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गुरुवार, 25 दिसंबर 2025

08-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

 अध्याय-08

 (सदमा - उपन्यास) 

करीब एक सप्ताह गुजर गया था उसे यहां आये हुए। तब अचानक एक सुबह जब नेहालता उठी तो दिन के आठ बज चूके थे। बाहर से गाड़ियों के हार्न की आवाजें आ रही थी। नेहालता ने बहार झांक कर देखा तो उसके यार दोस्त उसे लेने के लिए आये हुए थे। इतनी देर में गिरधारी अंदर आया। काका आपने मुझे जगाया क्यों नहीं।

गिरधारी—बेटा कोई काम तो नहीं था। सो मैंने सोचा जब बेटी रानी को नींद आ रही है तो सोने दिया जाये। मुझे क्या पता था आपका कहीं घूमने जाने का प्रोग्राम था। नहीं तो पहले ही जगा देता। आपने भी रात को याद नहीं दिलाया।

नेहालता—कोई बात नहीं काका सब के लिए चाय नाश्ता लगवाओ मैं नहा कर अभी आती हूं। इतनी देर में उसकी कुछ सहेलियां शोर मचता हुई कमरे में प्रवेश कर गई। अरे तू इतनी देर तक सो रही थी। आज कल तु कितनी पोस्त हो गई है। देखो हमें कितनी दूर जाना है। और तुम हो की तैयार भी नहीं हुई। कहां जाना है। नेहालता ने रेशमा से पूछा। अरे महाबलेश्‍वर (महाबलेश्वर) जाने का प्रोग्राम कब से बना रहे और तू है की बात को समझती ही नहीं। तभी फुर्ती से नेहालता उठी और कह कर बाथरूम में चली गई की तुम इतनी देर कुछ नाश्ता करो। मैं दस मिनट मैं तैयार हो कर आ गई। सहेली जानती थी। दस मिनट का मतलब है एक घंटा। परंतु अब किया भी क्या जा सकता है।

लेकिन आज तो नेहालता न चमत्कार कर दिया इतनी जल्दी तैयार होकर आ गई इस बात का किसी को यकीन नहीं हो रहा था। सब ने थोड़ा-थोड़ा नाश्ता किया। और चल दिये, नेहालता ने कहां मम्मी आप मेरी फिक्र मत करना। हां परंतु बेटा गाड़ी तुम मत चालान। रास्ते वहां के कुछ ठीक नहीं है। मुझे तो देख कर चक्कर आ जाते है। राम-राम कितनी गहरी खाई के पास से गाड़ी गुजरती है। जी मम्मी और ड्राइवर को अच्छी तरह से समझा दिया की गाड़ी किसी भी कीमत पर मेम साहब (नेहालता) को मत देना। परंतु ड्राइवर जानता है कि अगर मालकिन अपनी पर आ गई तब उसे भला कौन मना कर सकता है। फिर उसने सोचा जो एक बार हुआ वह हमेशा थोड़ा ही होता है। दुर्घटना इसी का तो नाम है। जो अनचाहे अचानक घट जाये। वरना तो सब जीवन में घटी घटनाएं ही तो है।

सच में मुम्बई जैसे भीड़ भरे माहोल के पास महाबलेश्वर एक सुंदर रमणीय स्थान है। जो तन और मन दोनों को शांति देता है। रास्ता भी कोई खास लम्बा नहीं है, जबकि आपकी-अपनी गाड़ियां हो भला 200 मील की दूरी भी कोई दूरी होती है। बस कुल चार-पाँच घंटों में वह सब अपनी मंजिल पर पहुंच गए। इससे पहले भी वह कितनी ही बार यहां आ चूके है। दिन का खाना तो सब लोगों ने रास्ते में ही खा लिया था। लेकिन चेहरे पर सफर की थकान सब के झलक रही थी। सब थके भी हुए थे इसलिए अपने-अपने कमरों में विश्राम के लिए चले गए। श्याम चाय पीने के बाद नौकायान का प्रोग्राम बनाया था। शरद रातों में संध्या जल्दी उतरती है, श्याम चार बजे सूर्य उतार की और चल देता है। सूर्य भगवान की रोशनी वैसे भी नवम्बर दिसम्बर के महीनों में कुछ कम ही होती है। परंतु खुले में तो वह और भी मुलायम और मासूम बन जाता है। चाय पी कर निकलते-निकलते सूर्य अस्ताचल की और चला गया। अंबर पर लटका सूर्य ऐसा लग रहा था अब डूबा की तब डूबा। परंतु उन्हें तो रात के अंधेरे में ही नौका बिहार करना था।

