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शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

33 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय -33)

जंगल में ओलों का आनंद

आज मन न जाने क्यों रात से ही कुछ बेचैन सा था। जिसका न कोई कारण था न ही कोई घटना ही। बस अकारण ऐसा ये सब क्यों? सब कुछ मुझे बड़ा अजीब सा लग रहा था। न तो मुझे कहीं पर बैठना, न ही कुछ भी करने को मन ही कर रहा था। न ही खेलना ही, और न सोना ही अच्‍छा नहीं लग रहा था। आज मैं अपने ही शरीर में एक कैद महसूस कर रहा था। और मेरा मन पूरी तरह से एक घुटन से भर गया था। लगता था किसी खुले आकाश में चला जाऊं। बच्‍चे तो आज भी अपना बस्ता ले कर स्‍कूल चले गये थे। पापाजी अभी दुकान से आकर बैठे ही बैठे थे। शायद अब नहा धो कर ध्‍यान की तैयारी करेंगे। अचानक मैं उठा और उसके सामने जाकर बैठ गया। मुझे इस तरह से अपने सामने आया देख कर वह समझ गये कि मुझसे कुछ कहना चाहता था। पापा जी न जाने क्‍यों मेरे मन की बात बहुत जल्‍दी ही समझ जाते थे। जैसे सब कुछ मेरी आंखों में लिखा मिल जाता था उन्हें। सच कहूं तो उन्हें मेरी आंखों की भाषा समझ में आ जाती थी। और किसी के बारे में कह नहीं सकता परंतु अपनी आंखों की बात को तो मैं जनता था। उन्होंने अपने पास बुला कर मेरी गर्दन और सर पर हाथ फेरने लगे। मेरे दोनों कानों को उन्‍होंने अपने हाथों से पकड़ लिया। शायद वह गर्म थे। तभी वह कहने लगे तुझे क्‍या तनाव है, कान तूने इतने गर्म क्‍यों कर रखे है। वह मेरे कानों को प्‍यार से सहलाने लगे। मैंने उनकी गोद में सर रख दिया। कुछ देर इसी तरह से बैठे रहकर अचानक में उठा और अंदर कोठे से जाकर उनके पुराने जूते जो वह अकसर जंगल में पहन कर जाते थे। उन्‍हें मुंह से पकड़ कर ले आया और लाकर उनके सामने खड़ा हो गया। ये सब देख कर तो उन्‍हें  बड़ा अचरज हुआ। अरे पागल अब इतनी दोपहरी में जंगल,  अभी तो मैं दुकान से आया हूं। मैंने अपना पंजा उनके पैरो पर रख दिया कि नहीं आज चलो ना और अपनी निरीह बेबस आंखों से उन्हें निहारने लगा। जैसे एक भिक्षु परमात्मा के सामने याचक बन कर नतमस्तक उपासना कर रहा हो। उन्‍होंने एक बार मेरी आंखों में देखा और मम्‍मी को कहने लगे मुझे एक कप चाय बना दो तो अच्छा रहेगा। ये पागल पोनी को न जाने क्या सुझा, देखो इसे अब यह जंगल में घूमने की जिद्द कर रहा है।    

        

इस सब के लिए तो मम्‍मी भी तैयार नहीं थी। वह भी किचन में खाना बना रहा थी। बाहर निकल कर वह आई,  और मेरी तरफ अचरज भरी नजर से देखने लगी। इस सब से  मुझे झिझक आने लगी और मैं अपनी आंखें नीची कर एक दम नतमस्तक हो जमीन से मुँह छुआ कर बैठ गया। होली जा चूकी थी। बसंत के बाद दिल्ली की धूप में कुछ तेजी आ ही जाती है। परंतु छांव में तो एक मीठी सी सुगपूगाहट जरूर महसूस होती थी। परंतु धूप अपने यौवन की और अग्रसर होना शुरू होने लगी थी। इस मौसम में  सूर्य भगवान भी अपनी उतुंग उतरायण की और गति शुरू कर देते थे। लेकिन अगर आप गांव को पार कर जंगल में प्रवेश कर गए तो वह कितना हरा भरा था। उसमें पानी के अविरल चश्मे बहते रहते थे, कितना सब था वहाँ मैं आप को ये सब बता नहीं सकता। क्‍योंकि में उसे वहां जाकर जीना चाहता था। उसका  ज्ञान बांटना नहीं चाहता था। वहां की उड़ती रेत भी मुझे कितनी मधुर लगती थी। तब मम्‍मी ने मेरी और देखा फिर हंस कर कहने लगी तो चलो मैं भी चलती हूं। और मम्मी जी जल्‍दी से बनाया हुआ खाना पैक करने लग गई। मेरे तो एक दम से मजे आ गये। मानो किसी को मन मांगी मुराद मिल गई हो।

चलो यहां कोई और काम तो था नहीं, हम सब वहीं पर मोज करेंगे और हम सब मिल कर वही पर खाना भी खा लेंगे। क्‍योंकि जब राम रतन होते तो काम करने का एक अलग ही तरीका होता था। आज उसे तोड़ा जा सकता था। क्योंकि राम रतन तो होली पर अपने घर गये हुए थे। जो अभी तक नहीं लोटे थे। इस बात से कितना मजा मुझे आया मैं आपको शब्दों में पिरो कर बतला नहीं सकता। मेरा मन एक दम बाग-बाग हो उठा। जैसे की आपके सब्र का बांध टूटने ही वाला हो। और मैं रो—रो कर सब को जल्‍दी चलने के लिए कहने लगा। वह पट्टे की कैद भी कितनी सुखद लगती थी, उसे शब्दों में तो नहीं बांधा जा सकता। मैं पास की सीढ़ीयों के ऊपर जाकर खड़ा हो गया कि अब मुझे यहाँ पर पट्टे से बाँध सकते हो। ये सब मेरे लिए एक नियम सा हो गया था। कुछ बंधन भी कितने सुखद और मधुर होते है। ये बंधन-बंधन नहीं होते सच कोई भी बंधन जिसे हम प्रेम से गृहण कर ले वो बंधन नहीं रह जाता। वह तो प्‍यार का सुखद एहसास एक अदृश्य डोर बन जाता है। मानो आप किसी मधुर पाश में बंधे हो। और जब तक गले में पट्टा नहीं बंधना तब तक मन में एक भय समाया ही रहता था। न जाने कब सबका मन पलट जाए और जाना इनकार न हो जाये। पट्टा बंध जाने के बाद एक—एक पल भारी हो जा रहा था। जैसे की घड़ी रूक गई हो। कभी मम्‍मी के पास जाता कभी पापा जी के पास की चलो अब क्‍यों देर कर रहे हो। मैं तो कितनी जल्‍दी तैयार हो गया और आप लोग कितनी देर लगा रहे हो।

बार-बार सीढ़ीयों पर खड़ा होकर कुं....कुं....कुं.....कर के रो कर नीचे उतर जाता जैसे किसी विजेता धावक को उसका पदक तो मिला ही नहीं। आखिर जब वह पदक यानि मेरे गले में पट्टे से चैन को बाँध दिया जाता तो लगा मैं और जल्दी-जल्दी पापा जी को खींच कर जंगल में पहुंच जाऊं। पापा जी के लाख मना करने के बाद भी मुझे चैन नहीं पड़ता था। मैं जानता था कि इस तरह से खींचने के कारण पापा जी एक दिन गिर भी गये थे। और उनके हाथ पैर भी छील गये थे। परंतु इतनी अक्ल कहां थी मुझे,  मेरा मन तो उड़ कर अब जंगल के बीच पहुंच गया था। यहां तो रह गया था केवल शरीर...जिसे मैं जल्दी से जल्दी खींच कर वहां पहुंचना देना चाहता था।

रास्‍ते भर टाँग उठा कर अपने निशान बनाता अपनी हंसी मजाक कराता लगभग पापा जी को खिंचता जंगल की और चल दिया। गांव की सीमा खत्‍म होते ही जो लोहे के तार लगे थे उसे वायरलेस कहा जाता था। वह इलाका सुरक्षित था और उसी के वजह से वह जंगल विकसित हो रहा था। अंदर थोड़ा चलने के बाद पैड़ पौधों के झुंड के झुंड नजरे आने लग जाते थे। उनके बीच से गुजरती वह पगडंडी अपने अंदर मिट्टी की एक खास महक लिए होती थी। गांव की अपनी मिट्टी की एक अलग ही सुआस एक अपनी ही गंध होती है।  जिससे उसको न महसूस किया वह दुनियां के एक मधुर आनंद से वंचित सा रह गया। पास ही एक खुला मैदान था जिसमें अकसर बच्‍चे खेलते रहते थे।          

बस अब मैं जानता था मेरी मुक्ति का स्‍थान आ गया। मैं चैन के खुलते ही इधर—उधर दौड़ने लग जाता था। जैसे मैं अब अपने घर ही आ गया हूं। सूरज अब भी आसमान पर पूरी तरह ऊपर नहीं आया था, फिर भी धूप में तेजी थी। परंतु इस बात की कौन परवाह करने वाला था। पास के मैदान में कुछ बच्चे खेल रह थे। तब मैंने मन ही मन सोचता था कि जब बच्‍चे भी तो इतनी धूप में खेलने का आनंद ले रहे है। वह तो खेल ही रहे था और में तो अपने घर पर जा रहा हूं। फिर भला मुझे कहां धूप लगने वाली थी। मम्मी पापा को मैं पीछे छोड़ कर जंगल में दूर चला जाता था। वहां पर अनेक छोटी-बड़ी पगडंडियां बनी थी। परंतु इतनी बार आने की वजह से में प्रत्‍येक को पहचानता था। कि कौन सी पगडंडी किधर को जाती थी। पास में जो गांव था उस और कई पगडंडियां जाती थी। इस सब का ज्ञान तो मुझे बचपन में ही हो गया था। दूर गहरे नाला के पानी में जाकर छलांग लगा कर उसमें लेट जाता और फिर वापस दौड़कर मम्‍मी पापा की खोज खबर लेने के लिए चला आता था।

ये सब देख कर पापा जी कहते की देख इस पागल को गहरा नाला से नहा कर भी आया गया। मम्‍मी को बड़ा अचरज होता की इतनी दूर जाकर वह वापस भी आ गया। तब मैं बहुत जोर से पूंछ को हिलाता और तेजी से दौड़ जाता। सच ही गहरा नाले तक आते-आते मम्‍मी पापा को काफी देर लगी थी। लेकिन मेरे लिए तो यह बाय हाथ का खेल था। जैसे-जैसे आगे जंगल में हम बढ़ते जाते थे, तो कीकर खत्‍म होती जाती थी। वहां से रांझ और कैरी के झाड़ शुरू हो जाते थे। उसके बाद एक बहुत खुल्ला मैदान आता था जहां केवल हिंगोट और केरी के झाड़ ही रह जाते थे। वहाँ काबुली कीकर का नामों निशान नहीं रह जाता था। हाँ एक आध दूर दराज कोई बबुल के वृक्ष अवश्‍य ही अपना सीना तान कर झूमते दिखाई दे जायेगा। देखिए पेड़ पौधे भी किस तरह से अपना इलाका बना लेते था। जहां पर आप हिंगोट के पेड़ को पाएंगे वह आप काबुली कीकर को नहीं ढूंढ सकते। मानों वह उसकी परछाई से भी डरती हो। शायद वह बहुत पुराने वृक्ष थे जो उसके विस्तार से पहले पैदा हुआ होगा।

आगे जा कर जहां पर पानी का गहरा नाला था वहां की हरियाली कुछ अलग थी। वहां जंगली जड़ी बूटियां की गंध जो गिलेपन को अपने में समेट, कितनी सुखद लग रही थी। फर्न की बात तो अलग ही थी वह नाले के किनारे—किनारे जंगली डाब के साथ खूब बड़ी हो गयी थी। इसके कोमल मुलायम पत्‍ते मुझे खाने में अच्‍छे लगते थे। या एक फूलों की एक झाड़ थी जिसे दीदी रानी फूल कह कर पुकारती थी। उसकी गंध बहुत मधुर और मन मोहक होती थी। अब ये समय अपनी चिकित्सा करने का था। मैं छांट—छांट कर डाब के कोपलें पत्ते खा रहा था कि इतनी देर में मेरे पास से सरसराता हुआ एक काला सांप मेरे पेरो के पास से गुजर गया। कुछ क्षण के लिए तो मेरे प्राण ही निकल गये। परंतु मैंने उसे अपने से दूर जाते हुए देखा। हमारे यहां के सांप बहुत ही ठंडे स्वभाव के होते है। न जाने क्‍यों इन्हें हिंसक माना जाता रहा। शायद इनके जहर के कारण। परंतु जहर से ही तो उनका जीवन है। वहीं तो उनका रक्षा कवच है। अगर वो न हो तो लोग उसे गले में पहल कर घूमते नजर आते आपको सब लोग।

कभी किसी युग में यह पांडवों की राजधानी रही जो इंद्रपस्‍थ कहलाती थी। तब भी यहां आदिवासियों की बहुतायत थी। और इसे नाग नगरी भी कहा जाता था। अरावली पर्वत की तो रीढ़ ही था दिल्‍ली। न जाने क्यों इस खांडव वन को उन्‍होंने जला दिया था। और हजारों जानवरों के साथ कितने कीट प्राणियों का मार गए होंगे। उन पांडवों ने,  इतनी हिंसा अपने रहने के लिए की विश्वास नहीं होता....इसके पहले कहते था ये इंद्रप्रस्थ राजा ययाति की यही राजधानी भी थी। ययाति नाहुष का पुत्र जिसने कहते थे इंद्र को भी हरा कर इसे जीता था। असल में शायद दिल्ली ही वह जगह थी जहां के राजा को इंद्र कहा जाता था। जो इसे जीत लेता वह इंद्र जीत कहलाता था। जगह भी अपने में कितना गुण गौरव समेटे रहती है। अंग्रेजों ने कैलीकट को राजधानी बनाया परंतु बाद में इसे मुगलों ने भी अपनी राजधानी बनाना ही पड़ा और अंग्रेजों ने भी कैलीकट को छोड़ कर दिल्‍ली में आना पड़ा न जाने इस दिल्‍ली को वरदान था या श्राप परंतु मैं तो बस इतना जानता हूं सच दिल्‍ली ऋतुओं का संगम स्‍थली था। और पठार और सपाट मैदानों का मधुर संगम भी। न ही अधिक ऊंचे पठार था और आस पास खुले मैदान था जिससे उपज पैदा कि जा सकती था। और मिट्टी तो कमाल की थी दिल्ली की। इतनी चिकनी और इतनी ही मुलायम दोमट मिट्टी में ये गुण नहीं होता वह सख्त होती था और चिपचिपी भी। दोमट मिट्टी सुख कर एक दम लोहा हो जाती था। लेकिन हमारी दिल्‍ली की मिट्टी धूप जरा उस पड़ी नहीं भुरभुरा कर बिखर जाती था। चिकनाई के साथ मुलायम भी होती है। और रंग तो मानो पिताम्बर समेट हुए हो। जिसके कारण पेड़ पौधों का अपनी जड़े जमाने में भी आनंद था और मजबूती भी।

यहां पर कुदरत का सौंदर्य तो चारों और बिखरा पड़ा रहता है। परंतु देखने के लिए हमारे अंदर गहराई एक ठहराव होना चाहिए। इस गहरे नाला में इस समय पानी था, जरूर परंतु वह एक पतली लकीर बन टेढ़ा—मेढ़ा बलखाता अपनी नजाकत को लिए रेंगता सा चल रहा था। सच जल ही जीवन था आप जब तक जल के इतना पास नहीं जाओगे तब इसे नहीं महसूस कर सकोगे। हजारों लाखों प्राणियों और कंदमूल को जल ही जीवित रखे था। इस तरफ घास बहुत बड़ी नहीं थी। और गहरा नाला पार करने के बाद तो घास का नामोनिशान नहीं था। वहां थोड़ा ऊपर चढ़ने पर थोड़ी सी ढलान थी। जिससे पानी कम ठहरता था इसलिए वहां घास कम होती थी। वहां पर अधिक जीवट प्रकृति के पेड़ पौधे ही होते थे। भांखडियों की यहां प्रचुर मात्रा में बेले थी इसलिए मैं पगडंडी पर ही चल रहा था क्यों उसका फल बहुत कांटेदार होता था, वह जमीन पर इधर उधर फैला बिखरा होता था।

मुलायम घास खाने के बाद मैंने पानी पिया और एक तरफ जाकर पेट में जमीं मैल को उलटी कर निकलने लगा। ये प्रक्रिया काफी खतरनाक थी। क्‍योंकि सब घास पेट के जहर को बहार नहीं ला सकती थी। परंतु इस डाब के किनारे बहुत मुलायम और तीखे होते है। इस तरह से पेट खाली करने के बाद मैंने चैन की सांस ली और जाकर थोड़ा पानी पीया। इतनी देर में मम्‍मी पापा पास आते नजर आ गये। पापा जी जब भी गहरे नाला को पार करते थे तो किस तरह बच्‍चों की तरह से भाग कर एक लंबी छलांग में पानी को कूद जाते थे। उस आड़ी टेढ़ी पगडंडी को एक ही बार में कूदना कठिन जरूर था। मैं भी उनकी और लपका और मैं पहले मम्‍मी के पास गया और फिर पापा जी से पहले उसे एक ही बार में कूद गया। पापा जी कहने लगे वाह पौनी तुम तो अब जवान हो गए हो। ऊपर चढ़ते ही मुझे एक तीतरों का झुंड जो दीमक को खा रहा था दिखाई दिया मेरा शिकारी मन जो अचेतन में कहीं दबा पड़ा था जाग गया। मैं जमीन पर लेट कर बिना आहट किए हुए उनकी और बढ़ने लगा ये देख कर पापा जी हंस रहे थे। उनको इस तरह से हंसते देख मेरा ध्यान भंग हो गया तभी मेरे पैरो की आहट से वह तीतरों का झुंड एकदम से फूर्र से उड़ गया। पास के पेड़ पर बैठा मोर किस तरह से डर कर पीओं.....पीओं ....की कर्क नाद कर उठा था।

उसकी इस डर भरी आवाज से चारों और मोरों की पुकार गुंज उठने लगी। मैं सोचने लगा कि ये पशु पक्षी भी अपने साथियों को किस तरह से खतरे से आगाह कर देते है। चढ़ाई पर चढ़ने के बाद राम तला का वह तालाब आता था जिसमें हमेशा पानी भरा रहता था। बच्‍चों के साथ अकसर पापाजी इस तरफ नहीं आते वह घूम कर खुले मैदान से होते हुए दोनों नालों को पार कर जाते थे। वह रास्‍ता कुछ लम्‍बा था। परंतु यह रास्ता उस रास्ते से थोड़ा छोटा परंतु था खतरनाक। पास ही जंगली गायों का झूंड पीपल और नीम के पेड़ों के नीचे बैठे जुगाली कर रहा थे। हमें देख कर उन्‍होंने एक बार कान खड़े किए और फिर अपनी मस्‍त जुगाली करने लगे। उनके पास कुछ छोटे बछड़े आपस में अपनी ताकत आजमाईस कर रहे थे। मेरा मन हुआ की मैं भी उनके पास जाकर उन्हें कुछ डराऊँ....परंतु एक तो पापा जी मना कर देने का डर। दूसरा अपना पुराना अनुभव जो अति कटु था उसे याद कर में डर गया था। किस तरह एक सांड ने मुझे अपने सींगों पर उठा कर दूर फेंक दिया था। भला हो वहां रेत थी नहीं तो उस दिन मैं तो मर ही गया था। तब मुझे पता चला की ये तो बहुत खतरनाक प्राणी है।

तालाब के दूसरी और जहां पेड़ पौधों के झूंड और कीचड़ थी वहां सफेद भक अपने पैरो को आधे कीचड़ में डुबाए कीड़े मकोड़े खा रहे थे। उनकी पानी में बनती परछाई कितनी सुंदर लग रही थी। अब हम एक खास ऊंचाई पर आ गये थे जहां से आगे खड़ी चढ़ाई शुरू हो जाती थी। वहीं पास ही गांव का दादा भैया था जो दूर से अपने सफेद झंडे के कारण दिखाई देने लग जाता था। उसके पास जाते ही मन एक दम शांत हो जाता था। मम्‍मी जी तो जब भी जंगल में इधर आती यहां पर जरूर बैठा कर कुछ देर ध्‍यान करती थी। उसे न तो मंदिर ही कहा जा सकता था और नहीं शिवालय। वह एक पत्‍थरों का ढेर का बना एक चबूतरा था,  और बीच में एक पक्की मढ़ी बनी था। जिसके आस पास कुछ दीपक रखे थे जो कभी लोगों ने जलाये होंगे। प्रत्येक गांव का एक ग्राम देवता होता है। कहते है वह गांव खेड़े की रक्षा करता है। यह एक प्राचीन धारणा है आदमी को साहास देने के लिए की हम अकेले नहीं कोई उर्जा हमारे साथ हमेशा मदद के लिए तत्पर रहती है। उस जगह के आसपास नीम के पैड़ बहुत थे, एक केरी का पेड़ तो बहुत ही बड़ा था उसकी मोटाई को देख कर लता था, जरूर वह दो सो-तीन सो साल पुराना होगा। इसलिए वहां की छांव में एक तरह की गंध थी। जो नथुनों में भर रही थी परंतु इसके बाद जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाते थे नीम विलुप्त हो रहे थे। पहाड़ की एक खास सच्‍चाई तक पीपल बना रहता था क्‍योंकि शायद वह अधिक संवेदन शील और अति सधन था। वह अपने साथ एक विराटता लिए खड़ा रहता है, उसके आस पास आप उसकी फैली पूर्णता को महसूस कर सकते हो।

लेकिन खजूर तो दुर्लभ था अकसर वह इतनी उंच्‍चाई पर जीवित नहीं रहता। परंतु ये चमत्कार आपको पूरी अरावली में मिल जायेगा। आप यह देख कर थोड़ा दंग तो रहना ही होगा की यहां और खजूर? यहां एक पूरा—पूरा झूंड खजूर के वृक्षों का झुरमुट था। जो आपका ध्‍यान अपनी और जरूर खिंचेगा। विकास प्रकृति का मूलभूत नियम है। नीचे जो भूरे—भूरे पठार थे जिन्‍हें बजरी खान के नाम से जाना जाता था जो अभी अपने विकास क्रम में थोड़ा पीछे थे। वहीं समय पाकर किस तरह से कठोर पत्‍थर का रूप बन जाते है। वहां से बजरी निकालने के कारण आज भी उन खानों की गहराई काफी अधिक थी। प्रकृति तो बेचारी हर आदमी की छेड़ छाड़ के साथ लयबद्ध हो जाती है। कभी सालों पहले जब इन जगहों से बजरी निकाली गई होगी तब ये कैसी वीरान बन गई होंगी। परंतु अब प्रकृति ने इसे सौंदर्य से भर कर कितना लवरेज कर दिया था। प्रकृति हर स्थान व वस्तु का पूर्णता से इस्तेमाल करना शुरू कर देती है। बरसात के समय में ये खाने एक लम्‍बी झील की तरह से भर जाती थी। और साल भर पानी अपनी गोद में समेटे रहती थी। जिससे आस पास के किनारे भी अपना एकांत पा कुछ झाडियों को उसने पास उगने में मदद कर रही थी। जो मनुष्य नहीं कर पाता उसे प्रकृति किस सहज-सरल रूप में करने लग जाती है। पेड़ पौधों के साथ-साथ जीव जंतुओं की प्यास भी बुझाती थी। क्‍योंकि वहां पर अब कुछ खास किस्म की झाडियों उग गयी थी। परंतु वहां तक पहुंचना कठिन ही नहीं दुरूह था। और इसके साथ-साथ इसके चारों और समय के साथ कुछ दुर्लभ जाती के वृक्ष पनपने लग गये थे....जैसे सहमल....आम....शहतूत....अनार......और अमलतास जो इन दिनों तो अपने फूलों से पूरे जंगल और पक्षियों को मदहोश बना रहे थे। शायद इनके बीज पक्षियों के खाने के कारण यहां पहुंचे गए होंगे। अभी कुछ दिन पहले तक पूरा जंगल जो लाल रंग के फूलों से सज़ा था। क्‍योंकि ढाक सहमल और बोगन बिल्ला की बहार थी। और अब सब जरा जी गर्मी के कारण उदास हो मुरझा गये थे। सहमल की रूई तो पूरे जंगल में आप झाड़—झाड़ पर सजे पाओगे।

ये वृक्ष किसी के बोये हुए नहीं थे, ये अपने से ही खुद आकर अपना आस्‍तित्‍व बना कर खड़े हो गये थे। इसलिए आप जंगल में उगे वृक्ष या पेड़-पौधों और घर में उगे गमलों में उगे पेड़—पौधों में गुणात्मक भेद पाओगे। वह मनुष्‍य द्वारा रोपे गये थे, वो आश्रित थे मानव पर उनकी अपनी जीवेषणा का इतना महत्व नहीं था। अगर उन्हें आप दो—चार पानी न दे तो कैसे उदास हो जाते थे। मैं खुद घर पर देखता हूं पापा जी किस जतन से उन बड़े-बड़े पेड़ों को पानी डालते थे। फिर भी अगर किसी दिन पानी न दिया जाये, तो किस तरह से अपने पत्‍तों को लटकाकर उदास खड़े हो जाते थे। यहां के साल-महीने पानी का इंतजार करते हंसते खिलखिलाते से लगते है सारे पेड़-पौधे। कैसे प्रत्येक वृक्ष आसमान की और निहारते ये एक उपासना भरा इंतजार करते इनमें देव भाव लिये थे। देखो इनके चेहरे पर आप कोई उदासी नहीं ढूंढ पाओगे, सूखी से सूखी कठोर जमीन पर भी उस वृक्ष को नाचता हंसता हुआ ही आप पाओगे। चाहे वह गरमी के मारे तप रहा हो। कभी कोई शिकायत का भाव उसने चेहरे पर नजर नहीं आने देता है।

दूर दराज तक आज कोई चरवाहा भी नजर नहीं आ रहा था। जंगल में एक तरह का सन्‍नाटा था। अचानक कहीं दूर से तेज हवा का एक झोंका आया वह अपने अंदर एक तरह का गीलापन और सुगंध लिये था जो मेरे नथुनों में भर गया। पाँच मिनट में ही आसमान काले घने बादलों से घिर गया। लगी तेज हवा चलने जो धीरे—धीरे उसने विकराल रूप ले लिया था। पापाजी समझ गये की अब आंधी आने वाली थी। परंतु हम जंगल में इतनी दूर जा चूके थे कि भाग कर घर नहीं लोट सकते। आस पास की जगह देख कर पापा जी उस खंडहर नुमा दीवार के दूसरी और चले गये....जहां पर कुछ मकानों के अवशेष बचे थे। छत तो उनकी नहीं थी परंतु उनकी चार दीवारी अभी बची हुई थी। उन्‍हीं के बीच में एक विशाल बरगद का वृक्ष था। जो अपनी विशालता के कारण जंगल में कहीं से भी देखा जा सकता था। इसके पास आने के लिए कितनी ही बार मेरा मन करता था। परंतु यह इतनी दूर दिखता था कि या हमारे रास्‍ते से दूर बहुत दूर पड़ता था।  जिसे केवल मैं उसे देख ही सकता था उसके पास जा नहीं था। कुछ ही देर में ठंडी मोटी बुंदे गिरनी शुरू हो गई। और तेज हवा बादलों को झकझोर रही थी। तेज गड़गड़ाहट के साथ बिजली कौंधी और हमारी आंखें चौंधिया गयी। मानो वह हमारे सामने ही गिरी थी। और दो मिनट के लिए तो आंखें अंधी हो गयी थी। उस चमक और गड़गड़ाहट से में अनभिग अंजान था। इससे पहले मैंने ऐसा नजारा नहीं दिखा था। मैं बहुत डर गया पापा जी की गोद में जाकर छूप गया। वह प्यार से मेरे सर पर हाथ फेर रहे थे। देखते ही देख बूंदे कब सफेद-सफेद ओलों में बदल गयी इस का किसी को अंदाज ही नहीं था। ओले कैसे बताशे से बिखरे लग रहे थे। एक बार तो मन किया जाकर उन्हें खा लूं परंतु जैसे ही मैं हिम्मत कर बाहर भागा ताबड़-तोड़ ओलों ने मुझ पर हमला कर दिया था। और मैं प्याऊ की आवाज करता पापा जी के पास जाकर सिमट गया। पापा मम्मी के चेहरे पर एक तरह की मुस्कुराहट थी कि देखा हीरो बनने का नतीजा और मैं आज्ञाकारी बच्चे की तरह से पूछ हिला कर बात की हामी भरने लगा। कुदरत भी कैसी है कितनी विकट और रहस्य अपने में समेट हुए चलती है। पल भर पहले कैसा मौसम था कोई सोच सकता था नहीं, और पल में क्या हो गया।

इस सब कारस्तानी से मेरा पूरा शरीर भीग गया था। परंतु अच्‍छा लग रहा था और ये सफेद बरफ न जाने पानी के साथ कहा से आ गई थी। दूर—दूर तक अब सफेद मैदान दिखाई दे रहा था। ऐसा मैंने पहली बार देखा था, कितना सुखद लग रही थी वह सफेद चादर सा विस्तार लिए। परंतु थी कितनी ही खतरनाक सच जो सुंदर होता था वह खतरनाक भी अवश्‍य ही होता होगा। आज का पाठ मुझे ये शिक्षा दे गया था। कुछ ही देर में हवा बदलों को उड़ा कर ले गयी। और अपने पीछे छोड़ गई अनगणित टूटे वृक्ष पत्‍ते और डंडियां जो पल भर पहले अपने वृक्ष से जूड़े थे अब वह जमींन पर पड़े कराह रहे थे।

ये कैसा खेल था कुदरत का जो अभी हंस रहे थे खिलखिला रहे लहरा रहे उसे यूं पल में नोच कर नीचे गिरा दिया। ये तो दर्शन की बातें थी मुझे नहीं करनी चाहिए। परंतु इतना सब होने पर मुझे खीज आ रही थी कि मेरे कारण मम्मी-पापा को भी ये सब झेलना पड़ा। परंतु मैं देख रहा था उनके चेहरे पर जरा भी शिकन या उदासी नहीं थी। कुछ देर और बारिश होती रही परंतु अब ओले गिरने बंद हो गए थे। लेकिन दूर तक जहां-जहां नजर जा रही पहाड़ी एक दम से सफेद हो गई थी। अब हिम्मत कर मैं बाहर निकला और सोचा की ऐसा मोका बार-बार पोनी नहीं आता आज इसे खा कर तो देख। मुझे ओले खाते देख कर पापा जी मेरे साथ आ गए और वह भी घास पर गिरे ओले उठा कर खाने लगे उन्होंने कुछ ओले मम्मी को भी दिए। ये सब देख कर मेरी और हिम्मत बंध गई। मैं भी उन्हें पूंछ हिला-हिला कर खाने लगा मुख में जाते ही कैसे ठंडे लगते और पल में गायब हो जाते। कहां चले जाते ये मेरी समझ के बाहर था।

मुझे नहीं पता था की ये पानी से ही बने थे। और हम आगे की और चल दिया। रास्ते जो अभी सूखे और रेतीले थे वह कीचड़ बन गये थे। इस बात की हम तीनों में से किसी को परवाह नहीं थी। हम तो एक साहसी की तरह चल रहे थे और ऊपर कुछ चढ़ाई चढ़ने के बाद झाडियों छोटी हो गई वहां के पत्थर बहुत बड़े और नीला पन समेटे हुए थे। इनमें कैसा चिकनापन था। और इस बारिश के कारण उनके बीच बने गढ़े पानी से भर गये थे मैंने जी भर कर पानी पिया। और एक सुंदर सा पत्थर चून कर मम्मी पापा उस पर बैठ गये। भूख तो पहले ही थी परंतु इस बरसात ने और जंगल ने उसे दो गुना कर दिया। कुदरत के पास बैठ कर खाने मे कैसा मधुर रस भर जाता था। न जाने कौन आ उसे इतना रसीला बना जाता था।

खाना खाने के बाद पापा मम्मी बैठ कर बाते करने लगे। क्योंकि हम कुछ गीले हो गये थे और अब चटक धूप निकल आयी थी। इस लिए धूप में बैठना सुहाना लग रहा था। इस बीच मम्मी ने खाने के कुछ टूकड़े फांकता चिडियों के लिए ऊंचे पत्थर पर डाले मेरा मन कर रहा था की उस पर चढ़ कर मैं उन्हें खा लू परंतु ये तो अभद्रता थी। कुछ ही देर में वहां चिड़ियाँ के झूंड आ गये और उनका शोर भी कैसा घंटियों सा लग रहा था। वो सब किसी खुशी से खा रही थी। मैंने सोचा मम्मी कितनी अच्छी थी। एक दो रोटी के टुकड़ों से तो हमारा कुछ भी नहीं होता परंतु इन कितनी ही चिड़िया का आज का भोजन हो गया।

मैं आपने चिर परिचित कार्य को करते हुए दूर चला गया। बीच-बीच में टांग उठा कर अपनी सीमा बनाने लगा। मैं जरा भी दूर चला जाता तभी पापा जी आवाज दे मुझे बुला लेते थे। क्योंकि ये जंगल का मामला था, जंगल में समय कैसे गुजरता है उसका पता ही नहीं चला। लो अभी तो आये थे और अभी कि अब घर जाने का समय हो गया। परंतु इस सब के कारण मन बहुत प्रसन्न हो गया था। जो मेरी उदासी थी वह जाने कहां गायब हो गई थी। उस प्रसन्न मन से हम घर की और चल दिये। श्याम के समय जब बच्चे स्कूल से घर आये तो उन्हें बताएंगे की हम जंगल में गये थे। तब बच्चों के चेहरे देखते ही बनेंगे। और उन्हें अपने स्कूल जाना और भी बुरा लगेगा। और देखो तुम नहीं गये जंगल में और देखा मैं गया था। कुछ देर के लिए हो गया ना मैं वी आई पी....और तब बच्चे भी मुझे खुब प्यार करेंगे। और जिद्द भी करेंगे की हम भी जंगल में जायेंगे। तब मेरे और मजे आयेंगे। 

भू..... भू...... भू.....

आज दिन बहुत सुंदर और सुहाना रहा।।

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