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बुधवार, 24 दिसंबर 2025

41 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

 पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा

अध्‍याय - 41

पड़ोस का मकान खरीदना

पड़ोस में जो मामा—मामी रहते थे उनके गुजर जाने से उनका मकान किसी उनके रिश्तेदार ने कब्‍जा लिया था। ये जग कहां खाली रहता है...आप हटे नहीं की किसी और का अधिकार, किसी के बच्‍चे, किसी के रिश्तेदार, किसी का प्यारा। मामा—मामी के बाद उनकी सभी गायें तो पहले ही जंगल चली गई थी। क्‍योंकि मामा ने अपने जीते जी उन्‍हें मुक्‍त कर दिया था। वह जंगल में जंगली गायों के साथ प्रसन्न रहने लगी थी। मामा-मामी में ये संवेदना थी वो पशुओं के प्रति अति ही प्रेम पूर्ण थे। आज कल कम ही लोगों में इस तरह की संवेदना आप पाओगे। मामा का पूरा जीवन एक सादगी से भरा था। उनके अंदर एक तृप्ति थी, एक आदर सम्‍मान था। आम लोगों की तरह मारे—मारे नहीं फिरते थे। न जाने मनुष्‍य किस तेजी से बदल रहा था। जिस तरह के लोग मर रहे है, क्यों उस तरह के मनुष्‍य पैदा नहीं हो रहे। न जाने किस तरह कि चेतनाए पृथ्‍वी पर आ रही थी। अब इस पड़ोसी को ही ले लो रोज कुछ न कुछ कलेश होता रहता था। रोज रात को बहुत जोर—जोर से शराब पीकर अंट-शंट न जाने क्या-क्या बकता रहता था। सारे मोहले की शांति को भंग कर दिया था  इस एक आदमी ने। आस पास के लोग यहां का माहौल पहले कितने शांत था। कभी पत्ते के खड़केने की आवाज तक नहीं सुनाई देती थी। जब यह पागल आदमी रात को शोर-शराबा करता तो उस समय मुझे भी बहुत गुस्सा आता था और मैं छत पर खड़ा होकर उसे भौंकने लग जाता था। पता नहीं वह मेरी भाषा समझ पाता था या नहीं परंतु मैं तो उसे डांट देता था। मैं किसी से डरता थोड़े ही था गलत है तो गलत कहा ही जायेगा।

एक दिन देखता हूं कि कुछ पड़ोसी मामा-मामी के घर में कुछ गहमागहमी हो रही थी। पापा जी और राम रतन पड़ोसी के घर में आ जा रहे थे। मैं छत से ये सब देखता था और सोचता था कि जरूर कुछ गड़बड़ होनी वाली है। पापा जी तो बहुत कम जाते है वहां पर कभी न जाने क्या माजरा था। और एक दो दिन से रात का शोर-शराबा भी बंद हो गया था। तब मुझे पता चला की पड़ोस का मकान पापा जी ने खरीद लिया था। मम्‍मी जी तो मना कर रही थी कि हम नहीं लेंगे। क्‍या पूरी जिंदगी इसी तरह से कटते मरते रहेंगे।

न ही ध्‍यान का समय मिलता है, न ही आराम करने का समय मिलता है। सारा दिन हम दुकान पर कटते रहते है। अब मैं बहुत थक गई हूं और मुझसे नहीं होगा, सच में थक तो पापा जी भी जरूर गए होगे, परंतु पापा जी मैं ज्यादा हिम्मत और साहस था। अब ये खरीद लिया है तो इसे बनाओ—इसके लिए पैसे कमाओं, भला बच्चों के करने के दिन है। उन्हें करने दो। बात तो मम्‍मी जी की ठीक ही थी। परंतु पापा जी ने समझाया कि पड़ोस में कोई ऐसा वैसा आदमी आ जायेगा तो पूरी जिंदगी कलेश रहेगा। फिर बच्‍चों को भी रहने को मकान चाहिए। सो अब मोका है, अपने पास पैसे भी है, इसे खरीद लिया जाये। लाख समझाने से मम्‍मी जी अनमने दिल से मान गई। और सच ही ये मकान ले कर पापा जी ने आगे के बारे में सोचा की कल बच्चे जब शादी करेंगे तो कहा रहेंगे। अपना घर तो एक प्रकार से मंदिर की तरह बन रहा था। यहां तो परिवार के रहने के लिए कमरे बने ही नहीं थे,  इतना बड़ा होने पर भी एक भी जगह ऐसी नहीं है की आप उसे किराये पर दे दो...या फिर परिवार को बसा लो....पापा जी की सोच बड़ी अदभुत थी। उनकी सोच दूरदर्शी थी, चीजों को घटने से पहले जान जाते थे। हम लोग इस बात को नहीं जानते थे। इस बात का पता हमें बाद में चला की सच पापा जी ही ठीक थे। तब हम सब ने इस बात को मान गये की ये मकान ले लिया तो बहुत ही अच्छा किया दादा-जी तो बहुत ही प्रसन्न हुए....डंडा ले कर इस उम्र में भी वह पूरे घर में घूमते थे...दूर तक घूमने के लिए जाते थे। दादा जी आयु इस समय कम से कम 90 साल की तो रही होगी परंतु शरीर एक दम से स्वाथ था। पूरे गांव में इस समय दादा जी सबसे बड़े आदमी थे। शरीर के साथ-साथ मन भी दादा जी बलवान था। उसमें एक तरह की अकड़ और कड़कता थी। जो उनके चलने से ही पता चल जाती थी। सीधी कमर कर किस ठाठ से चलते थे आप देखते तो दंग रह जाते। दादाजी एक दम से मस्त थे। सुनते किसी की नहीं थे अपनी बात जो करनी है करते थे। आप उन्हें लाख वो काम करने के लिए कहो हां कर देंगे परंतु करेंगे वही जो उन्हें जंचता था। 

