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बुधवार, 19 नवंबर 2025

31 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय -31)

नये घर का खरीदना

हमारे गांव के पास जो खुला और खूबसूरत जंगल है जहां पर मेरी पैदाइश हुई थी। वो सच ही अपने आप में कैसी सम्पूर्णता समेटे हुए अति ही सुंदर है। उसे केवल इसलिए सुंदर नहीं कह रहा कि वहां मैं पैदा हुआ था। उसके अंदर पानी के कल—कल बहते सीतल झरने, गहरे मिट्टी के नाले, ऊंचे-ऊंचे शीशम, सहमल, अमलतास, ढाक, बबूल और रोंझ के घने वृक्ष। हजारों तरह के जंगली फल और जड़ी बूटियां। जानवर के नाम पर नीलगाय, जंगली गायें के झुंड के झुंड.....गीदड़ की बहुतायत थी वहां पर। और दूर दराज सड़क के पार बंदरों की आबादी भी थी। परंतु वह गांव से मीलों दूर होने के कारण वहां से कम ही बंदर आ पाते थे गांव में। शायद ये प्राणी गहरे जंगल में रहना इसलिए पसंद नहीं करता क्‍योंकि यह वो सब चीजें खा लेता है जो मनुष्‍य खाता है। और थोड़ा चपल भी है। साथ—साथ इसे हिंदुओं ने हनुमान जी के साथ जोड़ कर एक विशेष महत्‍व दे दिया है। फिर भी कभी—कभार कोई बंदर अपने पद से हटाये जाने के बाद गांव की और आ ही जाता था। कहावत तो है कि गीदड़ की जब मौत आती है वे वह गांव की और दौड़ता है। परंतु समय ने ये सब कहावत बदल दी है, गांव या शहर अब सब जानवरों को प्यारा लगाता है।

क्योंकि गांव के आस पास रहकर उनका पेट भरना थोड़ा आसान हो जाता है। अगर हिंसक न हो तो शायद मनुष्‍य किसी प्राणी को नहीं मारता। ये जो बंदर गांव में आते है ये होते तो हष्ट—पुष्ट है परंतु इनके शरीर पर बहुत जगह ज़ख़्मों के निशान होते है। लेकिन इस बार तो बंदर की जगह एक लंगूर बंदर घर पर आ गया। उसकी पूंछ कितनी बड़ी होती है। वह पतला तो होता है परंतु कितना चपल और साहसी होता है। कितनी अधिक दूरी तक वह छलांग मार सकता है। हम तो उसके सामने कुछ भी नहीं कूदते। गांव में सबसे अधिक वृक्ष पापा जी न ही लगा रेख थे। वो भी छत पर। गांव में तो जिस-जिस के आँगन में एक आधा नीम या जामुन का वृक्ष था, वह अब बनते हुए मकानों की सब के सब भेंट चढ़ गये। छत पर फूल पौधों के साथ पापा जी कुछ फलों के भी पेड़ लगा रखे थे। जो इन जंगली जानवरों को अपनी और खींचते थे।  पक्षियों के तो क्या कहने तोता, कौवे, फाख्ता, चिड़ियाँ, बुलबुल और चमगादड़ और न जाने कितने ही पक्षी इन पर लदे होते थे। जब इन वृक्षों पर फल लगते थे तो यहां की रौनक अलग ही हो जाती थी। अनार, अमरूद, शरीफा, आंवला, फालसा और चीकू.....शायद ये फल के वृक्ष भी उसे अपनी और अधिक लुभाते है।

आज श्‍याम से ही वह लंगूर बंदर छत पर उत्पात मचा रहा था। मैं कितनी बार उसे डरा चुका हूं परंतु वह तो मुझ पर हमला करने के लिए तैयार था। सो जब रात पापा जी आयेंगे जब हम सब मिल कर उसके खदेड़ने के बारे में सोच सकते थे। क्‍योंकि हिमांशु भैया का कमरा तो सबसे ऊपर था। वह तो डर के मारे अपने कमरे में जाने को तैयार ही नहीं था। एक बार मेरे साथ गया तब लंगूर बंदर ने उसे बड़े—बड़े दाँत दिखलाये तो वह अपने कान बौच कर जो नीचे भागा। तब से मम्‍मी के पास ही बैठा है। और बीच में वरूण भैया का कमरा पड़ता था। वह भी अपने कमरे में जाने से डर रहा था। तब क्‍या किया जा सकता था।

