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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

39 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-

अध्‍याय -39

मेरा घर पहुंचना

अब जगह मैंने पहचान ली थी। धुंधली यादें जो गहरे में कहीं दबी पड़ी थी या शायद कहीं सो गई थी। वह अब धीरे—धीरे जग रही थी। जैसे-जैसे मन शांति और खुशी से भर रहा था सब बहुत अच्‍छा लग रहा था। लग रहा था वहीं समय फिर से लोट आयेगा और सच कहूं तो वहीं नहीं होगा उससे कहीं अधिक कीमती होगा। क्योंकि खोने के बाद अगर आप उस वस्‍तु या समय की कीमत नहीं जान पाते तो आप जी नहीं रहे आप केवल अपने को ढो रहे हो। मुझे सब साफ दिखाई देने का मतलब यह नहीं है कि आपने उसे पा लिया। अभी भी एक लंबी दूरी और बँधायें थी जो मुझे पार करनी थी। कितने ही मेरे साथी कुत्‍ते मेरा मार्ग रोकेंगे और मुझे उनसे अपने आप को बचाते हुए घर जाना होगा। और इस हालत में देख कर पता नहीं घर के प्राणी मुझे पहचानेंगे या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं की वह मुझे घर से ही निकाल दे। कि अब तुम्‍हारी जरूरत नहीं रही। अनेकों विचार मेरे मस्तिष्क में आ जा रहे थे...न जाने आगे क्या होगा कहा नहीं जा सका था। क्‍योंकि में कितनी ही बार उन लोगो को परेशान कर चूका हूं। परंतु मन में भगवान से दुआ कर रहा था कि एक बार—बस इस बार मुझे उस घर में रहने दे फिर देखना मैं कितने अच्‍छे बच्‍चे की तरह रहूंगा। कोई शरारत नहीं करूंगा। अगर वह जंगल न भी ले जायेंगे तो में घर पर ही रह लूंगा। एक अच्छे बच्चे की तरह।

बस एक बार और मुझे मोका मिल जाये। इस बचे हुए नये जीवन को जी भर कर समझ कर जीना चाहता था। इतना अच्‍छा घर परिवार मुझे और कहीं नहीं मिलने वाला था। मैंने जरूर कुछ अच्‍छे और बुरे कर्म किये होंगे जो मुझे बार—बार गलती करने के बाद उस घर में जगह मिल जाती है। बुरे भी तो किये ही होंगे, जाने अनजाने में कुछ भूल हो गई हो तो है परमात्मा मुझे माफ कर दे। मुझे ये घर मिल गया इसमें मेरा क्‍या गुण गौरव था। फिर क्‍यों मैं इस भगवान की अनमोल देन पर इतना इतरा हूं। मुझे सच बहुत घमंड हो गया था अपने ऊपर। मेरे मन से दया भाव तो खत्‍म ही हो गया था। परंतु ये सब ठीक नहीं था। मिला है उसे एक अमानत समझ कर इस्तेमाल करो।

परंतु सच में जब आपसे कुछ छिन जाता है, तो ही उसकी कीमत हमें पता चलती है। इस जीवन को में बहुत ही सहज और सरलता से अब मैं जीना चाहता था। ये सब मुझे लगता है भगवान ने मेरे अहंकार को दूर करने के लिये शिक्षा दी होगी। मैं आसमान की और देखने लगा मुझ पर दया करो। भगवान बस एक बार, फिर मैं ऐसी गलती कभी नहीं करूंगा। सड़क पार करने के बाद मैं उस टूटी सड़क पर आ गया था। जिसके किनारे—किनारे कितनी ही जंगली कीकर उगी हुई थी। यहां काबुली किकरों का एक झूंड शुरू हो जाता था। दूसरी और बबूल और रौंझ के वृक्ष थे। बबूल पेड़ के कांटे कुछ पतले और लंबे होते है। उसके पेड़ थोड़े बड़े और अधिक मजबूत और ऊंचे भी होते है। अब जंगल में उनकी संख्‍या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। कुछ दूर चलने के बाद वह पुलिया आ गई जहां पर वरूण और दीदी साइकिल चलाते हुए एक बार गिर गये थे। वरूण और दीदी के गिर जाने से हम सब उनकी और किस तेजी से भागे थे। उन दोनों को साइकिल चलाते हुए इसी पुलिया पर बैठ कर पापा जी देखते रहते थे। लेकिन गिरने कि घटना बाद की थी, जब तक तो वहां साइकिल चलाना सिख चूके थे।

