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शुक्रवार, 13 जून 2014

जिन सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--30

एक दीप से कोटि दीप हों—प्रवचन—तीसवां
जिन सूत्र--(भाग--2) 
प्रश्‍नसार:

1—जिन—धारा अनेकांत—भाव और स्‍यातवाद से भरी है, फिर भी प्रेमशून्‍य क्‍यों हो गई?

2—जीसस अपने शिष्‍यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने से कोई तुम्‍हें रोके तो उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो। प्रेमपुजारी जीसस की ऐसी आज्ञा?

3—अतीत में गुरु के पास एक ही मार्ग के साधक इकट्ठे होते थे। और आपके आश्रम में सभी विपरीत मार्गों का मेला लगा हुआ है—यह कैसे?

4—त्‍वमेव माता च पिता त्‍वमेव, त्‍वमेव, बंधुश्‍च सखा त्‍वमेव
   त्‍वमेव विद्या द्रविणं तवमेव, तवमेव सर्वं मम देव देवा


5—सीमार माझे असीम तुमी बाजाओ आपन सूर
   आमार मध्‍ये तोमार प्रकाश ताई एतो मधुर

6—एक पागल द्वार पर आया था, कुछ गुनगुनाकर चला गया; यह कौन था?

पहला प्रश्न:

जिन-धारा अनेकांत-भाव और स्यातवाद से भरी है; फिर भी प्रेम शून्य क्यों हो गई? कृपा करके समझाएं।