नौकायान करना नेहालता को अति प्रिय था। वह तो पानी को देख कर पागल हो जाती है। मानो वह कोई पानी की प्राणी मीन है। कितनी ही बार वह नाका से झील में कूद जाती और मील भर तैर कर पार कर जाती थी। सब लड़कियां उसका ये अदम साहास देख भौंचक्की रह जाती थी। और इस बीच किसी लड़के कि भी हिम्मत नहीं होती थी की नेहालता के साथ पानी में उतर कर उसके साथ तैर ले। फिर भला अगर कोई ऊंच नीच हो जाये तो उसकी रक्षा कौन करें। नौका चलाने वाले भी नेहालता का ये साहस देख कर अचरज से भर जाते थे। और कहते थे भैया बड़े ही जीवट की लड़की है यहां कम से कम दस हाथियों की गहराई है। जमीन को छूना अति कठिन है। कुल मिला कर कहा जाये की नेहालता बहुत अच्छी तैराक थी। परंतु रात के कारण आज उसे किसी ने पानी में उतरने नहीं दिया की दिन की और बात होती है। रात के समय पानी भी अपना स्वभाव बदल लेता है। जो पानी दिन के समय जाग्रत अवस्था में होता है रात के समय वह शांत हो निंद्रा में चला जाता है। इसलिए जब कोई उसमें उतरता है तो वह उसे उपर नहीं फेंक सकता क्योंकि अब तो वह खूद ही सुप्त अवस्था में सो रहा है। कुल मिला कर नोकायान के बाद सब ने खाना खाया और कल का प्रोग्राम बनाने लगे। नेहालता कुछ भी नहीं बोल रही थी। वह चुप और शांत खाना खाने के बाद केवल बैठी कॉफी पी रही थी।

ऊँची चोटियाँ, भय पैदा करने वाले घाटियाँ, चटक हरियाली, ठण्‍डी पर्वतीय हवा, महाबलेश्‍वर की विशेषता है। चारों और फैला चटक नीला आसमान, और धरा पर झूमते इठलाते गगन चूमते ये वृक्ष। आप महाबलेश्वर में कहीं भी खड़े हो जाये वह आपका मन मोह लेंगे। यह महाराष्ट्र का सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वतीय स्‍थान है और एक समय ब्रिटिश राज के दौरान यह बॉम्बे प्रेसीडेंसी की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करता था। महाबलेश्‍वर में अनेक दर्शनीय स्थल हैं और प्रत्‍येक स्थल की एक अनोखी विशेषता है। रमणीयता के साथ-साथ वह एक प्राचीन धार्मिकता भी अपने में समेटे है।

यह अति प्राचीन स्थान है जिसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। कृष्णा, कोयना, गायत्री, सावित्री, वेन्ना, सरस्वती, और भागीरथी इन सात नदियों का उद्गमस्तथान है जो सपने देखने जैसा है। इनमें से सात में से पहली पांच नदियों का प्रवाह हमेशा बारह महीने बहता है। सरस्वती का प्रवाह इन सबमें ऐसा है जो प्रत्येक 60 वर्षों में ही दर्शन देता है। अब वह 2034 साल में दर्शन देगा। भागीरथी नदी का प्रवाह प्रत्येक 12 वर्षों में दर्शन देता है। यह अब सन 2016 के मराठी सावन महीने में दर्शन देगा। यह जो मंदिर 4500 वर्ष पूर्व का है। यहाँ से निकलने पर कृष्णा नदी स्वतंत्र बहती है। यहाँ ये कृष्णाबाई यह स्वतंत्र मंदिर है। जिस की मान्यता बहुत अधिक है।