इसलिए पापा जी पुलिया पर निश्चिंत बैठ कर उनको आता जाता देखते रहते थे। वरना तो कैसे उनके साथ-साथ दौड़ते रहना पड़ रहा था। परंतु बाद में कोई जरूरत नहीं रह गई थी। मैं भी पहले भैया-दीदी के साथ ही दौड़ता था। परंतु अब मैं भी जान गया था कि इनको कोई खतरा नहीं इसलिए पापा जी और हिमांशु के साथ मैं भी ही यहां बैठ कर विश्राम करता था। परंतु उस दिन अचानक इस तरह से गिरने के कारण हम कैसे भागे थे। पास जाकर देखा तो दीदी डरी सहमी सी उठने की कोशिश कर रही थी। और वरूण भैया साइकिल के नीचे दबे थे। पापा जी ने जाकर देखा....और साइकिल उठाई मैं भी घबरा गया था। परंतु सब हंस रहे थे। क्‍योंकि खेल में तो ये सब होता ही रहता था। दीदी ने वरूण भैया को बिठा कर चलाने कि कोशिश की। संतुलन बिगड़ गया और दोनों गिरे धड़ाम से मैं तो पहले ही से समझता हूं पापा जी नाहक ये सब आफत कर रहे हो। नाहक बच्‍चों को साइकिल चलना सिखा रहे थे, इतनी पतली सी साइकिल तो कभी भी गिर सकती है। अब भला ये क्‍या बात हुई दो पहिया पर आप अपना संतुलन बना कर चला रहे हो। कितना खतरनाक खेल था, परंतु सब करते है, करो मैं तो कभी नहीं करूं। इसलिए मैंने सब को भौंक कर आगाह किया कि देखो ये सब गलत है। परंतु मेरी बात कौन मानने वाला था, सब तो मुझे भोंदू ही समझते थे। परंतु देखो अब क्या मैं ठीक नहीं कहा रहा था। परंतु तुम कब मेरी सुनते हो। अब भुगतो। गिरे परंतु रो कोई नहीं रहा था सब हंस रहे थे मैं भी उनके आसपास दौड़ कर अपनी खुशी को जाहिर कर रहा था।

जैसे ही मैं पास जाकर उस जगह को देखने लगा। सामने वही पुलिया थी। सब बातें कितनी साफ सामने खड़ी सी लग रही थी। लग रहा था अभी उन्‍हें छू सकता हूं बस दो कदम दूर है मेरे से। हमारी यादें हमारे संग किस तरह से जीवित रहती है। अचानक दूर कहीं पहाड़ी के एक कोने से किन्‍हीं कूतो के भौंकने ने मेरा ध्‍यान भंग कर दिया। अचानक सब यादें जो अभी यहां वहां बिखरी फैली थी पल में ने जाने कहां गायब हो गई। रह गया खाली मैदान। दूर तालाब नीले पारदर्शी पानी से भरा था। उसके आस पास अब काफी पेड़ पौधे उग गये थे। वह जो दूर पीपल का वृक्ष दिखाई दे रहा था वह बहुत पुराना था। उसके नीचे एक बेकरियों का झुंड बैठा जुगाली कर रहा था। और उसके आस-पास चरवाहे भी जरूर यही कहीं होगा। और उनके साथ होंगे एक दो खतरनाक कुत्‍ते भी। मेरा पानी पीने को मन कर रहा था। और नहाने को भी जी चाह रहा था। लेकिन उन कुत्‍तों की याद आते ही मैं सच अंदर से थोड़ा डर गया था। क्‍योंकि एक बार इसी तरह के कुछ कुत्‍तों से मेरी मुठभेड़ हुई थी। ये बड़े खतरनाक होते है इनके मालिक इनसे जंगल में शिकार भी करवाते है। तब मुझे याद आया कि यह बाते तो बाद में सोचने की थी। पहले तो मुझे अपने घर जाना चाहिए। अभी तो मैं यहां नितांत अकेला था। शरीर भी मेरा बहुत कमजोर हो गया था। और अचानक ही मेरा मन उदास हो गया। परंतु मैं जानता था मेरे शरीर पर बहुत सारी मिट्टी तो झड़ गई है बाकी अभी कुछ चिपकी हुई है। अगर उस पानी में कुछ देर नहा लेता तो बहुत अच्‍छा होता।

