पोनी - एक कुत्ते की आत्म कथा-(अध्याय-07)
चिड़ियों का उड़ाना
अब टोनी के आ जाने से मैं अकेला नहीं रहा था। उसके साथ खेलना-लड़ना झगड़ना बहुत अच्छा लगता था। एक बात और, टोनी को देख कर पहले मुझे जितना बुरा लगा था। सच ही वह इतना बुरा नहीं था, वो मेरी भूल या जलन थी। वरना तो वह तो बहुत ही अच्छा एक दम से भोला था। सच कहूं तो मुझे वह बहुत अच्छा लगने लगा था, उसके संग साथ चिपट के सोना, कैसे नरम मुलायम बाल थे उसके जब शैम्पू से धोएं होते तो कैसी मधुर—मन मोहक गंध आती थी। जब दोनों को खेल मैं बहुत मस्ती चढ़ जाती आपस मैं खेलते हुये जो भी पास मैं सुविधा जनक चीज पकड़ मैं आ जाती उसी से हम दोनों छीना झपट कर खेलना शुरू कर देते थे। अब हमारे लिए विशेष खिलौनों की आवश्यकता नहीं थी। फिर लाता भी कौन हिमांशु भैया के पास तो खिलौनों की पुरी दुकान थी। वो तो स्कूल गया होता था, मैं और टोनी उन्हें निकाल कर खूब मुँह से पकड़ के नोचते, खिंचते, मुंह से पकड़ कर नीचे गिराते एक दूसरे पर लद्द जाते मोज मस्ती करते और खूब भागते थे।
परन्तु कभी—कभी हम खेल की मस्ती मैं ऐसी चीजों से भी खेलने लग जाते थे जिसके पीछे हमे डाँट क्या एक आध चपत भी खानी पड़ जाती थी। जैसे दाँत साफ करने की बुरुश, पेस्ट, कंघी या चप्पल ऐसे ही कोई भी सामान पड़ा मिल जाता फिर उसकी खेर नहीं समझो। नये—नये निकलते सुई की तरह नुकीले दाँतों में ने जाने क्यो इतनी खुजली होती थी। उन दाँतों को जिस वस्तु मैं भी गड़ाते, उसके टुकड़े—छित्तरे कर के ही छोड़ते थे। फिर अगर कोई चमड़े की चप्पल आदि पकड़ मैं आ गई तो उसमें से निकलती गंध तो मानो मन मस्तिष्क को तरो ताज़ा कर जाती थी।
मांसाहारी और शाकाहारी दोनो तलों पर समान रूप से भी खड़े कुछ पाणी है, जो समय, स्थान, और स्थिति के अनुरूप अपने को ढाल लेते हैं। कुछ अपनी सीमा के किनारे खड़े वो प्रकृति के विभाजन में हस्तक्षेप नहीं करते या उसमें परिपूर्णता से आनन्द पूर्व जीते थे। इस विभाजन को आप जल, थल, नभ तीनों जाति के प्राणीयों को समान रूप से देखा जा सकता था। परन्तु मनुष्य इस धूरी की कील समझो वो समय, स्थान ही नहीं जीभ और मन के पर बस होकर जीता सा लगता है। वह आधुनिकता के फैली भौतिकता की सुविधा से अति ग्रस्त हो गया है। वह अपनी इन्द्रियों का इस्तेमाल ही नहीं करता या फिर उसे किस इंद्री का उपयोग किस तरह से किया जाये सब भूल गया था। वो कंद, मुल, फल पर ही नहीं रुका जीवित प्राणियों का भक्षण लगातार किये जा रहा था। न जाने उसकी ये भूख कहां जाकर रूकेगी।
