कुल पेज दृश्य

रविवार, 28 दिसंबर 2025

43 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा

अध्‍याय -43

काम की गति

आज कल अचानक घर के काम में जो आज गति आई थी, इससे पहले उसे मैंने कभी इतनी तेज नहीं देखी थी। राम रतन दीपावली के कुछ दिन बाद ही आ गए थे। अब मौसम थोड़ा ठंडा और सुहाना भी हो गया था। दिन की धूप में बैठना काफी अच्छा लगता था। और काम भी छत पर ही होता था। इसलिए मैं वहीं पर सोता रहता था। पापा जी की मशीन सारा दिन चलती रहती थी। मैं सोचता था की ये आदमी किस मिट्टी का बना है थकता नहीं, ऐसा था की राम रतन के साथ तो वह काम करते ही थे, उसके अलावा भी देर रात तक टाईल काटते रहते थे। फिर सुबह जल्दी ही शुरू हो जाते थे। पहले मम्मी जी के साथ दुकान पर रात तीन बजे जाते वहां का काम खत्म कर फिर घर आकर टाइलें काटने लग जाते थे। रात तक यहीं काम। तब रात 8 या 9 बजे नहा धोकर कुछ देर विश्राम करते। श्याम के समय दोनों भाइयों में एक दुकान पर चला जाता था। जब वह दुकान से घर आ जाता तब सब बच्चों के साथ बैठ कर खाना खाते। उस समय तक खाना पूरा परिवार एक साथ खाता था। फिर कुछ देर आज कल टीवी. भी देखा जाता था। परंतु पापा जी कम ही देखते थे। क्योंकि उन्हें तो रात तीन बजे फिर उठ जाना होता था। उसके बाद सब अपने-अपने कमरों में सोने चले जाते।

छत पर कितनी सुंदर टाइलें लगाई जा रही थी। पाए एक से एक सुंदर डिज़ाइन के बन रहे थे। दादा भी आज कल छत पर ही आ जाता था। और कभी-कभी वह छत पर ही नहाते थे तब मुझे बहुत डर लगता था की अब मेरा नम्बर आया। क्योंकि दादा जी जब नहाते तो पापा जी उनके शरीर पर साबुन लगते थे। मैं ये सोचता था की न जाने क्यों पापा जी सब को साबुन लगने में इतना मजा आता था।

फिर वही धूप में दादा जी बैठ कर खाना खा कर धूप में लेट जाते थे। फिर जब श्याम की चाय पीने के बाद ही यहां से जाते थे। पहले तो दादा जी केवल सुबह श्याम ही आते थे। परंतु अब तो उनका आना मुझे भी अच्छा लगता था। जब वह रोटी खा रहे होते तो मैं अपनी आदत के अनुसार उनके सामने बैठ जाता था। और एक रोटी का टूकड़ा अपने हक समझ कर जरूर लेता था। ये काम तो मैं राम रतन और मुकेश हर जब खाना खाते तो उनसे भी लेता था।