परंतु खतरे को जान कर मैं उसे अपने ऊपर ओढ़ना नहीं चाहता था, कि आ बेल मुझे मार। जिसके बिना काम चल रहा हो उसे नाहक निमंत्रण दे कर बुलाना ठीक नहीं होता। तब कोई भी आपसे कहेगा ये कहां की अक्लमंदी थी। ये मुझे अचानक क्‍या हो गया मैं तो इस तरह से कभी सोचता नहीं था। लड़ना तो मेरे जीवन का परम सूख था। और अब मैं उससे पीछे हट रहा था। ये जो हो रहा था इसमें मेरा कोई हाथ नहीं था। कोई मुझे पीछे से धकेल रहा था। मन के पीछे से एक आवाज आई और मैं उसे सून रहा था। दूसरी  और मेरे अपना अभिमान, अंदर एक अहंकार की आवाज भी आ रही थी। जिसने केवल मुझे जगह—जगह लड़वाया या पिटवाया था। अपनी रक्षा करना और बात है परंतु खतरे के मुंह में जाना कहां की समझदारी थी। मैंने उस आवाज से अपना मुख फेर लिया और आगे की बात को सोचने लगा। सामने जो ऊंचे नीम के पेड़ो का झुरमुट था। उसके ठीक पार वह पीली कोठी थी। पहला लक्ष्य तो मेरा पीली कोठी था। फिर उसके बाद आगे के बारे में सोचना था।

प्‍यास तो लगी थी परंतु तालाब की और न जाकर मैंने घर का रास्ता ही अच्‍छा लगा। क्‍योंकि कितने दिन हो गये मुझे घर से निकले। इस बात का भी मुझे कुछ पता नहीं था। लगता था सालों से घर नहीं गया, अचानक घर की याद आते ही मन उदास हो गया। परंतु मैंने मन को हिम्‍मत दि की कुछ ही देर की तो बात है ये पीली कोठी के बाद वायरलेस के तार और फिर सामने गांव। और सच ही ऐसा था मैं अपनी मंजिल के बहुत करीब था। जब मैं मंदिर से उठ कर चला था तो मुझे ये कुछ भी पता नहीं था कि मैं कोन हूं? कहां जाना है? बस उठा और चल दिया यानि कोई शक्ति मुझे ठीक मार्ग बता रही थी। इन अच्छी-अच्छी बातों से मैं किसी तरह से अपने मन को बहला रहा था। हालांकि इस बात में थोड़ी-थोड़ी सच्चाई भी थी। परंतु मन इतने दिन से इंतजार करते-करते थक गया था। मन एक अल्‍हड़ बच्‍चे की तरह से होता है, अगर वह भटक जाता या बेचैन हो जाता है, तब मुझे और भी अधिक मुसीबत झेलनी पड़ सकती थी। हालाँकि मैं जानता हूं ये जो मुसीबत शरीर पर या मन पर झेल रहा हूं इसी पागल मन की देन तो थी। और अभी भी देखो यह कैसे बहला फुसला कर मुसीबत में डालना चाहता था। यानि आपका मन आपका भी नहीं होता, इस से थोड़ा सावधान भी रहना चाहिए।

धीरे-धीरे मैं थक रहा था और मेरा शरीर जवाब दे रहा था। कह रहा था कुछ देर विश्राम करो। अब और आगे नहीं चला जाता। बेचारा शरीर ये बात वैसे तो सच ही कह रहा था। कितनी रात से ये शरीर चल रहा था। बस एक जगह जरा सा रूक कर थोड़ा सा पानी ही तो पिया था। और मैंने शरीर की बात मान ली वहां पर बहुत अच्‍छी छांव थी। हवा भी शीतल चल रही थी। पास ही नाले के मोड़ पर अभी कुछ पानी भरा था। पहले तो नीचे उतर कर मैंने कुछ पानी पीना चाहा। परंतु पानी पेट में जाकर चीर रहा था। शायद खाली पेट होने की वजह से ऐसा हो। परंतु गला तो तर करना ही था। किसी तरह से मैंने कुछ पानी पीया। और ऊपर जाकर विश्राम करने लगा। मैं चाहता था और कोई मुसीबत आये इससे पहले में किसी तरह से घर पहुंच जाऊं। इसलिए मैं ज्‍यादा देर वहां पर नहीं रुका। चल दिया उस पीली कोठी पार करने के बाद दाई और उस पहाड़ी के बराबर से जो पगडंडी जा रही थी, मैं उस पर चलता रहा। यहां कोई खास ऊंचे पेड़ नहीं थे। केवल कीकर ही के कुछ वृक्ष थे, और पहाड़ी की और बेरों की झाडियां थी, परंतु ये मौसम बैर का न होकर कैर का मौसम था। उन कैर की झाड़ियों पर सुंदर पिंक फूल खिले थे। झाड़ियां अपने पिंक लाल छोटे फूलों से कैसे सजे हुए खड़ी इतरा रही थी। उसकी पतली हरी डंडी जिस पर कोई पत्‍ते नहीं होते, बस फूलों के गुच्छे जो कुछ ही दिनों में टींट (कैर) के फल बन जायेंगे। कितनी ही बार पापा जी और दीदी जी इन्हें तोड़ कर घर ले जाते थे। एक दिन मैंने भी एक तोड़ कर खाने की कोशिश की तो कितनी कड़वी स्वाद था इसका। कितनी देर तक मेरे मुख से झाग आते रहे तब पापा जी और दीदी जी कैसे खाते होंगे।

