जाता है और आता है; जिसके जाने में आना छिपा है; जो इधर गया, उधर से आयेगा। जो अंतहीन
परिभ्रमण है संसार का--उसका नाम ऋत्। ऋत् उसी से बना है। इस बार नहीं बो पाये बीज
और वर्षा रीत गई,
वर्षा
चली गई,
मेघ
घुमड़े और बिदा हो गए--घबड़ाना मत; यह
खाली आकाश खाली न रहेगा; फिर
मेघ उठेंगे,
फिर
आषाढ़ आयेगा,
फिर
गरजेंगे बादल,
फिर
दामिनी दमकेगी। फिर तुम बो लेना बीज।
तो
पूरब में प्रतीक्षा है। इसलिए पूरब में समय की बहुत धारणा नहीं है। पश्चिम में बड़ी
समय की धारणा है,
बड़ा
समय-बोध है। अगर तुम किसी पश्चिमी से कह दो; मैं पांच बजे आता हूं और पांच मिनिट देर हो
जाओ, तो वह नाराज होता है। अब
हिंदुस्तान में पांच बे का मतलब छः बजे भी होता है, चार बजे भी होता है; चलता है। पांच बजे को मतलब
कोई पांच बजे ही नहीं होता। और तुमने कहा: सोमवार को आयेंगे, मंगल को आये, तो भी चलता है। यहां कुछ इतना
समय-बोध नहीं है। कुछ ऐसी पकड़ नहीं है समय पर।
घड़ी
पश्चिम में बनी,
पूरब
में हनीं बनी। पूरब में अधिकतर लोग घड़ी पहनते है--केवल आभूषण की तरह; ऐसा मेरा अनुभव है। कम से कम
स्त्रियां तो निश्चित आभूषण की तरह पहनती है। साज-सिंगार है। घड़ी का बोध नहीं है।
वह पश्चिमी बुद्धि नहीं है, भीतर, जो आतुर है, एकदम जल्दी से सब हो जाए, समय पर हो जाए, एक मिनिट न चूक जाए।
मिनिट-मिनिट बचाना है। फिर करना क्या है--मिनिट-मिनिट बचा कर? करने को कुछ भी नहीं है। जाना
कहां है?
मैंने
सुना है: एक जंगली इलाके में, एक
आदिम इलाके में रेलगाड़ी को पटरियां बिछाई जा रही थी। जो प्रधान आफिसर था, रेलगाड़ी का पटरियां बिछा रहा
था, उसने एक दिन देखा कि एक आदिम
आदमी, एक आदिवासी वृक्ष के नीचे बड़े
आनंद से लेटा हुआ,
एक
चट्टान पर सिर टिकाए; काम
देख रहा है। लोग काम कर रहे हैं, वह मजे
से लेटा है। वह आफिसर उसके पास गया, उसे बोला, तुम क्या करते हो? उसने कहा कि मैं लकड़ियां
काटता हूं और शहर बेचने जाता हूं। कितना समय लगता है आफिसर ने पूछा। उसने कहा कि
दो दिन जाने में लगते हैं, दो दिन
आने में लगते,
दो दिन
कम से कम बेचने में लग जाते हैं--कभी एक दिन भी दो दिन, कभी तीन दिन भी। तो उसने कहा:
ऐसे तो पूरा सप्ताह ही खराब हो जाता है! अब तुम देखो टे्रन बनी जा रही है, जल्दी ही, अलग वर्ष से तुम्हें दिक्कत न
रहेगी। घंटे में पहुंच जाओगे, घंटे
में आ जाओगे।
लेकिन
यह आदमी प्रसन्न न दिया। तो आफिसर ने पूछा, तुम प्रसन्न नहीं दिखाई पड़ते! उसने कहा, वह तो ठीक है: घंटे में चला
गया, घंटे में आ गया; फिर सात दिन क्या करूंगा? और एक झंझट। अभी तो एकाध दिन
बचता है;
छः दिन
का थका-मांदा आता हूं; देखो, आज लेटा हूं, विश्राम कर रहा हूं। एक दि
ठीक है। जब बच जाता है, तो मजे
से विश्राम कर लेता हूं मगर एक घंटे चले गए, एक घंटे में आ गए--फिर? फिर उन सात दिनों का क्या
होगा?
उसकी
चिंता स्वाभाविक है।
पश्चिम
में लोग समय को बचा लेते हैं, फिर
नहीं जानते कि क्या करें? फिर उस
समय का क्या हो?
फिर उस
समय का क्या उपयोग है?
समय के
संबंध में एक अधैर्य है, वह भी
अहंकार का हिस्सा है। और अहंकार स्वभावतः मौत से डरता है। क्योंकि मौत सिर्फ
अहंकार को मारती है, तुम्हें
नहीं मारती।
दर्द
दीवाने बावरे,
अलमस्त
फकीरा।
एक
अकीदा लौ रहे,
ऐसे मन
धीरा।।
एक
भरोसा कर लिया प्रभु पर, की
उसकी प्रार्थना और छोड़ दिया सब उस पर--ऐसा संन्यास है। और फिर अनंत प्रतीक्षा की
तैयारी: ऐसा नहीं है कि अनंत प्रतीक्षा करी होगी। बड़ी विरोधाभासी बात है, खूब मन में सम्हाल कर रख
लेना।
जितनी
जल्द बाजी करोगे,
उतनी
देर लगेगी। और जितना धैर्य रखोगे, उतना
जल्दी हो जायेगा। जो जितना प्रतीक्षा करने को राजी है, उतनी ही जल्दी घटना घट जाती
है। अगर तुम अनंत प्रतीक्षा करने को राजी हो, तो इसी क्षण परमात्मा मिलेगा। तुम्हारी
प्रतीक्षा का भाव ही परमात्मा के मिलने के लिए द्वार बन जाता है।
...ऐसे मन-धीरा
संन्यास
का अर्थ है: प्रार्थना।
संन्यास
का अर्थ है: निरहंकार
संन्यास
का अर्थ है: उसके मिलन में, उसके
विरह में मस्ती।
संन्यास
का अर्थ है: उसके आगमन की अनंत प्रतीक्षा।
प्रेम
पिलाया,
पीवते, बिसरे सब साथी।
आठ पहर
यों झूमत,
मैगल
माता हाथी।।
कहते
हैं मलूक: प्रेम पिलाया पीवते, बिसरे
सब साथी। संसार भूल गया, जब से
उसके प्रेम के प्याले से दो बूंद भी पी ली है। जब से उसके प्रेम का प्याला पिया जब
से उसकी प्रार्थना में लगे, जब से
मस्त हुए उसकी याद में, जब से
उसका स्मरण आया--तब से सब साथी बिसर गए। फर्क समझना।
संसार
छोड़ना नहीं है--प्रभु को चखना है। प्रभु को चलते हो संसार विस्मृत होने लगता है।
संसार को छोड़ने की जो चेष्टा में लगता है, और प्रभु को चखता नहीं है, उससे संसार छूटता नहीं; लौट-लौट कर आ जाता है; नये-नये ढंग में आ जाता है।
और दमन ही होता है भीतर। वासनाएं भीतर कुलबुलाती हैं। वासना के कीड़े भीतर अंधेरे
में सरकते हैं;
सब तरफ
से झांकते हैं,
सब तरफ
से संसार में खींच लेने की कोशिश करते हैं।
तुम
अगर अपने तथाकथित त्यागी के जीवन में उतर कर देख सको, तो बहुत हैरान हो जाओगे; उसकी दशा भोगी से भी बुरी है!
