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रविवार, 21 दिसंबर 2025

40 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-अध्याय-40

स्वामी नरेंद्र जी का आगमन

इस तरह इस जीवन मैं चौथी बार मृत्यु के द्वार को छूकर लोट आया था। ये एक नादानी नहीं तो और क्‍या थी मेरी। क्‍या अभी भी मेरे अंदर बालपन लड़कपन चल रहा था। क्या सभी प्राणियों के जीवन में मृत्यु का झूला इसी तरह से झूलता रहता होगा। या ये सब मेरी नादानी या किसी मूर्खता के कारण घट रहा था। कितने कम पशुओं के जीवन में इतना सुंदर वातावरण होगा। मेरे जैसे जीवन का रस्‍सास्‍वाद अनुभव बड़े भाग्य से किसी-किसी को ही मिलेगा। मेरी नज़रों में इस कीमती जीवन की कोई कदर नहीं थी। मैं इस अमूल्य अवसर को यू ही फेंकता फिर रहा हूं। इस वरदान की अगर मैं कदर नहीं करूंगा तो कब—कब मेरे पास फिर लोट कर आयेगा। कब—कब कुदरत मुझे मौके देती रहेगी। जीवन में मैंने जरूर कुछ अच्छा किया होगा....तो ये स्थान, इतने प्यारे मनुष्य मुझे मिले है। मुझे इस सब की कदर करनी चाहिए अगर आप प्रकृति की कदर नहीं करते तो प्रकृति भी थक हार कर एक दिन तटस्थ हो जायेगी।

अपने इस अनमोल जीवन की कदर ने देख कर वह इसे मुझसे छिन लेगी। और मैं तो खुद ही इसे फेंकने के लिए तैयार था। मैं कितना पागल हूं, कितना मूर्ख हूं, ये सब बातें सोच कर मेरा मन कितना उदास हो गया था। इन सब बातों के कारण मुझे अंदर से अपने ऊपर क्रोध और ग्लानि भी हो रही थी। मन में एक पश्चाताप भी भरा था कहीं, कि अब ऐसा कभी नहीं करूंगा। परंतु ऐसा पहली बार नहीं उन पहली दुर्घटनाओं के बाद भी शायद मैंने इस तरह से सोचा था।

परंतु फिर वही गलती दोहराई गई बार-बार। क्या मनुष्य और हम पशुओं केवल यही वह भेद है, एक संकल्प की कमी, हम गलती को दोहराते है और उससे सीखते कुछ नहीं। शायद हम कल के बारे में सोच नहीं सकते, हमारे ऊपर मृत्यु जैसी घटना तो आती है, परंतु हम मृत्यु के बारे में विचार नहीं कर सकते। 

सुबह जब दशा मैदान के लिए घर से बहार निकला, आज वैसी उमंग नहीं थी मन में कि मैं किसी कैद से निकल रहा हूं। हमारे ही विचार हमें किस तरह से भ्रमित करते है, अगर हम उसे पीछे मुड़ कर देखे तो वह हमें साफ दिखाई दे जायेगा। मन जिस तरह से एक अल्‍हड़ की भांति फुदकता है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर। मेरा यूं छटपटाना बाहर जाने के लिए कैसा अजीब सा लगता है। मानो मैं एक कैदी का जीवन जी रहा हूं, परंतु सच ये है कि मैं अति मुक्त हूं। वो सब कल की घटना के बाद मन बहुत उदास हो गया। लगा की मैं घटनाओं से कुछ क्यों नहीं सिख पा रहा हूं। पहले मन करता था दूर तक घूम कर आऊं, परंतु आज आगे जाने का भी अधिक मन नहीं किया। वहीं गली के नुक्‍कड़ तक गया। वहाँ पर दो कुत्‍ते घूम रहे थे कालू और लंबू वह पास आकर चमचा गिरी करने लगे। किसी तरह से मैंने उन्‍हें अपने से दूर किया। इतनी देर में अंदर से ध्‍यान के संगीत आवाज शुरू हो गई। मेरे मन को वह संगीत चुंबक की तरह अपनी और खिंचता रहा था। मैं मुड़ा और जल्‍दी से घर के अंदर घूस कर ध्‍यान के कमरे को धक्‍का मार कर देखा तो वह खुल गया। आज कल दीदी और पापाजी ही सुबह ध्‍यान करते थे। पापा-मम्‍मी सुबह चार बजे दुकान पर चले जाते है। पापा जी वहाँ का काम निबटा कर फिर छ: बजे तक घर वापिस आ जाते थे। फिर दीदी और पापाजी ध्‍यान करते थे। क्योंकि दिन में राम रतन के साथ भी काम करना होता था, उसकी तैयारी सुबह ही शुरू हो जाती थी।