मंकी पॉइंट, आर्थर सीट पॉइंट, वेन्ना झील, केइंटटस् पॉइंट, नीड़ल होल पॉइंट / एलीफंट पॉइंट, सर लेस्ली विल्सन यह सन 1923 से 1926 में मुंबई के राज्यपाल थे। तब इस पॉइंट को उनका नाम दिया गया है। महाबळेश्वर में यह 1439 मी. ऊंचाई का सिंडोला पहाडी पर सबसे उंचा पॉइंट है। महाबळेश्वर में यह एक ही पॉइंट ऐसा है कि यहॉ से आप सूर्योदय और सूर्यास्त भी देख सकते हैं। महाबळेश्वर के सर्वदियों की आकर्षकता यहॉ से देख सकते हैं। महाबळेश्वर मेढा मार्ग के पिछली बाजू में यह विल्सन पॉइंट महाबळेश्वर शहर से 1.5 की. मी. अंतर पर हैं।

प्रतापगढ़ का किला प्रतापगढ़ किला यह महाबळेश्वर के पास है। यह शिवाजी महाराज ने बनवाया था। शिवाजी राजा ने बीजापूर के सरदार अफझलखान को हराया और यही पर मार डाला था। इसलिए यह प्रताप गढ़ किला भारत के इतिहास में प्रसिद्ध है। हर साल यहॉ शिव प्रताप दिन मनाया जाता है।

कुल मिला कर सब है जो एक मनुष्य को शांति और एकांत के लिए चाहिए। सुबह जल्दी उठ कर नेहालता ने आज अकेले जाने का निर्णय लिया। आज न जाने क्यों यार दोस्तों की भीड़ उसे चूब रही थी। वह एकांत चाहती थी। अकेला पन, एकांत, कैवल्य ये तीन शब्द हो गए। एकांत मध्य में है जहां आप भीड़ से तो बच गए परंतु अपने होने का पता है। आप प्रकृति के सानिंध्य में अपने अंदर बैठ जाना चाहते है। वह अपने में डूबना चाहती थी। वह प्रकृति में डूबना चाहती थी। उस में पल भर के लिए खो जाना चाहती थी। अपने को पल भर के लिए भूला लेना चाहती थी। उसका उस अपरिचित से अनचाहे मार्ग पर यूं चलना कुछ अजीब सा था। वह कृष्णा मंदिर की और चल दी इस से पहले वह कभी इस मंदिर की और अकेली नहीं गई थी। जब की सब यार दोस्त उसे नास्तिक कहते थे। परंतु आदमी नास्तिक कैसे हो सकता है। वह उसके मन में एक तो धारण होती है, कि मैं उसे नहीं मानता क्यों। तब आप उससे कारण पुछोगे तो वह उलझे हुए से उत्तर देगा। और जो उत्तर वह देगा उसके पीछे भी उसके मन में भरे विचार ही तो है। कि कोई परमात्मा नहीं है। तब ये बात किस ने बताई। तब आप इस बात पर कितनी आसानी से आस्था कर सकते हो।

