शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
शराब और कामवासना—
तो हम तो आपने को एक मादक बिन्दु बनाना चाहते है। जिसमें चारों तरफ, जिसके व्यक्तित्व में शराब हो और खींच ले। और महावीर कहते है कि जो दूसरे को खींचने जायेगा, वह पहले ही दूसरों से खिंच चुका है। जो दूसरों के आकर्षण पर जीयेगा वह दूसरों से आकर्षित है। और जो अपने भीतर मादकता भरेगा, बेहोशी भरेगा, लोग उसकी तरफ खीचेंगें जरूर,लेकिन वह अपने को खो रहा है और डूबा रहा है। और एक दिन रिक्त हो जायेगा, आरे जीवन के अवसर से चूक जायेगा।
बुधवार, 29 दिसंबर 2010
मुल्ला नसरूद्दीन और लाटरी—
मैने सुना है कि मुल्ला नसरूदीन एक गांव की सबसे गरीब गली में दर्जी का काम करता था। इतना कमा पता था कि मुश्किल से कि रोटी-रोजी का काम चल जाये, बच्चे पल जाये। मगर एक व्यसन था उसे कि हर रविवार को एक रूपया जरूर सात दिन में बचा लेता था लाटरी का टिकट खरीदने के लिए। ऐसा बाहर साल तक करता रहा, न कभी लाटरी मिली, न उसने सोचा कि मिलेगी। बस यह एक आदत हो गई थी कि हर रविवार को जाकर लाटरी की एक टिकट खरीद लेने की। लेकिन एक रात आठ नौ बजे जब वह अपने काम में व्यस्त था, काट रहा था कपड़े कि दरवाजे पर ऐ कार आकर रुकी। उस गली में तो कार कभी आती नहीं थी; बड़ी गाड़ी थी। कोई उतरा....दो बड़े सम्मानित व्यक्तियों ने दरवाजे पर दस्तक दी। नसरूदीन ने दरवाजा खोला; उन्होंने पीठ ठोंकी नसरूदीन की और कहा कि ‘’तुम सौभाग्यशाली हो, लाटरी मिल गई, दस लाख रूपये की।‘’
पांचवी--पद्म लेश्या
पद्म..महावीर कहते है, दूसरी धर्म लेश्या है पीत। इस लाली के बाद जब जल जायेगा अहंकार.....स्वभावत: अग्नि की तभी तक जरूरत है जब तक अहंकार जल न जाये। जैसे ही अहंकार जल जायेगा, तो लाली पीत होने लगेगी। जैसे, सुबह का सूरज जैसे-जैसे ऊपर उठने लगता है। वैसा लाल नहीं रह जायेगा,पीला हो जाये। स्वर्ण का पीत रंग प्रगट होने लगेगा। जब स्पर्धा छूट जाती है, संघर्ष छूट जाता है, दूसरों से तुलना छूट जाती है और व्यक्ति अपने साथ राज़ी हो जाता है—अपने में ही जाने लगता है—जैसे संसार हो या न हो कोई फर्क नहीं पड़ता—यह ध्यान की अवस्था है।
मंगलवार, 28 दिसंबर 2010
चौथी लेश्या—तेज(लाल) लेश्या–
यह जो लाल लेश्या है, इसके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिए। क्योंकि धर्म की यात्रा पर यह पहला रंग हुआ। आकाशी, अधर्म की यात्रा पर संन्यासी रंग था। लाल, धर्म की यात्रा पर पहला रंग हुआ। इसलिए हिन्दुओं ने लाल को, गैरिक को संन्यासी का रंग चुना; क्योंकि धर्म के पथ पर यह पहला रंग है। हिंदुओं ने साधु के लिए गैरिक रंग चुना है, क्योंकि उसके शरीर की पूरी आभा लाल से भर जाए। उसका आभा मंडल लाल होगा। उसके वस्त्र भी उसमे ताल मेल बन जाएं, एक हो जायें। तो शरीर और उसकी आत्मा में उसके वस्त्रों और आभा में किसी तरह का विरोध न रहे; एक तारतम्य,एक संगीत पैदा हो जाये।
सोमवार, 27 दिसंबर 2010
तीसरी लेश्या—कापोत लेश्या
तीसरी लेश्या को महावीर ने ‘’कापोत’’ कहा है—कबूतर के कंठ के रंग की। नीला रंग और भी फीका हो गया। आकाशी रंग हो गया। ऐसा व्यक्ति खुद को थोड़ी हानि भी पहुंच जाए, तो भी दूसरे को हानि नहीं पहुँचाता। खुद को थोड़ा नुकसान भी होता हो तो सह लेगा। लेकिन इस कारण दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाएगा। ऐसा व्यक्ति प्रार्थी होने लगेगा। उसके जीवन में दूसरे की चिंतना और दूसरे का ध्यान आना शुरू हो जायेगा।
दूसरी लेश्या--नील लेश्या--
नील लेश्या दूसरी लेश्या है। जो व्यक्ति अपने को भी हानि पहुँचाकर दूसरे को हानि पहुंचने में रस लेता है। वह कृष्ण लेश्या में डूबा है। जो व्यक्ति अपने को हानि न पहुँचाए, खुद को हानि पहुंचाने लगे तो रूक जाये। लेकिन दूसरे को हानि पहुंचाने की चेष्टा करे, वैसा व्यक्ति नील लेश्या में है।
रविवार, 26 दिसंबर 2010
नारी-माहवारी—विद्युत झंझावात
अभी स्त्रियों के संबंध में एक खोज पूरी हुई है। उस खोज ने स्त्रियों के मन के संबंध में बड़ी गहरी बातें साफ कर दी है। जो अब तक साफ नहीं थी। लेकिन खोज विद्युत की है। मनोवैज्ञानिक जिसे साफ नहीं कर पाता था।
हजारों साल से स्त्री एक रहस्य रही है। वह किस तरह का व्यवहार करेगी किस क्षण में, अनिश्चित है। स्त्री अनप्रिडिक्टेबल है, उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। ज्योतिषी उससे बुरी तरह हार चुके है।
शनिवार, 25 दिसंबर 2010
छ: लेश्याएं—ओर मनुष्य के चित के प्रकार(भाग-1)
कृष्ण, नील, कापोत—ये तीन अधर्म लेश्याएं है। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है।
कृष्ण लेश्या—
तो पहले समझें कि लेश्या क्या है? ऐसा समझें कि सागर शांत है। कोई लहर नहीं है, फिर हवा का एक झोंका आजा है, लहरें उठनी शुरू हो जाती है, तरंगें उठती है। सागर डांवांडोल
हो जाता है, छाती अस्त वस्त हो जाती है। सब अराजक हो जाता है। उन लहरों का नाम लेश्या है। तो लेश्या का अर्थ हुआ चित की वृतियां।
