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शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--4) प्रवचन--69

अनूठा अस्‍तित्‍व में(प्रवचननौंवा)

दिनांक 9 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 
योग—सूत्र :

प्रत्ययस्य परिचित्‍तज्ञानम्।। 19।।
जो प्रतिछवि दूसरों के मन को घेरे रहती है, उसे संयम द्वारा जाना जा सकता है।

            न च तत्सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात्।। 20।।
लेकिन संयम द्वारा आया बोध उन मानसिक तथ्यों का ज्ञान नहीं करवा सकता जो कि दूसरे के मन की छवि—प्रतिछवि को आधार देते है, क्‍योंकि वह बात संयम की विषय—वस्‍तु नहीं होती है।

            कायरूपसंयमत्‍तद्ग्राह्मशक्‍तिस्‍तम्‍भे चक्षु: प्रकाशसंप्रयोगेउन्‍तर्धानम्।। 21।।
ग्राह्म—शक्‍ति को हटा देने के लिए, शरीर के स्‍वरूप पर संयम संपन्‍न करने से द्रष्‍टा की आँख और शरीर से उठती प्रकाश—किरणों के बीच संबंध टूट जाता है, और तब शरीर अदृश्‍य हो जाता है।

            एतन शब्‍दद्यन्‍तर्धानमुक्‍तम्।। 22।।
यही नियम शब्‍द के तिरोहित हो जाने की बात को भी स्‍पष्‍ट कर देता है।


क युवा सेल्समैन ने अपने मित्र से कहा, 'मुझे मेरी योग्यता पर से विश्वास उठने लगा है, आज का दिन बहुत ही खराब रहा और जरा भी बिक्री नहीं हुई। मुझे किसी ने भी घर में घुसने नहीं दिया, और मेरा चेहरा देखते ही लोगों ने जोर से दरवाजे बंद कर लिए, मुझे सीढ़ियों से धक्के मार—मारकर उतार दिया और मेरे सामान के जो नमूने थे, वे भी फेंक दिए और लोगों ने गुस्से से भरकर मुझे गालियां दीं और मेरे साथ मार —पिटाई करने की भी कोशिश की।
उसके मित्र ने पूछा, 'तुम्हारा व्यवसाय क्या है?'
'बाइबिल,' उस युवा सेल्समैन ने कहा।
धर्म एक गंदा शब्द क्यों बनकर रह गया है? जैसे ही धर्म, परमात्मा या ऐसे ही किसी शब्द का नाम लेते ही लोग घृणा से क्यों भर जाते हैं? क्यों सारी की सारी मनुष्य —जाति इसके प्रति इतनी उपेक्षापूर्ण हो गयी है? जरूर कहीं कुछ धर्म के साथ गलत हो गया है। इसे ठीक से समझ लेना, क्योंकि यह कोई साधारण बात नहीं है।
धर्म जीवन की इतनी महत्वपूर्ण घटना है कि मनुष्य धर्म के बिना जीवित नहीं रह सकता है। और धर्म के बिना जीना, बिना किसी उद्देश्य के जीना है। धर्म के बिना जीवन, काव्यविहीन, सौदर्यविहीन जीवन है। धर्म के बिना जीवित रहना उबाऊ है—यही सार्त्र कह रहा है जब वह कहता है 'मैन इज ए यूज़लेस पैशन।धर्म के बिना मनुष्य ऐसा हो जाता है। मनुष्य यूज़लेस पैशन नहीं है, लेकिन बिना धर्म के मनुष्य निश्चित ही ऐसा हो जाता है। अगर तुमसे ज्यादा ऊंचा कुछ न हो, तो फिर जीवन के सारे उद्देश्य तिरोहित हो जाते हैं। अगर मनुष्य को अपने से ऊपर पहुंचने की कोई ऊंची जगह न हो, ऊपर उठने को कुछ न हो, तो फिर मनुष्य के जीवन का कोई लक्ष्य, कोई उद्देश्य, कोई अर्थ नहीं रह जाता है। मनुष्य को अपने से ऊपर उठने के लिए, आकर्षित करने के लिए, उसे ऊपर की ओर खींचने के लिए उससे श्रेष्ठ कुछ होना चाहिए। कुछ इतना श्रेष्ठ होना चाहिए, ताकि वह नीचे अटककर न रह जाए।