फिर चाहे उसके शारीर की रचना उसके अनुरूप थी या नहीं थी। ये जाने या अनजाने में उसे भी अब मानने को तैयार नहीं था। इसमें आप ऐसा ना समझे की मैं जिस थाली मैं खाता हूं उसी के अंदर छेद कर रही हूं। फिर इसमें विरोध भी है, जो प्रकृति के इस रहस्य, को जान गया, वो मानव नहीं महा मानव बन जाता हैं। श्रेष्ठता के उस छोर को केवल मनुष्य ही छू सकता हैं। इन्द्रियों की संवेदना खो कर भी अपनी बुद्धि को श्रेष्ठ किया है इस मानव ने। अब कुछ पाने के लिए मुट्ठी खाली तो करनी ही पड़ेगी, तभी वो दूसरी वस्तु से भरी जा सकती थी। ये बात मनुष्य हमसे कहीं अधिक जानता था। एक छोटा सा दीपक सूर्य को प्रकाश दिखाए उसकी मूर्खता ही नहीं धूर्तता ही समझो। ये गलती तो अब मुझसे हो गई, इस पर केवल पछताया जा सकता था। अब मैं पछता रहा हुँ, परन्तु ज्ञान बांटने की ये बीमारी भी तो मनुष्य के संग—साथ रह कर ही तो मुझे लगी है। वरन हमारे पास कहाँ ज्ञान, हमें तो लड़ने झगड़ने से फुर्सत मिले तब तो कुछ सोचे।
जितने दिन भी मैं जंगल में रहा, मैंने तो केवल माँ का दूध पिया था। यहाँ आने के बाद तो मतलब ही नहीं उठता कि अंडा तक मिल जाये। इस घर में तो प्याज लहसुन तक नहीं खाया जाता था। फिर मांसाहार के तो सपने देखना भी दूर की बात हैं। फिर एक दिन दरवाजा खुला देखकर मैं बहार गली में भाग गया। आप सोचते होंगे हम कैदी थे, छोटे पेड़ पौधों के चारों तरफ जो सुरक्षा का घेरा लगाया गया हो, उसे वो अपनी कैद समझे फिर तो उसके बचने की सम्भावना बहुत कम हो जाती हैं। वो नियम हमारी सुरक्षा के लिहाज से भी ठीक था, कोई छोटा बच्चा ही उठ कर नौ, दो, ग्यारह हो जाये फिर ढूँढ़ते रहो घण्टों।
पापा-मम्मी जी हमारी आदत को भी जानते होंगे की हम बहार निकले नहीं और मुँह मारा कूड़े के ढेर में। मैंने भी वही किया उठा लाया मुँह एक हड्डी का टुकड़े, अन्दर आकर पेड़ों की क्यारी में बैठ कर लगा चबाने। घर का आंगन काफी बड़ा था, दीवार के साथ—साथ आडू, अमरूद, पपीते और भेल पत्र के पेड़ उगाये हुए थे। काले, सफेद अंगूरों की बैल के लिये आधे आँगन मैं लोहे के पाईपों से एक जाल बनवा रखा था। जिस पर फैली अंगूरों की बेल आँगन को छाव ही नहीं देती, अपितु उसका सौन्दर्य भी बढ़ाती थी। जाल के ऊपर पत्तों का फैलाव और नीचे लटकते काले, सफ़ेद अंगूरों के गुच्छे आपको घर में घुसते ही अपनी और अकृष्ट करने के लिये काफी थे। आडू के उस पेड की शोभा मैं आपको शब्दों में बता नहीं पाऊंगा, लाल—पीले आडू से पेड़ की डाल झुक कर दीवार पर टिक जाती थी।
उन दिनों आँगन पक्षियों द्वारा गिराये गये फलों से भरा रहता था। उन फलों के गिरने के कारण कैसे फलों की तेज गंध पूरे आँगन में फैली पसरी पड़ी होती थी। सारा दिन पेड़ पर पक्षियों का कोलाहल मचा रहता था। न ही उन्हें कोई उड़ता था और ये सब फल तो उन्हीं के लिए थे। हमें तो इन फलों से लेना देना ही क्या था? फलों से लद्दे पेड़ को देखना कितना अच्छा लगता फिर चाहे वो अमरूद, भेल पत्र हो इनकी भिन्नता को यहां मैंने पहली बार जाना था। जब उस आडू के वक्ष को गली में जाते हुए लोग देखते तो कुछ क्षण के लिए तो रूक ही जाते। कुछ देर रूक कर उसे जी भर कर निहारते जरूर थे। कुछ पलो के लिए जाते मुसाफिर भी अपना चलना भूल कर मंत्र मुग्ध देखते रहे जाते थे। बच्चे को तो एक खेल मिल गया था। मारते गली से पत्थर, चाहे आडू पे लगे या किसी के सर पर ये उन्हें समझ ही नहीं आता था। शायद आडू को देख वो अपनी शुद्ध—बुद्ध खो देते होगे, नहीं तो क्या इतना भी ज्ञान नहीं था। कि भले आदमी तुमने पत्थर मार कर आडू गिरा भी दिया तो गिरेगा तो वो घर के अन्दर फिर इससे आप को क्या हासिल होगा।