पंच गंगा मंदिर के पीछे एकदम पास कृष्णाबाई नाम का मंदिर है जहाँ कृष्णा नदी की पूजा की जाती है। सन 1888 में कोकण यहॉ के राजे 'रत्नगिरीओण' ने उंची पहाड़ी पर यह बनवाया था, जहाँ से पूर्ण कृष्णा खाड़ी दिखाई देती है। इस मंदिर में शिव लिंग और कृष्ण की मूर्ति है। छोटे सा प्रवाह गोमुख में से बहता कितनी बाल वत लगी है और वह पानी जब कुंड में पड़ता है। अपना विस्तार लेता चला ही जाता है। पूर्ण मंदिर छत सह पत्थरों से बना है। इस मंदिर के समीप दलदल बहुत है और खतरनाक, नाशवंत स्थिति है। यहाँ पर्यटक बहुत कम ही आते है। इस कारण यह अकेला वीराना पड़ा और भंयकर लग रहा था। इस स्थान से बहुत ही सुंदर कृष्णा नदी का विलोभनिय नजारा दिखाई देता है। कि आप पल भर के लिए किसी और ही लोक में चले जाते हो। इस तरह से वह पहले मंदिर के प्रांगण में वह कभी नहीं आई थी। खेर हम मंदिर भी तो एक मांग को लेकर ही जाते है। खाली तो हम होते ही नहीं। परंतु आज नेहालता जिस तरह से कृष्णा मंदिर आई थी। वह एक दम से खाली थी न तो वहां पर कोई मांग थी और न ही विचार। केवल थी तो नेहालता वैसे इस तरह से तो कम ही लोग आते है।

वह मंदिर के एक एकांत कोने में जाकर बैठ गई और उसकी आंखें बंद हो गई। ये सब उसकी चाहत से नहीं हो रहा था। मानो कोई अदृश्य डोर उसे चला रही है। सच बात तो यहीं है की कोई डोर या प्रकृति के बस में हम चलते ही कहां है। परंतु अपने को उसके हाथों छोड़ना ही तो समर्पण होता है। ये देखने में जितना आसान है वैसे होता नहीं क्योंकि हमारा मन तो हमेशा बीच में कही अपना ताना बना बुनता रहता है। परंतु आज नेहालता के लिए ये मन कोई समस्या नहीं था। मानो उसके पास न मन है, तब उसके पास सोच विचार भी कहां से होंगे। और जब विचार नहीं होते है तो आप के उपर इस सब का भार नहीं होता। क्या आप जानते है मन और विचारों का भार भी होता है। पूरे जीवन में हम कहां इस भार से निर्भर हो पाते है। जो पल-क्षण के लिए होता है। वह या तो प्रकृति के संग साथ के कारण या किसी कला में डूब जाने के कारण। परंतु आज यहां वह सब न होते हुए भी नेहा लेता उस निर्भर से मुक्त अपने को महसूस कर रही थी। ये मनुष्य के जीवन के अनमोल क्षण है। जिसने पहली बार निर्भरता या भारहीनता को महसूस कर लिया वह दुनियां सा सबसे भाग्यशाली मनुष्य है।

आज इस मौन और एकांत भरे वातावरण में नेहालता ने मंदिर प्रांगण में जो उसे महसूस हो रहा था उसकी कभी उसने कल्पना भी नहीं की थी। वह उसके लिए एक नया ही द्वार, एक नया ही आयाम था। जिसे शब्दों में नहीं कहां और नहीं बांधा जा सकता है। उसे तो केवल महसूस किया जा सकता है। वह भी ह्रदय कि गहराई में जाकर। पहले तो वह जीवन में एक भीड़ को ही आनंद उत्सव मानती थी। वह इस रस को नहीं जानती थी। रस तो प्रत्येक मनुष्य अंतस में भरा होता है। ये उसने पढ़ा जरूर था परंतु पुराने जामने की बाते कह कर आज कल के बच्चे उसे टाल जाते है। कि पहले कभी किसी को हुआ होगा आज भला ये कैसे संभव है। परंतु न ही उसे जानने की, और न ही उसमें उतरने की कोशिश करते है। बस मान लेते है। एक धारणा बना लेते है ये नहीं हो सकता। अब भला ये बात नेहालता अपने यार-दोस्तों को बताना भी चाहे तो वह बता नहीं सकती। कि उसे क्या हुआ है और क्यों एकांत अच्छा लग रहा है। इसलिए वह होटल से निकलते हुए उसने गार्ड को बतला दिया की मैं कृष्णा मंदिर की और जा रही हूं...मेरे साथियों को कहना कि मेरा फिक्र न करें। मैं श्याम तक आ जाऊंगी।