भोगी तो कम से कम भोग रहा है, इसलिए
उतना चिंतित-परेशान नहीं है। त्यागी भोग भी नहीं रहा है, और परमात्मा उसे मिला नहीं
है। उसकी दशा त्रिशंकु की है; वह बीच
में अटक गया है;
न यहां
का रहा--न वहां का: धोबी का गधा, न घर
का न घाट का। संसार छोड़ दिया, इस आशा
में कि प्रभु मिलेगा; लेकिन
संसार छोड़ने से प्रभु के मिलने का कोई भी संबंध नहीं है। असल में संसार तो प्रभु
का ही है। इसको छोड़ने से प्रभु के मिलने का क्या संबंध हो सकता है?
संसार
को समझने से प्रभु को मिलने का संबंध है, छोड़ने से नहीं। भागने से नहीं, जागने से। और जागना बड़ी अलग
प्रक्रिया है। और निश्चित रूप से यही है। कि जब तुम्हें प्रभु का थोड़ सा स्वाद लगा
जाए, तो संसार पर तुम्हारी पकड़ अपने
से छूटने लगती है। तुम्हें असली हीरे मिल जाए, तो नकली कांच के टुकड़ों को कौन ढोता है!
किसलिए?
किस
कारण?
प्रेम
पियाला पीवते,
बिसरे
सब साथी।
आठ पहर
यों झूरत,
मैगल
माता हाथी।।
जैसे
हाथी मस्त होकर झूमता है, मदमस्त
होकर झूमता है,
ऐसे
कहते हैं मलूकदास: आठ पहर यों झूमत...। संन्यासी आठों पहर झूमता रहता है। उसका
नृत्य भीतर चलता ही रहता है। वह मगन है। उसके भीतर एक गुनगुन चलती ही रहती है।
मैं
सांसों के दो तारे लिए फिरता हूं
मैं
स्नेह-सुरा का पान किया करता हूं
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूं
जग पूछ
रहा उनको जो जग की गाते
मैं
अपने मन का गान किया करता हूं।
मैं
निज उर के उदगार लिए फिरता हूं
में
निज उर के उपहार लिए फिरता हूं
है यह
अपूर्ण संसार,
न
मुझको भाता
मैं
स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूं।
कर
यत्न मिटे सब,
सत्य
किसी ने जाना?
नादान
वहीं हैं हाय जहां पर दाना
फिर
मूढ़ न क्या जग जो इस पर भी सीखे
मैं
सीख रहा हूं सीखा ज्ञान भुलाना
मैं
दीवानों का वेश लिए फिरता हूं
मैं
मादकता निश्शेष लिए फिरता हूं
जिसको
सुनकर जग झूम उठे,
लहराए
मैं
मस्ती का संदेश लिए फिरता हूं।
संन्यासी
के संबंध में तथाकथित त्यागियों के कारण बड़ी गलत धारणा बन गई है। संन्यास से हम
समझते हैं: कोई उदास, हारा-थका, पराजित, रोता-सा आदमी जिसके चेहरे पर
कभी हंसी नहीं आती; जिसके
जीवन में कभी कोई मस्ती का दर्शन नहीं होता; जहां रस की धारा नहीं बहती। त्यागी से हमने
अर्थ समझा है,
कोई
आदमी जो मरुस्थल जैसा सूख गया; सूखा-साखा
दरख्त,
जिस पर
अब नई कोंपलें नहीं फूटतीं; वसंत
आता है,
तो
खाली लौट जाता है;
पक्षी
जिस पर अब घोंसला भी नहीं बनाते; जिसकी
छाया भी खो गई है;
जिसकी
छाया में कोई यात्री विश्राम भी नहीं करता। ऐसे सूखे-साखे आदमी को हम कहते हैं
विरक्त--जिसमें रस बिलकुल सूख गया। यह संन्यासी की विकृत धारणा है। संन्यासी तो
सदा मस्ती में होगा। उसका नृत्य तो सदा चलता होगा। उसकी धु तो आठों पहर रहेगी। तुम
उसके पास सदा ही उत्सव पाओगे। जिसकी हवा में उत्सव हो और जिसके आसपास तरंगें
उल्लास की हों,
वहीं
जानना की संन्यास घटित हुआ है। उदास और रोते हुए लोग संन्यासी नहीं हैं--संन्यास
के धोखे में हैं। संसार उन्होंने त्याग दिया, यह सच है; लेकिन परमात्मा के प्याले से
एक बूंद भी उनके कंठ में नहीं उतरी। आठ पहर यों झूमत, मैगल माता हाथी।
उनकी
नजर न आवते,
कोई
राजा रंक।
संन्यासी
को न तो अमीर दिखाई पड़ता है--न कोई गरीब। क्यों? क्योंकि जिसको यही दिखायी पड़
गया कि सभी उसका है, फिर
कौन अमीर और कौन गरीब! उसके लिए तो अमीर भी गरीब हैं और गरीब भी गरीब हैं। क्योंकि
दोनों ही धन के पीछे दीवाने हैं। दोनों ही निर्धन हैं दोनों को असली धन का कोई अभी
संदेश नहीं मिला है।
उनकी
नजर न आवते,
कोई
राजा-रंक।
बंधन
तोड़े मोह के,
फिरते
निहसंक।।
और
जैसे ही प्रभु के प्रेम के प्याले से थोड़ी सी भी घूंट पी ली, फिर सारे मोह के बंधन छूट
जाते हैं। क्यों?