ठीक इसी तरह से समय गुजर रहा था बच्चे अब काफी बड़े हो गए थे। वह अपने स्कूल से आते और अपने कमरे में चले जाते। फिर रात को ही वह खाने के समय आते थे। मेरा एकांत मुझे बहुत खा रहा था। सब लोग अपने काम में इतना लगे थे की मेरे लिए समय नहीं था। अकेला पन मुझे खाने को दौड़ता था। कभी-कभी रात के समय जब कोई नई क्यारी बनाई जाती तो मैं उस की ताजा सुगंध को  लिए हुए रहती थी। उस की मिट्टी के खोदने के लालच को रोक नहीं पाता था। या शायद एक समय आता था जब मेरे अंदर से ही ये सब करने के लिए प्रेरित किया जाता था। इसके कारण को न जानते हुए भी मुझे करना होता था। जबकि मैं जानता था कि इस सब की कोई भी जरूरत नहीं है। शायद प्रकृति ने जब मादा बच्चे कराने होते थे तब उनकी सहायता के लिए नई खो खेदी जाती होगी। वहीं सब हमारे डी एन ए में चला आ रहा होगा। परंतु में जानता था की यहां न मादा है न हमारा परिवार फिर भी अंदर से अचेतन वो सब करने को बेताब हुआ रहाता था। मेरी समझ के परे ये बात थी की फिर भी मेरा शरीर इसे क्यों करता है। कभी-कभी मैं मिट्टी के साथ वह पेड़ भी बाहर निकल देता था। ये सब मैं एक मशीन की तरह से करता था। बेचारा वह पौधा  बाद में मर भी जाता था। ये सब मैं जानता था। इसके बदले मुझे डाट भी पड़ती परंतु मैं इस रहस्य को समझ नहीं पा रहा था कि क्यों कर रहा हूं। शायद प्रजनन के दिनों में जब मादा बच्चे देती थी, तब सब मिल झूल कर नये-नये घर बनाते होंगे। उस सब प्रक्रिया के चलते हमें इसे जन्मो ढोते आ रहते थे। कितना विचित्र था ये सब जान कर की न तो अब मुझे बच्चों को जन्म देना है न ही किसी मादा की मदद करनी थी। फिर भी आप देखो मेरा शरीर एक मशीन की तरह काम करता था।

कितने दिन तो हो गए मुझे जंगल में भी गए हुए। काम इतना अधिक होता था किस समय पापाजी हमें घूमने के लिए समय निकाले। घर से निकल कर मैं कभी पार्क या दुकान तक चला जाता। बस यहीं तो मेरी दौड़ थी। मेरी समझ में एक बात और नहीं आ रहा थी की किस नासमझी के कारण मैं बालपन में जंगल भाग जाता था आज क्यों नहीं। क्या मेरा शरीर कमजोर हो गया है, मैं थोड़ा सचेत हो गया हूं, उन खतरों से डर गया हूं जो मुझे जंगल में झेलने पड़ सकते थे। कुल मिला कर इसे मेरी समझदारी ही तो कहेंगे। परंतु मैं बहुत ही ज्यादा खुश था कि अपना ओशोबा हाऊस ज्यादा से ज्यादा सुंदर बन जाये। इसके बनने के बाद तो हमारे पास कितना समय होगा कहीं भी घूमने के लिए।

होली पर जाने से पहले राम रतन ने बहुत ही ज्यादा काम कर दिया था। इस समय घर पर काम करने वाले कम से कम 7-8 आदमी काम कर रहे होते थे। दो तो लकड़ी का काम कर रहे थे। कभी-कभी तो वह तीन भी हो जाते थे। ये काम वही अपने ईशाद मियां जो सालों से हमारे घर पर आकर कर काम कर रहे थे। लगभग पूरे घर का लड़की का काम इन्हीं साहब ने किया था। कम उम्र का नौजवान था, लेकिन मेहनती बहुत था। आप देखो न देखो वह अपने कम में कभी कामचोरी नहीं करता। यहीं सब तो मनुष्य के अंदर उसके चित की दशा को बताती है। देखो अगर आप काम को भी पूजा बना लो तो ही जीवन में आनंद है। वही आपकी भक्ति वहीं आपकी आराधना बन जाता है। अगर उसके साथ आप लालच, कामचोरी को जोड़ देंगे तो आपको पैसा जरूर कुछ अधिक मिल जायेगा परंतु आप जो खोओगे। वह बहुत ही अधिक कीमती होगा। परंतु सच ही ईशाद मियां बहुत ही सज्जन और ईमानदार थे। अरे थे का मतलब मेरा ये नहीं की अब नहीं है, क्या वह तो आज भी आकर घर का सारा काम करते है। न जाने पापा जी में क्या खासियत थी या इस जगह में कोई विशेष गुण था कि आप यहां अगर काम चोरी करोगे तो आप यहां टीक नहीं पाओगे।

