मधुर यादें-( ओशो मिस्टिक रोज़)
(ध्यान
का दूसरा चरण रोना )
पूना
आवास-(भाग-05)
हंसी का पहला सप्ताह जिस सहजता से गुजरा। उस
से मन की जो चालबाजी थी, वह कमजोर पड़ गई। हंसी का वो झरना अब भी अंदर सहज बह रहा था। मानो अंदर
सब तरल हो गया। सच ये सात दिन पल में ही गुजर गये। मानो समय की गति अपने अलग आयाम
में चली गई। ये सब लिख रहा हूं परंतु जो घटा था उसके लिए शब्द बहुत ही छोटे और
पराये-पराये लग रहे है। क्योंकि इसे मैंने वहीं पूना में बैठ कर लिख लिया था
इसलिए वहां की कुछ महक कुछ झलक इन शब्दों में बसी रह गई है। वरना तो यहां आते-न
आते वो सब काफूर हो गया है। बस अब उस लिखे को टाईप भर कर रहा हूं। फिर भी टूटी
फूटी तुतलाती बोली में लिखने की कोशिश कर रहा हूं। उसे ही आप अधिक समझ कर पढ़ना ही
नहीं उसमें उतरने की कोशिश करना।
अगला सप्ताह शुरू हुआ रोने का। आज समाधि पर हल्के-नीले-हरे रंग के पिल्लों चादर बिछी थी। आज समाधि सब रंग रूप बदला हुआ बहुत सुंदर और ह्रदय को एक ठहराव दे रहा था। ध्यान करने में आपके आस पास का माहोल भी कितना महत्वपूर्ण होता है। एक तो समाधि दूसरा ओशो ने जैसे जो कहां था ये लोग उसी तरह से ध्यान को कराते हे। अपना कुछ भी उस में विलय या लिप्त नहीं करते। जो पिछले सप्ताह गुजरा था ध्यान में वह एक संकल्प एक साहास दे रहा था। कहीं से एक साहस एक शक्ति अपने आप आती सी महसूस हो रही थी। की हंस लिए तो रोना शायद इतना कठिन नहीं होगा।