इस मकान के बारे में एक अफवाह यह भी थी कि इस मकान में नई संतति उत्पन्न नहीं होती। और पिछली दो तीन पीढ़ियों की और झांक कर देखें तो ये बात सत्य भी थी। क्‍योंकि मामा मामी के कोई संतान नहीं थी और इससे पहले भी तीन-चार पीढ़ी तक यहाँ कोई संतान नहीं हुई थी। जमीन भी अपना प्रभाव किस तरह से बदल लेती है। कहते है पूरा दसघरा गांव की उत्पत्ति कभी इसी एक मकान से हुई थी। और आज वह जमीन बांझ हो गई थी। पापा जी ने कहां हर मिट्टी अपनी तासीर बदलती है। शायद हमारे हाथों ये सब लिख हो। फिर यहां ध्यान की तरंगें भी होगी इस लिए सकारत्मकता का प्रभाव कुछ तो बढ़ेगा। और शायद इसी अफवाह की वजह से ये मकान हमें मिल गया वरना तो इस मकान को लेने के लिए कितने ही लोग तैयार हो जाते। तब शायद इसकी कीमत भी दो गुणा हो जाती। अब मैं सोच रहा था कि आपने घर पर मिस्त्री का काम खत्‍म होने वाला था। जा सालो से चल रहा था अब कुछ विश्राम के दिन आयेंगे। परंतु ये तो फिर दो चार साल आगे बढ़ गया। चलो हमें क्‍या है हम तो केवल देख ही सकते थे। शायद कुदरत यही चाहती थी जो हो रहा था।

उसकी मर्जी के बिना तो इतना बड़ा कार्य सम्मपन हो नहीं सकता था। काम एक दम आर्श पर पहुंचे कर फिर फर्श से फिर शुरू हो गया। कितना विचित्र था। अब आपका मकान पूरा बन गया था। फिर इसे किस तरस से बनाया जायेगा कि दोनों एक हो जाए, ताकि देखने में अलग-अलग न लगें। और इसकी सुंदरता भी बनी रहे। परंतु उसकी पत्‍थरों की मोटी—मोटी दीवारों को तोड़ा जाना था। उसके चारों और अनेक सिमेंट के पाये खड़े किए जा रहे थे। मैं सुबह दशा मैदान जाने के समय इस सब का निरीक्षण किया करता था। परंतु एक दिन जब वह दीवारें काफी उंची उठ गई और वहां से अंदर जाना बंद हो गया। तब मेरी समझ में नहीं आया की अब क्‍या होगा। तब बीच की दीवार हटाई जाने लगी। तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। ये तो बहुत  ही अच्‍छी बात हो रही थी। मैं बहुत प्रसन्‍न था अब मैं अंदर से ही उस मकान में जा सकता था। अपना घर बहुत बड़ा हो गया था। दादाजी  जब आते और पूरे मकान  को  घूम—घूम कर देखते तो में उनके साथ पूछ हिला कर साथ चलता। तब दादा जी मुझे कहते देख पोनी अब अपना मकान बहुत सुंदर और  बड़ा हो जायेगा। इसमें तुझे भी एक कमरा मिल जायेगा। मैं सोचने लगा हम अपने वंशों को पुश्तैनी जायदाद सोप कर थोड़े ही जाते है। मेरे वंशज तो बेचारे गलियों में रुले फिर रहे होंगे या मर गये होंगे बेचारे। और  दूसरी और ये आदमी है जो आने वाली चार पीढ़ी का बंदोबस्त कर के जाता है।

