अध्याय -44
मेरा नाटक करना
कुदरत का भी अपना
एक काल चक्र होता है। वह खेल रही होती है जरूर, परंतु खेलती सी दिखती
बिलकुल नहीं। खेल और खिलाड़ी उसका एक ही है। यहीं तो प्रकृति का रहस्य। दादा जी की
तमन्ना थी की अब बच्चे बड़े हो गए है उनकी शादी कर दी जाए। परंतु पापा जी ने कहा
की अभी वह पढ़ रहे है उम्र ही कितनी हुई है अभी। वो अपना बोझ तो खुद उठा नहीं रहे
उनकी बीबी बच्चों का बोझ भी मेरे ही ऊपर आयेगा। फिर अभी तो मकान भी बन रहा है। इसे
पूरा तो हो लेने दो फिर देखते है। परंतु दादा जी अपने जमाने के अनुसार ही तो सोच
सकते थे। जैसे उनकी शादी हुई उनके परिवार की शादी हुई परंतु हर युग में समय और
स्थिति बदल जाती है। जो आज आप को सही लगता है वह आने वाले समय में हो सकता है ठीक
न हो। परंतु हमारा मन इस बात को कहा स्वीकार कर सकता है। क्योंकि वह संस्कार कितने
पुराने आपके अंदर दबे हुए है। फिर भी कुछ बात तो जरूर उनकी समझ में आई होगी की सच
ही अभी कुछ भी तो नहीं कमा रहे तब बोझ किस पर आयेगा।
परंतु दादा जी अंदर से इस बात को स्वीकार किया या नहीं कह नहीं सकते। लेकिन वह आजकल खुश बहुत ही रहते थे। इतनी उम्र में भी घंटों पूरे घर देखते थे। प्रत्येक कोने को देखते और राम रतन से पूछते कि कल क्या करना है। घंटों ईशाद से या फिर मूर्जी साहब से बाते करते थे। काम की जो गति थी इससे लगता था की ओशोबा हाऊस इस साल तो बन कर तैयार हो ही जायेगा। ये कितनी अच्छी बात थी की दादा जी अपनी आंखों से अपने महल से घर को बनता हुआ देख रहे थे।
कभी उन्होंने भी इस मकान को बनवाया था अपनी सामर्थ्य से कहीं अधिक ताकत लगा कर। परंतु इसे और-और अति सुंदर होते देखना कितने माता-पिता का भाग्य होता है। अब तो हम घूमने भी नहीं जा सकते थे। लेकिन कभी-कभी मैं अकेला ही जंगल में निकल जाता था वहां दादा जी मुझे मिल जाते थे। परंतु नाला पार कर जहां पर वह बैठ कर ध्यान कर रहे होते थे। मैं उनके पास ही बैठ जाता था। जब वह आँख खोलते तो देखते की पोनी तू कैसे आ गया क्या मनसा भी आया है। परंतु पापा जी तो इस समय या तो काम करा रहे होते या फिर दुकान पर होते अकसर तो पापा काम ही करते रहते थे। दुकान पर श्याम के समय कम ही जाते थे।क्योंकि जब टाईल लग
रही होती थी तो मैं देखता था एक-एक पीस काट कर राम रतन को देना होता था। काट तो वह
भी सकता था परंतु इससे काम की गति बहुत कम हो जाती अब कटा हुआ पीस उसके हाथ में आ
जाता था। बस उसे तो उसमें सीमेंट ही तो लगा कर चिपकाना होता था। परंतु दोनों का
ताल मेल गजब का होता था। इस से तो काम की गति दिखाई दे रही थी। इसमें पापा जी का
हाथ बहुत था। दादा जी मुझे जंगल में अपने पास पा कितने खुश होते थे। जैसे हम परदेश
में कोई अपने देश का एक अंजाना व्यक्ति भी मिल जाए तो कितने अपने पन का भान होता
है। वो मुझे खुब प्यार करते फिर हम आगे तक घूमने के लिए उनके साथ चले जाता था।
पाता नहीं वह मेरे लिए कर रहे थे या मेरे सहारे से वह और आगे तक धूम कर आ रहे थे।
परंतु मुझे डर था की पापा जी को पता चल गया तो डांटेंगे कि तूने अपनी आवारागर्दी
अभी छोड़ी नहीं परंतु शरीर भले ही बूढ़ा हो जाये परंतु मन तो करना है अपने जंगल को
अपनी मिट्टी को मैं कैसे भूल सकता था। हम दोनों दूर तक निकल जाते और अब तो दादाजी
से भी मेरी गहरी दोस्ती हो गयी थी।
इतना घूमने के बाद
घर पर आकर मुझे भूख भी लगती और रात को नींद भी खुब आती थी। परंतु दादा जी मुझे
हमेशा नहीं मिलते थे। जब कभी नहीं मिलते तो मैं थोड़ी दूर से ही वापस उदास मन से
घर लोट आता था। शायद दादा या तो उस दिन श्याम जंगल गए ही नहीं या फिर दूसरी और चले
गये होंगे।
अबकी बार जब राम
रतन होली पर घर गए तो बच्चे भी छुट्टियों में घर आये हुए थे। वरण भैया जो लखनऊ से
लोट कर आया तो कितना पतला हो गया था। पहले भी वह कोई खास पहलवान नहीं था। परंतु
बीच में आपरेशन के बाद उनकी सेहत ठीक हो गई थी। लेकिन अब वह बड़ा और लम्बा हो गया
था। उसके चेहरे पर दाड़ी मूंछ निकल आई थी दूर से देखने पर ऐसा आभास होता था जैसे
की पापा जी खड़े हो। जब मैं छोटा सा इस घर में आया था तो पापा जी की दाढ़ी बहुत
बड़ी नहीं थी। एक दम वरूण भैया पापा की तरह से दिखते थे। तब मम्मी-पापा ने पूना
जाने का विचार किया। की तीन साल हो काम में कटते हुए अब तो काम खत्म ही हो रहा था।
बस इस साल के अंत तक तो पूरा जरूर हो जायेगा।
अब जैसे ही मुझे
पता चला की मम्मी-पापा जा रहे है तो मेरा तो मन ही बैठ गया। पास रहने से ही प्रीत
बढ़ती है। इन दिनों मैं केवल मम्मी-पापा जी के साथ ही तो रहता था। सब तो अलग-थलग
हो गए थे। परंतु मैं क्या कहूं अपना दर्द किस को कहूं परंतु कुछ भी मुझे समझ में
नहीं आ रहा था। पापा-मम्मी को छोड़ने कर मेरा मन किसी के साथ नहीं लगता था। क्या
ऐसा नहीं हो सकता की वह मुझे अपने साथ ले कर जाए। या फिर न जाये पूरा तो होने वाला
है ओशोबा हाऊस तब आराम से चले जायें। मन भी कितना पागल होता है। वह केवल अपने विषय
में सोचता है। उसे सामने वाले के बारे में कोई मतलब नहीं की वह क्या चाहता है।
मम्मी-पापा इतने दिन से लगातार काम करते-करते कितनी थक गए होंगे। अगर वहां जाकर
कुछ अपनी हवा पानी बदल ले तो उसके मन-मस्तिष्क को आराम दे देते तो कितना अच्छा
होता। परंतु मैं कितना नालायक हूं, अपनी और देखता हूं तो सोचता
हूं कि मैं तो सारा दिन आराम करते-करते भी थक जाता हूं। सच मैं कितना स्वार्थी हो
गया था। आज जब मैं दूर खड़ा हो कर सोचता हूं तो लगता है कि मैंने सच ही मम्मी-पापा
के साथ अन्याय किया था। मुझे ऐसा कभी नहीं करना चाहिए था।
ठीक वही दिन था जिस
दिन मम्मी पापा जी की रेलगाड़ी पकड़नी थी। उन्होंने शायद सोचा होगा की आज पोनी को
कुछ घूमा लाते है। फिर तो बेचारा बहार कम ही जा पायेंगे। वह मेरा जाते-जाते भी भला
ही सोच रहे है और मैं हूं कि उनकी जड़े काट रहा हूं। इसलिए वह मुझे कुछ जल्दी ही
पास एक के जंगल में घुमाने के लिए ले गए। जो गांव से थोड़ा सटकर पास दाई और पड़ता
था। उसके दो और तो एअर र्फोस, वायरलेस के तार लगे हुए थे। एक और गांव
का मेन रोड सटकर गुजरता था। वैसे वो हिस्सा भी अरावली पर्वत माला का ही हिस्सा था।
काफी बड़ी जगह है वह भी। अब अकसर लोग इस में ही घूमने जाने लगे है उधर कम ही लोग
जाते है। करीब दो-तीन मील लम्बा जंगल था, वहां पर गांव के
लोग सुबह-श्याम घूमने के लिए जाते थे। परंतु अरण्य और जंगल में यही विभेद होता है,
जंगल मानव के कदमों की छुअन को अपने अंग-संग समेटे रहता है, अरण्य एक अनछुआ जंगल जहां केवल प्रकृति उसे बनाती संवारती है। मुझे तो
अपने घर वाले जंगल में ही घूमने का मजा आता था। ये भी कोई जंगल हुआ इसे एक बड़ा सा
पार्क कह सकते हो। यहां के रास्ते पर तो लाला बदरपूर बिछा रखी थी। जो रास्ते बना
रखे थे उसके दोनों और पत्थर भी लगा रखे थे। इस जंगल में पानी के दो बोरिंग भी थे।
जिससे पेड़ पौधों को सिंचाई की जाता थी।
तीन शब्द हो गए
जंगल,
बन और अरण्य। तीनों में बहुत ही भेद है। जंगल वह जो मानव के हाथ की
छुअन से अपनी निजता को खो देता है। यहां मानव के पद चाप उसके सीने पर उगी वह
मुलायम घास को सपाट बना देते है। और बन वह जो मानव की पहुंच तक तो हो परंतु उसके
साथ मानव संवाद बहुत ही कम हो। जिसके अंतर में वह हस्तक्षेप कम से कम करें। इस तरह
से ये जंगल था और नालों की और जहां मेरा जन्म हुआ था वह बन था। और अरण्य तो एक ऐसा
जंगल होता है जिस में मानव गंद तक न मिले, न ही उसके पैरो के
निशा। एक दम अनछुआ लेकिन अब तो हम इस जंगल को पार्क बना कर उसमें ही सौंदर्य देखने
लग गए थे। परंतु मुझे यहां जरा भी मजा नहीं आता था। न ही मेरा मन यहां आने को करता
था। परंतु ना से तो अच्छा ही था। अब हम गांव से सड़क के पास ही गए थे और मैं बैठ
गया। पापा जी ने लाख कोशिश की परंतु मैं उठने को तैयार नहीं हुआ आस पास के कुत्ते
अलग परेशान कर रहे है कि ये कहां से आ गई आफत एक बीमारी। न जाने क्यों सभी गांव के
कुत्ते मुझसे बहुत ही चिड़ते थे। झूंड के झूंड मुझ पर ही नहीं पापा जी पर भी भोंक
रहे थे। कि यहां क्यों खड़े हो आगे बढ़ो। गुस्सा तो मुझे भी बहुत आ रहा था। परंतु
मैं चेन से बंधा होता था। और अगर जोर लग कर उनकी और झपटता तो पापा जी के हाथ पर
बहुत जोर पड़ता जिससे वह गिर भी सकते थे। इसलिए केवल मैं उन पर गुर्रा कर ही रह
गया था। वो सारे के सारे कुत्ते मेरा वहां बैठना स्वीकार ही नहीं कर पा रहे थे।
आखिर कार
पापा-मम्मी मुझे आगे जाता न देख कर कुछ घबरा गए की न जाने इसे क्या हो गया। घर आते
हुए रास्ते में भी मैं बैठ गया। पापा जी मेरे सर पर प्यार से हाथ फेर रहे थे। मैं
उन्हें निरीह नजरों से देख रहा था। पापा जी मेरा इस तरह से देखना वह समझ गए की
जरूर कोई गड़बड़ है। दुकान पर तो इस समय भैया जी आ गए थे क्योंकि अब तो उनको ही
15-20 दिन काम करना था। मम्मी पापा ने अपने पूरे सामान की पैकिंग कर ली थी। शायद
टिकट भी करा ली थी। मैं द्वंद्व में फंस गया था। क्या करूं और क्या न करूं एक तरफ
तो मुझे बहुत बुरा लग रहा था दूसरी तरफ मन बहुत बेईमान था वह अंदर से धक्के मार
रहा था की ये मोका मत चूक थोड़ा सा दर्द का बहाना बना कर लेट जा। शायद तेरा काम बन
जाए।
और मैं घर जाकर भी
एक कोने में जाकर लेट गया। मन तो उदास था। मेरे पेट में या कहीं कोई दर्द नहीं हो
रहा था। बस मैंने अपने चेहरे पर ऐसा दिखावा कर रखा था की मुझे बहुत दुख है। और मैं
कुं...कुं....कर रो भी रहा था। जब की मैं इस तरह से कभी नहीं रोता था। चाहे मुझे
कितना ही दर्द क्यों न हो। इसके अलावा कई बार मैं किसी कमरे में बद रह जाता था। तब
भी न तो कभी रोता था और नहीं भोंकता था। मेरे इस तरह से रोने से सच ही मम्मी डर गई
और कहने लगी की पोनी की जरूर ज्यादा तबीयत खराब है। इसे इस तरह से छोड़ कर इतनी
दूर नहीं जाया जा सकता अगर इसे यहां कुछ हो गया तो वहां से हम इतनी जल्दी आना भी
नहीं सकता है। सो मेरे ख्याल से अब आप वहां जाने का प्रोग्राम रोक दो। अब क्या
किया जा सकता था मम्मी पापा दोनों मेरे को कितना प्यार करते थे। ये देख कर मेरी
आंखों में आंसू आ गए। और में कितना गिरा हुआ धूर्त हूं जो उन देवता समान लोगों को
धोखा दे रहा हूं। और वो भी इस लिए की वह न जा पाएं।
मैंने कुछ न ही
खाया और न ही पिया,
मैं इसी तरह से लेटा रहा, शायद मम्मी जी दुकान
पर चली गई और पापा जी ने मेरे सर और पेट पर प्यार से हाथ फेर कर मेरे दर्द को कम
करने की कोशिश कर रहे थे। पोनी तुझे क्या हो गया है तु मुझे कुछ बतलाएगा। मैं कतार
आंखों से केवल पापा जी को निहारता रहा। एक-दो घंटे बाद मुझे एक चेन से बाँध कर पाप
और वरूण भैया दुकान के पास ले गए। मैं धीरे-धीरे चल रहा भैया ने कार खड़ी की और
मैं उस पर चढ़ कर बैठ गया। कुछ ही देर में वहीं चिर परिचित डा0 की दुकान आ गई थी।
मैं घबरा रहा था की मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं जायेगी। जब पहले बहुत बीमार हुआ था तो
इसी डा0 ने मुझे ठीक किया था। मुझे मुख पर छींका लगा कर वरूण भैया ने ऊपर एक टेबल
पर लिटा दिया मैं आँख बंद कर के लेट गया। डा0 ने अच्छी तरह से चेक कर कहां की इसे
तो कुछ भी नहीं है यह तो एक दम से ठीक है। पापा जी ने मेरी आंखों में देखा और समझ
गए की मैं नाटक कर रहा था। तब पापा जी ने डा0 को कहा जब आया है तो एक ग्लूकोज तो
चढ़ा ही दो इस बेचारे को। कुछ तो इसे भी मजा आए। डा0 मेरा मुख देख रहा था की क्या
मैं इतना बड़ा कलाकार हूं। और फिर पैर पर सूई लगा कर मुझे एक ग्लूकोज की बोतल चढ़ाई
गई। फिर हम घर आ गए। एक तरफ तो पापा जी और वरूण खुश थे की पोनी बीमार नहीं था।
दूसरी और पापा जी की ट्रेन तो चली गई। अब पापा जी और मम्मी जी मुझे नाराज होंगे ये
सोच कर मैं उनसे मुंह छिपाता हुआ इधर उधर फिर रहा था। परंतु मम्मी जी ने मेरे पास
आकर कहा कोई बात नहीं हम अगली बार पूना चले जायेंगे। अपने राजा बेटे को इस हालत
में छोड़ कर कैसे जा सकते है।
श्याम तक मेरी इस
बात की चर्चा होती रही इस चर्चा से दादा जी तो बहुत खुश थे। कि जब ध्यान करने की इतनी अच्छी जगह घर पर ही
बन गई है तो वहां जाने की जरूरत है। और पोनी भी गजब कर गया और दादा जी इस बात से
प्रसन्न थे अब ये मुझे नहीं पता की अंतस से दादा जी भी नहीं चाहते थे कि
मम्मी-पापा इस समय मुझसे कही दूर जायें। मैं अपने गलती को मान रहा था। परंतु
पापा-मम्मी इतने दिनों बाद तो दोनों विश्राम के लिए जा रहे थे। नहीं तो सारा दिन
दुकान पर कटते मरते रहते थे। परंतु अब मैंने सोच लिया था ये सब ठीक नहीं है मुझे
ऐसा करना नहीं चाहिए था। खेर कर लिए तो कोई बात नहीं वरना तो सच ही मुझे सज़ा
मिलनी चाहिए थी। ये एक प्रकार से अपनों से प्रेम करने वालों के लिए धोखा है एक छल
है।
परंतु आगे से इस
तरह की हरकत या कोई भी छल न करने की कसम खा ली थी। की अब कभी भी झूठ नहीं बोलूंगा।
और जब श्याम को पापा और बच्चे जंगल जाने के लिए तैयार हो रहे थे तो मैं बड़ी आफत
में था की एक बीमार आदमी कैसे जंगल में जा सकता था। परंतु मुझे भी साथ ले जाया
गया। और खूब देर तक हम से ने जंगल में जाकर मस्ती की सब कितनी खुश थे। पापा जी हंस
रहे थे वह जान गए थे की यह मेरी शरारत थी। उसका कारण कुछ भी हो सकता है। उसे प्रेम
कहो स्वार्थ कहो,
चालबाजी कहो परंतु ऐसा मैंने किया था। मौसम बहुत सुहाना था। जंगल की
वो घास जो हरी होने पर सूख गई थी। अब एक स्वर्ण परत की तरह चमक रही थी। जंगल में
इस समय जंगली फल लगे थे बैरे के साथ और भी बहुत कुछ हमारे गांव के जंगल में हमेशा
आपको खाने के लिए कुछ न कुछ जरूर मिल ही जायेगा।
इसी सब फल-फूलों या
घास आदि से जंगली जानवर पक्षी जीवित रहते थे। उन सब को जंगल के फल फूल खाकर ही
जीवन यापन करना होता था। हम तो इसे एक शोक की तरह से खाते है। लेकिन उनका तो जीवन
संघर्ष था। मैंने देखा जिन झाड़ियों पर बैर लगे थे उनके पास नीचे कुछ बैर की गूठलियां
पड़ी थी। पापा जी दीदी को बता रह थे कि देखा हम पोनी को खाने को बेर देते है। एक
तो वह मन मार कर खाता है। दूसरा वह उसे गूठली समेत ही खा जाता है जबकि ये गूठलियां
देख रही हो ये शायद गीदड़ों की खाई हुई है। किस अंदाज से वह तोड़ते है और फिर केवल
उसका गुदा-गुदा ही खाते है। इतना भेद होता है पालतू जानवर और जंगली जानवरों में वह
यहीं नहीं खाते,
गिलोट, धौलफूल्ली, काली
मेवा, रामचने.....के अलाव भी बहुत कुछ है जिस सब के कारण ही
वह बेचारे जीवित रहते है। दूर से दादा जी अपना डंडा टेकता हुए अपने एक मित्र के
साथ आ रहे थे। उनके मित्र का भी मैं जानते हूं, वह पापा जी के पास भी आते थे। कई
बार मैंने उन्हें घर पर ध्यान के लिए आते हुए देखा था। वह बहुत सरल स्वभाव के
व्यक्ति थे। सर पर सफेद साफ, पैरों में जूती, हाथ में डोगा, और सफेद कुर्ता उन पर जंचता था। पापा
जी से पहले वह एक आर्य समाजी थे। कहते है उन्होंने जीवन भर विवाह नहीं किया। उन की
वह तपस्या थी जिस सब के कारण पूरा गांव उन्हें महाशय जी के नाम से पुकारते थे।
वैसे उनका पूरा नाम जिले सिंह था।
पास आने के बाद
बच्चे भाग कर दादा जी के पास चले गए। मैं तो सबसे आगे था। दादा जी ने सब को प्यार
किया मेरे सर पर भी हाथ फेरा और कहने लगे की ज्यादा आगे नहीं जाना अब अँधेरा होने
वाला है। दिन अब छोटे हो रहे है। उसके बाद बच्चे आगे गहरे नाले तक गए वहां की
झाड़ियों से थोड़े बेर खाए। और आज पापा जी एक खुरपा और बोरी लेकर आये थे ताकि नाले
के पास उगी थोड़ी सी फर्न फाड़ कर घर पर उगाई जाए। ये जंगल फर्न कितनी मजबूत और
सुंदर होती है। इसकी तेज गंध आपके अंदर तक उतर जाती है। इस तरह से एक पौधा जंगली तुलसी
होती है जिस के बीज भी कभी-कभी पापा जी तोड़ कर लाते थे। फिर उसे ध्यान के कमरे
में या कहीं भी रख दो तो उसकी सुगंध से आस पास मच्छर नहीं आते।
अब फर्न को निकालना
बड़ी टेढ़ी खीर थी। पापा जी ने जूते और पैंट उतर कर पानी के अंदर जाना पड़ा था।
क्योंकि वह उगी ऐसी जगह होती थी जहां पर मानव की पहुंच न हो। कितनी मेहनत से पापा
जी उस फर्न को निकाला। और उपर बैठे भैया वरूण के हाथ में देते रहे। मैं ये सब देख
रहा था की आदमी भी कैसा पागल है। क्या-क्या करता रहता है। अब भला इस सब को करने की
क्या जरूरत है। अरे यहीं पर आनंद ले लो। चार पैर मारे नहीं की आप पहुंच गए नाले के
पास।
और एक मजे की बात
की इस मेहनत से जिस फर्न को निकाल कर पापा जी घर ले कर गए वहां पर वह चार पाँच दिन
में मुरझाने लगी। खूब मेहनत करने पर भी वह कर वह घर पर वह पैदा भी नहीं हुई। उसे
उसी तरह के माहौल में छांव एक दम से बोया गया। परंतु वह देखते ही देखते मर गई। पाप
जी भी किया तो अच्छा और उसका फल भी नहीं मिला। इसलिए आप जब भी किसी जंगली पौधे को
घर में लाकर उगाओगे तो उसके होने की संभावना न के बराबर ही समझो। सब अपनी ही
प्रकृति के हिसाब से जीवित रहते है। घर पर उगे या नर्सरी में उगे पेड़ पौधे भी
सारे कहां हो पाते है।
दूर सूर्य देवता अब
जाने की तैयारी कर रहे थे। पापा जी जब पानी से बहार निकले तो घूटने तो वह कीचड़
में सने थे पहले तो उन्होंने एक तरफ बैठ कर हाथ पैरों को अच्छे से धोया और फिर
कपड़े पहने फिर चली हमारी झांकी घर की और मैं उस थैले में झांक कर देख रहा था। जिस
में उस फर्न को रखा था। सच ही उसकी खुशबु बहुत मंद और मोहक थी। अगर घर पर वह लग गई
तो पूरा घर रात के समय महकता रहेगा। परंतु हमारी मेहनत कामयाब नहीं हुई और उस
बेचारी फर्न ने प्राण छोड़ दिये। यहां अपने वातावरण से भी गई और वहां हमारे घर
जीवित भी नहीं रही। खेर दूख तो हुआ। अब क्या किया जा सकता है। दूर सूर्य अस्त हो रहा था और हम सब वहीं से घर के
लिए वापस हो लिए।
भू.... भू.....
भू.....
आज इतना ही।

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