जब ये बात उसके साथियों को पता चली तो उन्हें कुछ चिता भी हुई, परंतु ये सच्च था कि वह बीमारी के बाद वह कुछ खोई-खोई रहती है। शायद इसलिए उसे अब भीड़ अच्छी नहीं लगती। फिर भी यार दोस्तों ने सोचा की एक बार चल कर उसे देख लिया जाये। हमें भी तो कहीं न कहीं जाना ही है। आज कृष्णा नदी का सुंदर दृश्य निहार लेंगे। और वह सब मंदिर की और चल दिए। काफी खोज बीन के बाद नेहालता उन्हें एक अंधेरे कोने में बैठी हुई दिखाई दी। वह भी आँख बंद किए हुए। ध्यान की मुद्रा में। उन सब के मन को कुछ राहता मिली की चलो ठीक ठाक से तो है। वह वहां बैठ गए और नेहालता का इंतजार करने लगे। मंदिर के प्रांगण में कोई खास भीड़ नहीं थी। अब दिन के बारह बज गये थे। इसलिए दर्शन करने वाले या पूजा करने वाले सब जा चूके थे। इक्का-दुक्का कोई राहगीर इधर उधर टहल रहा था। सामने एक विशाल बरगद का वृक्ष आपने सौंदर्य से वातावरण में एक खास तरह की नीरवता भर रहा था। हवा से टकराकर उसके पत्तों की खड़खड़ा बहुत ही मधुर लग रही थी। मानो कोई तालियों बजा-बजा कर उत्सव मना रहा हो। पीपल और वटवृक्ष भी कितने स्हस्पर्शी वृक्ष होते है। जरा सी हवा चली नहीं की पत्ते का पोर-पोर किस तरह से झूम उठता है। और साथ-साथ उसकी टहनियां भी कैसे बल खाकर झूमने लग जाती है।

बीच-बीच में पक्षियों का अपना वृंद गान अविरल चल रहा था। वह वातावरण में एक मधुरता भर रहा था। प्रत्येक पक्षी के कंठ से निकले बैन कितनी भिन्नता समेटे होते है। क्योंकि उनमें शब्द नहीं होते उनमें वाणी होती है। इसलिए जब आपने कभी शास्त्रीय संगीत सूना होगा तो वह भी मन में गहरे जाकर एक दर्द देता हुआ चुभता सा महसूस होता है। क्योंकि उसमें भी केवल वाणी एक ध्वनि होती है। बोल तो न के बराबर होते है। इसलिए वह आपके ह्रदय के अधिक नजदीक चला जाता है। शब्द तो एक अवरोध ही पैदा करते है।

कुछ देर बाद नेहालता ने आंखें खोली और देखा की उसके दोस्त उसका इंतजार कर रहे है। उसके चेहरे पर एक खुशी फैल गई। अरे तुम कब आये मैं तो गार्ड को बता कर आई थी। सब दोस्तों के मन में एक गुस्सा था परंतु नेहालता का खिला चेहरा देख कर सब खुश हो गये। और मजाक में उससे कहने लगे की लगता है, नेहालता अब तो तुम एक साध्वी बनने वाली हो। हमें भी कुछ गुरु ज्ञान दे दो और मजाक में सब ने नेहालता के चरण स्पर्श किए। और सब खिलखिला कर हंस दिये। जो वातावरण पल भर पहले एक बोझिलता लिए था अब एक खुशी एक चहक में बदल गया था। और सब उस चपल-चहलता को अंग संग समेटे सब यार दोस्त होटल की और चल दिये, की चलो अब खाने का समय हो गया। अब बहुत हो गई भक्ति।

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