बिना धर्म के मनुष्य का जीवन एक ऐसा जीवन होगा जिसमें फल—फूल नहीं आते। हां, तब बिना धर्म के मनुष्य एक यूज़लेस पैशन ही हो सकता है। लेकिन धर्म के साथ होकर मनुष्य के जीवन में एक सौंदर्य और खिलावट आ जाती है, जैसे कि परमात्मा ने उसे भर दिया हो। तो इसे ठीक से समझ लेना कि धर्म शब्द इतना गंदा क्यों हो गया है।
कुछ ऐसे लोग हैं जो निश्चित ही धर्म विरोधी हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो शायद पूरी तरह से धर्म विरोधी नहीं भी होंगे, लेकिन फिर भी वे धर्म के प्रति उपेक्षापूर्ण होते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो धर्म के प्रति उपेक्षापूर्ण तो नहीं हैं, लेकिन जो केवल पाखंडी हैं, जो यह दिखावा करते हैं कि उनकी धर्म में रुचि है। और ये तीन ही तरह के लोग रह गए हैं। और जो सच्चा धार्मिक आदमी है, वह खो गया है। ऐसा क्यों हुआ है?
पहली तो बात आज जीवन के प्रति एक नए दृष्टिकोण को खोज लिया गया है, अब विज्ञान की खोज हो चुकी है—अब विज्ञान के माध्यम से मनुष्य के पास एक नया द्वार खुल गया है—और धर्म अभी तक विज्ञान के इस नए आयाम को आत्मसात नहीं कर पाया है। धर्म विज्ञान को अपने में आत्मसात कर लेने में इसलिए असफल हो गया है, क्योंकि तथाकथित साधारण धर्म विज्ञान को अपने में आत्मसात करने में असमर्थ है।
जीवन के प्रति तीन प्रकार की दृष्टियां संभव हैं।
पहली तो है तार्किक, बौद्धिक, वैज्ञानिक। दूसरी है अबौद्धिक, अंधविश्वास से भरी और अतार्किक। और तीसरी दृष्टि है तर्कातीत, अनुभवातीत।
साधारण धर्म ने अतार्किक दृष्टिकोण को ही पकड़ कर रखा था। और वही बात धर्म के लिए आत्मघात बन गयी, वही बात धर्म के लिए जहर हो गयी। धर्म को आत्महत्या कर लेनी पडी, क्योंकि वह जीवन के दुर्बलतम दृष्टिकोण—अबौद्धिक दृष्टिकोण पर ही रुक कर रह गया, वह उसी पर अटक कर रह गया। जब मैं अबौद्धिक शब्द का उपयोग करता हूं, तो उससे मेरा क्या अभिप्राय है? उससे मेरा अभिप्राय है, अंधविश्वास। इस सदी तक धर्म इसी अंधविश्वास के सहारे फलता—फूलता रहा, और गतिमान होता रहा। और ऐसा इस कारण हो सका क्योंकि धर्म 'का और कोई प्रतियोगी न था, और धर्म के पास इससे बेहतर कोई दृष्टिकोण न था।
लेकिन जब विज्ञान का जन्म हुआ, तो एक अधिक सशक्त, अधिक प्रौढ़, अधिक प्रामाणिक, और अधिक तर्कसंगत दृष्टिकोण का जन्म हुआ। और वितान के अस्तितव में आने से द्वंद्व खड़ा हो गया। विज्ञान के अस्तित्व में आने से धर्म शंकित और भयभीत हो गया, क्योंकि यह नया दृष्टिकोण धर्म को नष्ट करने के लिए पूरी तरह से तैयार था। और इसी उधेड़ —बुन में धर्म अपनी सुरक्षा का इंतजाम करने लगा। और इस तरह से धीरे — धीरे धर्म बंद होता चला गया।