क्योंकि
मोह में हम उसी प्रेम को खोजते थे। मिलता नहीं था, तो पकड़ते थे। तुमने जिन-जिन
को पकड़ रखा है--किसलिए?--सोचना इसलिए कि शायद आज नहीं मिला, कब मिले, परसों मिले।
हम
परमात्मा के प्यासे हैं; पत्नी
को पकड़ बैठे हैं,
कि पति
को पकड़े बैठे हैं,
मित्र
को पकड़ बैठे हैं,
कि
बेटे को कि बाप को कि मां को पकड़ बैठे हैं। सोचते हैं: शायद परमात्मा मिल जायेगा। इसलिए
तो हमारे सभी संबंधों में विषाद है और सभी संबंधों में क्रोध है। तुम अपी पत्नी से
वस्तुतः कभी प्रसन्न नहीं हो सकते, क्योंकि तुम इतनी बड़ी मांग कर रहे हो जो उस
गरीब के पास है नहीं। तुम मांग रहे हो कि वह देवी हो, परमात्मा जैसी हो। पत्नी
तुमसे मांग रही है कि तुम परमात्मा जैसे होओ। वह हो नहीं सकता; जो नहीं हो सकता; तो फिर बेचैनी है, क्रोध है; वैमनस्य है, कलह है; हजार तरह के उपद्रव हैं।
लेकिन अगर गौर से देखोगे, तो
तुम्हारी पत्नी चाहती है कि तुम परमात्मा जैसे होओ। तुम्हारी पत्नी जब नाराज होती
है कि तुम धूम्रपान मत करो, तो वह
क्या कह रही है?
वह
कहती है कि धूम्रपान करे मेरा पति! कि तुम जब जाते जुआ खेलने, तो तुम्हारी पत्नी रोती है, पीड़ित होती है, क्योंकि वह सोचते है कि उसका
पति! उसने पति में परमात्मा खोजना चाहा है। यह बात जरा जंचती नहीं कि परमात्मा जुआ
खेलने चले! शायद उसे भी साफ न हो कि क्यों वह तुमसे इतनी नाराज है। आखिर अगर एक
दफा खेल भी आये,
तो
क्या हर्ज है?
अगर
तुमने थोड़ी सिगरेट पी भी ली, तो
क्या हर्ज है;
कि कभी
शराब भी पी ली,
तो ऐसा
क्या बिगड़ गया?
नहीं, उसकी धारणा! तुम्हें थोड़े ही
चाहा है उसने;
चाह
में परमात्मा को खोजना चाहा है। उसे भी शायद साफ न हो।
तुम भी
पत्नी में कुछ अपूर्व खोज रहे हो--कुछ दिव्य, कुछ शाश्वत। वह नहीं मिलता। मिलता है: एक
साधारण स्त्री--साधारणर् ईष्या, वैमनस्य, क्रोध, घृणा से भरी। मन व्यथित हो
जाता है,
जैसे
धोखा हुआ;
जैसे
किसी ने धोखा दे दिया। तुमने चाहा था--एक अपूर्व सौंदर्य, जो कभी न कुम्हलाया--और यह
पत्नी कुम्हलाने लगी। तुमने चाहा था--कुछ परलोक का, वह मिलता नहीं, तो तुम उदास होने लगते हो।
उदास हो जाते हो,
तो तुम
किसी दूसरी स्त्री में खोजते हो, किसी
दूसरे पुरुष में खोजते हो।
मगर
परमात्मा को खोजना हो, तो यह
कोई उपाय नहीं है। जिन्होंने परमात्मा की तरफ सीधी नहर उठाई, जो थोड़े से भी सीमा को छोड़ कर
असीम की तरफ सरके और सीमा में जिन्होंने जरूरत से ज्यादा मांग न की--सीमा की शर्त
हैं, सीमा की सीमाएं
हैं--जिन्होंने असीम की मांग न की और असीम को जिन्होंने सीधा खोजने का प्रयास किया, उनके जीवन में मोह के बंधन
अपने-आप छूट जाते हैं। जितना गठबंधन परमात्मा से हो जाता है, उनके और सब गठ-बंध अपने-आप
खुल जो हैं। बंधन तोड़े मोह के, फिरते
निहसंक।
साहेब
मिल साहेब भए,
कुछ
रही न तमाई।
कहैं
मलूक तिस घर गए,
जंह
पवन न जाई।।
साहेब
मिल साहेब भए...। और परमात्मा से मिलने का सबसे बड़ा अपूर्व जो परिणाम है, वह यह है कि परमात्मा से जो
मिला, वह परमात्मा हो गया। इससे
छोटे में मन राजी होगा भी नहीं। इससे छोटे में बेचैनी रहेगी। तुम छोटे आंगन में न
समा सकोगे। तुम्हें यह पूरा आकाश चाहिए। तुम्हारी नियति यह पूरा आकाश है। तुम्हें
विराट चाहिए,
विभु
चाहिए। तुम जब तक साहब ही न हो जाओ, तुम जब तक मालिकों के मालिक न हो जाओ, तब तक तुम अतृप्त रहोगे।
अतृप्ति जलती रहेगी, काटती
रहेगी भीतर--छुरे की धार की तरह, तुम्हारे
प्राणों को सताती रहेगी।
साहेब
मिल साहेब भए,
कुछ
रही न तमाई।
