'अद्वैत'-(प्रवचन-नौवां) ओशो
Hsin
Hsin Ming (शुन्य की
किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद)
सूत्र:
तथाता के इस जगत में न तो कोई स्व है और न ही
स्व के अतिरिक्त कोई और।
इस वास्तविकता से सीधे ही लयबद्ध होने के लिए-जब
संशय उठे,
बस कहो, 'अद्वैत।
इस 'अद्वैत' में कुछ भी पृथक नहीं है कुछ भी बाहर
नहीं है।
कब या कहा कोई अर्थ नहीं रखता; बुद्धत्व का अर्थ है इस सत्य में प्रवेश।
कब या कहा कोई अर्थ नहीं रखता; बुद्धत्व का अर्थ है इस सत्य में प्रवेश।
और यह सत्य समय या स्थान में घटने- बढ़ने के पार
है;
इसमें एक अकेला विचार भी दस हजार वर्ष का है।
पहले
तथाता' शब्द को समझने का प्रयत्न करो। बुद्ध इसी शब्द
पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं। बुद्ध की अपनी भाषा में यह तथाता है।
बौद्ध धर्म का सारा ध्यान इस शब्द में
जीना है इस शब्द में इतनी गहनता से
जीना है कि यह शब्द विलीन हो जाए और तुम स्वयं ही
तथाता हो जाओ।
उदाहरण
के लिए तुम बीमार हो। तथाता का भाव है उसे स्वीकार करो और स्वयं से
कहो ' शरीर का यही ढंग है या ' चीजें
ऐसी ही हैं।'
लड़ी नहीं संघर्ष करना शुरू मत करो।
तुम्हारे सिर में दर्द है- उसे स्वीकार कर लो चीजों का स्वभाव ऐसा ही है। अचानक बात
बदल जाती है क्योंकि जब यह भाव उठता है एक परिवर्तन छाया की तरह पीछे चला
आता है। अगर तुम अपने सिरदर्द को स्वीकार कर सको तो सिरदर्द मिट जाता है। तुम
इसे करके देखो। अगर तुम किसी रोग को स्वीकार कर लेते हो तो वह दूर होना शुरू
हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? ऐसा होता है क्योंकि जब भी तुम संघर्ष करते हो तुम्हारी
ऊर्जा विभाजित हो जाती है आधी ऊर्जा बीमारी में सिरदर्द में चली जाती है और आधी
ऊर्जा सिरदर्द से लड़ने में लग जाती है- एक दरार एक अंतराल और एक संघर्ष।वास्तव में यह संघर्ष और भी गहरा सिरदर्द है।
एक
बार जब तुम स्वीकार कर लेते हो एक बार जब तुम शिकायत नहीं करते, एक
बार जब तुम संघर्ष नहीं करते, ऊर्जा भीतर एक हो जाती है। दरार भर जाती है। और पर्याप्त
ऊर्जा मुक्त होती है क्योंकि अब कोई संघर्ष नहीं है-ऊर्जा की मुक्ति ही रोग का उपचार
बन जाती है। रोग का उपचार बाहर से नहीं होता है। सारी औषधियां बस शरीर की अपनी
रोग-निवारण शक्ति को कार्य करने में सहायता देती हैं। डॉक्टर जो कुछ तुम्हारी सहायता
कर सकता है वह यही है कि तुम अपनी रोग-निवारण शक्ति को प्राप्त कर सको। स्वास्थ्य
बाहर से जबरदस्ती नहीं दिया जा सकता, वह तुम्हारी ही ऊर्जा की खिलावट है। यह ' तथाता' शब्द
इतनी गहराई से काम कर सकता है कि शारीरिक रोग मानसिक रोग
और अंत में आध्यात्मिक रोग के लिए- यह एक रहस्यमय विधि है-वे सब मिट जाते
हैं। लेकिन शरीर से शुरू करो, क्योंकि वह निम्नतम तल है। अगर तुम वहां सफल हो
जाते हो, तो उच्चतर तलों पर भी कोशिश की जा सकती है। अगर
तुम वहां असफल हो जाते हो तो उच्चतर तल पर गति करना कठिन है।
शरीर
में कुछ गड़बड़ है विश्रांत हो जाओ और उसे स्वीकार कर लो, और
भीतर केवल इतना कहो- केवल शब्दों में नहीं बल्कि उसे
गहराई से अनुभव करो- कि ऐसा ही चीजों का स्वभाव है। शरीर एक संयोजन
है इसमें कई चीजें मिली हुईं हैं। शरीर की उत्पत्ति होती है, वह
मरण धर्मा है। और वह एक यंत्र-रचना है, और जटिल है;
कुछ न कुछ
विकार उत्पन्न होने की बहुत संभावना है।
इसे
स्वीकार कर लो और उसके साथ तादात्म्य मत बनाओ। जब तुम स्वीकार करते
हो तुम उससे ऊपर ही बने रहते हो तुम उससे पार ही बने रहते हो। जब तुम लड़ते हो
तो तुम्हें उसी तल पर आना पड़ता है। स्वीकार करना पार हो जाना है। जब तुम स्वीकार करते
हो तुम पहाड़ की चोटी पर हो शरीर पीछे छूट जाता है। तुम कहते हो ' ऐसी
ही है प्रकृति। जो चीजें उत्पन्न होती हैं वे मरेगी
भी। और अगर जो चीजें पैदा हुई हैं उन्हें मरना पड़ेगा
तो वे कभी बीमार भी होंगी बहुत चिंता करने की आवश्यकता नहीं है' - मानो
वह तुम पर नहीं घट रहा बस वस्तुओं के जगत पर घट
रहा है।
यही
तो सुंदरता है कि जब तुम संघर्ष नहीं कर रहे तुम पार हो जाते हो। तुम अब उसी
तल पर नहीं रहे। और यह पार हो जाना रोग निवारण शक्ति बन जाता है। अचानक शरीर
बदलने लगता है। ऐसा ही मानसिक चिंताओं तनावों,
दुखों पीड़ाओं के साथ भी होता
है। तुम किसी चीज के लिए चिंतित हो। चिंता क्या है? तुम सच्चाई को स्वीकार नहीं कर
पाते वही चिंता है। तुम चाहते हो कि वह जिस ढंग से घट रही है उससे भिन्न ढंग से घटित
हो। तुम चिंतित हो- क्योंकि तुम्हारे पास प्रकृति पर थोपने के लिए कुछ विचार हैं।
उदाहरण
के लिए तुम बूढ़े हो रहे हो। तुम चिंतित हो। तुम सदा युवा बने रहना चाहोगे-यही
चिंता है। तुम पत्नी को प्रेम करते हो तुम उस पर आश्रित हो और वह तुम्हें छोड़ने
का विचार कर रही है या किसी दूसरे पुरुष के साथ जा रही है, और
तुम चिंतित हो-चिंतित हो क्योंकि तुम्हारा क्या होगा? तुम
उस पर बहुत निर्भर हो, तुम उसके साथ बहुत
सुरक्षा अनुभव करते हो। जब वह चली जाएगी तब कोई सुरक्षा नहीं होगी। वह केवल
तुम्हारी पत्नी ही नहीं रही वह मां भी बनी रही थी एक आश्रय का स्थान सारी दुनिया
से बच कर छिपने के लिए तुम उसके पास आ सकते हो। तुम उस पर भरोसा कर सकते
हो, वह वहां होगी। सारी दुनिया के तुम्हारे विरुद्ध
हो जाने पर भी वह तुम्हारे विरुद्ध
न होगी, वह एक सांत्वना है। अब वह छोड़ कर जा
रही है तुम्हारा क्या होगा? अचानक तुम भयभीत और चिंतित हो जाते हो।
तुम
क्या कह रहे हो? तुम अपनी चिंता के द्वारा क्या कह रहे हो? तुम
कह रहे हो कि यह जो हो रहा है, तुम
स्वीकार नहीं कर सकते, यह ऐसा नहीं होना चाहिए। तुम ठीक इससे
अन्यथा की आशा कर रहे थे ठीक इसके विपरीत? तुम चाहते थे कि यह पत्नी सदा- सदा
के लिए तुम्हारी रहे और वह छोड़ कर जा रही है। लेकिन तुम क्या कर सकते हो?
