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शनिवार, 19 सितंबर 2009

संतुलन—‘’ध्‍यान’’


लाआत्सेव के साधना-सूत्रों में एक गुप्त सूत्र आपको कहता हुँ, जो उसकी किताबों में उल्लिखित नहीं है, लेकिन कानों-कान लाओत्सेत की परंपरा में चलता रहा है। वह लाओत्से की ध्यान पद्धति का यह है। लाआत्से कहता है कि पालथी मार कर बैठ जाएं और भीतर ऐसा अनुभव कर कि एक तराजू है, बैलेंस लाओत्सेक के साधना-सूत्रों में एक गुप्तर सुत्र आपको कहता हूँ, बैलेंस, एक तराजू। उसके दोनों पलड़े आपकी दोनों छातियों के पास लटके हुए है और उसका कांटा ठीक आपकी दोनों आंखों के बीच, तीसरी आँख जहां समझी जाती है, वहां उसका कांटा है। तराजू की डंडी आपके मस्तिष्क में है। दोनों उसके पलड़ों को अन्दलर से ऐसे महसूस करें की बराबर है, और दोनों का कांटा तराजू की ठीक बीच में है। लाओत्सेर कहता है कि अगर भीतर उस तराजू को साध लिया, तो सब सध जाएगा। लेकिन आप बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे, जरा इसका प्रयोग करेंगे, तब आपको पता चलेगा। जरा सी श्वानस भी ली नहीं कि एक पलड़ा नीचा हो जाएगा, एक पलड़ा ऊपर हो जाएगा। अकेले बैठे है, और एक आदमी बाहर से निकल गया दरवाजे से। उसको देख कर ही, अभी उसने कुछ किया भी नहीं, एक पलड़ा नीचा, एक ऊपर हो जाएगा। लाआत्सेद ने कहा है कि भीतर चेतना को एक संतुलन, दोनों विपरीत द्वंद्व एक से हो जाएं और कांटा बीच में बना रहे। जीवन में सुख हो या दुःख, सम्माीन या अपमान, अँधेरा या उजाला, भीतर के तराजू को साधते चला जाए कोई, तो एक दिन उस परम संतुलन पर आ जाता है, जहां जीवन तो नहीं होता, आस्तित्वक होता है; जहां लहर नहीं होती है; जहां मैं नहीं होता, सब होता है।
• ओशो---( ताओ उपनिषद )

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