तमाई
बड़ा प्यारा शब्द उपयोग किया मलूक ने इसका अर्थ होता है: तम, अंधेरा, तामसिकता, क्षुद्रता। इसका अर्थ होता है
वासना। इसका अर्थ होता है: मूलत: अब भीतर कोई अंधेरा न रहा, दीया जलने लगा।
साहेब
मिल साहेब गए,
कुछ
रही न तमाई।
अब कोई
अंधेरा न रहा।
कहैं
मलूक तिस घर गए,
जंह
पवन न जाई।
यह
सूत्र बड़ा अनूठा है।
बुद्ध
ने कहा है अपने भिक्षुओं को, श्वास
को देखना--अनापानसतियोग या सतिपत्थान। श्वास को देखना। क्यों? क्योंकि बुद्ध ने कहा है, श्वास को देखते-देखते तुम्हें
यह दिखाई पड़ेगा कि श्वास तुम नहीं हो। तुम वहां हो, जहां श्वास भी नहीं जाती।
श्वास शरीर के लिए जरूरी है, तुम्हारे
लिए जरूरी नहीं है। श्वास आत्मा और शरीर के बीच सेतु है, जोड़ है। इसलिए श्वास टूट जाती
है, तो आत्मा और शरीर का संबंध
छूट जाता है। लेकिन इससे मृत्यु नहीं घटती, इससे केवल संयोग छूट जाता है। श्वास के
प्रति जागे रहो;
अगर
श्वास को देखते रहो--भीतर आई, बाहर
गई, भीतर आई, बाहर गई--इसके प्रति होश को
प्रगाढ़ करते जाओ,
बुद्ध
ने कहा,
तो एक
दिन पाओगे कि तुम श्वास नहीं हो। जिस दिन यह जाना कि मैं श्वास नहीं हूं, उसी दिन तुम मृत्यु के बाहर
हो गये,
अमृत का
दर्शन हो गया।
यह
मलूक की पंक्ति कहती है:
साहेब
मिल साहेब भए,
कुछ
रही न तमाई।
कहैं
मलूक तिस घर गए,
जंह
पवन जाई।।
--जहां श्वास नहीं पहुंचती, उस घर में पहुंच गए। जहां
श्वास नहीं पहुंचती, वहीं
अमृत का वास है। जहां तक श्वास जाती है, वहां तक संसार है। जहां श्वास नहीं जाती, वहीं परमात्मा हो जाते हो।
ऐसा नहीं कि तुम परमात्मा का दर्शन करते हो कि अहो, कैसे सुंदर! तुम ही परमात्मा
हो जाते हो।
जब तक
इतनी भी दूरी रही कि तुम देखने वाले और परमात्मा दृश्य रहा, तक बेचैनी रहेगी। इतनी दूरी
भी सही नहीं जाती। यही तो प्रेम की पीड़ा है। तुम जिसे प्रेम करते हो, उससे दूरी नहीं सही जाती।
लेकिन इस जगत में कुछ भी करो, दूरी
तो रहेगी। कितना ही तुम पत्नी को प्रेम करो, पति को प्रेम करो, दूरी तो रहेगी। तुम दो हो, दूरी तो रहेगी। मिल जाओगे
क्षण भर को,
लेकिन
क्षण भर का मिलन होगा, फिर
दूरी खड़ी हो जायेगी--और भी प्रगाढ़ हो कर खड़ी हो जायेगी; पहले से भी ज्यादा दूरी मालूम
होगी।
ऐसा
होता है,
तुम
रास्ते से निकल रहे हो, अंधेरी
रात है। धीरे-धीरे अंधेरे मैं चलते-चलते तुम्हें थोड़ा-थोड़ा दिखाई भी पड़ने लगा है।
फिर एक अचानक तेज प्रकाश वाली कार तुम्हारे पास से निकल गई, एकदम रोशनी हो गई। कार के
जाने पर तुम पाओगे; अंधेरा
और भी ज्यादा हो गया; अब कुछ
भी नहीं दिखाई पड़ता। पहले अंधेरे में चलते-चलते थोड़ा दिखाई भी पड़ता था; अब यह कार और तुम्हें चकाचौंध
से भर गई,
कुछ भी
नहीं दिखाई पड़ता।
जब भी
पति और पत्नी क्षण भर को प्रेम के आवेग में मिलते हैं, तो उसके बाद और भी दूर हो
जाते हैं--पहले से भी ज्यादा दूर। यही तो दुःख है संभोग का। संभोग के बाद सभी लोग
विषाद से भर जाते हैं। यह तो पास आना चाहा था, और दूर फिक गए। यहां तो अद्वैत सध नहीं
सकता। अद्वैत तो सध सकता है सिर्फ परमात्मा से, क्योंकि वहां देह का सवाल नहीं है। देह दो
कर रही है। देह अलग-अलग कर रही है। देह के पार को जानते ही भेद समाप्त हो जाते
हैं।
साहेब
मिल साहेब भए,
कुछ
रही न तमाई।
कहैं
मलूक तिस घर गए,
जंह
पवन न जाई।।
जल-सा
तरल बनूं
सूरज
की किरण-डोर पकड़
गगन
चढूं
बाष्प
बन विचरूं
फिर
बरसूं
चंदा
की शीतल छाया छू
हिमखंड
बनूं
फिर
पिघलूं,
बहूं
चाहे
चहां ढलूं
चाहे
जो रूप-रंग
आकृति
ग्रहण करूं
जो हूं
अंततः वही रहूं!