उसके बाद फिर टाईल काटी जाती है। मशीन की घिर.....घिर.....कितनी कानों को चुभती थी वह आवाज़। उसका तेजी से घूमता ब्लेड कैसे पापाजी के हाथ के पास से जाता था। मेरा तो दम ही निकल जाता था। जरा सी चूक और हाथ साफ। पापाजी आंखों में चश्‍मा लगा कर और हाथों में रबर के दस्ताने पहनकर क्‍या हीरों बन कर टाईल काटते थे। मैं पास बैठकर सब बड़े ध्यान से ये सब होते देखता रहता था। आज कल इधर ऊपर जो क्यारियां बनी है, उन पर टाईल लगाने का काम चल रहा था। मुकेश और प्रभु उनमें पूरा दिन मिट्टी लाकर डालते रहते थे। उस नई ताजा मिट्टी पर चढ़ कर सूंघना बहुत ही अच्छा लगता था। मेरे चित को वह सुगंध बहुत भाती थी। सब मिट्टी की गंध कितनी भिन्न-भिन्न होती है। इस मिट्टी की गंध में न जाने क्या-क्या रहस्य छुपे होते है वह अगर आप जान जाये तो परेशान हो जायेंगे। मैं इस सूंघने के काम को बड़ी ही तन्मयता से करता था। इससे मुझे एक नये प्रकार की तृप्ति मिलती थी। मिट्टी को एक जगह डाल कर उसे लकड़ी के मोटे—मोटे सोटों से कूटा जाता था। उसमें खाद, नीम की पत्तियां, बदरपूर, यमुना रेत आदि के साथ-साथ उनमें हल्दी, दही का पानी भी मिलाया जाता था। उस दही के पानी को एक मटके में काफी दिन से भर कर रखा जाता था। जिस के अंदर से बहुत तेज गंध आती थी। इस सब का कारण तो केवल पापाजी ही आप को बता सकते है।

क्यारियों में अंदर की और पिलास्तर करने के बाद नीचे पानी की निकासी के लिए बिजली वाले रबर के पाई बिछाये गए थे, उनके बीच में इंटों के छोटे-छोटे टुकड़े बड़े ही तहजीब से सजाए गए थे। मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं था की ये सब क्यों किया जा रहा था। परंतु मन में एक जिज्ञासा बनी ही रहती थी, नई-नई बातों को जानने की। क्या होगा इस सब से ये लोग क्यों इतनी मेहनत कर रहे थे। क्या मनुष्य के अलावा ये काम कोई और भी प्राणी कर सकता था। बस मैं तो एक मूक दर्शक की भांति उसे देखता रहा था। फिर मिट्टी को क्यारियों भर कर उसे दबाया जाता था। कितने ही पेड़-पौधे नीचे आँगन में रखे हुए थे, मैं तो सब के नाम नहीं जानता। सब को सूंध कर देखता जरूर था। सोचता रहता हूं ऊपर तो एक दम पेड़ों का पूरा अपना जंगल ही बन जायेगा फिर बहार घूमने की जरूरत नहीं होगी। उन्‍हीं के बीच खूब घूमा करूंगा।

पड़ोस के मामा—मामी को मरे हुए करीब-करीब दो साल गुजर गए थे। लगता था ये कल की ही बात है। समय किसी तेजी से गुजर रहा था। मानो उसे पंख लग गये थे। अब उनके किसी नजदीक रिश्तेदार ने आकर उनके उस मकान पर कब्जा कर लिया था। मामा—मामी के कोई बच्चा तो नहीं था। सच में ही मामा-मामी बहुत ही अच्‍छे थे, परंतु ये आदमी तो कुछ धूर्त सा लगता था। इसकी आंखों से ही कोई अंधा भी इसकी धूर्तता को देख लेगा। मुझे क्‍या फर्क पड़ता है, लगा करें अपनी गर्ज़ से। मामा ने तो अपनी सब गाये अपने सामने जी जंगल में छोड़ दी थी। सच वह गाये किसी के पास शायद रहती भी नहीं। क्या मामा को अपनी मृत्यु का भान पहले ही हो गया होगा था। सब किस तरह से चले जाते है, इस संसार को छोड़ कर। फिर पीछे कोई मुड़ कर देखता है या नहीं। जीते जी कितना शोर गुल मचाते रहते हम सब। मरने के बाद दूसरा दिन। कभी-कभी वह पड़ोसी हमारे घर भी आ जाता था। तब मुझे बंद कर दिया जाता था। आज कल मेरा कम ही भरोसा किया जाता कि मैं किसी से दोस्‍ती करने वाला नहीं था। और कुछ लोग तो मुझे फूटी आंख ही नहीं सुहाते थे।