शुरू में तो विज्ञान के समकक्ष धर्म ने खड़े रहने की कोशिश की—क्योंकि उस समय तक तो धर्म शक्तिशाली था, प्रतिष्ठित था, और सामाजिक व्यवस्था का अंग था—इसी कारण धर्म ने गैलेलियो द्वारा की गई वैज्ञानिक खोजों को अस्वीकार कर उन्हें नष्ट कर देने का पूरा प्रयास किया। लेकिन धर्म को यह न मालूम था कि यह विनाशकारी कार्य स्वयं उसके लिए ही आत्मघाती होने वाला है। और इस तरह से धर्म ने विज्ञान के साथ एक लंबी लड़ाई की शुरुआत कर दी—और निस्संदेह हार जाने वाली लंबी लड़ाई की शुरुआत कर दी।
कोई भी कमजोर दृष्टिकोण सशक्त दृष्टिकोण के साथ लड़ नहीं सकता है। दुर्बल दृष्टिकोण कभी न कभी असफल होगा ही—आज नहीं तो कल, लेकिन असफल होगा ही। अधिक से अधिक यही हो सकता है कि दुर्बल बात लड़ाई, और पराजय को स्थगित कर दे। लेकिन लड़ाई से, पराज्य से बचा नहीं जा सकता है। जब भी कभी सशक्त दृष्टिकोण मौजूद होता है, तो कमजोर को मिटना ही होता है। या तो उसे बदलना होता है, या उसे. और अधिक परिपक्व होना होता है।
धर्म की मृत्यु हो गयी, क्योंकि धर्म परिपक्व नहीं हो पाया। साधारण धर्म, तथाकथित धर्म की मृत्यु हो गयी, क्योंकि वह स्वयं को पतंजलि के तल तक —ऊपर नहीं उठा सका है।
पतंजलि धार्मिक भी हैं और वैज्ञानिक भी हैं। विज्ञान के वर्तमान युग में केवल पतंजलि का धर्म ही जीवित रह सकता है। उससे कम के धर्म से अब काम नहीं चलेगा। मनुष्य ने विज्ञान के माध्यम से अब अधिक ऊंची चेतना का स्वाद पा लिया है, सत्य के लिए उसने अधिक प्रामाणिक, तर्कसंगत और ठोस प्रमाण की प्राप्ति कर ली है। अब आदमी को जोर — जबर्दस्ती से किसी भी तरह के भ्रम में, अंधकार में और अंधविश्वास में नहीं रखा जा सकता है, अब यह बिलकुल असंभव है। आज आदमी वयस्क हो गया है। अब वह पुराने ढंग से बच्चा बना हुआ नहीं रह सकता है, और धर्म अभी तक बचकाना ही बना हुआ है।
स्वभावत:, अगर फिर धर्म एक गंदा शब्द बन जाए, तो कोई विशेष बात नहीं है।
दूसरा दृष्टिकोण है, तार्किक दृष्टिकोण। यह पतंजलि की दृष्टि है। पतंजलि किसी भी बात में विश्वास कर लेने को नहीं कहते हैं। पतंजलि कहते हैं, प्रयोगात्मक बनी। पतंजलि कहते हैं कि जो कुछ भी कहा जाता है, वह अनुमान पर आधारित होता है —लेकिन व्यक्ति को अपने अनुभव के द्वारा उसे प्रमाणित करना है, और दूसरा कोई प्रमाण नहीं है। पतंजलि कहते हैं कि दूसरों की बात का भरोसा मत करना और न ही उधार ज्ञान को ही ढोते रहना।
धर्म की मृत्यु इसीलिए हो गयी, क्योंकि वह केवल उधार का ज्ञान बनकर रह गया। जीसस ने कहा, 'परमात्मा है,' और ईसाई इस बात पर विश्वास करते चले जा रहे हैं। कृष्ण ने कहा, 'परमात्मा है,' और हिंदू इस पर विश्वास किए चले जाते हैं। और मोहम्मद कहते हैं, 'परमात्मा है, और मैंने उसका साक्षात्कार किया है और मैंने उसकी आवाज सुनी है,' और मुसलमान इस बात पर विश्वास किए चले जाते हैं। यह बात उधार है। पतंजलि इस दृष्टि से एकदम भिन्न हैं। वे कहते हैं, 'किसी दूसरे का अनुभव तुम्हारा अपना अनुभव नहीं हो सकता है। तुम्हें स्वयं ही अनुभव करना होगा। और तभी केवल तभी—सत्य तुम्हारे सामने उदघटित हो सकता है।
मैं एक छोटी सी कथा पढ़ रहा था