देखते ही देखते मकान ने अपनी गति ले। वह रोज ऊपर उठ रहा था। सामने का गेट एक गुफा के आकार में बनाया जा रहा था। दादा जी मिश्री को कह रहे थे देख भय मिश्री राम रतन ऐसा गेट लगाना कि पूरे दसघरा गांव में किसी का नहीं होना चाहिए। तब राम रतन मंत्री कहते की दादा आप हुक्म तो दो जैसा आप कहोगे वैसा ही लगेगा। आर्च काटी जा रही थी जो देखने सुंदर बन रही थी। नीचे बड़ा चौड़ा हाल बनने के साथ उसके पास से अलग सीढ़ी बन रही थी। सामने दोनों मकानो को जो जगह जोड़ती थी उसे खाली रखा गया था। उसमें पड़ पौधे लगाये गये। मोलसरी, कचनार, अशोक, बोगन बिल्‍ला.....ताकि बीच में हरियाली बनी रहे। अब मेरे चढ़ने के लिए दो गेट दो छत पर आने जाने के लिए दो सीढ़ीयां बन रही थी। इधर से घूम कर जाता और उधर से घूम कर आ सकता। परंतु मेरा काम भी तो बढ़ रहा था मकान इतना खूला हो गया था की उसके चौकीदारा करना अति कठिन था।

दादा जी इस उम्र के होने पर भी काफी कड़क थे। कई मील सुबह श्‍याम पैदल घूम कर आते थे। हम तो जब भी जंगल में घूमने जाते तो हमें दादा जी जरूर मिलते थे। ये मकान लेने के बाद तो दादाजी को रोब ही बदल गया था। किस ठाठ से डंडा लेकर पूरे मकान में घूमते कभी—कभी अपने किन्‍हीं  यार दोस्तों को भी संग साथ ले आते थे। ये सब मैं बड़े गौर से देखता और दादा जी के साथ घूम कर पूरे घर को मैं भी उनके साथ देखता। तब वह कहते देख पोनी अब तो बहुत बड़ा अपना मकान हो जायेगा। सबसे बड़ा पूरे गांव में सबसे बड़ा। मनसा से कहकर तेरे  लिए भी एक कमरा बनवा दूंगा। तब मैं बिना कुछ समझे मस्‍त पूंछ हिलाकर दादाजी की बात का समर्थन करता। और दादा जी मुझे अपने साथ घर में घूमते देख कर बहुत खुश होते और कहते अब तुम समझदार हो गया है। ये बाते न जाने कितनी बार मैं दादाजी के मुख से सून चूका था। और ये जो पड़ोसी थे ये तो कलेश थे अच्‍छा हुआ इन का तो रोग ही कट गया।

और सच एक गुरूर एक रोब जो में उनके चेहरे  पर दिख रहा था उस समय दादा राजा महाराजा की तरह लगते थे। छोटी—छोटी मूछें सर पर सफेद साफा हाथ में एक डोगा सफेद झक धोती और गुरगाबी जूती जो चर—चर बोलती थी। कई बार तो मुझे लगता था दादा जी की जूतियों में कोई कीड़ा दबा हुआ है। ये मकान खरीदने से दादाजी  की तो उम्र दस साल बढ़ गई। जीवन में एक नया जोश और उमंग सी भर गई थी। ऐसा नहीं है कि इस मकान के खरीदने से दादा के जीवन में ये मेरे जीवन में परिवर्तन आ गया। ये परिवर्तन आमूलचूक परिवार के जीवन में आया था। चाहे मम्‍मी-पापा या सभी बच्चे ही क्यों न हो। एक नई उमंग घर कर गई थी। परंतु मैं यह सोच कर अचरज कर रहा था मम्‍मी पापा उतने ही जोश क्‍या उससे भी अधिक जोश से काम करने लगे थे। अब तो कितनी ही बार वह दिन में ध्‍यान ही नहीं कर पाते थे। पहले तो सुबह—सुबह जब पानी की मोटर चलाई जाती तब दीदी-पापा और मैं तो ध्‍यान कर लेते थे। परंतु मम्‍मी तो रह जाती थी। परंतु इस समय कोई भी ध्यान नहीं कर पाता था। परंतु काम ही ध्यान बन गया था इस लिए किसी के जीवन या चेहरे पर कोई मलाल नहीं था।

