परमात्मा आस्तित्व है—छठवां—प्रवचन
दिनांक 11 जुलाई 1973; प्रात:, माउंट आबू राजस्थान।
सूत्र:
सूत्र:
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षषि पश्यति
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 6।।
यच्छोत्रेण न शृणोति येन श्रोतमिद श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 7।।
यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राण: प्रणीयते।
केनोपनिषद प्रथम अध्याय
6
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती लेकि?न जो दृष्टि को देख पाता है—तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
7
जिसे कान नहीं सुन पाते लेकिन जो कानों को सुन पाता है—
तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
8
जिसे प्राण प्रगट नहीं कर पाते लेकिन जो प्राण को प्रगट कर पाता है—तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
यह सदी एक बड़ी विचित्र घोषणा से प्रारंभ हुई। और उस घोषणा को करने वाला फ्रेडरिक नीत्शे था। उसने कहा, ‘’परमात्मा मर गया है। और इसलिए आदमी पूर्णत: स्वतंत्र है।‘’ जब
यह घोषणा की गई थी तब यह बड़ी विचित्र मालूम पड़ी थी। लेकिन यह
भविष्यवाणी सही सिद्ध हुई। और धीरे—धीरे यह बात आधुनिक मन के लिए आधार
स्तंभ हो गई।
सचमुच आज के आदमी के लिए परमात्मा मर गया है। ऐसा नहीं है कि परमात्मा मर गया है; यदि परमात्मा मर जाए तो फिर कुछ भी जीवित नहीं रह सकता। क्योंकि परमात्मा से हमारा मतलब है, एक मूलभूत, शाश्वत
जीवन जो कि अस्तित्व की आधारशिला है। लेकिन आधुनिक मनुष्य के लिए
परमात्मा मर गया है। अथवा हम यूं भी कह सकते है कि आज का आदमी परमात्मा
की और मर चूका है। संबंध टूट चूका है। वह सेतु अब नहीं रहा। चाहे तुम
विश्वास करो, या न करो, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। तुम्हारा विश्वास भी बहुत उपरी है। वह बहुत गहरे नहीं जाता।
तुम्हारा
अविश्वास भी बहुत उपरी है। जब विश्वास ही ऊपरी है तो फिर अविश्वास गहरे
कैसे जा सकता है। जब आस्तिक ही बड़े थोथे है तो फिर नास्तिक भी बहुत
गहरे कैसे हो सकते है। जब हां का ही अर्थ खो गया है, तो फिर ना में क्या अर्थ हो सकता है? जो
भी अर्थ नास्तिक का होता है वह आस्तिक से ही आता है। जब ऐसे लोग हों जो
कि अपने पूरे अस्तित्व से परमात्मा को हां कह सकें तभी केवल ना का कुछ
अर्थ होता है; वह गौण है।
परमात्मा
मर गया है और उसके साथ ही अविश्वास भी मर चुका है। विश्वास मृत हो गया है
और उसके साथ ही अविश्वास भी मृत हो गया है। यह सदी और आज का आधुनिक मन एक
प्रकार से बड़ी ही विचित्र स्थिति में है। ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ।
ऐसे लोग थे जो कि आस्तिक थे, जो सचमुच में ही विश्वास करते थे कि परमात्मा है। ऐसे भी लोग थे जो कि पक्के नास्तिक थे, जो कि उतनी ही त्वरा से विश्वास करते थे कि परमात्मा नहीं है। लेकिन आधुनिक मन उदासीन है। वह चिंता नहीं करता कि परमात्मा है या नहीं; यह बात असंगत है। कोई परमात्मा के पक्ष में या विपक्ष में सिद्ध करने में रस नहीं लेता।
वास्तव में, यही
अर्थ है नीत्शे की घोषणा का कि परमात्मा मर गया है। तुम उसे इंकार करने की
भी परवाह नहीं करते। तुम उसके विरुद्ध तर्क भी नहीं करते। वह सेतु ही टूट
गया। हमारा उससे अब कोई सबंध नहीं रहा—न पक्ष में, न विपक्ष में। ऐसा क्यों हो गया है? क्यों ऐसी घटना आधुनिक मन के भीतर इतनी प्रगाढ़ हो गई है—यह उदासीनता? हमें इसके कारणों का पता लगाना चाहिए।
पहला
तो कारण यह है कि हम सदा से परमात्मा के बारे में एक व्यक्ति की तरह सोचते
रहे हैं। परमात्मा के बारे में एक व्यक्ति की तरह सोचना गलत है, असत्य है, और यह खयाल नष्ट हो जाना चाहिए यह विचार कि परमात्मा कोई व्यक्ति है, नियंता है, सर्जक है, पालनकर्ता है, यह
बात गलत है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। यह विचार हमारे मन के कारण ही
इतना महत्वपूर्ण हो गया है। जब भी हम किसी चीज के बारे में सोचते हैं तो
हम हमेशा उसके बारे में या तो किसी व्यक्ति की भांति सोचते हैं या फिर किसी
वस्तु की भांति सोचते हैं। केवल ये ही दो विकल्प हमारे लिए खुले होते हैं।
यदि कोई चीज है या तो वह वस्तु की भांति होनी चाहिए, या फिर व्यक्ति की भांति होनी चाहिए।
हम यह सोच भी नहीं सकते, कभी कल्पना भी नहीं कर सकते कि वस्तु और व्यक्ति दोनों किसी चीज के प्रगट रूप हैं—जो कि छिपी है। वही शक्ति वस्तु हो जाती है, वही शक्ति व्यक्ति हो जाती है, किंतु
वह शक्ति दोनों ही नहीं है। वह परमात्मा मर गया है जिसे व्यक्ति की तरह
समझा गया था। वह धारणा मृत हो गई है। और उस धारणा को मरना ही था, क्योंकि
व्यक्ति की तरह परमात्मा को सिद्ध नहीं किया जा सकता। एक व्यक्ति के रूप
में वह हमारी कोई समस्या नहीं सुलझा सकता। बल्कि इसके विपरीत वह और भी
समस्याएं खड़ी कर देता है। क्योंकि यदि परमात्मा है तो फिर जगत में इतनी
बुराई क्यों है? तो फिर वही इस बुराई को होने दे रहा है, वह जरूर इसके साथ सहयोग कर रहा है। तब वह एक बुरे व्यक्ति के रूप में आ जाता है।
आंद्रे गाइड ने कहीं पर कहा है, ''मेरे लिए यह कल्पना करना कि परमात्मा शभ है, मुश्किल है। लेकिन मैं यह —कल्पना कर सकता हूं कि वह बुराई है, बुराई की भाति है, शैतान की भांति है, क्योंकि संसार में इतनी बुराई है, इतना दुख है, इतनी यातना है, इतनी पीड़ा है। '' हम
विश्वास ही नहीं कर सकते की ईश्वर यह सारा कारोबार चला रहा है। जरूर कोई
शैतान इस सब का चलाने वाला होना चाहिए—कोई महाशैतान। ईश्वर तो जरूर शुभ
होना चाहिए, वरना कैसा ईश्वर है वह? एक बुनियादी अच्छी होनी ही चाहिए। लेकिन जैसा जगत हमको दिखलाई पड़ता है, उसके
हिसाब से तो परमात्मा अच्छाई की तरह नहीं हो सकता बल्कि दुष्टता की तरह
मालूम पड़ता है—कि वह बुराई के साथ खेल रहा है। और एक प्रकार से यह भी लगता
है कि वह इतने सारे दुख देकर तथा लोगों को सता कर आनंद ले रहा है।
यदि परमात्मा कोई व्यक्ति है तो फिर दो विकल्प बचते हैं : या तो वह कोई शैतान होना चाहिए, या फिर हमें इंकार करना पड़ेगा कि वह है। और दूसरा विकल्प ज्यादा अच्छा है। ईश्वर को एक व्यक्ति' की भांति मरना पड़ा क्योंकि यह कल्पना करना कि वह अच्छा है मुश्किल हो गया। लेकिन यह धारणा ही गलत थी, यह धारणा मनुष्य केंद्रित थी, 'एन्थोपोसेन्ट्रिक' थी। हमने परमात्मा की कल्पना एक सर्वोच्च व्यक्ति की भांति, एक अतिमानव, सुपरमैन
की भाति की थी। परमात्मा को भी हमारी ही तरह का एक बढ़ा दिखाया गया व्यक्ति
ही माना गया था। हमने सिर्फ मनुष्य का ही एक विकसित रूप दिखा दिया था।
बाइबिल में कहा गया है कि परमात्मा ने आदमी को अपनी शकल में बनाया, लेकिन
यह बात भी आदमी की ही कही हुई है। असली बात ठीक उल्टी है—आदमी ने परमात्मा
को अपनी शकल में निर्मित किया है। इस आदमी की प्रतिमूर्ति का जाना जरूरी
था। और अच्छा ही हुआ कि इस प्रकार का परमात्मा मर गया। क्योंकि इस धारणा के
खो जाने के बाद हम एक नई, ताजा खोज शुरू कर सकते हैं कि परमात्मा क्या है।
उपनिषद बिलकुल भिन्न हैं, वे कभी भी नहीं कहते कि परमात्मा कोई व्यक्ति है, इसलिए वे आज के आदमी के लिए संगत हैं। वे नहीं कहते कि परमात्मा कोई व्यक्ति है। वे कहते हैं कि परमात्मा अस्तित्व की आधारशिला है, न कि व्यक्ति। परमात्मा अस्तित्व है, न कि अस्तित्वगत है। यह भेद जरा सूक्ष्म है लेकिन इसे समझने की कोशिश करो।
एक वस्तु होती है, एक पुरुष होता है, एक स्त्री होती है, एक व्यक्ति होता है, लेकिन वे नष्ट हो सकते हैं। जो भी होता है वह नहीं भी हो सकता है। वह उसमें अंतर्निहित है। जो भी अस्तित्व में आ सकता है, वह अस्तित्व के बाहर भी जा सकता है। लेकिन अस्तित्व स्वयं विनष्ट नहीं हो सकता। इसलिए हम कह सकते हैं कि एक कुर्सी होती है, हम कह सकते हैं कि एक मकान होता है, क्योंकि उनका अस्तित्व विनष्ट हो सकता है। लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि परमात्मा होता है।
परमात्मा ही अस्तित्व है, ऐसा नहीं है कि परमात्मा का अस्तित्व है, परमात्मा अस्तित्व का ही पर्यायवाची है। वास्तव में, यह कहना भी कि परमात्मा है, यह भी पुनरुक्ति है। परमात्मा का अर्थ है, 'है'। यह भाषा ही गलत है कि परमात्मा है, क्योंकि होने का अर्थ ही है परमात्मा। परमात्मा का अर्थ ही होता है —है, होना। ऐसा कहना कि परमात्मा का अस्तित्व है, गलत है। परमात्मा ही अस्तित्व है; अथवा परमात्मा अस्तित्व का ही दूसरा नाम है। अस्तित्व कभी नहीं मरता है, कभी अस्तित्व के बाहर नहीं जाता है। रूप आते हैं, और जाते हैं; रूप बदलते रहते हैं। रूप के जगत में, आकृतियों के जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है। इसलिए उपनिषद कहते हैं कि नाम तथा रूप—ये ही संसार हैं, और जो कुछ भी नाम और रूप के परे है वही परमात्मा है। लेकिन क्या है नाम और रूप के परे? अस्तित्व स्वयं ही नाम तथा रूप के परे है।
उपनिषद परमात्मा को किसी व्यक्ति की भांति नहीं सोचते हैं, बल्कि एक अस्तित्व की भाति—अस्तित्व की आधारशिला की भांति, सोचते हैं। नाम और रूप के परे। क्या है नाम और रूप के परे न: इस मकान के चारों ओर वृक्ष हैं, वे हैं। इन वृक्षों के परे पहाड़ियां हैं, वे भी हैं। तुम यहां हो, तुम भी हो। इन वृक्षों में, इन पहाड़ियों में, तुम में, क्या चीज है जो कि समान है? रूप समान नहीं है; तुम्हारा रूप भिन्न है, वृक्षों का रूप अलग है, पहाड़ियों की आकृति बिलकुल अलग है। नाम भी समान नहीं है, रूप भी समान नहीं है। फिर क्या है समान? वह जो सामान्य तत्व है, वही है परमात्मा। तुम हो, वृक्ष हैं, पहाडियां हैं; यह होना, यह अस्तित्व समान है। बाकी हर चीज सांयोगिक है। सारभूत बात यह है कि तुम हो, वृक्ष हैं, पहाड़ियां हैं, अस्तित्व समान है। यह अस्तित्व ही परमात्मा है।
परंतु उपनिषद कभी लोकप्रिय नहीं हुए। वे कभी लोकप्रिय हो भी नहीं सकते, क्योंकि परमात्मा अस्तित्व है तो फिर तुम्हारे लिए सारा अर्थ ही खो जाता है—क्योंकि तब तुम अस्तित्व से अपना संबंध कैसे जोड़ोगे? यदि परमात्मा कोई व्यक्ति हो, पिता हो, मां हो, भाई हो, प्रेमिका हो, प्रेमी हो तो तुम संबंध जोड़ सकते हो, तुम किसी न किसी संबंध की कल्पना कर सकते हो। लेकिन अस्तित्व के साथ कैसे संबंध जोड़ोगे? अस्तित्व तो इतना शुद्ध है, इतना अमूर्त है! फिर तुम उससे प्रार्थना कैसे करोगे? फिर तुम उसे कैसे पुकारोगे? फिर तुम उसके समक्ष कैसे रोओगे और चिल्लाओगे? वहां कोई भी नहीं है।
मनुष्य
की इस कमजोरी की वजह से उपनिषद कभी भी लोकप्रिय नहीं हुए। वे इतने सत्य
हैं कि वे कभी भी बहुत लोकप्रिय नहीं हो सकते। सत्य को लोकप्रिय बनाना
करीब—करीब असंभव है क्योंकि आदमी का मन उसे जैसा वह है वैसा ही स्वीकार
नहीं करेगा। मनुष्य का मन केवल इतना ही सोच सकता कि यदि परमात्मा कोई
व्यक्ति है तो हम उससे संबंधित हो सकते हैं। इसलिए भक्ति की परंपरायें इतनी
लोकप्रिय होती रही हैं। कोई प्रार्थना कर सकता है, भक्ति में डूब सकता है, समर्पण कर सकता है। कोई है वहां जिसके प्रति वह यह सब कर सकता है, इसलिए यह बात इतनी आसान हो गई। तुम प्रार्थना कर सकते हो, तुम बात कर सकते हो, तुम संवाद कर सकते हो। वास्तव में, वहां कोई नहीं है, परंतु
तुम्हारे लिए यह बात सरल हो जाती है। यदि तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई
वहां है जो कि तुम्हारी प्रार्थना को सुन रहा है तो तुम्हारे लिए प्रार्थना
करना सरल हो जाता है।
कोई भी नहीं सुन रहा है.. सिर्फ अमूर्त अस्तित्व है जिसके पास न तो कान हैं सुनने के लिए, न आंखे हैं देखने के लिए, और
न हाथ हैं स्पर्श करने के लिए। लेकिन तब तुम्हारे लिए प्रार्थना करना कठिन
हो जाएगा। इस कठिनाई के कारण ही मनुष्य ने ईश्वर को एक व्यक्ति की तरह
सोचा। तब हर बात सरल हो जाती है, लेकिन हर बात गलत भी हो जाती है। एक तरफ सरल हो जाती है, लेकिन दूसरी तरफ सब बात गलत हो जाती है।
वैसा
ईश्वर मर गया है और अब उसे पुनर्जीवित करने का कोई उपाय भी नहीं है। कोई
उपाय नहीं है उसमें फिर से प्राण फूंके जायें और उसकी धड़कन को गति दी जाए।