प्रेमशून्य होना ही थी; होना अनिवार्य था। हो गई, ऐसा नहीं। कोई भी जीवन-व्यवस्था परिपूर्ण नहीं है। प्रत्येक जीवन- व्यवस्था का कुछ लाभ है, कुछ हानि है।
जो लोग प्रेम को, प्रार्थना को, पूजा को आधार मानकर चलेंगे, खतरा है कि उनका प्रेम, उनकी पूजा, उनकी प्रार्थना उनके संसार को ही छिपाने का रास्ता बन जाए। प्रेम के पीछे राग के छिप जाने का डर है। प्रेम तो नाम ही रहे और भीतर राग खेल करने लगे। प्रेम तो नाम ही रहे, वीतरागता से बचने का उपाय हो जाए।
तो प्रेम के मार्ग का खतरा है; वैसे ही ध्यान के मार्ग का खतरा है। ध्यान के मार्ग का खतरा है कि राग को छुड़ाने में, मिटाने में प्रेम छूट जाए। राग को हटाने में प्रेम हट जाए।
मनुष्य बहुत चालबाज है। इसलिए तुम उसे जो भी दो, वह अपने ढंग से ढाल लेगा। अगर तुम ध्यान की बात कहो तो वह प्रेम को मार डालेगा। अगर तुम प्रेम की बात कहो, वह राग को बचा लेगा।
इसलिए प्रत्येक सदी में, प्रत्येक समय में, युग में जो उचित था, उस समय के लिए जो उचित था; जिससे संतुलन निर्मित होता...जब महावीर जन्मे, तब प्रेम के नाम पर बहुत उपद्रव हो चुका था। परमात्मा के नाम पर बहुत तमाशा हो चुका था। मंदिर, पूजा, पंडित, यज्ञ-हवन, बहुत खेल हो गए थे। उन सबसे छुड़ा लेना आदमी को जरूरी था।
तो महावीर, आदमी बायें तरफ बहुत झुक गया था इसलिए दायें तरफ झुके। जो थोड़े-से लोग उनकी बात को समझ सके, वे संयम को, संतुलन को उपलब्ध हो गए। लेकिन फिर पीढ़ी दर पीढ़ी लोग समझ से तो नहीं मानते, परंपरा से मानते हैं। फिर लोग दायीं तरफ बहुत झुक गए। फिर वे इतनी दायीं तरफ झुक गए कि ध्यान के नाम पर, तप के नाम पर उन्होंने प्रेम की हत्या कर दी। जीवन को रसशून्य कर डाला।
तो फिर भक्ति का पुनराविर्भाव हुआ। वल्लभ, रामानुज, चैतन्य, निम्बार्क--एक अनूठा युग आया भक्ति का। फिर भक्ति का पुनरउदभव हुआ।
यह अति हो गई थी--ध्यान की, तप की, तपश्चर्या की। इससे आदमी सूख गया। फूल खिलने बंद हो गए। फिर प्रेम को जगाना पड़ा। तो कबीर, नानक, मीरा, दादू, रैदास--अदभुत भक्त पैदा हुए। इन्होंने फिर बायें तरफ मोड़ा
जो थोड़े-से लोग समझे, जिन्होंने जागरूक रूप से इस बात को पहचाना वे संयम को उपलब्ध हो गए। उनके जीवन में प्रेम भी रहा, राग छूटा। प्रेम बचा, राग छूटा। प्रीति बची, प्रीति के थोथे बंधन छूटे। प्रीति संसार से मुक्त हुई और परमात्मा की तरफ बही, प्रार्थना बनी। लेकिन जो नहीं समझे, जिन्होंने फिर परंपरा को पकड़ा, उन्होंने फिर बात वहीं की वहीं पहुंचा दी।
ऐसा सदा होता रहेगा। कोई मार्ग परिपूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए कोई मार्ग शाश्वत नहीं हो सकता। बदलाहट करनी ही होगी। ऐसा ही समझो कि तुम मरघट किसी की अर्थी ले जाते हो तो कंधे बदल लेते हो। एक कंधा दुखने लगता है तो अर्थी दूसरे कंधे पर रख लेते हो। इसका कुछ यह मतलब नहीं है कि दूसरा कंधा कभी न दुखेगा। थोड़ी देर बाद दूसरा भी दुखेगा। फिर तुम पहले कंधे पर रख लोगे। इस कारण कि दूसरा भी दुखेगा, अगर न बदलो तो मुश्किल में पड़ जाओगे। अर्थी को मरघट तक ही न ले जा पाओगे। कंधे बदलने होते हैं। मनुष्य-जाति कंधे बदलती रहती है।
पूछा है, "जिन-धारा से प्रेम शून्य क्यों हो गया?'
जिन-धारा ध्यान की धारा है, तप की धारा है। प्रेम को साधना का अंग नहीं माना है महावीर ने, साधना की पूर्णाहुति माना है। जब कोई चलते-चलते मंजिल पर पहुंचेगा तो प्रेम प्रगट होगा। मंजिल तक कौन पहुंचता है! जो पहुंचता है उसको प्रगट होता है। महावीर पहुंचे, प्रेम प्रगट हुआ। जैनी तो मंजिल तक पहुंचे नहीं। चले ही नहीं, पहुंचने की तो बात दूर। शास्त्र लिए बैठे हैं, थोथे सिद्धांत लिए बैठे हैं। तो प्रेम तो समाप्त हो ही जाएगा।
महावीर ने परमात्मा को जगह न दी क्योंकि परमात्मा के नाम से खूब हो चुका था उपद्रव। खूब धोखाधड़ी, खूब पाखंड। बड़ी सुविधा है परमात्मा के नाम से पाखंड चलाने की, क्योंकि परमात्मा बड़ी आड़ बन जाता है। फिर तुम कुछ भी करो, सब परमात्मा की लीला है। लूटो-खसोटो तो परमात्मा की लीला है। क्या करोगे तुम? परमात्मा करवा रहा है।
 तो हर चीज के लिए परमात्मा आड़ बन जाता है। महावीर ने परमात्मा को हटा दिया बीच से। तो हानियां तो बंद हो गईं, लेकिन परमात्मा को हटाने से एक खतरा है। परमात्मा हटा तो आदमी अकेला रह जाता है। प्रेमपात्र ही हट जाता है तो प्रेम के उमगने की सुविधा नहीं रह जाती। बहुत कठिन है शून्य को प्रेम करना। कोई चाहिए, जिसे तुम प्रेम कर सको।
अकेले कमरे में तुम बैठे हो। मैं तुमसे कहता हूं, भर जाओ प्रेम से। तुम कहोगे किसके प्रति? मैं कहूंगा, तुम इसकी फिकर छोड़ो। भर जाओ बस प्रेम से। इस सूने कमरे को प्रेम से भर दो। तो भी तुम क्या करोगे? तुम ज्यादा से ज्यादा सोचोगे अपनी प्रेयसी की बात, अपने बेटे की, बेटी की, मित्र की, अपने प्रियतम की। उस सोच में, उस कल्पना में ही तुम प्रेम से भर पाओगे कमरे को।
बिना कल्पना के प्रेम को जगाना बहुत थोड़े-से सिद्धपुरुषों की संभावना है। महावीर ने परमात्मा तो हटा दिया, खतरा हट गया। लेकिन खतरे के साथ-साथ लाभ भी हट गए। लाभ था कि परमात्मा के सहारे प्रेम विकसित होता है। वह हमारा परमप्रिय हो जाता है। वह हमारा प्यारा है। और अहंकार निर्मित नहीं होता।
इसलिए जैन मुनि से ज्यादा अहंकारी मुनि तुम कहीं भी न पाओगे। क्योंकि अहंकार को समर्पित करने की जगह न रही। कोई चरण न रहे, जहां जाकर अहंकार को रख दो। अपने से बड़ा कुछ भी न रहा। महावीर ने तो कहा था, तुम ही परमात्मा हो। इसलिए नहीं कहा था कि तुम्हारा अहंकार बच जाए, इसलिए कहा था ताकि तुम परमात्मा के नाम से जो जाल चल रहे हैं, उसमें कहीं उलझो न।
लेकिन परिणाम तो महावीर के हाथ में नहीं है। परमात्मा को छुड़ा दिया तुमसे; फिर तुम क्या करोगे परमात्मा के अभाव में, वह तो तुम्हारे हाथ में है। महावीर ने तो कह दी बात। कहते ही तीर निकल गया। अब उसको तरकस में वापस नहीं ले जाया जा सकता। जो कह दिया वह महावीर से छूट गया। अब तुम्हारे हाथ में है कि तुम उसमें से क्या अर्थ निकालोगे
मैं रहीम खानखाना का जीवन पढ़ता था। अकबर के नौ रत्नों में एक थे। अकबर उनसे बड़ा खुश था और बहुत जमीन-जायदादें दीं। करोड़ों रुपया उन्हें भेंट किया। वह जैसा उनके पास पैसा आता था ऐसे ही वे लुटा भी देते थे। मरे तो भिखारी थे। करोड़ों रुपये आए-गए उनके हाथ में, लेकिन जो आया--बांटा। बांटने में कभी रुके नहीं। ऐसा बांटा कि शायद अकबर भी थोड़ार् ईष्यालु हो उठता था।
कहते हैं गंग कवि ने एक दोहा कहा। वे इतने खुश हो गए रहीम, कि छत्तीस लाख रुपये एक-दो कड़ियों के लिए बोरों में बंधवाकर चुपचाप रातोंरात गंग कवि के घर भेज दिए, किसी को पता न चले। गंग बहुत हैरान हुआ तो गंग ने एक पद लिखा।
सीखे कहां नबाबज्यू ऐसी देनी देन
ज्यों-ज्यों कर ऊंचो करौ त्यों-त्यों नीचे नैन
यह देना कहां से सीखे? सीखे कहां नबाबज्यू? यह नबाबी कहां सीखी? यह सम्राट होना कहां सीखा?
सीखे कहां नबाबज्यू ऐसी देनी देन
देनेवाले बहुत देखे, लेकिन रात चोरी से अंधेरे में...। अंधेरे में तो लोग चुराने आते हैं, देने कोई आता है? किसी को पता न चले--ऐसी देनी देन।
ज्यों-ज्यों कर ऊंचो करौ त्यों-त्यों नीचे नैन
देनेवाला तो अकड़कर खड़ा हो जाता है। सारे संसार को दिखलाना चाहता है। और तुम, जैसे-जैसे तुम्हारा हाथ ऊंचा होता जाता है, देने की क्षमता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आंख नीची होती जाती है।
रहीम ने इसके उत्तर में एक दोहा लिखा:
देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैन
लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन
देनेवाला कोई और है, जो दिन-रात भेज रहा है और लोग शक हम पर करते हैं; इसलिए आंखें नीची हैं। इसलिए देने में संकोच है। क्योंकि लोग सोचेंगे, हमने दिया।
यह परमात्मा की धारणा का लाभ है:
देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैन
परमात्मा की धारणा का यह लाभ है कि तुम अपने को किसी के चरणों में पूरा रख सकते हो। सब तरह से रख सकते हो।
देनहार कोई और है भेजत सो दिन-रैन
कोई भेजे चला जा रहा है। हमारा किया कुछ भी नहीं है। कोई कर रहा है।
लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन
इसलिए आंखें संकोच से नीची कर लेते हैं कि लोग बड़ी गलत बात सोच रहे हैं कि हम दे रहे हैं। देनेवाला कोई और है।
तो अहंकार को खड़े होने की जगह नहीं रह जाती। परमात्मा की धारणा का लाभ है कि अहंकार न बचे।
अगर कोई ठीक से उपयोग करे तो सभी धारणाएं लाभपूर्ण हैं। और अगर कोई ठीक से उपयोग न करे तो सभी धारणाएं खतरनाक हैं। सत्यों से फांसी लग सकती है। सत्य तुम्हारे प्राण को संकट में डाल सकते हैं। सत्य जहर हो सकता है। सब पीनेवाले पर निर्भर है। समझदार तो ऐसे भी हुए हैं कि जहर को भी औषधि बनाकर पी गए। और नासमझ ऐसे हुए हैं कि अमृत को भी जहर बना लिया, विषाक्त हुए और मर गए।
महावीर ने परमात्मा का तत्व हटाया, उसके साथ बड़े जंजाल थे, वे भी हट गए। पंडित हटा, पुरोहित हटा, पूजा-प्रार्थना हटी, धोखाधड़ी, बीच के दलाल हटे लेकिन अहंकार को रखने की जगह न रह गई। महावीर तो बड़े कुशल रहे होंगे, बिना परमात्मा के अहंकार को छोड़ दिया।
लेकिन जैनों से इतनी आशा नहीं की जा सकती। परमात्मा हट गया तो अकड़ आ गई। हम ही सब कुछ हैं। कोई ईश्वर नहीं, कहीं जाकर झुकना नहीं। तो तुम मुसलमान फकीर में जैसी विनम्रता देखोगे, सूफी फकीर में जैसी विनम्रता देखोगे, वैसी तुम जैन मुनि में नहीं देख सकते। भक्त में तुम जैसी विनम्रता देखोगे, वैसी तुम जैन मुनि में नहीं देख सकते। बड़ी अकड़ है।
जैन मुनि तो श्रावक को हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर सकता। नमस्कार ही भूल गया। अकड़ ऐसी हो गई कि नमन की कला ही जाती रही। त्यागत्तपश्चर्या से अहंकार भरा; कटा नहीं। इसलिए मैं कहता हूं: अमृत को जहर बनाने की सुविधा है, जहर को अमृत बनाने की सुविधा है।
त्यागत्तपश्चर्या से अहंकार कटना चाहिए।
लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन
त्यागी और तपस्वी को तो यह सोचना चाहिए कि किए हुए पापों का प्रक्षालन कर रहा हूं त्यागत्तपश्चर्या करके। जो किए थे पाप, उन्हें काट रहा हूं। इसमें गौरव कहां? इसमें गरिमा क्या? पश्चात्ताप है। आंखें नीची होनी चाहिए। लेकिन त्यागी अकड़कर खड़ा हो जाता है। वह...जानते हो कितने उपवास किए? कितना धन छोड़ा? कितना बड़ा घर छोड़ा? कितना साम्राज्य छोड़ा? आंखें तो नहीं झुकतीं, आंखें अकड़कर खड़ी हो जाती हैं।
 और फिर जैन तत्व में आदमी के ऊपर कोई भी नहीं है। इसलिए बड़ी अड़चन हो जाती है। कहां रखो इस बोझिल सिर को? यह पत्थर की तरह तुम्हारी आत्मा पर बैठ जाता है।
इसलिए जैन दृष्टि से धीरे-धीरे प्रेम तिरोहित हो गया। परमात्मा ही जब न हुआ तो प्रेम रखो कहां? प्रेम करो किसको? भक्ति खो गई।
मगर यह होना ही था। इसमें किसी का दोष भी नहीं है। ये जीवन के सहज नियम हैं।
मैं तुमसे जो कह रहा रहूं, तुममें से जो समझ पाएंगे उनके ही काम का है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, कहते से ही मेरे हाथ के बाहर हो गया। फिर तुम क्या उसका अर्थ करोगे, तुम पर निर्भर है। फिर मेरी उस पर कोई मालकियत भी न रही। फिर मैं यह भी नहीं कह सकता कि तुमने मेरे सत्य को बिगाड़ा। क्योंकि कहा, कि मेरा सत्य कहां रहा? तुम्हारा हो गया। सुन लिया, तुम्हारे कान में पड़ गया, तुम्हारा हो गया, अब तुम जो चाहो, सो करो। जो अर्थ निकालना हो, निकालो। जैसा अर्थ, जिस दिशा में ले जाना हो, ले जाओ। तुम मालिक हो गए। तुम्हें दिया, तुमसे बोला कि मेरी मालकियत समाप्त हो गई। अब मैं तुम पर कोई मुकदमा नहीं चला सकता।
तुम सुनोगे तुम्हारे ही ढंग से। तुम उसका उपयोग भी करोगे तुम्हारे ही ढंग से। तुम उसमें से कुछ चुन लोगे, कुछ छोड़ दोगे।
मैंन सुना है, कुरान में एक वचन आता कि जो शराब पीएगा वह नर्क में सड़ेगा। एक मुसलमान शराब पीता था। उसके धर्मगुरु ने उससे कहा कि भाई, मैंने सुना है तुम कुरान भी पढ़ते हो। कभी-कभी तुम्हारे द्वार से निकलता हूं तो तुम्हारी आयतें सुनकर मैं भी मस्त हो जाता हूं। शराबी था, मस्ती से गाता होगा। लेकिन तुम कुरान में इतनी सी बात नहीं समझ पाए कि लिखा है कि जो शराब पीएगा वह नर्क में सड़ेगा?
उस मुसलमान ने कहा, समझता तो भला हूं, लेकिन एक-एक कदम चल रहा हूं। अभी आधे वाक्य तक पहुंचा हूं--"जो शराब पीएगा' अभी यहीं तक पहुंचा हूं। अपनी-अपनी सीमा, सामर्थ्य! अभी आधे वाक्य पर नहीं पहुंचा हूं। धीरे-धीरे चल रहा हूं, कभी पहुंच जाऊंगा
तुम अपने मतलब से चुन लोगे। तुम जो चुनना चाहते हो वही चुन लोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा चला। गांव के एक नेताजी को किसी आदमी ने उल्लू का पट्ठा कह दिया। अब ऐसे तो सभी नेता उल्लू के पट्ठे होते हैं। नहीं तो नेता क्यों हों? आदमी अपने को तो सम्हाल ले! आदमी खुद तो चल ले! आदमी सारी दुनिया को बदलने चल पड़ता है। सारी दुनिया को ठीक करने चल पड़ता है।
पर नेता बहुत नाराज हुआ। उसने मानहानि का मुकदमा चला दिया। मजिस्ट्रेट ने पूछा मुल्ला को--मुल्ला गवाह था--कि जिस होटल में यह घटना घटी, वहां पचासों लोग आ-जा रहे थे। और जिस आदमी ने नेताजी को उल्लू का पट्ठा कहा, उसने नाम लेकर भी नहीं कहा; सिर्फ उल्लू का पट्ठा कहा। तो इसका क्या सबूत है कि उसने नेताजी को ही कहा, किसी और को नहीं कहा? अब मुल्ला नसरुद्दीन नेता के पक्ष में गवाही देने आया था। वह बोला, इसका बिलकुल पक्का सबूत है। यद्यपि वहां सैकड़ों लोग आ-जा रहे थे, लेकिन इसने नेताजी को ही उल्लू का पट्ठा कहा।
मजिस्ट्रेट ने कहा, इसका प्रमाण क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, क्योंकि वहां और दूसरा कोई उल्लू का पट्ठा मौजूद ही नहीं था।
अब करोगे क्या? पक्ष में गवाही देने आए हैं!
तुम्हारे मतलब तुम्हारे हैं। तुम पक्ष में खड़े होओ कि विपक्ष में; बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम गवाही कहां से दे रहे हो, बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम तो तुम ही हो। तुम्हारे पास आते-आते किरणें तक मैली हो जाती हैं। तुम्हारे हाथ आते-आते सोना भी कचरा हो जाता है। तुम्हारे पास पहुंचते-पहुंचते सभी सत्य असत्य हो जाते हैं।
इसलिए तो लाओत्सु कहता है, "सत्य को कहना ही मत; क्योंकि कहा कि असत्य हुआ।'
कहा कि असत्य हुआ। किसी ने सुना कि असत्य हुआ। क्योंकि सुननेवाले को शब्द पहुंचेगा। शब्द को अर्थ तो वही चढ़ाएगा। अर्थ की खोल तो वही पहनाएगा
मैं तो नग्न सत्य तुम्हें दे दूंगा। वस्त्र तो तुम पहनाओगे। वे वस्त्र तुम्हारे होंगे। जब सजा-संवारकर तुम सत्य को खड़ा करोगे तो वह बिलकुल ही रूपांतरित हो जाएगा।
इसलिए दुनिया में प्रतियुग में दृष्टियों को बदलना पड़ता है। कभी ध्यान की धारा प्रवाहमान होती, कभी प्रीति की धारा प्रवाहमान होती।
दोनों की जरूरत है। वे दोनों आवश्यक हैं। जब एक अति पर चली जाती है तो दूसरी धारा उसे खींचकर फिर संतुलन पर लाती है। ऐसा नहीं है कि वह संतुलन सदा रहेगा, लेकिन संतुलन के थोड़े-से क्षणों में कुछ लोग मुक्त हो जाएंगे। फिर असंतुलन हो जाएगा, फिर कोई खींचकर संतुलन को पैदा करेगा।
भक्ति और ध्यान विरोधी नहीं हैं, परिपूरक हैं। जब एक अति हो जाती है तो दूसरा उसे सुधार लेता है।
तुमने कभी रस्सी पर चलनेवाले बाजीगर को देखा? जब नट रस्सी पर चलता है तो हाथ में एक डंडा रखता है। रस्सी पर चलना खतरनाक काम है--इतना ही खतरनाक जैसा जिंदगी है। शायद इतना खतरनाक नहीं भी है, जितनी जिंदगी है। क्योंकि रस्सी से गिरे तो हाथ-पैर टूटेंगे, जिंदगी से गिरे तो मौत निश्चित है।
रस्सी पर चलनेवाला नट क्या करता? अगर वह देखता है कि बायें तरफ ज्यादा झुक गया है और खतरा गिरने का है, तो तत्क्षण अपने हाथ की लकड़ी को दायें तरफ झुका लेता है। वजन दायें तरफ डाल देता है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं चल सकता। क्योंकि थोड़ी देर में ही पाता है कि अब दायें तरफ गिरने का खतरा है, तो फिर वजन बायें तरफ डाल देता है। ऐसा बायें-दायें वजन को डालता हुआ रस्सी पर अपने को सम्हालता है।
भक्ति और ज्ञान बायें और दायें हैं। और इन दोनों के बीच में मार्ग है अगर तुम मुझसे पूछो। न तो भक्ति मार्ग है, न ज्ञान मार्ग है। इनके ठीक मध्य में, जहां संतुलन है वहां मार्ग है। लेकिन अगर तुम भक्ति की तरफ ज्यादा झुक गए हो तो महावीर ज्ञान की तरफ खींचते हैं, ध्यान की तरफ खींचते हैं। तुम्हें लगता है ध्यान की तरफ खींच रहे हैं; उनका प्रयोजन केवल तुम्हें बीच में ले आना है, मध्य में ले आना है। क्योंकि मध्य में मुक्ति है।
जब महावीर जा चुके होते हैं और तुम उनकी सुन-सुनकर धीरे-धीरे ज्यादा ध्यान की तरफ झुक जाते हो--ऐसे, कि अब गिरे और खोपड़ी तोड़ लोगे, तो कोई रामानुज, कोई वल्लभ, तुम्हें भक्ति की तरफ खींचने लगता है। तुम्हें लगता है कि ये लोग दुश्मन हैं। क्योंकि एक कहता था दायें, एक कहता है बायें। एक उधर खींच गया, दूसरा इधर खींचने लगा। तुम बड़ा विरोध करते हो। जैन को भक्ति की तरफ खींचो, तो एकदम लड़ने को खड़ा हो जाएगा। किसी भक्त को ध्यान की तरफ खींचो, तप की तरफ खींचो, एकदम झगड़ने को खड़ा हो जाएगा। तुम्हें लगता है ये दुश्मन हैं।
नानक एक तरफ खींच रहे, महावीर एक तरफ खींच रहे, मीरा एक तरफ खींच रही, मोहम्मद एक तरफ खींच रहे, यह मामला क्या है? तुम तो कहते हो किसी एक से ही तय हो जाना ठीक है। ऐसे तो खिंचा-खिंचव्वल में खराबी हो जाएगी। लेकिन ये दोनों ही तुम्हें सत्य की तरफ खींच रहे हैं। सत्य संतुलन है। ठीक मध्य में, जहां न बायां रह जाता न दायां; जहां कोई अति नहीं रह जाती--निरति; वहीं समाधि है, वहीं सम्यकत्व है, वहीं समत्व है, वहीं समता का जन्म है।
सम दो अतियों के मध्य में होता है; न इधर, न उधर। लेकिन तुम बार-बार अतियों में चले जाओगे यह सुनिश्चित है। तुम एक अति से बचोगे तो दूसरी अति में चले जाओगे क्योंकि अति में जाना मन की आदत है। इसलिए फिर-फिर तुम्हें खींच लेना होगा। यह जारी रहेगा। जब तक मनुष्य है इस पृथ्वी पर, यह जारी रहेगा। ध्यान और भक्ति के बीच खींचतान जारी रहेगी। महावीर और मीरा को आते रहना पड़ेगा नए-नए रूपों में।
और अगर तुममें थोड़ी समझ हो, तुममें अगर थोड़ी भी आंख हो तुम्हारे पास तो तुम देख पाओगे, वे तुम्हें अलग-अलग नहीं खींच रहे, दोनों बीच के लिए खींच रहे हैं।
ध्यानी की अलग भाषा है। उसका अलग शास्त्र है, अलग शब्दावलि है। वह मोक्ष की बात करता है, मुक्ति की बात करता है। बंधन छोड़ने की बात करता है।
प्रेमी कि बिलकुल विपरीत भाषा है। वह प्रेम की, मिलन की, आत्यंतिक बंधन की बात करता है। वह कहता है, परमात्मा से कभी छूटना न हो।
काह करूं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छांह
रहिमन दाख सुहावनो जो गल प्रीतम बांह
रहीम कहते हैं, क्या करूंगा लेकर कल्पवृक्ष की छांव को और बैकुंठ को। दो कौड़ी हैं। प्यारे का हाथ मेरे गले में पड़ा हो तो बस, परमअवस्था हो गई। तो पहुंच गए उस अंगूर के तले; स्वर्ग के तले।
काह करूं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छांह
रहिमन दाख सुहावनो...
बैठे हैं अंगूर की छाया में।
जो गल प्रीतम बांह
अगर प्यारे का हाथ गले में है।
ज्ञानी कहेगा, प्यारे का हाथ गले में? बात क्या कर रहे हो? रहिमन दाख सुहावनो...अंगूर, शराब...क्या बातें कर रहे हो? ये तो सब बंधन की बातें हैं। ये भाषाएं अलग हैं। इनकी पद्धति अलग है।
अगर तुम बहुत ध्यान की तरफ चले गए हो तो किसी मीरा को खींच लेने का अवसर देना। अगर बहुत प्रेम की तरफ चले गए हो, और प्रेम कीचड़ बनने लगा हो और राग बनने लगा हो तो किसी महावीर को खींचने की सुविधा देना। दोनों का उपयोग कर लेना मध्य में आने को। जैसी जब जरूरत हो, वैसा उपयोग कर लेना।
असली बात न भूले कि सत्य को पाना है, कि जागना है, कि जो है, उसे जानना है।

दूसरा प्रश्न: जीसस अपने शिष्यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने में कोई तुम्हें रोके तो तुम उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो। प्रेम के पुजारी जीसस की ऐसी आज्ञा? आप तो हमें ऐसी आज्ञा नहीं देते। लेकिन यदि ऐसी समस्या हमारे सामने भी आए तो आप क्या आज्ञा देंगे--वही, जो जीसस ने दी?           

मार डालो!
लेकिन तुम समझे नहीं जीसस का अर्थ, इसलिए अड़चन हो गई। बाहर थोड़े ही कोई तुम्हें रोक सकता है, रोकनेवाले भीतर हैं। पत्नी थोड़े ही तुम्हें रोक सकती है, अगर तुम जा रहे हो सत्य की तरफ। बेचारी पत्नी क्या रोकेगी! मरोगे तो कैसे रोकेगी? जब मरने में नहीं रोक सकती तो संन्यास में कैसे रोकेगी? जो होना है, अगर होना है तो पत्नी कैसे रोकेगी? अगर पत्नी भी रोक पाती है तो कहीं तुम्हारा ही भीतर डांवाडोल है। पत्नी का तुम बहाना लेते हो।
जीसस कहते हैं कि उस डांवाडोलपन को मार डालो। कोई जीसस पत्नी को मार डालने को थोड़े ही कहेंगे। इतनी अकल, जितनी तुममें है, इतनी तो उनमें भी रही होगी। कम से कम इतना तो भरोसा करो कि इतनी अकल उनमें भी रही होगी।
भीतर हैं रोकनेवाली चीजें। राग है, मोह है, लोभ है, क्रोध है। शत्रु भीतर है, बाहर नहीं। बाहर तो सिर्फ प्रक्षेपण होता है।
जब तुम कहते हो, फलां आदमी मेरा शत्रु है, मेरे राह में, मार्ग में रोड़े डाल रहा है तो वह आदमी सिर्फ पर्दा है, शत्रुता तुम्हारे भीतर है, जो तुम उसके ऊपर आरोपित कर रहे हो। शत्रुता को मार डालो, फिर देखो कौन शत्रु! और मित्रता को मार डालो, फिर देखो कौन मित्र है! राग को मिटा दो फिर देखो, कौन अपना, कौन पराया! अहंकार को छोड़ दो, फिर देखो कौन रोकता है। कैसे रोक सकता है?
एक मित्र संन्यास लेने आए थे। वे कहते हैं, लेना तो है। जब यहां पूना में आता हूं तो एकदम पक्का भाव हो जाता है। लेकिन जैसे ही अपने गांव की याद आती है, फिर घबड़ा जाता हूं कि गेरुए वस्त्र, माला! गांव में लोग पागल समझेंगे। तो गांव के कारण नहीं ले पा रहा हूं।
तो मैंने उनसे कहा, गांव का इससे क्या लेना-देना? पागल न समझे जाओ, यह है असली भय। गांव क्या करेगा? अगर पागल समझे जाने को राजी हो तो गांव क्या करेगा? अगर पागल हो ही जाओगे तो गांव क्या करेगा?
गांव क्या कर सकता है! लेकिन भीतर भाव है कि गांव में जो प्रतिष्ठा है, वह न मिट जाए। तो प्रतिष्ठा रोक रही है, गांव तो नहीं रोक रहा। सीधी बातों को सीधा न करके हम उलझाते हैं। प्रतिष्ठा का मोह रोक रहा है। गांव तो नहीं रोक रहा। प्रतिष्ठा के मोह को मार डालो
जीसस का मतलब इतना ही है। जीसस अपने शिष्यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने में कोई तुम्हें रोके तो उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो
हजार बाधाएं आती हैं जीसस जैसे व्यक्ति के साथ चलने में। वे बाधाएं बाहर नहीं हैं, वे तुम्हारे भीतर हैं।
एक बहुत बड़ा धनपति, और बहुत प्रतिष्ठित विद्वान और जेरूसलम के विश्वविद्यालय का अध्यापक निकोदेमस जीसस को मिलना चाहता था। लेकिन दिन में मिलने जाने से डरता था--दिन में! क्योंकि लोगों को पता चल जाए तो वह प्रतिष्ठित आदमी था। पांच पंचों में एक था जेरूसलम के। लोग क्या कहेंगे? वह बड़ा पंडित था। उसके वचन शास्त्रों की तरह समझे जाते थे। लोग क्या कहेंगे कि तुम भी पूछने गए? तो तुम्हें भी पता नहीं है अभी?
उम्र भी उसकी ज्यादा थी। जीसस तो अभी जवान थे--कोई तीस साल की, इकतीस साल की उम्र थी।
वह उम्र में भी बड़ा था, प्रतिष्ठा में भी बड़ा था, धन में भी बड़ा था। नाम भी उसका बड़ा था। सारा देश उसे जानता था। हजारों उसके शिष्य थे, विद्यार्थी थे। वह कैसे इस आवारा आदमी के पास चला जाए दिन में? और वहां भीड़ भी आवाराओं की लगी हुई थी। वे क्या कहेंगे? लोग हंसेंगे। गांवभर में भद्द हो जाएगी। प्रतिष्ठा टूट जाएगी।
तो एक दिन आधी रात अंधेरे में, जब सारे लोग जा चुके थे तब वह अंधेरे में सरकता चुपचाप जीसस के पास पहुंचा। हिलाया उनको, कहा कि सुनो। एक बात पूछनी है। तुम्हें मिल गया? जीसस ने कहा, दिन में क्यों न आए? निकोदेमस बोला, लोगों के कारण।
जीसस ने कहा, इतने लोग आते हैं, लोगों के कारण कोई रुकता नहीं। रुकने का कारण कहीं भीतर होगा। निकोदेमस, किसे धोखा दे रहे हो? इतने बड़े पंडित और समझदार होकर इतनी-सी बात भी समझ में नहीं आ रही? रात में मिलने आए हो ताकि किसी को पता न चले? ताकि कल भरी दुपहरी में तुम कह सको कि यह जीसस आवारा है? जो जाते हैं इसके पास, नासमझ हैं, भूले-भटके हैं। यह दूसरों को भटका रहा है। ताकि तुम अपनी प्रतिष्ठा भी बचा लो निकोदेमस! और तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं, इसलिए तुम पूछने को भी तरसते हो।
हां, मुझे मिला है लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जब तक तुम मरो नहीं, तुम्हारा पुनर्जन्म न हो, तुम न पा सकोगे।
निकोदेमस भी प्रश्न पूछनेवाले की तरह गलत समझा। उसने कहा, मरो नहीं? क्या मतलब? और पुनर्जन्म से तुम क्या चाहते हो? क्या मैं फिर किसी स्त्री के गर्भ में प्रवेश करूं? यह तो असंभव है।
जीसस ने कहा, सीधी-सीधी बात है। असंभव मत बनाओ। न तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम मरो; और न मैं यह कह रहा हूं, किसी स्त्री के गर्भ में प्रवेश करो। मैं इतना ही कह रहा हूं कि तुम्हारा पुराना अहंकार गिरे। तुम नए हो जाओ। प्रतिष्ठा पाकर क्या मिला? देखो जीवन को सीधा-सीधा। प्रतिष्ठा है तुम्हारे पास, पद है तुम्हारे पास, तथाकथित ज्ञान का अंबार लगा है तुम्हारे पास; मिला क्या? छोड़ो उसे, जिससे नहीं मिला तो तुम उसे पाने के हकदार हो सकते हो, जिससे मिल सकता है। मैं देने को तैयार हूं। लेकिन पहले इस सबको मार आओ, मिटा आओ। पुराने को गिराओ ताकि नया निर्मित हो सके। ये घास-फूस उखाड़ो और फेंको ताकि फूलों के बीज बोए जा सकें। निकोदेमस ने कहा कि यह जरा कठिन है।
लेकिन अगर सत्य को पाना इतना भी मूल्यवान नहीं है कि तुम थोड़ी कठिनाई से गुजर सको तो तुम सत्य पाने के हकदार भी नहीं।       
सीधा-सा मतलब है। वही मैं भी तुमसे कहता हूं कि जो तुम्हारे मार्ग में आए, मार डालना। लेकिन मेरा अर्थ समझ लेना। किसी को मार मत डालना। कि पत्नी बीच में आए तो उठाकर एक टेंड़पा उसका सिर तोड़ दो।
भीतर तुम्हारे जो-जो बाधाएं हैं उन्हें गिरा दो। बाहर कभी कोई बाधा नहीं है--रही ही नहीं। बाहर तो हमारी तरकीबें हैं। जो हम भीतर से करने में डरते हैं, लेकिन इतनी भी हिम्मत नहीं है कि स्वीकार कर लें अपनी कमजोरी, उनके लिए हम बाहर कारण खोजते हैं। यह बाहर का सब तर्कजाल है।
तुम कहते हो पत्नी दुखी होगी, इसलिए संन्यास नहीं ले रहे हो। लेकिन और कितने काम तुमने किए, तब तुमने पत्नी के दुखी होने की कोई फिकर न की; संन्यास में ही फिकर कर रहे हो? पत्नी तुम्हारी सुखी रही है इसका अर्थ है पूरे जीवन? अभी तक मैंने सुखी पत्नी नहीं देखी, न सुखी पति देखा। सब रोते दिखाई पड़ते हैं। पति सोचता है, पत्नी दुख दे रही है। पत्नी सोचती है, पति दुख दे रहा है। और फिर भी तुम कहते हो, पत्नी दुखी होगी। इतने दुख दिए, यही एक दुख देने में डर रहे हो?
नहीं, कहीं कुछ और बात है। शराब पीते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी दुखी होगी। जुआ खेलते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी दुखी होगी। किसी और स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी दुखी होगी। तब कहते हो क्या करें! मजबूरी है। हो गया, प्रेम हो गया; अब क्या करें?
ऐसा ही कह न सकोगे कि संन्यास हो गया, अब क्या करें? नहीं, पत्नी से किसको प्रयोजन है? और फिर दूसरे को दुख देना न देना तुम्हारे बस में है? सुख देना तुम्हारे हाथ में है?
जो तुम नहीं करना चाहते हो उसके लिए तुम बाहर कारण खोज लेते हो। जो तुम करना चाहते हो, उसके लिए भी कारण खोज लेते हो। करते तुम वही हो, जो तुम करना चाहते हो और सदा कारणों का सहारा ले लेते हो।
जब जीसस कहते हैं, मार डालो जो बाधा बने--उनका कुल प्रयोजन इतना है कि अपने भीतर से सारा जाल गिरा दो, फिर तुम्हें जो ठीक लगे, करो। तभी कोई जीसस के पीछे आ सकता है। तभी कोई मेरे साथ आ सकता है। कुछ चुकाना पड़ेगा मूल्य। सत्संग मुफ्त तो नहीं है। महंगे से महंगा सौदा है।
और संसार में सब चीजें छोटी-मोटी चीजें देने से मिल जाती हैं, यहां तो कोई अपने को पूरा दे सकेगा तो ही पा सकेगा।
कहते हो कि "प्रेम के पुजारी से ऐसी आज्ञा?'
यह प्रेम की ही आज्ञा है। यह आज्ञा बड़ी प्रेमपूर्ण है; नहीं तो दी न गई होती। जीसस तुम्हें प्रेम करते हैं इसलिए ऐसा कह सके। यह पुकार प्रेम की ही पुकार है। अन्यथा तुम्हें पीछे चलाने में कुछ जीसस को सुख मिलनेवाला नहीं है। न तुम्हें पीछे चलाते, न फांसी मिलती। तुम्हें पीछे चलाया, फांसी मिली।
अकेले बैठे रहते, कोई फांसी लगानेवाला न था। तुम्हें चलाया तो कंधे पर अपनी सूली ढोनी पड़ी। अकेले बैठे रहते, तुम्हें पीछे न चलाते तो सूली ढोने की कोई नौबत न आती।
तुम्हें साथ चलाकर जीसस को क्या मिला? फांसी मिली, सूली मिली। कोई सिंहासन तो मिल न गया। लाभ जीसस को क्या हो गया? लेकिन प्रेम था। बिना चलाए न रह सके। जो मिला था, बिना बांटे न रह सके। जो पाया था, चाहा कि तुम्हारी झोली में भी भर दें। किसी गहन प्रेम से ही पुकारा था कि आओ मेरे पीछे। किसी बड़े खजाने की खबर उनको मिल गई थी। वह खजाना इतने पास है और तुम भिखमंगे हो। तो कहा था, चले आओ मेरे पीछे। जिनको भी जीसस का खजाना समझ में आ गया, वे चल पड़े।
जीसस सुबह निकलते हैं एक झील के पास से। दो मछुए मछलियां मार रहे हैं। उन्होंने जाल फेंका है, अभी सूरज ऊगा है और जीसस पीछे आकर खड़े हो गए। और उन्होंने एक मछुए के कंधे पर हाथ रखा और कहा कि देख, मेरी तरफ देख। कब तक मछलियां पकड़ता रहेगा? अरे आ! मैं तुझे कुछ बड़ी चीजें पकड?ने का राज बताता हूं। और फिर मैं सदा यहां न रहूंगा। मेरे जाने का वक्त जल्दी ही आ जाएगा।
वह मछुआ तो चौंका होगा। यह कौन अजनबी आदमी? और कैसी अजीब-सी बातें कर रहा है! लेकिन उसने जीसस को देखा, वह सीधा भोला-भाला आदमी रहा होगा। वह कोई पंडित न था। उसे शास्त्रों का कुछ पता नहीं था। मछलियां मारने में ही जिंदगी बिताई थी। सीधा-सादा भोला-भाला आदमी था। तर्क, गणित, जाल कुछ भी न था।
उसने जीसस की आंखों में देखा--सीधे आदमी ही आंखों में आंखें डालकर देख सकते हैं--और उस के हाथ से जाल छूट गया। उसने अपने भाई को भी ललकारा, जो डोंगी में बैठकर जाल डाल रहा था कि तू भी आ। जिन आंखों की हम तलाश करते थे वे आ गईं। इस आदमी के पास कुछ है। हम इसके साथ चलेंगे। यह भी न पूछा तुम कौन हो? पता-ठिकाना? तुम्हारा अधिकार क्या? तुम्हारी आप्तता क्या? किस अधिकार के बल से बोल रहे हो कि हमारे पीछे आओ, फेंको जाल?
वे पीछे हो लिए। वे गांव के बाहर निकलते थे कि एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा कि तुम दोनों कहां जा रहे हो पागलो? तुम्हारा बाप, जो बीमार था, वह मर चुका।
उन दोनों ने जीसस से कहा, हमें तीन-चार दिन की मोहलत, सुविधा दे दें। हम जाकर अपने पिता का अंतिम संस्कार कर आएं। तो जीसस ने कहा कि जो मुर्दे गांव में हैं, काफी हैं। वे मुर्दे का संस्कार कर लेंगे। तू फिकर न कर। तुम फिकर मत करो। तुम मेरे पीछे चल पड़े तो अब लौटकर मत देखो। मरे हुए बाप को दफनाने के लिए मरे हुए लोग काफी हैं गांव में; वे फिकर कर लेंगे। मुर्दे मुर्दे को दफना लेंगे। तुम मेरे पीछे आओ।
यह हमें लगेगा बड़ी कठोर बात है। और प्रेमी, प्रेम के संदेशवाहक जीसस के मुंह से, कि दफना लेंगे मुर्दे मुर्दे को...। लेकिन मुर्दे को दफनाकर भी क्या होना है? जो जा ही चुका, जा ही चुका। अब तुम इस लाश को मिट्टी में गड़ा दो कि आग में जला दो कि पशु-पक्षियों के लिए छोड़ दो। क्या फर्क पड़ता है? कि तुम विधि-विधान पूरा करो कि मंत्र जाप करो; क्या फर्क पड़ता है? जो चुका, जा चुका। अब तो यह खोल पड़ी रह गई है। प्राण तो उड़ चुके। पिंजड़ा पड़ा रह गया है; पक्षी तो जा चुका। अब यहां कुछ भी नहीं है।
इसलिए जीसस कहते हैं, यह काम तो मुर्दे भी कर लेंगे। इसलिए तुम्हें जाने की कोई जरूरत नहीं है। पीछे लौट-लौटकर मत देखो, अन्यथा मेरे साथ न चल सकोगे।
जिन्हें जीसस के साथ चलना हो, उन्हें आगे देखना चाहिए। जो जा चुका, जा चुका। अतीत न हो चुका। जो ऊग रहा सूरज, उस तरफ ध्यान देना चाहिए क्योंकि वहां जीवन है। वहां जीवन की संभावना है। वहां जीवन की नियति है। वहां भाग्य का छिपा हुआ खजाना है।
हिम्मतवर लोग रहे होंगे। यह घड़ी ऐसी थी कि कहते कि यह भी क्या बात हुई! जिस पिता ने हमें जन्म दिया वह मर गया और तुम हमें रोकते हो? लेकिन बड़े सीधे-साफ लोग रहे होंगे। उनकी बात समझ में आ गई। उन्होंने कहा, यह बात तो ठीक ही है। दफनाकर भी क्या होगा? और इतने लोग तो गांव में हैं ही, वे दफना ही लेंगे।
वे नहीं गए वापस। वे जीसस के साथ ही चलते रहे।
यह आवाज प्रेम की ही आवाज थी। यह करुणा का ही संदेश था। क्योंकि जीसस को पता है, एक बार व्यक्ति मुक्त हो जाए तो नाव ज्यादा देर इस किनारे पर नहीं टिकती। थोड़ी देर टिकती है। थोड़ी देर टिक जाए, यह भी चमत्कार है। थोड़ी देर भी चेष्टा से टिकती है। यह नाव जल्दी छूट जाएगी। अगर पीछे लौट-लौटकर देखते रहे, और व्यर्थ की बातों में उलझते रहे और व्यर्थ के बहाने खोजते रहे और कहा कि कल आएंगे, परसों आएंगे, तो तुम कभी न आ पाओगे।
इसलिए जीसस कहते हैं, जो मार्ग में आए, जो बाधा बने, उसे हटा दो, मिटा दो।
मैं भी तुमसे यही कहता हूं। जो व्यर्थ है उसके साथ संग मत जोड़ो। जो थोथा है उससे दोस्ती मत बनाओ। थोथे से दोस्ती तुम्हारे भीतर के थोथेपन का सबूत है।
ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं
तातै जारे अंग सीरो पै कारो लगे
रहीम कहते हैं:
ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं
ओछे से दोस्ती मत बांधो। व्यर्थ से दोस्ती मत बांधो। असार से दोस्ती मत बांधो। अंगार समझो ओछे को।
तातै जारे अंग
जब गरम होता, जलता होता तो शरीर को जलाता है।
सीरो पै कारो लगे
और जब ठंडा हो जाता है तो शरीर में कालिख लगाता है। ऐसा अंगार समझो ओछेपन को। जलाएगा या तो, अगर जीवित रहा, गरम रहा। अगर मरा, मुर्दा हुआ तो कोयला हो जाएगा, तो फिर शरीर को काला करेगा। मगर हर हालत में सताएगा।
पर ध्यान रखना, जीवन के सारे सूत्र आत्यंतिक अर्थों में अंतस के संबंध में हैं। तुम किसी ओछे आदमी से दोस्ती क्यों करते हो? दोस्ती अकारण तो नहीं होती। तुम्हारे भीतर कुछ ओछापन होता है जो उसके साथ तालमेल खाता है। तुम बुरे आदमी की दोस्ती कैसे कर लेते हो? कोई आसमान से दोस्ती थोड़े ही टपकती है!
एक अजनबी आदमी गांव में आए, जल्दी ही तुम पाओगे, दो-चार दिन के भीतर उसने अपने जैसे लोग खोज लिए। अगर वह भक्त था तो भक्तों के सत्संग में पहुंच जाएगा। गीत गुनगाएगा, नाचेगा, प्रभु का स्मरण करेगा। शराबी था तो शराबखाने पहुंच जाएगा। शराबियों के गले में हाथ पड़ जाएंगे। जुआरी था, जुआघर खोज लेगा।
भक्त वर्षों रह जाए इस गांव में, और उसे पता न चलेगा कि जुआघर कहां है। और जुआरी वर्षों रह जाए, उसे पता न चलेगा कि कहीं भजन भी हो रहा है। उसी रास्ते से गुजर जाएगा। लेकिन भजन आंख में दिखाई न पड़ेगा, कान में सुनाई न पड़ेगा। शोरगुल मालूम होगा। उससे कोई संबंध न जुड़ेगा। लेकिन कहीं पासों की खनकार सुनाई पड़ जाए तो वह सजग हो जाएगा। उसकी दुनिया आ गयी। उसके भीतर कोई चीज तालमेल खा गई।
तुम बाहर उन्हीं से दोस्ती बना लेते हो, जैसे तुम हो। इसलिए बाहर को दोष मत देना। भीतर अपने खोजना।
ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं
तातै जारे अंग सीरो पै कारो लगे।

तीसरा प्रश्न: आपने कहा है कि एक-दूसरे से विपरीत अनेक मार्ग हैं, जो एक परमात्मा पर ले जाते हैं। अतीत में ऐसा रहा है कि एक ही मार्ग के साधक एक गुरु के पास इकट्ठे होते थे। जैसे योगी अलग, भक्त अलग, तांत्रिक अलग, ध्यानी अलग। इससे सभी को अपने मार्ग पर चलने में सुविधा थी। परंतु आपके पास, आपके आश्रम में तो सब विपरीत मार्गों का मेला लगा हुआ है--योगी और भक्त, तांत्रिक और सूफी, कर्मयोगी और ध्यानी, सब एक साथ। ऐसा कैसे? इससे बाधाएं भी बनती हैं। इस संबंध में कुछ कहने की कृपा करें।

यह सच है। अतीत में ऐसा ही था। एक गुरु एक संकीर्ण मार्ग का उपदेष्टा होता था। उसके लाभ भी थे, हानियां भी थीं।
लाभ तो यह था कि तुम्हारे मन में कभी दुविधा पैदा न होती थी। एक ही बात...एक ही बात...एक ही बात सुनते थे। एक ही बात...एक ही बात...एक ही बात करते थे। संदेह पैदा न होता था। चुपचाप अपने मार्ग को पकड़कर चलते थे। लेकिन खतरा था। संकीर्णता पैदा होती थी। सांप्रदायिकता पैदा होती थी, कि मैं ही ठीक हूं, और सब गलत हैं। यही मार्ग ठीक है, और सब मार्ग गलत हैं।
तो लाभ था, हानि थी। और लाभ से हानि ज्यादा बड़ी सिद्ध हुई। लाभ तो बहुत थोड़े लोगों को हुआ, हानि करोड़ों को हुई। सारी दुनिया सांप्रदायिक हो गई। सारी दुनिया में यह मतांधता फैल गई कि हम ठीक और बाकी सब गलत।
जैन से पूछो, वह कहता है हमारा गुरु गुरु, बाकी सब कुगुरु। हमारा शास्त्र शास्त्र, बाकी सब कुशास्त्र। मुसलमान से पूछो, हिंदू से पूछो, ईसाई से पूछो। सब संकीर्ण हो गए, सांप्रदायिक हो गए। धर्म की तो हत्या हो गई। सुविधा तो मिली होगी थोड़े-से लोगों को, सरल-चित्त लोगों को--जिन्होंने इतना ही जाना कि हमारे लिए क्या ठीक है, हमें मिल गया और चुपचाप उस पर चल पड़े। सौ में से एक को तो सुविधा मिली होगी, निन्यानबे तो सिर्फ संकीर्ण हो गए।
मैं ठीक उल्टा प्रयोग कर रहा हूं, जैसा कभी नहीं हुआ है। मैं यह फिकर कर रहा हूं कि चाहे सुविधा थोड़ी कम हो, संकीर्णता न हो। मानना मेरा ऐसा है कि जो एक सरल आदमी पुरानी संकीर्ण सीमाओं से जा सका, वह सरल आदमी मेरे पास भी जा सकेगा। उसे दुविधा पैदा नहीं होगी यहां भी। क्योंकि सरल आदमी मुझे देखेगा। मैं क्या कहता हूं इसकी बहुत फिकर ही नहीं करता। सरल आदमी तो मुझ पर भरोसा करता है। वह कहता है वे जो कहते होंगे, ठीक कहते होंगे। उसे कोई दुविधा पैदा नहीं होती। वह मेरे विरोधाभास में भी मुझे ही देखता है। दोनों में मुझे ही देखता है। और सरल आदमी तो अपने काम की बात चुन लेता है और चल पड़ता है।
जटिल आदमियों के साथ झंझट है। लोभियों के साथ झंझट है। उन लोभियों को दुविधा पैदा होगी क्योंकि वे चाहते हैं, ध्यान भी झपट लें, प्रेम भी झपट लें। भक्ति पर भी कब्जा कर लें, ध्यान पर भी कब्जा कर लें। तपस्वी भी हो जाएं, जीवन का रस भी न खोए। त्याग का भी मजा ले लें, अहंकार का भी मजा ले लें और परमात्मा की पूजा का भी रस आ जाए।
लोभी! उसको तकलीफ होगी। सरल-चित को तो मेरे पास कोई तकलीफ नहीं है। उसको कभी कोई तकलीफ नहीं है, किसी के पास कोई तकलीफ नहीं है। सरल-चित्त आदमी तो अपने मतलब की बात खोज लेता, चल पड़ता।
तुम जाते हो नदी के किनारे। प्यासा आदमी तो अपने चुल्लू में पानी भर लेता है। पूरे नदी की थोड़े ही फिक्र करता है कि अब इसको घर ले जाएं, बांधकर रखें, क्या करें, क्या न करें। वह धन्यवाद देता है नदी को कि ठीक। अपनी चुल्लू भर ली, अपनी प्यास बुझा ली, बात खतम हो गई।
हां, अगर तुम लोभी हो तो तुम प्यास तो भूल ही जाओगे, तुम सोचोगे इस नदी पर कब्जा कैसे किया जाए। यह पूरी नदी मेरे तिजोड़ी में कैसे बंद हो जाए। इस पूरी नदी का मैं मालिक कैसे हो जाऊं। तो तुम अड़चन में पड़ोगे।
सरल तो पहले भी अड़चन में नहीं पड़ा, अब भी नहीं पड़ेगा।
मैं जो प्रयोग कर रहा हूं वह नया है। मैं चाहता हूं कि संसार में अब संकीर्णता न रहे, सांप्रदायिकता न रहे। संप्रदाय के नाम पर बहुत हानि हो चुकी। आदमी लड़े और कटे और मरे। आदमी निर्मित नहीं हुआ, विनष्ट हुआ। अब संप्रदाय नहीं चाहिए। अब तो दुनिया में धर्म नहीं चाहिए, धार्मिकता चाहिए। मंदिर-मस्जिद नहीं चाहिए, धर्म-भावना चाहिए। कुरान-गीता छूटें, छूटें; सदभाव न छूटे। जैन, हिंदू, मुसलमान नहीं चाहिए। अब तो भले, सीधे, सरल-चित्त लोग चाहिए। क्योंकि जैन, हिंदू, मुसलमान तो हजारों वर्षों से जमीन पर हैं। और जमीन रोज नर्क होती चली गई। इनके होने से कुछ लाभ नहीं हुआ। ये तो अब विदा लें। इनको तो हम अलविदा कहें। अब तो खाली आदमी, सूना आदमी, स्वस्थ-सरल आदमी चाहिए।
इसलिए मैं सारे धर्मों की बात कर रहा हूं। इसमें जो सरल हैं उनको तो बड़ा लाभ होगा, जो जटिल हैं उनको बड़ी दुविधा होगी। लेकिन मेरे देखे, मेरे लेखे अगर सौ आदमी पुरानी दुनिया में चलते थे धर्म के मार्ग पर तो निन्यानबे संकीर्ण हो गए, एक सरल पहुंचा। मैं तुमसे कहता हूं, वह एक सरल तो मेरे पास भी पहुंच जाएगा और निन्यानबे संकीर्ण न हो पाएंगे। और अगर निन्यानबे संकीर्ण न हों तो उनके पहुंचने की संभावना भी बढ़ गई। मैं तुम्हें विराट करना चाहता हूं। तुम्हें पूरी दृष्टि देना चाहता हूं। तुम सब देख लो। फिर तुम्हें जो रुचिकर लगे उस पर चल पड़ो। कठिनाई तो तब होगी जब तुम सभी रास्तों पर चलने की कोशिश करने लगोगे। तब अड़चन होगी।
लेकिन यह तो पागलपन है। तुम केमिस्ट की दुकान पर जाते हो, अपना प्रिस्क्रिप्शन दिखाते हो, दवा ली, चल पड़े। तुम यह नहीं कहते कि यहां लाखों दवाएं रखी हैं। तुम यह नहीं कहते कि एक ही दवा से क्या होगा? सब दवाएं दे दो। तुम अपना रोग देख लेते हो, अपनी औषधि लेकर अपने घर चले आते हो। तुम चिंता में नहीं पड़ते कि केमिस्ट की दुकान पर लाखों दवाएं रखी हैं और हम एक ही लिए जा रहे हैं? तुम लोभ में नहीं पड़ते।
मैं तुम्हारे सामने सब द्वार खोल रहा हूं। तुम्हें जो द्वार रुच जाए, तुम उससे प्रवेश कर जाना। अब तुम यह कोशिश मत करना कि सभी द्वारों से तुम प्रवेश करो; अन्यथा तुम पगला जाओगे। संकीर्ण तुम मेरे पास न हो सकोगे, लेकिन अगर लोभी हुए तो पागल हो जाओगे। लेकिन वह भी मेरे कारण नहीं, अपने लोभ के कारण।
मैं तो तुम्हें सारा दृश्य दे रहा हूं, पूरा नक्शा दे रहा हूं दुनिया का। फिर तुम्हें जो तुम्हारे भीतर धुन बजा देता हो, उसे पकड़ लो। मेरे लिए रास्ते मूल्यवान नहीं हैं, तुम मूल्यवान हो। विधियों का कोई मूल्य नहीं है, व्यक्तियों का मूल्य है। तुम्हें जो विधि रुच जाए, जिस विधि से तुम्हारे भीतर कमल खिलने लगे, वही तुम्हारा मार्ग हो गया।
लेकिन मेरे पास एक बात तुम्हें जरूर समझ में आ जाएगी: कि जो तुम्हारे लिए मार्ग है, जरूरी नहीं है सबके लिए हो। जो तुम्हारे लिए मार्ग नहीं है, हो सकता है दूसरे के लिए हो। क्योंकि तुम यहां मेरे पास देखोगे भक्ति से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां देखोगे ध्यान से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां मुसलमानों को प्रभु की तरफ बढ़ते देखोगे, जैनों को, हिंदुओं को, ईसाइयों को, यहूदियों को।
तो एक बात तो यहां तुम्हें सीख ही लेनी पड़ेगी कि सब पहुंच जाते हैं। पहुंचने की गहरी आकांक्षा हो, अभीप्सा हो। सब पहुंच जाते हैं। सब मार्गों से पहुंच जाते हैं। सभी मार्ग उस की तरफ ले जाते हैं। उस एक ही यात्रा चल रही है। वह एक ही तीर्थ है। सभी यात्राएं वहीं पहुंच जाती हैं।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि तुम सभी मार्गों पर दौड़ने लगो। तब तुम पगला जाओगे। तब तुम कहीं न पहुंचोगे। चलना तो एक ही मार्ग पर होगा।
देखा? गंगा बहती है पूरब की तरफ, नर्मदा बहती पश्चिम की तरफ; दोनों सागर पहुंच जाती हैं।
यह तो अच्छा हुआ कि दोनों का कहीं मिलना नहीं होता बीच में। नहीं तो गंगा कहेगी, पागल हुई? पश्चिम में कहीं सागर है? सदा से पूरब में रहा। हम सदा पूरब में मिलते रहे सागर से। तेरा दिमाग फिर गया नर्मदा? लौट आ। मेरे साथ हो ले। हमारे संप्रदाय में सम्मिलित हो जा।
और नर्मदा कहेगी, तू पागल हो गई? हम सदा से गिरते रहे सागर में। यही हमारा ढंग रहा। तुझे कुछ भ्रांति है। पूरब में कहीं सागर है? पूरब से तो हम आते हैं, पश्चिम को हम जाते हैं। पूरब में सागर होता तो हम आते ही क्यों पूरब से? पूरब में कुछ भी नहीं है। भटक जाओगी।
नदियां आपस में बात नहीं करतीं, अच्छा है। दोनों सागर पहुंच जाती हैं। सभी नदियां अंततः सागर पहुंच जाती हैं।
ऐसा ही सभी चेतनाएं अंततः परमात्मा में पहुंच जाती हैं। तुम अपना मार्ग पकड़ लो और ध्यानपूर्वक, स्मरणपूर्वक, उस पर चलो। दूसरों को उनके मार्ग पर चलने दो। आशीर्वाद दो उन्हें कि वे भी पहुंचें। प्रार्थना करो उनके लिए कि वे भी पहुंचें। इससे क्या फर्क पड़ता है कैसे पहुंचते हैं, कौन-सा वाहन लेते हैं! पहुंचें। और उनसे आशीर्वाद मांगो अपने लिए कि हम भी पहुंच जाएं, जो हमने मार्ग चुना है उससे। तो दुनिया में एक सदभाव पैदा हो। हो चुका संप्रदाय बहुत, अब सदभाव चाहिए।

चौथा प्रश्न: त्वमेव माता च पिता त्वमेव
 त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव
  त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
   त्वमेव सर्वं मम देव देव
          --सरोज के वंदन।

जो मैं अभी कह रहा था। कोई ध्यान से खिल जाता, कोई प्रेम से खिल जाता।
सरोज का प्रश्न एक भक्त का प्रश्न है। भक्त के पास प्रश्न भी नहीं है, निवेदन है। शायद निवेदन कहना भी ठीक नहीं, अहोभाव की अभिव्यक्ति है। पूछने को कुछ नहीं है, धन्यवाद देने को कुछ है।
ध्यान का मार्गी पूछता है, क्या करें। प्रेम का मार्गी धन्यवाद देता है कि जो हुआ, वह बहुत है। और न हो तो चलेगा। जो हो ही गया है वह अपनी पात्रता से ज्यादा है। ऐसे ही पात्र के ऊपर से बहा जा रहा है; बाढ़ आ गई है।
यहां तुम इन प्रश्नों में भी दखोगे। अलग-अलग लोग, अलग-अलग उनकी लहरें, अलग उनकी तरंगें।
अब सरोज पूछती है--प्रश्न है ही नहीं इसमें। वह कहती है तुम ही पिता, तुम ही माता, तुम ही बंधु, तुम ही सखा। तुम ही सब कुछ। तुम ही देवताओं के देवता।
भक्त के पास एक अहोभाव है। भक्त खोज नहीं रहा है, भक्त को मिल गया है। भक्त कहता है जीवन बरस ही गया है। उत्सव चल ही रहा है। जो मिलना था वह मिल ही गया है। परमात्मा ने उसे दे ही दिया है।
ध्यानी तो खोज रहा है कि मिलेगा तब आनंदित होगा। भक्त आनंदित है। ध्यानी खोजेगा तो आनंदित होगा, भक्त आनंदित है इसलिए खोज लेगा। ध्यानी का साधन पहले है, साध्य अंत में। भक्त का साध्य पहले है, साधना अंतिम।
इसलिए भक्त और ध्यानी की भाषा में बड़े जमीन-आसमान के अंतर हैं। वे एकदम उल्टी बातें बोलते हैं। इसलिए तो ज्ञानी कहते हैं कबीर को--उलटबांसी। उल्टी बांसुरी बजा रहे हो। और कबीर भी कहते हैं, "एक अचंभा मैंने देखा नदिया लागी आग।' नदी में आग लगी देखी।
अब यह कोई सोच-विचारवाला आदमी कहेगा कि दिमाग खराब हो गया है। कबीर यही कह रहे हैं कि मैंने साध्य को पहले देखा, साधन को पीछे। मंजिल पहले पाई, मार्ग पीछे। मिलन परमात्मा से पहले हो गया तब बाद में समझ आयी कि कैसे मिलें। नदिया लागी आग, एक अचंभा मैंने देखा।
लेकिन गणित से, तर्क से, विचार से चलनेवाला आदमी कहेगा, यह तो उलटबांसी हो गई। यह तो उल्टी बात हो गई।
दोनों की भाषाएं निश्चित उल्टी हैं। लेकिन तुम ऐसा समझो कि कोई कहता है मुर्गी से अंडा होता है, और कोई कहता है अंडे से मुर्गी होती है। क्या ये सच में उल्टी बातें हैं? ये दोनों ही सच हैं। लेकिन इतनी हिम्मत चाहिए समझने की कि दोनों एक साथ सच हैं। बड़ा कठिन मालूम होता है क्योंकि हम तो संकीर्णता से सोचते हैं। हम कहते हैं, मुर्गी पहले तो अंडा बाद में। अब कोई कहता है अंडा पहले, तो हमें झगड़ा खड़ा हो जाता है। हम कहते हैं, ये दोनों बातें तो एक साथ नहीं हो सकतीं। या तो मुर्गी पहले, या अंडा पहले। दो में से कुछ एक ही पहले हो सकता है। लेकिन तुमने कभी खयाल किया? दोनों एक-दूसरे के पहले खड़े हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन दो स्त्रियों के प्रेम में था। अलग-अलग मिलता था तब तो ठीक था। एक-दूसरे के सौंदर्य की बात करता, खूब चर्चा करता। दोनों स्त्रियों की भी आपस में धीरे-धीरे पहचान हो गई। उन्होंने कहा कि यह आदमी धोखा दे रहा है, इसको फांसना पड़ेगा।
एक दिन नौका-विहार के लिए दोनों ने इकट्ठा मुल्ला नसरुद्दीन को अपने साथ ले लिया। नदी पर बैठकर, पूर्णिमा की रात, बीच मझधार में मुल्ला से कहा कि नसरुद्दीन, अब कहो कौन सुंदर है? अब मुल्ला बहुत घबड़ाया। अकेले में एक स्त्री को कह दो कि तुम दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री हो; कोई हर्जा नहीं। सभी कहते हैं। कहना ही पड़ता है। फिर इससे कुछ अड़चन नहीं आती। दूसरी स्त्री को फिर अकेले में कह दो। इससे कोई तार्किक झंझट नहीं आती। अलग-अलग समय में अलग-अलग स्थान में दोनों वक्तव्य ठीक मालूम होते हैं। लेकिन दो स्त्रियां...!
और मुल्ला थोड़ा घबड़ाया क्योंकि दोनों नाराज मालूम होती हैं। नदी का मामला! मझधार! धक्का दे दें!
तो उसने कहा, यह भी कोई बात है? अरे तुम एक-दूसरे से सुंदर हो। एक-दूसरे से ज्यादा सुंदर हो। एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर सुंदर हो।
अब एक दूसरे से बढ़-चढ़कर सुंदर हो, इसका मतलब क्या होता है? लेकिन शायद यही ज्यादा सच है। यह वक्तव्य बेबूझ हो जाता है लेकिन ज्यादा सच है।
अंडा मुर्गी के पहले, मुर्गी अंडे के पहले। दोनों एक-दूसरे के पहले। दोनों असल में दो नहीं हैं। मुर्गी अंडे का ही एक रूप है। अंडा मुर्गी का ही एक रूप है। मुर्गी अंडे का ही एक ढंग है और अंडे पैदा करने का। अंडा मुर्गी का ही एक ढंग है और मुर्गी पैदा करने का। ये दोनों दो हैं ऐसा सोचने से गड़बड़ खड़ी हो जाती है। ये संयुक्त घटनाएं हैं।
इसे तुम ऐसा समझो कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कौन आगे, कौन पीछे? युगपत हैं, साथ-साथ हैं। साधन और साध्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
भक्त को साध्य पहले मिलता है, फिर वह साधन खोजता है। वह परमात्मा को पहले खोज लेता है फिर उसका रास्ता खोजता है। तुम कहोगे यह बात अजीब है। क्या करें?
एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आग! ऐसा होता भक्त को। पहले भगवान मिल जाता है, फिर वह उसी से पूछ लेता है अब रास्ता कहां है? अब तुम्हीं बता दो। जब मिल ही गए तो तुम्हारा पता-ठिकाना क्या?
ध्यानी पहले रास्ता खोजता है। ध्यानी ज्यादा तर्कयुक्त है, ज्यादा व्यवस्था से चलता है। उसके जीवन में एक शृंखला है। भक्त बड़ा बेबूझ है। प्रेम सदा से बेबूझ है।
यहूदियों में एक धारणा है--बड़ी प्रीतिकर धारणा। यहूदी भक्ति का ही एक मार्ग है। यहूदी कहते हैं, इसके पहले कि भक्त भगवान को खोजे, भगवान भक्त को खोज लेता है। यहूदी धर्म की बड़ी गहरी देन में से एक देन यह है। वे कहते हैं, तुम खोजना ही तब शुरू करते हो जब वह तुम्हें खोज लेता है, नहीं तो तुम शुरू ही नहीं करते। जब वह किसी तरह तुम्हारे भीतर आ ही जाता है, तभी तुम्हारे भीतर उसे पाने की आकांक्षा जगती है; नहीं तो आकांक्षा ही नहीं जगती।
यहूदी कहते हैं, तुम ही नहीं खोज रहे भगवान को, भगवान भी तुम्हें खोज रहा है। तुम ही नहीं तड़फ रहे उसके लिए, वह भी तड़फ रहा है। और मजा तो तभी है जब आग दोनों तरफ से लगे। अगर भक्त ही खोजता रहे भगवान को और भगवान को जरा भी न पड़ी हो--मिल गए तो ठीक, न मिले तो ठीक; और भगवान उपेक्षा से भरा हो तो खोज का सारा मजा ही चला गया, रस ही चला गया।
ध्यानी कहता है सत्य तुम्हें नहीं खोज सकता, तुम सत्य को खोज सकते हो। एकतरफा है उसकी खोज। वह कहता है हम खोजेंगे। सत्य कैसे खोजेगा? सत्य को तो उघाड़ना पड़ेगा।
भक्त कहता है यह कोई हमीं खोज रहे ऐसा नहीं, वह भी उघड़ने को आतुर है। यह हमीं उसका घूंघट उठाने नहीं चले हैं, वह भी घूंघट डालकर बैठा है कि आओ, उठाओ; कि बड़ी देर लगाई, कहां रहे? आओ! परमात्मा भी खोज रहा है। यह खोज दोनों तरफ से है। यह आग दोनों तरफ से है। यह यात्रा दोनों तरफ से चल रही है।
अब यह सरोज का जो प्रश्न है, एक भक्त का प्रश्न है। प्रश्न तो है ही नहीं। क्योंकि भक्त प्रश्न पूछ नहीं सकता। अहोभाव है। वह अपने हृदय की बात कह रही है कि ऐसा उसे हुआ है।
अब उसे लगता है कि गुरु ही पिता, गुरु ही माता, गुरु ही संगी, गुरु ही साथी, गुरु ही ज्ञान, गुरु ही परमात्मा।
प्रेम जहां भी पड़ता है वहीं परमात्मा की छवि देख लेता है।
तुझ से अब मिलके ताज्जुब है कि अर्सा इतना
आज तक तेरी जुदाई में यह क्यों कर गुजरा
और जब परमात्मा की उसे झलक मिलती है तो उसे भरोसा ही नहीं आता कि आज तक इतना अर्सा तुझसे बिना मिले गुजरा कैसे? यह हो ही कैसे सका? यह मैं हो कैसे सका इतने दिन तक? यह मेरे होने की संभावना ही कैसे हो सकी?
उसे भरोसा ही नहीं आता कि मैं था भी। भक्त को तो उसी दिन भरोसा आता है अपने होने पर, जब भगवान का मिलन होता है। उसी दिन भक्त होता है। उसके पहले तो सब सपना था। एक झूठी दास्तान थी। न किसी ने कही, न किसी ने सुनी, एक झूठी दास्तान थी।
तुझसे अब मिलके ताज्जुब है कि अर्सा इतना
आज तक तेरी जुदाई में यह क्यों कर गुजरा
बहुत दिनों में मोहब्बत को हो सका मालूम
जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई
प्रेमी को पता चलता है धीरे-धीरे प्रेम में पगते-पगते कि:
जो तेरी हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई
जो तेरे बिना गुजरी वह रात रात हुई। वह हुई, न हुई बराबर हुई। तुझे मिलकर जीवन शुरू हुआ।
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव'
तुझे मिलकर जीवन शुरू हुआ।
जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई
इसलिए अगर किसी के हाथ में हाथ जाने से तुम्हारे जीवन में रसधार बहे तो लगेगा तुम्हीं पिता, तुम्हीं माता; क्योंकि नया जन्म हुआ। एक जन्म है, जो माता-पिता से होता है, वह शरीर का जन्म है। फिर एक जन्म है, जो सदगुरु से होता है; वह आत्मिक जन्म है, वह वास्तविक जन्म है। वह तुम्हारी चेतना का आविर्भाव है।
जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई
इसलिए फिर सदगुरु सभी कुछ मालूम होने लगता है। यह भक्त का अपना ही हृदय सदगुरु में झलकता। जो उसे भीतर दिखाई पड़ता है, वही उसे सदगुरु में दिखाई पड़ता है। सदगुरु तो दर्पण है, तुम अपना ही चेहरा देख लेते हो।
और भक्त को फिर बड़ा भरोसा आ जाता है। गुरु का साथ मिला कि भरोसा आ गया। अगर गुरु है तो परमात्मा है। अगर कोई ऐसा व्यक्ति है, जो तुम्हें अपने से पार दिखाई पड़ता है, जिसे देखने में तुम्हारी आंखें जमीन से आकाश की तरफ उठ जाती हैं, तो बस पर्याप्त है।
कहते हैं मंसूर को सूली लगी तो वह खिलखिलाकर हंसने लगा। वह खिलखिलाकर हंसा तो लोगों ने पूछा, तुम हंसते क्यों हो? वह कहने लगा, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि चलो, मुझे सूली पर लटका देखने के लिए कम से कम तुम्हारी आंखें तो ऊपर उठीं। तुम जमीन पर सरकते लोग, घसिटते लोग--तुम आकाश की तरफ आंख ही नहीं उठाते। चलो, मेरी फांसी के बहाने--वह लटका था एक बड़े ऊंचे खंभे पर--तुम्हारी आंखें तो आकाश की तरफ उठीं, इसलिए हंसा।
अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई
आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में
आकाश तक पहुंचना होगा कि नहीं होगा, कहना मुश्किल है। लेकिन भक्त कहता है:
आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में
मैं रो ही नहीं रहा हूं, मेरे भीतर आह ही नहीं उठ रही है, मेरी उड़ान में प्रार्थना का भी बल है।
अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई
भक्त यह भी नहीं कहता कि पहुंच ही जाऊंगा। नहीं, प्रेम इस तरह के दावे नहीं करता। झिझकता है भक्त। भक्त कहता है:
अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई
पहुंचना हो कि न पहुंचना हो। लेकिन एक अर्थ में भक्त झिझकता है कि पहुंचना होगा कि नहीं, और एक अर्थ में आश्वस्त होता है कि पहुंचना तो हो ही गया।
आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में
मेरी उड़ान में सिर्फ आह ही नहीं है, प्यास ही नहीं है, तुझे खोजने की अभीप्सा ही नहीं है, तुझे पा लेने की प्रार्थना भी है। तुझे पा लिया इसका धन्यवाद भी।
आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में
फिर इस उड़ान को कोई रोक सकता नहीं। यह होकर रहेगी। यह हो ही गई है।
पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल
क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?
भक्त को तो ऐसे ही लगने लगता है कि भगवान पुकार रहा है। यहां जो भक्त की तरह मेरे पास आए हैं, उन्हें मेरी हर आवाज में लगेगा--आपने मुझे पुकारा तो नहीं?
पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल
क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?
उसे अपनी धड़कन की आवाज भी ऐसे लगती है कि परमात्मा के पैरों की आवाज है।
क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?
हर जुल्म गवारा है मगर यह भी खबर है
दिल आपकी है चीज, हमारा तो नहीं
हर ओर बहारों ने लगा रक्खे हैं मेले
यह आपकी नजरों का इशारा तो नहीं
सब तरफ उसे उसी की नजरों का इशारा दिखाई पड़ता है। फूल खिलते हैं तो लगता परमात्मा हंसा। चांद निकलता तो लगता परमात्मा निकला। चांदनी फैल जाती है तो लगता परमात्मा फैला।
पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल
क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?
हर ओर बहारों ने लगा रक्खे हैं मेले
यह आपकी नजरों का इशारा तो नहीं
भक्त को बड़ी गहरी आंख उपलब्ध हो जाती है। बिना कुछ किए, बिना मांगे, बिना प्रयास के--प्रसाद से। चाहिए दिल, जो रो सके। चाहिए दिल, जो हंस सके। चाहिए दिल, जो संदेह न करे, श्रद्धा करे।

पांचवां प्रश्न: पूछा है आनंद सागर ने।
सीमार माझे असीम
तुमी बाजाओ आपन सूर
आमार मध्ये तोमार प्रकाश
ताई एतो मधुर
कत वर्णे कत गंधे
कत गाने कत छंदे
अरूप तोमार रूपेर लीला
जागे हृदय पूर
आमार मध्ये तोमार शोभा,
एमन सुमधुर
हे भगवान रजनीश!
लहो सागरेर नमन, प्रवीणेर वंदन।

ऐसा ही लगता है प्रेमी को कि मेरी सीमा में असीम उतरा; कि मेरे आंगन में आकाश उतरा। भक्त जब सुनता है तो एक-एक शब्द अमृत बनकर बरसता है। भक्त जब सुनता है खुले हृदय से तो जो ज्ञानी को, ध्यानी को, केवल शब्द मालूम होते हैं, भक्त को सिर्फ शब्द नहीं मालूम होते; उन शब्दों में एक अनूठा जीवन, एक आभा, उन शब्दों में शून्य की झनकार...।
सीमार माझे असीम
लगता, मेरी सीमा में असीम आया। गुरु का मिलन सीमा से असीम का मिलन है। शिष्य यानी सीमा। शिष्य वही जिसे अपनी सीमा का पता चल गया और जो राजी है असीम के चरणों में अपनी सीमा को डाल देने को।
सीमार माझे असीम
तुमी बाजाओ आपन सूर
और शिष्य कहता है, बजाओ तुम अपनी वीणा। बजाओ तुम अपना स्वर। मैं राजी हूं। मैं सुनूंगा, मैं नाचूंगा। मैं घूंघर पहनकर आ गया हूं। तुम बजाओ अपना स्वर।
आमार मध्ये तोमार प्रकाश
मैं तो अंधेरा हूं, लेकिन जलाओ तुम अपना दीया। तुम्हारा प्रकाश हो मेरे मध्य
ताई एतो मधुर।
कत वर्णे कत गंधे
कहा न जा सके ऐसा रूप। कही न जा सके ऐसी गंध।
कत गाने कत छंदे
बांधा न जा सके जो छंद में। गीत में जो समाए, अटाए न।
अरूप तोमार रूपेर लीला
तुम्हारी रूप की लीला अपूर्व है, अरूप है।
जागे हृदय पूर
जगाओ उसे मेरे हृदय में।
आमार मध्ये तोमार शोभा
मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मेरी कोई शोभा है तो तुम्हारी मौजूदगी से है। मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, बस तुम हो। मैं तो शून्य हूं। तुम विराजो तो सब हो जाता है। तुम न विराजो तो रिक्त रह जाता हूं। मेरे शून्य में तुम उतर आओ तो सब है मेरे पास। तुम चले जाओ तो सब भी हो मेरे पास तो बस रिक्तता है, खालीपन है।
आमार मध्ये तोमार शोभा
एमन सुमधुर
भक्त की सारी आकांक्षा परमात्मा के लिए जगह देने की, अवकाश देने की है। भक्त जगह खाली करता है। भक्त कहता है, मैं हटता, तुम आओ। मैं चला, तुम विराजो। यह सिंहासन तुम्हारे लिए खाली करता।
ऐसा भक्त अपने को गलाता, मिटाता, शून्य करता। जैसे-जैसे शून्य होता वैसे-वैसे पूर्ण उसमें उतरता। एक दिन भक्त अचानक पाता है, एक सुबह जागकर अचानक पाता है, कि भक्त तो बचा ही नहीं, भगवान ही बचा है। एक दिन भक्त अचानक पाता है, उसकी बांह गले में पड़ गई। एक दिन भक्त अचानक पाता है उसकी अंगूर की छाया तले बैठे हैं। नहीं, भक्त को बैकुंठ की चाह नहीं, न भक्त को कल्पवृक्षों की चाह है। उसके प्रेम की वर्षा होती रहे।
भक्त मिटना चाहता है। मिटने में ही प्रेम की वर्षा है।
और जो शिष्य भक्त की तरह गुरु के पास आता है, अनायास गुरु उसके माध्यम से बहुत-से काम करने शुरू कर देता है। तुम छोड़ो भर, कि तुम उपकरण बन जाते हो। और गुरु के पास तो सिर्फ सीखना है छोड़ने की कला। अगर तुम गुरु के पास अपने को छोड़ सके तो तुमने अ, , स सीख लिया छोड़ने का। यही अ, , स काम आएगा परमात्मा के पास छोड़ने में।
परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। बड़ा अदृश्य है। उपस्थित है और उपस्थिति मालूम नहीं होती। उसी का स्वर गूंज रहा है लेकिन सब सुनाई पड़ता है, वही सुनाई नहीं पड़ता।
गुरु में परमात्मा थोड़ा-सा दृश्य होता है--थोड़ा-सा। एक किरण उस सूरज की उतरती मालूम होती है। थोड़ा रूप धरता। यही तो अवतार का अर्थ है: अवतरित होता। जैसे भाप उतर आए, जल बन जाए। भाप की तरह दिखाई न पड़ती थी, जल बन जाए। भाप की तरह दिखाई न पड़ती थी, जल की तरह दिखाई पड़ने लगी।
गुरु का इतना ही अर्थ है कि जिसके माध्यम से तुम्हें अदृश्य की याद आ जाए, तुम्हारी सीमा में असीम का आंदोलन हो उठे, तुम्हारे अंधेरे में थोड़ा प्रकाश लहरा जाए। तुम्हारे बंद पड़े जल में, तुम्हारे ठहर गए जल में; फिर से लहर आ जाए, फिर से गति आ जाए, फिर से प्रवाह आ जाए।
तो न केवल इधर तुम मिटोगे, उधर तुम होने लगोगे, तुम धीरे-धीरे अंतिम मरण का पाठ सीखोगे। तुम पाओगे, जब गुरु के पास जरा-सा झुकने से इतना मिल जाता है तो फिर पूरे ही क्यों न झुक जाएं?
पूरा जो झुका उसे परमात्मा मिल जाता है। थोड़ा जो झुका उसे गुरु मिल जाता है। और थोड़ा झुकना पूरा झुकने की प्राथमिक शिक्षा है।
एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए
गुरु के पास जो शिष्य झुकते हैं, उनके बुझे दीये जलने लगते हैं।      
एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए
आंगन-आंगन खिले कल्पना सजे द्वार बंदनवारों से
उठे गीत समवेत स्वरों से पगडंडी-पथ-गलियारों से
रोम-रोम उन्मन मुंडेर का पाटल-सा मुसकाए
एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए
पोप-पोर उमगे अणुओं का बिछले दिशा-दिशा अरुणाई
पग-पग उठे किरण पुखराजी डग-डग फेनिल श्वेत जुन्हाई
कोसों तक ऊसर भूमि में नेह-बीज अकुराए
एक दीप से कोटि दीप हों अंधकार मिट जाए
अगर झुक सकते हो तो चूको मत। अगर जरा झुक सकते हो तो उतना ही झुको। उससे और झुकने की कला आएगी क्योंकि झुककर जब मिलेगा तो पता चलेगा कि नाहक अकड़े खड़े रहे। नाहक प्यासे रहे। व्यर्थ ही जीवन को रात बनाया। जो जीवन दिन बन सकता था, उसे अपने हाथ ही अंधकार में सम्हाले रहे।

आखिरी प्रश्न: तरु ने पूछा है।
एक पागल द्वार पर आया था, कुछ गुनगुनाकर चला गया:
तुम मुझे यूं भुला न पाओगे
जब-जब सुनोगे गीत मेरे
संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे

तरु समझी नहीं। पागल नहीं था, मैं ही आया था। मैं ही गुनगुना गया हूं।
"तुम मुझे यूं भुला न पाओगे
जब-जब सुनोगे गीत मेरे
संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे'
और जो मैंने तुझसे कहा तरु, उसे औरों से कह। बात को फैला।        
दिल ने आंखों से कही, आंखों ने उनसे कह दी
बात चल निकली है अब देखें कहां तक पहुंचे।

आज इतना ही।


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