परंतु एक बात थी यह जगह लेने से पूरे परिवार में एक नया जोश और एक नई उमंग भर रही थी। बच्चे जो बड़े हो रहे थे वह भी धीरे—धीरे सरलता को छोड़ रहे थे वह अब उतने मेरे साथ नहीं खेलते। परंतु मैं तो उतना का उतना ही अपने आप को समझता था। और इंतजार करता था प्रत्‍येक प्राणी मेरे साथ खेले। परंतु मैं देख रहा था सब के पास समय का आभाव बढ़ता जा रहा था। समय तो उतना ही था। मेरा जीवन तो उसी तरह से चल रहा था परंतु बच्चों का जीवन तो पल-पल बदल रहा था। उनकी जरूरते उनके शोक समय के साथ बदल रहे थे। अब मकान बनेगा तो भैया हर के जो कमरे छोटे थे वह बहुत बड़े हो जायेंगे। परंतु इसमें दीदी और दादा का स्‍वभाव अलग था। वो आज भी अपना समय मुझे देते थे। रात तो मैं दीदी के कमरे में उसी के साथ अपने बिस्तरे पर नीचे कोठे में सोता था। इसलिए इस समय मेरी और दीदी की दोस्ती सबसे अधिक थी। दादा जी को तो कोई काम नहीं था वह तो मेरे की तरह से ही थे, केवल खाना और घूमना। पापा मम्‍मी को तो अपनी मेहनत करनी थी तभी तो ये मकान बन पायेगा। परंतु मैं देख रहा था हिमांशु भैया या वरूण भैया अब ज्‍यादा से ज्‍यादा अपने कमरे में बंद रहते थे। मैं उनके कमरे में जाने की कोशिश भी करता तो वह अंदर से बंध ही रहता था। बात करने से पता चला की वह पढ़ाई करते रहते है बंद कमरे में। चलो पढ़ो परंतु कमरा तो खोल कर रखो कोई तुम्‍हें खा थोड़ा ही रहा था। एक बात जो मुझे सबसे अधिक चुभती थी, वह यह कि बच्‍चे पापा जी की मदद बिलकुल नहीं करते थे अरे भले आदमियों तुम्हारे लिए ही तो ये बन रहा है फिर शर्म किसी बात की। केवल नाम मात्र के लिए जैसे ये अहसान कर रहे हो। वह दुकान पर तो चले जाते थे लेकिन देखना मैं कहे देता हूं इस काम में उनका जरा भी रस नहीं है। और वो ये काम करेंगे भी नहीं। मत करो कोन इस बात की परवाह करता है। परंतु यहां जो मिस्त्री के साथ पापा जी काम करते तो यहां कोई काम की कमी है। लाख काम अगर आप मदद करना चाहो तो। वरना तो कितना ही काम है जो तुम कर सकते हो...जैसे पेड़ो में पानी डालना आदि.....सामान इधर से उधर रखना,  न जाने क्यों मनुष्य आपने एक स्वभाव पर टीक नहीं पाता वह उम्र के हर पड़ाव पर अपने को बदलता चला जाता है। परंतु ये एक अचरज था की दीदी बिलकुल नहीं बदल रही थी वह मेरे साथ खेलती और मैं उन्हीं के कमरे में सोता था। बल्कि दीदी से अब मुझे पहले से अधिक प्यार और स्नेह मिल रहा था, मम्मी-पापा तो बहुत ही प्रेम पूर्ण होते जा रहे थे। पापा जी तो अब मुझे कभी डांटते भी नहीं थे। जब भी मैं कोई छोटी मोटी गलती करता तो केवल हंस देते और मम्मी कहती की तुमने ही इस पोनी को सर पर चढ़ा रख है। परंतु उन्‍हें इस बात से कभी बुरा नहीं लगता था कि बेचारा क्या गलती करेगा।

मैं सोचता था कि किस तरह से हम सब लोगों को पापा जी जंगल में ले जाते थे। किस तरह से पक्षियों को खरीद कर लाते और पिंजरे के सभी पक्षियों को बच्चो के हाथों उड़वाते थे। तब ये सब बातें मेरी समझ में नहीं आती थी। मैं सोचता था नाहक इन्‍हें उड़ा रहे है। मुझे दे देते तो मेरे मजे आ जाते। परंतु आज इतनी दूर आने पर पता चलता है कि नहीं अपने पेट के लिए महज किसी का कीमती जीवन छिनना ये ठीक नहीं था। और पापा जी यहीं तो चाहते थे ताकि इन बच्चो के अंदर प्रकृति से प्रेम बढ़े। इनकी संवेदना बढ़े ये थोड़े भावुक हो ह्रदय का विकास हो। जैसे-जैसे भैया लोग बड़े होते जा रहे ,मुझसे सब परिवार से दूर एकांत में अपने में ही डूब रहते थे। अपने कमरे में कम्पयूटर पर बैठे टीक....टीक ही करते रहते थे। वहीं चाय मिल जाती थी। कितनी बार बुलाते रहो इस कान से सुनते उस कान से निकाल देते। मानो खाना खा कर वह दीदी या मम्मी पर बहुत एहसान कर रहे थे। बस एक खाने का समय ही ऐसा था जो हम सब को साथ मिला जाता था। ये एक नियम था सब साथ मिल बैठ कर ही खाना खाते थे। हिमांशु भैया तो और ही थी....उनके तो दर्शन ही दुर्लभ होते जा रहे थे।