वह वस्तुत: ही मर गया है। उस ईश्वर को जगत में वापस नहीं लाया जा सकता है।
हम उस जगह से, उस
क्षण से गुजर चुके। मनुष्य का मन ज्यादा प्रौढ़ हो गया है। परमात्मा के
प्रति बच्चों जैसा रुख पुन: नहीं आ सकता। लेकिन हम अभी भी उसके साये में जी
रहे हैं, अभी
भी हम वही सोच रहे हैं जो कि मर गया है। अभी भी हम उसके विषय में उन्हें
परिभाषाओं में सोच रहे हैं जो मुर्दा हो गई हैं। अभी भी हम उसके चित्र
बनाये जा रहे हैं यद्यपि सारे नाम और रूप खो चुके हैं।
अब
उपनिषद संगत हैं। पांच हजार वर्ष पहले वे अपने समय से आगे थे। जब यह
केनोपनिषद लिखा गया तो यह अपने समय से पूर्व था। अब समय आ गया है और अब इस
केनोपनिषद को समझा जा सकता है। उपनिषदों को समझा जा सकता है क्योंकि
परमात्मा अब व्यक्ति की तरह नहीं रहा। अब ईश्वर केवल एक अवैयक्तिक
अस्तित्व की तरह हो सकता है।
लेकिन इसमें कठिनाई आयेगी क्योंकि तब तुम्हें सब कुछ बदलना पड़ेगा। तुम्हारे धर्म का सारा ढांचा ही परिवर्तित करना पड़ेगा, क्योंकि केंद्र ही विलीन हो गया है। पुराने धर्म का केंद्र विलीन हो गया है, और एक नए केंद्र के साथ एक नए प्रकार का धर्म पैदा होगा—धर्म का एक नया ही रूप जन्मेगा।
इसलिए मेरा जोर ध्यान पर है, प्रार्थना पर नहीं। क्यों? क्योंकि प्रार्थना के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत होती है, ध्यान के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत नहीं है। तुम वहा बिना किसी व्यक्ति के हुए ध्यान कर सकते हो, क्योंकि ध्यान प्रार्थना नहीं है। वह किसी के प्रति नहीं किया जा रहा है। वह तो बिना किसी के वहां हुए तुम कर रहे हो, वह कोई संबंध नहीं है।
यदि
ईश्वर मर गया है तो प्रार्थना अर्थहीन हो गई। केवल ध्यान ही अर्थपूर्ण हो
सकता है। जब तुम प्रार्थना करते हो तो तुम किसी के प्रति प्रार्थना करते
हो। लेकिन जब तुम ध्यान करते हो तो तुम सिर्फ ध्यान करते हो। जब तुम
प्रार्थना करते हो तो प्रार्थना में दो होते हैं, वह द्वैत की बात है—एक तुम हो और एक दूसरा भी कोई होता है जिसके प्रति वह प्रार्थना की जा रही होती है। ध्यान अद्वैतवादी है; वहां दूसरा कोई नहीं है। वह संबंध जरा भी नहीं है, तुम अकेले हो। और जितना अधिक तुम इस अकेलेपन में उतरते हो, उतना ही तुम ध्यान में प्रवेश करते चले जाते हो।
ध्यान
का अर्थ है अकेले होने की सामर्थ्य। और न केवल अकेला होना बल्कि अकेले
होने का आनंद लेना। इतना अकेला होना कि दूसरा बिलकुल ही मिट जाए—कि दूसरा न
हो जाए। इतना अकेला होना कि तुम अपने भीतर गिरने लग जाओ। भीतर खाई पैदा हो
जाये और तुम उस खाई में गिरते ही चले जाओ। जब तुम अपने भीतर गिर जाते हो
तो देर—अबेर आकृति खो जाएगी, नाम भी खो जाएगा, क्योंकि
वे सिर्फ ऊपरी सतह पर ही होते हैं। जितने गहरे तुम डुबकी लगाते हो उतने ही
तुम परमात्मा के निकट होते हो। क्योंकि परमात्मा अस्तित्व की भांति है, व्यक्ति की भांति नहीं।
तो यही भेद है। यदि तुम प्रार्थना करते हो तो परमात्मा बाहर है, और वह परमात्मा मर गया है। अब वह बाह्य परमात्मा नहीं रहा। तुम उसके विषय में सोचते रह सकते हो कि वह कहीं स्वर्ग में है, कि आकाश के पार है, लेकिन तुम्हें भी लगेगा कि यह बात बड़ी बचकानी है। वहां कोई भी नहीं है। वैसा ईश्वर प्रत्येक निवास से भागता रहा है।
एक समय ऋग्वेद के जमाने में वैसा परमात्मा हिमालय में रहता था, क्योंकि हिमालय में पहुंचा नहीं जा सकता था। वह कैलाश पर्वत पर रहता था। लेकिन आदमी वहां भी पहुंच गया, इसलिए
वह वहा से भागा और भागकर ऐसी जगह पहुंच गया जहां कि अब नहीं पाया जा सके।
फिर उसने अपना घर चांद—तारों पर बनाया। लेकिन आदमी चांद पर भी पहुंच गया, और अब वह वहां भी नहीं है। आज नहीं कल आदमी सब जगह पहुंच जाएगा और ईश्वर कहीं भी नहीं मिलेगा क्योंकि वह आखिर कहां छिप सकता है? अब कोई भी जगह ऐसी नहीं है जो कि पहुंच के बाहर हो, अथवा
सब जगह पहुंचा जा सकेगा। अब कोई स्थान उसके छिपने के लिए नहीं बचेगा। अब
यह धारणा और आगे नहीं चल सकती। ईश्वर को व्यक्ति की तरह नहीं पाया जा सकता।
और यह अच्छा ही है क्योंकि अब तुम प्रार्थना से हट कर ध्यान पर आ सकते हो।
प्रार्थना सच में बचकानी बात है। एक तरह से वह रुग्ण बात है, क्योंकि
तुम ईश्वर को अपनी ही कल्पना के अनुसार बनाते हो और फिर उसकी प्रार्थना
करते हो। और तुम इतने भ्रांतिपूर्ण हो सकते हो कि तुम स्वयं ही अपनी
प्रार्थना का उत्तर भी परमात्मा की तरफ से देने लग सकते हो। तब तुम सचमुच
ही विक्षिप्त हो गए। तब तुम अपने होश में नहीं हो। तुम ऐसा कर सकते हो; बहुत से लोगों ने ऐसा किया है, और वे बड़े संत माने जाते हैं। वे रुग्ण लोग थे, क्योंकि ईश्वर के साथ सिर्फ मौन ही संभव है। जब तुम गौन होते हो तो तुम किसी और से संबंधित नहीं हो सकते, तुम अपने ही भीतर चले जाते हो। फिर परमात्मा एक भीतर की शक्ति हो जाता है। वह अब कोई बाहरी व्यक्ति नहीं रहा; अब वह आंतरिक शक्ति हो गया।
प्राचीन भारतीय साहित्य में एक सुंदर कहानी है :
ऐसा
कहा जाता है कि ईश्वर ने संसार को बनाया और फिर वह इस पृथ्वी पर रहने लगा।
यह संसार उसी का बनाया हुआ था इसलिए उसे इसमें आनंद आया और वह आदमी, पशुओं, वृक्षों के साथ रहने लगा। लेकिन वह बड़ी मुसीबत में पड़ गया, क्योंकि सारे दिन उसे परेशान किया जाने लगा, रात भी चैन से नहीं सो सकता था। लोग शिकायतें करते रहते थे कि यह गलत है, वह गलत है, आपने ऐसा क्यों किया, आप इसे ऐसा क्यों नहीं करते? प्रत्येक आदमी आता और अपनी सलाह और सुझाव देता।
ईश्वर इतना परेशान और तंग हो गया कि उसने अपने मुख्य देवताओं तथा मंत्रियों की एक सभा बुलाई और उनसे कहा, ''ऐसी जगह खोजो जो कि मेरे अपने सृजन से दूर हो, जहा
कि मैं छिप सकु क्योंकि या तो ये लोग मुझे मार डालेंगे या फिर मैं
आत्महत्या कर लूंगा। हर क्षण ये मुझे सलाह देने चले आते हैं और कहते हैं—यह
करो, वह करो; यह गलत है, वह नहीं किया जाना चाहिए; और इनकी रायें भी इतनी एक—दूसरे से विरोधी हैं कि यदि मैं इनकी मानूं तो भारी गड़बड़ हो जायेगी।''
तो किसी ने सुझाव दिया, ''आप हिमालय चले जायें। आप गौरीशंकर पर्वत पर, एवरेस्ट पर छिप जायें।
ईश्वर ने कहा, ''लेकिन तुम आगे की नहीं देखते हो। कोई तेनसिंह, हिलेरी वहां भी आ जायेंगे, और सिर्फ थोड़े ही घंटों का सवाल है। '' ईश्वर के लिए तो थोड़े ही घंटों की बात है, इसलिए उसने कहा, ''इससे कुछ भी नहीं होगा। ''
तब फिर किसी ने सुझाव दिया, ''आप चांद पर चले जायें।''
ईश्वर ने कहा, ''लेकिन तुम्हें पता नहीं कुछ मिनटों के बाद आदमी वहां भी पहुंच जायेगा। ''तब एक का मंत्री खड़ा हुआ और उसने आकर धीरे से ईश्वर के कान में कहा, ''अच्छा होगा कि आप आदमी के भीतर ही छिप जायें। वहां वह कभी भी घुसने की कोशिश नहीं करेगा। ''और ऐसा कहा जाता है कि ईश्वर ने उसका सुझाव मान लिया, और उस क्षण के बाद उसे किसी ने परेशान नहीं किया।
अब समय आ गया है कि उसे वहां भी परेशान होना पड़े। और ध्यान से ही तुम वहां प्रवेश कर सकते हो, न कि प्रार्थना से। क्योंकि तुम्हारी प्रार्थना सोचती है कि वह कहीं गौरीशंकर पर अथवा चंद्रमा पर अथवा कहीं और है; प्रार्थना सदा उसे कहीं बाहर खोजने में लगी रहती है। ध्यान इस धारणा को पूरी तरह मिटा देता है कि वह कहीं बाहर है, अथवा उससे प्रार्थना की जा सकती है, अथवा उससे बात—चीत की जा सकती है, अथवा उससे संबंध जोड़ा जा सकता है। नहीं, सिर्फ तुम अपने भीतर प्रवेश कर सकते हो। और जितने गहरे तुम भीतर उतरते हो, उतने
ही गहरे तुम उसमें उतरते जाते हो। लेकिन यह मिलन मौन में होगा क्योंकि वह
दूसरा नहीं है। वह तुम ही हो। वह तुम्हीं होकर तुममें छिपा है।
यदि तुम मेरी बात समझ रहे हो, यदि तुम प्रार्थना और ध्यान में अंतर समझ सकते हो—ईश्वर एक व्यक्ति की भांति, और ईश्वर एक अस्तित्व की भाति—तो इस सूत्र को समझना आसान होगा:
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती लेकिन जो दृष्टि को देख पाता है— तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती
यदि वह बाहर है तो तुम उसे देख सकते हो; तब दृष्टि उसे देख पाने में असफल नहीं हो सकती। तब फिर मार्ग और विधियां खोजी जा सकती हैं; और तुम उसे देख सकते हो यदि वह बाहर है। लेकिन वह वहां नहीं है। इसीलिए यह सूत्र कहता है :
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती
तुम उसे नहीं देख सकते, उसे देखने का कोई रास्ता नहीं है। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम उसे नहीं देख सकते। लेकिन लोगों ने उसे देखा है, फिर उनके लिए क्या कहें? उनके लिए क्या सोचें? उन्होंने देखा है।
ऐसे
ईसाई संत हुए हैं जिन्होंने कहा कि हमने जीसस को हमारे सामने खड़ा हुआ देखा
है। ऐसे हिंदू भक्त हुए हैं जिन्होंने कहा कि हमने कृष्ण को बांसुरी बजाते
देखा है। ऐसी बहुत—सी घटनाएं घटी हैं सारी दुनिया में। कोई उसे राम की
भांति देखता है, कोई उसे कृष्ण की भांति देखता है, किसी ने जीसस की तरह से देखा है, किसी ने मेरी की तरह देखा है, और वे देखते ही चले जाते हैं। और यह उपनिषद कहता है
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती......
तब
फिर वे लोग कोरी कल्पना ही कर रहे होंगे। सुंदर कल्पना! बहुत गहरी तृप्ति
देने वाली! जब तुम जीसस को अपने सामने खड़े हुए देखते हो तो तुम एक गहरी
तृप्ति से भर जाते हो, बहुत गहरे संतोष को पा लेते हो। लेकिन यह भी सपना ही है, सुंदर है पर सपना ही है। ऐसा स्वप्न जो तुमने निर्मित किया है; ऐसा स्वप्न जिसकी तुमने कामना की थी, जिसे तुमने देखने की चाह की थी। और जिसे भी तुम देखना चाहते हो तुम उसे देखने में समर्थ हो, क्योंकि
मनुष्य का मन समर्थ है किसी भी कल्पना को निर्मित करने में और उसे साकार
रूप देने में। यह मनुष्य के मन की क्षमता है। तुम एक सपना निर्मित कर सकते
हो और उसे साकार रूप भी दे सकते हो।
निश्चित ही, वह सिर्फ तुम्हारे ही लिए वास्तविक होगा, किसी
और के लिए नहीं। इसलिए जब तुम जीसस को देखो तो तुम उन्हें दूसरों को नहीं
दिखा सकते। यदि तुम्हारे मित्र कहें कि हमें भी तुम्हारे स्वप्न को दिखाओ
तो तुम कुछ भी नहीं कर सकते। तुम कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि स्वप्न का एक
विशेष गण यह होता है कि उसमें किसी को भी सहभागी नहीं बनाया जा सकता। तुम
अपना सपना देख सकते हो, मैं अपना सपना देख सकता हूं लेकिन तुम मेरे सपने में प्रवेश नहीं कर सकते, मैं तुम्हारे सपनों में प्रवेश नहीं कर सकता। सपना सर्वाधिक निजी बात है संसार में। हर चीज को सार्वजनिक बनाया जा सकता है, लेकिन सपनों को सार्वजनिक नहीं बनाया जा सकता। चाहे तुम अपने मित्र को, अपनी पत्नी को, अपने पति को कितना ही प्रेम करते होओ, चाहे तुम कितने ही निकट क्यों न हो, तुम एक—दूसरे के सपनों में प्रवेश नहीं कर सकते। सपना निजी ही रहता है।
और यही बात ऐसे दर्शनों के लिए भी सही है। जैसे तुम जीसस को देख रहे हो, कोई अन्य इस अनुभव को तुमसे नहीं बांट सकता। तुम उनके साथ सड़क पर चल रहे हो, लेकिन बाकी सब लोग तुम्हें अकेले ही चलते हुए देखेंगे; वह तुम्हारा अपना निजी कल्पित स्वप्न है। मैंने एक घटना के बाबत सुना है। एक बार ऐसा हुआ :
एक सुंदर युवा लड़की ने स्वप्न में देखा कि एक राजकुमार घोड़े पर चढ़ कर आया, उसने उसे ऊपर उठाया, उसका गहरा चुंबन लिया, और फिर उसे घोड़े पर बिठा कर ले गया। घोड़ा तेजी से दौड़ रहा था और तब उस लड़की ने राजकुमार से पूछा, ''तुम मुझे कहां लिए जा रहे हो? यह तो बताओ, तुम मुझे कहां ले जा रहे हो? '' उस राजकुमार ने कहा, ''यह तुम्हारा सपना है। तुम्हीं बताओ। सपना तुम्हारा है, तुम्हें ही बताना होगा कि मैं कहां ले जा रहा हूं। तुम मुझे बताओ! ''
जब
तुम जीसस या कृष्ण को सामने देखते हो तो वास्तव में होता यह है कि तुम
अपने मन को दो भागों में बांट लेते हों—एक जो कि भक्त बन गया होता है, और दूसरा जो कि ईश्वर हो जाता है। और यदि तुम पूछो कृष्ण से कि तुम मुझे कहा ले जा रहे हो? तो वह कहेंगे कि यह तुम्हारा सपना है, तुम्हीं मुझे बताओ!