आप उस गिरे आडू को कैसे उठा पाओगे। पर ये सोचने विचारने का समय उनके पास कहां होगा। अगले साल आडू की एक डाल सुख गई, सब कहने लगे लोगों की नजर लग गई, परन्तु पापा जी केवल हंस भर देते थे। वो जानते थे यहाँ दीमक बहुत है, लाख दवाई डाली पेड़ को बचा नहीं पाये। इसका दुख पूरे गाँव का हुआ, किसी वस्तु को पाने से ही नहीं मिलती तृप्ति, उसे आंखों से निहार कर एक अलग ही सूख मिलता है। इसे मैंने भी पहली बार महसूस किया, उसे देखने से ही जीवन में एक उमंग एक उत्सव भी मिल सकता है, वैसे तो यह बात कितनी विष्मयकारी लगती थी।
बात हड्डी की चल रही थी उसे छोड़ कर मैं कहाँ से कहां पहुँच गया। हमारे छोटे दांत भी कितने मजबूत होते हैं। मनुष्य की तरह हमारे दूध के दांत टूटते भी नहीं, वहीं छोटे महीन दांत शारीर के साथ कैसे बढ़ कर खतरनाक और ताकत वर हो जाते हैं। ये राज जीवन भर मेरी समझ मैं नहीं आया। प्रकृति का रहस्य भी अछूता और रहस्यमय है, आप जितना उसे खोजने निकलोगे पर्त दर पर्त रहस्य बढ़ते चले जायेंगें। फिर भी आप उस रहस्य के चीवर कभी उतार नहीं पाओगे। आपके सामने और चार रहस्य मुँह बायें खड़े होंगे। यहीं है कुदरत, परमात्मा, या उसकी लीला जो स्वछन्द चारों और जहां तक भी आपकी नजर जाती है वहाँ तक बिखरी पड़ी है। कण—कण मैं, आप प्रत्येक वस्तु को क्रिया शील पाओगे, अनबुझे—अनछुए रहस्य की तरह, जो लय बद तो है ही, और एक अडिग नियम की तरह संतुलित भी लिए चलता है।
हमारी भलाई इसी मैं है हम इस ज्ञान को भूल, विज्ञान की सुविधा का सुख भोग ले। फिर चाहे वो आपके विनाश की नींव ही क्यों न हो। जिस पर तुम महल बना रहे हो। इस कल के विषय मैं जो सोचे वो दुर दृष्टा ये विरले तो आटे में नमक के बराबर ही समझो। वही केवल इस जीवन के रहस्य को जानना चाहेगा, मनुष्य को छोड़ दे तो बाकी प्राणी तो चहा कर भी ऐसा सोच-विचार नहीं कर पायेंगे। वो चेतना का आयाम ही नहीं है किसी पशु-पक्षी के पास।
परंतु मनुष्य का अंग संग रहने से जरूर मन के कुछ अभेद्य सी हलचल पैदा हुई थी। संग साथ का सच ही रंग चढ़ा जाता है। हम कौन है, कहाँ से आये है, ना से होना और होने से ना होना के बीच मैं होना ही दिखाई देता है। इसीलिए हम केवल इसे ही सत्य मान लेता है। कृति से भी परे है कहीं दूर कर्ता, वो भी अदृश्य है, वहीं हैं एक मात्र चमत्कार बाकी सब चमत्कार उसके आगे बोने थे। कैसे हम पर बस और लाचार प्रकृति के एक खिंचाव से आंखों पर पट्टी बांधे उसे पीछे चलते चले जा रहे है। एक नींद, मदहोशी की चादर कैसे जड़—चेतन पर हलका सा कुहासा सा लिए चल रही है। किसी आदत या संस्कार का छद्म रूप धारण किए हुए।