सबका अपना जीवन होता है, एक समय के बाद सब अपने तरह से जीना चाहते है। और ये कोई गलत भी नहीं था। परंतु मेरा पशु स्वभाव ये देख कर अचरज से भर जाता था। क्योंकि हम परिवार में एक झुंड की तरह से जीने के आदि थे। उसी में हम अपने को अधिक सुरक्षित भी समझते थे। जिसके कारण आस-पास जितने अधिक लोग हो हमें बहुत ही अच्छा लगता था। परंतु मनुष्य अलग तरह का प्राणी है। अब तुम किसी पर जबरदस्‍ती थोप तो नहीं सकते थे। कि भले आदमी ये करो वो करो। वरना तो घर में संगीत के लिए कितना सुगम मोका था। वरूण भैया जब तबला बजाते तो मुझे बहुत अच्‍छा लगाता था। कभी-कभी बहुत पहले जब पापा जी बांसुरी सीखने के जाते थे तो वरूण भैया भी तबला बजाना सीखने के लिए पापा जी के साथ जाते थे। और एक समय पर वरूण भैया बहुत अच्‍छा तबला बजाने लग गये थे। किसी छूटी के दिन तो कितना अच्‍छा लगता जब पापा जी बांसुरी बजाते और वरूण भैया तबला और हिमांशु हरमोनियम....सब आनंद विभोर हो जाते थे। एक समय था जब हिमांशु भैया के लिए संगीत का एक अध्यापक सिखाने के लिए आता था। मैं भी उनके पास बैठ कर सब सुनते हुए सो जाता था। धीरे—धीर वह सब छूट रहा था बस कम्पयूटर और कमरा। परंतु पापाजी आज भी बांसुरी बजाते है। ये आदमी की एक चाहत होती है वह तुम्‍हें अंदर से आनी चाहिए या तुम पर थोपी नहीं जा सकती। जो तुम पर थोपा गया है, वह तुम्हें उसमें डूबने नहीं देगा तुम एक मशीन बन सकते हो, अच्छा गा सकते हो, परंतु उस रस में तुम डूब नहीं सकते। क्योंकि वह तुम्‍हारी अपनी पूंजी नहीं है, वह तो बहार से थोपी गई एक आदत वह किसी दिन भी छूट सकती है। चाहत वो जो प्राणों से उठे तुम्‍हारे स्‍त्रोत से तुममें बहे। वही तुम्‍हारी प्‍यास को बढ़ाए वहीं तुम्हें तृप्त करेगी। 

इसी तरह से मैं पापा जी को जानता था, तो पापा जी बच्चों पर कुछ थोपने वालों में से नहीं थे। अगर आपने कुछ करना है तो आपकी सहायता के लिए तैयार है, वरना अगर नहीं करना है तो की मर्जी। लेकिन कच्‍ची बेल के लिए ये खतरनाक भी हो सकती है। जो बल्‍लरी एक काई का रूप होती है और पानी के किनारे उगी होती है, जब आप उस पर पैर रखते है तो वह आपको गिरा देगी। और जब वही बल्‍लरी एक लता के रूप में एक बैल बन जाती है वहीं लोगों को पानी में गिराने की बजाय उससे निकलने में मदद करती है। इस लिए शुरू में तो कोई भी अच्‍छी आदत पकड़नी कठिन होती है। लेकिन अगर वह आपकी चाहत है, आपके प्राणों से उठी प्‍यास है तब आपको उसे पकड़ना नहीं होता वह आपका स्वभाव बन जाती है। पकड़ने वाला मामला ही गलत है जब आप किसी चीज को पकड़ते हो तो वह आपसे छूटेगी ही इस पक्का मान लो। क्‍योंकि आपकी पकड़ तो एक समय ढीली होगी ही। और अकसर पकड़ के लिए हमें दूसरों का सहारा या दबाव जरूर होता है...वह हमारे प्राणों की चाहत नहीं होती है।

अब एक बात और भैया लोगों में देख रहा था जैसे ही उनकी मूँछें उग रही थी उनके चेहरे पर एक अकड़ आ रही थी। वह चोगा पहन कर ध्‍यान भी नहीं करते थे। पहले तो जब इतवार या कोई छूटी होती तो सब मिल कर पहले ध्‍यान करते और उसके बाद खाना खाते। अब तो हम ही चार प्राणी ध्‍यान करते थे। दीदी मम्‍मी पापा और मैं या कभी कोई मित्र आ जाये। ध्‍यान का छोड़ना मुझे अच्‍छा नहीं लग रहा था। जब से स्‍वामी नरेंद्र बोधिसत्व जी घर पर आये थे मेरा तो ध्‍यान के कमरे में जाना ही एक दम से बदल गया था। मानो कोई चुम्‍बक मुझे खीचें लिया चली जा रही थी। जब मैं एक पशु होकर ऐसा महसूस कर सकता हूं तो यह भैया हर तो मनुष्‍य जन्म पाया है। इन्‍हें तो ध्यान में मुझसे हजारों गुणा आनंद सूख जरूर महसूस होता होगा।