लेकिन
जब मैं तुम्हें कह रहा हूं कि यह सपना है तो मैं कोई इसकी निंदा नहीं कर
रहा हूं। मैं सिर्फ तथ्य की बात कर रहा हूं। सपना सुंदर है। तुम उसका आनंद
ले सकते हो! उसमें कुछ भी गलत नहीं है। सपने का, एक सुंदर सपने का आनंद लेने में गलत हो भी क्या सकता है? तुम उसका आनंद ले सकते हो। समस्या तो तब खड़ी होती है जब तुम उसे सत्य समझने लगते हो। तब तुम खतरनाक रास्ते पर चलने लगे; तब सजग हो जाओ। मन कुछ भी प्रक्षेपित कर सकता है।
किसी
भी पागलखाने में जाओ और देखो। वहां तुम प्रत्येक को किसी न किसी से बातें
करते हुए देखोगे जो कि वहां मौजूद नहीं है। प्रत्येक बात कर रहा है और जवाब
भी दे रहा है। वहां हर आदमी दो में बंट गया है। वे लोग स्वप्न देखते ही
रहते हैं, वे प्रक्षेपणों को देखते रहते हैं। और वे प्रक्षेपण उन्हें इतने सत्य प्रतीत होते हैं कि हमें उन लोगों को पागलखाने में रखना पड़ता है, क्योंकि अब इन लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। उनका वास्तविकता से संबंध छूट गया है, और अब वे सिर्फ स्वप्न के संसार से जुड़े हुए हैं।
पागल आदमी का इतना ही अर्थ है कि उसका वास्तविकता से संबंध छूट गया, तथ्य से कोई संबंध नहीं रहा; केवल उसका अपनी कल्पना से संबंध है। वह अपने ही निजी संसार में रहता है। वह तुम्हारे साथ इस संसार में नहीं जीता; वह
उसका हिस्सा नहीं है। और तुम एक पागल आदमी को विश्वास नहीं दिला सकते कि
वह गलत है। यह बात असंभव है। वह तुम्हारी समझ को गड़बड़ा सकता है, लेकिन तुम उसे भ्रम में नहीं डाल सकते। और यदि तुम लंबे समय तक किसी पागल आदमी के साथ रहो तो तुम भी पागल हो सकते हो।
मैंने सुना है कि एक बार ऐसा हुआ :
एक बादशाह पागल हो गया। उसे शतरंज खेलने का बड़ा शौक था, अत:
किसी मनोवैज्ञानिक ने सलाह दी कि यदि कोई शतरंज का बहुत बड़ा खिलाड़ी उसके
साथ शतरंज खेले तो उसका दिमाग तनावरहित हो सकता है। वह बादशाह अभी भी शतरंज
का शौक रखता था। सारा संसार उसके लिए मिट गया था, केवल शतरंज ही उसके और वास्तविक संसार के बीच एकमात्र सेतु था। अत: एक बहुत बड़े शतरंज के खिलाड़ी को बुलाया गया, और
उसने उस बादशाह के साथ शतरंज खेलना शुरू किया। एक साल तक यह चलता रहा। वह
आदमी उस पागल बादशाह के साथ शतरंज खेलता रहा। और अंत में यह हुआ कि वह
बादशाह तो ठीक हो गया, लेकिन वह शतरंज का खिलाड़ी पागल हो गया। बादशाह वापस अपनी पुरानी स्थिति में आ गया, लेकिन वह बेचारा शतरंज का खिलाड़ी पागल हो गया।
यदि तुम किसी पागल आदमी के साथ एक साल तक रहो तो तुम्हारे लिए पागल न होना मुश्किल होगा। वह तुम्हें बुरी तरह भ्रमित कर देगा, लेकिन तुम उसे भ्रमित नहीं कर सकते, वह उसके पार है। तुम उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते क्योंकि वह अपनी ही निजी दुनिया में रहता है, और
तुम उसकी इस निजी दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकते। उसके निजी संसार में
प्रवेश करना असंभव है। और तुम उसको समझा भी नहीं सकते कि वह गलत है। गलत और
सही, सच और झूठ, ये सारे भेद वास्तविक दुनिया के हैं। स्वप्न के संसार में न कुछ गलत है न कुछ सही है। जो भी है, वह अपने आप में सही है; सिर्फ वहा होने मात्र से ही वह सही है।
धार्मिक विक्षिप्तताएं हैं, और धर्म निरपेक्ष विक्षिप्तताएं हैं। जो लोग पागल हो जाते हैं, वे
दो प्रकार के हैं—धर्म—निरपेक्ष तथा धार्मिक। जब तुम धार्मिक ढंग से पागल
होते हो तो लोग तुम्हारी इज्जत करते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि तुमने कुछ
उपलब्ध कर लिया है। अत: याद रखो कि धर्म—निरपेक्ष रूप से पागल मत होना; सदैव
धार्मिक ढंग से ही पागल होना। तब फिर लोग तुम्हारा सम्मान करेंगे—लेकिन
सिर्फ पूर्व में। अब पश्चिम में यह बात नहीं रही। चाहे कोई भी ढंग हो, वे तुम्हें पागल ही कहते हैं।
जब कभी तुम वास्तविकता को अपने मन के माध्यम से प्रक्षेपित करते हो तो तुम अपने चारों ओर एक भ्रम पैदा करते हो, और तब तुम देखते हो। लेकिन उपनिषद इतने ज्यादा वास्तविक हैं, वे कहते हैं तम देख ही नहीं सकते है। जिसे दृष्टि नहीं देख पाती लेकिन जो दृष्टि को देख पाता है...
तुम आंखों से उसे नहीं देख सकते, लेकिन वह तुम्हारी आंखों को देख सकता है, क्योंकि वह तुम्हारे पीछे छिपा है। तुम्हारी आंखें उसके सामने हैं। वह तुम ही हो; वह तुम्हारी आंखों को देख सकता है। लेकिन तुम उसे आंखों से नहीं देख सकते। वह तुम्हारी सारी इंद्रियों के पीछे छिपा है, वह तुम्हारी इंद्रियों को तो देख सकता है।
यदि
तुम ध्यान में गहरे जाओ तो तुम अपने शरीर के आंतरिक केंद्र को देख सकते
हों—भीतर की दीवार को देख सकते हो। यह एक बड़ी विचित्र घटना रही है, क्योंकि
पश्चिम में केवल अभी तीन सौ वर्ष से ही चिकित्सा—विज्ञान शरीर के आंतरिक
ढांचे को जान पाया है—और वह भी काट—पीट करके। शरीर को काट कर, शरीर का विश्लेषण कर, पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान शरीर के भीतरी ढांचे को जान पाया है।
लेकिन
यह एक विचित्र घटना रही है। योगी तथा तांत्रिक लोग उसे सदा से जानते रहे
हैं। और उन्होंने कभी भी शरीर को काटा नहीं। वे जानते हैं कि कितनी नाडिया
हैं। उन्होंने पूरी तरह जाना है कि सारा भीतरी शरीर किस तरह काम करता है
लेकिन उन्होंने कभी कोई शरीर काटा—पीटा नहीं। वे कोई शल्य—चिकित्सक नहीं
थे। कैसे उन्होंने इस सबके विषय में जाना? उन्होंने
उसके बारे में एक बिलकुल ही भिन्न तरीके से जाना। वे भीतर इतने
ध्यानपूर्वक मौन हो गये कि वे उस मौन में अपने शरीर से अलग हो गए वे भीतर
सिर्फ एक सजगता ही बच गए। तब उन्होंने देखा कि भीतर क्या है।
हम
अपने शरीर को सिर्फ बाहर से ही जानते हो। यह बड़ी अजीब बात है क्योंकि तुम
रहते तो भीतर लेकिन फिर भी तुमने उसका भीतर से अवलोकन नहीं किया। यह ऐसे ही
है जैसे तुम एक घर में रहो और—तुम उसके चारों तरफ ही चक्कर लगाते रहो और उसको भीतर से कभी भी नहीं जानो कि वह भीतर से कैसा दिखाई पड़ता है। तुम्हारे शरीर की दो सतहें हैं। एक तो बाहरी सतह है, जिसका हमें पता है क्योंकि हम उसे आंखों से देख सकते हैं, हत्थों से स्पर्श कर सकते हैं। फिर एक भीतर की सतह है शरीर की जिसके लिए आंखों और हाथों का उपयोग नहीं किया जा सकता।
यदि तुम सजग और शांत हो जाओ, अलग हो जाओ, तो तुम आंतरिक सतह को जान सकोगे। तब तुम अपनी आंखों को देख सकते हो, तब तुम अपने कानों को सुन सकते हो, तब तुम अपने हाथों को स्पर्श कर सकते हो, और तब तुम अपने शरीर को जान सकते हो। किंतु तुम्हारा शरीर तुम्हें नहीं जान सकता। यही बात यह सूत्र कहता है :
जिसे
दृष्टि नहीं देख पाती लेकिन जो दृष्टि को देख पाता है—तू जान कि वही
एकमात्र ब्रह्म है और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
सिवाय तुम्हारे शरीर के, कोई
मंदिर प्रवेश करने और खोजने योग्य नहीं है। कोई मस्जिद और कोई चर्च नहीं
है जहां ईश्वर रहता है। वह तुम्हारे ही भीतर रहता है। यदि तुम प्रवेश कर
सको, और लौट कर वापस अपनी चेतना के केंद्र पर आ सको, तो तुम जानोगे कि वही एकमात्र ब्रह्म है—जो कि आखिरी, आत्यंतिक है, वस्तुत: सत्य है, वास्तविक अस्तित्व है। और उसके शिकार मत हो जिसे यहां लोग पूजते हैं। लोग अपनी ही कल्पना की पूजा करते रहते हैं।
लोग अपने ही द्वारा निर्मित चीजों को पूजते रहते हैं। फिर फैशन बदल जाते हैं, और उनके साथ लोगों की कल्पना बदल जाती है। फिर तुमको मूर्तियां बदलनी पड़ती हैं, नई प्रतिमायें, पूजा के नए स्थान बनाने पड़ते हैं। इसी कारण पृथ्वी पर इतने सारे धर्म हैं, अन्यथा यह बेतुका है। कैसे इतने सारे धर्म हो सकते हैं। यदि सत्य एक है तो फिर इतने सारे धर्म कैसे हो सकते हैं? विज्ञान एक है, फिर धर्म एक क्यों नहीं है? ईसाई विज्ञान, हिंदू विज्ञान, मुस्लिम विज्ञान ऐसा क्यों नहीं है?
यह संभव नहीं है क्योंकि विज्ञान तथ्यों पर काम करता है। और यदि आप तथ्य पर काम करते हैं तो विज्ञान एक ही हो सकता है, क्योंकि तथ्य कोई निजी नहीं होता। यदि तुमने कोई तथ्य जाना है तो प्रत्येक को उसको स्वीकार करना होता है, दूसरा
कोई मार्ग नहीं है। तुम उसे इंकार नहीं कर सकते। और यदि तुम विज्ञान को
इंकार करते हो तो उससे तुम्हारा ही अहित होगा। यदि भौतिकशास्त्र किसी नियम
को जान पाता है, तो तुम नहीं कह सकते, ''मैं तो भारतीय हूं मैं इस' नियम को नहीं मान सकता जो कि इंग्लैंड में खोजा गया है। मैं कैसे एक अंग्रेज आदमी अथवा एक चीनी आदमी का अनुसरण कर सकता हूं? हम अलग— अलग देश के लोग हैं; हमारी संस्कृतियां भिन्न—भिन्न हैं। '' तुम ऐसा नहीं कह सकते। एक भौतिकी नियम, भौतिकी नियम है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है कि उसे कौन खोजता है। एक बार खोज लिया गया तो वह फिर सारे विश्व का हो गया।
विज्ञान एक है, लेकिन धर्म क्यों एक नहीं है? यदि वह भी आत्यंतिक नियम है तो वह भी एक होना चाहिए, विज्ञान से ज्यादा एक होना चाहिए क्योंकि विज्ञान तो सिर्फ बाहरी तथ्यों की खोज है, धर्म आंतरिक सत्यों की खोज है। फिर ऐसा क्यों होना चाहिए? तीन सौ धर्म हैं, यह कैसे संभव हो सकता है?