हड्डी मुंह मैं आते ही कैसे लार के साथ रस भी बहने लगा था। छोटे—छोटे दांतों से महीन—महीन टुकड़े के साथ खून का स्वाद मुँह में घुल रहा था। अपना खून अपने मुँह में स्वाद भर रहा था, ये कैसी विडम्बना थी। टोनी पास आकर सूँघने लगा, मैं एक दम चौकन्ना हो गया और लगा दांत निकाल कर गुर्राने। मेरी पीठ के सारे बाल खड़े होकर मानो कह रहे हो सावधान रहना मैं बहुत खतरनाक हुँ। कितनी देर अपने मुँह से खून निकाल कर पीता रहा जब तक सारा मुंह लहू लूहान ने हो गया तब नहीं छोड़ा उस हड्डी को। यहां तक कि दांतों के आस पास भी जख्म हो गये थे। पर इस सब की परवाह कौन करता। आखिर थक हार कर मैंने उसे छोड़ दिया था। अब पास खड़े इन्तजार करते टोनी की बारी थी। वो भी लगा रहा घण्टों उस मूढ़ता भरे इस कार्य को करने मैं।
श्याम के समय पापा जी के साथ दीदी और वरूण भैया स्कूटर पर एक बहुत बड़ा पिंजरा ले कर आये। जिसमे कम से कम 30—40 बहुत छोटी—छोटी, खूबसूरत चिड़ियां थी। दीदी अपनी गोद में पिंजरे को रख कर बैठी थी जिसके नीचे एक कागज का बड़ा सा टुकड़ा था। जिससे उनके कपड़े खराब न हो जाए। वरूण भैया स्कुटर पर आगे खड़े हुए थे। पापा जी ने पिंजरा उतार कर मेरे सामने रख दिया, सारी चिड़िया डर के मारे के एक तरफ चिपक गयी। मैंने सोचा मेरी शकल क्या इतनी डरावनी थी। अभी तक नन्हे—नन्हे घुंघरू की तरह चहक रही वो सभी चिड़िया। अचानक मुझे देख कर डर के मारे चुप क्यों हो गई। अब आपको क्या बताऊं वैसे भी आप से क्या छिपाना, मैंने अपनी सुरत कभी देखी ही नहीं या यूँ कह लीजिए सीसा सामने रख दो जब भी दिखाई ही नहीं देती थी। हाँ मैंने सुना था मुझसे पहले यहाँ पर हानि नाम का जो कुत्ता था, यही भला सा नाम लेते थे।
उसका हानि नाम मेरे से कितना मिलता झूलता था, पोनी—हानि इसी से तो मुझे याद रहा, क्योंकि हम शब्द थोड़े ही पहचान पाते है, हम ध्वनि को पहचानते हैं। वो पामेरियन और देशी मिश्रण से पैदा हुआ था, कहते है कि वह टी० वी० मैं समाचार पढ़ने वाली को देख कर भोक्ता था। अब मैंने तो लाख सर फोड़ा परंतु उस ईड़ियटबोक्स मैं कुछ नजर नहीं आया। अब हमारी जाति के इतने महान भी होते हैं, यह सब मान लेने में हमारा क्या जाता है। इससे हमारा सम्मान ही तो बढ़ता है, सो हम इसे सत्य मान लेते है।
फिर अभी एक दिन ये सब मेरे साथ भी घटा जब मैं 14 वर्ष पार कर चुका था। उस दिन दीदी के साथ पास के एक फोटो स्टूडियो के अन्दर चला गया, उसमें चारो तरफ़ शीशे ही शीशे लगे थे। अचानक मेरी निगाह एक शीशे पर पड़ी जिसमें मेरी अपनी ही परछाई थी, न जाने उम्र के हिसाब से या मष्तिक थोड़ा विकसित हुआ इसलिये मुझे अपनी परछाई नजर आ गई थी। फिर क्या था मैं लगा डर के मारे भौंकने, पुरी दुकान सर पर उठ ली, बडी मुश्किल से धक्के मार कर दुकान से बहार निकाला दीदी ने मुझे। और पास में आकर कहने लगी पोनी तूने तो हमारी भद ही पिटवा दी भला अपनी ही शक्ल को देख कर तु डर गया। और मैं केवल उसको देख कर पूंछ हिलाकर अपनी झेप मिटा रहा था।