दो अमरीकी सैनिक कहीं सुदूर पूर्व की किसी खाई में छिपकर बैठे हुए आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनमें से एक सैनिक कागज और पेंसिल निकालकर चिट्ठी लिखने लगा, लेकिन तभी उससे पेंसिल की नोंक टूट गयी। दूसरे सिपाही की ओर मुड़कर वह सिपाही बोला, 'सुनो मैक, क्या तुम मुझे अपना बॉलपेन दे —सकते हो?' उस दूसरे. सिपाही ने बॉलपेन उसे दे दिया। सुनो मैक,' उस चिट्ठी लिखने वाले सिपाही ने फिर कहा, 'क्या तुम्हारे पास लिफाफा है?' उस दूसरे सिपाही ने अपनी जेब से एक मुड़ा—तुड़ा लिफाफा निकाला और उसे दे दिया। पहला सिपाही कुछ लिखता रहा, और फिर थोड़ी देर बाद उसने इधर—उधर देखा और बोला, 'क्या तुम्हारे पास टिकट है?' उस दूसरे सिपाही ने उसे टिकट दे दिया। उसने पत्र को लिफाफे में डाला, टिकट लगाया और बोला, 'सुनो मैक, तुम्हारी प्रेमिका का पता क्या है?'
हर चीज उधार की —यहां तक कि प्रेमिका का पता भी उधार!
तुम्हारे पास भी जो परमात्मा का पता है, वह उधार का है। हो सकता है वह परमात्मा जीसस की प्रेमिका रहा हो, लेकिन वह तुम्हारी प्रेमिका तो नहीं है। वह परमात्मा कृष्ण की प्रेमिका रहा हो, लेकिन वह तुम्हारी प्रेमिका तो नहीं है। सभी कुछ उधार का है —बाइबिल हो या कुरान हो या गीता हो —सभी कुछ उधार का है। उधार के अनुभव के द्वारा हम कब तक स्वयं को धोखा दे सकते हैं? एक न एक दिन तो बात की निरर्थकता, उसका बेतुकापन, उसकी असंगतता और व्यर्थता दिखाई पड़ेगी ही। एक न एक दिन उधार की बात बोझ बन ही जाने वाली है। उधार ज्ञान सिवाय पंगु बनाकर नष्ट कर देने के और कुछ भी नहीं करता है। और ऐसा ही हुआ भी है।
पतंजलि उधार अनुभव में विश्वास नहीं करते हैं। पतंजलि का र्विश्वास करने में ही भरोसा नहीं है। यही तो उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। वे अनुभव करने में विश्वास करते हैं, वे प्रयोग करने में विश्वास करते हैं। पतंजलि को गैलेलियो और आइंस्टीन के माध्यम से बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। और गैलेलियो और आइंस्टीन को पतंजलि के माध्यम से समझा जा सकता है। वे आपस में एक—दूसरे के सहयात्री हैं।
आने वाला भविष्य पतंजलि का है। भविष्य बाइबिल का नहीं है, कुरान का नहीं है, गीता का नहीं है, भविष्य है योग—सूत्र का—क्योंकि पतंजलि वैज्ञानिक भाषा में बात को कहते हैं। योग —सूत्र में वे केवल वैज्ञानिक ढंग से बात को प्रस्तुत ही नहीं करते हैं, बल्कि वे वैज्ञानिक हैं भी, क्योंकि जीवन के संबंध में उनकी दृष्टि वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण दृष्टि है।
एक तीसरी दृष्टि और भी है तर्कातीत दृष्टि। वह दृष्टि झेन की है। कभी कहीं दूर भविष्य में झेन दृष्टि संभव हो सकती है। लेकिन अभी' तो वह मात्र एक कल्पना जान पड़ती है। हो सकता है कोई ऐसा समय आए जब झेन संसार का धर्म बन जाए, लेकिन अभी तो वह बहुत दूर की बात है, क्योंकि झेन तर्कातीत है। इसे ठीक से समझ लेना।