झाडियों के बीच से सतर्कता के साथ, मैं आगे बढ़ रहा था। सामने ही पानी से भरे लेट दिखाई देने लगे। ये सब मेरी उम्‍मीद की किरण थी। जो मुझे आज बहुत अच्‍छे लग रहे थे। कुछ ही देर में मुझे गांव के घर दिखाई देने लगे। मन खुशी से झूम उठा। देखो आज से पहले मुझे ये गांव अपना कभी नहीं लगा था। अपना घर भी अपना घर कभी नहीं लगता था। गांव की तो बात ही दूर थी। मैं विचारों में खाया, सपनों में उलझा आगे बढ़ रहा था। और सोच रहा था पतली गली में से चलू या बड़ी गली में से वह कुछ खुली और साफ सुथरी थी। परंतु उस खुली गली में कम ही कुत्‍ते रहते थे। लेकिन भीड़ी (पतली) गली में एक सफेद रंग का तगड़ा कुत्‍ता रहा था। जिससे मैं कितनी ही बार लड़ चुका था। वह जंगल तक लड़ने के लिए मेरे पीछे आता था। उसे भी अपनी ताकत पर बड़ा अहंकार बड़ा गुमान था। तब मन ने कहां आज ताकत दिखाने का समय नहीं है किसी तरह से घर चल। मैंने मन की उस पहली बात को ही मान लिया। मैं सतर्क चाल से चाक चोबन होकर किसी भी आने वाले खतरे से अपने को बचाने के लिए तैयार चलता रहा था। गली पार कर गांव की मैन सड़क आ गई। और उसके सामने ही हमारी दुकान थी। इधर पार्क और वह सामने सहमल और पीपल के वृक्ष मुझे दिखाई दे रहे थे। सूर्य की तेज चमक में भी उसके लाल फूल कितने सुंदर लग रहे थे। फिर मैंने देखा अरे हमारी दुकान तो बंद है। और मेरा मन एक दम से बुझ गया। क्योंकि पापा जी तो ग्यारह बजे ही दुकान बंद कर देते थे। तब हम सब मिलकर ध्‍यान करते थे। उसके बाद खाना खाते, फिर बाद में वरूण भैया को स्कूल से लेने चले जाते थे। पता नहीं अभी कितना समय हुआ होगा। धूप तो काफी तेज हो रही थी। लगता था या तो पापाजी वरूण भैया को लेने के लिए चले गये होंगे या फिर ध्‍यान कर रहे होंगे। घर के दरवाजे तो पक्का बंद होना ही चाहिए।

तब मैं हिम्‍मत कर के दादा जी के कमरे की और चल दिया, जो हमारी दुकान के ठीक ऊपर था। आस पास कुछ सब्जी बेचने वाले भी खड़े थे। परंतु वह अपनी सब्जी बेचने में मस्त थे। उन्होंने मेरी और जरा भी ध्यान नहीं दिया। दूर पार्क में एक कुत्‍ते ने मुझे देख लिया और वह भौंकता हुआ पार्क की ग्रील को कूदता मेरी और भागा। परंतु उसके भोंकना का अंदाज अलग था। इस भाषा को हम ही समझ सकते है। आपको तो सब भोंकना एक जैसा लगेगा। वह बीजू था जो हमारी दुकान के पास ही रहता था। एक कालू....एक कुट्टी....जुली, चिमटी न जाने कितने ही कुत्ते रोज हमारी दुकान से दूध पीते थे। वह मेरे पास मेरे स्वागत के लिए आया। क्‍योंकि कई दिन से उसे में दिखाई नहीं दिया था। परंतु इस तरह से मेरे शरीर पर कीचड़ और मिट्टी को देख कर वह कुछ देर के लिए ठिठका जरूर। परंतु पूछ हिलाता ही रहा। उसे अचरज हो रहा था ये मेरी क्‍या हालत हो गई थी। उस समय मेरी हालत गली के कुत्‍तों से भी बदतर थी। कहां मेरे शरीर से शैम्पू की महक आती थी और अब गंदी कीचड़ की बू....समय का फेर था। मैं दादा जी के कमरे की और चल दिया। दादा जी अपने बिस्तरे पर बैठे थे। पहले तो उन्‍होंने मुझे देखा नहीं। जब में पास पहुंचा तो वह मुझे भगाने लगे कि लगता है कोई चौर कुत्‍ता आ गया जो दाद की माल खा जाता होगा।

परंतु दादा जी ने फिर अपना लट्ठ उठा लिया। अब तो मैं समझ गया कि बच्‍चू अब तेरी खैर नहीं। दादा जी को काट भी नहीं सकता क्‍योंकि फिर तो वह मुझे घर मैं धूसने ही नहीं देंगे। पास ही बीजू भी खड़ा ये सब देख रहा था और खुश भी हो रहा था कि अब मजा आयेगा। जब पोनी को दो लट्ठ लगेंगे। और वह तो डर कर दूर जा खड़ा हुआ केवल देखता ही रहा। मैं भी तैयार था कि जैसे ही दादा जी लट्ठ मारे में भाग जाऊँ। परंतु दादा जी केवल डरा रहे थे। फिर उन्‍हें लगा की हो न हो यह हमारा पोनी ही क्‍यों न हो। और उन्होंने मुझे पोनी कह कर पुकारा और मैं वहीं बैठ गया। उस समय मेरे शरीर के साथ मेरी हिम्मत ने भी जवाब दे दिया था। ऐसा होता है जब आप चलते रहते है तो एक उर्जा का वर्तुल घूमता रहता है और आप बैठे नहीं की सारे शरीर का दर्द पैरो की रहा आपको बाँध देता है। तब दादा जी उठे और अपने लट्ठ को एक और रख कर मेरे पास आये। मेरे शरीर में मिट्टी कीचड़ लगा था। इसलिए शायद वह मुझे पहचान न सके। और में जल्‍दी से दादा जी की चारपाई के नीचे जाकर छूप गया। की अब तो मुझे कही भी नहीं जाना है यहीं मर जाना है चाहे मारो चाहे भूखा रखो।

और दादा जी समझ गये कि मैं पोनी ही हूं.....तब उन्होंने खाने के एक डिब्बे से कुछ बिस्किट निकाले और मेरे पास फेंक दिये। दादा जी के पास खाने के लिए, हमेशा कुछ न कुछ रखा ही रहता था। हम सब यहां जब भी आते तो हिमांशु भैया या वरुण उनके साथ-साथ मुझे भी कुछ जरूर खाने को मिलता था। लेकिन मेरा खाने को मन नहीं कर रहा था। लगता था किसी तरह से पंख लग जाये और पापा जी के पास पहुंच जाऊं। शायद दादा जी ने मेरी बात सून ली और अपनी डंडा उठा कर यह कहते हुए दरवाजा बंध कर दिया कि मैं अभी मनसा को लेकर आता हूं। वह पापा जी को हमेशा मनसा ही कहते थे। और कोई ये नहीं कहता था मम्‍मी जी स्‍वामी जी और बच्‍चे पापा जी। अब मुझे तो पापा जी ही कहना जंचता था।

शायद दस मिनट भी नहीं गुजरे होंगे दरवाजा खुला, मैं कुछ देर के लिए सो गया था। एक सुरक्षा का माहोल मिलने के कारण मैं इतनी ही देर में गहरे नींद में चला गया था। कैसा सपना देखा की देवदूत मुझे आपने बड़े से हाथ पर बिठा कर कैसे आसमान मैं फेंक रहा है की मैं नीचे गिरा और चकनाचूर हो जाऊंगा इस गिरने की प्रक्रिया के बीच में ही दरवाजा खुला और मेरा सपना टूट गया। अच्छा ही हुआ क्योंकि वह मुझे डरा रहा था। मैंने जैसे ही आंखें खोली सच सामने पापा जी खड़े थे। उनके हाथ में मेरी चिर परिचित चैन थी। मैं जोर—जोर से रोने लगा। और सब कुछ भूल गया। खड़ा होकर पूंछ हिला कर मैं उनमें समा जाना चाहता था। मैं अपने शरीर को पापा जी से रगड़ रहा था। वह मेरे शरीर पर और सर पर हाथ फेर रहे थे। ये सब दादा जी भी देख रहे थे और वह बीजू कुत्ता मेरा दोस्त भी देख रहा था।