पापा जी के दुकान से आने पर पहला कार्य हमने यहीं किया की किसी तरह से इस लंगूर बंदर को भगाना होगा। सब ने अपनी रक्षा के लिए हाथों में एक—एक डंडा ले लिया था। सबसे आगे पापा जी थे...कभी—कभी में भी सबसे आगे हो जाता था। हम बंदर को एक तरफ से भगाते तो वह दूसरी तरफ सीढ़ीयों से नीचे उतर कर आ जाता। जब हम नीचे आते तो वह ऊपर दिखाई देता, इसी तरह कितने ही चक्‍कर लगवा चुका था। उसके इस कार्य से सब परेशान हो रहे थे।

इस चलते रेलम-पेल में वह बंदर भी हमारे साथ खेल ही खेल रहा था। कितना समझदार था वह बंदर। बंदर का दिमाग कुछ-कुछ आदमी की तरह से चलता है। उसके हाथ की उंगलियां भी मनुष्य से कितनी मिलती झुलती है। इसलिए वह कितने ही काम मनुष्य की तरह सक कर सकता था। और आप यह सुनकर अचरज करेंगे कि हम जिस कतार में चल रहे थे। पहले मैं, फिर पापा, मम्‍मी, हिमांशु, दीदी, वरूण भैया....सबसे पीछे.....और उसके पीछे वह लंगूर बंदर। मानो वह भी हमारे साथ पकड़म-पकड़ाई खेल रहा था। उस के इस तरह से वरूण भैया के पीछे होने से हम सब हंस कर लौट-पौट हो गये थे। कि जिसे हम ढूंढ रहे है वह भी मानो उसे ही ढूंढ़ रहा था। इसी तरह कितनी ही देर गुजर गई, भगाने का खत्म ही नहीं हो रहा था। परंतु ये भगाने का खेल जब हमने हाथ में लिया है तो उसे पूरा तो करना ही था।

आखिर कार हम थक कर रूक गए तब बंदर भी छत पर इंटों के चट्टे पर बैठ कर मानो आराम करने लगा। तब मैं अचानक उस पर जोर से भोंका और बंदर के पीछे भागा वह कुछ कदम चल कर रुका और मेरे ऊपर झपटा। मैं सहम गया और रूक गया, परंतु मेरे पीछे पापा जी थे। सो मैंने हिम्‍मत दिखाई और मुड़कर बंदर पर झपटा वह लाइब्रेरी के सामने एक खुला चौक था। दूसरी तरफ मामा—मामी का घर था। उनके आँगन में भी चंपा और जंगली जलेबी को एक वृक्ष था। आँगन में घास-फूस के कई छप्पर बना रखे थे। जो हमारी दीवार से सटकर थे। उनमें वो अपनी गाये और बछड़े बांधा करते थे। जैसा कि मैंने बताया था मामा—मामी हमारे पास के ही मकान में रहते थे। उनके कोई संतान नहीं थी। इसलिए शायद वह पशु पक्षियों से अधिक प्रेम करते थे। कहते है मामा—मामी ने अपने जीवन काल में किसी गाय या उसके बच्‍चे को कभी नहीं बेचा। आज भी उनके आँगन में तीन चार बछड़े...और पाँच छ: गाये बंधी थी।

आज के युग में इतनी सरलता और सादगी से जीना भी एक कला है। परंतु सच ही दोनों पति पत्नी अति सरल थे। जब कई बार मैं झांककर देखता हूं तो उनके आँगन में कई बिल्लियां घूमती रहती थी। कई बार तो मैं देख कर अचरज करता था कि बिल्ली गाय की पीठ बैठी हुई बड़े मजे से सो रही है। मेरा मन करता एक बार किसी तरह से वहां पहुंच जाऊं फिर तो इस बिल्ली की चटनी बना ही दूंगा। शोर शराब सुन कर मामी—मामी भी आँगन में आ गये। लंगूर बंदर कोने पर लगे इंटों के चट्टे पर बैठा था। अचानक नीचे कुछ हलचल सुन कर वह नीचे की और झांका इस वक्त मैं उस पर झपटा। उसने अपने बचाव करने के लिए अपना संतुलन खो दिया और पीछे की और गिर पड़ा, नीचे उस घास के छप्पर पर जाकर वह गिर पड़ा। उसके गिरते ही छप्पर भी किस नजाकत से गिरा वह देखते ही बनता था। एक दम आराम से धीरे-धीरे सिलो-मोशन में....बंदर की तो समझ में कुछ नहीं आया....न ही किसी ने उसे देखा कि कब तो वह भागा....किधर की और भागा कहां गया। बेचारा बंदर डर गया की ये लोग तो बहुत ही खतरनाक है। परंतु चलो वह चला गया अब मुझे चैन था। की हिमांशु भैया अपने कमरे में आराम से जाकर सो सकते है। 