इस
प्रार्थना की जरूरत नहीं है। जो हम हैं, हम वही रहते हैं। अनंत-अनंत काल में
अनंत-अनंत भटकावों में पड़ने के बाद भी साहब हमारे भीतर मौजूद है, हम वही के वही हैं। इसलिए तो
साहेब मिल साहेब भए।
अगर हम
साहब से अलग होते,
तो मिल
कर एक नहीं हो सकते थे। साहब के साथ एक हैं ही। इसीलिए स्मरण आते ही, बोध आते ही तत्क्षण भेद गिर
जाते हैं। साहब के साथ हमारी एकता शाश्वत है। हम परमात्मा से कभी अलग हुए नहीं। हम
परमात्मा से अलग हो नहीं सकते हैं। जैसे सागर में लहर अलग नहीं हो सकती, कितनी ही उछले-कूदे, कितने ही रूप धरे, दूर आकाश में उठ जाये उत्तुंग, जहाजों को डूबा दे, पक्षियों के साथ होड़ करे, सूरज को छूने की चेष्टा
करे--लेकिन सागर से दूर नहीं हो सकती, सागर से अलग नहीं हो सकती; सागर की ही है, फिर गिर पड़ेगी, फिर सागर में खो जायेगी। यह
जो बल है लहर का,
वह भी
सागर का बल है। हम तो लहरें हैं। जिस दिन लहर जाग कर देखती है, उस दिन वह कहेगी: अरे, तो मैं लहर--सागर हो गई! मगर
लहर सागर थी।
साहेब
मिल साहेब भए,
कुछ
रही न तमाई।
कहैं
मलूक तिस घर गए,
जंह
पवन न जाई।।
आपा
मेटि न हरि भजे,
तेई नर
डूबे।
कहते
हैं मलूक: वही डूबता है, जो
अपने को भूल कर परमात्मा को नहीं याद करता। हम अपने को याद कर रहे हैं, और परमात्मा को भूले हैं।
दुनिया
में दो ही ढंग हैं जीने के। अपने को याद करो, परमात्मा को भूलो--यह ढंग, कहो संसारी का ढंग। अपने को
भूलो, परमात्मा को याद करो--दूसरा
ढंग, कहो संन्यासी का ढंग। अपने को
नंबर दो रखो और परमात्मा को नंबर एक, फिर देर न लगेगी--साहेब मिल साहेब भए। अपने
को नंबर एक रखो और परमात्मा को नंबर दो, तो तुम ही नास्तिक हो।
तुमने
देखा आस्तिक भी मंदिर में प्रार्थना करने जाता है तो परमात्मा को नंबर दो रखता है, नंबर एक नहीं! वह परमात्मा से
कहता है;
जो मैं
चाहता हूं,
वह तू
कर। वह यह नहीं कहता कि जो तू करे, वह मुझे स्वीकार। वह यह ही कहता कि तेरी
मरजी में स्वीकार,
मैं आनंद
से स्वीकार करने आया हूं। वह कहता है कि देखो, मेरे लड़के को नौकरी नहीं मिल रही, नौकरी लगवा दो; कि मेरी पत्नी बीमार है और
मैं कितना भक्ति-भाव कर रहा हूं; सुनो
सब कुछ,
बहरे
मत बनो,
इसे
ठीक कर दो। नंबर एक वह खुद ही है, परमात्मा
की भी सेवा लेना चाहता है। मालिक वही है। मालिक अपने को समझ रहा है, परमात्मा का भी उपयोग करना
चाहता है। यह आस्तिकता नहीं है।
आपा
मेटि न हरि भजे,
तेई नर
डूबे।
वही
डूबता है,
जो
अपने को तो भूलता नहीं और परमात्मा को भूला रहता है।
हरि का
मर्म न पाइया,
कारन
कर डूबे।
और
इसीलिए डूबता है कि हरि का मर्म न पा सका। जिसने अपने को भूला और परमात्मा को याद
दिया, उसकी बड़ी और गति है।
तुम
रहो यदि साथ मैं तो पार क्या, मझधार
क्या है
हर लहर
तट है मुझे तो,
सिंधु
की ललकार क्या है
फिर
भरे तूफान में मेरी अपने करों से
तुम
डुबाओ,
तट न
पाऊं, यह कभी संभव नहीं है।
फिर तो
परमात्मा अगर डुबाए भी, तो भी
तट मिल जाता है। यह थोड़ा समझना।
जीसस
का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि जो अपने को बचाएगा, वह खो देगा और जो अपने को खो देगा, वह पा लेगा। बड़ा विरोधाभासी
वचन है,
पर बड़ा
बहुमूल्य भी। जो अपने को बचाएगा, वह खो
देगा।
करें
भरोसा पुन्न का,
साहब
बिसराया।
और वे
लोग भी जिनको तुम धार्मिक कहते हो--करें भरोसा पुन्न का साहब बिसराया--उसको भी
साहब से कुछ मतलब नहीं है। वे भी भरोसा करते हैं कि देखो हमने इतना दान दिया, इतना पुण्य किया, इतनी मस्जिदें बनवा दीं, इतने मंदिर, इतने गुरुद्वारे, इतने ब्राह्मणों को भोजन
करवाया,
इतने
अस्पताल खोल दिये,
इतने
स्कूल चलाए,
हमने
इतना पुण्य किया। इस पुण्य के बल पर वे सोचते हैं कि पा लेंगे सत्य को, तो भ्रांति है उनकी। क्योंकि
वह पुण्य भी अहंकार की ही घोषणा है। यह पुण्य भी अहंकार का ही आभूषण है। यह पुण्य
भी जंजीर है। माना कि सोने कि है, मगर है
जंजीर ही। पाप होगी जंजीर लोहे की, पुण्य होगी जंजीर सोने की; मगर इससे क्या फर्क पड़ता है, जंजीर तो जंजीर है, दोनों बांध लेती हैं।
करें
भरोसा पुन्न का,
साहब
बिसराया।
यह
आदमी जो कहता है: मैंने पुण्य किया, यह भी तो कर्ता बन रहा है। कर्ता बन रहा है
कि चूका,
कि आपे
से घिरा,
कि फिर
सागर में मर्म को नहीं समझ पाया। एक ही पुण्य है इस जगत में और वह पुण्य है: यह
जानना कि मैं कर्ता नहीं हूं, परमात्मा
कर्ता है। और एक ही पाप है इस जगत में--यह जानना कि मैंने किया और परमात्मा कर्ता
नहीं है,
कर्ता
मैं हूं।
करें
भरोसा पुन्न का,
साहब
बिसराया।
बूड़ गए
तरबोर को,
कहूं
खोज न पाया।।
ऐसे
लोग कितना ही खोजते रहें, कभी
खोज न पायेंगे। इतनी खोज ऐसी है, जैसे
कोई चम्मच से ले कर और सागर को नापने चले। अहंकार की छोटी-सी चम्मच--तुम अथाह सागर
को नापने चले हो!
मैंने
सुना है: यूनान के सागरत्तट पर एक आदमी एक छोटा सा गङ्ढा खोद कर बैठा था और एक
चम्मच हाथ में ले कर भाग कर जाता, सागर
से पानी भरता और आ कर गङ्ढे में डालता। अरस्तू घूमने निकला था। उसने यह देखा। वह
घूम रहा था सुबह। बार-बार उसने देखा। वह थोड़ा हैरान हुआ। उसे बड़ी बेचैनी भी हुई।
किसी के काम में बाधा तो नहीं डालनी चाहिए। लेकिन फिर जिज्ञासा को रोक न सका, तो उसने पूछा कि भई, तुम यह क्या कर रहे हो? चम्मच से पानी भर-भर कर इस
गङ्ढे में डाल रहे हो! उसने कहा, मैंने
तय किया है कि सागर को उलीच कर रहूंगा। अरस्तू हंसा। उसने कहा कि भाई पागल हो
जाओगे?