बुद्धि का स्वभाव नकरात्मक—
वस्तुत: बुद्धि का स्वभाव नकार है। इसे समझ लें,ठीक से। बुद्धि का स्वभाव निगेटिव है, नकारात्मक हे। जब बुद्धि कहती है नहीं—तभी होती है। ओर जब आप कहते है हां, तब बुद्धि विसर्जित हो जाती है, ह्रदय होता है। जब भी आपके भीतर से ‘’हां’’ होती है, यस होता है, तब ह्रदय होता है। और जब नहीं होती है, ‘’नो’’ तब बुद्धि होती है। इसलिए जो व्यक्ति जीवन को पूरी तरह ‘’हां’’ कह सकता है, वह आस्तिक है; और जो व्यक्ति ‘’नहीं’’ पर जोर दिये चला जाता है, वह नास्तिक है।
शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010
जीसस का जन्म और तीन भारतीय मनीषी--
जीसस के जन्म पर पूरब के तीन व्यक्ति जीसस की खोज में निकले। जीसस का जन्म हुआ बेथलहम की एक घुड़साल में, जहां जानवर बांधे जाते है। उस पशुशाला में गरीब बढ़ई के घर। और पूरव के तीन मनीषी यात्रा पर निकले कि कहीं कोई शुभ्र लेश्या का व्यक्ति जन्म लेने वाला है। और वो तीनों एक तारे का पीछा करते बेथलहम पहुंच गए। इन तीन की वजह से हेरोत को पता चला,
मानव और मृत्यु–
मृत्यु मनुष्य के जीवन में इतनी बड़ी घटना है कि बाकी जीवन में जो भी घटता है वो उसके सामन तुच्छ हो जाता है, बोना हो जाता है। फिर भी क्यों मनुष्य मृत्यु की इस घटना को जान नहीं पाता,समझ नहीं पाता, उसमें खड़ा हो नहीं पाता। क्या कारण है मनुष्य पूरे जीवन में सब प्रकार की तैयारी करता है पर उस महत्वपूर्ण घटना से साक्षात्कार नहीं कर पाता उसे ग्रहण नहीं कर पाता उससे आँख चुराता है। अभी कुछ दिनों पहले किरलियान फोटोग्राफी ने मनुष्य के सामने कुछ वैज्ञानिक तथ्य उजागर किये है।
गुरुवार, 23 दिसंबर 2010
भगवान महावीर और गौतम—(कथा यात्रा)
गौतम उस समय का बड़ा पंडित था। हजारों उसके शिष्य थे, जब वह महावीर को मिला, उसके पहले उसका बड़ा नाम था, वह ब्राह्मण घर में जन्मा था। महावीर से विवाद करने ही आया था। गौतम, महावीर से विवाद करना ठीक उल्टा होगा ये उसे ज्ञात नहीं था। वह थोथे ज्ञान से भरा था। तर्क बुद्धि थी। तक्र बुद्धि आदमी को अहंकारी बना देती है। महावीर को पराजित करने के लिए आया था। हरा दिये होंगे पंडित पुरोहित। जो जानकारी रखते होंगे। उसने सोचा महावीर भी जानकरी से भरा है।
बुधवार, 22 दिसंबर 2010
दूध और कामवासना—
दूध असल में अत्यधिक कामोत्तेजक आहार है और मनुष्य को छोड़कर पृथ्वी पर कोई पशु इतना कामवासना से भरा हुआ नहीं है। और उसका एक कारण दूध है। क्योंकि कोई पशु बचपन के कुछ समय के बाद दूध नहीं पीता, सिर्फ आदमी को छोड़ कर। पशु को जरूरत भी नहीं है। शरीर का काम पूरा हो जाता है। सभी पशु दूध पीते है अपनी मां का, लेकिन दूसरों की माताओं का दूध सिर्फ आदमी पीता है और वह भी आदमी की माताओं का नहीं जानवरों की माताओं का भी पीता है।
मंगलवार, 21 दिसंबर 2010
निजिन्सकी का असाधारण नृत्य—
अभी एक बहुत अद्भुत नृत्यकार हुआ पश्चिम में—निजिन्सकी। उसका नृत्य असाधारण था, शायद पृथ्वी पर वैसा नृत्यकार इसके पहले नहीं था। असाधारण यह थी वह अपने नाच में जमीन से 10-12 फीट हवा में ऊपर उठ जाता था। जितना की साधारणतया उठना नामुमकिन है। और इससे भी ज्यादा आश्चर्य जनक यह था कि वह ऊपर से जमीन की तरफ आता था तो इतने स्लोली, इतने धीमें आता था कि जो बहुत हैरानी की बात है।
शनिवार, 18 दिसंबर 2010
अंधी लड़की बिना हाथ से छू कर पढ़ना—
पिछले दस वर्ष पहले1961 में रूस में एक अंधी लड़की ने हाथ से पढ़ना शुरू कर दिया। हैरानी की बात थी। बहुत परीक्षण किए गए। पाँच वर्ष तक निरंतर वैज्ञानिक परीक्षण किए गए। और फिर रूस की जो सबसे बड़ी वैज्ञानिक संस्था है, एकेडमी, उसने घोषणा की; पाँच वर्ष के निरंतर अध्ययन के बाद कि लड़की ठीक कहती है। और हैरानी की बात है कि हाथ आँख से भी ज्यादा ग्रहण शील होकर अध्ययन कर रहे है। अगर लिखे हुए कागज पर—ब्रेल में नहीं, अंधों की भाषा में नहीं आपकी भाषा में लिखे हुए कागज पर—वह हाथ फेरती है तो पढ़ लेती है। आपके लिए हुए कागज पर कपड़ा ढाँक दिया गया है और उस कपड़े पर हाथ रखती है, तो पढ़ लेती है। तो यह तो आँख भी नहीं कर पाती है। यह तो जो वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे है। वे भी नहीं पढ़ पाते है सामने, कि नीचे क्या लिखा है।
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010
अहंकार—
अहंकार आत्मबोध का आभाव है। आत्म स्मरण का आभाव है। अहंकार अपने को न जानने का दूसरा नाम है। इसलिए अहंकार से मत लड़ों। अहंकार और अंधकार पर्यायवाची है। हां, अपनी ज्योति को जला लो। ध्यान का दीया बन जाओ। भीतर एक जागरण को उठा लो। भीतर सोए-सोए न रहो। भीतर होश को उठा लो। और जैसे ही होश आया, चकित होओगे, हंसोगे—अपने पर हंसोगे। हैरान होओगे। एक क्षण को तो भरोसा भी न आएगा कि जैसे ही भीतर होश आया वैसे ही अहंकार नहीं पाया जाता है। न तो मिटाया,न मिटा,पाया ही नहीं जाता है।
मंगलवार, 14 दिसंबर 2010
मैंने स्वयं को भगवान घोषित क्या किया?