परंतु एक बात सत्‍य थी पापा जी जब रात को बांसुरी बजाते तो पूरा घर एक आलोकित से भर जाता था। कहीं भी आप हो, घर के किसी कोने में तो आप वहां सम्मोहित से मुग्‍ध हो थिर हो जाओगे। कितना जीवित सी महसूस होता थी वो श्यामे या वो रातें। एक मधुरिमा एक आलोक शांति से भर जाता ओशोबा हाऊस.... और दिन की तपीस जैसे रात की सीतलता में घुल कर एक मदहोश सी भर रही होती थी। मैं ही नहीं शायद पड़ोस के लोग भी इंतजार करते की अब बांसुरी बजेगी। और सब उस आनंद सुरों बहते हुए एक सुखद नींद के आगोश में चले जाते होंगे। पूरे दिन मेहनत करने के बाद भी पापा जी किस ताजगी और जीवंतता से जीते थे। ये एक सोचने का विषय था की वह कही तो डूबे जा रही है। जो हमारी पकड़ या समझ के बाहर की बात थी।  मैं ये सब सोच—सोच कर दंग रह जाता था। मुझे तो पूरा दिन कोई काम नहीं होता एक काम वह भी सोना मात्र मैं तो उसी से थक जाता था। और पापा जी पूरा दिन मेहनत करने के बाद भी किस ताजगी और मधुरता से बांसुरी बजाते थे। ये एक चमत्कार था जो मैंने आपने जीवन में महसूस किया था। अब इस के बदले उन्‍हें कुछ स्थूल तौर पर कुछ मिलता थोड़े ही होगा। न कोई धन ने वाह-वाह बस एक लगन थी जो उन्हें ये कराए जा रही थी। बांसुरी क्या देती मात्र वह तो उनको अंदर एक तृप्‍ति ही देता थी। उन्‍हें कोई कहता थोड़े है कि तुम्‍हें ये बजानी ही पड़ेगी। परंतु जैसे मुझे भौंकने में आनंद आता था, शायद इसी तरह से उन्‍हें भी इसे बजाने में आनंद आता होगा।

इस सब के चलते मैं अपने आप को काफी अकेला—अकेला महसूस करने लगा था। खेलने का मन होता तो कोई तो चाहिए, जो तुम्‍हारे साथ खेले तुमसे बात करें, तुम्‍हें  वह सताये तुम उसे सताओ। बस पापा जी ही थे जो मेरे साथ खेलते भी थे और मुझे घूमाने भी ले जाते थे। और मम्मी जी मुझे अपनी गोद में भी लिटा कर खूब प्यार करती थी। लेकिन इधर नया मकान लेने के बाद फुरसत ही नहीं मिलती थी। दो तीन दिन में ही मुझे घूमाने ले जा पाते थे। पहले कि तरह से मुझमें उमंग बहुत होती थी, परंतु शरीर थकना शुरू हो गया था। क्‍या मैं बूढ़ा होता जा रहा हुं। थकने के कारण शरीर में उर्जा के गिरने का तल महसूस होने लगा था अब मुझे। परंतु मन उसे मानने को तैयार कभी भी नहीं होता था। क्‍योंकि ये अनुभव नया था। पहली बार आ रहा था। लगता था थका ही तो हूं....परंतु सच यहीं था की मेरी उर्जा ढलान पर उतरने लग गई थी। मेरा उतरायण शुरू हो गया। उर्जा नीचे की और जा रही थी।

इसे महसूस करने के लिए मेरे अंदर जो ध्‍यान से संवेदना जगी थी, वह बहुत काम आ रही थी। धीरे—धीरे मेरा भोजन भी कम होता जा रहा था। अभी रात को तो खाने का मन ही नहीं होता जितना खाना मम्मी मेरे बर्तन में डालती उससे आधा भी कई दिन से खाया नहीं जा रहा था। पहले तो मैंने सोचा शायद मौसम के परिवर्तन से ऐसा महसूस हो रहा होगा। पहले भी मौसम बदलते समय...भूख कम ही लगती थी। परंतु अब शरीर ही अपनी बात आप से बार—बार दोहरा कर कह रहा था। कितनी चीजें जो करने को मन करता था वह छूटती जा रही थी। उर्जा जो अपने चढ़ाव पर थी वह उतरायण से दक्षिणायन की और मुड़ गई थी। ये प्रत्‍येक प्राणी के साथ होता होगा। जब से मैं इसे महसूस करने लगा हूं....थोड़ी पीड़ा तो हो रही थी परंतु सच को मैंने आखिर स्‍वीकार कर लिया था।