अविवेक, जो कि विवेक—बुद्धि से निम्नतर होता है, वह भी परम बुद्धि जैसा प्रतीत होता है। वह उस जैसा मालूम पड़ता है, लेकिन वह उस जैसा होता नहीं है, वह नकली सिक्का होता है। ऐसे दोनों ही अतार्किक हैं, लेकिन दोनों ही अलग ढंग से। दोनों में बहुत गहरा और विराट भेद है।
अविवेक वह है जो विवेक बुद्धि के तल से नीचे होता है जो अंधविश्वास के अंधेरे में रहता है, जो उधार ज्ञान के साथ जीता है, जिसमें किसी भी तरह के प्रयोग करने का साहस नहीं होता है, उसमें इतना साहस भी नहीं होता है कि वह अपने ही अज्ञात में उतर सके। उसका पूरा जीवन उधार, अप्रामाणिक, नीरस, घिसटता हुआ, संवेदनहीन होता है।
वह व्यक्ति जो कि परम विवेक की ओर बढ़ जाता है वह भी अतार्किक, असंगत मालूम होता है, लेकिन ऐसा वह बिलकुल ही अलग ढंग से होता है. उसकी अंतार्किकता में, असंगति में विवेक होता है और वह उससे भी कहीं ऊपर उठ चुका होता है। ऐसा व्यक्ति विवेकबुद्धि का भी अतिक्रमण कर चुका होता है।
अविवेकी व्यक्ति तर्क —बुद्धि से सदा भयभीत होगा, क्योंकि बुद्धि हमेशा अपनी रक्षा के उपाय ढूंढती रहती है। इसीलिए बुद्धि हमेशा भय खड़ा करती है। बुद्धि के साथ एक खतरा हमेशा मौजूद
रहता है: अगर बुद्धि को सफलता मिलती है तो आस्था, विश्वास इन्हें खत्म होना होता है, क्योंकि तब—व्यक्ति इन्हें बुद्धि विरोधी के रूप में पकड़ता है। परमबुद्धि का व्यक्ति बुद्धि से भयभीत नहीं होता है। वह उससे आनंदित होता है। श्रेष्ठ हमेशा निम्न को स्वीकार कर सकता है —केवल स्वीकार ही नहीं कर सकता, वह उसे अपने में समाहित भी कर सकता है, वह उसे पोषित भी कर सकता है, और वह उसके कंधों का सहारा लेकर खड़ा हो सकता है। वह उसका भी उपयोग कर सकता है। लेकिन निम्न हमेशा अपने से श्रेष्ठ से भयभीत रहता है।
अगर व्यक्ति में विवेक न हो तो उसमें कुछ कम होता है — कुछ ऋणात्मक बात है। और व्यक्ति में परम विवेक का होना एक विशेषता, एक गुण होता है — कुछ धनात्मकता का होना है। विश्वास बुद्धि का अभाव है। और बुद्धि के पार श्रद्धा होती है — अनुभव के द्वारा आयी हुई श्रद्धा। श्रद्धा उधार नहीं होती है, बल्कि जो व्यक्ति परम विवेकशील होता है, वह यह समझता है कि जीवन तर्क से कहीं अधिक बड़ा होता है। परम विवेकवान व्यक्ति बुद्धि को स्वीकार कर लेता है, वह बुद्धि को भी अस्वीकृत नहीं करता है। बुद्धि और तर्क वहीं तक ठीक होते हैं जहां तक उनकी पहुंच होती है, इसलिए उनका भी उपयोग कर लेना चाहिए।
लेकिन जीवन की समाप्ति बुद्धि और तर्क पर ही नहीं हो जाती है। ये ही जीवन की सीमा नहीं हैं, जीवन उससे कहीं अधिक बड़ा है। तर्क तो बुद्धि का केवल एक अंग है —— अगर बुद्धि संपूर्ण अस्तित्व की एक संघटित इकाई बनी रहे, तब तो वह सुंदर है। अगर बूद्धि अलग घटना बन जाए और अपने से कार्य करने लगे, तब वह कुरूप हो जाती है, असुंदर हो जाती है। अगर बुद्धि संपूर्ण अस्तित्व से अलग किसी द्वीप की भाति हो जाती है, तो वह कुरूप और असुंदर हो जाती है। अगर वह इस विराट अस्तित्व का हिस्सा बनी रहती है, तो सुंदर होती है, फिर उसके अपने उपयोग हैं।