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
स्वामी रामकृष्ण परमहंस और मां शारद
राम कृष्ण अपनी पत्नी को मां बोलते थे। और यूं नहीं कि बाद में कहने लगे थे। रामकृष्ण जब चौदह साल के थे, तब उनको पहली समाधि हुई। आ रहे थे अपने खेत से वापस। झाल के पास से गांव में से गुजरते थे। सुंदर गांव की झील, सांझ का समय, सूरज का डूबना, बस डूबा-डूबा। सूरज की डूबती हुई किरणों ने, आकाश में फैली छोटी-छोटी बदलियों पर बड़े रंग फैला रखे है। वर्षा के दिन करीब आ रहे है। काली बदलियां भी छा गई है। घनघोर, जल्दी रामकृष्ण लोट रहे है। तभी बगुलों की एक पंक्ति झील से उड़ी और काली बदलियों को पार करती हुई निकल गई। काली बदलियों से सफेद बगुलों की पंक्ति का निकल जाना, जैसे बिजली कौंध गई। यह सौंदर्य का ऐसा क्षण था कि रामकृष्ण वहीं गर पड़े। घर उन्हें लोग बेहोशी में लाए। लोग समझे बेहोशी है, वह थी मस्ती। बामुशिकल से वे होश में लाए जा सके।
रविवार, 12 दिसंबर 2010
स्वर्ग का अख़बार और पत्रकार—
पत्रकार की तो और भी अड़चन है। पत्रकार तो जीता है गलत पर ही। पत्रकार का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। पत्रकार तो जीता असत्य पर है, क्योंकि असत्य लोगों को रुचिकर है। अख़बार में लोग सत्य को खोजने नहीं जाते। अफवाहें खोजते है। तुम्हें शायद पता हो या न हो कि स्वर्ग कोई अख़बार नहीं निकलता। कोई ऐसी घटना ही नहीं घटती स्वर्ग में जो अख़बार में छापी जा सकें। नरक में बहुत अख़बार निकलते है। क्योंकि नरक में तो घटनाएं घटती ही रहती है।
शनिवार, 11 दिसंबर 2010
मोरारजी देसाई और नर्क—
मोरारजी देसाई जब इस प्यारी दुनियां से चल बसे, तब उन्होंने सोचा की हो-न-हो मुझे तो जरूर ही स्वर्ग में जगह मिलेगी। पर ये स्वर्ग दिल्ली तो नहीं था। न ही वहां दिल्ली की कोई साठ गांठ ही चल सकती थी। पहुंच गये नर्क में। शैतान ने कहा कि आप ऐसे भले आदमी है, खादी पहनते है। और एक कुर्ता भी मोरारजी देसाई दो दिन पहनते है। इसलिए जब वह बैठते है, कुर्सी पर तो पहले कुरते को दोनों तरफ से उठा लेते है। क्या बचत कर रहे है, अरे गरीब देश है, बचत तो करनी ही पड़ेगी। इस तरह एक दफा और लोहा करने की बचत हो जाती है। पहले दोनों पुछल्ला ऊपर उठा कर बैठ गए, ताकि सलवटें न पड़े। सिद्ध पुरूष है, चर्खा हमेशा बगल में दबाए रखते है। चलाएँ या न चलाए। शैतान ने कहा कि और आप काम ऊंचे करते रहे, गजब के काम करते रहे, तो आपको हम एक अवसर देते है कि नरक में तीन खंड है, आप चुन ले। आम तौर से हम चुनने नहीं देते, हम भेजते है। आपको हम सुविधा देते है कि आप चुनाव कर लें।
शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
नागार्जुन और चोर—
नागार्जुन से एक चोर ने कहा था कि तुम ही एक आदमी हो जो शायद मुझे बचा सको। यूं तो मैं बहुत महात्माओं के पास गया, लेकिन मैं जाहिर चोर हूं, मैं बड़ा प्रसिद्ध चारे हूं, और मेरी प्रसिद्धि यह है कि मैं आज तक पकड़ा नहीं गया हूं, मेरी प्रसिद्धि इतनी हो गई है कि जिनके घर चोरी भी नहीं कि वह भी लोगों से कहते है कि उसने हमारे घर चोरी की। क्योंकि मैं उसी के घर चोरी करता हूं जो सच में ही धनवान है। हर किसी अरे–गैरे –नत्थू खैरे के घर चोरी नहीं करता। सम्राटों पर ही मेरी नजर होती है। और कोर्इ मुझे पकड़ नहीं पाया है। लेकिन तुमसे मैं पूछता हूं। और महात्माओं से पूछता हूं तो वे कहते है: पहले चोरी छोड़ो।
गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
नेता जी और सर्कस—
एक राजनेता चुनाव में हार गये। राजनेता थे, और कुछ जानते भी नहीं थे। ने पढ़े-लिखे थे, एक दम से अंगूठा छाप थे। राजनेता होने के लिए अंगूठा छाप होना एक योग्यता है। सब तरह से अयोग्य होना योग्यता है। चुनाव क्या हार गए। बड़ी मुश्किल में पड़ गये। कोई नौकरी तो मिल नहीं सकती थी, कहीं चपरासी की भी नौकरी नहीं मिली। नेताजी परेशान बाकें हाल, बिना काम के घर में कौन घुसने दे। सब अमचे चमचे भी साथ छोड़ गये।
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
वृक्षों भी संवेगों और भावनाएँ महसूस करना—
वृक्षों के संवेगों पर, भावनाओं पर। वह बड़ा हैरान करने वालो प्रयोग हुआ। पहले किसी नह सोचा भी नहीं था कि वृक्षों में संवेग हो सकते है। महावीर के बाद जगदीश चंद्र बसु तक बात ही भूल गई थी। फिर जगदीश चंद्र बसु ने थोड़ा बात उठाई कि वृक्षों में जीवन है। लेकिन बसु भी धीरे-धीरे विस्मृत हो गए। विज्ञान से यह बात ही खो गई। इसकी चर्चा ही बंद हो गई।
सोमवार, 6 दिसंबर 2010
सम्मोहन क्या होता है?