पागल
तुम हो ही,
नहीं
तो ऐसा विचार ही कैसे उठता! यह छोटा-सा गङ्ढा, यह जरा-सी चम्मच, इतने विराट सागर को...जरा
हिसाब तो लगाओ!
और वह
पागल खूब खिल-खिल कर हंसने लगा। तो अरस्तू ने पूछा कि तुम हंसते क्यों हो? बात क्या है? उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि अगर
मैं पागल हूं,
तो तुम
कौन हो! मैंने सुना है कि छोटी सी खोपड़ी से परमात्मा को समझने की चेष्टा में लगे
हो। तुम अपने छोटे से तर्क की चम्मच से अथाह को थाह पाने चले हो!
कहते
हैं, अरस्तू बहुत उदास हो गया। बात
तो सच थी। अरस्तू यूनान का सबसे प्रसिद्ध दार्शनिक था और सबसे बड़ा तार्किक। कहते
हैं, पश्चिम के तर्कशास्त्र का वही
पिता है। तो जिसने भी यह गङ्ढा खोदने का नाटक किया होगा, वह आदमी अदभुत रहस्यवादी संत
रहा होगा। रहा होगा बाबा मलूकदास जैसा कोई! ठीक ऐसा ही कोई अलमस्त आदमी रहा होगा।
चेताने की चेष्टा करता होगा अरस्तू को कि इस छोटी-सी खोपड़ी में भर न सकोगे विराट
को। और तर्क की जरा सी चम्मच!
करें
भरोसा पुन्न का,
साहब
बिसराया।
बूड़ गए
तरबोर को,
कहुं
खोज न पाया।।
यह
अथाह है। यह जो सत्य है, चारों
तरफ से तुम्हें घेरे हुए, अथाह
है। इसे तुम पुण्य की चम्मच से न खोज पाओगे। इसे तुम अहंकार के छोटे से तराजू पर न
तौल पाओगे। इसे तो तौलना हो, इसे तो
जानना हो,
पहचानना
हो, तो एक ही उपाय है: इसमें डूब
जाओ! इसमें गल जाओ! इसके साथ एक हो जाओ!
साहेब
मिल साहेब भए,
कुछ
रही न तमाई।
कहैं
मलूक तिस घर गए,
जंह
पवन न जाई।।
साध
मंडली बैठिके,
मूढ़
जाति बखानी।
हम बड़ा
हम बड़ करि मंए,
बूड़े
बिन पानी।।
और
कहते हैं मलूक कि साधुओं के सत्संग में भी बैठने जाते हो, तो वहां भी सत्संग नहीं करते
तुम।
साध
मंडली बैठिके,
मूढ़
जातिब खानी। वहां भी तुम यही फिक्र करते हो कि मैं ब्राह्मण हूं, कि मैं क्षत्रिय हूं, कि मैं राजा हूं, कि मैं ज्ञानी हूं, कि मेरे पास इतना धन, कि मेरे पास इतना पद! वहां भी
तुम मूढ़ता की बातें करते हो। साधुओं के सत्संग में बैठ कर भी तुम सत्संग नहीं कर
पाते।
साधु
के पास बैठने से थोड़े ही सत्संग होता है। अगर तुम्हारे पास अहंकार की चादर चारों
तरफ लिपटी हो,
तो
साधु बरसता रहेगा और तुम बिना भीगे रह जाओगे। सत्संग तो तभी होता है, जब तुम सब चादरें उतार कर रख
दो--नग्न;
सब
द्वार-दरवाजे खोल दो--निर्भय। सत्संग तो तभी होता है, जब तुम किसी सदगुरु की तरंग
को, अपने भीतर जाने दो, अपने हृदय को उसके साथ नाचने
दो, जब तुम उसकी तरंग के साथ एक
हो जाओ;
जब कुछ
घड़ियों को तुम मिट जाओ, भूल
जाओ।
गुरु
के पास तो पहला पाठ सीखना है मिटने का, ताकि फिर एक दिन तुम उस महागुरु के साथ मिट
सको। गुरु समझो कि एक छोटा सा सरोवर है, इसमें तुम जैसे झरोखा है, अगर तुम इसमें उतार जाओ तो
किसी दिन विराट आकाश में पहुंच जाओगे।
साध
मंडली बैठिके,
मूढ़
जाति बखानी। वहां भी तुम अपने अहंकार की ही चर्चा में लगे रहते हो! चर्चा जरूरी
नहीं कि तुम प्रकट रूप से करते हो।
यहां
लोग हैं। वे खबर भेजते हैं कि हम आना तो चाहते है सुनने, लेकिन पीछे नहीं बैठ सकते।
खबर भेजता हैं: आगे बैठने का इंतजाम होना चाहिए। क्यों? जो आगे आये, वह आगे बैठ जाये। जो पीछे आये, वह पीछे बैठ जाये। उन्हें यह
बात खलती है कि उनको पीछे बैठना पड़े। अगर ऐसा कोई आ भी जाये, कुछ कहे भी न तो पीछे
बैठा-बैठा तड़फता रहेगा कि पीछे बैठा हूं। सुन नहीं पायेगा कि क्या हो रहा है। यहां
क्या घट रहा है,
उसमें
लीन भी नहीं हो पायेगा, डूब भी
नहीं पायेगा। मजबूत लोहे की चादर उसके चारों तरफ जकड़ी है।
कुछ
लोग खबर भेजते हैं कि वे नीचे नहीं बैठ सकते, फर्श पर नहीं बैठ सकते। क्यों? क्या तकलीफ है? किसी को कलेक्टर होने की
बीमारी है;
किसी
को कमिश्नर होने की बीमारी है; किसी
को मेयर होने की बीमारी है; किसी
को मिनिस्टर होने की बीमारी है। बीमारियां इतनी हैं! तो मैं उनसे कहता हूं, आओ ही मत, क्योंकि बेकार होगा आना। नाहक
चल कर आओगे-जाओगे,
इतनी
तकलीफ,
इतना
समय गंवाओगे,
इस बीच
कुछ और कर लेना। उपमंत्री हो, तो इस
बीच थोड़े चढ़ कर मंत्री बन जाना। डिप्टी कलेक्टर हो, तो कलेक्टर बनने की कोशिश में
लगा देना इतना समय। तो कुछ सार होगा। यहां आने से क्या फायदा होगा? वह जो तुम्हारे भाव है, वह तुम्हें वंचित कर देगा।
साध मंडली बैठिके,
मूढ़
जाति बखानी।
हम बड़
हम बड़ करि मुए,
बूड़े
बिन पानी।।
और ऐसे, मलूक कहते हैं, तुम बिनना पानी के डूब मरोगे।
चुल्लू भर पानी की भी जरूरत न होगी। हम बड़ कर मुए, बूड़े बिना पानी।
तबके
बांधे तेई नर,
अजहुं
नहिं छूटे।
और
जन्मों से तुम बंधे हो इसी मूढ़ता से और अभी तक नहीं छूटे! अब तो चेतो; अब तो जागो! अजहूं चेत गंवार!