ये तीन सौ धर्म हैं झूठे सपनों के कारण, न कि सत्य के कारण। वे तुम्हारे सृजनों के कारण हैं, न
कि तुम्हारी वास्तविक जानकारी के कारण। तुम अपनी पूजा का ढंग अपने आप
निर्मित करते हो। तुम स्वयं अपने—अपने मंदिर बनाते हो। तुम्हारे धर्म एक
कलात्मक सृजन हैं, न कि वैज्ञानिक प्रतीतिया हैं—कलात्मक रचनाएं हैं। तुम अपने धर्म को एक रंग दे देते हो, और
तुम अपने बनाए चित्रों को चाहने लग जाते हो और तुम यह कभी नहीं सोच सकते
कि दूसरा कोई भी चित्र तुम्हारे अपने चित्र से अच्छा हो सकता है। तुम उसे
चाहते हो, इसलिए तुम लड़ते चले जाते हो कि तुम्हारा चित्र ही सर्वोच्च है, दूसरा
कोई भी ऐसा चित्र नहीं बना सकता। बाकी सब दोयम है। यदि तुम अच्छे आदमी हुए
तो तुम दूसरों के चित्रों को सहन कर सकते हो। तुम दूसरों के चित्रों को
ज्यादा से ज्यादा स्वीकार कर सकते हो, अपना बड़प्पन जताते हुए, कि वे लोग थोड़े मूर्ख एवं मूढ़ हैं। थोड़ा ठहरो वे भी सही बात पर आ जायेंगे।
ईसाई प्रतीक्षा करते रहते हैं कि हिंदुओं को आखिर समझ आ जाएगी, और
वे ईसाई हो जायेंगे। हिंदू लोग भी इस इंतजार में हैं कि ये मूर्ख ईसाई
किसी न किसी दिन लौट कर हिंदू हो जाएंगे। आखिर सत्य से कब तक बचेंगे? और जैन लोग हैं, वे सोचते हैं कि ये सारे हिंदू और ईसाई झूठे गुरुओं का, कृष्ण या क्राइस्ट का अनुकरण कर रहे हैं। लेकिन आखिर लंबे अरसे तक ये लोग झूठे गुरुओं का अनुगमन भी कब तक करेंगे; किसी न किसी दिन तो ये सही गुरु महावीर के पास आ ही जायेंगे। अंततः ये लोग महावीर का अनुगमन करेंगे ही।
प्रत्येक आदमी भीतर यही सोचता रहता है कि वह सही है, और बाकी सब लोग गलत हैं।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जनसाधारण के लिए धर्म एक कल्पना की बात है। उनकी अपनी कल्पनायें हैं; उन्होंने अपने संसार स्वयं रंग लिए हैं। उसमें कोई बुराई भी नहीं है। तुम अपना घर अपनी ही पसंद से सजाते हो, यह ठीक भी है। कौन है जो कहेगा कि यह बात गलत है? यह कहने का हक किसी को नहीं है। तुम अपनी पसंद के अनुसार अपना घर सजाते हो, लेकिन
तुम सजावट के लिए किसी से लड़ते नहीं। तुम ऐसा तो नहीं कहते कि मेरी सजावट
आखिरी सत्य है। प्रत्येक आदमी को अपने अनुसार अपना घर सजाने का हक है।
यही बात तुम अपने मन के साथ भी करते हो। तुम उसे भी अपनी आकृतियों से, पूजा से, प्रार्थना से, अपनी बाइबिल से, अपनी गीताओं से सजाते रहते हो। तुम अपने आंतरिक जगत को सजाते चले जाते हो, और फिर तुम उसके हिस्से हो जाते हो और उसी में रहने लगते हो। यही भांति है।
यह सूत्र कहता है कि वही एकमात्र ब्रह्म है जिसे कि तुम इंद्रियों का अतिक्रमण करने के बाद जान सकते हो; जबकि तुम इंद्रियों के पीछे चले जाते हो, और जब तुम आंखों को भी देखते हो, जब तुम कानों को भी सुनते हो, और जब तुम हाथों को भी भीतर से स्पर्श करते हो।
.. तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
जिसे कान नहीं सुन पाते लेकिन जो कानों को सुन पाता है— तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; ओर वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं
जिसे प्राण प्रगट नहीं कर पाते लेकिन जो प्राण को प्रगट कर पाता है— तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं
सारे मंदिर, सारी मस्जिदें, सारे
गिरजे झूठे हैं। मैं उनकी कोई निंदा नहीं कर रहा हूं मैं सिर्फ एक तथ्य की
बात कह रहा हूं। वे झूठे हैं क्योंकि वे सब हमारी कल्पनाओं की कृतियां
हैं। और मैं यह नहीं कहता कि उनको नष्ट कर दो। मैं कहता हूं कि उनका भी
आनंद लो। लेकिन ऐसा मत सोचना कि यह आनंद लेना तुम्हें उस आत्यंतिक तक ले
जाएगा। इन निर्माणों का रस लो। यह खेल अच्छा है, इसमें कुछ भी तो बुरा नहीं है। लोग सिनेमा देखने जाते हैं, लोग नृत्य—घरों में जाते हैं। फिर उन्हें इस धार्मिक—कल्पना का आनंद लेने से क्यों रोका जाए? उन्हें अपने मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों में जाने देना चाहिए—वे इसके लिए स्वतंत्र हैं। और यह एक तरह से अच्छा ही है कि कोई धार्मिक कल्पना हो, बजाय कुछ भी न होने के। लेकिन ऐसा मत सोचना कि तुम वहां ब्रह्म को जान लोगे। नहीं, तुम नहीं जान सकते। वह वहां है ही नहीं, इसलिए तुम कुछ भी नहीं कर सकते। तुम अपना आनंद ले सकते हो, तुम अपनी कल्पना का आनंद ले सकते हो, तुम्हारे सपनों के संसार में विचरण कर सकते हो।
अगर यह बात समझ में आ जाए तो मंदिर हो सकते हैं। वे सुंदर कलाकृतियां हैं लेकिन उनमें ही खो ही जाओ। वहा जरूर जाओ, लेकिन वहा खो मत जाओ। इसे सतत स्मरण रखो कि जिसे भी लोग यहां पूजते हैं, वह असली ब्रह्म नहीं है, क्योंकि
असली ब्रह्म तो पूजा करने वाले के भीतर ही छिपा है। इसी बात पर सारा जोर
है। जब मैं पूजा करता हूं तो एक मैं हूं और एक वह वस्तु है जिसकी मैं पूजा
करता हूं। ब्रह्म कहां है? उस वस्तु में अथवा पूजा करने वाले में? उपनिषदों का जोर पूजा करने वाले पर है, न कि पूजा की विषयवस्तु पर, क्योंकि वह वस्तु तो गौण है; वह तो पूजा करने वाले ने निर्मित की है। जो मूल्य उसे तुम देते हो वह तो तुम्हारे द्वारा प्रक्षेपित किया गया है, तुमने ही वह मूल्य दिया है। वह तुम्हारी ही उस वस्तु को दी गई भेंट है।
तुम एक गोल पत्थर कमरे में रखवा सकते हो और तुम उसकी शिव की भांति, शिवलिंग समझकर पूजा कर सकते हो। और यह पत्थर हजारों वर्षों से रास्ते में पड़ा था, अथवा
नदी के घाट पर पड़ा था। किसी ने उसकी पूजा नहीं की। किसी ने नहीं सोचा कि
वह शिव है। नदी ने कभी कोई परवाह नहीं की। पशु वहां से गुजरे, उन्होंने कभी उसकी ओर नहीं देखा और अचानक तुम उस पत्थर को बदल देते हो। अचानक वह पत्थर पूजा की वस्तु बन गया, पवित्र हो गया, और
अब उसे कोई स्पर्श भी नहीं कर सकता है। और पहले लोग उसके ऊपर से पाव रखकर
गुजरते रहे। उनके पांव सदियों से उसे छूते रहे। अब अचानक तुम उसका एक मंदिर
बना देते हो। तुम उस पत्थर को वहां स्थापित कर देते हो, तुम कहते हो, ''यह शिवलिंग है, कि यह शिव—देवता का प्रतीक है, '' फिर और तुम उसकी पूजा करने लगते हो, और तुम बहुत अच्छा महसूस करने लगते हो।
इस सबमें कुछ भी बुरा नहीं है। पत्थर सुंदर है, और यदि तुम्हें उसमें आनंद आ रहा है, तो आनंद अवश्य लो। लेकिन स्मरण रहे कि पत्थर सिर्फ पत्थर है, और शिव तुम्हारे ही सृजन हैं, तुमने ही उन्हें निर्मित किया है। तुमने ही उन्हें प्रक्षेपित किया है, तुमने ही पत्थर को शिव में परिवर्तित कर दिया है।
ईश्वर को तुमने निर्मित कर लिया है; और पत्थर को इस बात का पता भी नहीं है। और अगर वह पत्थर यह सब देख पाए तो उसे भी हंसी आएगी और वह भी सोचेगा, ''यह आदमी पागल हो गया है। क्या कर रहे हो यह, मेरी पूजा कर रहे हो? '' पूजा करने वाला ही पूजा की वस्तु को निर्मित करता है। भक्त भगवान को निर्मित करता है।
उपनिषद
कहते हैं कि तुम वहां वास्तविक ब्रह्म को नहीं पाओगे : तुम सिर्फ अपनी ही
कल्पना को वहां पाओगे। अच्छा हो कि तुम पूजा करने वाले के भीतर प्रवेश करो।
पूजा की जाने वाली वस्तु को भूलो, और यह जानने का प्रयत्न करो कि यह पूजा करने वाला कौन है—यह कौन है जो कि पूजा कर रहा है? कौन है यह जो कि प्रार्थना कर रहा है? कौन है यह जो कि मंदिर जा रहा है? और यदि तुम यह खोज सको कि कौन है यह जो कि पूजा करता है तो तुमने ब्रह्म को पा लिया।
मैंने सुना है :
एक बार एक झेन गुरु हुआ पो उपदेश दे रहा था। अचानक एक आदमी उठ खड़ा हुआ। उस आदमी ने कहा, ''मैं वर्षों से सुनता आ रहा हूं और प्रत्येक यही बात कहता है कि 'स्वयं को जानी', लेकिन मुझे इसका अर्थ समझ में नहीं आता। स्वयं को जानो, इससे आपका अर्थ क्या है? कृपया
इसका अर्थ सीधे—सादे शब्दों में समझायें। मैं कोई बहुत पढ़ा—लिखा आदमी नहीं
हूं। मैं यह पारिभाषिक शब्दावली नहीं समझता। कृपया सरल और सीधी बात कहें।
आपका स्वयं को जानने से क्या अर्थ है? ''हुआंग पो ने कहा, ''यदि तुम यह पारिभाषिक शब्द नहीं जानते, तो फिर मैं भाषा का उपयोग नहीं करूंगा।'' उसने लोगों से कहा कि भाई, रास्ता दो ताकि मैं इस आदमी तक पहुंच सकूं।
हुआंग पो अपने मंच से नीचे उतरा और उस आदमी के पास गया। वह आदमी तो घबड़ा गया, क्योंकि उसने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इतने निकट आने की क्या जरूरत हो सकती है। क्या यह आदमी हमला करने वाला है? और हुआंग पो बहुत ही आक्रामक दिखाई पड़ रहा था, वह शेरनुमा आदमी था। इसलिए वह व्यक्ति तो एकदम डर गया, और
दूसरे लोग भी घबड़ा गए कि न जाने क्या होने वाला है। और वे हुआंग पो के
बारे में जानते थे। कभी उसने थप्पड़ लगा दिया था तो कभी उसने किसी की दरवाजे
के बाहर फेंक दिया था और कभी उसने पीटा भी था.. अत: क्या होने वाला है? पूर्ण शांति हो गई, लोगों की सांसें रुक गईं।
फिर हुआंग पो उसके करीब आया और उसने उस व्यक्ति की कॉलर पकड़ कर कहा, ''अपनी आंखें बंद करो। '' उस आदमी ने डर के मारे आंखें बंद कर लीं। एकदम सन्नाटा छा गया। उस व्यक्ति ने अपनी आंखें बंद की हुई थीं. तभी हुआंग पो बोला. ''अब जानो कि वहां कौन है? ''अत: वह आदमी वहीं खड़ा रहा और पूरे हॉल में शांति छा गई, कोई सास भी नहीं ले रहा था, और हुआंग पी वहा खड़ा था। उस आदमी ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं।
वह आदमी जरूर कोई बहुत सीधा—सादा आदमी रहा होगा। उसने आंखें बंद कर लीं और खोजने लगा कि वह कौन है तू उसने खोजा, खोजा और खोजा और समय बीतता चला गया। फिर हुआंग पी ने पूछा अपनी आंखें खोलो, और बोलो कि तुम कौन हो?''
उस आदमी ने आंखें खोलीं, लेकिन उसकी आंखें दूसरी ही हो गई थीं, उनका सारा गुण बदल गया था। वह आदमी हंसने लगा, फिर
वह जमीन पर झुका और उसने हुआंग पी के चरण छुए और बोला मैंने कभी नहीं सोचा
था कि आप इस तरह से मुझे मेरे ऊपर फेंक देंगे। अब मुझसे मत पूछें। मैं
नहीं बता सकता। क्योंकि मैं पढ़ा—लिखा आदमी नहीं हूं। लेकिन अब मैं कभी नहीं
पूछूंगा मैं कौन हूं। मैंने जान लिया है।''
उपनिषद तुम्हें तुम्हारे ऊपर फेंकने की कोशिश कर रहे हैं। पूजा की वस्तु को विस्मृत करो, केवल भीतर प्रवेश करो। लेकिन तुम भीतर कैसे जाओगे? पूजा की वस्तु को भूलना सरल है, लेकिन भीतर जाना कठिन है, क्योंकि
मन में वस्तुएं भरी हैं जो कि तुम्हारे चारों ओर चिपकी हैं। जब भी तुम
अपनी आंखे बंद करते हो तो तुम्हारे चारों ओर कल्पना का संसार होता है, सपने तैरते रहते हैं, आकृतियां बनती रहती हैं, विचारों का जुलूस चलता रहता है। फिर तुम संसार में चले जाते हो। वस्तुओं का संसार अब वहां नहीं है, लेकिन विचारों का संसार वहां मौजूद है। जब तक विचारों का संसार समाप्त न हो, तुम उस पूजा करने वाले को नहीं जान सकते।
कैसे वह समाप्त होगा? यदि
तुम उसके साथ सहयोग करते चले जाओगे तो तुम उसे निर्मित करते चले जाओगे।
तुम वस्तुओं के संसार को कभी नष्ट नहीं कर सकते क्योंकि तुमने कभी उसका
निर्माण नहीं किया लगा है। स्मरण रहे कि हम वस्तुओं के संसार को नहीं मिटा
सकते। कैसे तुम इन पहाड़ों को, सितारों को, चांद को, पृथ्वी को मिटा सकते हो? तुम
इन्हें कभी नहीं मिटा सकते क्योंकि तुमने इनको निर्मित नहीं किया था।
लेकिन तुम विचारों के संसार को मिटा सकते हो क्योंकि वहा तुम्हीं एकमात्र
निर्माता हो। किसी दूसरे ने उसमें कुछ भी सहायता नहीं की है। तुमने अकेले
ही सारा कार्य किया है।
विचार जीते हैं क्योंकि तुम उनके साथ सहयोग करते हो। सहयोग मत करो। केवल यही एकमात्र विधि है; सिर्फ उपेक्षा कर दो। बस उनको देखो—बिना उनको प्यार किए, बिना उनसे घृणा किए बिना उनकी निंदा किए, बिना उनकी प्रशंसा किए, बिना कहे कि वे सुंदर हैं, बिना कहे कि वे बुरे हैं। कुछ कहो मत, कोई रुख या भाव ही मत रखो। सिर्फ उपेक्षा करो—एक देखने वाले, द्रष्टा रहो।
आकाश में बादल चल रहे हैं। तुम एक वृक्ष के नीचे बैठे हो और तुम बादलों को आकाश में तैरते हुए देखते हो; तुम कोई रुख नहीं अपनाते। तुम नहीं कहते कि ये बादल क्यों तैर रहे हैं, उन्हें तैरना चाहिए या उन्हें नहीं तैरना चाहिए। तुम कुछ भी निर्णय नहीं लेते। तुम सिर्फ द्रष्टा बने रहते हो, और तुम बादलों को आकाश में चलते देखते रहते हो।
इसी
प्रकार से विचारों को भी अंतर आकाश में चलते देखते रहो। कोई रुख मत अपनाओ।
जैसे ही तुमने कोई भी रुख लिया कि तुमने सहयोग शुरू किया। बाहर के आकाश से
बादल नहीं चले जायेंगे यदि तुमने कोई भी रुख नहीं लिया, लेकिन भीतर के आकाश के बादल जरूर विलीन हो जायेंगे। वे तुम्हारे ही कारण होते हैं। यदि तुम उनके प्रति उदासीन हो जाओ, तो वे चले जाते हैं। वे अतिथि हैं, तुम इस बात को चाहे जानो या न जानो। वे अतिथि हैं, और उनको तुमने ही निमंत्रित किया है।