जो व्यक्ति परम विवेकशील होता है, वह बुद्धि के विपरीत नहीं होता है, बल्कि वह बुद्धि के पार होता है। वह जानता है कि बुद्धि और अविवेक दोनों ही दिन और रात की तरह जीवन और मृत्यु की तरह जीवन के हिस्से हैं। तब ऐसे व्यक्ति के लिए उनमें कोई विरोधाभास नहीं रह जाता है, उसके लिए वे एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं।
झेन का ढंग अतिक्रमण का है। पतंजलि का ढंग गणित का है, तर्क का है। अगर तुम पतंजलि के साथ चलो, तो अंत में परम शिखर पर पहुंचकर तुम तर्कातीत तक पहुंच जाओगे। सच तो यह है, जैसे साधारण धार्मिक व्यक्ति विज्ञान से और गणित से और तर्क से भयभीत रहता है, वैसे ही वे लोग जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पकड़े हैं, वे झेन से भयभीत रहते हैं। अगर तुम आर्थर कोएस्लर की पुस्तकें पढ़ो, तो पाओगे कि वह है तो बड़ा तर्कपूर्ण व्यक्ति, लेकिन वह उसी स्थिर दशा में मालूम होता है जिसमें कि साधारण धार्मिक व्यक्ति पड़े हुए हैं। अब तर्क ही उसका धर्म बन गया है और कोएस्लर झेन से बहुत भयभीत है। जो कुछ भी उसने झेन के विषय में लिखा है उसमें उसका भय, उसकी घबड़ाहट और उसकी शंका मौजूद है —क्योंकि झेन तो सभी तरह की कोटियों और श्रेणियों को तहस—नहस कर देता है।
तुम्हारे तथाकथित ईसाई, हिंदू, मुसलमान धर्म, वे सब तर्क —बुद्धि से नीचे पड़ते हैं। कुछ थोड़े से असाधारण ईसाई संत—जैसे इकहार्ट, ब्रोहेम, सूफी फकीर कबीर, ये सब बुद्धि के, तर्क के पार हैं। सामान्य मनुष्य—जाति के लिए, या एक सामान्य धार्मिक व्यक्ति के लिए, झेन की ओर अग्रसित होने में, पतंजलि सेतु का कार्य कर सकते हैं। झेन और मनुष्य—जाति के बीच केवल पतंजलि ही एकमात्र सेतु हैं; दूसरा अन्य कोई सेतु नहीं है जो झेन को सामान्य मनुष्य से जोड़ सके। पतंजलि अंतर्जगत के वैज्ञानिक हैं।
मनुष्य दो तरह का जीवन जी सकता है एक तो बर्हिमुखी जीवन, बाहर—बाहर का बर्हिमुखी जीवन। और मनुष्य एक दूसरी तरह का जीवन भी जी सकता है अंतर्मुखी जीवन, अंतर्मुखता का जीवन। पतंजलि इन दोनों के बीच सेतु हैं। जिसे पतंजलि संयम कहते हैं, वह अंतर और बाह्य के बीच का संतुलन है—ऐसा संतुलन जहां कि व्यक्ति मध्य में खड़ा होता है, कोई भी उसका मार्ग अवरुद्ध नहीं कर सकता, वह अंदर और बाहर दोनों जगत के लिए उपलब्ध रहता है।
इसीलिए पतंजलि आइंस्टीन से कहीं ज्यादा बड़े वैज्ञानिक हैं। किसी न किसी दिन आइंस्टीन को अंतर्जगत के विज्ञान के बारे में पतंजलि से सीखना होगा। लेकिन पतंजलि को आइंस्टीन से कुछ भी नहीं सीखना है, क्योंकि बाह्य जगत के विषय में जो भी ज्ञान होता है, वह सूचना से अधिक कुछ नहीं होता है। वह कभी भी सच्चा, प्रामाणिक और वास्तविक ज्ञान नहीं बन सकता है, क्योंकि अंततः हम उससे बाहर ही रहते हैं। सच्चा, प्रामाणिक और वास्तविक ज्ञान तो केवल तभी संभव है जब हम जानने के अंतर—स्रोत तक पहुंच जाएं—और तब बड़े से बड़ा चमत्कार घटित होता है। और भी बहुत से चमत्कार घटित होते हैं, लेकिन तब सच में बड़े से बड़ा चमत्कार घटित होता है।