देखा आपने पापा जी कितना प्यार कर रहे है मुझे। सामने मम्‍मी भी आकर खडी-खडी मुस्कुरा रही थी। और दादा के साथ एक दो सब्‍जी वाले भी मुझे देखने आये। सब मुझे जानते थे और चाहते थे कि मैं उनकी रहड़ी से टमाटर या गाजर खाऊँ। पापा ने झुक कर मेरे सर पर हाथ फेरा। मेरे जलते तन मन पर जैसे शीतलता फैल गई। यही हाथ आज से सालों पहले एक बार मैंने जैसा महसूस किया था आज फिर दोबारा उससे भी कई गुणा आनंद से सराबोर कर रहा था। लगा कि एक मुर्दा शरीर फिर से जीवित हो गया। मैंने आंखें बंद कर ली वह दो तीन मिनट तक मेरे सर और गर्दन को सहलाते रहे। फिर कहने लगे आ चल अब घर चलेंगे। इतनी भाषा तो मैं जानता था मैं उठा और पापा जी के कंधों पर अपने दोनों पंजे रख दिये। इतनी देर में मम्‍मी भी अंदर आ गई और कहने लगी मेरा पोनी कहां चला गया था। और मैंने उनका मुँह चाट लिया तब उन्‍होंने कुछ नहीं कहा.....मेरी जीभ नमकीन स्‍वाद से भर गई। देखा तो मम्‍मी और पापा जी आंखों से झर—झर आंसू गिर रहे थे। वह आंसू खुशी के थे या कि बिदाई के ये मैं नहीं जानना चाहता था।

मैं भी रो दिया और फिर पापा जी ने मुझे गोद में उठा लिया ऐसा लगा पापा जी के अंदर समा जाऊं। कितना सूखद एहसास था पापा जी की गोद का इससे सुखद कुछ भी नहीं हो सकता था। और मैं भगवान को धन्‍यवाद दे रहा था तुमने मुझे फिर उन हाथों में पहुंचा दिया । जिनकी मैंने उम्‍मीद छोड़ दी थी। सब लोग खड़े होकर मुझ देख रहे थे। मेरे शरीर से गंदी कीचड़ की बदबू आ रही होगी। पापा जी का प्रेम देख कर मैं गदगद हो गया। प्रेम कोई नैतिकता कोई सिद्धांत नहीं जानता। प्रेम तो एक गहराई है जिसमें केवल डूबना ही आनंद दायी होता है। इसमें तैरना सुखद जरूर लगता है, परंतु उस उथले पन में केवल दर्द ही भरा होता है। एक बार तो मुझे झिझक लगी की इतना बड़ा होने पर क्‍या पापा जी की गोद में चलना शोभा दायक है। परंतु पापा जी के संग का रस मुझे अपने में डुबोये जा रहा था। मैंने आंखों बंद कर ली एक हलकापन एक निर्भार अपने अंदर महसूस हो रहा था। दूर कहीं मेरा शरीर है और मैं किसी सुखद आसन पर हलका एक फैदर की तरह उड़ रहा था। शरीर की निर्भरता से जो सुख मुझे मिल रहा था मैं उसमें ये भी भूल गया कि पापा जो मेरा बोझ लग रहा होगा। क्‍योंकि मेरे शरीर में तो कोई बोझ था ही नहीं। पापा जी कीचड़मय में सने एक कुत्‍ते को किस तरह से गोद में उठाये थे। सच मुझे शर्म भी आ रही और अपने पर गर्व भी महसूस हो रहा था। कि देखो मेरा मालिक मुझे कितना प्‍यार करते है।