शनिवार, 4 दिसंबर 2010
सम्मोहन—
आदमी जीता है एक गहरे सम्मोहन में। मैं सम्मोहन पर काम करता हूं, क्योंकि सम्मोहन को समझना ही एक मात्र तरीका है व्यक्ति को सम्मोहन के बाहर लाने का। सारी जागरूकता एक तरह की सम्मोहन नाशक है, इसीलिए सम्मोहन की प्रक्रिया को बहुत-बहुत साफ ढंग से समझ लेना है; केवल तभी तुम उसके बहार आ सकते हो। रो को समझ लेना है, उसका निदान कर लेना है; केवल तभी उसका इलाज किया जा सकता है। सम्मोहन आदमी को रोग है। और सम्मोहन विहीनता होगी एक मार्ग।
शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010
जर्मन राजकुमार विमल कीर्ति का बुद्धत्व---
अभी कुछ दिन पहले मेरा जर्मन संन्यासी,विमल कीर्ति, संसार से विदा हुआ। उसने अपनी आखिरी कविता जो मेरे लिए लिखी, उसमें कुछ प्यारे वचन लिखे थे। विमल कीर्ति यूं तो राज परिवार से था। करीब-करीब यूरोप के सारे राज परिवारों से उसके संबंध थे। उसकी मां है ग्रीस की महारानी की बेटी। उसकी दादी है ग्रीस की महारानी। उसकी मौसी है स्पेन की महारानी। उसकी मां के भाई है फिलिप, एलिज़ाबेथ के पति इंग्लैंड के। एलिज़ाबेथ, इंग्लैंड की महारानी उसकी मामी। प्रिंस वेल्स उसके ममेरे भाई।
गुरुवार, 2 दिसंबर 2010
विश्राम व शांति के सूत्र—
इधर मनुष्य के जीवन में निरंतर पीड़ा, दुःख और अशांति बढ़ती गई है। बढ़ती जा रही है। जीवन के रस का अनुभव, आनंद का अनुभव विलीन होता जा रहा है। जैसे एक भारी बोझ पत्थर की तरह हमारे मन और ह्रदय पर है, हम जीवन भर उसमें दबे-दबे जीते है। उसी बोझ के नीचे समाप्त हो जाते है। लेकिन किस लिए यह जीवन था। किसी लिए हम थे। कौन सा प्रयोजन था? इस सब को कोई अनुभव नहीं हो पाता है। यह कौन सा बोझा है जो हमारे चित पर बैठ कर हमारे जीवन का रस सोख लेता है। कौन साभार है, जो हमारे प्राणों पर पाषाण बन कर बोझिल हो जाता है?
यह भार क्या है। यह वेट क्या है, जो आपकी जान लिए लेता है। मेरी जान लिए लेता है। सारी दुनियां की जान लिए लेता है। यह कौन सा पाषाण-भार है, जो आपके कंघे पर है? कौन सी चीज है जो दबाए देती है। ऊपर नहीं उठने देता। आकांक्षाओं तो आकाश छूना चाहती है। लेकिन प्राण तो पृथ्वी से बंधे है। क्या है, कौन सी बात है? कौन रोक रहा है? कौन अटका रहा है? किसने यह सुझाव दिया है कि इस पत्थर को अपने सिर पर ले लेना? किसने समझाया? शायद हमारे अहंकार ने हमको भी फुसलाया है। शायद हमारी अस्मिता ने ईगो ने, हमको भी कहा है कि भर सिर ले लो। क्योंकि इस जगत में जिसके सिर पर जितना भार है, वह उतना बड़ा है। बड़े होने की दौड़ है, इसलिए भार को सहना पड़ता है।
लेकिन सारी दुनिया,सारे मनुष्य का मन कुछ ऐसी गलत धारणा में परिपक्व होता है, निर्मित होता है कि जिन पत्थरों को हम अपने ऊपर अपने हाथों से ही रखते है। कौन सी चीजें है, कौन सा केंद्र है जिस पर भर को रखने वाले हाथ मेरे ही है। कौन सी चीजें है, कौन सा केंद्र है जिस पर भार इकट्ठा होता है। कौन से तत्व है जिनसे पत्थर की तरह भार संग्रहीत होता है। उनकी ही मैं आपसे चर्चा करना चाहता हूं।
विजय आनंद(मशहूर ऐक्टर डायरेक्टर) का संन्यास त्याग—
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
धर्मों की चट्टानें—
संत असिता और भगवान बुद्ध का जन्म–(कथायात्रा-010)
संत असिता और भगवान बुद्ध का जन्म–(एस धम्मो सनंतनो)
आज से पच्चीस सौ साल पहले, जब भगवान बुद्ध का जन्म हुआ, घर में उत्सव मनाया जा रहा था। सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ था, पूरी राजधानी को सजाया गया था। रात भर लोगों दीए जलाएं, नाचे। उत्सव मनाया। बूढ़े सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ था। बड़े दिन की अभिलाषा पूरी हुई। पूरा राज्य खुशीया मना रहा था, उनके राज्य का वारीश आया है। मालिक बूढ़ा होता जाता था और नये मालिक की कोई खबर नहीं। इस लिए भगवान बुद्ध को नाम दिया सिद्धार्थ। सिद्धार्थ का अर्थ होता है। अभिलाषा का पुरा हो जाना।
पहले ही दिन, जब द्वार पर बैंड बाजे बहते थे। शहनाई बजती थी। फूल बरसाए जाते थे। महल में चारों और खुशीया छाई हुई थी। प्रसाद बांटा जा रहा था। हिमालय से भागा हुआ एक वृद्ध तपस्वी द्वार पर आकर खड़ा हो गया। उसका नाम था असिता। सम्राट भी उसका सम्मान करता था। लेकिन कभी असिता इससे पहले राजधानी बुलाने पर भी नहीं आया था। राजा को भी घोर आसचर्य हो रहा था। खुद सम्राट शुद्घोदन ही उनसे मिलने हिमालय में जोत थे।
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
बौद्ध भिक्षु और वेश्या–( कथा यात्रा-009)
बोध भिक्षु ओर वैश्या-(एस धम्मो सनंतनो)