बस इस आपा-धापी में मामा को जमीन पर मिट्टी में गिरा पाया....शायद बंदर को गिरते देख मामा घबरा कर पीछे हटा और गिर गया। अपने कपड़ों से धूल झाड़ते हुए जब मामा उठ तो हंस रहे थे। कह रहे थे कोई बात नहीं....बंदर बच गया....छप्‍पर तो कल फिर तैयार हो जायेगा। पास खड़ी गाय बेचारी भी एक दम डर गई। बंधे बछड़े भी बेचारे डर के मारे मां—मां कर के रंभ्‍भाने लगे। एक दम से अफरा तफरी का माहौल बन गया था। परंतु इस बीच ये अच्‍छा हुआ की बंदर भाग गया। शायद अब न आये दोबारा कि आज तो जान बच गई, आगे आऊं तो तोबा—तोबा।

अब समय के फेर को ही देखिये जिस घर से पूरे गांव का विकास उत्पाती हुई थी। गांव का यह वह पहला घर था जिस में मामा-मामी रहते थे।  कहते है ये सारा गांव एक ही व्यक्ति की संतान है। करीब सात सो साल पहले आकर के एक भाई बसा था। जो छोटा था उसका नाम कहते है मामन था। और बड़ा भाई आगे नांगल चला गया। बस दो गांव में ही तुसीड़ गोत्र पाया जाता है। इसी घर से सारा गांव बना जिसका नाम दसघरा रखा गया। यानि दस घर थे। कहते है आज वह घर मनहूस और अशुभ हो गया है। अब इस घर में तीन—चार पिढ़ीयों से कोई संतान नहीं होती। मामा मामी के भी कोई संतान नहीं थी। सो अब ये घर बांझ हो गया है। कैसा चमत्कार है। इसलिए मामा—मामी का सारा जीवन पशु...पक्षियों के साथ ही गुजरा था। मामी मुझे देख कर कितना प्‍यार करती थी। ये बात आपको बता नहीं सकता। परंतु अब मामा भी अब बुर्जुग हो गए थे सो जंगल में इतनी गायों को चराना उन के बस की बात नहीं थी। धीरे—धीरे उन्‍होंने सब गायों को मुक्त छोड़ दिया था। बस एक-दो गाय ही अब घर आती थी। वह भी अपने बच्चों को दूध पिलाकर, कुछ मामा को दूध देकर चली जाती है। मामा आज भी नियम से जंगल में जाता था। घर पर काम ही क्या था। उन गायों के पास रहकर उन्‍हें चराता, उनके पास बैठा रहता और उनके शरीर पर लगे कीड़े हटाता रहता था। गाय के बड़े बच्‍चे उन्हें चारों और से घेर लेते थे। उन बच्चों की मां भी उनका हाथ चाटती थी। कभी-कभी वह उनके खाने के लिए गुड़ भी एक कपड़े में बाँध कर ले जाता था। जिसे सब बहुत खुश होकर खाते थे। उन्हें क्या गुड़ तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है। रात को जब खाने को थोड़ा सा मिलता था तो बहुत मजा आता था। कितना मीठा और रसीला होता है ये गुड़।

न जाने क्यों मामा ने ऐसा किया। शायद अपने मरने का उन्‍हें एहसास हो गया था। क्‍योंकि ठीक छ: महीने पहले ही उन्‍होंने सभी गाये को घर से मुक्‍त कर दिया था। मामा के मरने के बाद मामी भी दो महीने बाद चल बसी। अब जब मैं उधर झांक कर देखता तो कितना सूना पन लगता है वो घर आंगन। कैसे सब लोग चले जाते है और कहां चले जाते कौन जाने। कितना रहस्य से भरा है ये संसार।

कुछ लोगों ने उनकी उन गायों को पकड़ कर पालना चाहा। परंतु तीन चार दिन घर पर बांधने के बाद भी उन्होंने कुछ नहीं खाया और न ही दूध दिया। प्यार के स्पर्श को उसके अहसास को प्रत्‍येक प्राणी अपने प्राणों से जानता है, उसे महसूस भी करता है। अब वह सभी गाय जंगल में ही जंगली गायों के साथ रही है। कभी—कभार कोई भूल से दरवाजे पर आकर रंभ्‍भाने लगती है। उसे जब अपने मालिक की याद आती होगी। जब उसे यहाँ पर कोई दिखाई नहीं देता तो हार थक कर वापस चली जाती है।

मामा—मामी के मरने के बाद उनका मकान उनके किसी रिश्तेदार ने कब्जा लिया था। उनका पूरा परिवार वहां आकर उसमें रहने लगा था। रहना तो क्‍या बस उसे बेच कर पैसे इकट्ठे कर लेना चाहते थे। उन्‍होंने उस मकान को लाख बेचने की कोशिश की शायद साल भर लगे रहे। लेकिन उस अफवाह के कारण वह नहीं बिका तो नहीं बिका। कि इस मकान में कोई संतान नहीं होगी। तब एक दिन रामरत्‍न मिस्त्री पापा जी को कहने लगे बाबू जी हम ही ले लेते है इस मकान को। शायद बाद में न जाने कौन पड़ोसी आये—उसका कैसा खान पान हो। और बच्‍चों के रहने के लिए भी तो मकान बनाना ही है। सो हर हालत में हमारे लिए तो यह सोना है। पापा जी ने मम्‍मी और दादाजी से सलाह कर करने के वह मकान खरीद लिया।

इधर मेरी समझ में नहीं आ रही थी कि हमारा इधर का मकान तो लगभग पूरा बन गया है। तब इस मकान को अलग से बनाना होगा। तब तो दोनों मकान अलग-अलग ही रहेंगे एक तो कैसे हो सकते है। क्‍योंकि दोनों मकान के बनने में कम से कम दस साल का अंतर है। परंतु आप अब आकर उसे देखो तो उसके रंगरूप और डिज़ाइन को देख कर आप कह नहीं सकते की यह मकान बाद में खरीद कर बनाया गया है। नीचे के हाल ध्‍यान के लिए बनाया गया और साथ-साथ वह बैठक खाना भी हो गया। अब हमारे घर के दो दरवाजे हो गये थे। बीच में दस बाई दस का एक कच्चा आँगन छोड़ा गया जिसमें मोलसरी…अशोक और अनार के वृक्ष लगाये गये। और साथ में कुछ बेलबुटियां भी लगाई गई। नीचे बहुत बड़ा ध्‍यान कक्ष और उसके ऊपर वरूण भैया का एक सेट....उसके ऊपर हिमांशु भैया का एक सेट....ताकि वह अपनी पत्‍नियों और बच्‍चों के साथ रह सके। शायद भैया हर की शादी और बच्‍चे तो मेरे जीते जी हो नहीं सकते थे। क्‍योंकि अभी तो वह पढ़ रहे है...और मेरी उम्र इस समय करीब दस के पार हो गई थी। यानि अब में बूढ़ा हो रहा था। शायद मेरी आंखें भी अब उतना साफ नहीं देख पा रही थी जितना जवानी में देखती थी। दाँत भी कमजोर हो गये थे। लेकिन पापा की दूरदर्शिता को मैं देख सका या न देख सका परंतु उन्होंने जो सोचा है वह बिलकुल सही सोचा है। दादा भी इस मकान के खरीदने पर पहले तो ज्यादा खुश नहीं था परंतु अब तो बहुत ही खुश रहने लगे थे। जब भी वह घर पर आते तो घंटों पूरे घर को बहुत आनंद से घूम कर देखते थे। मुझे भी अपने साथ-साथ सब बातें बताते रहते थे।

शरीर कमजोर होने के साथ—साथ भय क्रांत भी हो जाता है। शरीर की भी अपनी भाषा होती है। कितना अजीब है, जब हम जवान होते है तो शरीर मन पर हुकूमत करता है और जब शरीर कमजोर होता जाता है तो मन की हुकूमत शरीर पर शुरू हो जाती है। तब मन में जो भय...डर...समाये या दबाए हुए थे वह उजागर होने लगते जाते है। शरीर और मन की इस सिंहासन की लड़ाई में चेतना का बहुत नुकसान होता है। बारी-बारी से वह दोनों अपना राज सिंहासन बदलते रहते है। तभी तो अंत समय आते—आते में बम्ब-पटाखों और ढोल के बाजने मात्र से मैं कितना भयभीत हो उठता था। शरीर डर के मारे कांपने लग जाता था। लगता था अभी मरा।

सो ये जगह लेने के बाद हमारा मकान बहुत ही बड़ा हो गया था। उधर दूसरी और बहुत सुंदर तरह से निर्माण कार्य हो रहा था। दादा जिस तरह से अपने डंडे को लेकर पूरे घर का निरीक्षण करते थे। उससे मुझे बहुत मजा आता था। मैं भी दादा जी के साथ हर वो जगह घूम—घूम कर देखता था जिसे कल बनाया गया था। उन सब को देख-देख कर दादा जी और मैं मन ही मन प्रसन्‍न भी बहुत होता थे। की ये सब हमारा है, अब मेरी जिम्‍मेदारी अधिक बढ़ गई है, क्‍योंकि वहां तक चोर—उच्‍चको से इसे भी तो बचाना होगा। मैं अति प्रसन्न था, नहीं तो आप कहेंगे की मैं काम चोर हूं। काम का तो एक आनंद है, ऊपर छत के कोने पर खड़े होकर जब मैं भौंकता था तो दूर दराज सभी कुत्तों पता चलता की ये मेरा घर है। सब मुझे ऊपर खड़े हुए को किस अचरज से देखते थे, लेकिन में एक राजा की तरह से भौंक....भौंक....कर सब को सचेत कर देना चाहता था। इधर कोई न आये यह मेरा क्षेत्र है।

सच राम रतन और पापा जी की मेहनत से एक अभूतपूर्व कृति तैयार हो रही थी। सुंदर से सुंदर टाईलों के डिज़ाइन बनाये जा रहे थे। मानो ये एक घर नहीं था भगवान की आराधना स्थल हो। ओशोबा हाऊस को एक मूर्ति कि तरह से कितना सुंदर और सम्मोहक बनाया जा रहा था। ये सब देखते ही बनता था। मेरा जीवन धन्य हो गया इस मंदिर तुल्य घर में आने के कारण। आप उन लोगों को काम करते देखे तो आपको भरोसा नहीं होगा की मजदूर इस तरह से भी काम कर सकते है। सब लोग देर रात तक काम करते रहते। परंतु उनके चेहरे पर कभी दुख या संताप नहीं देखा मैंने आज तक।

काम की चाल कभी...कभी तो ऐसी हो जाती की रात के नौ बज जाते थे। परंतु कोई गम नहीं, न ही कोई थकता और न ही उदास होता था। ये किसी का काम नहीं है, ये तो हम सब का अपनी एक आराधना थी। काम समझ कर कोई इसे कर भी नहीं रहा था। राम रतन और पापाजी का प्रेम और संग मैंने देखा था।  कितनी सालों से साथ काम कर रहे थे। राम रतन तो थे ही दिल के अच्छे वरना तो इतना लम्बा काम कोई कैसे प्रेम से कर सकता है। दोनों भाई की तरह रहते थे। पापा जी ने उन्हें कभी नौकर नहीं समझा था।

दोनों की मेहनत और लगन से एक ऐसी अभूतपूर्व कृति बनती जा रही थी। जिसे आप जितनी देर भी देखेंगे वह आंखों को तृप्त नहीं कर सकेगी। एक-एक कोना कितनी मेहनत से तैयार हो रहा था। समय की कोई पाबंदी नहीं वह कितना ही लगे। जिस तरह से लोग एक मंदिर बनाते है या एक मकान बनाते है, उसी सब में आप भेद देख सकते हो। आपने देखा मकान की छत पर कोई सौंदर्य नहीं होता परंतु मंदिर का शीर्ष गौरवित बनता है, उसका सर ताज रूप में सजाया जाता है। जब की मकान ऊपर जाते-जाते मानव थक जाता है। उर्जा के साथ-साथ वह धन के कारण भी थक जाता है। परंतु न तो यहां धन ही था रहा था और मन परमात्मा दे रहा था उसकी का तो काम था।

चलो ये बातें बाद में .... 

भू....भू.....भू....

आज इतना ही।

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