ईशाद मियां जिस तरह से बच्चों के कमरे में अलमारी बना रहे है उसे करीब तीन महीने हो गए ये काम करते। परंतु इतनी बड़ी इतनी सुंदर मेरा तो मन करता है ये तो मेरा घर ही बन गया था। मैं उसके अंदर जाकर उसमें खड़ा हो जाता था। तब ईशाद या पापा जी हंसते की पोनी तेरे लिए भी एक सुंदर घर बनवा दिया जाये। मैं केवल पूंछ हिला देता। क्योंकि मेरा तो सब परिवार के साथ ही मन लगता था। चाहे फिर मुझे जमीन पर ही सोना पड़े। परंतु ऐसा नहीं था मेरा गोल नरम बिस्तरा अलग से बिछाया जाता था। उस पर नरम मुलायम कंबल ओढ़ कर सोने में कितना सुखद लगता था जैसे में स्वर्ग ही पहुंच गया।

इसके अलाव एक थे मूर्जी साहब एक दम सूखे। क्योंकि वही एक मात्र व्यक्ति थे जो शराब पीते थे। परंतु पापा जी इस बात से कभी नाराज नहीं होते थे। क्योंकि वह भी अपने काम को पूजा की तरह समझते थे। शराब पीकर कभी काम पर नहीं आते थे। परंतु इतना तो सब जानते थे की वह रोज काम खत्म कर के शराब पीते थे। शायद उसका काम ही ऐसा हो। हमेशा उसके कपड़े रंग में रंगे होते थे। कपड़ों के साथ उनके हाथ पैर सब रंग में रेंगे रहते थे। सुबह तो वह एक दम चमक चाँदनी बन कर आते थे। फिर बड़ी शान से अपने काम को देखते और पापा जी से बात करते थे। उसके बाद वह अपने काम पर लग जाते थे। ईशाद मियां की तरह इन्हें भी देखने की कोई जरूरत नहीं थे। आज कल काम की गति अधिक होने के कारण अपने साथ दो आदमियों को और भी लाते थे। क्योंकि दीवारों के साथ-साथ दरवाजे जो बन रहे थे उन पर भी पॉलिश पेंट का काम चल रहा था। मैं देख रहा था कि घर में एक दम लोगों का मेला लगा रहता था। कितने आदमियों की चाय मम्मी बनाती थी। दिन में दो बार। मूर्जी साहब तो गांव में ही रहते थे इसलिए घर पर ही खाना खाने चले जाते थे। ईशाद मियां होटल पर जाकर खाते थे। परंतु राम रतन और उनके दोनों लड़के घर से खाना बना कर लाते थे। उसके अलावा मम्मी छाछ और सब्जी जो घर पर बनती थी उन्हें एक कटोरी जरूर देती थी।

न तो मम्मी जी की ऐसी आदत थी कि अपने लिए कुछ बनाये और घर के दूसरे लोगों के लिए कुछ और बनाए। जो बना है सब वहीं खाते, चाहे पनीर हो या चटनी। अब देखो काम का बोझ कितने ही दिन तो हो गए जब से मम्मी पापा पूना भी नहीं जा पा रहे थे। मुझे तो पता नहीं की वहां कैसा लगता होगा। परंतु इतना तो मैं जानता था कि जब हमारे यहां इस तरह का ध्यान होता है तो वहां जरूर इससे अलग और गहराई ही मिलती होगी। वरना तो अपना  ओशोबा हाऊस का सागर क्या कम था। परंतु शायद पूना महासागर होगा। मन तो मेरा भी करता है कि मैं पूना चला जाऊँ परंतु कुत्ते का ये शरीर मुझे इसकी इजाजत नहीं देता। परंतु अंदर से एक चाह बहुत गहरी होती जा रही थी कि परमात्मा मुझे भी ये मनुष्य शरीर दे-दे ताकि मैं भी कुछ वो कर सकूं जो मैं इस शरीर में रहते नहीं कर सकता। फिर फर्क तो है ही। अब ये तो इस परिवार के साथ हूं वरना तो बाहर जाकर वो मैं सब नहीं कर सकता जो मनुष्य कर सकता था।

