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बुधवार, 13 अप्रैल 2016

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड--1)–(बऊलगीत)-ओशो

प्रेम योग—(बाउल गीत)
(The Beloved-Vol-1)
ओशो
बाउलों को बावरा कहा जाता है, क्योंकि वे लोग पागल जैसे होते हैं। बाउल शब्द संस्कृत के मूल शब्द 'वतुल' से आता है, जिसका अर्थ है—पागल। बाउल लोगों का कोई धर्म नहीं होता। न वह हिंदू होते हैं, न मुसलमान, न ईसाई और न बौद्ध ही, वे केवल साधारण मनुष्य होते हैं। वे समग्रता से विद्रोही हैं। वे किसी के होकर नहीं रहते। वे केवल स्वयं के ही होकर स्वयं के छंद से जीते हैं।
बाउल गाते हैं—
न कुछ भी हुआ है और न कुछ भी होगा,
जो वहां है, वह वहां ही रहेगा।
ब्रह्मांड का गहराई से अध्ययन करने पर
तुम अपना समय नष्ट ही कर रहे हो।
वहतो इस छोटे से भाण्ड (बर्तन) में भी मौजूद है,
इस छोटे से शरीर में ही उसने अपना घर बनाया है।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--17)

परमात्‍मा के बिना कोई भराव नहीं—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक 28 मई, 1976;  श्री रजनीश आश्रम पूना।
सारसूत्र:
जे तुम राम बुलायल्यौ, तो रज्जब मिलसी आय।
जथा पवन परसगि ते गुडी गगन कूँ जाय।।
भला बुरा जैसा किया, तैसा निपज्या जीव।
यह तुम्हरा तुमकूँ मिल्या, तुम क्यूँ मिते न पीव।।
जैसे छाया कूप की, बाहरि निकसै नाहिं।
जन रज्जब यूँ राखिये, मन मनसा हरि माहि।।
साध, सबूरी स्वान की, लीजै करि सुविवेक।
वै घर बैठचा एक कै, तू घर घर फिरहि अनेक।।
साबुन सुमिरण जल सतसंग। सकल सुकृत करि निर्मल अंग।।
रज्जब रज उतरै इहि रूप। आतम अंबर होइ अनूप।।

आनंद योग–(दि बिलिव्ड-02)–(प्रवचन–10)

प्रेम है एक मृत्यु(प्रवचनदसवां)

दिनांक 19 जूलाई 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।
प्रश्‍नसार:
पहला प्रश्न :
प्यारे भगवान! अब वहां न कोई खोज रही और न कोई तलाश रही वह सब कुछ बंद कर दिया मैने उसमें कुछ भी तो विशिष्ट नहीं पाया, लेकिन अब मैं अपने को स्वतंत्र पाता है जैसे सभी से मुक्त हो गया हूं मैं अपने काम धंधे पर बाहर जाता जरूर हूं पर बिना किसी व्यग्रता के यह मेरे लिए वरदान और आशीर्वाद जैसा है? और मैं यहां आपकी उपस्थिति में उमड़ती कृतज्ञता की एक बाढ़ का अनुभव करता हूं।
हां खोजने के लिए कुछ भी विशिष्ट या खास नहीं है। किसी विशिष्ट की खोज ही भ्रमपूर्ण है, पूरी तरह से एक धोखा है। मन कुछ विशिष्ट चीज की खोज करना चाहता है, मन के साथ यही समस्या है। परमात्मा कोई विशिष्ट चीज अथवा कोई विशिष्ट अस्तित्व नहीं है।

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

आनंद योग–(दि बिलिव्ड-02)–(प्रवचन–09)

अपने अंदर के अरूप में स्थित हो जाओ—(प्रवचननौंवां)

दिनांक 18 जूलाई 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
बाऊल गीत:
मैरे हृदय!
तू अपने आपको उस वेष में सज्जित कर
जिसमें सभी स्त्रियोचित सार तत्व हों,
तू अपनी प्रकृति और आदतों को बदल कर
ठीक उन्हें उनके विपरीत बना ले।
तभी, जैसे लाखों करोड़ों सूर्यों का विस्फोट होगा
और उसकी चमक तथा प्रकाश में
वह अरूप, हर कहीं विविध रूपों में दिखाई देगा।
तू वह देख सकेगा
लेकिन केवल तभी
यदि तू स्वयं अपने अंदर के
अरूप में स्थित हो जाए।

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--16)

गुरु दर्पण है—(प्रवचन—सोहलवां)

दिनांक 27 मई 197,  श्री रजनीश आश्रम पूना।
प्रश्‍नसार:
1—आपके बिना जिंदगी से कुछ शिकवा तो न था, लेकिन आपके बिना यह जिंदगी जिंदगी भी तो न थी!...
2—गुरु कब तक मारनहार रहता है और कब तारनहार बन जाता है? यह बात शिष्य पर निर्भर या गुरु पर?
3—'इस दुनिया से जाने के पहले’, या,’ जब मैं नहीं रहूँगा’ जैसे कलेजे को चीर देनेवाले शब्दों का अपने तईं न प्रयोग करने के लिए भगवान से एक प्रेमी का अनुरोध!


पहला प्रश्न :
आपके बिना इस जिंदगी से कोई शिकवा तो न था, लेकिन आपके बिना यह जिंदगी जिंदगी भी तो न थी। अब जी में आता है, तेरे दामन में सिर छुपाकर रोता रहूँ, रोता रहूँ!

रविवार, 10 अप्रैल 2016

आनंद योग–(दि बिलिव्ड-02)–(प्रवचन–08)

मैं केवल तुम्हारे लिए ही अस्तित्व में बना हुआ हूं(प्रवचनआठवां)

दिनांक 17 जूलाई 1976,
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न:
जब कोई व्यक्ति तुमसे घृणा करता है, तो तुम क्या करो?
चाहे कोई व्यक्ति तुमसे घृणा करे या कोई व्यक्ति तुमसे प्रेम करे, तुम्हें इससे कोई फर्क पड़ना ही नहीं चाहिए। यदि तुमहो ‘, तो तुम वैसे ही बने रहते हो, औरतुम नहीं होतब तुम तुरंत बदल जाते हो। यदि तुम हो ही नहीं, तब कोई भी व्यक्ति तुम्हें खींच सकता है, तुम्हें धक्का दे सकता है: तब कोई भी व्यक्ति तुम्हारा कोट पकड़ कर धकिया सकता है और तुम्हें बदल सकता है। तब तुम एक गुलाम हो, तब तुम मालिक नहीं हो। तुम्हारी मालकियत तब शुरू होती है, जब बाहर जो कुछ भी घटना घटे, वह तुम्हें बदलती नहीं, तुम्हारा आंतरिक वातावरण और आबोहवा वैसी ही बनी रहती है।

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--15)

बिरहिण बिहरे रैनदिन—(प्रवचन—पंद्रहवाँ)

दिनांक 26 मई 1976,  श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
सिला सँवारी राजनै, ताहि नवै सब कोइ।
रज्जब सिष—सिल गुरु गढै सोइ पूजि किन होइ।।
गुरु ज्ञाता परजापती, सेवक माटी रूप।
रज्जब रज सूँ फेरकै, घरिले कुंभ अनूप।।
ज्यूँ धोबी की धमस सहि, ऊजल होइ कुचीर।
त्यूँ सिव तालिब निरमला, मार सहे गुरु पीर।।
बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।
जन रज्जब जलती रहै, जाग्या बिरह अपार।।
बिरहा—पावक उर बसे, नखसिख जालै देह।
रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसहु मोहन मेह।।

आनंद योग–(दि बिलिव्ड-02)–(प्रवचन–07)

वे वासना को वासना से ही मारते हैं(प्रवचनसातवां)

दिनांक 16 जूलाई 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

बाऊलगीत:
जो लोग मर गये हैं
पर फिर भी वे पूरी तरह जीवित है,
और वे प्रेम के अनुभवों
और उसकी सुवास को भली भांति जानते हैं,
वे लोग ही जीवन—मृत्यु की इस सरिता को देखते हुए
अखण्ड सत्य को खोजते हैं, और वे लोग ही
इस नदी को पार कर लेंगे।
हवा के विरुद्ध चलोग हुए
प्रसन्नता पाने की
उनकी कोई चाह ही नहीं है।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--14)

उपासना चेष्टारहित चेष्टा है—(प्रवचन—चौदहवाँ)

25 मई 1979श्री रजनीश आश्रम, पूना
      प्रशनसार—
1—पूजा—पाठ, योग—ध्यान, व्रत—उपवास, साधुता, ये सब मैने किया; इतने अनुभवों से गुजरा, कुछ हुआ नहीं; और आप अनुभव पर जोर देते हैं। अब मैं क्या करूँ?
2—उपासना यानी क्या?
3—आँख को निर्मल करने का उपाय बताएँ। चारों ओर राम कैसे दिखायी पड़े? क्या ध्यान के जैसे ही संन्यास का भी विश्वव्यापी प्रचार व प्रसार आवश्यक है?


पहला प्रश्न :
आप सदा अनुभव पर जोर देते हैं। मैं सब कर चुका हूँ——पूजा—पाठ, योग—ध्यान, व्रत—उपवास! और कुछ वर्षों तक पुराने ढब का साधु भी रह चुका हूँ। मगर इस सब अनुभव से कुछ मिला नहीं। अब मैं क्या करूँ?

आनंद योग–(दि बिलिव्ड-02)–(प्रवचन–06)

अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है—(प्रवचन—छट्ठवां)

दिनांक 15 जूलाई, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।
प्रशनसार—
पहला प्रश्न:
मुझे कैसे प्रार्थना करनी चाहिए? मैं प्रार्थना करने में जो कुछ अनुभव करता है, मैं नहीं जानता कि अपने इस प्रेम की मैं किस तरह ठीक से अभिव्यक्त करूं?

 प्रार्थना कोई विधि नहीं है, वह कोई संस्कार नहीं है, और न वह कोई औपचारिकता है। यह हृदय का सहज स्वाभाविक उमड़ता उद्रेक है, इसलिए यह पूछो ही मत—कैसे? क्योंकि यहां कैसे जैसा कुछ है ही नहीं, और ' न कैसे जैसा ' कुछ हो भी सकता है।

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

संतो मगन भय मन मेरा--(प्रवचन--13)

गुरु की याद में रंग भी बहुत, नूर भी बहुत—(प्रवचन—तेरहवां)

24 मई 1976; श्री  रजनीश आश्रम।पूना
सूत्र:
मार भली जो सतगुरु देहि। फेरि—बदल औरे करि लेहि।।
ज्यूँ माटी कूँ कुटे कुँभार। त्यूँ सतगुरु की मार विचार।।
भाव भिन्न कछु औरे होइ। ताते रे मन मार न जोइ।।
जैसा लोहा घड्रै लुहार। कूटि—काटि करि लैवै सार।।
मारै मारि मिहरि करि लेहि। तो निपजै फिरि मार न देहि।।
ज्यूँ साँटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।
मन तोड़न का नाहीं भाव। जे तुछ तूटि जाय तो जाव।।
ज्यूँ कपड़ा दरजी के जाय। टूक—टूक करि लेहि बनाय।।
त्यँ रज्जब सतगरु का खेल। ताले समझि मार सब खेल।।

आनंद योग–(दि बिलिव्ड-02)–(प्रवचन–05)

आज इतना ही। जीवन रहते हुए मरना—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 14 जूलाई 1976;
श्री ओशो आश्रम पूना।
बाऊलगीत
यह मनुष्य का शरीर जो श्वांस लेता है,
प्राणवायु पर ही जीवित रहता है।
और उसके पार वह अदृश्य दूसरा
जो पहुंच के बाहर है—
वह विश्राम करता है।
और दो के मध्य में
एक और मनुष्य रहस्य कडी की भांति गतिशील है
जिसका शरीर मन, हृदय और भावों का अनुसरण करता हुआ
आराधना ही में रत रहता है।
इन तीनों के बीच
यह एक लीला हो रही है

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--12)

       नीड़—निर्माण का मजा : जब आंधी हो—(प्रवचन—बाहरवां)

    दिनांक 23 मई 1979;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

     प्रश्‍नसार:

1—आप कृष्‍ण, क्राइस्‍ट, कबीर, सभी पर क्‍यों बोल रहे है?
2—जंजीर टूटी नहीं, नुपुर बन गई है।
3—भगवान को किडनेप करने का इरादा।
4—संसार संन्‍यास में बाधाएं डाल रहा है.....
5—संन्‍यास मेरे भाग्‍य में है या नहीं?
6—समाधि की अंतर्दशा के संबंध में कुछ कहें।


पहला प्रश्न : आप कृष्ण, क्राइस्ट, कबीर, सभी पर क्यों बोल रहे हैं?
मैं सभी हूँ! तुम भी सभी हो। मुझे याद है, तुम्हें याद नहीं। इतना ही भेद है। मनुष्य की सारी वसीयत तुम्हारी है। मनुष्य की ही क्यों, अस्तित्व की सारी वसीयत तुम्हारी है। जो भी आज तक हुआ है, सब तुम्हारा है। और जो कल भी होगा, वह भी तुम्हारा है।

आनंद योग--(दि बिलिव्ड-02)--(प्रवचन--04)

मध्‍य में रूकने का स्‍मरण रहे—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 13 जूलाई 1976;
श्री ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न :
प्यारे ओशो! मैने सुना है:..... एक मनोवैज्ञानिक
अपने ही जुड़वां पुत्रों के साथ एक प्रयोग करना चाहत था!
वह उन्‍हें अपने साथ समूह चिकित्सा के कमरे में ले गया और
प्रत्येक लड़के को स्वयं अलग—अलग कमरे में रखा! आइक
के कमरे में उसने टी: वी: पर पर विज्ञापित, कठिनता से बिकने
वाले खिलौनों का ढेर इक्‍कठा कर रखा था। क्‍योंकि परीक्षण से
वह नकारात्‍मक दृष्‍टिकोण का, शिकायतें करने वाला

रविवार, 3 अप्रैल 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--11)

       राम बिन सावन सह्यो न जाइ—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

       दिनांक 22 मई 1979श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:
रामबिन सावन सह्यो न जाइ।
काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।।
कनक—अवास—वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।
महाबिपत बेहाल लाल बिन, लागै बिरह—भुअंग।।
सूनी सेज बिथा कहूँ कासूँ, अबला धरै न धीर।
दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।।
सकल सिंगार भार ज्यूँ लागैं, मन भावै कछु नाहीं।
रज्जब रंग कौन सू कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।।
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।

चाहै' पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।
बाछै ऊरध अरध सं लागै, भूले मुगंध गँवार।
खाइ हलाहल जीयो चाई, मरत न लागै बार।।
बेठे सिला समुद्र तिरन कूँ, सो सब बूडनहार।
नाम बिना नाहीं निसतारा, कबहूँ न पहुँचै पार।।
सुख के काज धसे दीरध दुख, बहे काल की धार।
जन रज्जब यूँ जगत बिगूच्यो, इस माया की लार।।
बिन सावन सधो न जाइ:

गुरुवार, 31 मार्च 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--10)

ठहर जाना पा लेना है—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक 21 मई 1979;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्न सार:
1—आपके हिंदी प्रवचनों में भी सत्तर—अस्सी प्रतिशत वे पाश्चात्य संन्यासी होते हैं जिन्हें हिंदी—भाषा बिल्कुल नहीं आती। आप फिर भी उसी तत्परता, सहजता और गहनता से बोलते हैं मानो पूरी मंडली भाषा समझ रही हो। क्या आपको इस बात से कोई अड़चन नहीं आती?
2— इस सदी का मनुष्य अधार्मिक क्यों हो गया है?
3—बहुत दिनों से बड़ी बेचैन और गुमसुम हो रही हूँ। पहले की तरह खुलकर हँस भी नहीं सकती हूँ। दो दिन के दर्शन से अपूर्व आनंदित हुई। लेकिन चार रात से सो नहीं पाती और ऐसी हालत बहुत दिनों से है।
तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा. ....
4—परमात्मा से वियोग क्यों?

आनंद योग—(द बिलिव्‍ड-02)–(प्रवचन–03)

अपनी आंखें बंद करो और उसे पकडने का प्रयास करो—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 12 जूलाई 1976;
श्री ओशो आश्रम पूना।

बाउल गाते हैं—
वासना की सरिता में
कभी डुबकी लगाना ही मत
अन्यथा तुम किनारे तक पहुंचोगे ही नहीं,
यह उग्र तूफानों से भरी हुई वह नदी है—
जिसके किनारे हैं ही नहीं।
क्या तुम उस मानुष को
अपने ही अंदर देखना चाहते हो?
यदि हां, तो अपने ही घर के अंदर जाओ
जो अत्यंत सुंदर और रूपमान है।
उस तक जाने के सभी मार्ग