उन्‍होंने अपने कपड़े की जो उस समय चोगा ही पहने थे। शायद ध्यान से अभी-अभी बहार आये और मेरा संदेश उन्हें मिल गया। प्रेम इन सब बातों की परवाह नहीं करता। कि वह गंदे हो जायेंगे तो हो जाने दो। सच ही मम्‍मी पापा चोगा पहले थे उनके शरीर से एक खास किस्म की सुगंध आज मैं महसूस कर रहा था। घर जाते-जाते तक गली के लोगों ने जब ये नजारा देखा तो यह एक अचरज का विषय बनने में जरा देर नहीं लगी। कि पापा अपने कुत्ते को कैसे गोद में उठाये है। बच्चों हजूम एक झल्‍लूस सा बना हमारे साथ चल रहे थे। कितने ही लोग देख रहे थे उनकी आंखें फटी हुई थी। घर पर घुसने के बाद मम्‍मी ने दरवाजा बंद कर दिया। पापा जी ने मुझे नीचे जमीन पर उतार दिया। और कहने लगे पोनी में तो वजन ही नहीं रहा चार—पाँच दिन में हड्डियों का ढांचा बन कर रह गया। मम्मी ने पानी गर्म कर बाल्टी में भर दिया, चेन मेरे गले में पहना दि गई थी। अब की बार मैंने सब स्वीकार कर लिया। इस तरह से नहाते देख कर मम्‍मी कहने लगी पोनी तो समझदार हो गया। अब मैं उसके लिए दूध में हल्दी और घी डाल कर लाती हूं। और मम्मी जी वहां से चली गई। पापा जी मुझे रगड़-रगड़ कर नहलाते रहे। सार स्नानघर बदबू से भर गया था। फर्श पर हर जगह कीचड़-कीचड़ फैल गया था। पापा जी ने पहले तो मेरे सारे शरीर का कीचड़ छुड़ाया। फिर कहीं शैपू लगाया, शायद उससे भी झाग नहीं बन रहे थे। गर्म पानी जैसे—जैसे शरीर पर गिर रहा था एक आराम सा मिल रहा था। वह गर्म पानी मेरे सारे बदन के दर्द को सहला रहा था। नहलाते हुए पापा जी की नाजुक उंगलियां का छूना मुझे बहुत ही सुखद लग रहा था। मैं एक अच्छे बच्चे की तरह से खड़ा नहा रहा था। नहाने से मिल रहे सूख के कारण खड़े—खड़े ही मेरी आंखें बंद होने लगी थी। या शायद शरीर को जैसे ही आराम मिल रहा था मेरी आंखें बद हो रही थी।

नहाने के बाद पापा जी ने मेरा सारा शरीर बहुत ही आराम मेरे तोलिये से पोंछा। शायद देख भी रहे होंगे की मेरे शरीर पर कोई जख्‍म तो नहीं था। तब तक मम्‍मी जी दूध गर्म कर उसमें चीनी, हल्दी और धीर डाल कर तैयार कर चुकी थी। सामने आंगन में जहां धूप थी वहा एक बोरी बिछा दी गई थी। मैंने तृप्‍त आंखों से ये सब होते देख रहा था। फिर आंखें बंध कर एक मधुर सुस्वाद के साथ दूध पीने लगा। क्‍या बतलाऊं आपको उस दूध के स्‍वाद के विषय में। मेरे पास बतलाने के लिए शब्द नहीं थे। धीरे—धीरे कर के मैं आधा ही दूध पी पाया। क्‍योंकि पेट खाली होने की वजह से वह अंदर जा कर लग रहा था। तब देखा की पापा जी का चोगा तो एक दम सारा कीचड़ में सन गया था। पापाजी ने उसे उतार कर बाल्टी में भिगो दिया। और उसके बाद सारे बाथरूम साफ करने लगे। उसके बाद शायद खुद नहाने लगे और मम्‍मी को कहा की थोड़ी चाय बना दो। मैं धूप में बिछाई हुई उस बोरी पर बैठ कर अपने शरीर को चाटने लगा। जो पानी मेरे शरीर पर रह गया था वह अपनी जीभ से सुखाने लगा। पूरे शरीर को सुखाने के बाद में लेट गया। धूप बहुत तेज थी परंतु सुखद लग रहा थी। मैं कितनी ही देर सोता रहा। तब मम्‍मी ने जगाया की चल कुछ खा ले। और उस दिन राजमा चावल बने थे। इतनी देर सोने के बाद भूख भी बहुत लग गई थी। हम तीनों ने प्‍यार से खाना खाया क्योंकि बच्चे तो इस समय स्कूल में गए होते है। और दादा का भोजन करने का समय तीन बजे  के बाद होता था जब वह बच्चों के साथ घर आते थे। वह एक ही समय भोजन करते थे सालों से। उसके बाद वहीं पर बिस्‍तर बिछा कर ओशो जी का प्रवचन लगा कर हम लेट गये। मैं भी अपने बिस्तरे पर लेट गया मम्मी ने एक हलका सा कपड़ा मुझे उढ़ा दिया। सच ओढ़ कर सोने की मुझे आदत थी। क्‍योंकि  मक्खियां मुझे अच्‍छी नहीं लगती थी। और दूसरा आंखों में पड़ी रोशनी मुझे बहुत चुभती थी। जब कपड़ा नहीं ओढ़ पाता तो अपना हाथ ही अपनी आंखों पर रख कर सो जाता था।