काम अपनी मंथर गति से चल रहा था अब लग रहा परंतु इस बीच एक घटना घटी शायद मेरी कमजोरी के कारण या शरीर बुढ़ापे की और लोट रहा था। परंतु इस बात का कई दिनों तक किसी को पता नहीं चला था। क्‍योंकि मेरे शरीर पर वह चितके दोबारा उभर आये थे। मेरे बालों के अंदर होने कि वजह से वह दिखाई नहीं दिए थे। फिर इन दिनों पापा जी पर काम का बोझ भी बहुत अधिक हो गया था। वह दिन उदासी भरे थे। परंतु अंदर से या बाहर से देखे तो उदासी का कहीं कोई कारण भी नजर नहीं आ रहा था।

इसी बीच एक दिन अचानक घर के आँगन में कुछ चहल पहल शुरू हुई। देखा तो घर के आँगन में एक स्‍वामी जी (स्‍वामी नरेद्रबोधिसत्‍व) जी खड़े हुए थे। मैं भौंकता हुआ दरवाजे की और भागा। जैसे की मेरी आदत थी उनके साथ एक और स्‍वामी जी थे जो अकसर हमारे यहां ध्‍यान करने आते थे। मैं भागता हुआ नीचे पहुंचा परंतु स्‍वामी जी (गोपाल डेरी वाले) को तो मैं जानता था परंतु इन दूसरे स्वामी जी को मैं तो पहली बार देख रहा था। शायद इनसे घर को कुछ खतरा हो सकता था, ये आदतन मेरे विचार में बात आई। इसलिए घर की सुरक्षा करने के लिए मैं चाक चौकस था। मैं जैसे ही भौंकता हुआ स्वामी जी के पास गया वह मुझसे जरा भी नहीं डरे। ऐसा मैंने पहली बार महसूस किया कि आपकी तरंग पूरी की पूरी आप पर ही लोट आये। हालांकि पापाजी भी मुझसे नहीं डरते फिर भी मैं महसूस करता था उनके अंदर के भय को। जब किसी खास मोके पर जैसे जब वह मुझे नहला रहे होते या दवा लगा रहे होते तो उन्‍हें एक डर भी घेरे हुए रहता था। ये सब मैं उनके अचेतन उठी तरंग को पकड़ कर जान जाता था। परंतु आज पहली बार कोई ऐसा पुरुष मुझे मिला जिसके अंदर कोई भय नहीं था।

ये सब मेरे लिए एक चमत्‍कार था। उन्‍होंने मेरे सर पर हाथ फेरा और कहने लगे पोनी तू ठीक तो है ना। जैसे की वह मुझे बरसो से जानते थे। मुझे पहली बार अजीब लगा। ये किसी तरह का इंसान है। मेरे ज्ञान के भंडारे में एक नया अध्याय जूड़ा। उनके इस तरह से मुझ प्यार करने से मेरे पूरे शरीर में एक सीतलता सी छा गई। पापाजी को भी मैं इतने दिनों से जानता हूं और कितने ही लोग हमारे घर पर आते थे। परंतु इस तरह का मनुष्‍य मैंने पहली बार देखा है। मम्‍मी जी की पापाजी की तरंग अभी तक मेरे जीवन की अनूठी तरंगें थी। वह भी मेरी समझ के परे थी, परंतु ये तो बिलकुल ही भिन्न तरंगें थी। मेरे अचेतन में एक उथल-पुथल सी शुरू हो गई, मेरा अचेतन मुझे अंदर गहरे और गहरे में डुबोए लिए जा रहा था। जिस के कारण मेरे मन में एक प्रकार का भय समा रहा था। क्‍या समझूं, क्या देखूं, कुछ भी नहीं सूझ रहा था। आस-पास एक दम स्फटिक श्वेत ओज एक चमक फैली थी। जिसे न आप छू सकते हो, न ही वहां कुछ ठहर रहा था, जैसे सब लोट कर आप पर ही वापस आ जाए।