उन चिडियाओं के उस पिंजरे को दीदी ने पास ही एक वक्ष की टहनी पर लटका दिया था। एक छोटी सी कटोरी में पानी के साथ कुछ दाना भी रख दिया। मैं ये सब एक दर्शक की भांति देख रहा था। इतनी सारी चिडि़याओं को देख कर मेरे साथ टोनी भी मेरे पास आकर खड़ा हो गया था। मैंने उस को देख कर पूछ हिलाई, उसने मेरा मुँह चाट कर गर्दन हिलाई अब मजा आयेगा। दानों भाई मिल बाट कर खायेंगे। अब दो तो शैतान के खाला होते है। मुझे टोनी का संग हिम्मत दे गया जो मैं अकेला शायद नहीं कर सकता था। मैंने टोनी की और शरारत भरी नजर से देखा। और कहा देखा क्या माल लटक रहा है। चलो करे कुछ जतन, इन चिडि़याऔ को पकड़ने के लिए। ये कितनी नरम मुलायम है और मजे कि बात है ये इस पिंजरे में कैद है उड़ भी नहीं सकती थी। इन का हम से बच कर भागने की संभावना भी नहीं थी।
मुंह के अन्दर आते ही कैसे फड़फड़ा कर उडने की कोशिश करेगी। हम दोनों के मन मै लडडू फुट रहे थे। अब ये बात किसने हमे बताई, क्या मनुष्य भी ऐसा ही सोचता होगा इन्हीं चिडि़याऔ के बारे मै, नहीं इसे हम केवल खाने की वस्तु समझते है। वहीं मनुष्य के लिये एक बहता हुआ जीवन, मैं सब मनुष्यों की बात नहीं कर रहा था। केवल जिन्हें मैंने नजदीक से जाना था देखा था या उनके साथ जी रहा था। वहीं इन्हीं चिड़ियाओं के लिये एक परिवार, एक प्रेम, एक सम्बंध, एक रिश्तों भरे जीवन की मधुरता लिए था। अलग—अलग शरीर में दिमाग भी अलग प्रकार की सोच को जन्म देता हैं। शायद बुद्धि के भी तल होंगे प्रत्येक प्राणीयों में, यही आयाम हमारी चेतना को छू के हमारे जीवन के विकास क्रम को गति देते होंगे। उन्हे अंगूर की बैल के जाल पर लटका दिया, वो हमारी पकड़ के बहुत दूर थी।
अब चिड़िया फिर निर्भय होकर उस पिंजरे में चहकने लगी, कुछ झूलों पर, कुछ छत के तारों को पकड़ कर उलटी लटक कर खेलने लगी थी। भूल गई सब भय तकलीफ उस देह की कैद भरे जीवन को और लोट आई फिर वही पुरानी लयवदिता पर मधुर गीतों पर। मैं नीचे बैठ कर उन्हें निहारने लगा, सब मुझे देख कर हंसे और चले गये। मैंने उनकी हँसी की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया था। मैं ऊपर मुँह किए पिंजरे को कैसी आस-उम्मीद से भरी निगाहों से देख रह था। पिंजरे के पास लटका अंगूर का गुच्छा, मानो वही कहानी फिर से दोहराई जा रही है। वहीं दृश्य लोमड़ी वाला अंगूर खट्टे थे।