तबके
बांधे तेई नर...कब के बंधे हो! कितना दुःख पाया! कितनी पीड़ा झेली! कितने दंश, कितने कांटे! लहूलुहान हो गए
तुम्हारे पैर। हृदय तुम्हारा छिन्न-छिन्न हो गया है। कहीं कोई शांति नहीं, कहीं कोई आनंद नहीं। फिर भी
इस अहंकार को पकड़े हो! कब जाओगे?
तबके
बांधे तेई नर,
अजहुं
नहिं छूटे। कितने जन्मों-जन्मों से यह तुम्हें पकड़े हुए लिए जा रहा है! और भी
तुम्हें पकड़े रहेगा। अगर आज नहीं छोड़ा, तो कल कैसे छोड़ोगे? क्योंकि जब भी समय आता है, आज की तरह आता है।
मैंने
सुना, एक होटल में, होटल ठीक नहीं चलती थी तो
मैनेजर ने एक तरकीब की; उसने
एक तख्ती लगा दी होटल पर कि भोजन मजे से करिये, आपको पैसे न चुकाने पड़ेंगे। आपके नाती-पोते
चुका सकते हैं। हम आपके नाती-पोतों से ले लेंगे, आप फिक्र न करें।
बड़ी
भीड़ हो गई। मुल्ला नसरुद्दीन भी पहुंच गया--अपनी पत्नी, बच्चों, मोहल्ले के बच्चों को भी ले
कर और मित्रों को भी लेकर कि आओ। जो भी श्रेष्ठतम भोजन उपलब्ध हो सकता था, खूब डट-डट कर उसने खिलवाया।
अब कोई कमी न थी। अब नाती-पोतों की नाती-पोते जानेंगे, क्या लेना-देना उसका! जब बाहर
निकलने लगा,
तो
मैनेजर ने आ कर छः सौ रुपये का बिल उसके हाथ में दे दिया। छः सौ रुपये, और उसने कहा, बिल कैसा! तख्ती को देखो।
उसने कहा,
वह तो
ठीक है। यह आपके बाप-दादे जो भोजन कर गए थे, उसका बिल है। आज का बिल तो हम नाती-पोतों सो
ले लेंगे।
ऐसे
पीछे से बंधे,
आगे से
बंधे हम सरकते रहते हैं। तुमने अपने पिछले जन्मों में जो किया है, उससे भी नहीं छूट पाये हो।
अभी जो कर रहे हो,
वह कल
तुम्हें और बांध लेगा।
तबके
बांधे तेई नर,
अजहुं
नहिं छूटे।
पकरि पकरि भलि भांति से, जमदूतन लूटे।।
और
कितनी दफे मौत ने तुम्हें लूटा और भलीभांति पकड़-पकड़ कर लूटा, फिर भी तुम अब तक नहीं समझ
पाये! कितनी बार मरे, कितनी
बार जन्मे;
कितनी
बार फिर पैदा होते ही फिर उसी दौड़ में लग गए! कितनी बार धन इकट्ठा किया, कितनी बार गंवाया! कितनी बार
पत्नी-पति के राग-रंग में पड़े, कितनी
बार राग-रंग टूटा! मौत आई--सब छीनती गई। फिर भी तुम जागते नहीं।
तबके
बांधे तेइ न,
अजहुं
नहिं छूटे।
पकरि
पकरि भलि भांति से, जमदूतन
लूटे।।
हार गए
यमदूत भी तुमसे। खूब भलीभांति से पकड़-पकड़ कर खूब तुम्हें पीटते, मारते, खींचते! मगर जैसे ही तुम
यमदूतों के हाथ से छूटते हो, तुम
फिर उसी काम में लग जाते हो।
काम को
सब त्यागी के,
जो
रामहिं गावै।
दास मलूका
यों कहै,
तेहि
अलख लखावै।।
कहते
हैं मलूक: काम को सब त्यागी के, जो
रामहिं गावै,
एक काम
भर कर लो,
जो
तुमने कभी नहीं किया। अब तक तुम कामवासना में ही पड़े रहे, तुमने सारी ऊर्जा कामवासना
में लगा दी,
कामना
में लगा दी। वही ऊर्जा का थोड़ा सा हिस्सा राम के गुणगान में लगाओ। काम से थोड़ी सी
ऊर्जा मुक्त करो,
राम से
डुबाओ।
दो
दिशाएं हैं--काम और राम। काम का अर्थ है: अंधे की तरह अहंकार की बातों का मान कर
चले जाना। राम का अर्थ है: विराट को सुनना, अनंत की तरफ आंखें उठाना, शाश्वत को गुनगुनाना। जो
रामहिं गावै...थोड़ा राम का गीत गुनगुनाओ, थोड़ी राम की मस्ती में लगो।
दास
मलूका यों कहै,
तेहि
अलख लखावै।
और
जिसने राम का गीत गाना सीख लिया, जिसने
भजा अल्लाह को,
जिसने
थोड़ी सी गुनगुन की भीतर प्रभु की, उसे वह
मिल जाता है जो लक्ष्य है और किसी तरह से साधे नहीं सधता।
तेहि
अलख लखावै। जो दिखाई नहीं पड़ता आंखों से, वह दिखाई पड़ता है फिर। जो कानों से सुनाई
नहीं पड़ता,
वह
मधुर, अपूर्व संगीत सुनाई पड़ता है
फिर। तो हाथ से छुआ नहीं जाता, वह
प्राणों से छुआ जाता है फिर। तेहि अलख लखावै। असंभव संभव हो जाता है राम के साथ।जो
नहीं होता किसी भी तरह, वह
संभव हो जाता है। अकेले-अकेले संभव हो संभव नहीं होता, असंभव की तो बात ही छोड़ दो।
जो लहर
अकेले ही जीने को कशिश कर रही है, विक्षिप्त
हो जायेगी। और जो लहर सागर के साथ जीने लगी, जिसने सागर के साथ संबंध घोषित कर दिया और