आपको बहार से लगेगा आप अभी जवान है। परंतु उर्जा जो अंदर के तलों पर उतार की और चल दी है उसका क्या करोगे। शरीर को इस भाषा कई महीनों बाद ही महसूस होगा या इसे वह मानेगा। जब तक उसे अनुभव न होगा उस लकीर साफ देख सकेगा। शायद ये बुढापे की और मुड रहा था। ये स्नेह—स्नेह बूढापे के कदम थे जो जीवन में प्रवेश कर रहे थे। एक आहट थी जो मन की खिड़की पर दस्तक दे रही थी। चलों ये तो आना ही था सो तो कोई बात नहीं परंतु शरीर को भय ने जिस तरह से पकड़ लिया इस बात का एहसास मुझे तब हुआ जब हिमांशु भैया एक बार बीमार हुए उनके शरीर पर बहुत से फोड़े (खसरा) निकल आये। और मैं जब उनके कमरे में जाता तो उनके शरीर से एक तेज गंध निकलती इस समय भैया स्कूल भी नहीं जा रहे थे। और नहाना-धोना भी बंद था। वह अपने कमरे में ही सार दिन रहे थे। टी. वी देखने भी नीचे नहीं आते थे। इस समय उन्‍हें बहुत अकेला पन जरूर घेरता होगा। अब वह मुझे चापलूसी कर के अपने पास बुलाने की कोशिश करते। पापाजी तो काम करा रहे होते राम रतन के साथ वही पर अपने एकांत को कम करने के लिए हिमांशु भैया कुर्सी डाल कर बैठ जाते थे। परंतु शायद हवा मैं ज्यादा देर बैठने से जो दाने शरीर से बाहर आ रहे थे वह ठिठक सकते थे। इस लिए दादा जी उन्हें अन्दर भेज देते थे। दादा उनके पास घंटो बैठे रहते उनसे बात करते। उनकी पीठ पर पाउडर लगाते....उन्हें सहलाते। मैं यहीं सब देखता था कि बुजुर्ग का भी अपना घर में एक महत्‍व पूर्ण स्थान था। जो अब धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। वहीं हिमांशु भैया है आज दादा जी के साथ घंटो बात करते है, परंतु जब बीमार नहीं थे तब तो उनकी उन्हें परवाह भी नहीं थी। बुजुर्ग ना-ना करते हुए भी आपके घर के हजार काम वो कर जाते है। कभी पापाजी को दुकान पर जाने देर हो जाती तो वह घर पर आकर आवाज लगते की चार बजे गये मनवा दुकान नहीं खोलनी क्या आज।

उस आदमी की जीवन उर्जा इस घर में सबसे अधिक समय तक रही थी...तब उसकी गहराई भी सबसे अधिक होगी। और कभी पुराने जमाने में बुजुर्ग की जो कदर-आदर सम्मान होती था। आज घरों में जगह के साथ भी दिल तंग होते जा रहे थे। जहां बुजुर्ग का सम्‍मान होगा वहां खुशहाली आयेगी इस घर में देखता हूं दादा का सम्‍मान और खुशहाली।

एक कहानी आपको सुनाऊं.....जो दादा जी ने बच्‍चों को सुनाई थी। कहते थे मनवा जब मैं मर जाऊंगा तब तुम्‍हें पता चलेगा मेरी कमी का तुम लोगों को। और सच ही ऐसा होता है। इसमें समय या युग कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। दादा जी कहानी सुनाने लगे-एक घर में किसान के दो लड़के थे और वह घर खूब फल फूल रहा होता था। पिता बहुत मेहनत करता था। खेतों में खूब धन—धान्य पैदा होता था। पिता के रहते तक घर में किसी बात की कोई कम नहीं आई। इस बात की बच्‍चों को कोई खुशी नहीं और कोई फिकर ही  थी। पिता कहता की मेरे सामने देख लो खेतों का काम किस तरह से होता है। मेरे जाने के बाद तुम्‍हें कोन समझायेगा। परंतु बच्‍चे तो यह कह कर टाल जाते की अभी तुम कहीं नहीं जाने वाले थोड़ा ही हो। जो काम उन्हें कहा जाता इतना भर करते। काम को देखने समझने की कोई रुची नहीं दिखलाते थे।

इसी बीच बच्चों के पिता जी अचानक गुजर गए। बच्चे एक दो दिन रोये और फिर जीवन अपनी गति से उसी चाल से चलने लगा। परंतु जब फसल आई तो वह आधी भी नहीं थी। धीरे-धीरे अब घर में तंगी महसूस होने लगी। उन्होंने सोचा की खर्च अधिक बढ़ गये होगे। पिता के जमाने में तो हम कंजूसी में जीते थे। परंतु दो—तीन साल बाद तो मजदूरों को उनकी मजदूरी देने के भी लाले पड़ गये। तब तो जागना ही जरूरी हो गया था। दोनों भाइयों ने आपस में सलाह कि अब क्‍या किया जाये, उन्होंने कहा की ताऊ के पास चलते है वह ही कुछ मार्ग देंगे।