एक बार एक बौद्ध भिक्षु एक गांव से गुजर रहा था। चार कदम चलने के बाद वह ठिठका। क्योंकि भगवान ने भिक्षु संध को कह रखा था। दस कदम दूर से ज्यादा मत देखना। जितने से तुम्हारा काम चल जाये। अचानक उसे लगया ये गली कुछ अलग है। यहां की सजावट, रहन सहन। लोगों का यूं राह चलते उपर देखना। इशारे करना। कही कोई किसी को बुला रहा है। इशारा कर के। कोई किसी स्त्री को प्रश्न करने के लिए मिन्नत मशक्कत कर रहा है। जगह-जगह भीड़ इक्कठी है। ओर गांव और गलियों में ये दृश्य कम ही देखने को मिलते है। पर भिक्षु विचित्र सेन, थोड़ा चकित जरूर हुआ पर, निर्भय आगे बढ़ा, वह समझ गया की ये वेश्याओं का महोला है। यहां भिक्षा की उम्मीद कम ही है। वैसे तो भगवान ने कुछ वर्जित नहीं किया था कि किस घर जाओ किस घर न जाओ। पर जीवन में ऐसा उहाँ-पोह पहले आई नहीं थी। वह कुछ आगे बढ़ा।
एक बार एक बौद्ध भिक्षु एक गांव से गुजर रहा था। चार कदम चलने के बाद वह ठिठका। क्योंकि भगवान ने भिक्षु संध को कह रखा था। दस कदम दूर से ज्यादा मत देखना। जितने से तुम्हारा काम चल जाये। अचानक उसे लगया ये गली कुछ अलग है। यहां की सजावट, रहन सहन। लोगों का यूं राह चलते उपर देखना। इशारे करना। कही कोई किसी को बुला रहा है। इशारा कर के। कोई किसी स्त्री को प्रश्न करने के लिए मिन्नत मशक्कत कर रहा है। जगह-जगह भीड़ इक्कठी है। ओर गांव और गलियों में ये दृश्य कम ही देखने को मिलते है। पर भिक्षु विचित्र सेन, थोड़ा चकित जरूर हुआ पर, निर्भय आगे बढ़ा, वह समझ गया की ये वेश्याओं का महोला है। यहां भिक्षा की उम्मीद कम ही है। वैसे तो भगवान ने कुछ वर्जित नहीं किया था कि किस घर जाओ किस घर न जाओ। पर जीवन में ऐसा उहाँ-पोह पहले आई नहीं थी। वह कुछ आगे बढ़ा।
बुधवार, 24 नवंबर 2010
राहुल पर मार का हमला—(कथा यात्रा-008)
राहुल पर मार का हमला-(एस धम्मो सनंनतो)
राहुल गौतम बुद्ध का बेटा था। राहुल के संबंध में थोड़ा जान लें। फिर इस दृश्य को समझना आसान हो जायेगा।
राहुल गौतम बुद्ध का बेटा था। राहुल के संबंध में थोड़ा जान लें। फिर इस दृश्य को समझना आसान हो जायेगा।
जिस रात बुद्ध ने घर छोड़ा, महा अभिनिष्क्रमण किया, राहुल बहुत छोटा था। एक ही दिन का था। अभी-अभी पैदा हुआ था। बुद्ध घर छोड़ने के पहले गए थे यशोधरा के कमरे में इस नवजात बेटे को देखने। यशोधरा अपनी छाती से लगाए राहुल को सो रही थी। चाहते थे, देख ले राहुल का मुंह, क्योंकि फिर मिले देखने ल मिले। लेकिन इस डर से की अगर राहुल के और पास गए, उसका मुंह देखने की कोशिश की, कहीं यशोधरा जग न जाए, जग जाए, तो रोएगी, चीखेगी, चिल्लाएगी, जाने न देगी। इसलिए चुपचाप द्वार से ही लोट गए थे।
उस बेटे को राहुल का नाम भी बुद्ध ने इसी लिए दिया था—राहु-केतु के अर्थों में। इसलिए दिया कि बुद्ध घर छोड़ने जा रहे थे। तब यह बेटा हुआ। सोचते थे कब छोड़ दू्ं, कब छोड़ दू्ं, तब यह बेटा पैदा हुआ। इस बेटे का प्रबल आकर्षण, और हजार शंकाओं-कुशंकाओं का जमघट लग गया।
मेरे घर बेटा आया है और मैं छोड़कर भाग रहा हूं—यह उचित है छोड़कर भागना, जिम्मेदारी, उत्तरदायित्व....। इस बेटे के जन्म से मेरा उतना ही हाथ है, जितना यशोधरा का, और मैं छोड़कर भाग रहा हूं। इस असहाय स्त्री पर अकेला बोझ छोड़कर भागा जा रहा हूं, यह उचित नहीं है।
मंगलवार, 23 नवंबर 2010
मैं द्वार बनूं—दीवार न बनूं--
मैं तुम्हें अपने पर नहीं रोकना चाहता। मैं तुम्हारे लिए द्वार बनूं, दीवार न बनूं। तुम मुझसे प्रवेश करो, मुझ पर मत रुको। तुम मुझसे छलांग लो, तुम उड़ो आकाश में। मैं तुम्हें पंख देना चाहता हूं। तुम्हें बाँध नहीं लेना चाहता। इसलिए तुम्हें सारे बुद्धों का आकाश देता हूं।
मैं तुम्हारे सारे बंधन तोड़ रहा हूं। इसलिए मेरे साथ तो अगर बहुत हिम्मत हो तो ही चल पाओगे। अगर कमजोर हो तो किसी कारागृह को पकड़ो, मेरे पास मत आओ।
वस्तुत: मैं तुम्हें कही ले जाना नहीं चाहता; उड़ना सिखाना चाहता हूं। ले जाने की बात ही ओछी है। मैं तुमसे कहता हूं; तुम पहुँचे हुऐ हो। जरा परों को तौलो, जरा तूफ़ानों में उठो, जरा आंधियां के साथ खेलो,जरा खुले आकाश का आनंद लो। मैं तुमसे वही नहीं कहता कि सिद्धि कहीं भविष्य में है। अगर तुम उड़ सको तो अभी है,यहीं है।
--ओशो
एस धम्मो सनंतनो
भाग—6
रविवार, 21 नवंबर 2010
भगवान बुद्ध और यशोधरा--कथा यत्रा
भगवान बुद्ध ओर यशोधरा-
गौतम बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद घर वापस लौटे। बारह साल बाद वापस लौटे। जिस दिन घर छोड़ा था, उनका बच्चा, उनका बैटा एक ही दिन का था। राहुल एक ही दिन का था। जब आए तो वह बारह वर्ष का हो चुका था। और बुद्ध की पत्नी यशोधरा बहुत नाराज थी। स्वभावत:। और उसके एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल पूछा। उसने पूछा कि मैं इतना जानना चाहती हूं; क्या तुम्हें मेरा इतना भी भरोसा न था कि मुझसे कह देते कि मैं जा रहा हूं? क्या तुम सोचते हो कि मैं तुम्हें रोक लेती? मैं भी क्षत्राणी हूं। अगर हम युद्ध के मैदान पर तिलक और टीका लगा कर तुम्हें भेज सकते है, तो सत्य की खोज पर नहीं भेज सकेत?
तुमने मेरा अपमान किया है। बुरा अपमान किया है। जाकर किया अपमान ऐसा नहीं। तुमने पूछा क्यों नहीं? तुम कह तो देते कि मैं जा रहा हूं। एक मौका तो मुझे देते। देख तो लेते कि मैं रोती हूं, चिल्लाती हूं, रूकावट डालती हूं।
गौतम बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद घर वापस लौटे। बारह साल बाद वापस लौटे। जिस दिन घर छोड़ा था, उनका बच्चा, उनका बैटा एक ही दिन का था। राहुल एक ही दिन का था। जब आए तो वह बारह वर्ष का हो चुका था। और बुद्ध की पत्नी यशोधरा बहुत नाराज थी। स्वभावत:। और उसके एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल पूछा। उसने पूछा कि मैं इतना जानना चाहती हूं; क्या तुम्हें मेरा इतना भी भरोसा न था कि मुझसे कह देते कि मैं जा रहा हूं? क्या तुम सोचते हो कि मैं तुम्हें रोक लेती? मैं भी क्षत्राणी हूं। अगर हम युद्ध के मैदान पर तिलक और टीका लगा कर तुम्हें भेज सकते है, तो सत्य की खोज पर नहीं भेज सकेत?
तुमने मेरा अपमान किया है। बुरा अपमान किया है। जाकर किया अपमान ऐसा नहीं। तुमने पूछा क्यों नहीं? तुम कह तो देते कि मैं जा रहा हूं। एक मौका तो मुझे देते। देख तो लेते कि मैं रोती हूं, चिल्लाती हूं, रूकावट डालती हूं।
संभोग से समाधि की और—24
युवक और यौन—
एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
एक बहुत अद्भुत व्यक्ति हुआ है। उस व्यक्ति का नाम था नसीरुद्दीन एक दिन सांझ वह अपने घर से बाहर निकलता था मित्रों से मिलने के लिए। तभी द्वार पर एक बचपन का बिछुड़ा मित्र घोड़े से उतरा। बीस बरस बाद वह मित्र उससे मिलने आया था। लेकिन नसीरुद्दीन ने कहा कि तुम ठहरो घड़ी भर मैंने किसी को बचन दिया है। उनसे मिलकर अभी लौटकर आता हूं। दुर्भाग्य कि वर्षो बाद तुम आये हो और मुझे घर से अभी जाना पड़ रहा है।, लेकिन मैं जल्दी ही लौट आऊँगा।
शुक्रवार, 19 नवंबर 2010
भगवान बुद्ध और ज्योतिषी— ( कथा यात्रा )
एक गर्म दोपहरी थी। भगवान बुद्ध नदी किनारे चले जा रहे थे। नंगे पाव होने के कारण ठंडी बालु रेत का सहारा ले पैरों को ठंडा कर लेते थे। आस पास कहीं कोई वृक्ष नहीं था। नदी का पाट गर्मी के सुकड़ कर सर्प की तरह आड़ा तिरछा और संकरा भी हो गया। चारों और बालु का विस्तार फैला हुआ था। सुर्य शिखर पर था। रेत गर्मी के कारण तप रही थी। भगवान पैरो की जलन को कम करने के लिए गीली रेत पर चल कर पैरो को ठंडा कर रहे थे। जिसके कारण उनके पद चाप नदी के गिले बालु पर चित्र वत छपे अति सुंदर लग रहे है। दुर तक कोई बड़ा पेड़ न होने के कारण, पास ही एक कैंदु की झाड़ी की छांव को देख कर पल भर विश्राम करने के लिए रूप गये। कैंदु की छांव इतनी सधन थी कि कोई-कोई धूप का चितका छन कर ही आपा रहा था।
शनिवार, 13 नवंबर 2010
संभोग से समाधि की और—23
यौन : जीवन का ऊर्जा-आयाम–6
इस लिए मैं तंत्र के पक्ष में हूं, त्याग के पक्ष में नहीं हूं। और मेरा मानना है जब तक धर्म दुनिया से समाप्त नहीं होते, तब तक दुनिया सुखी नहीं हो सकती। शांत नहीं हो सकती। सारे रोग की जड़ इनमें छिपी है।
तंत्र की दृष्टि बिलकुल उल्टी है। तंत्र कहता है कि अगर स्त्री पुरूष के बीच आकर्षण है तो इस आकर्षण को दिव्य बनाओ। इससे भागों मत, इसको पवित्र करो। अगर काम-वासना इतनी गहरी है तो उससे तुम भाग सकोगे भी नहीं। इस गहरी काम वासना को ही क्यों ने परमात्मा से जुड़ने का मार्ग बनाओ। और अगर सृष्टि काम से हो रही है तो परमात्मा को हम काम वासना से मुक्त नहीं कर सकते। नहीं तो कुछ तो कुछ होने का उपाय नहीं है।
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
संभोग से समाधि की और—22
यौन : जीवन का ऊर्जा-आयाम–6
धर्म के दो रूप है। जैसा सभी चीजों के होत है। एक स्वस्थ और एक अस्वस्थ।
स्वस्थ धर्म जो जीवन को स्वीकार करता है। अस्वस्थ धर्म जीवन को अस्वीकार करता है।
जहां भी अस्वीकार है, वहां अस्वास्थ्य है जितना गहरा अस्वीकार होगा, उतना ही व्यक्ति आत्मघाती है। जितना गहरा स्वीकार होगा, उतना ही व्यक्ति जीवनोन्मुक्त होगा।
संभोग से समाधि की और—21
समाधि : संभोग-उर्जा का अध्यात्मिक नियोजन—5
एक मित्र ने पूछा है कि अगर इस भांति सेक्स विदा हो जायगा तो दुनिया में संतति का क्या होगा? अगर इस भांति सारे लोग समाधि का अनुभव करके ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जायेंगे तो बच्चों का क्या होगा।
जरूर इस भांति के बच्चे पैदा नहीं होंगे। जिस भांति आज पैदा होते है। वह ढंग कुत्ते,बिल्लियों और इल्लियों का तो ठीक है, आदमियों का ठीक नहीं हे। यह कोई ढंग है? यह कोई बच्चों की कतार लगाये चले जाना—निरर्थक, अर्थहीन, बिना जाने बुझे—यह भीड़ पैदा किये जाना। यह कितनी हो गयी? यह भीड़ इतनी हो गयी है कि वैज्ञानिक कहते है कि अगर सौ बरस तक इसी भांति बच्चे पैदा होते रहें और कोई रूकावट नहीं लगाई गई, तो जमीन पर टहनी हिलाने के लिए भी जगह नहीं बचेगी। हमेशा आप सभा में ही खड़े हुए मालूम होंगे। जहां जायेंगे वहीं, सभा मालूम होंगी। सभी करना बहुत मुश्किल हो जायेगा। टहनी हिलाने की जगह नहीं रह जाने वाली है सौ साल के भीतर, अगर यही स्थिति रही।
मंगलवार, 9 नवंबर 2010
संभोग से समाधि की और—20
समाधि : संभोग-उर्जा का अध्यात्मिक नियोजन—5
यहां से मैं भारतीय विद्या भवन से बोल कर जबलपुर वापस लौटा और तीसरे दिन मुझे एक पत्र मिला कि अगर आप इस तरह की बातें कहना बंद नहीं कर देते है तो आपको गोली क्यों ने मार दि जाये? मैंने उत्तर देना चाहा था, लेकिन वह गोली मारने वाले सज्जन बहुत कायर मालूम पड़े। न उन्होंने नाम लिखा था, न पता लिखा था। शायद वे डरे होंगे कि मैं पुलिस को न दे दू्ं। लेकिन अगर वह यहां कहीं हों—अगर होंगे तो जरूर किसी झाड़ के पीछे या किसी दीवाल के पीछे छिप कर सून रहे होंगे। अगर वह यहां कहीं हों तो मैं उनको कहना चाहता हूं। कि पुलिस को देने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह अपना नाम और पता मुझे भेज दें। ताकि में उनको उत्तर दें सकूँ। लेकिन अगर उनकी हिम्मत न हो तो मैं उत्तर यहीं दिये देता हूं। ताकि वह सुन ले।
सोमवार, 8 नवंबर 2010
संभोग से समाधि की और—19
समाधि : संभोग-उर्जा का अध्यात्मिक नियोजन—5
एक मित्र ने इस संबंध में और एक बात पूछी है। उन्होंने पूछा है कि आपको हम सेक्स पर कोई आथोरिटी कोई प्रामाणिक व्यक्ति नहीं मान सकते है। हम तो आपसे ईश्वर के संबंध में पूछने आये थे। और आप सेक्स के संबंध में बताने लगे। हम तो सुनने आये थे ईश्वर के संबंध में तो आप हमें ईश्वर के संबंध में बताइए।
रविवार, 7 नवंबर 2010
संभोग से समाधि की और—18
समाधि : संभोग-उर्जा का अध्यात्मिक नियोजन—5
लेकिन मैं जिस सेक्स की बात कर रहा हूं, वह तीसरा तल है। वह न आज तक पूरब में पैदा हुआ है, न पश्चिम में। वह तीसरा तल है स्प्रिचुअल, वह तीसरा तल है, अध्यात्मिक। शरीर के तल पर भी एक स्थिरता है। क्योंकि शरीर जड़ है। और आत्मा के तल पर भी स्थिरता है, क्योंकि आत्मा के तल पर कोई परिवर्तन कभी होता ही नहीं। वहां सब शांत है, वहां सब सनातन है। बीच में एक तल है मन का जहां पारे की तरह तरल है मन। जरा में बदल जाता है।
पश्चिम मन के साथ प्रयोग कर रहा है इसलिए विवाह टूट रहा है। परिवार नष्ट हो रहा है। मन के साथ विवाह और परिवार खड़े नहीं रह सकते। अभी दो वर्ष में तलाक है, कल दो घंटे में तलाक हो सकता है। मन तो घंटे भर में बदल जाता है। तो पश्चिम का सारा समाज अस्त-व्यस्त हो गया है। पूरब का समाज व्यवस्थित था। लेकिन सेक्स की जो गहरी अनुभूति थी, वह पूरब को अपलब्ध नहीं हो सकी।
शनिवार, 6 नवंबर 2010
संभोग से समाधि की और—17
समाधि : संभोग-उर्जा का अध्यात्मिक नियोजन—5
मेरे प्रिय आत्मजन,
मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे है। सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि मैंने बोलने के लिए सेक्स या काम का विषय क्यों चूना?
इसकी थोड़ी सी कहानी है। एक बड़ा बाजार है। उस बड़े बाजार को कुछ लोग बंबई कहते है। उस बड़े बाजार में एक सभा थी और उस सभा में एक पंडितजी कबीर क्या कहते है, इस संबंध में बोलते थे। उन्होंने कबीर की एक पंक्ति कहीं और उसका अर्थ समझाया। उन्होंने कहा, ‘’कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर बारे अपना चले हमारे साथ।’’ उन्होंने यह कहा कि कबीर बाजार में खड़ा था और चिल्लाकर लोगों से कहने लगा कि लकड़ी उठाकर बुलाता हूं उन्हें जो अपने घर को जलाने की हिम्मत रखते हों वे हमारे साथ आ जायें।
शुक्रवार, 5 नवंबर 2010
संभोग से समाधि की और-16
समाधि : अहं-शून्यता समय शून्यता का अनुभव—4
और अब तो हम उस जगह पहुंच गये है कि शायद और पतन की गुंजाइश नहीं है। करीब-करीब सारी दुनिया एक मेड हाऊस एक पागलखाना हो गयी है।
अमरीका के मनोवैज्ञानिकों ने हिसाब लगया है न्यूयार्क जैसे नगर में केवल 18 प्रतिशत लोग मानसिक रूप से स्वस्थ कहे जा सकते है। 18 प्रतिशत, 18 प्रतिशत लोग मानसिक रूप से स्वास्थ है। तो 82 प्रतिशत लोग करीब-करीब विक्षिप्त होने की हालत में है।
रविवार, 31 अक्तूबर 2010
संभोग से समाधि की और-15
समाधि: अहं-शून्यता, समय शून्यता का अनुभव—4
लेकिन जो जानते है, वे यह कहेंगे,दो व्यक्ति अनिवार्यता: दो अलग-अलग व्यक्ति है। वे जबरदस्ती क्षण भी को मिल सकते है। लेकिन सदा के लिए नहीं मिल सकते। यही प्रेमियों की पीड़ा और कष्ट है कि निरंतर एक संघर्ष खड़ा हो जाता है। जिसे प्रेम करते है, उसी से संघर्ष करते है, उसी से तनाव, अशांति और द्वेष खड़ा हो जाता है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होने लगता है। जिससे मैं मिलना चाहता हूं, शायद वह मिलने को तैयार नहीं। इसलिए मिलना पूरा नहीं हो पाता।
शनिवार, 30 अक्तूबर 2010
संभोग से समाधि की और—14
समाधि : अहं-शून्यता, समय शून्यता का अनुभव—4
एक बात, पहली बात स्पष्ट कर लेनी जरूरी है वह हय कि यह भ्रम छोड़ देना चाहिए कि हम पैदा हो गये है, इसलिए हमें पता है—क्या है काम, क्या है संभोग। नहीं पता नहीं है। और नहीं पता होने के कारण जीवन पूरे समय काम और सेक्स में उलझा रहता है और व्यतीत होता है।
शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010
संभोग से समाधि की और—13
समाधि : अहं शून्यता, समय-शून्यता के अनुभव-4
मेरे प्रिया आत्मन,
एक छोटा सा गांव था, उस गांव के स्कूल में शिक्षक राम की कथा पढ़ाता था। करीब-करीब सारे बच्चे सोये हुए थे।
राम की कथा सुनते-सुनते बच्चे सो जाये, ये आश्चर्य नहीं। क्योंकि राम की कथा सुनते समय बूढे भी सोते है। इतनी बार सुनी जा चुकी है जो बात उसे जाग कर सुनने का कोई अर्थ भी नहीं रह जाता।
सोमवार, 20 सितंबर 2010
संभोग से समाधि की ओर—12
संभोग: समय शून्यता की झलक—4
जितना आदमी प्रेम पूर्ण होता है। उतनी तृप्ति, एक कंटेंटमेंट, एक गहरा संतोष, एक गहरा आनंद का भाव, एक उपलब्धि का भाव, उसके प्राणों के रग-रग में बहने लगाता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है। जो तृप्ति का रस है, वैसा तृप्त आदमी सेक्स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने के लिए रोकने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती। वह जाता ही नहीं,क्योंकि वह तृप्ति, जो क्षण भर को सेक्स से मिलती थी, प्रेम से यह तृप्ति चौबीस घंटे को मिल जाती है।
संभोग से समाधि की ओर—11
संभोग : समय-शून्यता की झलक—3मैत्री उस दिन शुरू होती है। जिस दिन वे एक दूसरे के साथी बनते है और उनके काम की ऊर्जा को रूपांतरण करने में माध्यम बन जाते है। उस दिन एक अनुग्रह एक ग्रेटीट्यूड, एक कृतज्ञता का भाव ज्ञापन होता है। उस दिन पुरूष आदर से भरता है। स्त्री के प्रति क्योंकि स्त्री ने उसे काम-वासना से मुक्त होने में सहयोग पहुंचायी है। उस दीन स्त्री अनुगृहित होती है पुरूष के प्रति कि उसने उसे साथ दिया और वासना से मुक्ति दिलवायी। उस दिन वे सच्ची मैत्री में बँधते है, जो काम की नहीं प्रेम की मैत्री है। उस दिन उनका जीवन ठीक उस दिशा में जाता है, जहां पत्नी के लिए पति परमात्मा हो जाता है। और पति के लिए पत्नी परमात्मा हो जाती है।
शनिवार, 18 सितंबर 2010
संभोग से समाधि की ओर—10
संभोग : समय-शून्यता की झलक—2
और इसलिए आदमी दस-पाँच वर्षों में युद्ध की प्रतीक्षा करने लगता है, दंगों की प्रतीक्षा करने लगता है। और हिन्दू-मुसलमान का बहाना मिल जाये तो हिन्दू-मुसलमान सही। अगर हिन्दू-मुसलमान का न मिले तो गुजराती-मराठी भी काम करेगा। अगर गुजराती-मराठी न सही तो हिन्दी बोलने वाला और गेर हिन्दी बोलने वाला भी चलेगा।
संभोग से समाधि की ओर—9
संभोग : समय-शून्यता की झलक—1
मेरे प्रिय आत्मन,
एक छोटी से कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। बहुत वर्ष बीते, बहुत सदिया। किसी देश में एक बड़ा चित्रकार था। वह जब अपनी युवा अवस्था में था, उसने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊं जिसमें भगवान का आनंद झलकता हो। मैं एक ऐसे व्यक्ति को खोजूं एक ऐसे मनुष्य को जिसका चित्र जीवन के जो पार है जगत के जो दूर है उसकी खबर लाता हो।
संभोग से समाधि की ओर—8
संभोग : अहं-शून्यता की झलक—4
लेकिन वह बहुत महंगा अनुभव है, वह अति महंगा अनुभव है। और दूसरा कारण है कि वह अनुभव से ही अपलब्ध हुआ है। एक क्षण से ज्यादा गहरा नहीं हो सकता है। एक क्षण को झलक मिलेगी और हम वापस अपनी जगह लोट आयेंगे। एक क्षण को किसी लोक में उठ जाते है। किसी गहराई पर, किसी पीक एक्सापिरियंस पर, किसी शिखर पर पहुंचना होता है। और हम पहुंच भी नहीं पाते और वापस गिर जाते है। जैसे समुद्र की लहर आकाश में उठती है, उठ भी नहीं पाती है, पहुंच भी नहीं पाती है, और गिरना शुरू हो जाती है।