बहुत
समय हो गया है और तुम भूल चुके हो कि तुमने कब उन्हें निमंत्रण भेजा। यह
भी हो सकता है कि तुमने पिछले जन्मों में उन्हें निमंत्रित किया हो। लेकिन
कुछ भी तुम्हारे अंतर जगत में नहीं होता बिना तुम्हारे निमंत्रण भेजे।
प्रत्येक विचार को निमंत्रित किया गया है, और अभी भी जब वह उठता है तो तुम उसे ऊजी देते हो।
तुम दो प्रकार से ऊर्जा दे सकते हो : यदि तुम पक्ष में हो तो तुम ऊर्जा देते हो; यदि
तुम विपक्ष में हो तो तुम ऊर्जा देते हो। दोनों ही ढंगों में विचार को
तुमसे ऊर्जा मिलती है। केवल एक ही रास्ता है असंबंधित होने का, और
वह है उपेक्षा रखना। बुद्ध ने उसे उपेक्षा कहा है। उन्होंने कहा कि यदि
तुम विचारों के प्रति उपेक्षा का भाव रखोगे तो वे विलीन हो जायेंगे।
उपेक्षा पर जोर रहे। कोई भी रुख मत अपनाओ; कोई चुनाव मत करो। केवल साक्षी रहो, और वे विलीन हो जायेंगे। और जब वे विलीन हो जाते हैं तो अचानक पूजा करने वाला प्रगट होता है, अचानक तुम प्रगट हो जाते हो तुम्हारे ही समक्ष। वह प्रगट होना ही ब्रह्म है, और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
दिनांक 11 जुलाई 1973; प्रात:,
माउंट आबू राजस्थान।
यच्छोत्रेण न शृणोति येन श्रोतमिद श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 7।।
यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राण: प्रणीयते।
केनोपनिषद प्रथम अध्याय
6
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती लेकि?न जो दृष्टि को देख पाता है—तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
7
जिसे कान नहीं सुन पाते लेकिन जो कानों को सुन पाता है—
तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
8
जिसे प्राण प्रगट नहीं कर पाते लेकिन जो प्राण को प्रगट कर पाता है—तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
यह सदी एक बड़ी विचित्र घोषणा से प्रारंभ हुई। और उस घोषणा को करने वाला फ्रेडरिक नीत्शे था। उसने कहा, ‘’परमात्मा मर गया है। और इसलिए आदमी पूर्णत: स्वतंत्र है।‘’ जब
यह घोषणा की गई थी तब यह बड़ी विचित्र मालूम पड़ी थी। लेकिन यह
भविष्यवाणी सही सिद्ध हुई। और धीरे—धीरे यह बात आधुनिक मन के लिए आधार
स्तंभ हो गई।
सचमुच आज के आदमी के लिए परमात्मा मर गया है। ऐसा नहीं है कि परमात्मा मर गया है; यदि परमात्मा मर जाए तो फिर कुछ भी जीवित नहीं रह सकता। क्योंकि परमात्मा से हमारा मतलब है, एक मूलभूत, शाश्वत
जीवन जो कि अस्तित्व की आधारशिला है। लेकिन आधुनिक मनुष्य के लिए
परमात्मा मर गया है। अथवा हम यूं भी कह सकते है कि आज का आदमी परमात्मा
की और मर चूका है। संबंध टूट चूका है। वह सेतु अब नहीं रहा। चाहे तुम
विश्वास करो, या न करो, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। तुम्हारा विश्वास भी बहुत उपरी है। वह बहुत गहरे नहीं जाता।
तुम्हारा
अविश्वास भी बहुत उपरी है। जब विश्वास ही ऊपरी है तो फिर अविश्वास गहरे
कैसे जा सकता है। जब आस्तिक ही बड़े थोथे है तो फिर नास्तिक भी बहुत
गहरे कैसे हो सकते है। जब हां का ही अर्थ खो गया है, तो फिर ना में क्या अर्थ हो सकता है? जो
भी अर्थ नास्तिक का होता है वह आस्तिक से ही आता है। जब ऐसे लोग हों जो
कि अपने पूरे अस्तित्व से परमात्मा को हां कह सकें तभी केवल ना का कुछ
अर्थ होता है; वह गौण है।
परमात्मा
मर गया है और उसके साथ ही अविश्वास भी मर चुका है। विश्वास मृत हो गया है
और उसके साथ ही अविश्वास भी मृत हो गया है। यह सदी और आज का आधुनिक मन एक
प्रकार से बड़ी ही विचित्र स्थिति में है। ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ।
ऐसे लोग थे जो कि आस्तिक थे, जो सचमुच में ही विश्वास करते थे कि परमात्मा है। ऐसे भी लोग थे जो कि पक्के नास्तिक थे, जो कि उतनी ही त्वरा से विश्वास करते थे कि परमात्मा नहीं है। लेकिन आधुनिक मन उदासीन है। वह चिंता नहीं करता कि परमात्मा है या नहीं; यह बात असंगत है। कोई परमात्मा के पक्ष में या विपक्ष में सिद्ध करने में रस नहीं लेता।
वास्तव में, यही
अर्थ है नीत्शे की घोषणा का कि परमात्मा मर गया है। तुम उसे इंकार करने की
भी परवाह नहीं करते। तुम उसके विरुद्ध तर्क भी नहीं करते। वह सेतु ही टूट
गया। हमारा उससे अब कोई सबंध नहीं रहा—न पक्ष में, न विपक्ष में। ऐसा क्यों हो गया है? क्यों ऐसी घटना आधुनिक मन के भीतर इतनी प्रगाढ़ हो गई है—यह उदासीनता? हमें इसके कारणों का पता लगाना चाहिए।
पहला
तो कारण यह है कि हम सदा से परमात्मा के बारे में एक व्यक्ति की तरह सोचते
रहे हैं। परमात्मा के बारे में एक व्यक्ति की तरह सोचना गलत है, असत्य है, और यह खयाल नष्ट हो जाना चाहिए यह विचार कि परमात्मा कोई व्यक्ति है, नियंता है, सर्जक है, पालनकर्ता है, यह
बात गलत है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। यह विचार हमारे मन के कारण ही
इतना महत्वपूर्ण हो गया है। जब भी हम किसी चीज के बारे में सोचते हैं तो
हम हमेशा उसके बारे में या तो किसी व्यक्ति की भांति सोचते हैं या फिर किसी
वस्तु की भांति सोचते हैं। केवल ये ही दो विकल्प हमारे लिए खुले होते हैं।
यदि कोई चीज है या तो वह वस्तु की भांति होनी चाहिए, या फिर व्यक्ति की भांति होनी चाहिए।
हम यह सोच भी नहीं सकते, कभी कल्पना भी नहीं कर सकते कि वस्तु और व्यक्ति दोनों किसी चीज के प्रगट रूप हैं—जो कि छिपी है। वही शक्ति वस्तु हो जाती है, वही शक्ति व्यक्ति हो जाती है, किंतु
वह शक्ति दोनों ही नहीं है। वह परमात्मा मर गया है जिसे व्यक्ति की तरह
समझा गया था। वह धारणा मृत हो गई है। और उस धारणा को मरना ही था, क्योंकि
व्यक्ति की तरह परमात्मा को सिद्ध नहीं किया जा सकता। एक व्यक्ति के रूप
में वह हमारी कोई समस्या नहीं सुलझा सकता। बल्कि इसके विपरीत वह और भी
समस्याएं खड़ी कर देता है। क्योंकि यदि परमात्मा है तो फिर जगत में इतनी
बुराई क्यों है? तो फिर वही इस बुराई को होने दे रहा है, वह जरूर इसके साथ सहयोग कर रहा है। तब वह एक बुरे व्यक्ति के रूप में आ जाता है।
आंद्रे गाइड ने कहीं पर कहा है, ''मेरे लिए यह कल्पना करना कि परमात्मा शभ है, मुश्किल है। लेकिन मैं यह —कल्पना कर सकता हूं कि वह बुराई है, बुराई की भाति है, शैतान की भांति है, क्योंकि संसार में इतनी बुराई है, इतना दुख है, इतनी यातना है, इतनी पीड़ा है। '' हम
विश्वास ही नहीं कर सकते की ईश्वर यह सारा कारोबार चला रहा है। जरूर कोई
शैतान इस सब का चलाने वाला होना चाहिए—कोई महाशैतान। ईश्वर तो जरूर शुभ
होना चाहिए, वरना कैसा ईश्वर है वह? एक बुनियादी अच्छी होनी ही चाहिए। लेकिन जैसा जगत हमको दिखलाई पड़ता है, उसके
हिसाब से तो परमात्मा अच्छाई की तरह नहीं हो सकता बल्कि दुष्टता की तरह
मालूम पड़ता है—कि वह बुराई के साथ खेल रहा है। और एक प्रकार से यह भी लगता
है कि वह इतने सारे दुख देकर तथा लोगों को सता कर आनंद ले रहा है।
यदि परमात्मा कोई व्यक्ति है तो फिर दो विकल्प बचते हैं : या तो वह कोई शैतान होना चाहिए, या फिर हमें इंकार करना पड़ेगा कि वह है। और दूसरा विकल्प ज्यादा अच्छा है। ईश्वर को एक व्यक्ति' की भांति मरना पड़ा क्योंकि यह कल्पना करना कि वह अच्छा है मुश्किल हो गया। लेकिन यह धारणा ही गलत थी, यह धारणा मनुष्य केंद्रित थी, 'एन्थोपोसेन्ट्रिक' थी। हमने परमात्मा की कल्पना एक सर्वोच्च व्यक्ति की भांति, एक अतिमानव, सुपरमैन
की भाति की थी। परमात्मा को भी हमारी ही तरह का एक बढ़ा दिखाया गया व्यक्ति
ही माना गया था। हमने सिर्फ मनुष्य का ही एक विकसित रूप दिखा दिया था।
बाइबिल में कहा गया है कि परमात्मा ने आदमी को अपनी शकल में बनाया, लेकिन
यह बात भी आदमी की ही कही हुई है। असली बात ठीक उल्टी है—आदमी ने परमात्मा
को अपनी शकल में निर्मित किया है। इस आदमी की प्रतिमूर्ति का जाना जरूरी
था। और अच्छा ही हुआ कि इस प्रकार का परमात्मा मर गया। क्योंकि इस धारणा के
खो जाने के बाद हम एक नई, ताजा खोज शुरू कर सकते हैं कि परमात्मा क्या है।
उपनिषद बिलकुल भिन्न हैं, वे कभी भी नहीं कहते कि परमात्मा कोई व्यक्ति है, इसलिए वे आज के आदमी के लिए संगत हैं। वे नहीं कहते कि परमात्मा कोई व्यक्ति है। वे कहते हैं कि परमात्मा अस्तित्व की आधारशिला है, न कि व्यक्ति। परमात्मा अस्तित्व है, न कि अस्तित्वगत है। यह भेद जरा सूक्ष्म है लेकिन इसे समझने की कोशिश करो।
एक वस्तु होती है, एक पुरुष होता है, एक स्त्री होती है, एक व्यक्ति होता है, लेकिन वे नष्ट हो सकते हैं। जो भी होता है वह नहीं भी हो सकता है। वह उसमें अंतर्निहित है। जो भी अस्तित्व में आ सकता है, वह अस्तित्व के बाहर भी जा सकता है। लेकिन अस्तित्व स्वयं विनष्ट नहीं हो सकता। इसलिए हम कह सकते हैं कि एक कुर्सी होती है, हम कह सकते हैं कि एक मकान होता है, क्योंकि उनका अस्तित्व विनष्ट हो सकता है। लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि परमात्मा होता है।
परमात्मा ही अस्तित्व है, ऐसा नहीं है कि परमात्मा का अस्तित्व है, परमात्मा अस्तित्व का ही पर्यायवाची है। वास्तव में, यह कहना भी कि परमात्मा है, यह भी पुनरुक्ति है। परमात्मा का अर्थ है, 'है'। यह भाषा ही गलत है कि परमात्मा है, क्योंकि होने का अर्थ ही है परमात्मा। परमात्मा का अर्थ ही होता है —है, होना। ऐसा कहना कि परमात्मा का अस्तित्व है, गलत है। परमात्मा ही अस्तित्व है; अथवा परमात्मा अस्तित्व का ही दूसरा नाम है। अस्तित्व कभी नहीं मरता है, कभी अस्तित्व के बाहर नहीं जाता है। रूप आते हैं, और जाते हैं; रूप बदलते रहते हैं। रूप के जगत में, आकृतियों के जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है। इसलिए उपनिषद कहते हैं कि नाम तथा रूप—ये ही संसार हैं, और जो कुछ भी नाम और रूप के परे है वही परमात्मा है। लेकिन क्या है नाम और रूप के परे? अस्तित्व स्वयं ही नाम तथा रूप के परे है।
उपनिषद परमात्मा को किसी व्यक्ति की भांति नहीं सोचते हैं, बल्कि एक अस्तित्व की भाति—अस्तित्व की आधारशिला की भांति, सोचते हैं। नाम और रूप के परे। क्या है नाम और रूप के परे न: इस मकान के चारों ओर वृक्ष हैं, वे हैं। इन वृक्षों के परे पहाड़ियां हैं, वे भी हैं। तुम यहां हो, तुम भी हो। इन वृक्षों में, इन पहाड़ियों में, तुम में, क्या चीज है जो कि समान है? रूप समान नहीं है; तुम्हारा रूप भिन्न है, वृक्षों का रूप अलग है, पहाड़ियों की आकृति बिलकुल अलग है। नाम भी समान नहीं है, रूप भी समान नहीं है। फिर क्या है समान? वह जो सामान्य तत्व है, वही है परमात्मा। तुम हो, वृक्ष हैं, पहाडियां हैं; यह होना, यह अस्तित्व समान है। बाकी हर चीज सांयोगिक है। सारभूत बात यह है कि तुम हो, वृक्ष हैं, पहाड़ियां हैं, अस्तित्व समान है। यह अस्तित्व ही परमात्मा है।
परंतु उपनिषद कभी लोकप्रिय नहीं हुए। वे कभी लोकप्रिय हो भी नहीं सकते, क्योंकि परमात्मा अस्तित्व है तो फिर तुम्हारे लिए सारा अर्थ ही खो जाता है—क्योंकि तब तुम अस्तित्व से अपना संबंध कैसे जोड़ोगे? यदि परमात्मा कोई व्यक्ति हो, पिता हो, मां हो, भाई हो, प्रेमिका हो, प्रेमी हो तो तुम संबंध जोड़ सकते हो, तुम किसी न किसी संबंध की कल्पना कर सकते हो। लेकिन अस्तित्व के साथ कैसे संबंध जोड़ोगे? अस्तित्व तो इतना शुद्ध है, इतना अमूर्त है! फिर तुम उससे प्रार्थना कैसे करोगे? फिर तुम उसे कैसे पुकारोगे? फिर तुम उसके समक्ष कैसे रोओगे और चिल्लाओगे? वहां कोई भी नहीं है।
मनुष्य
की इस कमजोरी की वजह से उपनिषद कभी भी लोकप्रिय नहीं हुए। वे इतने सत्य
हैं कि वे कभी भी बहुत लोकप्रिय नहीं हो सकते। सत्य को लोकप्रिय बनाना
करीब—करीब असंभव है क्योंकि आदमी का मन उसे जैसा वह है वैसा ही स्वीकार
नहीं करेगा। मनुष्य का मन केवल इतना ही सोच सकता कि यदि परमात्मा कोई
व्यक्ति है तो हम उससे संबंधित हो सकते हैं। इसलिए भक्ति की परंपरायें इतनी
लोकप्रिय होती रही हैं। कोई प्रार्थना कर सकता है, भक्ति में डूब सकता है, समर्पण कर सकता है। कोई है वहां जिसके प्रति वह यह सब कर सकता है, इसलिए यह बात इतनी आसान हो गई। तुम प्रार्थना कर सकते हो, तुम बात कर सकते हो, तुम संवाद कर सकते हो। वास्तव में, वहां कोई नहीं है, परंतु
तुम्हारे लिए यह बात सरल हो जाती है। यदि तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई
वहां है जो कि तुम्हारी प्रार्थना को सुन रहा है तो तुम्हारे लिए प्रार्थना
करना सरल हो जाता है।
कोई भी नहीं सुन रहा है.. सिर्फ अमूर्त अस्तित्व है जिसके पास न तो कान हैं सुनने के लिए, न आंखे हैं देखने के लिए, और