कहा, तुम्हारी हूं; तुम्हीं गुनगुनाना मुझसे...रामहिं
गावै, अब मैं नहीं गाती, तुम ही गाओ मुझसे; अब तुम्हीं धड़को मेरी धड़कन
में; तुम्हीं उठो लहर बन कर; तुम्हीं छुओ चांदत्तारों को; तुम्हीं नाचो; मैं हटती हूं, मैं तुम्हें द्वार दरवाजा
देती हूं...रामहिं गावै...तेहि अलख लखावै--फिर उसे जो अलक्ष्य है, वह भी उसका लक्ष्य बन जाता
है। जो नहीं मिल सकता है, वह भी
मिलता है। जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि कभी पा सकेंगे, वह कल्पनातीत भी हमारे ऊपर
झरत जाता,
बरस
जाता।
जरा
राम की तरफ आंख उठाओ, तो राम
तुम्हारी तरफ आंख उठाये।
मैं
समझता हूं तेरी इश्वागिरी को साकी।
काम करती
है नजर,
नाम है
पैमाने का।।
कुछ
पीने-पिलाने की जरूरत नहीं, बस
उसकी नजर से थोड़ी नजर मिल जाए, काम
करती है नजर,
नाम है
पैमाने का। उस परम प्रियतम की आंखें से थोड़ी आंख मिल जाए, बस एक दरस--सब हो गया! परम
कीमिया तुम्हारे हाथ आ गई। उस एक झलक में ही, उसकी आंख से तुम्हारी आंख के मिल जाने में
ही, तुम समझ लोगे कि जब तक
भूल-चूक कहां हो रही थी।
और
ध्यान रखना,
परमात्मा
तुम्हारी तरफ सादा से देख ही रहा है। उसकी नजर तुम पर गड़ी है। सिर्फ तुम्हीं उसकी
तरफ नहीं देख रहे। इसलिए तुम्हारे ही लौटने की बात है। और जब तक तुम उसे न देखोगे, तब तक भूल-चूक होती रहेगी; तुम कंकड़-पत्थरों को हीरे
समझोगे।
जो शै
है फना उसे बका समझा है
जो चीज
है कम उसे सिवा समझा है
है
बहरे जहां में उम्र मानिंदे हबाब
गाफिल
इस जिंदगी को क्या समझा है?
जो शै
है फना,
उसे
बका समझा है। जो कुछ नहीं है, उसे सब
कुछ समझ बैठे हैं। जो मिटने को ही है, उसे जीव समझ बैठे हैं। जो चीज है कम, उसे सिवा समझा है। जो सीमित
है, उसे असीम मान बैठे हैं। जो
चुक जायेगी। आज नहीं कल, उस पर
ऐसा भरोसा किये बैठे हैं, जैसे
कभी न चुकेगी। यह जिंदगी चुक जायेगी, ये हाथ खाली रह जायेंगे। इसे ऐसे समझे बैठे
हैं, जैसे हमें मरना ही नहीं है; जो और लोग मरते हैं, हम थोड़े ही मरते हैं। हम तो
दूसरों को मरघट तक पहुंचा आते हैं। हम तो कभी मरते नहीं।
खयाल
रखना, जब भी कोई अर्थी निकले, जानना तुम्हारी ही अर्थी है।
जब भी कोई मरता है, तुम्हीं
मरते हो। हर मौत तुम्हारी ही मौत की खबर लाती है।
जो चीज
है कम उसे सिवा समझा है
है
बहरे जहां में उम्र मानिंदे हबाब।
जैसे
पानी का बुलबुला,
ऐसी है
जिंदगी। मानिंदे हबाब!
गाफिल
इस जिंदगी को क्या समझा है?
पानी
का बुलबुला उठता है; सूरज
की किरणें पड़ती हैं, इंद्रधनुष
के रंग फैल जाते हैं। अभी है, अभी
गया--ऐसी ही जिंदगी है--खूब इंद्रधनुषी! हाथ कुछ भी नहीं आता। इंद्रधनुष को पकड़ो, हाथ खाली के खाली रह जाते हैं; दूर से बड़े सुहावने, पास से शून्य।
है
बहरेजहां में उम्र मानिंदे हबाब
गाफिल
इस जिंदगी को क्या समझा है?
ईश्वर
की तरफ थोड़ी आंख उठे, तो
तुम्हारे पास कसौटी आये, तौलने
का तराजू आये,
मापदंड
मिले। तो फिर उस एक छोटी सी किरण से जो उसकी आंख से तुम्हारी आंख में उतर जायेगी, तुम इस सारी जिंदगी को नाप
लोगे। एक क्षण में तुम्हें अहसास हो जायेगा--सब असार है। फिर जरूरी नहीं कि तुम
इसे छोड़कर भाग जाओ। अगर परमात्मा यही मरजी है कि इसमें रहो, की इसी में बढ़ो, तो तुम इस में ही रहोगे, इसी में ही बढ़ोगे। अगर उसकी
मरजी है कि हटा ले तुम्हें यहां से, तो तुम हट जाओगे। लेकिन अब न अपनी मरजी से
रहोगे,
न अपनी
मरजी से जाओगे। जिहि विधि राखे राम! फिर तुम उसी विधि से रहने लगोगे।
जिहि
विधि राखे राम--यही संन्यास का मूल सूत्र है, क्योंकि यह समर्पण का मूल सूत्र है।
संन्यास
यानी समर्पण।
मलूकदास
ने संन्यास की यह जो व्याख्या की है, इस पर खूब ध्यान करना। इसमें कुंजी छिपी है, जिससे जीवन के मंदिर के द्वार
खोले जा सकते हैं।
आज इतना ही।
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