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रविवार, 20 सितंबर 2015

नाम सुमिर मन बावरे--प्रवचन--08


संन्यास परम भोग है—(प्रवचन—आठवां)
दिनांक 8 अगस्‍त 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—अल्बेयर कामू की सत्य की परिभाषा और भगवान श्री की सत्य की परिभाषा में भिन्नता क्यों है?
2—वेदांतमार्गी संन्यासी तथा आर्यसमाज के प्रचारकों द्वारा भगवान श्री की आलोचना करने का क्या कारण होगा?
3—प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर मैं प्रेम करने से क्यों डरता हूं?
4—एक लहर उठी, किनारे से टकराने के पहले मझधार में डूब गई। उस डूबने में आनंद घना होकर छा गया।

पहला प्रश्न :

अल्बेयर कामू का कथन है : "इंसान सदैव अपनी सच्चाइयों का शिकार होता है। एक बार सत्यों को स्वीकार करके वह उनसे अपने को मुक्त नहीं कर पाता।'
सत्य की यह कैसी परिभाषा? और आप तो रोज—रोज यही दोहराते हैं कि अपना सत्य ही मुक्त करता है।
रेंद्र, अल्बेयर कामू एक विचारक है, द्रष्टा नहीं है। विचार सदा ही अंततः निराशाजनक होता है। विचार की निष्पत्ति नकारात्मक है। विचार को उसके तार्किक अंत तक ले जाया जाए तो नास्तिकता के अतिरिक्त हाथ और कुछ भी नहीं लगता। विचार का स्वरूप "नहीं' है। "नहीं' शब्द में विचार की प्रक्रिया समा जाती है। विचार "हां' को जानता ही नहीं।
इसलिए विचारक की यह मजबूरी है कि जितना सोचेगा उतना ही उदास होता जाएगा। क्योंकि जितना सोचेगा उतने जीवन के भ्रम टूटेंगे। सिर्फ भ्रम ही टूटेंगे और जीवन के सत्यों का उसे कुछ भी पता नहीं चलेगा। भ्रम टूटने से रिक्तता हाथ लगती है। और रिक्तता वही नहीं है जिसे जाननेवालों ने शून्य कहा है। शून्य तो बड़ा भरा—पूरा होता है, बड़ा रस—विभोर होता है; रस से सरोबोर होता है। रिक्तता में कुछ भी नहीं है, खालीपन है। जो था वह भी गया। पुराने से हाथ छूट जाता है और नए की उपलब्धि नहीं होती।
जैसे किसी के हाथ में कंकड़—पत्थर थे और उसने मान रखा था कि हीरे हैं। मानने में कम से कम मजा तो था। उसके लिए तो हीरे ही थे। सम्हालकर रखता था, तिजोड़ी में छिपाकर रखता था। उसे तो यह भरोसा था कि हीरे हैं। कभी जरूरत होगी तो काम आ जाएंगे। उसका "कल' अंधकारपूर्ण नहीं था, उसका भविष्य रोशन था, हीरों की जगमगाहट से भरा था, यद्यपि थे कंकड़—पत्थर; कभी काम आनेवाले नहीं थे। मगर उसकी आशा तो जगी—जगी थी! आश्वासन तो था! सपना उसके लिए अभी सच था।
विचार बता देगा कि ये कंकड़—पत्थर हैं। सोचो उस आदमी की दशा, जिसे यह पता चल जाए कि उसकी तिजोड़ी में केवल कंकड़—पत्थर हैं; पूर्ण रूप से पता चल जाए कि ये कंकड़—पत्थर हैं——सपना टूट जाए। उसके साथ ही आशा गई। उसी के साथ उत्साह गया, भविष्य अंधकारपूर्ण हो गया।
ऐसी विचार की स्थिति है। ध्यान के अतिरिक्त हीरों का तो पता ही नहीं चलेगा। ध्यान विधेय है; वह अस्तित्व में ले जाता है। विचार निषेध है; वह तुम्हारे भ्रमों को तोड़ देता है। विचार का उपयोग किया जा सकता है लेकिन ध्यान की सेवा में; ध्यान के सेवक की तरह। अगर किसी ने विचार को मालिक बना लिया तो पछताएगा; बहुत पछताएगा।
अल्बेयर कामू इसीलिए कह रहा है कि सत्य बहुत खतरनाक है, उनसे सावधान रहना। क्योंकि जिसके भी जीवन के भ्रम टूट जाते हैं उसका जीना मुश्किल हो जाता है।
ऐसा ही समझो कि कोई आदमी मंदिर में पूजा करता है; मानता है, उसकी पूजा परमात्मा तक पहुंच रही है। मानता है तो मस्त है। फिर विचार जगे, सोचने लगे कहां परमात्मा, कैसा परमात्मा! कभी देखा तो नहीं। किसने देखा? यह पत्थर की मूर्ति है जिसके सामने मैं पूजा कर रहा हूं। यह मैं ही बाजार से खरीद लाया हूं। यह आदमी की बनायी हुई मूर्ति है। परमात्मा तो वह है जिसने आदमी को बनाया। और यह कैसा परमात्मा, जिसको आदमी ने बनाया? यह परमात्मा नहीं हो सकता।
पूजा का थाल गिर जाए हाथ से। फूल बिखर जाएं। प्रार्थना खंडित हो गई। इस आदमी के जीवन में अमावस आ गई। चांद तो कभी था ही नहीं, अमावस ही थी, मगर चांद को मान रखा था। मानने में भी मजा था; वह मजा भी गया।
इसके जीवन में भ्रम टूटा, यह आधा काम है। अब इसके आगे विचार की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। इसके आगे ध्यान की प्रक्रिया शुरू होती है। बाहर भगवान नहीं है, मंदिर में भगवान नहीं है, मूर्ति में भगवान नहीं है। यह पूजा का थाल व्यर्थ हुआ। ये सब पत्थर पा लिए कि हीरे नहीं थे, मान्यता थी। सब मान्यताएं उखड़ गईं।
अगर यहीं कोई रुक गया तो आत्मघात के अतिरिक्त और कुछ बचता नहीं। जिएगा भी तो मरा—मरा जिएगा। ध्यान यहीं से शुरू होता है। अब भीतर मुड़ो बाहर के मंदिर व्यर्थ हो गए, अब भीतर के मंदिर में तलाशो। विचार व्यर्थ हो गया, विचार ने अपना काम पूरा कर दिया, अब निर्विचार को काम करने दो।
कामू निर्विचार की तरफ नहीं जाता। वह पश्चिम की मजबूरी है। पश्चिम विचार से ऊपर नहीं जाता। ध्यान पूरब की महिमा है। हमने भी खूब विचार किया है। इतना विचार किया है कि विचार बिल्कुल व्यर्थ हो गया। विचार को बिल्कुल निचोड़ लिया है।
लेकिन वहीं हम रुके नहीं। वहीं हमने परिसमाप्ति नहीं मानी। वहीं से हमने शुरुआत मानी असली यात्रा की। तीर्थयात्रा वहीं से शुरू हुई है। फिर हमने निर्विचार में झांका। फिर हम चुप हुए, मौन हुए। फिर हमने आंखें बंद कीं और आंखें बंद करके देखा। तर्क छोड़ा, सिर्फ देखा। भीतर साक्षी बने। सोचा नहीं, देखा। देखा कि क्या है भीतर? यह मैं कौन हूं? यह मेरा अस्तित्व क्या है? यह मेरा चैतन्य क्या है? उस दर्शन से फिर आशा के फूल खिलते हैं। उस दर्शन से हीरों की खदान मिल जाती है। उस दर्शन से अपना साम्राज्य मिल जाता है। विचार भ्रम तोड़ता है, ध्यान सत्य को देता है।
अल्बेयर कामू अकेला नहीं है ऐसा कहनेवाला। नीत्शे ने भी कहा है कि जिस दिन आदमी के सारे भ्रम टूट जाएंगे उस दिन आदमी जी न सकेगा। आदमी के भ्रम मत तोड़ो, आदमी विक्षिप्त हो जाएगा। उसको अपने भ्रमों में जीने दो। करने दो उसे पूजा—पाठ, जपने दो उसे मंत्र, फेरने दो उसे माला, मानने दो उसे आकाश में किसी परमात्मा को, रहने दो भयभीत नरक से, भरा रहने दो लोभ से स्वर्ग के प्रति, करने दो कामना अप्सराओं की, स्वर्ग में बहते हुए शराब के झरनों की। उसके जीवन में उत्साह रहेगा। हैं सब बातें फिजूल, लेकिन इससे क्या लेना—देना है? मस्त रहेगा। डोलता रहेगा। ऐसे मस्त रहते—रहते मर जाएगा। मिट्टी मिट्टी में मिल जानेवाली है; न कोई स्वर्ग है, न कोई मोक्ष है; न कोई परमात्मा है न कोई आगे जीवन है। मगर कहो मत। आदमी के पैर के नीचे की जमीन मत खींच लो।
और नीत्शे ने ऐसे ही नहीं कह दिया यह। उसके खुद के पैर के नीचे की जमीन खिसक गई। उसने बहुत सोचा। इस पृथ्वी पर जो सोचनेवाले लोग हुए हैं उनमें नीत्शे अग्रणी विचारक हैं। कामू इत्यादि उसके पीछे ही चलनेवाले लोग हैं; उसी की छोटी—छोटी धाराएं हैं। नीत्शे स्वयं भी पागल हो गया। जब उसके सारे भ्रम टूट गए तो कैसे जियोगे? विक्षिप्त न हो जाओगे तो क्या करोगे? धन व्यर्थ है, प्रेम व्यर्थ है, परमात्मा भी व्यर्थ हो गया। पद व्यर्थ है, प्रतिष्ठा व्यर्थ है। सब कुछ व्यर्थ हो गया, अब जियोगे कैसे? अब या तो अपने को मार डालो .....।
तो कामू ने कहा है कि वास्तविक आध्यात्मिक समस्या एक ही है कि आदमी आत्महत्या क्यों न करे? क्यों जिए? और अगर अल्बेयर कामू की तर्कसारणी को हम स्वीकार करें तो जरूर यह प्रश्न ही सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। ईश्वर नहीं, मोक्ष नहीं, तो सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न ही यह है कि आदमी जिए ही क्यों? जब सब व्यर्थ है तो चुपचाप मर जाने में ज्यादा सार है। क्यों इतना ऊहापोह ? क्यों इतनी आपाधापी? क्यों यह चिंता, बेचैनी? क्यों यह दुःखस्वप्नों का जाल? क्यों न चुपचाप गिर जाएं मिट्टी में और सो जाएं सदा को? क्यों न शांत हो जाएं? क्यों ये मन के सारे तनाव और चिंताएं खींचते फिरें?
या तो आत्महत्या कर लें, और अगर आत्महत्या करने में भय लगता हो तो विक्षिप्तता बचती है। वही नीत्शे को हुआ। नीत्शे विक्षिप्त होकर मरा। तो अपने अनुभव से कह रहा है। जब वह विक्षिप्त हो गया था तब भी कभी—कभी बीच में जब उसे होश आता था तो वह यही कहता था : मनुष्यों के भ्रम मत तोड़ो। मैंने अपने भ्रम तोड़े और सिवा पागलपन के कुछ भी हाथ न लगा। मनुष्य को जीने दो उसके भ्रमों में। मनुष्य बिना भ्रमों के नहीं जी सकता। भ्रम उसका आधार है, उसकी बुनियाद है।
लेकिन यह बात अधूरी है। और ध्यान रखना, अधूरे सत्य .....सच्ची है मगर अधूरी है; अधूरे सत्य असत्यों से भी ज्यादा भयंकर होते हैं। तुमसे छीन तो लेते हैं कुछ, लेकिन तुम्हें देते कुछ भी नहीं। तुम्हारे हाथ में कांटा था, वह तो छिन जाता है लेकिन फूल नहीं आता। माना कि कांटा दुःख भी दे रहा था तो भी कम से कम कुछ तो हाथ में था! दुःख ही सही, अकेले तो नहीं थे! कुछ व्यस्त होने का उपाय तो था। वह भी गया। बीमारी ही सही .....।
इस बात को खयाल रखो कि मनुष्य रिक्तता की बजाय बीमारियां पसंद करेगा। कम से कम भरा रहता है। रिक्तता की बजाय उलझनें पसंद करेगा। कम से कम उलझा तो रहता है। रिक्तता तो बहुत भयानक है, बहुत घबड़ानेवाली है। रिक्तता में जिसने भी झांका वह पागल हो जाएगा। उसने एक ऐसे जगत में देख लिया जहां कोई अर्थ नहीं है।
कामू और उस जैसे विचारकों का जन्म पश्चिम में हुए दो महायुद्धों के बाद हुआ। पहला महायुद्ध हुआ, पश्चिम के बहुत—से भ्रम टूट गए। फिर दूसरा महायुद्ध हुआ और उसने सारे भ्रम तोड़ डाले। उसने मनुष्य की पाशविकता उघाड़कर रख दी, उधेड़कर रख दी। उसने बता दिया कि मनुष्य मनुष्य नहीं है, यह बिल्कुल जंगली पशु है। मनुष्यता केवल ऊपर का आवरण है। खोल ओढ़ रखी इसने। भेड़िए ने भेड़ की खाल ओढ़ रखी है।
जो पश्चिम ने देखा दूसरे महायुद्ध में वह इतना भयानक था, इतना दुःखांत था ...। कैसे आदमी काटे गए, कैसे स्त्रियों का बलात्कार किया गया, कैसे बच्चे जलाए गए! और फिर हिरोशिमा में पूर्णाहुति हुई। अणुबम पर जाकर युद्ध अपना पूर्णविराम पाया। इतनी भयंकर हिंसा न कभी हुई थी, न कभी सोची गई थी। और आदमी ऐसा करेगा? आदमी, जिसको कि शास्त्र कहते हैं, बस देवताओं से एक कदम नीचे, एक सीढ़ी नीचे!
दूसरे महायुद्ध ने सिद्ध कर दिया कि आदमी पशुओं से एक सीढ़ी नीचे है। पशु भी इतने भयंकर नहीं हैं। तुम जानते हो न! कोई पशु अपनी ही जाति के पशुओं को नहीं मारता। कुत्ते कुत्ते की हत्या करते नहीं पाए जाते; भेड़िए भेड़ियों की हत्या करते हैं, न सिंह सिंहों को मारते हैं। सिर्फ आदमी अकेला प्राणी है सारी पृथ्वी पर, जो आदमी को मारता है। कोई पशु—पक्षी अपनी जाति को नहीं मारते। और दूसरी जातियों को भी मारते हैं तो सिर्फ भोजन की दृष्टि से, भूख के कारण। शिकार खेलने नहीं जाते। आदमी अकेला है जो शिकार खेलता है। कोई सिंह शिकार नहीं खेलता।
सुनी है मैंने कहानी कि एक सिंह और खरगोश एक होटल में पहुंचे। खरगोश ने नाश्ते का ऑर्डर दिया। वेटर ने पूछा, "और आपके मित्र के लिए क्या लाऊं?' खरगोश ने कहा कि "अगर मेरे मित्र को नाश्ते की जरूरत होती तो मैं उनके साथ हो ही नहीं सकता था। वे नाश्ता कर ही चुके होते। वे बिल्कुल भरे पेट हैं इसलिए तो मैं उनके साथ हूं।'
सिंह मारता तभी है जब भूखा हो। सिर्फ आदमी खेल में भी मारता है; मारने में भी रस लेता है। मारने में एक कुत्सित रस है। ध्वंस में एक कुत्सित रस है।
दूसरे महायुद्ध ने आदमी की पाशविकता इस बुरी तरह से प्रकट कर दी कि उसका सब परमात्मा, उसके मंदिर—मस्जिद, उसके चर्च, सब झूठे हो गए। और एक बात साथ हो गई कि अच्छी—अच्छी बातों के पीछे भी मनुष्य अपनी बुराइयों को ही छिपाए खड़ा है। बातें करता है चर्च की, इंतजाम करता है जिहाद का, धर्मयुद्ध का। बातें करता है शांति की, फिर कहता है शांति की रक्षा के लिए युद्ध करना होगा। मजा देखो! शांति की रक्षा के लिए युद्ध करना होगा। बातें करता है प्रेम की, लेकिन अगर इसके प्रेम को ठीक से देखो तो हिंसा से बदतर, घृणा से बदतर। इसके प्रेम का शिकंजा जिसके गले पर पड़ जाता है, उसकी ही फांसी लग जाती है। प्रेम सिर्फ कारागृह बनाता हुआ मालूम पड़ता है।
आदमी बातें बड़ी अच्छी करता है। बस, बातें करने में कुशल हो गया है। भीतर बड़ी नग्नता है; और बड़ी भयंकर नग्नता है। ऊपर—ऊपर सम्हला दिखता है, भीतर बिल्कुल पागल है।
इसीलिए अल्बेयर कामू, सार्त्र और उस जैसे विचारकों ने एक निराशा का दर्शनशास्त्र पश्चिम को दिया : "अस्तित्ववाद।' पूर्ण निराशा का शास्त्र है। आदमी के भ्रम मत तोड़ो।
इसलिए कामू कहता है कि इंसान सदैव अपनी सच्चाइयों का शिकार होता है। उसे सच्चाइयां बताओ ही मत। उसे चुपचाप जीने दो अपने भ्रम में। भ्रम मधुर है। सपना प्रीतिकर है। उसको सपना देखने दो, तोड़ो मत उसका सपना। तोड़ दोगे, फिर उसे सुलाना मुश्किल हो जाएगा। फिर तुम पछताओगे कि इसको जगाया क्यों? फिर उसे वापिस नींद में पहुंचाना बहुत कठिन है। एक बार नींद टूट गई तो फिर कोई उपाय उसे सुलाने का नहीं है।
इसलिए उसे सोने दो, चुपचाप सोने दो। उसे अपने सपने देखने दो, उसे अपना भ्रम देखने दो। पूजने दो पत्थर, जाने दो काबा। मानने दो भूत—प्रेत——जो उसे मानना हो। गंडेत्ताबीज, पूजा—प्रार्थना——जो उसे करना हो करने दो। उसे सत्य मत कहो क्योंकि सत्य भयानक है। ऐसा उनको अनुभव हुआ; क्योंकि जो सत्य युद्धों में प्रकट हुआ वह भयानक था।

अहरमन हंस पड़ा इस तर्जे—जहां बानी पर
कंगूरे झुक गए, ईवानों के हिलने लगे दर
किस कदर—बे—बसो—कम माया नजर आता है
गरां कद्र को महदूद किया जाता है
फिक्रे—इंसानी की इस दर्जा मुजैय्यन शहकार
हर्पे बरबादिएत्तहजीब हुआ जाता है
अपने इन हाथों ने अपना ही गला घोंट दिया
काफिलेवालों ने खुद काफिले को लूट लिया
हमने चाहा था कि इस कूवते—बे—पायां से
अपनी खुद—साख्ता दोजख को बना लें जन्नत
न कि उम्मीद जो कुछ थी भी वही मिट जाए
जिसे—कुर्बानी की दुनिया में रही क्या कीमत
फटके जर्रे भी फना हो गए, कुछ कर न सके
दामनेजीस्त ही कर गए, भर न सके
हमने अणु भी तोड़ लिया——फटके जर्रे भी फना हो गए। हमने अणु भी तोड़ ािया, इतनी शक्ति पैदा कर ली मगर फायदा क्या हुआ?

फटके जर्रे भी फना हो गए, कुछ कर न सके
दामनेजीस्त ही कर गए, भर न सके
आदमी की जिंदगी की जेब और खाली हो गई, भरी नहीं। सोचा तो हमने कुछ और था। हमने चाहा था कि उस कूवते—बे—पायां से——विज्ञान के द्वारा दी गई शक्ति से, इस महान शक्ति से .....

हमने चाहा था कि इस कूवते—बे—पायां से
अपनी खुद—साख्ता दोजख को बना लें जन्नत
——कि हम इस नरक को, नरक जैसी पृथ्वी को स्वर्ग जैसा बना लेंगे, मगर बात कुछ और हुई। थोड़े—बहुत सपने भी थे स्वर्ग के, वे भी नष्ट हो गए। पृथ्वी और नरक हो गई।

अहरमन हंस पड़ा इस तर्जे—जहां बानी पर
शैतान हंसने लगा आदमी को देखकर। हंसने लगा क्योंकि इतना तो शैतान भी चेष्टा करता तो आदमी को बरबाद नहीं कर सकता था। आदमी तो एक कदम आगे निकल गया।

अहरमन हंस पड़ा इस तर्जे—जहां बानी पर
कंगूरे झुक गए ईवानों के हिलने लगे दर
——सब कंप गया। सारे मंदिर कंप गए, सारे महल कंप गए।
ऐसे दूसरे महायुद्ध के बाद जो छाया पड़ी पश्चिम के चित्त पर, उस छाया का परिणाम है अस्तित्ववाद। अस्तित्ववाद कहता है, मत कहो आदमी से उसके सत्य। एक बार सत्य जान लेगा तो फिर तुम बहुत पछताओगे। आदमी को बचकाना ही रहने दो; उसे प्रौढ़ मत बनाओ।
मगर यह बात अधूरी है। हमने और आगे भी तलाश की है। जहां कामू और सार्त्र रुक गए हैं वहां बुद्धों ने प्रवेश किया है। उन्होंने विचार के पार ध्यान में झांका। रिक्तता मिट जाती है, पूर्ण का अवतरण होता है। ध्यान परम आलोक से भर जाता है। शाश्वत जीवन की प्रतीति होने लगती है। मान्यता नहीं; मान्यता के तो बुद्ध भी खिलाफ हैं, मैं भी खिलाफ हूं। मान्यता तो तोड़नी ही होगी। लेकिन कामू डरता है कि मान्यता टूट गई तो फिर क्या होगा? कोई डरने का कारण नहीं है। मान्यता टूट जाए तो हम आदमी को जानने की तरफ ले चलेंगे।
मेरे देखे तो जगत में जो निराशा फैली है, यह सूरज के पहले रात का घना हो जाना है; और कुछ भी नहीं है। सुबह होने के पहले रात खूब काली हो जाती है, बस इतना ही। इस निराशा से कुछ निराश होने की जरूरत नहीं है। यह निराशा एक बड़ी आशा का जन्म बनेगी।
इसलिए पश्चिम में ध्यान की तलाश शुरू हुई है। विचार ले आया आखिरी कगार पर। अब लौटने का कोई उपाय नहीं है। जीवन के सारे खिलौने टूट गए। जीवन की सारी मान्यताएं उखड़ गईं। अब किताबों में भरोसा नहीं है आदमी को। अब आदमी ध्यान की तलाश में निकला है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि भारत के लोग ध्यान में इतने उत्सुक कयों नहीं है? भारत अभी निराश नहीं है। भारत ने अभी कुछ देखा नहीं। भारत पहले महायुद्ध से भी बच गया, दूसरे महायुद्ध से भी बच गया। भारत ने महाभारत के बाद कोई युद्ध ही नहीं देखा है।
और महाभारत भी कभी हुआ कि नहीं, पता नहीं। और हुआ भी हो तो छोटी—मोटी लड़ाई! क्योंकि कुरुक्षेत्र में भूमि इतनी नहीं है कि बहुत बड़े युद्ध हो सके। अठारह अक्षौहिणी सेनाएं तो वहां खड़ी भी नहीं हो सकतीं, जितनी लिखी हैं। लड़ने की तो बात दूर, खड़ा होना ही असंभव है। लड़ने के लिए थोड़ी जगह तो चाहिए! भाग—दौड़ के लिए कोई उपाय चाहिए। हाथी—घोड़ों के लिए कोई जगह चाहिए, रथों के लिए कोई जगह चाहिए। वहां इतनी जगह नहीं है। कुरुक्षेत्र छोटी—सी जमीन है।
भारत ने, पश्चिम ने जो मनुष्य की नग्नता देखी है, वह नहीं देख पाया। और भारत अभी इतना दरिद्र है कि विचार भी नहीं कर पाया, ध्यान कैसे करें? अभी विचार में भी हीन है। अभी तो भारत अपनी मान्यताओं में डूबा हुआ है, अभी सपने देख रहा है।
अभी भारत में संत—महात्मा उसको व्यर्थ की पिटी—पिटायी पुरानी बातें दोहराए चले जा रहे हैं। उसको अभी लगाए जा रहे हैं हवन में, यज्ञ में। अभी भी करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। विश्वशांति के लिए यज्ञ हो रहा है! एक पति—पत्नी में तो शांति करवा कर दिखला दो यज्ञ से। विश्वशांति करने चले हो..... जरा मूढ़ता की कुछ तो सीमा रखो।
और कितने यज्ञ हो गए, विश्वशांति होती ही नहीं। फिर भी तुम्हें समझ में नहीं आती कि तुम्हारे यज्ञों से विश्वशांति नहीं हो सकती। लेकिन भारत अभी इसी तरह की बातों में लगा हुआ है। आग में गेहूं फेंकता है, घी उड़ेलता है, सोचता है विश्वशांति हो जाएगी।
और न केवल गैर पढ़े—लिखे लोग, पढ़े—लिखे लोग भी व्यर्थ की बातें खोजते हैं। वे कहते हैं कि इससे इस तरह का धुआं उठता है कि उस धुएं से शांति के बादल बन जाते हैं। सारी दुनिया में शांति का वातावरण हो जाता है। और मजा यह है कि वे जो पुजारी यज्ञ करते हैं, वे ही यज्ञ के बाद लड़ते हैं कि किसको ज्यादा मिल गया, किसको कम मिला। बादलों का असर उन पर भी नहीं होता, जिन धुएं के बादलों की बात हो रही है।
और विज्ञान के इस युग में इस तरह की बातें बच्चों की किताबों में हों तो चलेगा, परियों की कथाओं में हों तो चलेगा। अगर तुम्हारे यज्ञ से ऐसा धुआं पैदा होता है तो बड़ा आसान है मामला। दो आदमी लड़ रहे हों, वहां जाकर यज्ञ का धुआं छोड़कर देखो; लड़ाई और बढ़ जाएगी। वे दोनों तुम पर भी टूट पड़ेंगे कि तुम यह धुआं यहां क्यों ले आए? तुमने समझा क्या है? तुम जरा प्रयोग करके तो देख लो। कहीं भी युद्ध इस तरह बंद हो सकते हैं——घी के जलाए धुएं से और तुम्हारे मंत्रोच्चारों से? और मंत्रोच्चार करनेवाले इतनी कलह में हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। उनका सारा काम लड़ाई झगड़ा है। लेकिन भारत अभी इस तरह की बातों में उलझा है। अभी विचार की भी क्षमता नहीं है, इसलिए ध्यान की तो बात ही अलग।
यहां आते हैं भारतीय मित्र। उनमें से अधिक तो सिर्फ देखने आते हैं कि दूसरे क्या कर रहे हैं। भेद साफ है : पश्चिम से जो भी आता है वह भाग लेना चाहता है। वह कहता है, हम भागीदार होना चाहते हैं, हम अनुभव करना चाहते हैं। भारतीय मित्रों में से थोड़े—से ही——जो विचार की क्षमता को उपलब्ध हुए हैं, और जिन्हें दिखाई पड़ना शुरू हुआ है कि विचार के आगे जाना जरूरी है, वे सम्मिलित होते हैं। बाकी तमाशबीन होते हैं। बाकी वे कहते हैं, हम खड़े होकर देखेंगे कि क्या हो रहा है। और खड़े होकर सोचते हैं कि समझ गए वे कि ध्यान क्या है। वे सोचते हैं बात उनकी समझ में आ गई कि यही ध्यान है। ध्यान भीतरी घटना है, बाहर से देखने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए भारत की उत्सुकता ध्यान में नहीं है, भारत की उत्सुकता धन में है। और तुम लाख कहो कि भारत धार्मिक देश है। कभी रहा होगा, अभी तो नहीं है। और कभी रहा होगा यह भी संदिग्ध है। क्योंकि तुम तो अभी भी यही दोहराए चले जा रहे हो, यही तुम सदा दोहराते रहे हो कि हम धार्मिक हैं।
तुमने धार्मिक होने को मान्यता की बात बना ली है, विश्वास की बात बना ली है। धार्मिक होना विश्वास की बात नहीं है, धार्मिक होना एक जीवंत रूपांतरण है। जब तक तुम्हारे सारे विश्वास गलकर न गिर जाएं, और तुम्हारी सब धारणाएं न गिर जाएं तब तक तुम जानने के मार्ग पर कदम नहीं उठा सकते।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, अल्बेयर कामू ठीक कहता है। वहां तक तो तुम जाओ, मगर वहां रुक मत जाना। रुके तो गलती होगी। उससे आगे जाना है। अल्बेयर कामू तुमसे छीन लेगा, जो—जो व्यर्थ है। फिर उसके बाद ही तुम्हारे जीवन में सार्थक की खोज शुरू होगी। कंकड़—पत्थर तो कंकड़—पत्थर हो गए, अब हीरे कहां हैं? हीरे भी हैं। और हीरे तुम्हारे भीतर हैं, कंकड़ पत्थर बाहर हैं।
बाहर जो है, सब अधर्म है——तुम्हारे तीर्थ भी, तुम्हारे मंदिर—मस्जिद भी; तुम्हारे पंडित—पुरोहित भी; तुम्हारे मंत्र—यज्ञ—हवन भी। बाहर जो है, सब पाखंड है। अगर परमात्मा को खोजना है तो भीतर खोजो। अकेले चलो। एकला चलो रे। अपने भीतर चलो। जहां कोई न रह जाए, कोई दूसरा न रह जाए, दूसरे की छाया भी न रह जाए; जहां कोई विचार की तरंग न रह जाए, जहां सब निर्विचार हो, उसी निर्विचार चैतन्य में तुम जानोगे कि ईश्वर है। ईश्वर ही है। और फिर वह ईश्वर हिंदुओं का ईश्वर नहीं है, और न मुसलमानों का ईश्वर है, न ईसाइयों का ईश्वर है। वह मात्र ईश्वर है।
और तब श्रद्धा का आविर्भाव होता है। श्रद्धा ज्ञान से उपलब्ध होती है। विश्वास अज्ञान में उत्पन्न होता है। और विश्वास को श्रद्धा मत समझ लेना। विश्वास धोखा है। इसलिए मैं तुममें विश्वास पैदा नहीं करवाना चाहता। मैं तो तुम्हें श्रद्धा देना चाहता हूं, विश्वास छीन लेना चाहता हूं। विश्वास झूठा सिक्का है; श्रद्धा जैसा लगता है। झूठे सिक्के को लगना ही चाहिए ठीक सिक्के जैसा, तभी तो चल सकता है बाजार में; नहीं तो चलेगा कैसे? ठीक असली सिक्के जैसा मालूम पड़ना चाहिए। वैसा ही विश्वास मालूम पड़ता है।
विश्वास ने आदमी को बहुत भरमाया है, बहुत भटकाया है। और कामू ठीक कहता है, अगर विश्वास छीन लोगे, आदमी घबड़ा जाएगा। इसलिए विश्वास केवल वे ही छीनने में समर्थ हैं, उन्हीं को छीनना चाहिए जो श्रद्धा दे सकते हों। सद्गुरु ही केवल विश्वास छीन सकता है। क्योंकि उसे भरोसा है कि जब तुम रिक्त हो जाओगे तो तुम्हें शून्य होने की कला भी सिखा देगा।
और रिक्तता और शून्यता पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। भाषाकोश में पर्यायवाची हैं, जीवन के कोष में नहीं हैं। रिक्तता का मतलब है, कुछ भी नहीं है। शून्य का मतलब है, सब कुछ का स्रोत है। शून्य विधायक शब्द है। शून्य में पूर्ण समाया हुआ है, सोया हुआ है, प्रच्छन्न है। रिक्त में कुछ भी नहीं है। रिक्तता सिर्फ खाली है। रिक्तता में कोई कैसे जिएगा?
इसलिए कामू भी ठीक कहता है कि अगर आदमी रिक्त हो गया तो फिर जियोगे कैसे? फिर अपना ही सत्य मार डालेगा; फिर उससे छुटकारा पाना मुश्किल है।
मैं तुमसे उसके आगे की बात कह रहा हूं। मैं तुमसे कह रहा हूं, यह असत्य नहीं है, यह केवल असत्य का छूटना हुआ। यह केवल असत्य का छूटना सत्य का हो जाना नहीं है। पैर से कांटा निकल गया, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारे हाथ में फूल आ गए। पैर से कांटा निकल गया, वह अच्छा हुआ। कांटा चुभा रहता तो फूल को खोजना मुश्किल था। पैर में कांटा चुभा था, चलते कैसे? अब पैर स्वस्थ हैं, अब तुम चल सकते हो। अब फूल की खोज हो सकती है। विचार का कांटा निकल जाए तो ध्यान का फल खोजा जा सकता है। इसलिए समस्त ध्यानियों ने निर्विचार को समाधि कहा है।
सत्य तो मुक्त करता है। तुमने जिसे सत्य मान रखा है वह सत्य नहीं है। इसलिए जब तुम थोड़े जागोगे, थोड़ा सोचोगे तो पहले तो घबड़ाहट आएगी।
मेरे पास आने में वही तो घबड़ाहट है, वही तो डर है। मेरे पास बहुत लोग आना चाहते हैं और भय के कारण नहीं आ पाते। निरंतर मुझे पत्र मिलते हैं लोगों के कि हम आना चाहते हैं, मगर डर लगता है, कहीं आप हमारे विश्वास न छीन लें।
विश्वास तो छीनने ही पड़ेंगे। जगह खाली करनी पड़ेगी। सिंहासन खाली करना पड़ेगा कचरे से, तभी परमात्मा आएगा; तभी विराजेगा तुम्हारे भीतर।
मैं जो कर रहा हूं, दोनों प्रक्रियाएं उसमें सम्मिलित हैं। इसलिए विचार से मैं कुछ झिझकता नहीं हूं। विचार करने को मैं राजी हूं। जितने दूर तक विचार ले जा सकता है उसके साथ चलने को राजी हूं। इसलिए बहुत—से लोग मेरे विचारों में ठीक नीत्शे का खतरा पाते हैं। और ठीक है उनका पाना। उतने दूर तक वे सच हैं लेकिन और थोड़े आगे चलो। मेरी तो समझ ही यही है कि नीत्शे अगर पूरब में पैदा हुआ होता तो बुद्ध होता। बुद्ध की क्षमता का आदमी था। विचार उतना ही प्रगाढ़ था, उतना ही प्रखर था। वैसी ही धार थी जैसी बुद्ध की। लेकिन बस, विचार पर ही रुक गया। विचार ध्यान न बन पाया। और व्हीं अटकाव हो गया। मैं राजी हूं नीत्शे से जहां तक नीत्शे जाता है, लेकिन उससे भी आगे मैं चलता हूं।
तो ठीक कहता हूं, नीत्शे, फ्रायड कि आदमी भ्रमों में जीता है। उसके साथ ऐसा मत करना कि तुम भ्रम छीन लो; नहीं तो वह जिएगा कैसे? जैसे छोटे बच्चे के खिलौने छीन लो तो छोटा बच्चा जिएगा कैसे? लेकिन क्या तुम सोचते हो, ऐसी प्रौढ़ता नहीं आती कभी जब खिलौने बच्चा खुद ही छोड़ देता है? फिर भी तो तुम जीते हो बिना खिलौनों के। एक दिन ऐसा लगता था कि बच्चा बिना खिलौनों के नहीं जी सकता। रात भी अपने खिलौने अपने साथ छाती से लगाकर सोता है। सुबह होते ही पहले अपने खिलौने को तलाशता है। पर हम जानते हैं कि कल प्रौढ़ हो जाएगा, यह खिलौना आज जो इतना प्यारा है, किसी दिन कोने में पड़ा रह जाएगा, कचरेघर में फेंक दिया जाएगा। इसे फिर इसका ध्यान भी न आएगा।
ऐसे ही तुम्हारे विश्वास हैं; बचपन के खिलौने हैं। उन्हें तो छोड़ना ही होगा। पीड़ादायी भी है उन्हें छोड़ना। कष्ट भी होगा। कांटा निकाला जाता है तो भी तो तकलीफ होती है। मवाद भरी हो और उसे निकालना हो देह से तो भी तो तकलीफ होती है। सभी तरह की सर्जरी तकलीफ की होती है। और यह तो देह की ही सर्जरी नहीं है, आत्मा की सर्जरी है। लेकिन एकबार सारी मवाद निकल जाए, सारे भ्रम गिर जाएं तो तुम तैयार हो जाओगे उड़ान भरने को। हां, वहीं रुकोगे तो कामू की बात सत्य हो जाएगी। वहां रुकना मत; उससे आगे जाना है। जब तक शून्य न मिल जाए, समाधि न मिल जाए तब तक रुकना ही मत। समाधि है; और तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

दूसरा प्रश्न :

एक बार स्वामी मनोहरदास वेदांती हमारे गांव आए। आपके संबंध में चर्चा होने पर कहने लगे, उनका सब अललटप्पू है। इसी प्रकार आर्यसमाज के प्रचारक भिक्खु ने जब आपकी माला देखी तो कहने लगे, उनका संन्यास युवकों को फ्रस्ट्रेशन की तरफ ले जा रहा है। इन दोनों महानुभावों ने आम सभाओं में इन बातों को कई रूपों में दोहराया। इन्हें आपसे क्या परेशानी हो सकती है?

वेदांत, मुझसे इन्हें परेशानी नहीं होगी तो किससे इन्हें परेशानी होगी? स्वाभाविक है। मैं उनकी जड़ें काट रहा हूं। उनकी नाराजगी बिल्कुल स्वाभाविक है। मैं उनके सारे धंधे को नष्ट किए दे रहा हूं, उनके व्यवसाय की मूल आधारशिलाएं गिरा रहा हूं।
मैं सिर्फ ऊपर—ऊपर हमला नहीं कर रहा हूं, मेरा हमला गहरा है। अगर मैं इतना ही कहूं कि ऊपर—ऊपर का कुछ भेद करना है। तुम ऐसे कपड़े पहनाते हो भगवान को, मैं ऐसे कपड़े पहनाऊंगा भगवान को। तुम इस तरह खड़ा करते हो, मैं इस तरह खड़ा करूंगा। तुम आंखें खुली रखते हो, मैं आंखें बंद रखूंगा भगवान की। तुम कहते हो तीन चेहरे हैं, मैं कहूंगा चार हैं। अगर इस तरह का झगड़ा होता तो ऊपर—ऊपर का झगड़ा था; उसमें कोई अड़चन की बात नहीं थी। इस तरह के झगड़े किसी तरह का कोई भेद पैदा नहीं कर पाते।
बुद्ध के बाद पच्चीस सौ साल में फिर से एक बार एक घटना घट रही है। बुद्ध के समय में ऐसा हुआ था कि सारे पंडित—पुरोहित, सारे साधु—संत, सारे महानुभाव—महात्मा बुद्ध के खिलाफ हो गए थे। सारे के सारे! एक बात पर राजी हो गए थे कि बुद्ध गलत हैं।
ऐसा फिर हो रहा है। एक बात पर तुम्हारे साधु—संत, महानुभाव—महात्मा, पंडित—पुरोहित राजी होते जा रहे हैं——मेरे विरोध में एकदम राजी हैं। उनके आपस में कितने ही झगड़े हों, आपस में कितने ही विवाद हों ..... अब वेदांती और आर्यसमाजी का आपस में बहुत विवाद है, लेकिन एक संबंध में कम से कम वे राजी हैं——मेरे विरोध में राजी हैं। मैं इससे भी खुश होता हूं कि चलो इतनी एकता आयी, यह भी क्या कम है? कुछ एकता तो आयी; किसी बहाने सही! मैं निमित्त बना, यह भी अच्छा; है यह भी सौभाग्य। चलो, इसी कारण वे इकट्ठे हो जाएं।
तुम कहते हो, एक सज्जन ने कहा कि मेरा..... उनका सब अललटप्पू है। यही तो उन्होंने बुद्ध के लिए कहा है। यही उन्होंने महावीर के लिए कहा है। कुछ नई बात वे नहीं कह रहे हैं। जो बात उनकी समझ में नहीं आती वह अललटप्पू मालूम होती है।
नास्तिक यही बात तो आस्तिकों के संबंध में कहते हैं कि ईश्वर इत्यादि सब अललटप्पू। है ही नहीं; सब बकवास है। चार्वाकों ने क्या कहा है? चार्वाकों ने यही तो कहा है कि यह सब पंडितों—पुरोहितों की बकवास है, अललटप्पू है। कहीं कोई ईश्वर नहीं है। मरने के बाद कोई लौटना नहीं है। पागलो, इनकी बातों में मत पड़नाऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। डरो ही मत। ऋण भी लेकर पीना पड़े तो घी पियो क्योंकि लौटकर कौन आता है! किसको चुकाना है! कौन चुकानेवाला, कौन लेनेवाला, कौन देने वाला? सब मर गए, सब मिट्टी में मिल गए। पंडित—पुरोहितों की बकवास में मत पड़ो। न कोई पुण्य है, न कोई पाप है, सब अललटप्पू है।
यही तो चार्वाक ने कहा। चार्वाकों की समझ में नहीं बात आयी परलोक की। यही तो माक्र्स ने कहा है धार्मिकों के संबंध में। यही तो फ्रायड ने कहा है धार्मिकों के संबंध में।
जो बात जिसकी समझ में नहीं आती है, वह सोचता है कि होनी ही नहीं चाहिए। क्योंकि यह तो मानने को तैयार ही नहीं होता कि कोई बात ऐसी भी हो सकती है। जो उसकी समझ के आगे हो। अपनी समझ और किसी बात से छोटी पड़ती हो ऐसा तो अहंकार मानने को राजी नहीं होता। तो दूसरा उपाय यही है कि यह बात ठीक होगी ही नहीं। यह बात गलत ही होगी। जो मेरी समझ के बाहर है वह कैसे ठीक हो सकती है? मेरी समझ कसौटी है।
अब तुम कहते हो कि स्वामी मनोहरदास वेदांती हमारे गांव आए। आपके संबंध में चर्चा होने पर कहने लगे, उनका सब अललटप्पू है। ठीक ही कह रहे हैं। क्योंकि मैं जिस समाधि की बात कर रहा हूं, जिस शून्य की बात कर रहा हूं, मैं जिस श्रद्धा की बात कर रहा हूं, वह उनकी समझ में नहीं आयी होगी। आ जाती तो अपने को वेदांती कहलवाते? आ जाती तो किताबों से बंधते? आ जाती तो विशेषण लगाते?
जिसकी बात समझ में आ जाएगी उसके सारे विशेषण गिर जाएंगे। जो शून्य को समझ लेगा, अब शून्य पर कैसे विशेषण लगाओगे? शून्य वेदांती होगा कि आर्यसमाजी होगा? शून्य तो बस शून्य होगा। शून्य में भेद नहीं होगा। शून्य जैन होगा कि हिंदू होगा? शून्य तो बस शून्य होगा।
तुम यहां इतने लोग बैठे हो। तुम सब सोच रहे हो तो तुम सब अलग—अलग हो। कोई हिंदू है तो हिंदू ढंग से सोच रहा है। कोई मुसलमान है तो मुसलमान ढंग से सोच रहा है। कोई ईसाई है तो ईसाई ढंग से सोच रहा है। लेकिन अगर तुम सब निर्विचार होकर बैठ जाओ यहां; न हिंदू सोचे, न ईसाई सोचे, न जैन सोचे। अगर सब असोच की शांत अवस्था में हो जाएं तो फिर क्या भेद होगा? क्या हिंदू का शून्य अलग होगा मुसलमान के शून्य से? शून्य तो बस एक ही प्रकार का होगा।
विचार में भेद होते हैं; निर्विचार में भेद नहीं होते। मन में भेद होते हैं, अमन में कैसे भेद? उन्मनी दशा में कैसे भेद? जहां मन ही न रहा वहां सब भेद गए।
उनको लगा होगा अललटप्पू। उनकी समझ से ऊपर जाती होगी। इतनी उनकी उड़ान न होगी। और जहां तक तो संभावना इस बात की है कि उन्हें पता भी न होगा कि मैं क्या कह रहा हूं। ऐसे लोग हैं जो मुझे पढ़ते भी नहीं और मेरे संबंध में वक्तव्य देते हैं। उन्हें पता भी नहीं होगा कि यहां क्या हो रहा है।
अज्ञान में वक्तव्य देना बहुत आसान है। जानकर वक्तव्य देनेवाला आदमी झिझकेगा, सोचेगा, विचारेगा, अनुभव करेगा। अगर वे ईमानदार हों तो उन्हें आकर यहां अनुभव करना चाहिए। अनुभव करके कहना चाहिए अललटप्पू। एक घूंट तो आकर पीना चाहिए, थोड़ा स्वाद लेना चाहिए। स्वाद से घबड़ाहट है। यहां पास आने में भी भय है।
मेरी किताबें भी तुम्हारे साधु—संत पढ़ते हैं तो छिपाकर पढ़ते हैं। किसी को पता न चल जाए कि मेरी किताब पढ़ रहे हैं। इतना भय? इतनी नपुंसकता? इतनी कमजोरी? साधु होने चले हो? जीवन की महायात्रा पर निकले हो और इतना कमजोर मन कि किसी को पता न चल जाए! पढ़ भी लेते हैं तो बताते नहीं कि उन्होंने मेरी किताब पढ़ी है। और मैं जो करने को कह रहा हूं वह तो कर ही नहीं सकते क्योंकि उसमें तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
एक जैन मुनि ने मुझे पत्र लिखा है कि आप कहते हैं, मुझे बात भी जंचती है, ध्यान करना भी चाहता हूं लेकिन इतने जोर—जोर से श्वास लूंगा, सबको पता चल जाएगा। और सबको पता है कि यह किसका ध्यान है। तो मैं यह भी नहीं कह सकता कि पंतजलि को पढ़कर कर रहा हूं कि .....। यह तो सबको जाहिर है। बस, जोर से श्वास ली कि उन्होंने कहा, बिगड़ा यह आदमी।
मैंने उनको कहा कि आप सुना है कि बंबई आते हैं——तब मैं बंबई था——तो आप यहीं आकर कर लेना। वे बंबई भी आ गए। बड़ी बेचारों को चोरी करनी पड़ी। किसी और के घर जा रहे हैं ऐसा बताकर मुझसे मिलने आए। मुझसे कहा कि किसी को पता न चले। हम ऐसे ही बीच में आ गए हैं। बताकर कुछ और निकले हैं।
अब जैन मुनि को मुझसे मिलने में झूठ बोलना पड़े तो बड़ी दयनीय दशा हो गई। कहा, आपकी बातें ठीक भी लगती हैं और हम वर्षों से कोशिश करके ध्यान की हार भी चुके हैं। अब एक आपमें ही आशा है कि शायद ध्यान लग जाए; और तो हमारा लगता नहीं। तो हम आकर रोज सुबह—सुबह घूमने निकलेंगे, यहां आकर ध्यान कर जाएंगे। एक पंद्रह दिन आकर आपके पास ध्यान कर लेना है। मगर किसी को पता न चले। चोरी—चोरी कर लेना है।
मैंने कहा, पंद्रह दिन तुम चोरी—चोरी कर लोगे, मगर पंद्रह दिन से कुछ हो नहीं जाएगा। स्वाद लगेगा, करना तो फिर आगे भी पड़ेगा। कैसे करोगे? कहां करोगे? पता तो चलने ही वाला है। इसको छिपाया नहीं जा सकता।
पंद्रह दिन करके भी गए। और बड़े आनंदित होकर गए। जीवन में शायद कभी उछले—कूदे नहीं होंगे, नाचे नहीं होंगे, उछले, कूदे, नाचे। फिर मुझे पत्र लिखवाया कि बड़ा रस आया लेकिन आगे तो जारी रख नहीं सकते। अब और झंझट में हम पड़े। अब हमें मालूम है कि किस दिशा से यात्रा करनी चाहिए, मगर हम कर नहीं सकते।
मनोहरदास वेदांती से तुम्हें पूछना था, कभी गए हो वहां? कभी उस सरोवर से एकाध घूंट पिया है? कभी उस मधुशाला में सम्मिलित हुए हो? थोड़ी बूंदें पड़ी हैं कंठ में? क्या वहां घट रहा है वह देखा है?
लेकिन जो समझ में नहीं आता या जिसको हम समझना नहीं चाहते उसको अललटप्पू कह देना बहुत आसान है। इससे केवल उनकी बुद्धि का पता चलता है, और कुछ भी नहीं। बहुत संकीर्ण दायरे की बुद्धि होगी। आकाश की, विराट की बातें उनको अललटप्पू मालूम हो रही हैं।
और जिसको मेरी बात अललटप्पू मालूम हो रही है उसे वेदांत की बात भी अललटप्पू मालूम होनी चाहिए——अगर वह ईमानदार है। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वह शुद्ध वेदांत है। इतना शुद्ध है कि उस पर वेदांत का विशेषण भी नहीं लगाया जा सकता। ब्रह्म की बात भी उसे अललटप्पू मालूम होनी चाहिए। शायद अनजाने उनके मुंह से उनकी आत्मा का भाव निकल गया है। वे जो बातें कर रहे होंगे वेदांत की, उनको भी वे अललटप्पू ही समझते होंगे। लेकिन वह धंधा है, करना पड़ता है। वही उनकी आजीविका है; उसी से जी रहे हैं।
तो कहे जाते हैं लेकिन भीतर से असली स्वर बाहर आ गया है; मेरे बहाने बाहर आ गया है। अगर मेरी बातें अललटप्पू हैं तो सारे उपनिषद् झूठे हो जाएंगे। फिर उपनिषदों का सत्य क्या बचेगा? क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वह उपनिषदों की सुवास है; उनका सार है, इत्र है। सारे वेद व्यर्थ हो जाएंगे। क्योंकि वेदों में जो कुछ भी है, जो कुछ भी मूल्यवान है वही मैं कह रहा हूं। सारे बुद्धपुरुष अललटप्पू हो जाएंगे।
उनसे फिर तुम्हारा वेदांत, मिलना हो जाए तो उनसे कहना, पुनर्विचार करो। अपने बुद्धि के थोड़े द्वार—दरवाजे खोलो। थोड़ा पहचानो, समझो। लेकिन वे भरे होंगे कूड़ा—करकट से। वे भरे होंगे तथाकथित ज्ञान से। तथाकथित ज्ञान का बड़ा उपद्रव है।
मैं अमृतसर में था और एक वेदांत सम्मेलन में बोलने गया था। मुझसे पहले एक वेदांती स्वामी हरिगिरी बोले। मैं उनके बाद बोला, वे बहुत मुश्किल में पड़ गए। वे बीच में उठकर खड़े हो गए और कहा कि ये बातें गलत हैं। और में जो कह रहा था वह यही कह रहा था कि परमात्मा को कोई बाहर से नहीं जनवा सकता, भीतर से जानना होगा। स्वयं ही जानना होगा।
तो उन्होंने एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी कही। उनको पता नहीं था वे किससे उलझ रहे हैं। क्योंकि कहानी के संबंध में कोई मुझसे न उलझे यही अच्छा है। उन्होंने बड़ी प्रसिद्ध कहानी कही। तुम्हें मालूम होगी, वेदांती निरंतर कहते रहते हैं, कि दस आदमियों ने नदी पार की। वर्षा की नदी थी, पूर आयी नदी थी। फिर उस पार जाकर उन्होंने गिनती की तो प्रत्येक अपने को गिनना भूल गया। गिनती नौ होती थी। वे रोने लगे बैठकर कि एक खो गया। फिर वहां से कोई ज्ञानी निकला। होगा कोई वेदांती! उसने देखी हालत, उसने कहा, क्यों रोते हो? उन्होंने कहा, हम दस नदी पार किए थे, अब नौ रह गए। एक कोई डूब गया है, उसके लिए रो रहे हैं। उसने नजर डाली, दस के दस थे। उसने कहा, जरा गिनती करो तो उन्होंने गिनती की। पकड़ में आ गई भूल कि हरेक अपने को छोड़े जा रहा है। तो उसने कहा, देखो, अब इस तरह गिनती करो : मैं एक चांटा मारूंगा पहले को, तब तुम बोलना, एक; दूसरे को मारूं तो बोलना, दो; तीसरे को मारूं तो बोलना, तीन। मैं चांटा मारते जाऊंगा, तुम बोलते जाना आंकड़े। ऐसा वह मारता चला चांटा। और जब दसवें को मारा तो वह बोला, दस। वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा कि चमत्कार कर दिया आपने।
हरिगिरी जी ने बताया लोगों को कि देखो, दूसरे ने बताया तब उनको बोध हुआ। अगर यह वेदांती वहां से न निकलता, कोई। बोध करवानेवाला न होता तो वे नौ ही के नौ रहते और रोते ही रहते। अब उन्होंने सोचा कि बात खतम हो गई। मैंने उनसे पूछा कि यह तो बताइए कि जब इन्होंने नदी पार की, उसके पहले गिनती इन्होंने कैसे की थी? यह कहानी जरा अब आगे ले चलें। नदी जब इन्होंने पार की तो गिनती की थी? उनको कहना पड़ा कि हां, गिनती की थी, दस थे। गिनती कैसे की थी? नदी पार करने में ही भूल गए गिनती करना!
जरूर किसी और की मान ली होगी। किसी और ने कहा होगा, तुम दस हो। खुद गिना होता तो कैसे भूल जाते? फिर भी गिन लेते। किसी और ने कह दिया होगा कि तुम दस हो। मान लिया होगा। मान्यता से चले होंगे कि हम दस हैं, फिर गड?बड़ खड़ी हुई। मान्यता से जो चलेगा, गड़बड़ खड़ी हो जाती है। क्योंकि जब जानने का सवाल आएगा तब चूक हो जाएगी। इसलिए चूक हुई। दूसरे के बताने से ही भूल हुई, मैंने उनसे कहा। वह वेदांती इनको पहले भी कोई मिल गया होगा उस तरफ भी। वेदांती दोनों किनारों पर रहते हैं। और जहां तक तो संभावना है, यही सज्जन रहे होंगे पहले भी, जिन्होंने उनको बताया था कि तुम दस हो। यह दूसरे की बतायी बात थी इसलिए बह गई पानी में। यह अपनी जानी बात होती तो कैसे बहती?
अपना जानना ही ज्ञान है। दूसरा जो जना देता है, वह जानकारी है। जानकारी तो उधार है। और जितने लोग उधारी से भरे हैं। उनको बड़ा डर रहता है कि कहीं जाननेवाला कोई आदमी न मिल जाए। नहीं तो एकदम उनकी रोशनी फीकी पड़ जाती है। एकदम मुश्किल खड़ी हो जाती है।
अब मिल जाए कहीं तुम्हें मनोहरदास वेदांती तो उनको कहना, चले चलो। आमना—सामना हो ले। पता चल जाए कि अललटप्पू क्या है। अगर मैं अललटप्पू हूं तो इस जगत् में जो भी महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं, सब अललटप्पू हो जाएंगी। मेरे डूबने में सब वेद, सब कुरान, सब उपनिषद् डूब जाएंगे। मेरे सही होने में वे सही हैं। मैं गवाह हूं। मैं उनका साक्षी हूं। और जो मैं तुमसे कह रहा हूं, अपने अनुभव से कह रहा हूं। यह गिनती मैंने किसी और से नहीं सीखी है। यह किसी और ने मुझे नहीं बताया है कि तुम दस हो। यह मैंने जाना है। इसे छीन लेने का कोई उपाय नहीं है। यह स्वानुभव है।
उन्हें कहना, आ जाओ। ले आना उनको। यहां थोड़ा उछलेंगे—कूदेंगे; थोड़ा गाएंगे—नाचेंगे; थोड़ी नींद टूटेगी। और जो अभी वेदांती का रंग लगा रखा है वह बह जाएगा। और वह बह जाए तो अच्छा। तो फिर भीतर का रंग प्रकट होना शुरू होता है। और तुम कहते हो, दूसरे सज्जन हैं आर्यसमाज के प्रचारक आर्य भिक्खू। जब आपकी माला देखी तो कहने लगे, उनका संन्यास युवकों को फ्रस्ट्रेशन की तरफ ले जा रहा है। मेरा संन्यास अगर युवकों को विषाद की तरफ ले जाएगा तो फिर कौन—सा संन्यास उन्हें आनंद की तरफ ले जा सकता है? इस बात के लिए भी प्रमाण देने होंगे? मेरे संन्यासी से ज्यादा आनंदित संन्यासी पृथ्वी पर कभी हुआ है? मेरे संन्यासी से ज्यादा स्वतंत्र संन्यास की कोई धारणा कभी पृथ्वी पर जन्मी है? मेरे संन्यासी को उदास होने का तो कोई कारण ही नहीं है। क्योंकि उससे मैं संसार भी नहीं छीनता। उससे मैं कुछ छीनता ही नहीं हूं। उसे सिर्फ जगाता हूं; या कहो कि उसकी नींद छीनता हूं। पुराना संन्यास विषाद ला सकता है। पुराना संन्यास विषाद से जन्मता है और विषाद में ले जाता है।
पुराना संन्यासी, पुराने ढब का संन्यासी उदास आदमी होता है——हारा—थका, बेचैन, डरा हुआ, भयभीत, हर छोटी—छोटी चीज से डरा हुआ। मेरा संन्यासी तो किसी बात से डरा हुआ नहीं है। पुराना संन्यासी तो अपराध—भाव से भरा हुआ होता है कि यह किया तो गलती हो जाएगी, यह किया तो गलती हो जाएगी।
मेरे संन्यासी को तो मैंने कोई अपराध पैदा करने का उपाय नहीं दिया है। मैंने तो सिर्फ उसे कहा है, सहज प्रतिपल अपने बोध से जीना। और तुम्हारा बोध तुम्हें जो करने को कहे, करना। फिर चाहे सारी दुनिया एक तरफ हो, तुम फिकर न लेना।
परमात्मा ने तुम्हें जो जीवन दिया है वह जीने के लिए दिया है। पुराना संन्यास तो जीवन से भयभीत है, डरा हुआ है, घबड़ाया हुआ है। सुंदर स्त्री दिख जाए तो पुराना संन्यास थरथराने लगता है, कंपने लगता है, पसीना—पसीना होने लगता है। मेरे संन्यासी को तो भय का कोई कारण नहीं है क्योंकि मैंने कहा है, सुंदर स्त्री में परमात्मा के सौंदर्य को देखना। वहां भी झुकना, वहां भी पूजा का भाव रखना। वहां भी उसी की महिमा है, उसी का रंग है, उसी का रूप है, उसी का रस है। अगर सुंदर फूल में परमात्मा देख सकते हो तो आदमी का कसूर क्या है? एक सुंदर आदमी में क्यों नहीं देख सकते? एक सुंदर स्त्री में क्यों नहीं देख सकते?
अगर मेरा संन्यास फैला..... और फैलेगा; क्योंकि विधायक है। जीवन के स्वीकार पर खड़ा है। तो जैसे तुम फूल के सौंदर्य की प्रशंसा करते हो वैसे ही किसी दिन पुरुषों के, स्त्रियों के सौंदर्य की भी प्रशंसा कर सकोगे। और प्रशंसा में जरा भी अपराध और भय का भाव नहीं होगा। क्योंकि परमात्मा की ही प्रशंसा है। हम किसी की भी स्तुति करें, उसी की स्तुति है। नदी किसी भी दिशा में बहे, सागर पहुंच जाती है। सभी स्तुतियां उसी की तरफ पहुंच जाती हैं। स्तुति मात्र उसकी है।
मैंने तुम्हें भोजन से नहीं तोड़ा है कि तुम यह मत खाना, यह मत पीना; कि अगर कहीं तुमने यह खा लिया तो पाप हो जाएगा, नरक में पड़ोगे।
कैसे—कैसे लोग हैं! कोई आलू खा लेगा तो नरक में जाएगा। कोई निर्दोष टमाटर से डरा हुआ है। अब टमाटर से ज्यादा निर्दोष प्राणी देखा तुमने दुनिया में ? टमाटर बेचारा! एकदम भोला—भाला। इससे भोली—भाली कोई चीज ही नहीं होती। इसको खाने से तुम कैसे नरक चले जाओगे? लेकिन टमाटर खाने से कुछ लोग डरते हैं। उसका रंग मांस जैसा है। बस रंग ही मांस जैसा है, घबड़ाहट हो गई; भय हो गया।
डरने की तो तुम बात ही मत पूछो कि लोग किस—किस चीज से डरते हैं। अगर तुम सारे डरों को इकट्ठा कर लो तुम्हें इसी वक्त मरना पड़े; तुम जी नहीं सकते। क्वेकर ईसाई हैं, वे दूध पीने से डरते हैं। तुम कहोगे, यह तो हद हो गई। वे दही नहीं खाते, वे मक्खन नहीं छूते क्योंकि यह हिंसा है।
बात में अर्थ तो है। क्योंकि गाय के थन में जो दूध है, वह उसके बच्चों के लिए है, तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हें किसने हक दिया कि तुम उसके बच्चों का दूध छीनकर पी जाओ। जरा सोचो तो कि यही तुम्हारी स्त्रियों के साथ किया जाए, कि बच्चे को तो दूध न मिले और कोई भी आकर बच्चे की मां का दूध पी जाए तो इसको हिंसा कहोगे कि नहीं कहोगे? तुम गाय का दूध पी रहे हो बड़े मजे से, कह रहे हो दुग्धाहार कर रहे हैं और बछड़े का क्या हुआ?
लोग बछड़ों को मार डालते हैं और गाय को धोखा देने के लिए झूठा बछड़ा खड़ा कर देते हैं। घास—फूस का बनाकर बछड़ा खड़ा कर देते हैं गाय को धोखा देने के लिए। क्योंकि असली बछड़ा रहेगा तो कुछ तो पी ही जाएगा। थोड़ा न बहुत तो पीएगा ही। आखिर जिंदा रखना है तो कुछ न कुछ तो उसको देना ही पड़ेगा। तो झूठा बछड़ा खड़ा कर दिया। हद हो गई बेईमानी की! आदमियों को धोखा दो, दो; गाय को भी धोखा देने लगे? और एक तरफ से गौमाता भी कहते हो उसको। माता ही को धोखा दे रहे हो, उसकी जेब काट रहे हो। और आंदोलन भी बड़ा चलाते हो कि गौहत्या नहीं होनी चाहिए। और गौ को चूसे जा रहे हो। तुम्हारी गौओं की हालत देखते हो? हड्डी—हड्डी हो रही हैं और खींचे जा रहे हो उनका दूध, जितना खींच सकते हो; जिस तरह खींच सकते हो।
क्वेकर कहते हैं, दूध खून का हिस्सा है। इसीलिए तो दूध पीने से खून बढ़ जाता है। तो दूध खून है। दूध पीना खून पीना है। यह तो पाप हो गया। अब मारे गए! अब क्या करोगे? दही ले नहीं सकते, दूध ले नहीं सकते, घी ले नहीं सकते, मक्खन ले नहीं सकते। गए सब रसगुल्ले! गए सब संदेश! सारी मिठाइयां पाप हो गईं।
तुम जरा सारे धर्मों का हिसाब तो लगाकर देख लो। कुछ नहीं बचेगा खाने को। उधर जैन तेरापंथी है, वह नाक पर पट्टी बांधे बैठा है कि हिंसा न हो जाए। श्वास से हिंसा हो रही है। गरम श्वास से कीड़े—मकोड़े हवा में छोटे—छोटे मर जाते हैं, वे मर न जाएं। लेकिन तुम्हारे जीने में ही हिंसा हो रही है। तुम्हारे शरीर के भीतर प्रतिपल न मालूम कितने जीवाणु मर रहे हैं। वे ही तो जीवाणु मरकर तुम्हारे बाल बनकर निकलते हैं, नाखून बनकर निकलते हैं। इसलिए तो बाल को काटने से दुःख नहीं होता क्योंकि वे मरे हुए जीवाणु हैं। नाखून काटने से दुःख नहीं होता, खून नहीं बहता क्योंकि वे मरे हुए जीवाणुओं की लाशें हैं; हड्डियां हैं। तुम्हारे भीतर प्रतिपल लाखों जीवाणु मर रहे हैं। और इसलिए तो रोज भोजन की जरूरत है ताकि नया भोजन नए जीवाणु दे दे।
एकेक शरीर में सात—सात करोड़ जीवाणु हैं। पूरी बस्ती हो तुम। पुराने शास्त्रों ने ठीक ही तुमको पुरुष कहा है। पुरुष का मतलब है, पुर के बीच में बसा। एक पूरा नगर तुम्हारे चारों तरफ है। सात करोड़! बंबई भी छोटी है। सात करोड़ जीवाणु, उनके बीच में आप बसे हैं। और उनमें प्रतिपल मरना हो रहा है, जीना हो रहा है, सब चल रहा है। चलते हो, उठते हो, बैठते हो, उसमें हिंसा हो रही है। करवट लेते हो, उसमें हिंसा हो रही है। श्वास लेते हो, उसमें हिंसा हो रही है। जियोगे कैसे? अगर तुम सारे धर्मों का हिसाब करके चलो तो जी ही नहीं सकते। और ये ही धर्म अब तक आदमी को सिखाते रहे हैं। आदमी की जिंदगी में जहर घोल दिया है।
मैं तो आदमी की जिंदगी को मुक्ति दे रहा हूं। मैं तो तुमसे कह रहा हूं, जो परमात्मा ने दिया है उसे भोगो। और मैं तो तुमसे यह कह रहा हूं, कोई मरता ही नहीं। आत्मा अमर है। कहां की हिंसा, कैसी हिंसा? चिंता छोड़ो। शांति से, सरलता से, स्वभाव से जियो। और इस जीवन को परमात्मा की भेंट समझकर अनुग्रह मानो। इस भेंट में ही परमात्मा को खोजो। अगर संगीतज्ञ को खोजना हो तो उसके संगीत में ही खोजना पड़ेगा। अगर सन्नाटा को खोजना हो तो उसकी सृष्टि में ही खोजना पड़ेगा। अगर कवि को खोजना हो तो उसके काव्य में ही खोजना पड़ेगा, और कहां पाओगे? वहीं से सूत्र मिलेंगे, वहीं से सेतु बनेगा।
मैं तो जीवन के अहोभाव, जीवन के परम स्वीकार, जीवन के आनंद, जीवन के उत्सव को दे रहा हूं मेरे संन्यासी को। मेरे संन्यासी फ्रस्ट्रेशन में पड़ रहे हैं, विषाद में पड़ रहे हैं, इससे ज्यादा मूढ़ता की कोई बात हो सकती है? हां, मेरे संन्यासियों को देखकर पुराने संन्यासी बड़े फ्रस्ट्रेशन में पड़ रहे हैं, यह जरूर सच है। उनके प्राण बड़ी मुश्किल में पड़ रहे हैं। वे बड़े बेचैन हो रहे हैं कि यह कैसा संन्यास? उनकी बेचैनी यह है कि यह तो हद हो गई, हम इतना छोड़—छाड़कर मोक्ष पहुंचेंगे और ये बिना छोड़े—छाड़े पहुंच जाएंगे! यहां भी मजा करेंगे और वहां भी!
और मैं तुमसे कहे देता हूं कि जो यहां मजा करेगा वही वहां भी मजा करेगा। क्योंकि मजे का अभ्यास करना होता है। और जो यहां मजा नहीं करेगा, वहां भी मजा नहीं करेगा। क्योंकि यहां अगर उसने गैर—मजे का अभ्यास कर लिया तो बड़ी मुश्किल में पड़ेगा।
तुम्हारे पुराने ढब के संन्यासियों को नरक में ज्यादा शांति मिलेगी। उनके ज्यादा अनुकूल होगा। यहां उनको कांटों की खुद ही सेज बनानी पड़ती है, वहां शैतान के शिष्य बना देंगे। यहां उनको ही आग जलाकर बैठना पड़ता है और भभूत लगानी पड़ती है , वहां शैतान के .....अच्छी मालिश करेंगे। और भभूत से ही मालिश करेंगे और खूब भभूत लगा देंगे——ऐसी कि उतरे ही नहीं। अंगारों सहित मालिश कर देंगे। खूब त्यागत्तपश्चर्या करवा देंगे।
उनको नरक ही मौजूं पड़ेगा, स्वर्ग नहीं मौजूं पड़ सकता। स्वर्ग में वे करेंगे क्या? बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे। स्वर्ग में अप्सराएं हैं और शराब के झरने हैं। और कल्पवृक्ष हैं। कल्पवृक्ष के नीचे जरा बैठकर तुम्हारा संन्यासी करेगा क्या——पुराने ढब का? मेरे संन्यासी को तो कोई दिक्कत नहीं है। मगर पुराने ढब का संन्यासी कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर करेगा क्या? कि हे प्रभु, पत्थर गिराओ! कि थोड़ी तपश्चर्या और करवाओ! कल्पवृक्ष किस काम का? पुराने संन्यासी अगर स्वर्ग पहुंचे होंगे तो कुल्हाड़ियां लेकर उन्होंने सब कल्पवृक्ष काट डाले होंगे अब तक। जंगल साफ कर दिया होगा। फिर से वृक्षारोपण करना पड़ेगा।
मैं एक संन्यास दे रहा हूं जो सहज है——स्वाभाविक; आनंद जिसका अनुशासन है। मेरा संन्यास और फ्रस्ट्रेशन में ले जा रहा है लोगों को या मेरा संन्यासी फ्रस्ट्रेशन में जा रहा है, इससे ज्यादा व्यर्थ, असंगत बात क्या हो सकती है? हां, मगर आर्यसमाजियों को पड़ गई होगी अड़चन। उनको बड़ी अड़चन है।
यहां शंकराचार्य किसी मठ के कोई मित्र ले आया था द्वार पर। ले आया था मुझे मिलाने। गाड़ी मैं उन्हें बैठा हुआ छोड़कर वह पूछने आया दफ्तर में अंदर कि कब मिलना हो सकता है? लेकिन इसी बीच सब गड़बड़ हो गई। एक विदेशी संन्यासी अपनी पत्नी का हाथ हाथ में लिए दरवाजे से प्रविष्ट हुआ। दोनों मस्त! गीत गुनगुनाते हुए! शंकराचार्य को आग लग गई। जब तक उनका शिष्य वापिस पहुंचा व्यवस्था करके मिलने की, वे बोले, इसी वक्त चलो। इस जगह से हटो! यह कैसा संन्यास है! संन्यासी और स्त्री का हाथ हाथ में लिए?
तुम सोचते हो, अगर ये शंकराचार्य स्वर्ग पहुंच जाएं और देख लें कि रामचंद्र जी सीता जी के साथ खड़े हैं, एकदम झपट्टा मारकर अलग कर देंगे दोनों को, हटो! शर्म नहीं आती? राम होकर और सीता जी का हाथ पकड़े हो? तुमने समझा क्या है, जगजननी सीता! छोड़ो हाथ!
यह संन्यासी के कारण बड़ी अड़चन होगी वैकुंठ में। यह कृष्ण महाराज तो एकदम छीन—छान लेगा उनका मोर—मुकुट और बंसी—वंसी की छोड़ो! यह नहीं चलेगा। ये किनकी स्त्रियां तुम्हारे आसपास नाच रही हैं? तुमको मालूम है कि सोलह हजार स्त्रियां कृष्ण की, उनमें उनकी स्त्रियां कौन थीं? एक रुक्मिणी के सिवा और कोई ब्याही हुई स्त्री नहीं थी। बाकी ये हजारों स्त्रियां उनके पास नाचीं किसी प्रेम में डूबकर, किसी आनंद में लीन होकर।
मैं तो कृष्ण को वापस लौटा रहा हूं। मैं तो संन्यास के ओंठों पर फिर बांसुरी रख रहा हूं। संन्यास गाता हुआ होना चाहिए। अगर गाते हुए परमात्मा तक पहुंच सकते हो तो क्यों रोते हुए जाते हो? अगर नाचते हुए पहुंच सकते हो तो क्यों चलते हुए जाना? और अगर परमात्मा भी नाचता हुआ .....  और मैं कहता हूं कि नाचता हुआ है। जरा चारों तरफ प्रकृति को देखो, वह परमात्मा का प्रतीक है——नाचती हुई प्रकृति, सब तरफ मौज से भरी प्रकृति। सब तरफ झरने बह रहे हैं, फूल खिल रहे हैं; वास उड़ रही है, बादल घिर रहे हैं, चांद तारों से भरा आकाश है। इस सबसे तुम्हें याद नहीं पड़ती कि परमात्मा महात्मा तो नहीं है। परमात्मा खूब रंग—रंगीला है। रसो वै सः। रसपूर्ण है, रस का स्रोत है, सच्चिदानंद है।
लेकिन आर्यसमाजी को यह बात न जंचेगी। उसे यह बात पसंद ही नहीं पड़ेगी। हां, उसे देखकर फ्रस्ट्रेशन पैदा हो जाएगा। मेरे संन्यासी को देखेगा तो उसको जलन औरर् ईष्या पैदा हो जाएगी। वह यह बर्दाश्त नहीं कर सकता। वह चाहता है, लोग दुःखी हों। वह दुःख को आदर देता है। ये सब दुःख का सम्मान करनेवाले लोग हैं। जितना जो दुःखी होता है उसको उतना आदर देता है। कहता है, यह उतना बड़ा तपस्वी है। जो जितना अपने को सताता है, गलाता है, जो अपने मन कोत्तन को खूब मारता है, कोड़े फटकारता है, उसको उतना सम्मान। तपश्चर्या उसका लक्ष्य है। त्याग उसका लक्ष्य है।
मेरे संन्यास का लक्ष्य है, परम भोग। और मैं सीधी—सादी बातें कर रहा हूं; कहीं कुछ छिपाना नहीं है, सीधी बात है : परम भोग। मैं अगर तुम्हें परमात्मा की तरफ ले जाना चाहता हूं तो इसलिए नहीं कि भोग बुरा है बल्कि इसलिए कि तुमने जिसको भोग जाना है वह भोग ही नहीं है। इसी जीवन में परम भोग घट सकता है। मैं तुम्हारे जीवन से सुख को छीन नहीं लेना चाहता, तुम्हारे जीवन में सुख को गहराना चाहता हूं, घना करना चाहता हूं।
तो यह बात तो बड़ी बेमौजूं है। वेदांत, तुम्हारा मिलना अगर फिर हो जाए आर्यसमाजी सज्जन से, आर्य भिक्षु से, तो उनसे निवेदन करना। और फिर तो तुम मेरे संन्यासी हो। तुम्हें वहीं जवाब देना था। तुम्हें एकदम खड़े होकर नटराज शुरू कर देना था। हाथ पकड़ लेना था कि आओ, नाचें। वहीं समझ में आ जाता कि फ्रस्ट्रेशन में कौन है। खिलखिलाकर हंसना था, आनंदित होना था, निमंत्रण देना था कि आओ, हम नाचें। यहां तक तुम्हें प्रश्न लाने की जरूरत ही न थी, उत्तर वहीं देना था। और उत्तर जीवंत होना चाहिए।

तीसरा प्रश्न :

प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर मैं प्रेम करने से डरता क्यों हूं?

सीलिए, क्योंकि इतनी महिमा है। और तुम्हारे संस्कार तुम्हें इतनी महिमा तक जाने से रोकते हैं। प्रेम विराट है और तुम्हारे संस्कारों ने तुम्हें क्षुद्र बनाया है, छोटा बनाया है, ओछा बनाया है। प्रेम भोग है और तुम्हारे संस्कारों ने तुम्हें त्याग सिखाया है। प्रेम आनंद है और तुम्हारे संस्कार कहते हैं, उदासीन हो जाओ। प्रेम रस है और तुम्हारे संस्कार रस—विपरीत हैं इसलिए तुम भयभीत होते हो।
और फिर तुम इसलिए भी भयभीत होते हो कि प्रेम के रास्ते पर अहंकार की आहुति देनी होती है। अपने सिर को काटकर चढ़ाना होता है। अपने को खाना होता है। जैसे बूंद सागर में गिरे, ऐसे प्रेम के सागर में गिरना होता है।
फिर भय लगता है कि प्रेम इतना विराट है, इतना बड़ा आकाश! और तुम पिंजरे में रहने के आदी हो गए हो। तुमने देखा कभी? पिंजरे में बंद पक्षी को अगर तुम दरवाजा भी खोल दो तो बाहर नहीं निकलता।
मैंने तो सुना है, एक सराय में एक आदमी एक रात मेहमान हुआ। कवि था। और दिन भर सुबह से उसने सुना, तोता एक, बड़ा प्यारा तोता बंद है; सराय के दरवाजे पर लटका है। और दिनभर चिल्लाता है, "स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!' कवि को बड़ी बात जंची। कवि था, उसके हृदय में भी स्वतंत्रता का मूल्य था। उसने सोचा, हद हो गई! मैंने तोते बहुत देखे; कोई कहता, राम—राम, कोई कुछ जपता, कोई कुछ, मगर स्वतंत्रता की याद करनेवाला तोता पहली दफा देखा।
इतना भावाभिभूत हो गया कि रात जब सब सो गए दूसरे दिन तो वह उठा और उसने पिंजरा खोल दिया उसका और कहा, "प्यारे, उड़ जा। अब रुक मत।' मगर तोता उड़ा नहीं। पिंजरे के सींखचों को पकड़कर रुक गया। कवि के हृदय में बड़ी दया आ गई थी। स्वतंत्रता का ऐसा प्रेमी! उसने हाथ डालकर तोते को बाहर निकालना चाहा तो तोते ने चोंचें मारीं उसके हाथ में, लहूलुहान कर दिया। वह निकलना नहीं चाहता।
मगर कवि तो कवि होते हैं। पागल तो पागल हैं! उसने तो निकाल ही दिया तोते को, चाहे चोट मारता रहा तोता, चिल्लाता रहा। और मजा यह था, चोटें मार रहा था, बाहर निकलता नहीं था, सींखचे पकड़े था और चिल्ला रहा था, "स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!' मगर कवि ने भी निकालकर..... उसकी एक न सुनी "स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।' निकालकर उसको स्वतंत्र कर ही दिया। निश्चिंत आकर सो गया कवि अपने कमरे में। हृदय का भार हलका हो गया। लेकिन सुबह जब उसकी आंख खुली, तोता पिंजरे में बैठा था। वह दरवाजा बंद करना पिंजरे का रात भूल गया। तोता फिर वापिस आ गया था और सुबह से फिर रट लगा रहा था। और पिंजरे का द्वार खुला था। रट लगा रहा था, "स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!'
ऐसी तुम्हारी दशा है। तुम प्रेम की मांग भी करते हो मगर पिंजरे में तुम्हारी रहने की आदत भी हो गई है। तुम प्रार्थना की मांग भी करते हो मगर बस तोतों की तरह रट रहे हो। यह वास्तविक तुम्हारे प्राणों की प्यास हो तो अभी घटना घट जाए।
प्रेम खतरनाक मार्ग है। अपने को गंवाना पड़ता है तब कोई प्रेम को पाता है। इतनी कीमत चुकानी पड़ती है। सस्ता सौदा नहीं है, महंगा सौदा है। अपने को खोने की तैयारी चाहिए। जब इतनी तैयारी हो——

दिलो—दिमाग को रो लूंगा आह कर लूंगा
मैं तेरे इश्क में सब कुछ तबाह कर लूंगा
जब इतनी तैयारी हो तो प्रेम और उसकी महिमा का स्वाद मिलना शुरू होता है।
फिर प्रेम रुलाता भी बहुत है। क्योंकि आज तुम प्रेम करोगे तो आज थोड़े ही प्रेमी मिल जाएगा! लंबी विरह की रात्रि आएगी तब मिलन की सुबह होती है। विरह की रात्रि का भी डर होता है। इसलिए लोग प्रेम करने से घबड़ाते हैं कि कौन विरह को सहेगा! समझदार आदमी इस तरह की बातों में पड़ते ही नहीं। क्योंकि उसमें पीड़ा है।

कोई ऐ "शकील' देखे यह जुनून नहीं तो क्या है
कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा
न मालूम कितनी रातों यहीं रोना पड़ेगा——कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा। तुमने चाहा और प्रेम उसी वक्त थोड़े ही घट जाता है! प्रेम परीक्षाएं मांगता है, कसौटियां मांगता है। प्रेम की विरह की अग्नि से गुजरना पड़ता है तभी तुम योग्य के लिए पात्र हो पाते हो; तभी तुम प्रेम को पाने के अधिकारी हो जाते हो।

कोई ऐ "शकील' देखे यह जुनून नहीं तो क्या है
कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा
यह पागलपन नहीं तो और क्या है? पागलपन मालूम होता है प्रेम।
समझदार बच जाते हैं, इस पागलपन की तरफ नहीं जाते। समझदार धन कमाते हैं, प्रेम नहीं। समझदार दिल्ली की यात्रा करते हैं, प्रेम की नहीं। समझदार और सब करते हैं, प्रेम से बचते हैं क्योंकि प्रेम पागलपन है। और पागलपन है ही। बुद्धि की सब सीमाओं को तोड़कर, बुद्धि की सारी व्यवस्थाओं को तोड़कर प्रेम उमगता है। इसलिए तुम डरते होओगे। विचारशील आदमी होओगे।

कहूं किससे मैं कि क्या है शबे—गम, बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
प्रेमी को कितनी बार मरना पड़ता है इसका पता है? बार—बार मरना पड़ता है, हर बार मरना पड़ता है। हर बार विरह जब घेरती है, मौत घटती है। इंच—इंच मरना पड़ता है।
कहूं किससे मैं कि क्या है शबे—गम, बुरी बला है——वह जो विरह की लंबी रात है, बड़ी खतरनाक है।
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता——एक बार मर जाता तो भी कोई बात थी। मरते हैं, मरते हैं। जी भी नहीं पाते, मर भी नहीं पाते। प्रेमी की बड़ी फांसी लग जाती है। प्रेम फांसी है; मगर फांसी के बाद ही सिंहासन है। याद करो जीसस की कहानी। सूली लगी, और सूली के बाद ही पुनरुज्जीवन। प्रेम सूली है।
और जिसने प्रेम नहीं जाना उसे भक्ति से तो मिलना कैसे हो पाएगा? प्रेम भक्ति का बीज है। भक्ति प्रेम का फूल है। प्रेम ही प्रगाढ़ होते—होते एक दिन भक्ति बनता है। जो प्रेम से वंचित रह गया, वह भक्ति से वंचित रह जाएगा। और अगर भक्ति करेगा तो उसकी भक्ति थोथी होगी, औपचारिक होगी, क्रियाकांड होगी, पाखंड होगी, दिखावा होगी, धोखा होगी।

बरस रही है हरीमे—हविस में दौलते—हुस्न
गदाए—इश्क के कासे में इक नजर भी नहीं
न जाने किसलिए उम्मीदवार बैठा हूं
इक ऐसी राहपै जो तेरी रहगुजर भी नहीं
बहुत बार ऐसा लगेगा कि कहां बैठा हूं, किसकी राह देख रहा हूं? न कोई आता, न कोई जाता। कहीं ऐसा तो नहीं है एक ऐसी राह पर बैठा हूं जहां से परमात्मा का निकलना होने ही वाला नहीं है ! जहां से प्रेमी गुजरेगा ही नहीं!

न जाने किसलिए उम्मीदवार बैठा हूं
इक ऐसी राहपै जो तेरी रहगुजर भी नहीं
कभी तुझे गुजरते भी नहीं देखा। कभी तेरे पैरों की चाप भी नहीं सुनी। मैं कहीं ऐसा व्यर्थ बैठे—बैठे व्यर्थ ही तो नहीं हो जाऊंगा?
प्रेम बड़ी प्रतीक्षा मांगता है, बड़ा धीरज मांगता है। और जिनके पास धीरज की कमी है वे प्रेम के रास्ते पर नहीं जा सकते। और यहां तो सारे लोग जल्दी में हैं। अभी हो जाए कुछ, इसी वक्त हो जाए कुछ, मुफ्त में हो जाए कुछ, उधार हो जाए कुछ। न तो कोई कीमत चुकाने को राजी है, न कोई प्रतीक्षा करने को राजी है, न कोई विरह के आंसू गिराने को राजी है।

हम भी तस्लीम की खू डालेंगे
बे—नियाजी तेरी आदत ही सही
प्रेमी को तो कहना पड़ता है, अगर तेरा उपेक्षाभाव तेरी आदत है तो रहे तेरी आदत, सम्हाल तू अपनी आदत। हम भी तस्लीम की खू डालेंगे——हम भी धैर्य की आदत डालेंगे।

हम भी तस्लीम की खू डालेंगे
बे—नियाजी तेरी आदत ही सही
तू रख अपनी आदत बेपरवाही की। मतकर चिंता हमारी, मत ले खोज—खबर, मत देख हमारी तरफ। तू कर उपेक्षा जितनी कर सकता हो। हम अपने धीरज से तेरी उपेक्षा को हराएंगे
लंबी यात्रा है विरह की, आंसुओं की। मगर जो हिम्मत कर लेता है, पूरी हो जाती है। और जिसे एक बार थोड़ा—सा भी स्वाद लग जाता है प्रेम का, फिर लौट नहीं पाता। फिर सिर गंवाना हो तो सिर गंवाता है। फिर जो गंवाना हो, गंवाने को राजी होता है।

जीते—जी कूचः—ए—दिलदार से आया न गया
उसकी दीवार का सर से मिरे साया न गया
एक बार उसकी दीवाल की छाया भी तुम पर पड़ जाए तो फिर चाहे जान रहे कि जाए, तुम उसके दीवाल के साए को छोड़कर जा न सकोगे।
तुम तो मंदिर भी हो आते हो, लौट आते हो। तुम्हारा मंदिर झूठा है। उसके मंदिर जाकर कोई कभी लौटा है? जो गया सो गया। जो गया सो उसके मंदिर का हिस्सा हो गया।

जीते—जी कूचः ए—दिलदार से आया न गया
प्रेमी की गली से कोई जिंदा लौटता है?
उसकी दीवार का सर से मेरे साया न गया
इतनी हिम्मत नहीं है इसलिए प्रेम की महिमा सुन लेते हो, बुद्धि से समझ भी लेते हो, फिर भी भीतर—भीतर डरे रहते हो।

यह हाल था शब—ए—वादा कि ता—ब—रहगुजर
हजार बार गया मैं, हजार बार आया
कितनी बार जाना पड़ता है देखने द्वार पर कि कहीं प्रेमी आ तो नहीं गया? विरह की रात्रि में पत्ता भी खड़कता है तो गलता है, उसी का आगमन हो रहा है। हवा का झोंका आता है तो लगता है, उसी का आगमन हो रहा हैं। राह से कोई अजनबी गुजर जाता है तो लगता है, वही आ गया।

यह हाल था शब—ए—वादा कि ता—ब—रहगुजर
हजार बार गया मैं, हजार बार आया
——सोने की फिर चैन नहीं। प्रेम में जो पड़ा वह जागा।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, दो मार्ग हैं परमात्मा तक जाने के। एक मार्ग है, ध्यान। ध्यान का अर्थ है, जागो। जो जागेगा वह प्रेम करने लगेगा। जागा हुआ आदमी घृणा नहीं कर सकता क्योंकि जागे हुए आदमी को दिखाई पड़ता है, सब एक है। मैं ही हूं। यहां किसी को चोट पहुंचाना अपने ही गाल पर चांटा मारना है। यहां किसी को दुःख देना अपने को ही दुःख देना है। जागे हुए पुरुष को दिखाई पड़ता है, एक का ही विस्तार है, एक ही परमात्मा सबमें छाया है। प्रेम अपने आप पैदा होता है।
दूसरा रास्ता है प्रेम का। प्रेम करो और तुम जाग जाओगे क्योंकि प्रेमी सो नहीं सकता। उसकी प्रतीक्षा में पलक लगे कैसे? उसकी राह देखनी पड़ती है, कब आ जाए, किस क्षण आ जाए, किस द्वार से आ जाए, किस दिशा से आ जाए। प्रेम हिम्मत की बात है, दुस्साहस की बात है।
तुम पूछते हो, "प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर मैं प्रेम करने से डरता क्यों हूं?' इसीलिए डरते हो। महिमा का तुम्हें थोड़ा—थोड़ा बोध होने लगा है। आकर्षण पैदा हो रहा है, कशिश पैदा हो रही है। प्रेम पुकार दे रहा है। और अब भय पकड़ रहा है। अच्छे लक्षण हैं, भय की मानकर रुकना मत। भय के बावजूद प्रेम की पुकार सुनना और प्रेम के स्वर को पकड़कर चल पड़ना
प्रेम परमात्मा का आयाम है। निकटतम कोई मार्ग अगर परमात्मा के पास ले जानेवाला है तो प्रेम है। ध्यान का मार्ग लंबा है और रूखा—सूखा है; मरुस्थल जैसा है। प्रेम का मार्ग बहुत हरा—भरा है। प्रेम के मार्ग पर गंगा बहती है, मरुस्थल नहीं है। छोड़ो अपनी नौका गंगा में। भय तो पकड़ता है। जब भी कोई नई यात्रा को निकलता है, नए अभियान को, अज्ञात अनजान की खोज में, भय स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक भय का अर्थ यह नहीं है कि उसके कारण रुको।

अंतिम प्रश्न :

प्यारे भगवान, एक लहर उठी थी और किनारे से टकराने के पहले ही सम्हल गई। और फिर से वही लहर वापस मझधार में डूब गई। उस क्षण का क्या कहूं! डूबने में आनंद घना होकर छा गया और भीग गई। प्रेम—सागर में डूबकर पुनः गाती हूं, "झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री।'

रु, जो तुझे हो रहा है, मुझे पता है। धीरे—धीरे औरों को भी पता होना शुरू हो जाएगा।

वाकिफ है जोश इश्क से अपने तमाम शहर
और हम यह जानते हैं कि कोई जानता नहीं
प्रेम का तो पता चलना शुरू हो जाता है। प्रेम तो प्रकट होने लगता है। प्रेमी की चाल बदल जाती है, चलन बदल जाता है, उठना—बैठना बदल जाता है, भाव—भंगिमा बदल जाती है। प्रेम घटता है तो पता चलने ही लगता है। प्रेम को छुपाने का उपाय नहीं है।

पड़ा था सूना सितार दिल का
हुई अचानक यह जाग तुमसे
जो जिंदगी रोग बन चुकी थी
वह बन गई है आज राग तुमसे
यह मेरे जीवन की रागिनी क्या 
प्रेम की यह मीठी बांसुरी क्या
यह दान तुमने दिया है साजन
मिला है मन को यह राग तुमसे
परमात्मा को धन्यवाद दो। उसके अनुग्रह में झुको। और जितने अनुग्रह में झुको उतनी ही और प्रेम की वर्षा होगी।

उनके ओंठों में है कैसी मै—ए—गुल रंग "सुरूर'
देखिए कब वह घड़ी आए कि हम तक पहुंचे
——परमात्मा मदिरा है।

उनके ओंठों में है कैसी मै—ए—गुल रंग "सुरूर'
——उसके ओंठ अमृत से भरे हैं।

देखिए कब वह घड़ी आए कि हम तक पहुंचे
——जितने झुकोगे उतने जल्दी घड़ी आ जाएगी। जो बिल्कुल झुक गया उसकी घड़ी आ गई। जरा भी झुकोगे तो बूंदाबांदी शुरू हो जाएगी। अगर बिल्कुल झुक गए तो वह भी तुम पर झुक आता है। झुकि आयी बदरिया सावन की!

इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—हुश्यारी

सर के लिए गफलत है, दिल के लिए बेदारी
और जैसे—जैसे यह मस्ती छाएगी, वैसी—वैसी एक हैरानी की बात समझ में आएगी—— सर के लिए गफलत है। सर तो बेहोश होने लगेगा। दिल के लिए बेदारी——और दिल होश से भरने लगेगा। मस्तिष्क तो सोने लगेगा, खोने लगेगा, हृदय जागने लगेगा।
साधारणतः खोपड़ी जगी हुई है, हृदय सोया हुआ है। विचार, तर्क जगे हुए हैं, प्रेम सोया हुआ है। जैसे—जैसे कोई परमात्मा के अनुग्रह में डूबता है वैसे—वैसे बुद्धि तो सोने लगती है, हृदय जागने लगता है। हृदय के जागने को ही मैं श्रद्धा कहता हूं। बुद्धि तुम्हें विश्वास दे सकती है, श्रद्धा नहीं। श्रद्धा स्वाद है हृदय का।

इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—हुश्यारी

——और एक प्याली में दोनों बातें घोली हैं।

इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—हुश्यारी
सर के लिए गफलत है दिल के लिए बेदारी
जिससे सिर तो सो जाएगा और जिससे हृदय सदा के लिए जाग जाएगा। हृदय का जागरण जगत् में परमात्मा का अनुभव है।
तरु, तू ठीक ही कहती है कि उस क्षण का क्या कहूं! डूबने में आनंद घना होकर छा गया और भीग गई। उस क्षण के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। या कुछ ऐसी बातें कही जा सकती हैं——

ख्वाबीद : तरन्नुम है खामोश कयामत है
रफ्तार की शोखी में गंगा की मतानत है
जज्बात की बेदारी जाहिर है रगो—पैसे
तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे
ख्वाबीद : तरन्नुम है—— स्वप्निल संगीत है। इतना सूक्ष्म है कि स्वप्न जैसा मालूम होता है, सत्य नहीं मालूम होता। अनाहत का नाद ऐसा ही है।
ख्वाबीद : तरन्नुम है खामोश कयामत है——सारा अस्तित्व ऐसा चुप है जैसे कयामत हो गई; जैसे सृष्टि का अंत हो गया; जैसे प्रलय आ चुकी, महाप्रलय घट गई।

ख्वाबीदः तरन्नुम है खामोश कयामत है
रफ्तार की शोखी में गंगा की मतानत है
और फिर भी जीवन में एक आनंद है, एक नृत्य है; जैसे गंगा नाचती हुई सागर की तरफ चली हो।
जज्बात की बेदारी जाहिर है——और भावनाएं जग गई हैं, विचार सो गए हैं। जज्वाब की बेदारी जाहिर है रगो—पैसे। और ऐसा भी नहीं है कि हृदय के भीतर ही भीतर है, रोएंरोएं में है, रग—रग में है, अंग—अंग में है।
जज्बात की बेदारी जाहिर है रगो—पैसे——एक—एक रोआ खबर दे रहा है उसकी।
तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे——और जैसे तालाब के पानी पर एक कमल थिर हो और बहता हो।
नहीं, उस क्षण के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे। मगर यह भी कुछ नहीं कहना है। हमारे सब प्रतीक छोटे पड़ जाते हैं। हमारे सब प्रतीक ओछे पड़ जाते हैं। भाषा लंगड़ी हो जाती है। व्याकरण का दिवाला निकल जाता है। उस क्षण को तो जो जानता है, वही जानता है। लेकिन वह क्षण जिसके जीवन में आना शुरू हो जाता है उसके जीवन में परमात्मा ने प्रवेश शुरू किया। एक—एक किरण धीरे—धीरे घने सूरज बन जाते हैं। एक—एक बूंद सागर बन जाते हैं।
और उसकी अटरिया पर तो हम चढ़ ही रहे हैं। झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री। यह तो खयाल ही तब आता है जब सीढ़ियों पर पैर पड़ने लगते हैं। तब दो—दो सीढ़ियां एक साथ छलांग लगा जाने का मन होता है। झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री। उमंग में, उत्साह में, आनंद में। कोई होश रह जाता है चढ़ने का? छलांगें लगती हैं। क्रम टूट जाते हैं, छलांगें घटती हैं।
जगजीवन का यह वचन : "झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री' बड़ा प्यारा है। मैं तुम्हें जो संन्यास दिया हूं वह ऐसा ही है——झमककर चढ़ जाए अटरिया। नाचता हुआ, गीत गाता हुआ, परम आनंद में लीन।

आज इतना ही।


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