ये पिंजरा पूरी रात मेरे लिए जी का जंजाल बना रहा, क्योंकि वह आसमान में टांग था, और मैं इस पृथ्वी पर मुझे समझ नहीं आ रहा था जब खाने ही नहीं देना था तो फिर लोग इसे लाये क्यों थे। मैं रात भर सो भी नहीं पाय, चमक नींद ही लगी रही। क्योंकि जब भी आंखें बन्द करता, चिड़ियाओं का वो पिंजरा मेरे सामने घूमने लगता था। उसकी गति इतनी धीरे—धीरे चल रही थी, मानो आंखों के सामने बुईंयां की तरह उड़ रही थी, अभी हाथ बढ़ाया और जब चाहों उसे धीरे से बढ़ कर पकड़ लो। पुरी रात में हाथ—पैर मरता रहा, दौड़ता रहा। सच कई बार जिसे हम पा लेते है तो उस में इतना रस नहीं होता जितना उसके सपने देखने में। जब तक वो आपको मिला ही नहीं होता उसका स्वप्न से सज़ा सुख आपको घेरे ही रहता है।
मिलनी तो कहा थी ये मेरा भ्रम था। परंतु मैं पुरी रात चिड़ियाओं के पीछे दौड़ता रहा, शेख चिल्ली के सपने बुनता रहा। नींद क्या खाक आनी थी। सुबह जब वरूण भैया ने मुझे उठाया तब भी मैं चिड़ियाओं के ही पीछे दौड़ लगा रहा था। पैर इतनी तेज से चला रहा था, परन्तु एक दम सामने होते हुए भी मैं उन्हें पकड़ नहीं पा रहा था। आंखें खोल कर देखा तो मैं बिस्तरे पर ही पड़ा पैर पीट रहा हूं। सब तैयार हो गये थे जंगल जाने के लिये मैं आज कैसा कुंभ करणीय नींद सोया था। अचानक ये सब देख मैं जल्दी उठ खड़ा हुआ चलने के लिये। दीदी ने मेरे सामने दूध की कटोरी रखी, जंगल जाने के चाव मैं दूध भी नहीं अच्छा नहीं लग रहा था। सब को यूं तैयार देख लग कि अगर भैया नहीं जागते तो आज तो मेरा जंगल जाना रह ही जाता। भला ये कैसे हो गया, मैं इतनी बेहोशी में पड़ा रहा, जंगल जाने के लिए वरूण, हिमांशु भैया, दीदी, टोनी भी कितना खुश था। टोनी तो इधर—उधर दौड़ता फिर रहा था।
हम सब लोग जंगल की और रवाना हो लिए। काफी दूर चलने के बाद पहले नाले को पार करने के बाद जंगल कितना बदल जाता है। मानो इस पार का जंगल और उस पास का जंगल एक दम से भिन्न था। वहां पर कितना गहरी शांति और निस्तब्धता एक गतिहीनता छाई रहती थी। शायद इसलिए कि वहां एक कम मानव जाते थे। दूसरा शायद पेड़ पौधा का घना होना भी हो सकता था। वहां बीच जंगल मैं जब आपकी अपनी श्वास की ही नहीं अपने खून के दौड़ने तक ध्वनि सून सकते हो। वहां पहुंच कर हम सब खड़े हो गए। वहाँ पेड़, पौधों का घना झुरमुट था ठीक उसके बीच एक बड़ा सा मैदान था जिसके चारों और पैड़ थे। वहाँ भरी दोपहरी मैं भी धूप पत्तों और टहानीयों पर ही अटक कर रह जाती थी। नीचे पहुँचती थी केवल धूप की शीतल परछाई। पापा जी वहां पहुंच कर पिंजरा जमीन पर रख दिया, सब कुतूहल पूर्वक देखने लगे अब क्या होगा। मैं भी आगे आने की जीद्द करने लगा, परन्तु मुझे हिमांशु भैया ने पकड़ रख था। पापा जी ने दीदी को कहा कि वह पिंजरे का मुँह खोल दे। दीदी और वरूण ने मिल कर पिंजरे का छोटा सा दरवाजा खोल दिया। दो तीन—चार चिड़िया उसमें जो सबसे साहसी थी वो निकली और एक बार इधर उधर देखा और फूँ...उ.....