मैं कितना गहरा सोया जब उठा तो श्‍याम हो गई थी। पापा जी दुकान पर चले गये थे और बच्‍चे स्‍कूल से कब के आ गये थे मुझे इस बात का कुछ नहीं पता चला। क्योंकि बच्चों ने आकर मुझे जगाया नहीं था। या शायद मम्‍मी ने मना कर दिया होगा। वरना वह तो नहीं रुकने वाले थे। तब सब बच्‍चों ने मुझे घेर लिया और दीदी तो मुझ से चिपट कर रोने लगी। पोनी तु पागल कहां चला गया था। मैं सोच रहा था अगर मैं इसी तरह से मर जाता तो कितना अच्‍छा होता यहां सब मुझे कितना प्‍यार करते है। तभी एक विचार मेरे मन में आया कि अधिक साथ रहने से अधिक प्‍यार मिलता है। ये घटेगा थोड़ा ही आप प्‍यार देते है या आपको कोई प्यार देता है ये तो मन का भ्रम था। फिर अचानक मरने का विचार मेरे मन में क्‍यों आया। तब मैंने अपने को बहुत कोसा कि मैं क्या ऊल जलूल सोच रहा हूं। अचानक मम्‍मी भी पास आई की मैं दुकान पर पापाजी की चाय ले कर जा रही हूं....तु अपना बचा हुआ दूध पी लेना मुझे जरा भी भूख नहीं थी। बस में साथ चाहता था। बच्‍चे अपना दूध पी चूके थे और पढ़ने की तैयारी कर रहे थे।

मैं भी सब बच्चों के पास ही बैठ गया। आंखों से सारे घर को एक बार फिर निहारना चाह रहा था। एक-एक कोना अपनी यादों में बसा लूं। उधर अमरूद और आडू के पेड़ को पक्षियों के कलरव नाद का समय हो गया था। कि सब कितना सुंदर और मनोहर था वहां पर। ये घर मुझे स्‍वर्गतुल्‍य लग रहा था। एक बार पूरे घर को अच्‍छी तरह से घूम कर देखना चाहता था। मैं सीढ़ी चढ़ गया। और छत पर चला गया। छत की शोभा देखने जैसी थी। रामरत्‍न ने कितनी सुंदर क्यारियां बना दी थी। जो मेरे सामने ही बन रही थी। परंतु उस समय मैं उसे इतने गोर से नहीं देखता था। मैं छत पर खड़ा होकर एक—एक चीज को देखने लगा। मुझे बीच में क्या हो गया था पहले तो हर बनी चीज को उसी दिन देख कर आता था। और हजारों जगह गीले सीमेंट में मेरे पैरो के भी निशान छप जाते थे। तब सब मेरे ऊपर हंसते थे कि अब ही तो बड़ा ठेकेदार आया है। काम को देखने के लिए। काम पूरा होने के बाद मेरा जाना नित का एक नियम था।

शायद में इसके प्रति बेहोश हो गया था। इसके सौंदर्य के प्रति में विरक्ति हो गया था। पास की चीज जो हम रोज देखता था उसके प्रति हम सो ही जाते है। और मैं कितनी ही देर छत पर से पूरे गांव और जंगल को देखता रहा मन भर कर निहारता रहा। और वहीं बैठ कर सोचता रहा मैं किधर था। एक अंदाज भी लगता रहा की अगर मैं पक्षी होता तो कैसे फूर्र उसे उड़ कर अपने घर आ जाता। क्योंकि मुझे दूर से ही अपना घर दिखाई दे जाता जिस पर पैड़ पौधों की हरियाली दिख जाती। दूर सब दिखाई तो दे रहा था परंतु दिशा का मुझे जरा भी भान नहीं हुआ। ये मेरे दिमाग के लिए बे बुझ पहली थी।

और देर रात जब पापाजी नीचे आये तभी में नीचे गया। और आज रात जब पापा जी बच्चों को कहानी सुना रहे थे तो में दीदी की गोद में गर्व से लेटा उसका आनंद ले कर उस सब के संग साथ को महसूस कर रहा था।

 

भू.... भू..... भू.....

आज इतना ही।

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