मैं तो एक पल में स्‍वामी जी का दीवाना हो गया। लोग किस तरह से पागल हो सकते है किसी के पीछे ये आप उसमें डूबोगे तभी जान पायेंगे। इसका कारण मैं नहीं बता सकता, परंतु इतना जरूर जान रहा हूं कि मैं तो कुछ पल में अपने को भूल गया था। कि मैं कौन हूं....बस एक ही चीज है जो सामने थी वो मुझे पूर्णता से घेरे थी वह.. स्‍वामी जी उर्जा। मैं उनके आगे नाचता कूदता चल रहा था। वह भी किसी बात का अवरोध या विरोध नहीं कर रहे थे। जबकि दूसरे वाले स्‍वामी मुझे पर झल्‍लाने की कोशिश कर रह थे।  परंतु स्‍वामी जी के डांटने से वह आवक से रह गए। कैसा विचित्र स्‍वभाव और प्रेम के विभेद थे दोनों आदमीयों में। इतनी देर में पापाजी भी अंदर से आ गये उन्‍होंने स्‍वामी के पैरों में झुक कर प्रणाम किया। ये सब मैं बड़े गौर से देख रहा था। मुझे बहुत अच्‍छा भी लग रहा था। मैं भी चाहता था कि स्‍वामीजी के पैरों में लेट जाऊं। उन्‍हें चाटू चूमूँ। स्‍वामी जी पूरे घर में घूम—घूम कर प्रत्येक स्थान को देख रहे थे। मैं उनके साथ था बल्कि उन्हें चलने के लिए भी मेरी इजाजत लेनी होती थी। पापाजी एक—एक चीज दिखा रहे थे जिन्‍हें देख स्‍वामी गदगद हो कर देख रहे थे। मुझे सब अच्‍छा लग रहा था इसी तरह पूरे घर में घूमने के बाद स्‍वामीजी छत पर गये थे। और छत पर टेरिस गार्डन को देख कर तो वह हतप्रभ रह गये थे।

वहां उगे एक—एक पेड़-पौधे के बारे में पापाजी से पूछते रहे। कुछ क्यारियां अभी तैयार थी, कुछ में अभी पेड़-पौधे उगाने थे। उनके बारे में पापाजी जी बता रहे थे। तब मैं देख रहा था स्‍वामी एक छोटे से पेड़ से कुछ तोड़ कर खा रहे थे। मैं उनके मुंह को देखे जा रहा था। कि वह क्‍या खा रहे थे । तब उन्‍होंने मुझसे कहा पोनी तु भी खायेगा। और एक टुकड़ा उन्होंने मेरे मुख में डाल दिया। मेरा सारा मुख खटास से भर गया। और मैंने एक हल्की सी थनथनी ली। यह देख कर सब हंसने लगे। परंतु मैं सोच रहा था कि स्‍वामी जी तो इस फल को कितने आनंद ले कर खा रहे थे। जैसे कोई मिठाई खा रहे है। वह फल नारंगी का था। जो इस वह पेड़ अपने फलों के समय अपने यौवन पर थी। पूरा पेड़ ही पीत रंग की गोल-गोल...छोटे-छोटे फलों से लदा हुआ था। पास ही एक अबरक़ का पौधा भी था, वहां से भी स्वामी जी ने अबरक़ तोड़ कर भी खाई थी।

उसके बाद हम सब ने पिरामिड में ध्‍यान किया था। उस दिन तो गजब हो गया। वैसे तो पिरामिड में जाना ही एक चमत्‍कार होता था, परंतु ये तो सोने पर सुहागे वाली बात हो गई। उस दिन मुझे कितना अच्‍छा लग रहा था आप लोगों को शब्दों में बता नहीं सकता। नींद की गहराई और जागरण ये क्षणांत में घटित हो रहा था। पहले इस पर मैं बहुत गर्व करता था। कि मैं कितना गहरा सोता हूं जब सोता हूं तो बस सोता हूं बहार कोई पकड़ नहीं होती। और जब कोई घंटी या बाहर की ध्‍वनि गहरे से बहार लती है तो पल में खड़ा हो जाता था। परंतु पापाजी या किसी दूसरे को मैंने इतनी जल्‍दी उठते नहीं देखा था। उनके चेहरे पर एक ख़ामोशी फैली होती थी कैसे वे शांति भरे आराम से उठ रहे होते थे।