न हाथ हैं स्पर्श करने के लिए। लेकिन तब तुम्हारे लिए प्रार्थना करना कठिन
हो जाएगा। इस कठिनाई के कारण ही मनुष्य ने ईश्वर को एक व्यक्ति की तरह
सोचा। तब हर बात सरल हो जाती है, लेकिन हर बात गलत भी हो जाती है। एक तरफ सरल हो जाती है, लेकिन दूसरी तरफ सब बात गलत हो जाती है।
वैसा
ईश्वर मर गया है और अब उसे पुनर्जीवित करने का कोई उपाय भी नहीं है। कोई
उपाय नहीं है उसमें फिर से प्राण फूंके जायें और उसकी धड़कन को गति दी जाए।
वह वस्तुत: ही मर गया है। उस ईश्वर को जगत में वापस नहीं लाया जा सकता है।
हम उस जगह से, उस
क्षण से गुजर चुके। मनुष्य का मन ज्यादा प्रौढ़ हो गया है। परमात्मा के
प्रति बच्चों जैसा रुख पुन: नहीं आ सकता। लेकिन हम अभी भी उसके साये में जी
रहे हैं, अभी
भी हम वही सोच रहे हैं जो कि मर गया है। अभी भी हम उसके विषय में उन्हें
परिभाषाओं में सोच रहे हैं जो मुर्दा हो गई हैं। अभी भी हम उसके चित्र
बनाये जा रहे हैं यद्यपि सारे नाम और रूप खो चुके हैं।
अब
उपनिषद संगत हैं। पांच हजार वर्ष पहले वे अपने समय से आगे थे। जब यह
केनोपनिषद लिखा गया तो यह अपने समय से पूर्व था। अब समय आ गया है और अब इस
केनोपनिषद को समझा जा सकता है। उपनिषदों को समझा जा सकता है क्योंकि
परमात्मा अब व्यक्ति की तरह नहीं रहा। अब ईश्वर केवल एक अवैयक्तिक
अस्तित्व की तरह हो सकता है।
लेकिन इसमें कठिनाई आयेगी क्योंकि तब तुम्हें सब कुछ बदलना पड़ेगा। तुम्हारे धर्म का सारा ढांचा ही परिवर्तित करना पड़ेगा, क्योंकि केंद्र ही विलीन हो गया है। पुराने धर्म का केंद्र विलीन हो गया है, और एक नए केंद्र के साथ एक नए प्रकार का धर्म पैदा होगा—धर्म का एक नया ही रूप जन्मेगा।
इसलिए मेरा जोर ध्यान पर है, प्रार्थना पर नहीं। क्यों? क्योंकि प्रार्थना के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत होती है, ध्यान के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत नहीं है। तुम वहा बिना किसी व्यक्ति के हुए ध्यान कर सकते हो, क्योंकि ध्यान प्रार्थना नहीं है। वह किसी के प्रति नहीं किया जा रहा है। वह तो बिना किसी के वहां हुए तुम कर रहे हो, वह कोई संबंध नहीं है।
यदि
ईश्वर मर गया है तो प्रार्थना अर्थहीन हो गई। केवल ध्यान ही अर्थपूर्ण हो
सकता है। जब तुम प्रार्थना करते हो तो तुम किसी के प्रति प्रार्थना करते
हो। लेकिन जब तुम ध्यान करते हो तो तुम सिर्फ ध्यान करते हो। जब तुम
प्रार्थना करते हो तो प्रार्थना में दो होते हैं, वह द्वैत की बात है—एक तुम हो और एक दूसरा भी कोई होता है जिसके प्रति वह प्रार्थना की जा रही होती है। ध्यान अद्वैतवादी है; वहां दूसरा कोई नहीं है। वह संबंध जरा भी नहीं है, तुम अकेले हो। और जितना अधिक तुम इस अकेलेपन में उतरते हो, उतना ही तुम ध्यान में प्रवेश करते चले जाते हो।
ध्यान
का अर्थ है अकेले होने की सामर्थ्य। और न केवल अकेला होना बल्कि अकेले
होने का आनंद लेना। इतना अकेला होना कि दूसरा बिलकुल ही मिट जाए—कि दूसरा न
हो जाए। इतना अकेला होना कि तुम अपने भीतर गिरने लग जाओ। भीतर खाई पैदा हो
जाये और तुम उस खाई में गिरते ही चले जाओ। जब तुम अपने भीतर गिर जाते हो
तो देर—अबेर आकृति खो जाएगी, नाम भी खो जाएगा, क्योंकि
वे सिर्फ ऊपरी सतह पर ही होते हैं। जितने गहरे तुम डुबकी लगाते हो उतने ही
तुम परमात्मा के निकट होते हो। क्योंकि परमात्मा अस्तित्व की भांति है, व्यक्ति की भांति नहीं।
तो यही भेद है। यदि तुम प्रार्थना करते हो तो परमात्मा बाहर है, और वह परमात्मा मर गया है। अब वह बाह्य परमात्मा नहीं रहा। तुम उसके विषय में सोचते रह सकते हो कि वह कहीं स्वर्ग में है, कि आकाश के पार है, लेकिन तुम्हें भी लगेगा कि यह बात बड़ी बचकानी है। वहां कोई भी नहीं है। वैसा ईश्वर प्रत्येक निवास से भागता रहा है।
एक समय ऋग्वेद के जमाने में वैसा परमात्मा हिमालय में रहता था, क्योंकि हिमालय में पहुंचा नहीं जा सकता था। वह कैलाश पर्वत पर रहता था। लेकिन आदमी वहां भी पहुंच गया, इसलिए
वह वहा से भागा और भागकर ऐसी जगह पहुंच गया जहां कि अब नहीं पाया जा सके।
फिर उसने अपना घर चांद—तारों पर बनाया। लेकिन आदमी चांद पर भी पहुंच गया, और अब वह वहां भी नहीं है। आज नहीं कल आदमी सब जगह पहुंच जाएगा और ईश्वर कहीं भी नहीं मिलेगा क्योंकि वह आखिर कहां छिप सकता है? अब कोई भी जगह ऐसी नहीं है जो कि पहुंच के बाहर हो, अथवा
सब जगह पहुंचा जा सकेगा। अब कोई स्थान उसके छिपने के लिए नहीं बचेगा। अब
यह धारणा और आगे नहीं चल सकती। ईश्वर को व्यक्ति की तरह नहीं पाया जा सकता।
और यह अच्छा ही है क्योंकि अब तुम प्रार्थना से हट कर ध्यान पर आ सकते हो।
प्रार्थना सच में बचकानी बात है। एक तरह से वह रुग्ण बात है, क्योंकि
तुम ईश्वर को अपनी ही कल्पना के अनुसार बनाते हो और फिर उसकी प्रार्थना
करते हो। और तुम इतने भ्रांतिपूर्ण हो सकते हो कि तुम स्वयं ही अपनी
प्रार्थना का उत्तर भी परमात्मा की तरफ से देने लग सकते हो। तब तुम सचमुच
ही विक्षिप्त हो गए। तब तुम अपने होश में नहीं हो। तुम ऐसा कर सकते हो; बहुत से लोगों ने ऐसा किया है, और वे बड़े संत माने जाते हैं। वे रुग्ण लोग थे, क्योंकि ईश्वर के साथ सिर्फ मौन ही संभव है। जब तुम गौन होते हो तो तुम किसी और से संबंधित नहीं हो सकते, तुम अपने ही भीतर चले जाते हो। फिर परमात्मा एक भीतर की शक्ति हो जाता है। वह अब कोई बाहरी व्यक्ति नहीं रहा; अब वह आंतरिक शक्ति हो गया।
प्राचीन भारतीय साहित्य में एक सुंदर कहानी है :
ऐसा
कहा जाता है कि ईश्वर ने संसार को बनाया और फिर वह इस पृथ्वी पर रहने लगा।
यह संसार उसी का बनाया हुआ था इसलिए उसे इसमें आनंद आया और वह आदमी, पशुओं, वृक्षों के साथ रहने लगा। लेकिन वह बड़ी मुसीबत में पड़ गया, क्योंकि सारे दिन उसे परेशान किया जाने लगा, रात भी चैन से नहीं सो सकता था। लोग शिकायतें करते रहते थे कि यह गलत है, वह गलत है, आपने ऐसा क्यों किया, आप इसे ऐसा क्यों नहीं करते? प्रत्येक आदमी आता और अपनी सलाह और सुझाव देता।
ईश्वर इतना परेशान और तंग हो गया कि उसने अपने मुख्य देवताओं तथा मंत्रियों की एक सभा बुलाई और उनसे कहा, ''ऐसी जगह खोजो जो कि मेरे अपने सृजन से दूर हो, जहा
कि मैं छिप सकु क्योंकि या तो ये लोग मुझे मार डालेंगे या फिर मैं
आत्महत्या कर लूंगा। हर क्षण ये मुझे सलाह देने चले आते हैं और कहते हैं—यह
करो, वह करो; यह गलत है, वह नहीं किया जाना चाहिए; और इनकी रायें भी इतनी एक—दूसरे से विरोधी हैं कि यदि मैं इनकी मानूं तो भारी गड़बड़ हो जायेगी।''
तो किसी ने सुझाव दिया, ''आप हिमालय चले जायें। आप गौरीशंकर पर्वत पर, एवरेस्ट पर छिप जायें।
ईश्वर ने कहा, ''लेकिन तुम आगे की नहीं देखते हो। कोई तेनसिंह, हिलेरी वहां भी आ जायेंगे, और सिर्फ थोड़े ही घंटों का सवाल है। '' ईश्वर के लिए तो थोड़े ही घंटों की बात है, इसलिए उसने कहा, ''इससे कुछ भी नहीं होगा। ''
तब फिर किसी ने सुझाव दिया, ''आप चांद पर चले जायें।''
ईश्वर ने कहा, ''लेकिन तुम्हें पता नहीं कुछ मिनटों के बाद आदमी वहां भी पहुंच जायेगा। ''तब एक का मंत्री खड़ा हुआ और उसने आकर धीरे से ईश्वर के कान में कहा, ''अच्छा होगा कि आप आदमी के भीतर ही छिप जायें। वहां वह कभी भी घुसने की कोशिश नहीं करेगा। ''और ऐसा कहा जाता है कि ईश्वर ने उसका सुझाव मान लिया, और उस क्षण के बाद उसे किसी ने परेशान नहीं किया।
अब समय आ गया है कि उसे वहां भी परेशान होना पड़े। और ध्यान से ही तुम वहां प्रवेश कर सकते हो, न कि प्रार्थना से। क्योंकि तुम्हारी प्रार्थना सोचती है कि वह कहीं गौरीशंकर पर अथवा चंद्रमा पर अथवा कहीं और है; प्रार्थना सदा उसे कहीं बाहर खोजने में लगी रहती है। ध्यान इस धारणा को पूरी तरह मिटा देता है कि वह कहीं बाहर है, अथवा उससे प्रार्थना की जा सकती है, अथवा उससे बात—चीत की जा सकती है, अथवा उससे संबंध जोड़ा जा सकता है। नहीं, सिर्फ तुम अपने भीतर प्रवेश कर सकते हो। और जितने गहरे तुम भीतर उतरते हो, उतने
ही गहरे तुम उसमें उतरते जाते हो। लेकिन यह मिलन मौन में होगा क्योंकि वह
दूसरा नहीं है। वह तुम ही हो। वह तुम्हीं होकर तुममें छिपा है।
यदि तुम मेरी बात समझ रहे हो, यदि तुम प्रार्थना और ध्यान में अंतर समझ सकते हो—ईश्वर एक व्यक्ति की भांति, और ईश्वर एक अस्तित्व की भाति—तो इस सूत्र को समझना आसान होगा:
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती लेकिन जो दृष्टि को देख पाता है— तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती
यदि वह बाहर है तो तुम उसे देख सकते हो; तब दृष्टि उसे देख पाने में असफल नहीं हो सकती। तब फिर मार्ग और विधियां खोजी जा सकती हैं; और तुम उसे देख सकते हो यदि वह बाहर है। लेकिन वह वहां नहीं है। इसीलिए यह सूत्र कहता है :
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती
तुम उसे नहीं देख सकते, उसे देखने का कोई रास्ता नहीं है। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम उसे नहीं देख सकते। लेकिन लोगों ने उसे देखा है, फिर उनके लिए क्या कहें? उनके लिए क्या सोचें? उन्होंने देखा है।
ऐसे
ईसाई संत हुए हैं जिन्होंने कहा कि हमने जीसस को हमारे सामने खड़ा हुआ देखा
है। ऐसे हिंदू भक्त हुए हैं जिन्होंने कहा कि हमने कृष्ण को बांसुरी बजाते
देखा है। ऐसी बहुत—सी घटनाएं घटी हैं सारी दुनिया में। कोई उसे राम की
भांति देखता है, कोई उसे कृष्ण की भांति देखता है, किसी ने जीसस की तरह से देखा है, किसी ने मेरी की तरह देखा है, और वे देखते ही चले जाते हैं। और यह उपनिषद कहता है
जिसे दृष्टि नहीं देख पाती......
तब
फिर वे लोग कोरी कल्पना ही कर रहे होंगे। सुंदर कल्पना! बहुत गहरी तृप्ति
देने वाली! जब तुम जीसस को अपने सामने खड़े हुए देखते हो तो तुम एक गहरी
तृप्ति से भर जाते हो, बहुत गहरे संतोष को पा लेते हो। लेकिन यह भी सपना ही है, सुंदर है पर सपना ही है। ऐसा स्वप्न जो तुमने निर्मित किया है; ऐसा स्वप्न जिसकी तुमने कामना की थी, जिसे तुमने देखने की चाह की थी। और जिसे भी तुम देखना चाहते हो तुम उसे देखने में समर्थ हो, क्योंकि
मनुष्य का मन समर्थ है किसी भी कल्पना को निर्मित करने में और उसे साकार
रूप देने में। यह मनुष्य के मन की क्षमता है। तुम एक सपना निर्मित कर सकते
हो और उसे साकार रूप भी दे सकते हो।
निश्चित ही, वह सिर्फ तुम्हारे ही लिए वास्तविक होगा, किसी
और के लिए नहीं। इसलिए जब तुम जीसस को देखो तो तुम उन्हें दूसरों को नहीं
दिखा सकते। यदि तुम्हारे मित्र कहें कि हमें भी तुम्हारे स्वप्न को दिखाओ
तो तुम कुछ भी नहीं कर सकते। तुम कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि स्वप्न का एक
विशेष गण यह होता है कि उसमें किसी को भी सहभागी नहीं बनाया जा सकता। तुम
अपना सपना देख सकते हो, मैं अपना सपना देख सकता हूं लेकिन तुम मेरे सपने में प्रवेश नहीं कर सकते, मैं तुम्हारे सपनों में प्रवेश नहीं कर सकता। सपना सर्वाधिक निजी बात है संसार में। हर चीज को सार्वजनिक बनाया जा सकता है, लेकिन सपनों को सार्वजनिक नहीं बनाया जा सकता। चाहे तुम अपने मित्र को, अपनी पत्नी को, अपने पति को कितना ही प्रेम करते होओ, चाहे तुम कितने ही निकट क्यों न हो, तुम एक—दूसरे के सपनों में प्रवेश नहीं कर सकते। सपना निजी ही रहता है।
और यही बात ऐसे दर्शनों के लिए भी सही है। जैसे तुम जीसस को देख रहे हो, कोई अन्य इस अनुभव को तुमसे नहीं बांट सकता। तुम उनके साथ सड़क पर चल रहे हो, लेकिन बाकी सब लोग तुम्हें अकेले ही चलते हुए देखेंगे; वह तुम्हारा अपना निजी कल्पित स्वप्न है। मैंने एक घटना के बाबत सुना है। एक बार ऐसा हुआ :
एक सुंदर युवा लड़की ने स्वप्न में देखा कि एक राजकुमार घोड़े पर चढ़ कर आया, उसने उसे ऊपर उठाया, उसका गहरा चुंबन लिया, और फिर उसे घोड़े पर बिठा कर ले गया। घोड़ा तेजी से दौड़ रहा था और तब उस लड़की ने राजकुमार से पूछा, ''तुम मुझे कहां लिए जा रहे हो? यह तो बताओ, तुम मुझे कहां ले जा रहे हो? '' उस राजकुमार ने कहा, ''यह तुम्हारा सपना है। तुम्हीं बताओ। सपना तुम्हारा है, तुम्हें ही बताना होगा कि मैं कहां ले जा रहा हूं। तुम मुझे बताओ! ''
जब
तुम जीसस या कृष्ण को सामने देखते हो तो वास्तव में होता यह है कि तुम
अपने मन को दो भागों में बांट लेते हों—एक जो कि भक्त बन गया होता है, और दूसरा जो कि ईश्वर हो जाता है। और यदि तुम पूछो कृष्ण से कि तुम मुझे कहा ले जा रहे हो? तो वह कहेंगे कि यह तुम्हारा सपना है, तुम्हीं मुझे बताओ!