बच्‍चों का ताऊ उनकी शक्‍ल देखते ही समझ गया ये क्‍यों आये है। भाई को मरे हुए तीन साल हो गये मुश्‍किल से दो चार बार राम—राम हुई होगी। तब दोनों ताऊ के सामने नीची गर्दन कर बैठ गये और कहने लगे ताऊ पिता के सामने तो खुब फसल होती थी परंतु अब क्‍या हो गया जो आधी भी नहीं होती। क्‍या आपकी फसल भी उतनी ही होती है। ताऊ ने कहां देख अंदर और वह बूंगे...बूंगे लगे धान के, ये सब देख कर दोनों भाइयों को बड़ा अचरज हुआ। तब उनके ताऊ ने कहा चलो खेत में चलते है। उनके खेत की फसल तो कहीं उगी कहीं नहीं उगी। परंतु ताऊ की फसल तो दो हाथ उंची थी। ताऊ ये क्‍या बात। बोला बेटे देखो रात चार बजे कुबेर भंडारी का मुर्गा घुमता है इन खेतों में जो उसके दर्शन कर लेता है उसके घर धन धान्य से भर जाते है। तुम तो दस बजे तक सोते रहते हो चार बजे तो तुम्‍हारे फरिश्ते भी नहीं उठते। तब कुबेर के मुर्गे के दर्शन तुम्‍हें कैसे हो सकते है।

बच्‍चे मंद बुद्धि थे सो उन्होंने सोचा कल से हम भी चार बजे ही उठेंगे। किसी तरह से दस पाँच दिन चार बजे उठ कर खेतों में घूमने लगे। तब एक दिन ताऊ को बोले ताऊ दर्शन तो नहीं हुए मुर्गे के......ताऊ कहने लगा जब तक दर्शन नहीं होते आपको रोज खेतों में आना ही होगा बिना कुबेर के मुर्गे के दर्शन के तुम्हारी उद्धार नहीं हो सकता। और ना-ना करते बेचारे साल भर मुर्गे की तलाश करते रहे। नीचे मूंह लटकाये आंखों में नींद की खुमारी लिए खेतों में आते रहे मरता क्या न करता।

फसल की कटाई का समय आया। और जब एक दिन उन्‍हें फसल को अपने पेर में देखा तो उन्‍हें विश्‍वास नहीं हुआ की उन्‍हें खेतों में चार गुणा फसल निकली है। हालांकि वह रोज ही उन खेतों में सुबह श्याम आते परंतु वह इतने मंद बुद्धि थे उन्हें खड़ी फसल दिखाई नहीं दी। उनका ताऊ आय और पूछने लगा की कुबेर के मुर्गे के दर्शन अभी तक भी नहीं हुए लगाता है। तब बच्‍चे हंसने लगे और कहने लगे ताऊ आपने हम खुब जगाया.....ये जो फसल है यही तो है कुबेर का मुर्गा काम को देखना होता है। तभी आपके मजदूर काम करते है। आप हमें नहीं जगाते तो हम यू ही बर्बाद हो जाते। तब ताउ कहने लगा काश तुम अपने पिता के सामने जाग गये होते तो उसे भी दो चार साल और जीने का मोका मिल जाता और  तुम भी खुशहाल होते....चलो देर आये दुरुस्त आये।

सो आप ये समझो की बुजुर्ग घर के अंदर एक कुबेर का मुर्गा ही होता है। जब वह उड़ जाता है तब ही उसकी कीमत का पता चलती है।

हिमांशु भैया की बीमारी ने मुझे अपनी बीमारी का पता चला और मैं इसके प्रति सचेत हो गया। और अपने खान पान और जीवन शैली को बदलने का प्रयास करने लगा। अब मैं केवल एक ही समय भोजन करने लगा और  वह भी तला हुआ या मीठा बहुत ही कम कर दिया।

ये नई—नई बातें एक के बाद एक मुझे महसूस होने लगी थी। कुछ पुराना कुछ नया सब मिला कर जीवन को आगे चलने के लिए हमें प्रेरित कर रहा था। अब साफ था और  सही था वहीं देखने मैं एक आदत बना रहा था। और इस सब का आधार था ध्‍यान। ध्यान जीवन में एक खास तरह के परिवर्तन लाता है कि आपको पता भी नहीं चलता और आपका पूरा जीवन मार्ग ही बदलता चला जाता है। आप कुछ ही दिनों में वह आदमी अपने आप को एक नये आयाम पर चलता हुआ महसूस करता है। उसके जीवन का तल ही बदल जाता है। उसकी की गति उतंग उठान की हो जाती है। समांतर जीवन अचानक उतंग की और उठ चला होता है। अपने आप को एक नई गति में खड़े हुए पाते हो।

सो आज इतना ही कल फिर आगे के जीवन की बात करेंगे...अब नींद आ रही है।

 

भू.... भू..... भू.....

आज इतना ही।

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