इस बार होली पर राम रतन घर गए तो काफी दिन तक नहीं आये। तब पापा-मम्मी ने बच्चों को कहा की अब हमें कुछ विश्राम की जरूरत थी। तुम्हारे स्कूल भी बंद हो जायेंगे। अप्रैल में इसलिए तुम तीनों मिल कर दुकान को सम्हाल सकते हो। हम थोड़ा ध्यान और विश्राम करने के लिए पूना चले जाते हैं। सो इस बात को बच्चों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। और फिर वही तैयारी जिस बात का मुझे भय था। मेरा मन अंदर से कट रहा था, की क्या सभी लोग जा रहे थे। परंतु सच में ऐसा नहीं था। केवल पापा-मम्मी जा रहे थे। इस बार अकेले। दोनों कितने दिनों बाद निकले थे। बच्चे इस बात को ले कर उत्साहित थे। और ये दिखा रहे थे कि सच देखो अब हम भी कुछ तो बड़े हो ही गए है। आप हम पर भी भरोसा कर सकते हो।

और एक दिन पापा-मम्मी चले गए। एक तरफ तो अच्छा लग रहा था कि बच्चे और दादा जी हमारे साथ है। परंतु एक दो दिन में ही मेरा भ्रम टूट गया। सब बच्चे घर में होने के कारण घर एक दम से खली-खली लग रहा था। जैसे यहां कुछ नहीं बचा। दीदी का काम और दादा का काम थोड़ा अधिक हो गया। क्योंकि भैया लोग बड़े जरूर हो गए थे परंतु उन पर इस तरह से काम का बोझ नहीं पड़ा था। वो खूद से उठ नहीं सकते थे। क्योंकि वह देर तक रात तक सोते नहीं थे। अब उन्हें चार बजे रात को उठना होता था। सो उनके लिए तो अति कठिन था। परंतु अनमने मन से उठते उस तरह से नहीं उठते थे जैसे मम्मी पापा उठते थे। उन्हें तो कभी-कभार ही दादा जी जगाने के लिए आते थे। वरना तो वह खुद ही उठ जाते थे।

दीदी खाना भी बनाती थी। फिर पेड़ो में पानी भी डलती थी। बाकी जो दूसरा काम था पैंट का या लकड़ी का वह भी काम बंद कर दिया था। क्योंकि बिना पापा के इतना सब देखना बच्चों के बस की बात नहीं थी। इस बहाने उन्हें भी कुछ आराम मिलेगा। लगातार काम करने से शरीर थक जाता है। इसलिए सब को कुछ विश्राम तो चाहिए ही। हां पैसो का तो उनका नुकसान होगा ही। वह तो कहीं और भी काम कर के कमा सकते थे। परंतु मैं क्या करूं, सब अपने काम में लग गए। मैं बिलकुल अकेला रह गया। मुझे लगा की इतने सारे परिवार के लोग होने पर भी मैं बिलकुल अकेला पड़ गया था। क्योंकि हमारा मन कुछ इस तरह से बना होता है कि आप इस के दरवाजे के अंदर एक बार में एक ही व्यक्ति को समा सकते थे। इसलिए मुझे पता चल रहा था कि इस दरवाजे में तो केवल और केवल पापा जी ही समाये हुए थे। मम्मी अच्छी लगती थी। परंतु पापा जी तो मेरे प्राण थे। सारा दिन उदासी में कटता था मेरा दिन। एक-एक दिन एक-एक युग के बराबर लगाता था। करीब बीस पच्चीस दिन बाद पापा-मम्मी आये। उनके चेहरे को देख कर अच्छा लग रहा था। उनकी सुगंध भी बदली हुई थी। उनकी अंतस की तरंगें कितनी सपाटा व सरल हो गई थी। मम्मी भी एक दम से पारदर्शी हो गई थी। उनके आने पर मैं मम्मी को ही अधिक प्यार कर रहा था। पापा जी मुझे प्यार कर रहे थे परंतु मैं तो उनसे छूड़ा कर...केवल और केवल मम्मी का प्यार ही चाहता था।