लेकिन
जब मैं तुम्हें कह रहा हूं कि यह सपना है तो मैं कोई इसकी निंदा नहीं कर
रहा हूं। मैं सिर्फ तथ्य की बात कर रहा हूं। सपना सुंदर है। तुम उसका आनंद
ले सकते हो! उसमें कुछ भी गलत नहीं है। सपने का, एक सुंदर सपने का आनंद लेने में गलत हो भी क्या सकता है? तुम उसका आनंद ले सकते हो। समस्या तो तब खड़ी होती है जब तुम उसे सत्य समझने लगते हो। तब तुम खतरनाक रास्ते पर चलने लगे; तब सजग हो जाओ। मन कुछ भी प्रक्षेपित कर सकता है।
किसी
भी पागलखाने में जाओ और देखो। वहां तुम प्रत्येक को किसी न किसी से बातें
करते हुए देखोगे जो कि वहां मौजूद नहीं है। प्रत्येक बात कर रहा है और जवाब
भी दे रहा है। वहां हर आदमी दो में बंट गया है। वे लोग स्वप्न देखते ही
रहते हैं, वे प्रक्षेपणों को देखते रहते हैं। और वे प्रक्षेपण उन्हें इतने सत्य प्रतीत होते हैं कि हमें उन लोगों को पागलखाने में रखना पड़ता है, क्योंकि अब इन लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। उनका वास्तविकता से संबंध छूट गया है, और अब वे सिर्फ स्वप्न के संसार से जुड़े हुए हैं।
पागल आदमी का इतना ही अर्थ है कि उसका वास्तविकता से संबंध छूट गया, तथ्य से कोई संबंध नहीं रहा; केवल उसका अपनी कल्पना से संबंध है। वह अपने ही निजी संसार में रहता है। वह तुम्हारे साथ इस संसार में नहीं जीता; वह
उसका हिस्सा नहीं है। और तुम एक पागल आदमी को विश्वास नहीं दिला सकते कि
वह गलत है। यह बात असंभव है। वह तुम्हारी समझ को गड़बड़ा सकता है, लेकिन तुम उसे भ्रम में नहीं डाल सकते। और यदि तुम लंबे समय तक किसी पागल आदमी के साथ रहो तो तुम भी पागल हो सकते हो।
मैंने सुना है कि एक बार ऐसा हुआ :
एक बादशाह पागल हो गया। उसे शतरंज खेलने का बड़ा शौक था, अत:
किसी मनोवैज्ञानिक ने सलाह दी कि यदि कोई शतरंज का बहुत बड़ा खिलाड़ी उसके
साथ शतरंज खेले तो उसका दिमाग तनावरहित हो सकता है। वह बादशाह अभी भी शतरंज
का शौक रखता था। सारा संसार उसके लिए मिट गया था, केवल शतरंज ही उसके और वास्तविक संसार के बीच एकमात्र सेतु था। अत: एक बहुत बड़े शतरंज के खिलाड़ी को बुलाया गया, और
उसने उस बादशाह के साथ शतरंज खेलना शुरू किया। एक साल तक यह चलता रहा। वह
आदमी उस पागल बादशाह के साथ शतरंज खेलता रहा। और अंत में यह हुआ कि वह
बादशाह तो ठीक हो गया, लेकिन वह शतरंज का खिलाड़ी पागल हो गया। बादशाह वापस अपनी पुरानी स्थिति में आ गया, लेकिन वह बेचारा शतरंज का खिलाड़ी पागल हो गया।
यदि तुम किसी पागल आदमी के साथ एक साल तक रहो तो तुम्हारे लिए पागल न होना मुश्किल होगा। वह तुम्हें बुरी तरह भ्रमित कर देगा, लेकिन तुम उसे भ्रमित नहीं कर सकते, वह उसके पार है। तुम उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते क्योंकि वह अपनी ही निजी दुनिया में रहता है, और
तुम उसकी इस निजी दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकते। उसके निजी संसार में
प्रवेश करना असंभव है। और तुम उसको समझा भी नहीं सकते कि वह गलत है। गलत और
सही, सच और झूठ, ये सारे भेद वास्तविक दुनिया के हैं। स्वप्न के संसार में न कुछ गलत है न कुछ सही है। जो भी है, वह अपने आप में सही है; सिर्फ वहा होने मात्र से ही वह सही है।
धार्मिक विक्षिप्तताएं हैं, और धर्म निरपेक्ष विक्षिप्तताएं हैं। जो लोग पागल हो जाते हैं, वे
दो प्रकार के हैं—धर्म—निरपेक्ष तथा धार्मिक। जब तुम धार्मिक ढंग से पागल
होते हो तो लोग तुम्हारी इज्जत करते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि तुमने कुछ
उपलब्ध कर लिया है। अत: याद रखो कि धर्म—निरपेक्ष रूप से पागल मत होना; सदैव
धार्मिक ढंग से ही पागल होना। तब फिर लोग तुम्हारा सम्मान करेंगे—लेकिन
सिर्फ पूर्व में। अब पश्चिम में यह बात नहीं रही। चाहे कोई भी ढंग हो, वे तुम्हें पागल ही कहते हैं।
जब कभी तुम वास्तविकता को अपने मन के माध्यम से प्रक्षेपित करते हो तो तुम अपने चारों ओर एक भ्रम पैदा करते हो, और तब तुम देखते हो। लेकिन उपनिषद इतने ज्यादा वास्तविक हैं, वे कहते हैं तम देख ही नहीं सकते है। जिसे दृष्टि नहीं देख पाती लेकिन जो दृष्टि को देख पाता है...
तुम आंखों से उसे नहीं देख सकते, लेकिन वह तुम्हारी आंखों को देख सकता है, क्योंकि वह तुम्हारे पीछे छिपा है। तुम्हारी आंखें उसके सामने हैं। वह तुम ही हो; वह तुम्हारी आंखों को देख सकता है। लेकिन तुम उसे आंखों से नहीं देख सकते। वह तुम्हारी सारी इंद्रियों के पीछे छिपा है, वह तुम्हारी इंद्रियों को तो देख सकता है।
यदि
तुम ध्यान में गहरे जाओ तो तुम अपने शरीर के आंतरिक केंद्र को देख सकते
हों—भीतर की दीवार को देख सकते हो। यह एक बड़ी विचित्र घटना रही है, क्योंकि
पश्चिम में केवल अभी तीन सौ वर्ष से ही चिकित्सा—विज्ञान शरीर के आंतरिक
ढांचे को जान पाया है—और वह भी काट—पीट करके। शरीर को काट कर, शरीर का विश्लेषण कर, पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान शरीर के भीतरी ढांचे को जान पाया है।
लेकिन
यह एक विचित्र घटना रही है। योगी तथा तांत्रिक लोग उसे सदा से जानते रहे
हैं। और उन्होंने कभी भी शरीर को काटा नहीं। वे जानते हैं कि कितनी नाडिया
हैं। उन्होंने पूरी तरह जाना है कि सारा भीतरी शरीर किस तरह काम करता है
लेकिन उन्होंने कभी कोई शरीर काटा—पीटा नहीं। वे कोई शल्य—चिकित्सक नहीं
थे। कैसे उन्होंने इस सबके विषय में जाना? उन्होंने
उसके बारे में एक बिलकुल ही भिन्न तरीके से जाना। वे भीतर इतने
ध्यानपूर्वक मौन हो गये कि वे उस मौन में अपने शरीर से अलग हो गए वे भीतर
सिर्फ एक सजगता ही बच गए। तब उन्होंने देखा कि भीतर क्या है।
हम
अपने शरीर को सिर्फ बाहर से ही जानते हो। यह बड़ी अजीब बात है क्योंकि तुम
रहते तो भीतर लेकिन फिर भी तुमने उसका भीतर से अवलोकन नहीं किया। यह ऐसे ही
है जैसे तुम एक घर में रहो और—तुम उसके चारों तरफ ही चक्कर लगाते रहो और उसको भीतर से कभी भी नहीं जानो कि वह भीतर से कैसा दिखाई पड़ता है। तुम्हारे शरीर की दो सतहें हैं। एक तो बाहरी सतह है, जिसका हमें पता है क्योंकि हम उसे आंखों से देख सकते हैं, हत्थों से स्पर्श कर सकते हैं। फिर एक भीतर की सतह है शरीर की जिसके लिए आंखों और हाथों का उपयोग नहीं किया जा सकता।
यदि तुम सजग और शांत हो जाओ, अलग हो जाओ, तो तुम आंतरिक सतह को जान सकोगे। तब तुम अपनी आंखों को देख सकते हो, तब तुम अपने कानों को सुन सकते हो, तब तुम अपने हाथों को स्पर्श कर सकते हो, और तब तुम अपने शरीर को जान सकते हो। किंतु तुम्हारा शरीर तुम्हें नहीं जान सकता। यही बात यह सूत्र कहता है :
जिसे
दृष्टि नहीं देख पाती लेकिन जो दृष्टि को देख पाता है—तू जान कि वही
एकमात्र ब्रह्म है और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
सिवाय तुम्हारे शरीर के, कोई
मंदिर प्रवेश करने और खोजने योग्य नहीं है। कोई मस्जिद और कोई चर्च नहीं
है जहां ईश्वर रहता है। वह तुम्हारे ही भीतर रहता है। यदि तुम प्रवेश कर
सको, और लौट कर वापस अपनी चेतना के केंद्र पर आ सको, तो तुम जानोगे कि वही एकमात्र ब्रह्म है—जो कि आखिरी, आत्यंतिक है, वस्तुत: सत्य है, वास्तविक अस्तित्व है। और उसके शिकार मत हो जिसे यहां लोग पूजते हैं। लोग अपनी ही कल्पना की पूजा करते रहते हैं।
लोग अपने ही द्वारा निर्मित चीजों को पूजते रहते हैं। फिर फैशन बदल जाते हैं, और उनके साथ लोगों की कल्पना बदल जाती है। फिर तुमको मूर्तियां बदलनी पड़ती हैं, नई प्रतिमायें, पूजा के नए स्थान बनाने पड़ते हैं। इसी कारण पृथ्वी पर इतने सारे धर्म हैं, अन्यथा यह बेतुका है। कैसे इतने सारे धर्म हो सकते हैं। यदि सत्य एक है तो फिर इतने सारे धर्म कैसे हो सकते हैं? विज्ञान एक है, फिर धर्म एक क्यों नहीं है? ईसाई विज्ञान, हिंदू विज्ञान, मुस्लिम विज्ञान ऐसा क्यों नहीं है?
यह संभव नहीं है क्योंकि विज्ञान तथ्यों पर काम करता है। और यदि आप तथ्य पर काम करते हैं तो विज्ञान एक ही हो सकता है, क्योंकि तथ्य कोई निजी नहीं होता। यदि तुमने कोई तथ्य जाना है तो प्रत्येक को उसको स्वीकार करना होता है, दूसरा
कोई मार्ग नहीं है। तुम उसे इंकार नहीं कर सकते। और यदि तुम विज्ञान को
इंकार करते हो तो उससे तुम्हारा ही अहित होगा। यदि भौतिकशास्त्र किसी नियम
को जान पाता है, तो तुम नहीं कह सकते, ''मैं तो भारतीय हूं मैं इस' नियम को नहीं मान सकता जो कि इंग्लैंड में खोजा गया है। मैं कैसे एक अंग्रेज आदमी अथवा एक चीनी आदमी का अनुसरण कर सकता हूं? हम अलग— अलग देश के लोग हैं; हमारी संस्कृतियां भिन्न—भिन्न हैं। '' तुम ऐसा नहीं कह सकते। एक भौतिकी नियम, भौतिकी नियम है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है कि उसे कौन खोजता है। एक बार खोज लिया गया तो वह फिर सारे विश्व का हो गया।
विज्ञान एक है, लेकिन धर्म क्यों एक नहीं है? यदि वह भी आत्यंतिक नियम है तो वह भी एक होना चाहिए, विज्ञान से ज्यादा एक होना चाहिए क्योंकि विज्ञान तो सिर्फ बाहरी तथ्यों की खोज है, धर्म आंतरिक सत्यों की खोज है। फिर ऐसा क्यों होना चाहिए? तीन सौ धर्म हैं, यह कैसे संभव हो सकता है?