एक तमस की हल्की सी पर्त उसके चेहरे पर साफ फैली दिखाई देती थी। केवल कुछ देर के लिए, उनकी सोई आंखों में एक अलसाया पन भी ठहरा दिखता था। ध्यान से उठने के बाद पापाजी का चेहरा और आंखें भी गहरे में अभी सोई ही होती थी। परंतु मैं पल में उठ जाता था। परंतु आज न जाने क्‍या हो गया, जब ध्‍यान में लेटा था तो इतना गहरा नहीं जा पा रहा था। एक झीना सा पर्दा रोके हुए था लोरी की तरह से मुझे ये सतर्कता इसे एक भय भी कहा जा सकता था। मैं लाख आपने को भूलने की कोशिश कर रहा था, परंतु कहीं अंदर भूल नहीं पा रहा था। मैं उस अचेतन में चला जाना चाहता था जहां कोई नहीं हो मैं भी वहां न हूं। वहीं तो सुखद नींद होती थी, अपने में एक संपूर्णता समेटे। परंतु आज तो एक जागरण डूबने ही नहीं दे रहा था। जैसे पानी में आप लेटे है और वह अपने स्‍वभाव के विपरीत आपको ऊपर फेंके जा रहा हो। आप चाह कर गुपची लगा कर डूब नहीं पा रहे, बार—बार आप ऊपर के तल पर आ जाते हो। वह निर्भरता आपको सुखद तो लगेगी। परंतु पहली बार जब आपको उसका अनुभव होगा तो कैसा विस्मय भरा होगा वह क्षण। नहीं उस समय आप परेशान हो जाओगे कि ये क्या हो रहा है? ये एक अनसुनी अनबूझी परेशानी थी मेरी उस समय थी।

ध्‍यान के बाद सब उठ रहे थे। मैं अंदर से सब को उठते हुए महसूस कर रहा था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था सबसे पहले मैं ही उठता था। अपने चिर परिचित अंदाज में एक झटके से उठना चाह रहा था। ताकि दरवाजा खुले और सबसे पहले मैं निकल जाऊँ कही अंदर बंद रह गया तो कैसे निकलूँगा। ये मेरी अपनी समझ थी क्‍योंकि आप मुझे कितना ही बुद्धू कहें परंतु मैं अपने से समझदार किसी को मानता नहीं था। यही तो मेरा रक्षा कवच था। आपको मेरी बात सून का धक्‍का लगे या बुरा लगे पर सच्चाई यही थी। लेकिन आज उठा ही नहीं जा रहा था। किसी तरह से हिम्‍मत कर के उठने की कोशिश की। लेकिन समय है की समझ के परे होता जा रहा था। मेरे जीवन का ये पहला अनुभव था, जैसे या तो आप घर भीतर है या फिर गली में लेकिन आप दहलीज पर खड़े नहीं रह सकते। और कोई रह सकता हे ये में नहीं जानता परंतु मैं तो इससे पहले कभी रहा नहीं था। वहां पर ठहरना एक कला है। एक थिरता है एक संतुलन है। वे क्षण अनमोल थे मेरे लिए...वो सब चाह कर आप नहीं कर सकते, उसकी का नाम चमत्कार है।

ध्यान के बाद सब ने मिल कर खाना खाया। मैं तो स्वामी जी के चरणों के पास ही बैठा रहा। पहले मैं इस तरह से नहीं बैठता था। क्योंकि मुझे प्रत्येक व्यक्ति से एक-एक ग्रास भोजन को चाहिए ही। लेकिन आज न जाने क्या हो गया। कुछ खाने का मन नहीं कर रहा था। अंदर से सब भरा-भरा लग रहा था। पापा जी दूसरे लोगों ने खाने के लिए मुझे अपने पास बुलाया परंतु मैं तो स्वामी के चरणों में ही रहा। वह मुझे खाने को देने लगे परंतु मैंने उपर मुख ही नहीं किया। सब के लिए यह एक नई घटना थी पोनी को न जाने आज क्या हो गया। वह तो केवल स्वामी का दीवाना हुआ जा रहा है। तब मुझे छेड़ते हुए कहा गया कि पोनी तूं स्वामी जी के साथ जायेगा। केवल मैंने अपनी आँख उठा कर देखा न हाँ न ना।

स्‍वामी जी जब जा रहे थे तो मैं निरीह आंखों से उन्‍हें देख रहा था। पापाजी मम्‍मी जी के रहते मुझे इससे पहले कोई और नहीं चाहिए था। उन दोनों में ही मेरी पूर्णता थी। परंतु स्‍वामी जी का संग साथ इन कुछ ही घंटों मेरे मन पर बहुत भारी पड़ रहा था। यहां 7—8 साल रहने पर भी अगर आज अभी मुझे कोई कहे की आप किसको चुनना चाहते है। तो सच कहूँगा मैं स्‍वामी के संग चला जाता। चाहे आप मुझे एहसान फरामोश ही क्‍यों न समझे। परंतु सच उनके संग साथ की वो तरंगें अभूतपूर्व थी। आज न कुछ खाने को मन कर रहा था पूरा शरीर एक अद्भुत खुशी से भरा हुआ था। स्‍वामी जब चले गये तो मन को किसी उदासीनता ने नहीं घेरा। परंतु उनके जाने के बाद भी एक प्रसन्‍नता भरी रही मेरे अंदर। मैं दूर तक उन्‍हें गली में जाते देखता रहा। पापाजी स्‍वामीजी को छोड़ने के लिए जा रहे थे दीदी अपना बैग लिए स्वामी जी के साथ चली गई थी। वह दूर गली के नुक्‍कड़ पर खड़ी होकर हाथ हिला कर मुझे बाए-बाए कर रही थी। तब सब थोड़ी देर के लिए रूक गये और मुझे देखने लगे। मेरा मन भर आया मेरे पास मम्‍मी जी थी। उन्‍होंने भी इस तरह से खोया—खोया देख कर मुझे अपने सीने से लगा लिया। मैंने भी अपनी आंखें बंद कर ली और मां के आँचल में भूल गया सारे संसार को। कितने दिन तक मन उन लहरों में गोते खाता रहा हिलोरे लेता रहा डूबता तैरता रहा।

स्‍वामीजी के जाने के बाद कुछ ही दिन में उनके संग का प्रभाव अचानक गायब हो गया। अब मुझे ये देख कर अचरज हो रहा था क्‍या हो गया था ये सब। क्‍या स्‍वामी जी उर्जा ने मुझे अपने बस में सम्मोहित कर लिया था। कुछ लोग जीवन में इसी तरह के बहाव में बह जाते है और उसे प्रेम समझते होगे और कुछ ही दिन में जब उर्जा का प्रभाव खत्‍म हो जाता होगा। तब अपने को कितना खाली लुटा सा खड़ा पाते होंगे। ये आपका स्थान नहीं है, आप किसी उतुंग लहर ने पर पल भर की उठा दिये थे। उसके बाद में पश्‍चाताप करते होंगे और जीवन फिर कलह क्लेश से भर जाता होगा। अब मुझे समझ में आ रहा था मैं कैसे स्‍वामी जी उर्जा में बह रहा था। और अब वही फैसला करने के लिए कहा जाये तो मैं हजार बार मना कर दूंगा की पापा मम्‍मी जी को तब भी नहीं छोड़ता चाहे कोई मुझे सारी दुनिया ही क्‍यों ने दे-दे।

परंतु ऐसा नहीं है स्‍वामी का यहां आना निरर्थक गया। वो संग साथ ध्‍यान के वे क्षणिक पल जीवन में कुछ ऐसा दे गये जिनके बारे में शब्‍दों में नहीं कहा जा सकता। उस दिन स्‍वामी जी के संग जो ध्‍यान करने के बाद ध्‍यान का आयाम ही बादल गया था। वहीं पिरामिड था परंतु उसकी सुगंध उसकी सब तरंगे ही पूर्ण रूप से बदल गई मानो स्‍वामी जी की उर्जा इतनी सघन थी की अभी भी वहां भरी खड़ी थी। आप अंदर गये नहीं उस उर्जा तरंगों ने आप को पल में घेर लिया। अब मेरी नींद भी कुछ अजीब तरह की होने लगी थी। पहले जैसी गहराई तो थी परंतु उसके बीच एक पतला सा जागरण का तार हमेशा बना रहता था। दूसरी बात जो मुझे बीच में सपने आने लगे थे वह टुकड़ों में टूटने लगे थे। जैसे ही सपना शुरू होता और मैं उसे देख रहा होता वह टूट कर छिटकना शुरू हो जाता था। ये पता नहीं क्‍यों हो रहा था। इस तरह से जैसे आप पर्दे पर एक चित्र देख रहे है और वह पर अचानक क्षण के लिए वह चित्र बनता और फिर मिट जाता। परंतु ये सब घटना बहुत अच्‍छा भी लग रहा था, क्‍योंकि ये नया अनुभव था। और जब ध्‍यान के बाद उठता तो कितनी सहजता से चेतना शरीर पर आ रही होती और उसके बाद भी मैं लेटा रहता।