मन भी कैसा बावला है, जितना चाहता है, उतना पाकर और की चाहत करने लग जाता है। ऐसा क्यों....परंतु इस में कुछ गलत भी नहीं था। शायद यही विकास कर्म के अति उन्नत स्थल की हम बात कर रहे है। और जो कुत्ते केवल घर पर ही रहते है उनके लिए उनके अंदर के प्रेम के कारण वह और अधिक की चाह शुरू कर देते है। मानो खाली घर को मम्मी-पापा की उर्जा ने एक दम से भर दिया। पापा जी वहां से कितने ही प्रकार की मिठाई और बिस्किट लेकर आये जो मुझे खाने को मिले परंतु मैं इतनी जल्दी में उन्हें खा रहा था कि उनके स्वाद को ले ही नहीं रहा था। बस अपने सामने से किसी तरह से पेट के अंदर कर रहा था।

पापा-मम्मी ये देख कर खुश थे की उनकी अनुपस्थिति में भी बच्चों ने काम को बहुत अच्छी तरह से किया। अब पापा जी को शायद लगा होगा की अब धीरे-धीरे सब काम बच्चों पर सौंपा जा सकता था। परंतु अभी तो कम से कम काम को बंद नहीं किया ही जा सकता क्योंकि फिर इस बिखरे फैले काम को कैसे समेटेंगे। इस सब के लिए पैसा चाहिए। सो मेरी समझ में अभी तो एक विश्राम मिल गया। इसी तरह के अंतराल ले कर आप तरो ताजा होने की तैयार कर सकते हो। सदा के लिए अभी समय है। एक दम से किसी भी चीज को छोड़ना कोई समझदारी नहीं होती आप उसके लिए तैयार होते रहे। उसके परिणाम को सोच-देखे और तब आपको लगे की आप तो छलांग लगानी है। परंतु मम्मी पापा के साथ उनके गुरु भी थे जो शायद उनको मार्ग दिखा रहे थे। और शायद वह उनकी बात को ग्रहण भी कर रहे थे। वरना तो ऐसा कभी नहीं होता की तीन चार साल पहले ध्यान किया और फिर सन्यास लिया उसके लिए उन्होंने कोई जल्दबाजी नहीं की।

ठीक इसी तरह से बच्चों को पहले ध्यान का रस चखा दिया उसके बाद पूना लेकर गए तब उन्होंने वहां पर सन्यास लिए। उसके बाद सब अपनी पढ़ाई भी करते रहे। उनसे कुछ छीना नहीं उन्हें एक नये आयाम का एक मार्ग का स्वाद मिल गया था। एक नये मार्ग का पता चल गया था। चाहो तो आप उस उतुंग मार्ग पर भी जा सकते हो। बाकी लोगों से अलग आपने एक और रहस्य को जान लिए, अगर कभी आपको अच्छा लगे की आपने इस मार्ग पर चलना है तो आपके लिए एक लीक बन गई थी। इसके अलावा पापा जी ने बच्चों को संगीत, गायन और चित्रकला के द्वार भी खोल दिए थे। आपका जो मन करें वही सब करो। इस सब के अलावा आप का जीवन पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। बाद में हिमांशु भैया ने तो चित्र कला का मार्ग चुना, वरूण भाई ने मल्टी मीडिया किया, उसके बाद केमिस्ट्री का डिप्लोमा करने के लिए लखनऊ चार साल के लिए चले गए थे। की बाद में अपनी दुकान भी खोली जा सकती है।

दीदी ने एअर होस्टेस का कोर्स किया परंतु ज्यादा दिन नौकरी नहीं की। उसे तो ध्यान में आनंद आने लगा था वह तो कई-कई महीने पूना रहने लगी थी। पापा इस बात से बहुत खुश थे की दीदी ध्यान कर रही है। उसने अपने मार्ग को खूद ही चुना था। परंतु इस घर में रहकर जिसने सबसे सही मार्ग चुना वह दीदी ही थी। चलों एक तो चला। यही तो स्वतंत्रता है, जब आप अपना मार्ग समझ से चुनते हो तो आप भटक नहीं सकते हो। काम चल रहा था। समय के तो मानो पंख लग गए थे। इसी बीच बच्चे अपने स्कूल की पढ़ाई पूरी कर के बड़े भैया तो लखनऊ चले गये। दीदी पूना चली गई और हिमांशु अपने कालेज और पेंटिंग में लीन हो गया था। बचे हम चार दादा मैं और पापा-मम्मी और मेरे लिए तो केवल दो ही रह गए। पापा-और मम्मी। जब वह दुकान पर होते तो मेरा दिल नहीं लगता था उम्र के इस ढलान पर आपको एकांत बहुत घेर लेता था। पापा मम्मी ने दुकान पर एक लड़के को रख लिया था जिससे उनके काम में वह बहुत मदद करता था। अब एक आदमी घर पर रह सकता था, पापा जी जब राम रतन के साथ काम कर रहे होते तो मम्मी दुकान पर होती। तब वह लड़का मम्मी जी के साथ दुकान के हजार काम देख लेता था।

और पापा जी जब दुकान पर चले जाते तो मम्मी घर पर आ जाती थी। ये मेरे लिए बहुत ही अच्छा था खास कर श्याम जब ढलती थी तो एक मृत्यु का गहरा साया मुझे घेर लेता था। न जाने क्यों दिन तो किसी तरह से गुजर जाता था परंतु श्याम बहुत भारी हो जाती थी। मम्मी जी के साथ मैं अपने को अकेला नहीं समझता था। घर आकर कर कुछ विश्राम करने के बाद मम्मी जी भी घर का काम देखने जाती थी। की आज कितना काम हुआ। और कितना काम रह गया है। काम खत्म होने में तो अभी काफी देर थी। परंतु ये कोई उदासी भरी बात नहीं थी। एक सुंदर कला का नमूना बन रहा जिसकी हिस्सेदार मम्मी के साथ हम सब थे।

कुछ बाते जो मेरी समझ में नहीं आ रही थी वह यह थी कि लोग अलग-अलग क्यों चले जाते है। फिर ये लोग साथ क्यों नहीं रहते। यहां सब तो है। परंतु शायद मनुष्य का स्वभाव हम पशुओं के स्वभाव से थोड़ा भिन्न है, हम एक तो एक दूसरे का आधिपत्य मान कर जीते है। हमारे झूंड का एक मुखिया होना ही चाहिए। नहीं तो हम आपस एक जूट नहीं सकते। सब अपनी मन मर्जी चलाये तो शिकार कैसे होगा। इस लिए अपनी शारीरिक कमजोरी को पूरा करने के लिए आपने देखा हमें एक झुंड में रहते है। ताकि पूरे परिवार का पेट भरना थोड़ा सा आसान हो जाता था। अपने साथ-साथ उन छोटे बच्चों को भी देखना होता था। इसके अलावा झुंड के मुखिया या बुर्जुग जो अब शिकार नहीं कर सकते उस सब की जिम्मेदारी नव-युवकों और मुखिया के सर पर होती थी। 

ठीक इसी तरह से शाकाहारी प्राणी भी अपने को झुंड में सुरक्षित समझते है। तो ये चलन सदियों से जन्मों से इसी तरह से चलती चली आई है। परंतु आज साधन सुविधा ने मनुष्य को स्वयं निर्भर कर दिया है। वह खुद कमा सकता है इस लिए स्वार्थी भी हो गया है। खेर जो भी हो सब खुश है इस मैं तो अपने मम्मी पापा के साथ खुश हूं। बाकी अगर कोई साथ चले तो और आनंद परंतु चाहिए मात-पिता का साया।

 

भू.... भू..... भू.....

आज इतना ही।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें