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रविवार, 28 दिसंबर 2025

09-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

अध्याय-09

(सदमा - उपन्यास) 

तीन दिन महाबलेश्वर में और सब रुके। और उसके बाद सब घर की और चल दिये। परंतु एक परिवर्तन वह सब देख रहे थे नेहालता में की अब वह चुप रहने लगी थी। जो पहले हमेशा चहकती रहती थी। मचलती रहती थी। वह एक दम से इतनी शांत कैसे हो गई। परंतु चुप रहने पर नेहालता के चेहरे पर एक अजीब सी खुशी एक अजीब सी शांति फैली हुई थी। जिससे लगता है वह स्वस्थ है। परंतु आदमी एक दम से ऐसा बदल जाये तो आप मानो किसी दूसरे आदमी के साथ चल रहे हो। तो कठिन हो जाता है वो सब पूरा जो मन के तल पर जमा था जाना पहचाना था। वह कहां तक साफ किया जा सकता है। हम मन से ही तो जीते है। एक संस्कार को अपने अंग संग लपेटे। और उस मन को ही अधिक महत्व देते है। मन की इच्छाएं उसकी जरूरत या पूर्ति को भरने में ही सारा जीवन खत्म कर देते है। परंतु वह कहां भर पाता है। परंतु जीवन में लगभग ऐसा ही होता है। इस जीवन की लकीर को पहले बार नेहालता ने जान लिया है। इसलिए हिंदु जो कहते है, इस जन्म के कर्म आपके अगले जन्म में संस्कार बन जाते है। वो हमें अगर होश से देखे तो आप पास घटता दिखाई जरूर देगा। क्योंकि एक ही घर में एक ही मां-पिता से पैदा संतान कितनी भिन्न होती है। क्या भेद हुआ उन में कहीं तो, होने से पहले कुछ होना चाहिए। जिसे हिंदु जन्म के संस्कार कहते है।

इसे ही कर्म का सिद्धांत कहा गया है। प्रत्येक मनुष्य एक समान सुविधा पा कर भी एक समान कैसे जी सकता है। आप एक समान प्रत्येक को सो रूपये दे दीजिए। वह सब उस पैसे से भिन्न जीवन जीयेंगे। आपने तो समानता चाही थी। परंतु प्रकृति ये विभेद नहीं करती। वह प्रत्येक जड़ चेतन में भिन्नता चाहती है। एक वृक्ष के करोड़ों पत्ते होने पर भी उनमें भिन्नता होती है। देखने में तो वह समान दिखेंगे परंतु आप जरा बारीक नजर से देखेंगे तो भिन्नता है। प्रकृति केवल निर्माण करती, कोपी नहीं करती।

वह प्रत्येक पल में प्रत्येक जीवन में भिन्नता भरती चली आई है करोड़ों-अरबों साल से। यहीं साम्यवाद, वाम पंथी, कम्युनिस्टों, मार्क्सवादी की बीमारी है। वह सब को एक समान करना चाहते है। परंतु कहां कर सके हो आज सौ साल बाद भी वहीं और दीवार गहरी से गहरी हो गई। ना मानो आसमान के भगवान को परंतु लाला किताब भी आपकी माओ लेनिन वाणी बन जायेगी। आदमी को एक आदत बन गई उसे सहारा चाहिए। बिना सहारे के बल चल नहीं सकता।

हिंदूओं का दर्शन एक दम से ठीक है। मैं तो हिंदु धर्म को धर्म ही नहीं कहता वह तो धर्म के लिए तैयार पौध है। वहां भिन्न प्रकार के पौधे एक साथ तैयार किए जाते है। हिंदु धर्म एक प्रकार से धर्म की नर्सरी है। समय और स्थान पा कर वह पौधा, कभी राम, कभी कृष्ण, कभी बुद्ध, कभी महावीर, कभी नानक, कभी गोरख बन जाता है। इसलिए जो हिंदु धर्म की तुलना दूसरे धर्मों से करते है, वह गलत है। नर्सरी में तो भिन्न प्रकार के फूलों से लेकर वटवृक्ष तक की पौध तैयार हो रही है। बुद्ध धर्म एक वट वृक्ष है। वह एक प्रकार का ही रहेगा। नानक जी एक भिन्न वृक्ष है वह अपने रूप आकार में ही रहेगा...परंतु वह नर्सरी में तो वह सब एक समान समा सके थे। परंतु नर्सरी उन में अब नहीं समा सकेगी। जब तक लोग इस बात को नहीं समझेंगे। की हिंदु धर्म सम्पूर्ण धर्म की नर्सरी है। इसे आप एक गमले में नहीं लगा सकते हो।