कितना सुखद लगता था, आप अपने मालिक बन गये हो। बीच दहलीज पर खड़े हो और आपकी मर्जी है आप चाहे तो वहां खड़े रह सकते है। और चाहे घर के बहार जा सकते है। लेकिन इसमें ऐसा नहीं था कि मैं दहलीज पर घंटों खड़ा रहा सकता था केवल कुछ क्षणों या मिनटों का अधिकार था। पहले जब मैं पापा मम्‍मी या किसी के चेहरे पर फैली तमस को देखता तो अपने पर बहुत गुमान होता था और अब है कि मुझे वो लुभा रही है। हमारी समझ ही कितनी है बहुत छोटी सी मैं कई बार आँगन में बैठा होता और चींटियों को आते जाते देखता तो सोचता इनका संसार तो कितना छोटा है। अगर एक चींटी को पकड़ कर जंगल में ले जाया जाये तो वह यहां कभी नहीं आ सकती बेचारी। या वो कभी देख सोच भी नहीं वहां एक दुकान है वहां एक जंगल है। बस क्‍या हम सब इसी सब में नहीं जी रहे थे। मैं इतने सालों में ये सब समझ गया था की कौन इस परिवार का है और कौन बहार से आता है। जैसे बुआजी, इसी परिवार से है, क्योंकि दादा और पापा जी की सुगंध मुझे बुआजी में महसूस होती थी। अब कहां से आती है और कहा चली जाती थी, इस बात का मुझे भी कुछ पता नहीं था। अब मैं आपने को ज्ञानी समझा हूं तो ये मेरी मूर्खता ही होगी, कितना जानता हूं, मैं या दूसरे सब लोग एक कण के समान। इन सब बातों को जब सोचता हूं तो मुझे अपने पर हंसी आने लगती थी। ये बात मुझ पर या चींटियों पर ही नहीं प्रत्‍येक प्राणी पर लागू होती है।

अब जब से स्‍वामी जी के संग ध्यान किया तो उसके बाद मुझे इस लेटे रहने का राज पता चला है। अब मैं इसमें बहुत देर तक खोया रहता। अंदर ही अंदर जब आप लेटे है और तब आप कुछ तो देखेंगे। तो क्‍या देखेंगे। मैं अंदर ही अंदर अपने को देखता रहता। कहां मेरे पैर है। कहां नाखून है कहां पर अब मक्खी बैठी या कहां चींटी चढ़ी कहां मेरा मुख है और कहां मेरे कान है। ये सब मैं अपने शरीर को दूर कही से देखने लगा था। इस तरह से देखते—देखते मुझे एक नया अनुभव होना शुरू हो गया था। मुझे अपना शरीर अंदर से बहुत बड़ा और दूर दिखाई देने लगता। लगता है मेरे शरीर का विस्‍तार हो गया है। इस सब के अलावा जब ओशो जी के प्रवचन चल रहे होते तो उन्‍हें सुनता तो वह ध्‍वनि मुझे कान से सुनी जाने के अलावा कहीं पूरे शरीर में छू रही होती, परंतु कहीं दूर दराज  महसूस होती थी। मेरा पूरा शरीर उस ध्वनि की रिमझिम बौछारें अपने ऊपर होती सी महसूस करता था। पहले वह ज्‍यादा से ज्‍यादा मेरे मस्‍तिष्‍क को या कान को भेदती थी। जिसे मैं न सुनना चाहूं तो बंद कर सकता था। परंतु अब ये सब मेरी पकड़ से बाहर होता जा रहा था।

वह ध्वनि एक प्रकार का आयतन बना लेती और मैं उसमें अंडे की तरह से बंद हो जाता था। कितनी ही बार तो मुझे लगता कि मैं किसी कैद में फंस गया हूं। या मुझे जकड़ दिया गया है। ठीक इसी समय एक और घटना घटी की अंदर एक भय का बीज अंकुरित होना शुरू हो गया था। संगीत और भय एक लय में समतुल्य खड़े रहते थे साथ-साथ। एक ही समय एक ही साथ दोनों का आगमन होता था। अब किसी एक को छोड़ना चाह कर भी मेरे बस के बाहर बात थी। शायद यही वह स्थान है जब साधक को गुरु की जरूरत होती है। वह आपको एक साहस संकल्प दे। एक विश्वास दे, आपको लगे की आपका हाथ कोई थामें हुए है।

लेकिन वह देखने में एक बंधन जरूर था, परंतु साथ-साथ एक मुक्‍ति का एहसास भी देता था। उस स्थिति में मैं उसमें डूबा ही रहता और ज्‍यादा से ज्‍यादा उसके संग का आनंद लेने लगा था। अब ध्‍यान के अंदर अचानक आप गहरे चले जाए तो एक समय सीमा के बाद आपको भय घेर लेगा। मेरा डर के मारे कांपना भी इस सब गहराई का एक हिस्सा था। कभी तो इस भय के कारण मैं अपने को रोक नहीं सकता तो रोना शुरू कर देता। इस तरह से तब पापाजी को या तो वह संगीत बंद करना पड़ता या उसकी आवाज कम करनी पड़ता या फिर वो खड़े होकर मेरे शरीर पर हाथ फेर कर संभावना देने लग जाते थे। इस बात का मुझे दुःख भी होता कि मेरी वजह से सब का ध्‍यान खराब हो रहा था। परंतु इस ध्‍यान का लालच मुझे अंदर खीचें लिए जा रहा था और मैं उसे रोकना भी नहीं चाहता था।

अब ही तो ध्‍यान का पड़ाव शुरू हुआ है। इतने दिन से तो उसकी खुदाई हो रही थी। तब मेरी समझ में आ रहा था कि जब मैं उस गहरे कुएं में झांक कर देख रहा था और सोच रहा कि कैसे उन लोगों को पता चलता होगा की यहां पर पानी है। चारों और तो केवल मिट्टी और पहाड़, जंगल, झाड़ आदि ही है। सच उस आदमी के साहस और संकल्प की दाद देनी होगी जिसने इसे खोद का पानी निकाला। जिसने पहली बार ध्यान की गहराई आविष्कार किया तो कहना ठीक नहीं होगा कहना चाहिए कैसे उसमें डूबा। क्या सच ही ध्‍यान भी क्‍या इसी तरह की खुदाई नहीं है क्या? हम खोदते है तब उनके कहीं भय कहीं, पीड़ा, कहीं दुख ही मिलता है शांति का जल तो बहुत गहरे में होता है। उसके लिए तो अनंत खुदाई करनी होती है। तो इतने लोग यहां ध्‍यान करने आये और चले गये क्‍या सब को उस शांति रूपी जल का स्‍वाद मिल गया होगा। असंभव है, मुझे नहीं लगता।

वह बीच में पत्‍थर मिट्टी से घबरा कर भाग गये होंगे। जिन्हें स्वाद मिल जाता है तो आप ये बात उनके जीवन में उतरती देख सकते है। उनके दैनिक कार्यों में, उनके हाव भाव में, उनके चेहरे पर, सब लिखा दिखने लग जाता है। नहीं भागे तो पापा मम्‍मी तब तो उन्‍हें उस जल का स्‍वाद जरूर मिल गया होगा। स्‍वाद ही नहीं मिला होगा वह तो उस में अब गोते लगाने लग गए होंगे। और सोच कर मैं उठा और मम्मी और पापाजी के सामने जाकर बैठ गया और उनके चेहरे और आंखों को देखने लगा। कि क्‍या सच ही उन्‍हें वह स्‍वाद मिल गया... ...और वो मुझे इस तरह से अपनी और देखता देख कर हंसने लगे। तब पापाजी ने कहा की देखो पोनी अब हम सब का गुरु होने वाला है।

और सच मैं यही सोच रहा था। मेरे मन की बात पापाजी ने पकड़ ली तो मैं झेप गया और सर को झुका कर और अपनी आंखें नीची कर के बैठ गया। जैसे की मेरी चोरी पकड़ी गई, क्या ये सब मेरी आंखों में लिखा था और पापाजी ने पकड़ लिया। ध्यान कक्ष में चारों और खुशी का ठहका गुंज गया और में अपनी मूर्खता पर हंसा भी और शर्माया भी।

भू.... भू..... भू.....

आज इतना ही।

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