र...... से उड़ कर सामने सेमल के पेड़ की टहनी पर जाकर बैठ गई थी। एक क्षण के लिए तो उन्हें भी यकीन नहीं आया होगा की हम आजाद हैं। इतनी बड़ी उड़ान भर कर हम पेड़ पर आकर बैठ गई थी। फिर वो खुशी के मारे चहकने लगी, बड़ी मीठी ध्वनि मैं वो बोली, उनकी गीत मुक्ति का उत्सव थे। जो रात की कैद की गुनगुनाहट से भिन्न था। उनकी प्रसन्नता और स्वतंत्रता अछूती नहीं रही वो दुसरी चिड़ियाओं को भी छू गई थी। उसके बाद दूसरी चिड़ियाओं न जब देखा की अब बाहर कोई खतरा नहीं था। हमारी कुछ साथी निकल कर दूर आवाज दे कर हमें बुला रही है। तब एक—एक करके पिंजरे से निकल कर उड़ने लगी, कुछ ही देर मैं सारा पिंजरा खाली हो गया। मैं हिमांशु भैया की गोद में छटपटाता रहा। चिड़ियों को इस तरह से उड़ता देख कर मेरा मन कर रहा था, किसी तरह एक बार छुट जांऊ मैंने छूटने के लिये पुरी ताकत लगाई, जैसी थोड़ी पकड़ ढीली होते ही मैं छुट कर भागा था।
क्योंकि पिंजरा हम से कुछ दूरी पर था। पिंजरा खोलने के बाद हम सब पीछे की और आ गए थे। ताकि वह अपने आस पास किसी को न देख कर कम भय को महसूस करे और उन्हें निकलने में अधिक सुविधा हो। परंतु ये सब मेरे लिए ठीक नहीं था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था क्यों इन्हें उडाया जा रहा था। इससे क्या हासिल होगा कितनी मुश्किल से तो इन्हें पकड़ा होगा ये तो महामुर्खता की ही बात लगती थी मुझे। मेरा मन बहुत बेचैन था मैं किसी तरह से छूट कर भागा। परंतु ....परंतु।
परन्तु कहाँ उनकी उड़ान और कहाँ मेरी दौड़, तीस—चालीस कदम दौड़ कर ही मैं समझ गया की ये मेरी पकड़ के बहार की बात थी। तब मैंने अपने आप को ठगा सा खड़ा पाया अपने को पिंजरे और चिड़िया के बीच में, दोनों पैरो से मैं मिट्टी खोदने लगा क्रोध के मारे। दूर कहीं हँसी की आवाज आई, दूसरी तरफ चिड़िया का कलरव, मैं पूछ हिलाता, कान बौंच कर धीरे लोट आया। टोनी मस्त दीदी की गोद में बैठा ये सब देख रहा था। मुझे वो बुद्धू ही लगा, नहीं तो अगर वह मेरा साथ देता तो जरूर हम इस कार्य में जरूर सफल हो जाते। परंतु मैं एक तो इतना छोटा और दूसरा अकेला क्या कर सकता था। एक लाचारी सी अपनी इस हार को मैं महसूस कर रही थी। या शायद मैं ही थोड़ा सा पागल किस्म का था। या थोड़ा सा खपती, थोड़ा सा सनकी अब जो चाहे आप समझ सकते हो। परंतु उस हार का आज सालों बाद मुझे गर्व है कि मेरी समझ न के बराबर थी और मनुष्य ही महान था। उस हार में आज सालों बाद मुझे अपनी जीत नजर आ रही थी। परंतु कितनी दूर चलने के बाद, समय की गति ने जब तुझे इस किनारे पर खड़ा किया तब में देख पाये कि स्वतंत्रता कितनी महत्वपूर्ण है। पापा बच्चों के कोमल मन में क्या वही सब लिख रहे थे उसमें भर रहे थे।
वह कोई थोथा एक किताबी पाठ नहीं था, एक जीवंत कथा जो वे अपने सामने घटता देख रहे थे। ताकि वह स्वतंत्रता के महत्व और संवेदना को समझ सके अपने जीवन में अपनी मांस-मज्जा में पचा सके।
भू.....भू......भू....
आज केवल इतना।
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