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गुरुवार, 29 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—89 (ओशो)

 हे प्रिये, इस क्षण में मन, ज्ञान, प्राण, रूप, सब को समाविष्‍ट होने दो।
     यह विधि थोड़ी कठिन है। लेकिन अगर तुम इसे प्रयोग कर सको तो यह विधि बहुत अद्भुत और सुंदर है। ध्‍यान में बैठो तो कोई विभाजन मत करो;ध्‍यान में बैठे हुए सब को—तुम्‍हारे शरीर, तुम्‍हारे मन, तुम्‍हारे प्राण, तुम्‍हारे विचार, तुम्‍हारे ज्ञान—सब को समाविष्‍ट कर लो। सब को समेट लो, सब को सम्‍मिलित कर लो। कोई विभाजन मत करो, उन्‍हें खंडों में मत बांटो।

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—88 (ओशो)

  प्रत्‍येक वस्‍तु ज्ञान के द्वारा ही देखी जाती है। ज्ञान के द्वारा ही आत्‍मा क्षेत्र में प्रकाशित होती है। उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।
     जब भी तुम कुछ जानते हो, तुम उसे ज्ञान के द्वारा, जानने के द्वारा जानते हो। ज्ञान की क्षमता के द्वारा ही कोई विषय तुम्‍हारे मन में पहुंचता है। तुम एक फूल को देखते हो; तुम जानते हो कि यह गुलाब का फूल है। गुलाब का फूल बाहर है और तुम भीतर हो। तुमसे कोई चीज गुलाब तक पहुँचती है। तुमसे कोई चीज फूल तक आती है। तुम्‍हारे भीतर से कोई उर्जा गति करती है। गुलाब तक आती है, उसका रूप रंग और गंध ग्रहण करती है और लौट कर तुम्‍हें खबर देती है कि यह गुलाब का फूल है। सब ज्ञान, तुम जो भी जानते हो, जानने की क्षमता के द्वारा तुम पर प्रकट होता है। जानना तुम्‍हारी क्षमता है; सारा ज्ञान इसी क्षमता के द्वारा अर्जित किया जाता है।

सोमवार, 26 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—87 (ओशो)

   मैं हूं, यह मेरा है। यह-यह है। हे प्रिये, भाव में भी असीमत: उतरो।
     मैं हूं। तुम इस भाव में कभी गहरे नहीं उतरते हो कि मैं हूं। है प्रिये, ऐसे भाव में भी असीमत: उतरो।
      मैं तुम्‍हें एक झेन कथा कहता हूं। तीन मित्र एक रास्‍ते से गुजर रहे थे संध्‍या उतर रही थी। और सूरज डूब रहा था। तभी उन्‍होंने एक साधु को नजदीक की पहाड़ी पर खड़ा देखा। वे लोग आपस में विचार करने लगे कि साधु क्‍या कर रहा है। एक ने कहा: यह जरूर अपने मित्रों की प्रतीक्षा कर रहा है। वह अपने झोंपड़े से घूमने के लिए निकला होगा और उसके संगी-साथी पीछे छूट गए होंगे। वह उनकी राह देख रहा है।

बुधवार, 21 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—86 (ओशो)

भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं जो दृष्‍टि के परे है, जो पकड़ के परे है। जो अनस्‍तित्‍व के, न होने के परे है—मैं।
     ‘’भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज कीं चिंतना करता हूं जो दृष्‍टि के परे है।‘’ जिसे देखा नहीं जा सकता। लेकिन क्‍या तुम किसी ऐसी चीज की कल्‍पना कर सकते हो जो देखी न जा सके। कल्‍पना तो सदा उसकी होती है जो देखी जा सके। तुम उसकी कल्‍पना कैसे कर सकते हो, उसका अनुमान कैसे कर सकते हो। जो देखी ही न जा सके। तुम उसकी ही कल्‍पना कर सकते हो जिसे तुम देख सकते हो। तुम उस चीज का स्‍वप्‍न भी नहीं देख सकते जो दृश्य न हो।

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—85 (ओशो)

अनासक्‍ति—संबंधी दूसरी विधि:


‘ना-कुछ का विचार करने से सीमित आत्‍मा असीम हो जाती है।’

मैं यहीं कह रहा था। अगर तुम्‍हारे अवधान का कोई विषय नहीं है, कोई लक्ष्‍य नहीं है, तो तुम कहीं नहीं हो, या तुम सब कहीं हो। और तब तुम स्‍वतंत्र हो तुम स्‍वतंत्रता ही हो गए हो।

यह दूसरा सूत्र कहता है: ‘ना कुछ का विचार करने से सीमित आत्‍मा असीम हो जाती है।’

अगर तुम सोच विचार नहीं कर रहे हो तो तुम असीम हो। विचार तुम्‍हें सीमा देता है। और सीमाएं अनेक तरह की है। तुम हिंदू हो, यह एक सीमा है। हिंदू होना किसी विचार से, किसी व्‍यवस्‍था से, किसी ढंग ढांचे से बंधा होना है। तुम ईसाई हो, यह भी एक सीमा है। धार्मिक आदमी कभी भी हिंदू या ईसाई नहीं हो सकता। और अगर कोई आदमी हिंदू या ईसाई है तो वह धार्मिक नहीं है। असंभव है। क्‍योंकि ये सब बिचार है। धार्मिक आदमी का अर्थ है कि वह विचार से नहीं बंधा है। वह किसी विचार से सीमित नहीं है। वह किसी व्‍यवस्‍था से, किसी ढंग-ढांचे से नहीं बंधा है। वह मन की सीमा में नहीं जीता है—वह असीम में जीता है।

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

न और न छौर—(कविता)

न कोई  है न छौर है उसका,
केवल एक गति भर है,
जो एक सम्‍मोहन बन कर छाई है।
हर और जहां-तहां,
चर-अचर, उस बिंदू के छोर तक।
बन कर एक उदासी
जो आभा की तरह चमकती है,
और एक गहन तमस का बनती है उन्‍माद।
ये कोई प्रलाप के बादल नहीं है ‘’प्रिय’’,

रविवार, 4 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—84 (ओशो)

अनासक्‍ति—संबंधी पहली विधि:
शरीर के प्रति आसक्‍ति को दूर हटाओं और यह भाव करो कि मैं सर्वत्र हूं। जो सर्वत्र है वह आनंदित है।
     बहुत सी बातें समझने जैसी है। शरीर के प्रति आसक्‍ति को दूर हटाओं।
      शरीर के प्रति हमारी आसक्‍ति प्रगाढ़ है। वह अनिवार्य है; वह स्‍वाभाविक है। तुम अनेक-अनेक जन्‍मों से शरीर में रहते आए है; आदि काल से ही तुम शरीर में हो। शरीर बदलते रहे है। लेकिन तुम सदा शरीर में रहे हो। तुम सदा सशरीर रहे हो।

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—83 (ओशो)

(कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं। विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।)
     कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं?
            एक कामना पैदा होती है और कामना के साथ यह भाव पैदा होता है कि मैं हूं। एक विचार उठता है और विचार के साथ यह भाव उठता है कि मैं हूं। इसे अपने अनुभव में ही देखो; कामना के पहले और जानने के पहले अहंकार नहीं है।

सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—82 (ओशो)

अनुभव करो: मेरा विचार,मैं-पन, आंतरिक इंद्रियाँ—मुझ
     यह बहुत ही सरल विधि है और अति सुंदर भी।
      पहली बात यह है कि विचार नहीं करना है, अनुभव करना है। विचार करना और अनुभव करना दो भिन्‍न-भिन्‍न आयाम है। और हम बुद्धि से इतनी ग्रस्‍त हो गए है कि जब हम यह भी कहते है कि हम अनुभव करते है तो भी हम अनुभव नही करते,सोच-विचार ही करते है। तुम्‍हारा भाव-पक्ष, तुम्‍हारा ह्रदय-पक्ष, बिलकुल बंद हो गया है। मुर्दा हो गया है। जब तुम कहते हो कि, मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं। तो भी वह भाव नहीं होता, विचार ही होता है।

बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

छोटी कथा--(कथा यात्रा)

एक बार किसी छोटे शहर में एक आगंतुक ने अनेक लोगों से वहां के नगर-प्रमुख के संबंध में पूछताछ की: आपके महापौर कैसे आदमी है?
            पुरोहित ने कहा: वह किसी काम का नहीं
            पेट्रोल-डिपो के मिस्त्री ने कहा: वह बिलकुल निकम्मा है।
            नाई ने कहा: मैंने अपने जीवन में उस दुष् को कभी वोट नहीं दिया।
            तब वह आगंतुक खुद महापौर से मिला। जो की बहुत बदनाम व्यक्ति था।
            उसने पूछा: आपको अपने काम के लिए क्या तनख्खाह मिलती है?’
            महापौर ने कहां: भगवान का नाम लो। मैं इसके लिए कोई तनख्खाह लूंगा मैं तो बस सेवा भाव से यह पद सम्हाल रखा है। इसे लोगे के प्रेम की खातिर स्वीकार किया हुआ है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र


विज्ञान भैरव तंत्र विधि—81 (ओशो)

अग्‍नि संबंधि तीसरी विधि:
जैसे विषयीगत रूप से अक्षर शब्‍दों में और शब्‍द वाक्‍यों में जाकर मिलते है और विषयगत रूप से वर्तुल चक्रों में और चक्र मूल-तत्‍व में जाकर मिलते है, वैसे ही अंतत: इन्‍हें भी हमारे अस्‍तित्‍व में आकर मिलते हुए पाओ।
     यह भी एक कल्‍पना की विधि है।
      अहंकार सदा भयभीत है। वह संवेदनशील होने से, खुला होने से डरता है। वह डरता है कि कोई चीज भीतर प्रवेश करके उसे नष्‍ट कर न दे। इसलिए अहंकार अपने चारों और एक किला बंदी करता है। और तुम एक कारागृह में रहने लगते हो। तुम अपने अंदर किसी को भी प्रवेश नहीं देते हो। तुम डरते हो कि यदि कोई चीज भीतर आ गई तो झंझट खड़ा कर देगी। तो बेहतर है कि किसी को आने ही मत दो। तब सारा संवाद बंद हो जाता है; उनके साथ भी संवाद बंद हो जाता है। जिन्‍हें तुम प्रेम करते हो। या सोचते हो कि तुम प्रेम करते हो।

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—80 (ओशो)

अग्‍नि संबंधि दूसरी विधि:
            ‘यह काल्‍पनिक जगत जलकर राख हो रहा है, यह भाव करो; और मनुष्‍य से श्रेष्‍ठतर प्राणी बनो।
     अगर तुम पहली विधि कर सके तो यह दूसरी विधि बहुत सरल हो जाएगी। अगर तुम भाव कर सके कि तुम्‍हारा शरीर जल रहा है तो यह भाव करना कठिन नहीं होगा कि सारा जगत जल रहा है। क्‍योंकि तुम्‍हारा शरीर जगत का हिस्‍सा है। और तुम अपने शरीर के द्वारा ही जगत को जानते हो। उस से जुड़े हो। सच तो यह है कि अपने शरीर के कारण ही तुम इस जगत से जूड़े हो। जगत तुम्‍हारे शरीर का फैलाव है। अगर तुम अपने शरीर के जलने की कल्‍पना कर सकते हो तो जगत के जलने की कल्‍पना करना कठिन नहीं है।

रविवार, 21 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—79 (ओशो)

अग्‍नि संबंधि पहली विधि:
भाव करो कि एक आग तुम्‍हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है। और अंतत: शरीर जलकर राख हो जाता है। लेकिन तुम नहीं।
     यह बहुत सरल विधि है और बहुत अद्भुत है, प्रयोग करने में भी सरल है। लेकिन पहले कुछ बुनियादी जरूरतें पूरी करनी होती है।
      बुद्ध को यह विधि बहुत प्रीतिकर थी और वे अपने शिष्‍यों को इस विधि में दीक्षित करते थे। जब भी कोई व्‍यक्‍ति बुद्ध से दीक्षित होता था तो वे उससे पहली बात यही कहते थे; कि मरघट चले जाओ और वहां किसी जलती चिता को देखो, जलते हुए मरघट में बैठकर देखना था।

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—78 (ओशो)

अंधकार संबंधि तीसरी विधि:
‘’जहां कहीं भी तुम्‍हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर अनुभव।‘’
     क्‍या? क्‍या अनुभव? इस विधि में सबसे पहले तुम्‍हें अवधान साधना होगा, अवधान का विकास करना होगा। तुम्‍हें इस भांति का अवधान पूर्ण रूख, रुझान विकसित करना होगा; तो ही यह विधि संभव होगी। और तब जहां भी तुम्‍हारा अवधान उतरे, तुम अनुभव कर सकते हो—स्‍वयं को अनुभव कर सकते हो। एक फूल को देखने भर से तुम स्‍वयं को अनुभव कर सकते हो। तब फूल को देखना सिर्फ फूल को ही देखना नहीं है। वरन देखने वाले को भी देखना है। लेकिन यह तभी संभव है जब तुम अवधान का रहस्‍य जान लो।

लीव्‍स ऑफ ग्रास-(वॉल्‍ट विटमैन)-058

लीव्‍स ऑफ ग्रास: (वॉल्‍ट विटमैन)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

जुलाई 1855, वॉल्‍ट विटमैन छत्‍तीस साल का रहा होगा। जब उसकी लीव्‍स ऑफ ग्रासका प्रथम संस्‍करण छपा। यदि वह तारीख चार जुलाई अमेरिका का स्‍वतंत्रता दिवस नहीं रही होगी तो होनी चाहिए। उस दिन विटमैन ने न केवल पत्रकारिता के अपने अभूतपूर्व व्‍यवसाय से, स्‍वच्‍छंद लिखने से और तुकबंदी से बल्‍कि साहित्‍य की उन परंपराओं से जो साहित्‍य को लोकतंत्र के कालवाह्मा बनाती है। स्‍वतंत्र होने की घोषणा की। विटमैन ने ऐसी कविता लिख जिसके व्‍यापक आकार और कल्‍पना में उन अमरीकी लोगों के जीवन की और व्‍यवसाय की झलक थी जिनके पास कविता पढ़ने की फुरसत नहीं थी।


      अपने स्‍वयं के निजी स्‍वभाव का उत्‍सव मनाकर वॉल्‍ट विटमैन ने अमरीका स्‍वभाव का उत्‍सव मनाया। उसकी किताब के छह संस्‍करण प्रकाशित हुए। अगले पैंतीस वर्षों में उसके और कई संस्‍करण छपे। जब कि बराबर उसकी निषेधात्‍मक आलोचनाएं, कविताओं के सेन्‍सर करने के प्रयेत्‍न हो रहे थे। वॉल्‍टन में 1882 में उसे प्रतिबंधित भी किया गया।

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—77 (ओशो)

अंधकार—संबंधी दूसरी विधि:
जब चंद्रमाहीन वर्षा की रात में उपलब्‍ध न हो तो आंखें बंद करो और अपने सामने अंधकार को देखो। फिर आंखे खोकर अंधकार को देखो। इस प्रकार दोष सदा के लिए विलीन हो जाते है।
     मैंने कहा कि अगर तुम आंखें बंद कर लोगे तो जो अंधकार मिलेगा वह झूठा अंधकार होगा। तो क्‍या किया जाए अगर चंद्रमाहीन रात, अंधेरी रात न हो। यदि चाँद हो और चाँदनी का प्रकाश हो तो क्‍या किया जाए? यह सूत्र उसकी कुंजी देता है।
      जब चंद्रमाहीन वर्षा की रात उपलब्‍ध न हो तो आंखें बंद करो और अपने सामने अंधकार को देखो।
      आरंभ में यह अंधकार झूठा होगा। लेकिन तुम इसे सच्‍चा बना सकते हो, और यह इसे सच्‍चा बनाने का उपाय है।
      फिर आंखें खोलकर अंधकार को देखो।
      पहले अपनी आंखें बंद करो और अंधकार को देखो। फिर आंखें खोलों और जिस अंधकार को तुमने भीतर देखा उसे बाहर देखो। अगर बाहर वह विलीन हो जाए तो उसका अर्थ है कि जो अंधकार तुम्‍हारे भीतर देखा था वह झूठा था।

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—76 (ओशो)

अंधकार—संबंधी पहली विधि
वर्षा की अंधेरी राम में उस अंधकार में प्रवेश करो,जो रूपों का रूप है।
     अतीत में एक बहुत पुराना गुह्म विधा का संप्रदाय था। जिसके बारे में शायद तुमने न सुना हो। यह संप्रदाय इसेनी नाम से जाना जाता था। जीसस की शिक्षा-दीक्षा उसी संप्रदाय में हुई थी। जीसस उस संप्रदाय के सदस्‍य थे। इसेनी संप्रदाय संसार में अकेला संप्रदाय है जिसने परमात्‍मा की धारणा परम अंधकार के रूप में कि है। कुरान कहती है कि परमात्‍मा प्रकाश है। वेद कहते है कि परमात्‍मा प्रकाश है। बाइबिल भी कहती है की परमात्‍मा प्रकाश है। पूरी दुनियां में सिर्फ इसेनी की परंपरा कहती है कि परमात्‍मा घनघोर अंधकार है। परमात्‍मा सर्वथा अंधकार है; एक अनंत रात जैसा है।

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—75 (ओशो)

 जागते हुए सोते हुए, स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।
     पहले जागरण से शुरू करो। योग ओर तंत्र मनुष्‍य के मन के जीवन को तीन भागों में बाँटता है—स्‍मरण रहे, मन के जीवन को। वे मन को तीन भोगों में बांटते है: जाग्रत,सुषुप्‍ति और स्‍वप्‍न। ये तुम्‍हारी चेतना के नहीं, तुम्‍हारे में के भाग है।
      चेतना चौथी है—तुरीय।  पूर्व  मैं इसे कोई नाम नहीं दिया गया है। सिर्फ तुरीय या चतुर्थ कहा गया है। तीन के नाम है। वे बादल है जिनके नाम हो सकते है। कोई जागता हुआ बादल है, कोई सोया हुआ बादल है। और कोई स्‍वप्‍न देखता हुआ बादल है। और जिस आकाश में वह घूमते है, वह अनाम है, उसे मात्र तुरीय कहां जाता है।

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—74 (ओशो)


हे शक्‍ति, समस्‍त तेजोमय अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है, ऐसा भाव करो।
     अपनी आंखे बंद कर लो। जब इस प्रयोग को करो तो आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सारा अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है।
      आरंभ में यह कठिन होगा। यह विधि उच्‍चतर विधियों में से एक है। इसलिए इसे एक-एक कदम समझना अच्‍छा होगा। तो एक काम करो। यदि  इस विधि को प्रयोग में लाना चाहते हो तो एक-एक कदम चलो,क्रम से चलो।

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—73 (ओशो)

      ‘ग्रीष्‍म ऋतु में जब तुम समस्‍त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।‘’
     मन विभ्रम है; मन उलझन है। उसमें स्‍पष्‍टता नहीं है। निर्मलता नहीं है। और मन सदा बादलों से घिरा रहता है। वह कभी निरभ्र, शुन्‍य आकाश नहीं होता। मन निर्मल हो ही नहीं सकता। तुम अपने मन को शांत-निर्मल नहीं बना सकते हो। ऐसा होना मन के स्‍वभाव में ही नहीं है। मन अस्‍पष्‍ट रहेगा, धुंधला-धुंधला ही रहेगा। अगर तुम मन को पीछे छोड़ सके, अगर तुम मन का अतिक्रमण कर सके, उसके पार जा सके, तो एक स्‍पष्‍टता तुम्‍हें उपलब्‍ध होगी। तुम द्वंद्व रहित हो सकते हो। मन नहीं। द्वंद्व रहित मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं। न कभी अतीत में थे और न कभी भविष्‍य में होगी। मन का अर्थ ही द्वंद्व है उलझाव है।