जब
प्रेम नहीं रहता तुम क्या कर सकते हो? कोई उपाय नहीं है तुम प्रेम के लिए जोर
जबरदस्ती नहीं कर सकते हो। तुम इस पत्नी को अपने साथ रहने के लिए विवश नहीं कर
सकते हो। हां, तुम जोर जबरदस्ती कर सकते हो- यही सब लोग कर
रहे हैं- तुम जबरदस्ती कर सकते हो। वहां मृत शरीर होगा लेकिन
जीवित आत्मा जा चुकी होगी। फिर वह तुम्हारे लिए तनाव बन जाएगी।
प्रकृति
के विरुद्ध कुछ नहीं किया जा सकता है। प्रेम एक फूल की खिलावट थी, अब
फूल मुर्झा गया है। एक हवा का झोंका तुम्हारे घर आया था, अब
वह दूसरे घर में चला गया है। वस्तुओं की प्रकृति ऐसी ही है, वे
आगे बढ़ती रहती हैं और परिवर्तित होती
रहती हैं।
वस्तुओं
का जगत परिवर्तनशील है वहां कुछ भी स्थायी नहीं है। आशा मत करो! अगर
तुम इस संसार में जहां सब अस्थायी है स्थायित्व की अपेक्षा करते हो, तो
तुम चिंता पैदा कर लोगे। तुम चाहोगे कि यह प्रेम
सदा-सदा बना रहे। इस जगत में कुछ भी
सदा के लिए नहीं हो सकता- जो भी इस जगत
का है वह क्षणिक है। वस्तुओं की यही
प्रकृति है ' तथाता।
'
इसलिए
तुम्हें अब पता है कि प्रेम समाप्त हो गया है। यह बात तुम्हें उदास कर देती है
ठीक है उदासी को स्वीकार करो। तुम भयभीत हो रहे हो, भय को स्वीकार करो, उसको
दबाओ मत। तुम्हारा रोने का मन हो रहा है रोओ। उसे स्वीकार करो! जबरदस्ती न करो, नकली
चेहरा मत बनाओ। ऐसा दिखावा मत करो कि तुम चिंतित नहीं हो, क्योंकि इससे
कोई सहायता मिलने वाली नहीं है। अगर तुम चिंतित हो तो तुम चिंतित हो। अगर पत्नी
छोड्कर जा रही है तो वह जा रही है। अगर अब प्रेम नहीं रहा तो नहीं रहा। तुम वास्तविकता
से लड़ नहीं सकते तुम्हें उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा।
और
अगर तुम उसे धीरे- धीरे स्वीकार करते हो तब तुम लगातार दुखी और पीड़ित रहोगे।
अगर तुम उसे बिना किसी शिकायत के स्वीकार कर लेते हो असहाय अवस्था में नहीं
बल्कि समझ पूर्वक स्वीकार कर लेते हो तो वह तथाता बन जाता है। तब तुम्हें कोई चिंता
नहीं रही कोई समस्या नहीं रही- क्योंकि समस्या सच्चाई के कारण नहीं बल्कि इस कारण
से उत्पन्न हो रही थी कि तुम जिस तरह वह घटित हो रही थी उसे स्वीकार नहीं कर सके।
तुम चाहते थे कि वह तुम्हारा अनुसरण करे।
स्मरण
रहे जीवन तुम्हारा अनुगमन नहीं करने वाला तुम्हें जीवन के पीछे चलना पड़ेगा--शिकायत
करते हुए या प्रसन्नतापूर्वक वह तुम्हारा चुनाव है। अगर तुम शिकायत करते
हुए जीवन जीते हो तो तुम दुख पाओगे। अगर प्रसन्नतापूर्वक जीवन का अनुसरण करते
हो तो तुम एक बुब्दरुष हो जाओगे, तुम्हारा जीवन एक आनंद बन जाएगा।
बुब्दरुष
को भी मरना पड़ता है - चीजें बदलेंगी नहीं-लेकिन वे अलग ढंग से मरते
हैं। वे इतने सुखपूर्वक मरते हैं मानो मृत्यु है ही नहीं। वे तो बस विलीन हो जाते
हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि जिस चीज ने जन्म लिया
है वह मरेगी। जन्म में मृत्यु समाविष्ट है,
इसलिए ठीक ही है, इस
विषय में कुछ नहीं किया जा सकता है।
तुम
दुखी भी हो सकते हो और मर सकते हो; तब तुम उस सार को, उस
सौंदर्य को जो मृत्यु तुम्हें दे सकती है, उस
प्रसाद को जो अंतिम घड़ी में घटित होता है, उस प्रकाश को
जो उस क्षण घटता है जब शरीर और आत्मा अलग हो रहे होते हैं, चूक
जाते हो। तुम उसे चूक जाओगे क्योंकि तुम इतने चिंतित हो, तुम
अतीत को और शरीर को इतना पकड़े हुए हो कि तुम्हारी आंखें बंद हैं। तुम देख
नहीं पाते कि क्या घट रहा है क्योंकि तुम स्वीकार नहीं
कर पाते, इसलिए तुम आंखें बंद कर लेते हो, तुम
अपने समग्र अस्तित्व को बंद कर लेते हो। तुम मरते हो। तुम कई बार मरोगे, और
तुम इस के सार से चूकते ही चले जाओगे।
अगर
तुम स्वीकार कर सको तो मृत्यु सुंदर है; अगर तुम सदभावना से भरे हुए हृदय
से द्वार खोल सको, प्रेम से स्वागत कर सको ' हां
क्योंकि यदि मेरा जन्म हुआ है तो मृत्यु भी होगी। अब वह दिन आ गया है वर्तुल
पूरा हो गया है। ' तुम अतिथि की भांति मृत्यु
का स्वागत करते हो, और घटना की गुणवत्ता तुरंत बदल जाती है।
अचानक
तुम अमर हो जाते हो शरीर मर रहा है तुम नहीं मर रहे हो। अब तुम देख
सकते हो केवल वस्त्र छूट रहे हैं तुम नहीं,
केवल आवरण पात्र छूट रहा है अंतर- वस्तु
नहीं। चेतना अपने में प्रकाशित ही बनी रहती है- इसलिए, क्योंकि
जीवन में इस पर कई आवरण थे मृत्यु में वह नग्न है। और जब चेतना
अपनी पूर्ण नग्नता में होती है तो उसकी अपनी ही महिमा होती है; वह
संसार में सबसे सुंदर घटना है।
लेकिन
उसके लिए तथाता के दृष्टिकोण को आत्मसात करना पड़ता है। जब मैं कहता
हूं आत्मसात करना, तो मेरा अभिप्राय है आत्मसात कर लेना, केवल
बौद्धिक विचार से नहीं तथाता के दर्शन से नहीं है बल्कि
तुम्हारी समस्त जीवन-शैली तथाता हो
जाती है। तुम उसके विषय में सोचते तक
नहीं, वह बस स्वाभाविक हो जाता है।
तुम
तथाता में खाते हो, तुम तथाता में सोते हो तुम तथाता में श्वास
लेते हो, तुम तथाता में प्रेम करते हो तुम तथाता में
रोते हो। वह तुम्हारा जीने का ढंग हो जाता है,
तुम्हें उसके
संबंध में चिंता लेने की जरूरत नहीं रहती है तुम्हें उसके बारे में सोचने की भी जरूरत
नहीं है, वह तुम्हारा होने का ढंग हो जाता है। आत्मसात
से मेरा यही अभिप्राय है। तुम उसे आत्मसात करते हो पचाते हो वह तुम्हारे
रक्त में प्रवाहित होता है वह तुम्हारी अस्थियों में गहरे में चला जाता है, वह
तुम्हारे हृदय की धड़कनों तक पहुंच जाता है। तुम स्वीकार
कर लेते हो।
स्मरण
रहे ' स्वीकार '
शब्द बहुत अच्छा नहीं है। वह बोझिल है-
तुम्हारे कारण, शब्द के कारण नहीं- क्योंकि तुम तभी स्वीकार
करते हो जब तुम असहाय अनुभव करते हो। तुम शिकायत करते हुए स्वीकार करते हो आधे
मन से स्वीकार करते हो। तुम तभी स्वीकार करते हो जब तुम कुछ कर नहीं सकते लेकिन
भीतर कहीं गहरे में तुम अब भी यही चाहते हो अगर कुछ और हो गया होता तो तुम
खुश हो गए होते। तुम भिखारी की भांति स्वीकार करते हो सम्राट की भांति नहीं-
और भेद बहुत गहरा है।
अगर
पत्नी छोड़ जाती है या पति छोड़ जाता है अंत में तुम स्वीकार कर लेते हो। क्या
किया जा सकता है? तुम रोते हो और चिल्लाते हो और कई रातें सोचते
हो और चिंतित होते हो और कई दुखस्वप्न तुम्हें घेर
लेते हैं और पीड़ा और फिर क्या किया
जाए? समय घाव को भर देता है समझ नहीं। समय-
और याद रहे समय की इसलिए आवश्यकता पड़ती है क्योंकि तुम समझ नहीं रहे हो
वरना तत्काल घाव भर जाता है।
समय
की जरूरत है क्योंकि तुम समझ नहीं रहे हो। इसलिए धीरे- धीरे- छह महीनों
में आठ महीनों में एक वर्ष में- बातें मंद पड़ जाती हैं, स्मृति
में खो जाती हैं धूल से ढक जाती हैं। एक वर्ष का अंतराल आ जाता है
धीरे- धीरे तुम भूल जाते हो।
अभी
भी कभी-कभी घाव पीड़ा देता है। कभी-कभी कोई स्त्री सड़क से गुजरती है और
तुम्हें याद आ जाती है। कुछ समानता, वह कुछ इस तरह चलती है कि पत्नी की याद आ
जाती है और वह घाव याद आ जाता है। फिर तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो फिर और भी
धूल इकट्ठी हो जाती है फिर तुम्हें कम याद आती है। लेकिन नई स्त्री के साथ भी, कभी
वह इस तरह दिखती है- और तुम्हारी पत्नी की याद। जिस ढंग से वह बाथरूम में गाती
है, और उसकी याद। और घाव हरा हो जाता है।
वह
पीड़ा देता है क्योंकि तुम अतीत को ढो रहे हो। तुम हर चीज को ढो रहे हो इसीलिए
तुम इतने बोझ से दबे हो। तुम सभी कुछ साथ लिए हो। तुम बच्चे थे वह बच्चा अब
भी वहां है तुम उसे ढो रहे हो। तुम युवक थे वह युवक अपने सभी घावों अनुभवों, छताओं
को लिए अब भी वहां है। तुम अपना सारा अतीत लिए हुए परत दर परत सभी कुछ
वहां है। इसी कारण कभी-कभी तुम पीछे लौट जाते हो।
अगर
कुछ ऐसी घटना घटती है और तुम असहाय अनुभव करते हो तुम बच्चे की भांति
रोने लगते हो। तुम समय में पीछे लौट जाते हो बच्चा हावी हो गया है। बच्चा रोने में
तुमसे अधिक कुशल है, इसलिए बच्चा भीतर आ जाता है और तुम पर हावी हो
जाता है, तुम चिल्लाने लगते हो रोने लगते हो। तुम
झल्लाहट में बच्चे की तरह पैर से ठोकर
मारने लगते हो- लेकिन सब-कुछ वहां
मौजूद है।
इतने
बोझ को क्यों ढोया जाता है? क्योंकि तुम वास्तव में कभी किसी भी बात से
राजी नहीं होते। सुनो यदि तुम किसी बात से राजी हो जाते हो तो फिर वह कभी बोझ नहीं
बनती फिर घाव नहीं बना रहता। तुम घटना से राजी हो गए उसमें से कुछ भी ढोने योग्य
नहीं है तुम उसके बाहर हो। स्वीकार करते ही तुम उससे बाहर हो जाते हो। आधे असहायपन
से स्वीकार करने पर तुम घाव ढोते रहते हो।
एक
बात याद रखो कुछ भी जो अधूरा रह जाता है वह सदा-सदा के लिए मन में रह
जाता है जो पूरा हो जाता है वह छूट जाता है। क्योंकि मन की यह प्रवृत्ति है कि वह अधूरी
बातों को इस आशा में सम्हाल कर रखता है कि हो सकता किसी दिन उनके पूरा होने
का अवसर आ जाए। तुम अब भी पत्नी या पति के लौट आने की प्रतीक्षा कर रहे हो या
जो दिन बीत गए हैं उनके लौट आने की अब भी प्रतीक्षा कर रहे हो। तुम ने अतीत का अतिक्रमण
नहीं किया है।
और
अत्यधिक बोझिल अतीत के कारण तुम वर्तमान में नहीं जी पाते। तुम्हारा वर्तमान
अतीत के कारण गड़बड़ हो गया है, और तुम्हारा भविष्य भी ऐसा होने वाला है क्योंकि
अतीत और-और भारी होता जाएगा। प्रति दिन वह और- और भारी हो रहा है।
जब
तुम वास्तव में स्वीकार कर लेते हो तथाता के उस भाव में कोई शिकायत नहीं होती, तुम
असहाय नहीं होते। तुम बस इतना समझ जाते हो कि यह वस्तुओं का स्वभाव है।
उदाहरण के लिए अगर मैं इस कमरे से बाहर जाना चाहता हूं तो मैं दरवाजे से बाहर जाऊंगा, दीवाल
से नहीं क्योंकि दीवाल से निकलने का अर्थ उससे टकरा कर सिर फोड़ना
होगा, यह बिलकुल मूर्खतापूर्ण है। यह दीवाल की
प्रकृति है रोकना इसलिए तुम उससे निकलने का प्रयत्न नहीं करते! यह दरवाजे
का स्वभाव है, कि तुम उससे गुजर जाते हो
क्योंकि दरवाजा खाली है, तुम उससे निकल सकते हो।
जब
एक बुद्धपूरुष स्वीकार करता है, वह चीजों को दीवाल और दरवाजे की भांति स्वीकार
करता है। वह दरवाजे से होकर निकलता है वह कहता है, वही एक मात्र रास्ता है।
पहले तुम दीवाल से निकलने का प्रयत्न करते हो,
और तुम लाखों ढंगों से स्वयं को घायल
कर लेते हो। और जब तुम बाहर नहीं निकल पाते- कुचले हुए परास्त, निराश गिरे
हुए- तब तुम दरवाजे की ओर रेंगते हो। तुम पहले ही दरवाजे से निकल सकते थे। क्यों
तुमने ऐसी चेष्टा की और दीवाल से लड़ना शुरू कर दिया?
अगर
तुम चीजों को स्पष्टतापूर्वक देख सको तुम बिलकुल ऐसा नहीं करते- दीवाल
का दरवाजा बनाने की कोशिश नहीं करते। अगर प्रेम समाप्त हो गया है, वह समाप्त
हो गया है। अब वहां दीवाल है उससे निकलने की चेष्टा मत करो। अब वहां द्वार
नहीं है, वहां हृदय नहीं है, हृदय
अब किसी और के लिए खुला है। और तुम यहां अकेले नहीं हो और लोग भी हैं।
अब
तुम्हारे लिए यह द्वार नहीं रहा है वह एक दीवाल हो गया है। प्रयत्न मत करो और
अपने सिर को उस पर न मारो। तुम व्यर्थ ही घायल हो जाओगे। और आहत पराजित-
तुम्हारे गुजरने के लिए द्वार भी इतना अच्छा न लगेगा।
बस
चीजों को देखो। अगर कोई चीज स्वाभाविक है, तो उस पर कुछ अस्वाभाविक लादने
की चेष्टा न करो। द्वार को चुनो-उससे बाहर निकल जाओ। प्रतिदिन तुम दीवाल से गुजरने
की मूर्खता कर रहे हो। फिर तुम तनावग्रस्त हो जाते हो, और
फिर निरंतर दुविधा महसूस करते हो, मानसिक पीड़ा तुम्हारा जीवन, उसका
केंद्र बन जाती है- फिर तुम ध्यान की मांग करते हो। लेकिन
पहले ही क्यों नहीं? तथ्यों को वैसे ही क्यों न देखें जैसे वे हैं? तुम
तथ्यों को क्यों नहीं देख पाते हो? क्योंकि
तुम्हारी बहुत इच्छाएं हैं। तुम आशा के विपरीत आशा करते
चले जाते हो। इसीलिए तुम्हारी स्थिति इतनी निराशाजनक हो गई है।
बस
देखो जब भी कोई परिस्थिति बनती है, कोई इच्छा न करो क्योंकि इच्छा तुम्हें भटका
देगी। कामना न करो और कल्पना न करो। बस अपनी समग्र चेतना से जो उपलब्ध है
उस तथ्य को देखो और अचानक द्वारा खुल जाता है और तुम कभी दीवाल से नहीं निकलते
तुम द्वार से निकलते हो, बिना किसी खरोंच के। तब तुम निर्भार बने रहते
हो। स्मरण रहे तथाता एक समझ है एक असहायता से भरी
नियति नहीं है। यही भेद है। कुछ लोग हैं जो भाग्य में, नियति
में विश्वास करते हैं। वे कहते हैं, ' तुम क्या कर सकते
हो? विधाता की यही इच्छा थी। मेरा छोटा सा बच्चा मर
गया है, यह ईश्वर की इच्छा
है और यह मेरा भाग्य है। वह लिखा गया था ऐसा होना ही था। ' लेकिन
भीतर कहीं गहरे में इनकार है। ये इनकार को संवारने की
चालाकिया हैं। क्या तुम विधाता को जानते
हो? क्या तुम भाग्य को जानते हो? क्या तुम जानते हो कि ऐसा लिखा गया था? नहीं, ये तर्कसंगत व्याख्याएं हैं कि अपने को सांत्वना कैसे दी जाए।
हो? क्या तुम भाग्य को जानते हो? क्या तुम जानते हो कि ऐसा लिखा गया था? नहीं, ये तर्कसंगत व्याख्याएं हैं कि अपने को सांत्वना कैसे दी जाए।
तथाता
का भाव भाग्यवादी प्रवृत्ति नहीं है। वह विधाता को या भाग्य को, या नियति
को किसी को बीच में नहीं लाता है। वह कहता है बस चीजों को देखो। बस वस्तुओं
की वास्तविकता की देखो समझो और वहां द्वार है वहां द्वार सदा से है। तुम पार हो
जाओ।
तथाता का अर्थ है पूरे स्वागतपूर्ण
हृदय से स्वीकृति असहाय अवस्था में नहीं।
तथाता के इस जगत में न तो कोई स्व है
और न ही स्व के अतिरिक्त
कोई और।
और
एक बार जब तुम विलीन हो जाते हो- तुम ' तथाता '
में समझ में विलीन हो जाते
हो- वहां तुम्हारी तरह से कोई नहीं है और न ही तुम्हारे अतिरिक्त कोई है न स्व है, न स्व
के अतिरिक्त कोई है। तथाता में वस्तुओं के स्वभाव की गहरी समझ में सीमाएं मिट जाती
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन बीमार था। डॉक्टर ने उसका परीक्षण किया और कहा अच्छा है, नसरुद्दीन
बहुत अच्छा है। सुधार हो रहा है तुम अच्छे हो रहे हो, सब-कुछ
लगभग ठीक है। जरा थोड़ी सी कमी रह गई है तुम्हारी
फ्लोटिंग किडनी की बीमारी अभी ठीक नहीं हुई है। परंतु मुझे उसकी जरा भी चिंता
नहीं है।
नसरुद्दीन
ने डॉक्टर की ओर देखा और कहा तो तुम क्या सोचते हो अगर तुम्हें फ्लोटिंग
किडनी की बीमारी होती तो क्या मैं उसकी चिंता करता?
मन
हमेशा विभाजन करता है दूसरा और मैं। और जिस क्षण तुम विभाजित करते हो
मैं और दूसरा; तो दूसरा शत्रु बन जाता है दूसरा मित्र नहीं हो
सकता है। यह बुनियादी बातों में से एक बात है जिसे गहराई से समझ लेना
चाहिए। तुम्हें इसमें भीतर तक देखने
की जरूरत है दूसरा कभी मित्र नहीं हो
सकता, दूसरा शत्रु है। उसके दूसरा होने में, वह तुम्हारा
शत्रु है। कुछ लोग अधिक शत्रुतापूर्ण होते हैं,
कुछ कम, लेकिन दूसरा शत्रु ही बना
रहता है।
मित्र
कौन है? शत्रुओं में से कम से कम शत्रु वास्तव में ही, और
कोई नहीं। मित्र वह है जो तुम्हारे प्रति कम से कम शत्रुतापूर्ण
है, और शत्रु वह है जो तुम्हारे प्रति कम से कम
मित्रतापूर्ण है, लेकिन वे एक ही पंक्ति में खड़े हैं। मित्र अधिक
निकट खड़ा है, शत्रु दूर खड़ा है लेकिन वे सब शत्रु हैं।
दूसरा मित्र नहीं हो सकता है। वह असंभव है क्योंकि दूसरे
के साथ प्रतियोगिता, ईर्ष्या संघर्ष अवश्य होगा।
तुम
मित्रों के साथ भी लड़ रहे हो- निस्संदेह, मित्रतापूर्ण ढंग से लड़ रहे हो। तुम मित्रों
के साथ भी प्रतियोगिता कर रहे हो क्योंकि तुम्हारी आकांक्षाएं भी वही हैं जो उनकी हैं।
तुम प्रतिष्ठा और शक्ति पाना चाहते हो वे भी प्रतिष्ठा और शक्ति पाना चाहते हैं।
तुम अपने चारों ओर एक बड़ा साम्राज्य पा लेना चाहते
हो, वे भी चाहते हैं। तुम भी उसी के लिए
संघर्ष कर रहे हो और उसे केवल कुछ ही लोग प्राप्त कर सकते हैं।
संसार
में मित्र पाना असंभव है। बुद्ध के पास मित्र हैं, तुम्हारे पास शत्रु हैं। बुद्ध का शत्रु
नहीं हो सकता है, तुम्हारा मित्र नहीं हो सकता है। बुद्ध के पास
मित्र क्यों हैं? - क्योंकि दूसरा विलीन हो गया है अब वहां उसके
सिवाय और दूसरा कोई नहीं है। और जब यह दूसरा मिट जाता है, मैं
को भी मिटना पड़ता है क्योंकि वे एक
ही घटना के दो छोर हैं। यहां भीतर
अहंकार है और वहां बाहर दूसरा मौजूद है- एक ही घटना
के दो ध्रुव। अगर एक ध्रुव विलीन हो जाता है,
अगर तू विलीन हो जाता है मैं उसके
साथ ही विलीन हो जाता है अगर मैं मिट जाता है,
तो तू भी मिट जाता है।
तुम
दूसरे को मिटा नहीं सकते तुम केवल अपने को मिटा सकते हो। अगर तुम विलीन
हो जाते हो तो दूसरा है ही नहीं है; जब मैं छूट जाता है तो वहां कोई तू नहीं है। यही
एक उपाय है।
लेकिन
हम प्रयत्न करते हैं हम ठीक उसके विपरीत प्रयत्न करते हैं- हम तू को मार
डालने की चेष्टा करते हैं। तू को मारा नहीं जा सकता, तू पर अधिकार नहीं जमाया जा सकता, नियंत्रण
नहीं किया जा सकता। तू एक विद्रोही बना रहेगा क्योंकि तू तुम्हें मारने की
कोशिश में है। तुम दोनों एक ही अहंकार के लिए लड़ रहे हो- वह अपने अहंकार के लिए, तुम
अपने अहंकार के लिए।
संसार
की सारी राजनीति यही है कि तू की कैसे हत्या की जाए ताकि केवल मैं ही बचे
और सब शांत हो जाए। क्योंकि जब अन्य कोई नहीं है, तुम अकेले वहां हो, तब
सब शांतिपूर्ण होगा। लेकिन ऐसा न कभी हुआ है और न
कभी होगा। तुम दूसरे को कैसे मार सकते हो?
तुम दूसरे को कैसे नष्ट कर सकते हो? दूसरा
बहुत विस्तृत है संपूर्ण ब्रह्मांड
ही दूसरा है।
धर्म
एक भिन्न आयाम से काम करता है वह मैं को मिटा देने की चेष्टा करता है। और
एक बार जब मैं मिट जाता है दूसरा भी नहीं बचता है दूसरा विलीन हो जाता है। इसीलिए
तुम अपने शिकवे-शिकायतों से चिपके रहते हो-क्योंकि वे मैं को बचाने में सहायता
करते हैं। अगर जूता काटता है तब मैं की सत्ता और आसानी से बनी रह सकती है।
अगर जूता काटता नहीं है तो पैर की याद ही नही रहती फिर मैं मिट जाता है।
लोग
अपनी बीमारियों से चिपके रहते हैं, वे अपनी शिकायतों से चिपके रहते. हैं, वे उन
सबसे चिपके रहते है जो उन्हें चुभते हैं और वे निरंतर कहते रहते हैं कि ये घाव हैं
और हम उन्हें ठीक करना चाहेंगे। लेकिन भीतर कहीं
गहरे में वे घाव बनाते जाते हैं, क्योंकि अगर सारे घाव भर जाएं तो उनका अस्तित्व
ही नहीं रहेगा।
जरा
लोगों को देखो वे बीमारी से चिपके रहते हैं। वे उसकी चर्चा करते हैं जैसे कि वह
कुछ ऐसी चीज है जिसके बारे में चर्चा करना बड़ा मूल्यवान है। लोग दूसरी बातों से ज्यादा
अपनी बीमारी अपनी नकारात्मक भाव-दशाओं की बात करते हैं। उन्हें सुनो, और तुम
देखोगे कि वे उनकी चर्चा करने में रस ले रहे हैं।
प्रत्येक
शाम मुझे सुनना पड़ता है कई वर्षों से मैं सुनता आ रहा हूं। उनके चेहरों को
देखो- वे उसका मजा ले रहे हैं। वे शहीद हैं... उनकी बीमारी उनका क्रोध, उनकी घृणा
उनकी यह और वह समस्या उनका लोभ उनकी महत्वाकांक्षाएं। और जरा देखो, सारी
बात ही बस पागलपन है- क्योंकि वे उन चीजों से छुटकारा पाना चाहते हैं, लेकिन उनके
चेहरे देखो वे उनमें रस ले रहे हैं। और अगर वे सच में ही चली जाएं, तब
वे किसका मजा लेंगे? अगर उनकी सारी बीमारियां दूर हो जाएं
और वे पूरी तरह स्वस्थ हो जाएं उनके पास चर्चा करने के लिए कुछ भी नहीं
बचेगा।
लोग
मनोचिकित्सकों के पास जाते हैं और फिर निरंतर इसी बात की चर्चा करते है कि
वे इस मनोचिकित्सक और उस मनोचिकित्सक के पास गए, वे इस गुरु के और उस गुरु
के पास गए। वास्तव में वे यह कहने में रस लेते हैं ' सब हर कोई मेरे साथ विफल हो
गया। मैं अब भी वही हूं कोई भी मुझे बदल नहीं पाया है। ' वे
इसका एक तरह से मजा लेते हैं जैसे कि वे सफल हो रहे हैं?
क्योंकि वे प्रत्येक मनोचिकित्सक को असफल सिद्ध कर
रहे हैं। सभी चिकित्सा-विधियां असफल हो गई हैं।
मैंने
एक व्यक्ति के बारे में सुना है जो बहुरोग- भ्रम का शिकार था, जो
निरंतर अपनी बीमारियों की बात करता था। और कोई उसका
विश्वास नहीं करता था, क्योंकि उसका हर संभव तरह से परीक्षण किया गया
था। और कुछ भी गलत नहीं था। लेकिन प्रतिदिन वह डॉक्टर के पास भागा जाता- वह बड़ी
मुश्किल में था।
फिर
धीरे- धीरे डॉक्टर को यह बात समझ में आ गई कि वह जो भी सुनता है- अगर
टी. थी. पर किसी औषधि का विज्ञापन दिखाया जाता है या किसी बीमारी की चर्चा होती
है- तुरंत वह बीमारी उस पर आ जाती है। अगर वह किसी पत्रिका में किसी बीमारी के
बारे में पड़ता है तुरंत दूसरे ही दिन वह डॉक्टर के दवाखाने पर पहुंच जाता है- बीमार
पूरी तरह बीमार। और वह सभी लक्षणों को अपने ऊपर आरोपित कर लेता है।
तो
एक बार डॉक्टर ने कहा मुझे ज्यादा परेशान न करो क्योंकि मैं भी वही पत्रिका पड़ता
हूं जो तुम पढ़ते हो और टी. वी. पर वही कार्यक्रम देखता हूं जो तुम देखते हो। और दूसरे
ही दिन तुम उसी बीमारी के साथ यहां पहुंच जाते हो।
उस
आदमी ने कहा तुम क्या सोचते हो? क्या इस शहर में तुम ही अकेले डॉक्टर हो? उसने
इस डॉक्टर के पास आना छोड़ दिया लेकिन बीमारियों के बारे में अपने पागलपन
को नहीं छोड़ा।
फिर
वह मर गया, जैसा कि सभी को मरना पड़ता है। मरने से पहले
उसने अपनी पत्नी को अपनी समाधि पर लगे संगमरमर के पत्थर
पर लिखवाने के लिए कुछ शब्द बताए। वे अब भी वहां लिखे हुए हैं। उसके समाधि
के पत्थर पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा
है,
' अब तुम्हें विश्वास आया कि मैं सही था?'
लोग
अपने दुख को लेकर बहुत प्रसन्न होते हैं। मैं भी कभी-कभी महसूस करता हूं कि
अगर उनके सारे दुख मिट जाएं, तो वे क्या करेंगे? वे
इतना खाली हो जाएंगे कि आत्महत्या कर लेंगे। और मैंने देखा है तुम
उन्हें एक दुख से बाहर निकलने में मदद करो,
अगले ही दिन वे दूसरे के साथ उपस्थित
हो जाते हैं। तुम उन्हें उससे बाहर निकलने में सहायता
करते हो वे फिर तैयार हैं... मानो दुख पर उनकी गहरी पकड़ है। उन्हें उसमें से कुछ
मिल रहा है, वह उनका निवेश है- और वह लाभदायी है।
निवेश
क्या है? निवेश यह है कि जब जूता ठीक नहीं बैठ रहा
तुम्हें ज्यादा महसूस होता है कि तुम हो। जब जूता पूरी तरह ठीक फिट
हो जाता है, तुम तनावमुक्त हो जाते हो। अगर
जूता पूरी तरह से ठीक बैठ जाता है तब केवल पैर ही नहीं भूल जाता मैं भी विलीन हो
जाता है। आनंदपर्णू चेतना के साथ कोई मैं नहीं हो सकता- यह असंभव है!
केवल
दुखी मन के साथ ही मैं का अस्तित्व है तुम्हारे सारे दुखों के कुल जोड़ के सिवाय
मैं और कुछ भी नहीं है। और अगर तुम सच में ही मैं को छोड़ देना चाहते हो, तो केवल
तभी तुम्हारे दुख मिटेंगे। अन्यथा तुम नये दुख पैदा करते रहोगे। कोई तुम्हारी सहायता
नहीं कर सकता है, क्योंकि तुम ऐसे पथ पर हो जो स्व-विनाशक
स्व-पराजित है। इसलिए अगली बार जब भी कोई समस्या लेकर मेरे पास
आओ तो पहले अपने भीतर पूछ लो कि क्या तुम उसे हल करना चाहोगे, क्योंकि
ध्यान रहे, मैं उसे हल कर सकता
हूं। क्या तुम वास्तव में उसका समाधान चाहते हो या मात्र उसकी बात ही कर रहे हो? तुम्हें
उसके बारे में बात करना अच्छा लगता है।
भीतर
जाओ और पूछो और तुम्हें महसूस होगा तुम्हारे सारे संताप इसी कारण हैं कि
तुम उन्हें सहारा दे रहे हो। बिना तुम्हारे सहारे के कुछ नहीं हो सकता है। क्योंकि
तुम उसे ऊर्जा देते हो इसलिए उसका अस्तित्व है; अगर
तुम उसे ऊर्जा न दो तो उसका अस्तित्व नहीं हो सकता। और कौन तुम्हें उसे
ऊर्जा देने के लिए विवश कर रहा है? जब
तुम उदास भी होते हो ऊर्जा की आवश्यकता
होती है, क्योंकि बिना ऊर्जा के तुम उदास भी
नहीं हो सकते।
उदासी
की घटना को घटित होने के लिए तुम्हें ऊर्जा लगानी पड़ती है। इसी कारण उदासी
के बाद तुम कितना बिखरे से शक्तिहीन महसूस करते हो। क्या हुआ? – क्योंकि अवसाद
में तुम कुछ कर नहीं रहे थे तुम सिर्फ उदास थे। फिर क्यों तुम इतना खाली सा, शक्तिहीन
अनुभव करते हो? तुम्हें तो ऊर्जा से भरे हुए उदासी से बाहर आना
चाहिए था- लेकिन नहीं।
स्मरण
रहे सभी नकारात्मक मनोभावों को ऊर्जा चाहिए,
वे तुम्हें खाली कर देते हैं।
और सभी सकारात्मक मनोभाव और मनोप्रवृत्तियां शक्तिदायी हैं। वे और ऊर्जा निर्मित करती
हैं वे तुम्हारा शोषण नहीं करती।
अगर
तुम प्रसन्न हो अचानक सारे जगत की ऊर्जा तुम्हारी ओर बहने लगती है सारा
संसार तुम्हारे साथ हंसता है। और लोग अपनी कहावतों में ठीक हैं यदि वे कहते हैं
जब तुम हंसते हो तो सारा संसार तुम्हारे साथ हंसता है जब तुम रोते हो तो अकेले
रोते हो। यह सच है यह बिलकुल सच है।
जब
तुम सकारात्मक होते हो तो सारा अस्तित्व तुम्हें निरंतर और-और देता रहता है, क्योंकि
जब तुम प्रसन्न हो, सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ प्रसन्न है। तुम
कोई बोझ नहीं हो तुम एक फूल हो; तुम चट्टान नहीँ हो, तुम
एक पक्षी हो। सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ प्रसन्न होता
है।
जब
तुम एक चट्टान की तरह अपनी उदासी के साथ मृतप्राय बैठे हो अपनी उदासी
का पोषण कर रहे हो कोई तुम्हारे साथ नहीं होता। कोई तुम्हारे साथ नहीं हो सकता।
तुम्हारे और जीवन के बीच एक अंतराल आ जाता है। फिर तुम जो भी कर रहे हो तुम्हें
अपने ऊर्जा-स्रोत पर निर्भर होना पड़ता है। वह बिखर जाएगी; तुम
अपनी ऊर्जा का अपव्यय कर रहे हो तुम अपनी मूर्खता के कारण
अपने को खाली कर रहे हो।
लेकिन
एक बात है कि जब तुम उदास और नकारात्मक होते हो तो तुम्हें अहंकार की
प्रतीति अधिक होगी। जब तुम प्रसन्न आनंदित,
शरीर के पार परम अवस्था में होते हो, तुम्हें
अहंकार की अनुभूति नहीं होगी। जब तुम प्रसन्न और परमानंदित होते हो तो वहां कोई मैं
नहीं होता और दूसरा भी मिट जाता है। तुम प्रकृति के साथ जुड़ जाते हो टूटकर अलग नहीं
हो जाते, तुम साथ-साथ हो।
जब
तुम उदास क्रोधित लोभी होते हो अपने ही भीतर घूमते हुए अपने घावों का
मजा लेते हो उन्हें बार-बार देखते हो उनके साथ खेलते हो शहीद बनने की कोशिश
करते हो तब तुम्हारे और अस्तित्व के बीच एक अंतराल आ जाता है। तुम अकेले
छोड़ दिए जाते हो और वहां तुम्हें मैं का अनुभव होगा। और जब तुम मैं का अनुभव
करते हो तो सारा अस्तित्व तुम्हारे प्रति शत्रुतापूर्ण हो जाता है। ऐसा नहीं है कि वह
तुम्हारे मैं के कारण विरोधी हो जाता है- वह विरोधी दिखाई पड़ता है। और अगर तुम्हें
लगता है कि हर कोई तुम्हारा शत्रु है तो तुम इस प्रकार व्यवहार करोगे कि हर एक को
तुम्हारा शत्रु हो जाना ही पड़ेगा।
तथाता के इस जगत में न तो कोई स्व है
और न ही स्व के अतिरिक्त
कोई और।
जब
तुम प्रकृति से राजी हो जाते हो और उसमें विलीन हो जाते हो, तुम
उसके साथ चलते हो। तुम्हारे अपने कोई कदम नहीं होते, तुम्हारा
अपना कोई नृत्य नहीं होता, तुम्हारे पास
गाने के लिए अपना खुद का छोटा सा गीत भी नहीं होता- समग्र का गीत तुम्हारा गीत
होता है, समग्र का नृत्य तुम्हारा नृत्य होता है। तुम अब
अलग नहीं हो।
तुम
यह महसूस नहीं करते कि मैं हूं तुम बस महसूस करते हो, ' समग्र
ही है। मैं तो मात्र तरंग हूं आती और जाती हुई, आगमन
और प्रस्थान होना और न होना। मैं आती
और जाती हूं समग्र सदा है। समग्र के
कारण ही मेरा अस्तित्व है मेरे माध्यम से समग्र का ही
अस्तित्व है। '
कभी
वह साकार हो जाता है, कभी वह निराकार हो जाता है, दोनों
ही सुंदर हैं। कभी वह शरीर में प्रकट होता है, कभी
शरीर से विलुप्त हो जाता है। उसे ऐसा होना ही चाहिए; क्योंकि जीवन एक लयबद्धता है। कभी
तुम्हें आकार में होना पड़ता है, फिर तुम्हें आकार से विश्राम
लेना पड़ता है। कभी तुम्हें सक्रिय और गतिमान एक तरंग होना पड़ता है। कभी तुम गहराई
में चले जाते हो और विश्राम करते हो, स्थिर। जीवन एक लयबद्धता है।
मृत्यु
शत्रु नहीं है। वह बस लय का बदल जाना है दूसरे की ओर चले जाना है। शीघ्र
ही तुम जन्म लोगे- जीवंत, युवा, अधिक ताजे! मृत्यु एक आवश्यकता है। तुम मृत्यु में
मरने वाले नहीं हो; सिर्फ वह धूल जो तुम्हारे इर्द-गिर्द इकट्ठी हो
गई है उसे धोने की जरूरत है। पुनजावित होने का यही एक मात्र उपाय
है। केवल जीसस ही पुनजावित नहीं होते, अस्तित्व में हर चीज पुनजावित होती है।
अभी-
अभी उस बादाम के पेड़ ने - जो बाहर लगा हुआ है- अपने सारे पत्ते गिरा
दिए, अब नये पत्तों ने उनकी जगह ले ली है। ऐसा ही
होता है! अगर पेड़ पुराने पत्तों से चिपका रहता है तो कभी नया नहीं हो
सकता और फिर वह सड़ जाएगा। संघर्ष क्यों निर्मित करना? नये
के आगमन के लिए पुराना मिट जाता है। वह जगह देता है नये
के आगमन के लिए स्थान बनाता है। और नया सदा आ रहा होगा और पुराना सदा जा
रहा होगा।
तुम
मरते नहीं। केवल पुराने पत्ते गिर जाते हैं नये के लिए जगह बनाने के लिए। यहां
तुम मरते हो, वहां तुम पैदा हो जाते हो यहां तुम विलीन होते
हो, वहां तुम प्रकट हो जाते
हो। सरूप से अरूप, अरूप से सरूप शरीर से अशरीर अशरीर से शरीर गति विश्राम
विश्राम, गति यही लयबद्धता है। अगर तुम लय को देखो तो
तुम्हें किसी बात की चिंता नहीं होगी। तुम श्रद्धा रखते हो।
तथाता के इस जगत में श्रद्धा
के जगत में
...
न तो कोई स्व है और न ही स्व के
अतिरिक्त कोई और।
फिर
वहां न तुम हो न ही कोई तू है। दोनों ही विलीन हो जाते हैं दोनों एक की
लय में हो गए हैं। उसी एक का अस्तित्व है वह एक ही वास्तविकता है, सत्य है।
लय में हो गए हैं। उसी एक का अस्तित्व है वह एक ही वास्तविकता है, सत्य है।
इस वास्तविकता से सीधे ही लयबद्ध होने के लिए-
जब संशय उठे, बस
कहो, ' अद्वैत।
यह
प्राचीनतम मंत्रों में से एक है। जब भी संशय उठें, जब भी तुम खंडित अनुभव करो
जब भी तुम देखो कि द्वैत खड़ा होने वाला है बस भीतर कहो ' अद्वैत
' - लेकिन इसे होशपूर्वक
कहो इसे यंत्रवत मत दोहरा।
सभी
मंत्रों के साथ यही कठिनाई है वास्तव में, हर चीज के साथ यही समस्या है।
तुम इसे यंत्रवत कर सकते हो तब तुम सारी बात ही चूक गए; तुम
सब-कुछ करते हो और फिर भी तुम चूक जाते हो। या तुम इसे पूरी
सजगता, बुद्धिमत्ता, समझ से कर सकते हो
और फिर कुछ घटित होता है।
जब
भी तुम महसूस करो कि प्रेम उठ रहा है तो कहो '
अद्वैत '। अन्यथा घृणा वहां प्रतीक्षा
कर रही है- वे दोनों एक हैं। जब तुम अनुभव करो कि घृणा पैदा हो रही है तो कहो
' अद्वैत।
' जब
तुम्हें ऐसा लगे कि तुम जीवन को पकड़ रहे हो,
तो कहो ' अद्वैत। ' जब
तुम्हें मृत्यु के प्रति भय अनुभव हो तो कहो '
अद्वैत केवल एक है '।
और
ऐसा कहना तुम्हारी अपनी समझ होना चाहिए यह बुद्धिमत्ता और गहन स्पष्टता
से पूर्ण होना चाहिए। और अचानक तुम अपने भीतर एक विश्रांति अनुभव करोगे। जिस
क्षण तुम कहते हो ' अद्वैत '
- अगर तुम उसे समझपूर्वक कह रहे हो
यंत्रवत नहीं दोहरा रहे तो- तुम अचानक एक आलोक अनुभव करोगे।
किसी
ने तुम्हारा अपमान किया है और तुम अपमानित अनुभव करते हो। सिर्फ स्मरण
रखो और कहो ' अद्वैत '
क्योंकि वह जो अपमान करता है और जो
अपमानित होता है, एक हैं। इसलिए क्यों चिंतित होना? उस
व्यक्ति ने तुम्हारे साथ कुछ नहीं किया है उसने अपने साथ किया है। क्योंकि केवल
एक का ही अस्तित्व है।
ऐसा
हुआ अठारह सौ सत्तावन में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध बगावत हुई।
एक रात एक संन्यासी एक रास्ते से गुजर रहा था लेकिन उसे पता नहीं था कि वहां एक
सेना का शिविर है। वह पकड़ा गया। और वह तीस वर्षों से मौन था।
जब
सैनिकों ने उसे पकड़ा और अंग्रेज अधिकारियों ने उससे पूछा तुम यहां क्यों घूम रहे
हो? इस क्षेत्र में प्रवेश निषिद्ध है। बिना अनुमति
के तुम अंदर नहीं आ सकते हो। वह केवल खड़ा रहा,
क्योंकि वह बोल नहीं सकता था। तीस
वर्षों से वह मौन था तो क्या किया जाए? और उसने लिख कर भी नहीं बताया उसने किसी संवाद
का उपयोग भी नहीं किया।
उन्होंने
सोचा कि यह व्यक्ति धोखा देने का प्रयत्न कर रहा है वह मूर्ख भी दिखाई नहीं देता
था वह बड़ा प्रतिभाशाली मालूम पड़ता था। उसकी आंखों की गुणवत्ता जिस ढंग से वह खड़ा
था वह सुंदर व्यक्ति था। वह जड़बुद्धि या मूर्ख नहीं था।
तो
उन्होंने कहा. तुम हमें बताओ, नहीं तो हम तुम्हें गोली मार देंगे। लेकिन वह वैसे
ही खड़ा रहा। तो उन्होंने सोचा वह निश्चित ही कोई जासूस है और गेरुए वस्त्र पहन कर
घूम रहा है वह शिविर में कुछ खोजने की चेष्टा कर रहा है इसीलिए यह चुप है।
तो
उन्होंने कहा तुम बोलो, नहीं तो हम तुम्हें गोली से मार देंगे।
लेकिन
वह खड़ा रहा, तो उन्होंने उसे मार डाला।
उसने
तीस वर्ष पहले यह प्रण किया था कि अपने जीवन में एक बार ही बोलेगा। इसलिए जब उसे
मारा गया, अंग्रेज सैनिक ने भाले से उसको मार डाला जब
भाला उसके हृदय तक पहुंचा, उसने एक ही शब्द कहा। वह आधारभूत है, पूरब
की समझ और प्रज्ञा का आधार है;
यह शब्द उपनिषदों से है। उसने कहा. ' तत्वमसि
' - तुम वही हो- और वह मर
गया!
कहा
तुम वही हो : एक ही है। जिसने हत्या की और जिसकी हत्या हुई दोनों एक हैं इसलिए
चिंता की क्या आवश्यकता है? इसलिए किसी दृष्टिकोण की क्या आवश्यकता है? क्यों
न दूसरे में मिल जाएं। क्योंकि दूसरा भी मैं हूं और दूसरा और मैं भी एक है वही।
केवल एक है।
कोई
भी समझ न सका कि वह क्या कह रहा है क्योंकि उसने संस्कृत भाषा का शब्द
कहा था. ' तत्वमसि। '
लेकिन मरने वाले की गुणवत्ता ऐसी थी कि
हत्यारों को भी लगा कि उन्होंने कुछ अनुचित कर दिया है।
क्योंकि उन्होंने कभी किसी जासूस को इस तरह मरते हुए नहीं देखा था। जासूस तो
जासूस ही होता है! और जब वह आदमी मरा तो उससे जो आनंद और जो ऊर्जा प्रसारित हुई
वह अदभुत थी। उस शिविर में सभी ने ऐसा
महसूस किया, जैसे
कि अचानक बिजली कौंध गई हो।
तीस
वर्ष का मौन और फिर अगर तुम कोई शब्द बोलते हो उसे ऐसा होना ही चाहिए।
इतनी ऊर्जा तीस वर्ष का मौन उस एक शब्द में तत्वमसि वह आणविक हो जाता
है उसका विस्फोट होता है।
उस
शिविर में जो अपने तंबुओं में सो रहे थे उन्होंने भी महसूस किया कि कुछ हुआ
है। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी।
फिर
वे यह जानने के लिए कि उसने क्या कहा था किसी विद्वान ब्राह्मण की खोज में
निकले। वहां उन्हें पता चला कि उसने अंतिम परमतत्व की बात कही थी तुम वही हो तत्वमसि
एक ही है।
जब
कभी तुम्हारा द्वंद्व के साथ संशय के साथ विभाजन के साथ संघर्ष के साथ सामना
होता है, जब कभी तुम किसी चीज का चुनाव करने जा रहे हो
स्मरण रहे अद्वैत। इसे निरंतर अपने प्राणों में गूंजता हुआ एक
गहरा मंत्र बना लो। लेकिन स्मरण रहे
इसे समझपूर्वक होशपूर्वक सजगतापूर्वक
करना होगा। वरना तुम कहते रहोगे ' अद्वैत,
अद्वैत अद्वैत ' और
तुम लगातार दो करते रहोगे। और वे दो अलग- अलग चीजें हो जाती हैं
उनका कभी मिलन नहीं होता है।
जब
मैं कहता हूं यंत्रवत तो मेरा यही अभिप्राय है। यंत्रवत का अर्थ है एक तल पर तुम
सुंदर-सुंदर बातें कहते रहते हो और दूसरे तल पर कुरूप कार्य करते चले जाते हो। एक तल
पर तुम कहते हो कि सब ईश्वरीय है और दूसरे तल पर तुम मैं अहं बने रहते हो संघर्षरत
हिंसक आक्रामक।
और
आक्रमण केवल युद्ध में ही नहीं होता आक्रमण केवल तभी नहीं होता जब तुम
किसी व्यक्ति की हत्या करते हो। आक्रमण बहुत सूक्ष्म रूप में होता है, यह
तुम्हारे हाव- भाव में होता है। तुम देखो और अगर तुम
विभाजित हो तू और मैं में तुम्हारी दृष्टि हिंसक होती है।
मैंने
सुना है एक बार ऐसा हुआ:
एक
कैदी को एक जेलर के पास लाया गया और वह एक बहुत ही आदर्श कैदी था।
पिछले पांच वर्षों में उसकी कोई शिकायत नहीं आई थी और जेल अधिकारी अब उसे
मुक्त करने की बात सोच रहे थे। वह एक हत्यारा था और वह जेल में जीवन भर के लिए
था लेकिन पांच वर्ष तक वह एक बहुत ही अच्छा एक आदर्श कैदी सिद्ध हुआ, और
प्रति वर्ष उसे अच्छे कैदी होने का पुरस्कार मिलता रहा। लेकिन अचानक वह अपनी
कोठरी के साथी पर टूट पड़ा और उसे बहुत बुरी तरह मारा-पीटा इसीलिए उसे लाया
गया था।
जेलर
भी हैरान था। उसने कहा क्या हो गया है? हम तुम्हें पिछले पांच वर्षों से देख
रहे हैं-मैंने अपने जीवन में तुम्हारे जैसा अच्छा शांत शिष्ट कैदी नहीं देखा है हम तुम्हें
मुक्त करने की बात सोच रहे थे। और अचानक क्या हो गया है? तुम
अपने कोठरी के साथी पर क्यों टूट पड़े तुमने उसे मारना क्यों
शुरू कर दिया?
वह
आदमी सिर झुकाए लज्जित सा वहा खड़ा रहा। और फिर उसने कहा, यह इसलिए
हुआ क्योंकि मेरे साथी ने कैलेंडर से पृष्ठ फाड़ डाला जब कि उसे फाड़ने की बारी मेरी
थी।
उनके
पास कोठरी में एक कैलेंडर था और वही एक चीज थी जो वे कर सकते थे केवल
यही एक काम था जिसे करने की उनको अनुमति थी। इसलिए उन्होंने उसे ही बांट रखा
था एक दिन एक आदमी पृष्ठ फाड़ेगा और दूसरे दिन दूसरा। और उस आदमी ने कहा
आज मेरी बारी थी और उसने पृष्ठ फाड़ डाला।
अगर
तुम हिंसक हो तो यह भी समस्या बन सकता है। और उसने अपने साथी को
इस बुरी तरह से पीटा केवल खाली हाथों से ही कि उसे मार ही डाला होता और समस्या
इतनी साधारण थी। अगर तुम सच में यह सोचते हो कि यह मामूली बात है तो तुम
बात ही नहीं समझे ऐसा नहीं है। पांच सालों से कोठरी में रहना कुछ भी न करना, इससे
व्यक्ति में इतनी आक्रामकता इकट्ठी हो जाती है कि छोटी सी बात भी बहुत बड़ी हो
जाती है।
और
यही तुम सबके साथ हो रहा है। जब भी तुम अपने मित्र अपनी पत्नी अपने पति
पर बरस पड़ते हो जब भी तुम क्रोधित हो उठते हो- क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा
है? - कि यह बात वास्तव में इतनी मामूली है केवल
कैलेंडर से पृष्ठ फाड़ना। और कारण के मुकाबले बहुत ज्यादा तुम्हारा संचित
क्रोध और आक्रामकता बाहर निकल आती है।
जब
भी ऐसा हो दोहराओ, यंत्रवत नहीं लेकिन होशपूर्वक ' अद्वैत
' और अचानक
तुम हृदय में भीतर गहरे में एक विश्रांति अनुभव करोगे। कहो, ' अद्वैत
' और
कोई चुनाव नहीं है चुनाव करने के लिए कुछ नहीं है
कोई पसंदगी और नापसंदगी नहीं है। फिर सब-कुछ ठीक है और तुम सबको आशीष दे सकते हो।
वरदान है। फिर जहां भी जीवन ले जाता है तुम चले जाते हो। तुम जीवन पर
श्रद्धा करते हो।
अगर
तुम कहते हो ' दो ' तब तुम्हें श्रद्धा नहीं है। श्रद्धा केवल तभी
संभव है जब मैं और पूर्ण एक हैं, वरना
श्रद्धा कैसे संभव हो सकती है। श्रद्धा कोई बौद्धिक दृष्टिकोण मनोवृत्ति
नहीं है। यह इस भाव की पूर्ण प्रतिसंवेदना है कि एक ही है दो नहीं। तुम इसे मंत्र बना
लो इसे सोसान से सीखो।
जितनी
बार तुम अनुभव करो कि संशय दुविधा विभाजन संघर्ष उत्पन्न हो रहा है, तब
चुपचाप और भीतर गहरे में दोहराओ, पहले संघर्ष के प्रति सजग हो जाओ और फिर
चुपचाप कहो, 'दो नहीं'
और देखो क्या होता है। द्वंद्व मिट
जाता है। अगर एक क्षण के लिए भी वह विलीन हो जाता है तो वह बहुत बड़ी
घटना है तुम निश्चित हो जाते हो। सहसा संसार में तुम्हारा कोई शत्रु नहीं रहता
अचानक हर चीज एक है। यह एक परिवार है और सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ आनंदमय हो
जाता है।
इस 'अद्वैत' में कुछ भी पृथक नहीं है? कुछ
भी बाहर नहीं है।
कब या कहा कोई-अर्थ नहीं रखता, बुद्धत्व का अर्थ ह्रै इस सत्य में प्रवेश।
कब या कहा कोई-अर्थ नहीं रखता, बुद्धत्व का अर्थ ह्रै इस सत्य में प्रवेश।
अद्वैत
का सत्य बुद्धत्व का अर्थ है अद्वैत के इस सत्य में प्रवेश। जितना भी हो सके
उसका स्वाद लेते रहो जितना संभव हो उतना उसे अनुभव करते चलो। दिन के चौबीस
घंटों में कई अवसर अवसर पर अवसर, अनंत अवसर आते हैं। उन्हें चूकने की जरूरत
नहीं है।
प्रत्येक
अवसर पर जब तुम भीतर कुछ तनाव अनुभव करते हो,
तो कहो ' अद्वैत' और शरीर को शिथिल छोड़ दो। और भीतर
देखो कि क्या घट रहा है जब तुम कहते हो, ' अद्वैत। '
कोई दूसरा मंत्र इतना गहरा नहीं हो
सकता है। लेकिन यह ओम या राम दोहराने की भांति नहीं है। यह ऐसी बात नहीं है जैसे
कि तुम राम, राम राम दोहराते हो नहीं।
जब
भी विभाजन का अवसर आए, जब भी तुम ऐसा महसूस करो कि अब तुम खंडित हो
जाओगे अब तुम चुनाव करने ही वाले हो इसके विपरीत उसे चुनने की, इसके
विपरीत उसको पसंद करने की स्थिति बन गई है जब भी तुम्हें लगे कि अवसर आ रहा और
तनाव उत्पन्न हो रहा है जब भी तुम्हें एहसास हो कि तनाव बन रहा है अचानक कहो, ' अद्वैत' - और
तनाव शिथिल हो जाएगा, और ऊर्जा फिर से तुम्हारे भीतर समा जाती है और
वह ऊर्जा आनंद बन जाती है।
तरिक
ऊर्जा के साथ काम करने के दो ढंग हैं। एक है जब भी तनाव पैदा हो तो उसे बाहर निकाल
दो। सेक्स इसी तरह से काम करता है। वह सुरक्षात्मक उपाय है, क्योंकि
इतनी ऊर्जा संचित हो सकती है कि तुम विस्फोटित हो सकते हो और तुम उसके कारण मर भी
सकते हो। इसलिए सुरक्षा के लिए प्रकृति ने शरीर में स्वचालित प्रबंध कर रखा है जब
भी ऊर्जा बहुत हो जाती है, तुम कामुकता अनुभव करने लगते हो।
क्या
होता है? एक केंद्र है जिसे हिंदू तीसरा नेत्र कहते हैं।
जब भी ऊर्जा तीसरी आंख पर पहुंचती है... जब भी वह अत्यधिक हो जाती
है और तुम उससे परिपूरित हो जाते हो, वह तीसरी आंख पर चोट करती है। तुम्हें ऐसा लगने
लगता है कि कुछ किया जाना चाहिए। हिंदुओं ने तीसरी आंख को ' आज्ञा-चक्र
' कहा
है आज्ञा का केंद्र, आज्ञा देने के लिए
कार्यालय जहां से शरीर को आज्ञाएं मिलती हैं।
जब
भी ऊर्जा तृतीय नेत्र तक भर जाती है तुरंत शरीर कुछ करना चाहता है। अगर तुम
कुछ न करो तो तुम्हें घुटन महसूस होगी। तुम्हें लगेगा जैसे तुम किसी सुरंग में हो
और तुम उससे बाहर निकलना चाहोगे तुम्हें लगेगा कि
तुम फंस गए हो। शीघ्र ही कुछ किया जाना चाहिए।
प्रकृति
ने भीतर ऐसा बना बनाया प्रबंध किया है तृतीय नेत्र का केंद्र तत्काल काम-केंद्र
पर चोट करता है वे दोनों जुड़े हैं और तुम कामुक अनुभव करने लगते हो।
कामवासना का अनुभव ऊर्जा को बाहर निकालने का इंतजाम है। तुम संभोग करते हो ऊर्जा
बाहर निकल जाती है तुम विश्रांत हलका महसूस करते हो। ऊर्जा का उपयोग करने का
यह एक रास्ता है- तुम्हें छुटकारा पाने के कारण सुख मिलता है।
ऊर्जा
के उपयोग का दूसरा उपाय भी है। वह है जब भी ऊर्जा अत्यधिक हो जाए, तो
उससे छुटकारा नहीं पाना लेकिन बस इतना ही कहना है ' अद्वैत। मैं ब्रह्मांड के साथ एक
हूं। उसे कहां निकालना है? किसके साथ भोग करना है? उसे
कहां फेंकना है? उसे फेंकने के लिए कोई जगह नहीं है मैं
ब्रह्मांड के साथ जुड़ा हूं। ' जब भी अनुभव हो कि ऊर्जा बहुत
अधिक है, तो यही कहो ' अद्वैत ' और शांत बने रहो।
अगर
तुम उसे तीसरे नेत्र से फेंकते नहीं, तो वह तीसरे से भी ऊपर उठना आरभ हो
जाती है। और फिर है अंतिम, सिर में सातवां केंद्र जिसे हिंदुओं ने सहस्रार
कहा है सहस्रदल कमल। जब ऊर्जा सहस्रार पर पहुंचती है
वहां परमानंद होता है और जब ऊर्जा काम केंद्र पर पहुंचती है, वहां
प्रसन्नता होती है।
प्रसन्नता
केवल क्षण भर के लिए हो सकती है, क्योंकि छुटकारा केवल क्षणिक ही हो
सकता है। छुटकारा हो गया, समाप्त हो गया- तुम लगातार इस तरह छुटकारा नहीं
पा सकते। तनाव से मुक्त हो गए, तो
ऊर्जा निकल गई। लेकिन आनंद शाश्वत हो सकता है,
क्योंकि ऊर्जा बाहर नहीं निकलती बल्कि
दोबारा आत्मसात हो जाती है। लेकिन छुटकारे का केंद्र
है काम, पहला केंद्र। और ऊर्जा के दुबारा आत्मसात करने
का केंद्र है सातवा, अंतिम।
और
स्मरण रहे, दोनों ऊर्जा की एक ही घटना के दो छोर हैं एक
छोर पर काम है दूसरे छोर पर सहस्रार है। एक छोर से केवल ऊर्जा
बाहर निकलती है, तुम्हें सुख मिलता है
क्योंकि अब कुछ करने के लिए ऊर्जा वहां नहीं है- तुम सो जाते हो। इसीलिए सेक्स नींद
लाने में सहायक होता है, लोग उसका शामक दवा की तरह, नींद
की गोली की तरह इस्तेमाल करते हैं।
अगर
तुम दूसरी अति की ओर बढ़ो जहां ऊर्जा को फिर से आत्मसात कर लिया जाता
है- क्योंकि अब कहीं कोई दूसरा नहीं है कि तुम किसी पर फेंको, तुम
ही पूर्ण हो- तब सहस्रदल कमल खिलता है। सहस्र तो केवल
कहने के लिए है, उसकी पंखुड़ियां अनंत
हैं; अनंत दल कमल खिल जाता है, और
वह निरंतर खिलता जाता है, खिलता जाता है
और खिलता चला जाता है। उसका कोई अंत नहीं है क्योंकि ऊर्जा निरंतर उसकी ओर बहती
रहती है, फिर से आत्मसात होती रहती है। फिर वहां आनंद है
और आनंद शाश्वत हो सकता है।
तुम्हें
संभोग से समाधि तक पहुंचना है। यह सहस्रदल कमल तुम्हारी परम चेतना का
केंद्र है। इसलिए जब भी कामवासना उठे, कहो ' अद्वैत। '
समझपूर्वक होशपूर्वक, सजगता
से कहो, ' अद्वैत'
और विश्रांत हो रहो। बेचैन और उत्तेजित
न होओ। विश्रांत हो रहो और कहो,
' अद्वैत। '
और
अचानक तुम अनुभव करोगे कि सिर में कुछ होने लगा है जो ऊर्जा नीचे की ओर
जाने लगती थी वह ऊर्ध्वगमन कर रही है। और एक बार वह सातवें केंद्र को छू लेती है
तो रूपांतरित हो जाती है, फिर से अवशोषित कर ली जाती है। फिर तुम
अधिकाधिक ऊर्जावान बन जाते हो, और
ऊर्जा हर्ष है, ऊर्जा परम आनंद की अवस्था है। फिर इससे छुटकारा
पाने की जरूरत नहीं है क्योंकि अब तुम महासागरीय स्व, अनंत
हो। तुम असीम को अपने में आत्मसात कर सकते हो, तुम
पूर्ण को अपने में आत्मसात कर सकते हो, और
फिर भी वहां स्थान बचेगा।
शरीर
संकीर्ण है। तुम्हारी चेतना संकीर्ण नहीं है,
तुम्हारी चेतना उतनी ही विस्तृत है जितना
आकाश। तुम इस शरीर में बहुत अधिक समेट नहीं सकते हो, यह शरीर मात्र एक प्याला
है, जरा सी अधिक ऊर्जा और प्याला छलक जाता है।
तुम्हारी कामवासना संकीर्ण शरीर से प्याले का छलकना है।
लेकिन
जब सहस्रार खिलता है तुम्हारे सिर में सहस्रदल कमल, और वह खिलता ही
जाता है और खिलता ही जाता है और खिलता ही चला जाता है, उसका
कोई अंत नहीं होता। अगर पूर्ण को तुम्हारे भीतर उड़ेल दिया जाए, फिर
भी उसमें असीम स्थान बचा रहेगा। ऐसा कहा जाता है कि एक बुब्दरुष
ब्रह्मांड से बड़ा है? यही इसका अर्थ है। उसका शरीर
निस्संदेह, स्पष्टत: ब्रह्मांड से बड़ा नहीं है, लेकिन
एक बुकरुष ब्रह्मांड से बड़ा है क्योंकि कमल खिल गया है। अब यह ब्रह्मांड तो
कुछ भी नहीं, लाखों ब्रह्मांड उसमें गिर सकते
हैं और आत्मसात हो सकते हैं। वह निरंतर विकसित हो सकता है।
वह
परिपूर्ण है और फिर भी विकसित होता रहता है। यही विरोधाभास है : क्योंकि हम
सोचते हैं कि परिपूर्णता का विकास नहीं होता,
परिपूर्णता भी विकसित होती है, वह और
अधिक परिपूर्ण होने के लिए, और अधिक परिपूर्ण होने के लिए और अधिक परिपूर्ण होने
के लिए विकसित होती है। वह सतत विकसित होती रहती है क्योंकि वह अनंत है। यही
है वह शून्यता, जिस शून्यता की बुद्ध बात कर रहे हैं। जब तुम
शून्य हो जाते हो तो पूर्ण तुम में समा जाता है और फिर भी अनंतता
बची रहती है। वहां और अधिक स्थान होता है, और अधिक ब्रह्मांड तुममें आ सकते हैं
और तुम में समा सकते हैं।
इस '
अद्वैत' में
कुछ भी पृथक नहीं है? कुछ भी बाहर नहीं है।
कब या कहा, कोई
अर्थ नहीं रखता; बुद्धत्व का अर्थ है इस सत्य
...और यह सत्य समय या स्थान में घटने- बढ़ने के पार है.....
...और यह सत्य समय या स्थान में घटने- बढ़ने के पार है.....
'यह सत्य समय या स्थान में घटने-बढ़ने के पार है '.. इस
सत्य के लिए समय और स्थान का अस्तित्व नहीं है। वह उन के पार
चला गया है। वह अब किसी भी चीज से, समय या स्थान से घिरा नहीं है। वह स्थान से बड़ा
है, समय से बड़ा है।
इसमें एक अकेला विचार भी दस हजार वर्ष का है।
यह
बस कहने का ढंग है कि इसमें एक क्षण शाश्वतता है। बुब्दरुष समय में नहीं रहते, स्थान
में नहीं जीते। उनका शरीर गति करता है, हम उनका शरीर देख सकते हैं, लेकिन
शरीर बुद्ध नहीं है। चेतना बुद्ध है, उसे हम देख नहीं सकते। उनका शरीर जन्म लेता और
मरता है, उनकी चेतना कभी जन्म नहीं लेती, कभी
नहीं मरती। लेकिन हम उस चेतना को नहीं देख सकते है, और
वह चेतना ही बुद्ध है।
यह
जाग्रत चेतना ही पूरे अस्तित्व का मूल है- और केवल मूल ही नहीं, बल्कि उसकी
खिलावट भी है। समय और स्थान दोनों इस चेतना में विद्यमान हैं, लेकिन
यह चेतना समय और स्थान में नहीं है। तुम यह नहीं
कह सकते कि यह चेतना कहां है- ' कहां ' असंगत है। वह सर्वत्र है। बल्कि इसके विपरीत, यह
कहना बेहतर होगा कि सर्वत्र इसमें है।
हम
यह नहीं कह सकते कि यह जाग्रत चेतना समय के किस क्षण में होती है। नहीं यह
कहना संभव नहीं है। हम केवल यही कह सकते हैं कि संपूर्ण समय इस चेतना में विद्यमान
है। यह चेतना उससे बड़ी है और इसे होना ही चाहिए। उसे ऐसा क्यों होना चाहिए? तुम
आकाश को देखते हो आकाश का बहुत विस्तार है। लेकिन द्रष्टा, साक्षी, उससे
भी अधिक विस्तृत है, वरना तुम आकाश को कैसे देख सकते हो? तुम्हारी
चेतना आकाश से भी अधिक विस्तृत होगी। वरना तुम उसको
कैसे देख सकते हो? द्रष्टा को दृश्य
से बड़ा होना ही चाहिए, यही एक मात्र ढंग है।
तुम
समय को देख सकते हो, तुम कह सकते हो, ' यह सुबह है और अब यह दोपहर
है और अब यह सांझ है। और एक मिनट बीत गया है और एक वर्ष बीत गया है और
एक युग बीत गया है। ' यह द्रष्टा,
यह चेतना समय से बड़ी होनी चाहिए; वरना
वह उसे कैसे देख सकती है? द्रष्टा
दृश्य से बड़ा होना ही चाहिए। तुम स्थान को देख सकते हो, तुम
समय को देख सकते हो- फिर यह द्रष्टा जो भीतर है, दोनों से बड़ा है।
एक
बार जब बुद्धत्व घटता है, तब सभी कुछ तुम्हारे भीतर है। सभी तारे
तुम्हारे भीतर चलते हैं, जगत तुमसे उत्पन्न होते हैं और तुममें
विलीन होते हैं - क्योंकि तुम ही पूर्ण हो।
आज इतना ही।
thank you guruji
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