इस सच्चाई को स्वीकार करना ही होगा। नेहालता का इस तरह से व्यवहार कुछ अटपटा जरूर था। क्योंकि हम आज जो देखते है कल पर निर्मित होता है। इसलिए कल तक वह एक चुलबुली मस्त अल्हड़ लड़की थी। परंतु मन इस बात को मानने को तैयार था की ये उस हादसे के बाद ही हुआ है। परंतु उम्र की परिपक्वता भी एक महत्वपूर्ण पड़ाव होता है। प्रत्येक सात साल में मनुष्य के शरीर का एक चक्र पूर्ण हो जाता है। इसलिए इस घटना के समय नेहालता 21 पार कर रही थी। सो तब अचानक ये दुर्घटना, घटी। अब वह ठीक भी हो गई है। परंतु अगर सच में देखा जाये तो वह ठीक बिलकुल नहीं हुई है। बस शायद इसलिए ठीक लग रही है कि वह अपने लोगों को या यार दोस्तों को पहचान रही है। अपने परिचित को चिह्नित कर रही है। अपने माता पिता को पहचान रही है।

घर पहुंचने पर नेहालता ने सब यार दोस्तों को बाय-बाये किया और अपने कमरे में चली गई। ड्राइवर ने गाड़ी को गैराज में खड़ा कर दिया। और अपने मालिक जे. के. मल्होत्रा से मिलने के लिए चले गया। मल्होत्रा साहब ने पूछा सब ठीक है। हाँ मालिक सब ठीक है। परंतु मुझे तो बेटी पहले से अधिक समझदार दिखाई देती है। पहले तो कैसे उथली-उथली बाते करती थी। बात-बात पर गुस्सा कर देती थी। नाराज हो जाती थी परंतु अब तो एक दम परिपक्व नजर आती है। मालिक साहब मुझे भी चार-पाँच दिन हो गए घर गए हुए कहो तो मैं एक दिन के लिए घर चला जाता हूं। तब जे. के. मल्होत्रा ने कहां हां रतन लाल तुम बच्चों के पास चले जाओ और एक दो दिन आराम से अपने बच्चों के साथ समय गुजर कर आओ यहां की फिक्र मत करना। नहीं मालिक अगर कोई परेशानी हो तो मुझे फोन कर देना। और राम रतन खुशी-खुशी घर की और चल दिया।

उधर नेहालता अपने मम्मी राजेश्वरी मल्होत्रा से मिलने के लिए गई। नेहालता का चेहरा देख कर उसकी मां श्रीमति राजेश्वरी मल्होत्रा अति प्रसन्न हुई। कितने दिनों में उसकी बेटी के चेहरे पर आज खुशी दिखाई दी थी। कहां-कहां घूमी नेहालता की मम्मी ने उससे पूछा। नेहालता ने कहां महाबलेश्वर बहुत सुंदर जगह है जब छोटी थी तो तुम्हारे साथ जाती थी तो कितना अच्छा लगता था। परंतु इस बार मुझे वहां तुम्हारी बहुत कमी महसूस हो रही थी। ये बात श्रीमति राजेश्वरी मल्होत्रा को कुछ अजीब सी लग रही थी। नहीं बेटा तुम जवान लोगों में मेरा क्या काम। नहीं मम्मी कृष्णा नदी के पास जो मंदिर है वह कितना सुंदर है और कितना शांत भी है। मैं तो वहां जाकर इस बार सब कुछ भूल गई थी। तुम भी साथ होती तो कितना अच्छा लगता। परंतु बेटा और बहुत से स्थान है वहां पर देखने के लिए, हाथी प्वाइंट, नीड़ल प्वाइंट, नौका यान। हाँ है तो परंतु मां वह मंदिर का माहोल बहुत शांति दे रहा था। अगली बार आप भी और पापा भी साथ चलना। मां देख रही थी। बेटी जवान ही नहीं परिपक्व हो रही थी। अंदर से एक खुशी भी और डर भी था क्योंकि ये सब इतनी अचानक घट रहा था जिस की कल्पना तक नहीं थी।

इतनी देर में मल्होत्रा जी भी बेटी से मिलने आ गए। और इस तरह से नेहालता की बात सून कर उसे भी बड़ा अजीब और अच्छा भी लग रहा था। इस बीच श्रीमति राजेश्वरी मल्होत्रा जी ने कहां चलो सब के लिए चाय बनाती हूं। और वह चाय बनने के लिए अंदर चली गई। वहां पर रह गए केवल पिता और बेटी। बेटी मैंने रतन को उसके घर दो दिन के लिए भेज दिया है। तुझे कोई काम तो नहीं है। क्योंकि उसे भी दस-पंद्रह दिन हो गए थे घर गये हुए। तीन दिन से वह तुम्हारे साथ ही रह रहा था। ठीक किया पिता जी आपने। यहां कोई खास काम तो था नहीं। दो तीन दिन खुब आराम करेंगे। घूप का और गप्प मारने का आनंद लेंगे।

नेहालता के आने से घर का माहोल और सुकोमल हो गया था। जितना तनाव इस पिछले साल झलना पड़ा था मानो अब वह पतझड़ के रूप में झड़ गया है । और आ गए है सुकोमल मुलायम खुशी, अपने अंदर नये पल्लवित आनंद उत्सव के पात लिए हुए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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