ये तीन सौ धर्म हैं झूठे सपनों के कारण, न कि सत्य के कारण। वे तुम्हारे सृजनों के कारण हैं, न
कि तुम्हारी वास्तविक जानकारी के कारण। तुम अपनी पूजा का ढंग अपने आप
निर्मित करते हो। तुम स्वयं अपने—अपने मंदिर बनाते हो। तुम्हारे धर्म एक
कलात्मक सृजन हैं, न कि वैज्ञानिक प्रतीतिया हैं—कलात्मक रचनाएं हैं। तुम अपने धर्म को एक रंग दे देते हो, और
तुम अपने बनाए चित्रों को चाहने लग जाते हो और तुम यह कभी नहीं सोच सकते
कि दूसरा कोई भी चित्र तुम्हारे अपने चित्र से अच्छा हो सकता है। तुम उसे
चाहते हो, इसलिए तुम लड़ते चले जाते हो कि तुम्हारा चित्र ही सर्वोच्च है, दूसरा
कोई भी ऐसा चित्र नहीं बना सकता। बाकी सब दोयम है। यदि तुम अच्छे आदमी हुए
तो तुम दूसरों के चित्रों को सहन कर सकते हो। तुम दूसरों के चित्रों को
ज्यादा से ज्यादा स्वीकार कर सकते हो, अपना बड़प्पन जताते हुए, कि वे लोग थोड़े मूर्ख एवं मूढ़ हैं। थोड़ा ठहरो वे भी सही बात पर आ जायेंगे।
ईसाई प्रतीक्षा करते रहते हैं कि हिंदुओं को आखिर समझ आ जाएगी, और
वे ईसाई हो जायेंगे। हिंदू लोग भी इस इंतजार में हैं कि ये मूर्ख ईसाई
किसी न किसी दिन लौट कर हिंदू हो जाएंगे। आखिर सत्य से कब तक बचेंगे? और जैन लोग हैं, वे सोचते हैं कि ये सारे हिंदू और ईसाई झूठे गुरुओं का, कृष्ण या क्राइस्ट का अनुकरण कर रहे हैं। लेकिन आखिर लंबे अरसे तक ये लोग झूठे गुरुओं का अनुगमन भी कब तक करेंगे; किसी न किसी दिन तो ये सही गुरु महावीर के पास आ ही जायेंगे। अंततः ये लोग महावीर का अनुगमन करेंगे ही।
प्रत्येक आदमी भीतर यही सोचता रहता है कि वह सही है, और बाकी सब लोग गलत हैं।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जनसाधारण के लिए धर्म एक कल्पना की बात है। उनकी अपनी कल्पनायें हैं; उन्होंने अपने संसार स्वयं रंग लिए हैं। उसमें कोई बुराई भी नहीं है। तुम अपना घर अपनी ही पसंद से सजाते हो, यह ठीक भी है। कौन है जो कहेगा कि यह बात गलत है? यह कहने का हक किसी को नहीं है। तुम अपनी पसंद के अनुसार अपना घर सजाते हो, लेकिन
तुम सजावट के लिए किसी से लड़ते नहीं। तुम ऐसा तो नहीं कहते कि मेरी सजावट
आखिरी सत्य है। प्रत्येक आदमी को अपने अनुसार अपना घर सजाने का हक है।
यही बात तुम अपने मन के साथ भी करते हो। तुम उसे भी अपनी आकृतियों से, पूजा से, प्रार्थना से, अपनी बाइबिल से, अपनी गीताओं से सजाते रहते हो। तुम अपने आंतरिक जगत को सजाते चले जाते हो, और फिर तुम उसके हिस्से हो जाते हो और उसी में रहने लगते हो। यही भांति है।
यह सूत्र कहता है कि वही एकमात्र ब्रह्म है जिसे कि तुम इंद्रियों का अतिक्रमण करने के बाद जान सकते हो; जबकि तुम इंद्रियों के पीछे चले जाते हो, और जब तुम आंखों को भी देखते हो, जब तुम कानों को भी सुनते हो, और जब तुम हाथों को भी भीतर से स्पर्श करते हो।
.. तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
जिसे कान नहीं सुन पाते लेकिन जो कानों को सुन पाता है— तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; ओर वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं
जिसे प्राण प्रगट नहीं कर पाते लेकिन जो प्राण को प्रगट कर पाता है— तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है; और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं
सारे मंदिर, सारी मस्जिदें, सारे
गिरजे झूठे हैं। मैं उनकी कोई निंदा नहीं कर रहा हूं मैं सिर्फ एक तथ्य की
बात कह रहा हूं। वे झूठे हैं क्योंकि वे सब हमारी कल्पनाओं की कृतियां
हैं। और मैं यह नहीं कहता कि उनको नष्ट कर दो। मैं कहता हूं कि उनका भी
आनंद लो। लेकिन ऐसा मत सोचना कि यह आनंद लेना तुम्हें उस आत्यंतिक तक ले
जाएगा। इन निर्माणों का रस लो। यह खेल अच्छा है, इसमें कुछ भी तो बुरा नहीं है। लोग सिनेमा देखने जाते हैं, लोग नृत्य—घरों में जाते हैं। फिर उन्हें इस धार्मिक—कल्पना का आनंद लेने से क्यों रोका जाए? उन्हें अपने मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों में जाने देना चाहिए—वे इसके लिए स्वतंत्र हैं। और यह एक तरह से अच्छा ही है कि कोई धार्मिक कल्पना हो, बजाय कुछ भी न होने के। लेकिन ऐसा मत सोचना कि तुम वहां ब्रह्म को जान लोगे। नहीं, तुम नहीं जान सकते। वह वहां है ही नहीं, इसलिए तुम कुछ भी नहीं कर सकते। तुम अपना आनंद ले सकते हो, तुम अपनी कल्पना का आनंद ले सकते हो, तुम्हारे सपनों के संसार में विचरण कर सकते हो।
अगर यह बात समझ में आ जाए तो मंदिर हो सकते हैं। वे सुंदर कलाकृतियां हैं लेकिन उनमें ही खो ही जाओ। वहा जरूर जाओ, लेकिन वहा खो मत जाओ। इसे सतत स्मरण रखो कि जिसे भी लोग यहां पूजते हैं, वह असली ब्रह्म नहीं है, क्योंकि
असली ब्रह्म तो पूजा करने वाले के भीतर ही छिपा है। इसी बात पर सारा जोर
है। जब मैं पूजा करता हूं तो एक मैं हूं और एक वह वस्तु है जिसकी मैं पूजा
करता हूं। ब्रह्म कहां है? उस वस्तु में अथवा पूजा करने वाले में? उपनिषदों का जोर पूजा करने वाले पर है, न कि पूजा की विषयवस्तु पर, क्योंकि वह वस्तु तो गौण है; वह तो पूजा करने वाले ने निर्मित की है। जो मूल्य उसे तुम देते हो वह तो तुम्हारे द्वारा प्रक्षेपित किया गया है, तुमने ही वह मूल्य दिया है। वह तुम्हारी ही उस वस्तु को दी गई भेंट है।
तुम एक गोल पत्थर कमरे में रखवा सकते हो और तुम उसकी शिव की भांति, शिवलिंग समझकर पूजा कर सकते हो। और यह पत्थर हजारों वर्षों से रास्ते में पड़ा था, अथवा
नदी के घाट पर पड़ा था। किसी ने उसकी पूजा नहीं की। किसी ने नहीं सोचा कि
वह शिव है। नदी ने कभी कोई परवाह नहीं की। पशु वहां से गुजरे, उन्होंने कभी उसकी ओर नहीं देखा और अचानक तुम उस पत्थर को बदल देते हो। अचानक वह पत्थर पूजा की वस्तु बन गया, पवित्र हो गया, और
अब उसे कोई स्पर्श भी नहीं कर सकता है। और पहले लोग उसके ऊपर से पाव रखकर
गुजरते रहे। उनके पांव सदियों से उसे छूते रहे। अब अचानक तुम उसका एक मंदिर
बना देते हो। तुम उस पत्थर को वहां स्थापित कर देते हो, तुम कहते हो, ''यह शिवलिंग है, कि यह शिव—देवता का प्रतीक है, '' फिर और तुम उसकी पूजा करने लगते हो, और तुम बहुत अच्छा महसूस करने लगते हो।
इस सबमें कुछ भी बुरा नहीं है। पत्थर सुंदर है, और यदि तुम्हें उसमें आनंद आ रहा है, तो आनंद अवश्य लो। लेकिन स्मरण रहे कि पत्थर सिर्फ पत्थर है, और शिव तुम्हारे ही सृजन हैं, तुमने ही उन्हें निर्मित किया है। तुमने ही उन्हें प्रक्षेपित किया है, तुमने ही पत्थर को शिव में परिवर्तित कर दिया है।
ईश्वर को तुमने निर्मित कर लिया है; और पत्थर को इस बात का पता भी नहीं है। और अगर वह पत्थर यह सब देख पाए तो उसे भी हंसी आएगी और वह भी सोचेगा, ''यह आदमी पागल हो गया है। क्या कर रहे हो यह, मेरी पूजा कर रहे हो? '' पूजा करने वाला ही पूजा की वस्तु को निर्मित करता है। भक्त भगवान को निर्मित करता है।
उपनिषद
कहते हैं कि तुम वहां वास्तविक ब्रह्म को नहीं पाओगे : तुम सिर्फ अपनी ही
कल्पना को वहां पाओगे। अच्छा हो कि तुम पूजा करने वाले के भीतर प्रवेश करो।
पूजा की जाने वाली वस्तु को भूलो, और यह जानने का प्रयत्न करो कि यह पूजा करने वाला कौन है—यह कौन है जो कि पूजा कर रहा है? कौन है यह जो कि प्रार्थना कर रहा है? कौन है यह जो कि मंदिर जा रहा है? और यदि तुम यह खोज सको कि कौन है यह जो कि पूजा करता है तो तुमने ब्रह्म को पा लिया।
मैंने सुना है :
एक बार एक झेन गुरु हुआ पो उपदेश दे रहा था। अचानक एक आदमी उठ खड़ा हुआ। उस आदमी ने कहा, ''मैं वर्षों से सुनता आ रहा हूं और प्रत्येक यही बात कहता है कि 'स्वयं को जानी', लेकिन मुझे इसका अर्थ समझ में नहीं आता। स्वयं को जानो, इससे आपका अर्थ क्या है? कृपया
इसका अर्थ सीधे—सादे शब्दों में समझायें। मैं कोई बहुत पढ़ा—लिखा आदमी नहीं
हूं। मैं यह पारिभाषिक शब्दावली नहीं समझता। कृपया सरल और सीधी बात कहें।
आपका स्वयं को जानने से क्या अर्थ है? ''हुआंग पो ने कहा, ''यदि तुम यह पारिभाषिक शब्द नहीं जानते, तो फिर मैं भाषा का उपयोग नहीं करूंगा।'' उसने लोगों से कहा कि भाई, रास्ता दो ताकि मैं इस आदमी तक पहुंच सकूं।
हुआंग पो अपने मंच से नीचे उतरा और उस आदमी के पास गया। वह आदमी तो घबड़ा गया, क्योंकि उसने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इतने निकट आने की क्या जरूरत हो सकती है। क्या यह आदमी हमला करने वाला है? और हुआंग पो बहुत ही आक्रामक दिखाई पड़ रहा था, वह शेरनुमा आदमी था। इसलिए वह व्यक्ति तो एकदम डर गया, और
दूसरे लोग भी घबड़ा गए कि न जाने क्या होने वाला है। और वे हुआंग पो के
बारे में जानते थे। कभी उसने थप्पड़ लगा दिया था तो कभी उसने किसी की दरवाजे
के बाहर फेंक दिया था और कभी उसने पीटा भी था.. अत: क्या होने वाला है? पूर्ण शांति हो गई, लोगों की सांसें रुक गईं।
फिर हुआंग पो उसके करीब आया और उसने उस व्यक्ति की कॉलर पकड़ कर कहा, ''अपनी आंखें बंद करो। '' उस आदमी ने डर के मारे आंखें बंद कर लीं। एकदम सन्नाटा छा गया। उस व्यक्ति ने अपनी आंखें बंद की हुई थीं. तभी हुआंग पो बोला. ''अब जानो कि वहां कौन है? ''अत: वह आदमी वहीं खड़ा रहा और पूरे हॉल में शांति छा गई, कोई सास भी नहीं ले रहा था, और हुआंग पी वहा खड़ा था। उस आदमी ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं।
वह आदमी जरूर कोई बहुत सीधा—सादा आदमी रहा होगा। उसने आंखें बंद कर लीं और खोजने लगा कि वह कौन है तू उसने खोजा, खोजा और खोजा और समय बीतता चला गया। फिर हुआंग पी ने पूछा अपनी आंखें खोलो, और बोलो कि तुम कौन हो?''
उस आदमी ने आंखें खोलीं, लेकिन उसकी आंखें दूसरी ही हो गई थीं, उनका सारा गुण बदल गया था। वह आदमी हंसने लगा, फिर
वह जमीन पर झुका और उसने हुआंग पी के चरण छुए और बोला मैंने कभी नहीं सोचा
था कि आप इस तरह से मुझे मेरे ऊपर फेंक देंगे। अब मुझसे मत पूछें। मैं
नहीं बता सकता। क्योंकि मैं पढ़ा—लिखा आदमी नहीं हूं। लेकिन अब मैं कभी नहीं
पूछूंगा मैं कौन हूं। मैंने जान लिया है।''
उपनिषद तुम्हें तुम्हारे ऊपर फेंकने की कोशिश कर रहे हैं। पूजा की वस्तु को विस्मृत करो, केवल भीतर प्रवेश करो। लेकिन तुम भीतर कैसे जाओगे? पूजा की वस्तु को भूलना सरल है, लेकिन भीतर जाना कठिन है, क्योंकि
मन में वस्तुएं भरी हैं जो कि तुम्हारे चारों ओर चिपकी हैं। जब भी तुम
अपनी आंखे बंद करते हो तो तुम्हारे चारों ओर कल्पना का संसार होता है, सपने तैरते रहते हैं, आकृतियां बनती रहती हैं, विचारों का जुलूस चलता रहता है। फिर तुम संसार में चले जाते हो। वस्तुओं का संसार अब वहां नहीं है, लेकिन विचारों का संसार वहां मौजूद है। जब तक विचारों का संसार समाप्त न हो, तुम उस पूजा करने वाले को नहीं जान सकते।
कैसे वह समाप्त होगा? यदि
तुम उसके साथ सहयोग करते चले जाओगे तो तुम उसे निर्मित करते चले जाओगे।
तुम वस्तुओं के संसार को कभी नष्ट नहीं कर सकते क्योंकि तुमने कभी उसका
निर्माण नहीं किया लगा है। स्मरण रहे कि हम वस्तुओं के संसार को नहीं मिटा
सकते। कैसे तुम इन पहाड़ों को, सितारों को, चांद को, पृथ्वी को मिटा सकते हो? तुम
इन्हें कभी नहीं मिटा सकते क्योंकि तुमने इनको निर्मित नहीं किया था।
लेकिन तुम विचारों के संसार को मिटा सकते हो क्योंकि वहा तुम्हीं एकमात्र
निर्माता हो। किसी दूसरे ने उसमें कुछ भी सहायता नहीं की है। तुमने अकेले
ही सारा कार्य किया है।
विचार जीते हैं क्योंकि तुम उनके साथ सहयोग करते हो। सहयोग मत करो। केवल यही एकमात्र विधि है; सिर्फ उपेक्षा कर दो। बस उनको देखो—बिना उनको प्यार किए, बिना उनसे घृणा किए बिना उनकी निंदा किए, बिना उनकी प्रशंसा किए, बिना कहे कि वे सुंदर हैं, बिना कहे कि वे बुरे हैं। कुछ कहो मत, कोई रुख या भाव ही मत रखो। सिर्फ उपेक्षा करो—एक देखने वाले, द्रष्टा रहो।
आकाश में बादल चल रहे हैं। तुम एक वृक्ष के नीचे बैठे हो और तुम बादलों को आकाश में तैरते हुए देखते हो; तुम कोई रुख नहीं अपनाते। तुम नहीं कहते कि ये बादल क्यों तैर रहे हैं, उन्हें तैरना चाहिए या उन्हें नहीं तैरना चाहिए। तुम कुछ भी निर्णय नहीं लेते। तुम सिर्फ द्रष्टा बने रहते हो, और तुम बादलों को आकाश में चलते देखते रहते हो।
इसी
प्रकार से विचारों को भी अंतर आकाश में चलते देखते रहो। कोई रुख मत अपनाओ।
जैसे ही तुमने कोई भी रुख लिया कि तुमने सहयोग शुरू किया। बाहर के आकाश से
बादल नहीं चले जायेंगे यदि तुमने कोई भी रुख नहीं लिया, लेकिन भीतर के आकाश के बादल जरूर विलीन हो जायेंगे। वे तुम्हारे ही कारण होते हैं। यदि तुम उनके प्रति उदासीन हो जाओ, तो वे चले जाते हैं। वे अतिथि हैं, तुम इस बात को चाहे जानो या न जानो। वे अतिथि हैं, और उनको तुमने ही निमंत्रित किया है।
बहुत
समय हो गया है और तुम भूल चुके हो कि तुमने कब उन्हें निमंत्रण भेजा। यह
भी हो सकता है कि तुमने पिछले जन्मों में उन्हें निमंत्रित किया हो। लेकिन
कुछ भी तुम्हारे अंतर जगत में नहीं होता बिना तुम्हारे निमंत्रण भेजे।
प्रत्येक विचार को निमंत्रित किया गया है, और अभी भी जब वह उठता है तो तुम उसे ऊजी देते हो।
तुम दो प्रकार से ऊर्जा दे सकते हो : यदि तुम पक्ष में हो तो तुम ऊर्जा देते हो; यदि
तुम विपक्ष में हो तो तुम ऊर्जा देते हो। दोनों ही ढंगों में विचार को
तुमसे ऊर्जा मिलती है। केवल एक ही रास्ता है असंबंधित होने का, और
वह है उपेक्षा रखना। बुद्ध ने उसे उपेक्षा कहा है। उन्होंने कहा कि यदि
तुम विचारों के प्रति उपेक्षा का भाव रखोगे तो वे विलीन हो जायेंगे।
उपेक्षा पर जोर रहे। कोई भी रुख मत अपनाओ; कोई चुनाव मत करो। केवल साक्षी रहो, और वे विलीन हो जायेंगे। और जब वे विलीन हो जाते हैं तो अचानक पूजा करने वाला प्रगट होता है, अचानक तुम प्रगट हो जाते हो तुम्हारे ही समक्ष। वह प्रगट होना ही ब्रह्म है, और वह नहीं जिसकी लोग यहां पूजा करते हैं।
दिनांक 11 जुलाई 1973; प्रात:,
माउंट आबू राजस्थान।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं