(सदमा - उपन्यास)
श्याम होते न होते सोम प्रकाश की हालत में सुधार दिखाई दे रहा था। सुबह जिस इंस्पेक्टर कि ड्यूटी थी उनके चले जाने के बाद वही पहले वाला इंस्पेक्टर ड्यूटी पर था जो सोम प्रकाश को ढूंढता हुआ नानी के घर तक पहुंच गया था। नानी सुबह से सोम प्रकाश के पास ही बैठी थी। अब तो श्याम ढल रही थी। इंस्पेक्टर ने नानी को बैठे देखा तो वह उसके पास जाकर कहां नानी आप अब यहां नाहक परेशान हो रही हो। चलों आप को अब मैं घर छोड़ आता हूं। परंतु नानी है कि जाना नहीं चाह रही थी। परंतु इस उम्र में इस तरह से तो उसकी खूद की तबीयत खराब होने का भय था। सो ये बात इंस्पेक्टर ने नानी के पास बैठते हुए कहां। बेटा घर पर जाकर भी क्या करूंगी। मन तो यहीं सोमू के पास पड़ा रहेगा। तब इंस्पेक्टर ने कहां की अम्मा आप घर चलो अब डरने की कोई बात नहीं है। परंतु बेटा....मैं वहां क्या करूंगी। यहां कम से कम अपने सोमू को देख तो रही हूं। परंतु डा. और इंस्पेक्टर ने उसे घर जाने के लिए मना लिया की आज आप घर चली जाओ। थोड़ा रात आराम कर के कल सुबह फिर से आ जाना कल तक आपका सोमू बात चीत भी करने लायक शायद हो जायेगा। अभी तो आप उसे केवल देख सकती है। तब जाकर नानी घर जाने को तैयार हुई।
उदास मन और भारी कदमों से नानी घर जाने के लिए तैयार हुई। करती भी क्या बेचारी यहां केवल अपने तन मन को सता सकती थी। बेचारे इंस्पेक्टर अच्छे स्वभाव का था। उसने कहां की नानी चलों में तुम्हें छोड़ कर आता हूं। नानी ने इस बार उसे मना नहीं किया। नानी को घर छोड़ते हुए इंस्पेक्टर ने कहां आप आराम से खाना खा कर सो जाओ भगवान सब पर मेहरबान है भला ऐसी हालत में भी इतनी रात में इस तरह से खुले में पड़ा रह कर कोई बच सकता है। जबकि उसका खून काफी बह गया था। स्कूल के मालिक को पहले दिन ही खबर पहुंचा दी थी। ताकि वह अपने नये अध्यापक का इंतजार न करें। क्योंकि अभी सोम प्रकाश को तो ठीक होने में समय लगेगा। फिर ये भी देखना था उसके शरीर पर इस तरह की चोट कैसे आई किसी ने उस पर हमला या उसे मारा तो नहीं था।
खेर स्कूल के मालिक
और उनकी पत्नी देर श्याम सोम प्रकाश को देखने के लिए आये। अभी सोम प्रकाश को होश
तो आया था,
परंतु बीच-बीच में गफलत में चला जाता था। वह दोनों खड़े होकर उसे
प्रेम भर नजर से देखते रहे। उसकी पत्नी ने कहां देखने में कितना शरीफ था ये मास्टर
ये सब कैसे हुआ। और कुछ देर दोनों बाते करते रहे फिर चले गये।
कम से कम सोम
प्रकाश को दो दिन में पूर्ण होश आया। उसके पैर की एक हड्डी भी टूट गयी थी। सर और
माथे पर भी चोट थी। सर की चोट का अधिक भय था कहीं खून बह कर अंदर मस्तिष्क में जम
न जाये। पेर पर तो प्लास्टर लगा दिया। लेकिन सर की चोट का इंतजार था जब की वह सोम
प्रकाश को होश न आ जाये। तीसरे दिन जब सोम प्रकाश ने आंखें खेली तो नानी उसके पास
हाथ पकड़ कर बैठी हुई थी। आंखें खोलते ही सोम प्रकाश ने नानी को देखा। परंतु वह
उसे मात्र देखता ही रहा बात कुछ भी नहीं कहां। पहले तो केवल श्वास ही चल रही थी।
अब जब से कुछ शब्द निकले है, शरीर ने कुछ हरकत कर दी है। ये सब देखना
भी कभी-कभी मनुष्य को कितना सुखद लगाता है। नानी ने एक गहरी श्वास ली और परमात्मा
को हाथ जोड़ कर धन्यवाद दिया।
नाता केवल खून का
ही नहीं होता। वह तो एक तल होता है प्राणी का। जैसे पशु पक्षी आपने देखे वह अपने
ही खून से कितना लगाव करते है। परंतु वह भी एक समय तक शायद दूर से देखने पर लगाता
है किसी पाश में बंधे ये सब सम्मोहन अवस्था में कर रहे है। परंतु जैसे ही समय
गुजरता है। प्रकृति का सम्मोहन खत्म होना शुरू हो जाता है तो उनका लगाव भी खत्म हो
जाता है। क्योंकि पशु केवल पेट के लिए जीता है। हां उनमें विरोधा भास मिल जायेंगे
परंतु फिर ह्रदय का कार्य शुरू हो जाता है। जैसे-जैसे प्राणी का ह्रदय विकसित होता
है प्रेम के कारण। वह उतुंग की और चल पड़ता है। जैसे कुछ पशु पक्षियों में आप
ह्रदय का विकास होते हुए आप साफ देख सकते है। लेकिन दूसरी और किसी मनुष्य में भी
ह्रदय हीनता को आप साफ देख सकते है। तब वह शरीर तो पा गया मनुष्य का परंतु अभी वह
मनुष्य बना नहीं है। क्योंकि मन की एक बेचैनी एक संवेदना के बाद वह ह्रदय के विकास
की और अग्रसर हो सके। यही पीड़ा उस उत्तम आयाम की और अग्रसर करती है। एक विरह एक
पीडा का दर्द ही ह्रदय के विकास का प्रथम कदम है।
वैसे तो नानी का
राम प्रकाश से कोई खून का नाता नहीं था। परंतु आपने देखा ह्रदय और मन से बने संबंध
अति मधुर होते है। उनमें एक उच्चता होती है। एक संवेदना होती है। इसलिए तो दो
अंजान व्यक्तियों का जब मन मिल जाता है तो कितने वह अपने-अपने लगने से लग जाते है।
और अगर आप उसे ह्रदय तक ले जाते है तो फिर आपने एक नये आयाम को छू लिया। यहीं
ह्रदय का प्रेम एक दिन उतुंग पर भक्ति बन जाता है। बनता है लेकिन ये हम नहीं कह
सकते की नहीं बनता। देखा है हमने मीरा को चैतन्य महा प्रभु को....कबीर को, नानक
जी को....सूरदास को। जब एक में ये हो सकता तो संभावना सब के लिए बराबर है। हम और
आप भी उसे पा सकते है। लेकिन हिंदु दर्शन कहता है। ये आपके कर्म पर आधारित है। आप
चाहो तो पा लो नहीं तो आपकी मर्जी पाना तो हर हाल में है सबको परंतु समय कितना
लगेगा। इस की प्रकृति को जार भी जल्दी नहीं है। यहीं मार्ग और मंजिल में फर्क है।
इसी दूरी को कम और तीव्र करने का नाम ध्यान- प्रेम -भक्ति कुछ भी कह सकते हो।
सोम प्रकाश केवल
नानी को देख रहा था। परंतु नानी को पहचान नहीं रहा था। ये उसकी आंखों से साफ दिखाई
दे रहा था। नानी ने धीरे से कहा बेटा मुझे पहचान मैं तुम्हारी नानी हूं। परंतु न
तो उसकी पुतलियों ने कोई हरकत की और न ही उसके चेहरे पर कोई भाव आया। ये सब साफ
सोम प्रकाश के हाव भाव से देखा जा सकता था। की वह एक गहरी तंद्रा में है परंतु इस
गफलत में भी उसका अचेतन किसी को ढूंढ रहा है। जो केवल भाव में ही बहता हुआ दिखाई
दे रहा था। या उस संवेदना को केवल महसूस किया जा सकता था। ये बात नानी ने उसकी
आंखों में देख कर साफ समझ गई की वह किसे ढूंढ रहा है। और वह फफक पड़ी। कहां से
लाऊँ तेरी रेशमी को...वो तो ऐसे चली गई जैसे कभी यहां आई ही नहीं थी। उस ने तो
पीछे मुड कर भी नहीं देखा। अब कहां वह गई है। मैं तो उसका पता भी नहीं जानती जो
उसे एक बार संदेश दे कर बुला लूं। और नानी की आंखों से तार-तार आंसू झर रहे थे।
परंतु जिसे वह कह रही थी वह तो सामने केवल एक पत्थर था। वह सोम प्रकाश नहीं था।
उसका वह रूप नानी आज पहली बार देख रही थी। की उसे क्या हो गया है। कितना लड़ता था।
कहो तो मानता ही नहीं था सब अपनी मर्जी से करता था।
इतनी देर में डा.
साहब भी आ गये। उन्होंने राम प्रकाश को चेक किया। उनके चेहरे पर एक तनाव था। नानी
केवल देख रही थी। तब उसने कहां डा साहब मुझे लगता है। सोम प्रकाश मुझे पहचान नहीं
रहा है। डा. ने एक बार नानी की और देखा, और कहां लगता तो मुझे भी
है। परंतु सर का इ. एम. आई. करने पर ही कुछ कहां जा सकता है। कई बार सर मैं चोट
लगने के कारण भी ऐसा होता है। परंतु अकसर इस तरह के मरीज ठीक हो जाते है। हम आज
इसका एम आर आई करवा कर देखते है। आप चिंता ने करें। और एक दिलासा दे कर डा साहब
चले गये। सोम प्रकाश के पास नर्स और नानी वहां पर रह गई। नर्स ने नानी को सहारा
देखकर बहार बैंच पर बिठा दिया। ताकि आगे की तैयार की जा सके अभी तो बहुत काम है।
नानी केवल सुबक रही थी जैसे कोई सिली लकड़ी जल तो नहीं सकती केवल सुलग सकती है। एक
धुआं दे सकती है। तब उसका इस तरह से सुलगना किसी काम की नहीं होती।
आज नानी उस मोड़ पर
आकर खड़ी हो गई,
जिसके आगे उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। एक तो बुढ़ापे दूसरा इस
तरह का रोग क्या वह सोम प्रकाश को सम्हाल पायेगी। परंतु मनुष्य के सोचने या करने
से ही ये संसार चलने लगे तो फिर कर्म और प्रकृति का क्या काम। परंतु हर रात के बाद
सूर्य तो आता है। यही नियम है। की प्रकृति में कही भी थिरता नहीं वह खूद पल-पल बदल
रही है और उसके साथ ही नहीं आस-पास भी सब बदलता रहता है। शायद वो समय नहीं रहा तो
ये समय भी बदल जायेगा। और नानी ने एक गहरी सांस ली। जीवन में इतने दूख झेल है।
शायद और अभी कितने भाग्य में झेलने के लिए बचे है। तब भला उन सब से फिर क्यों मुख
फेरा जाये। उन्हें भी ग्रहण किया जाये। चाहे हंस कर चाहे रो कर।
मनसा-मोहनी दसघरा

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