सबसे बड़ा चमत्कार तो यही घटित होता है कि जिस क्षण व्यक्ति ज्ञान के स्रोत तक पहुंचता है, व्यक्ति मिट जाता है। जैसे —जैसे स्रोत के निकट पहुंचना होता है, उतने ही तुम मिटने लगोगे। जब तुम उस अवस्था में स्थित हो जाते हो, तो तुम नहीं बचते, और फिर भी पहली बार तुम होते हो। अब तुम वैसे ही नहीं रहते जैसा कि तुम स्वयं के बारे में सोचते थे। अब तुम्हारा अहंकार नहीं बचता है वह यात्रा समाप्त हो चुकी होती है। पहली बार तुम आत्मवान होते हो।
और जब तुम आत्मवान होते हो, तो बड़े से बड़ा चमत्कार घटित होता है. तुम अपने केंद्र पर लौट आते हो, अपने घर वापस आ जाते हो। उसे ही पतंजलि समाधि कहते हैं। समाधि का अर्थ है सभी समस्याओं का समाधान, सभी प्रश्नों का गिर जाना, सभी चिंताओं का निवारण हो जाना। अब तुम अपने घर वापस लौट आए। पूरी तरह से विश्रांत, शिथिल और शांत कुछ भी अब चित्त को भ्रमित नहीं करता। अब केवल आनंद ही शेष बचता है। अब हर पल, हर क्षण आनंद बन जाता है।
तो पहली तो बात धर्म केवल अंतार्किकता के काटे में फंसकर रह गया। और दूसरी बात तथाकथित धार्मिक व्यक्ति अधिकाधिक अप्रामाणिक और व्यर्थ की बातों में फंसकर रह गए—उनके सभी विश्वास उधार के हो कर रह गए। और तीसरी बात आज दुनिया में लोग बहुत जल्दी में हैं उनमें धैर्य तो जैसे बचा ही नहीं है। लोग क्यों इतनी जल्दी में हैं—कहीं जाना भी नहीं है, फिर भी जल्दी में हैं। लोग बस तेजी से दौड़ते — भागते चले जा रहे हैं। उनसे यह मत पूछो, कहां जा रहे हैं? क्योंकि उससे वे परेशान और बेचैन हो जाते हैं। उनसे ऐसा मत पूछो। यह पूछना कि तुम इतनी तेजी से कहां जा रहे थे, या तुम कहां जा रहे हो, एक असभ्य और अशिष्ट बात हो जाती है। क्योंकि हम यह जानते ही नहीं हैं कि हम कहा जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं।
हम सभी लोग जल्दी में हैं, और धर्म एक ऐसा वृक्ष है, जिसके विकास के लिए धैर्य चाहिए। उसके विकास के लिए असीम धैर्य की जरूरत होती है। उसके लिए किसी भी प्रकार की जल्दी नहीं चाहिए। अगर किसी भी प्रकार की जल्दबाजी या अधैर्य किया तो धर्म से चूकना हो जाएगा। वर्तमान आधुनिक जीवन में व्यक्ति की दौड़ इतनी क्यों बढ़ गयी है रन यह जल्दबाजी, यह दौड़ कहां से आई है? क्योंकि जल्दबाजी में तो हम ज्यादा से ज्यादा चीजों के साथ खिलवाड़ ही कर सकते हैं, वस्तुओं के साथ क्षण दो क्षण को खेल सकते हैं। लेकिन धर्म की यात्रा के लिए तो असीम धैर्य की और प्रतीक्षा की आवश्यक होती है। उसका विकास असीम धैर्य और प्रतीक्षा में होता है, जल्दी में उसका विकास नहीं होता है। धर्म की यात्रा कोई मौसमी फूल जैसी नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह मौसमी फूलों की तरह एक महीने के भीतर वह फूलों से भर जाए। धर्म की यात्रा में फूलों को आने में समय लगता है। धर्म तो जीवन का शाश्वत वृक्ष है। उसे किसी भी तरह की जल्दबाजी में नहीं पाया जा सकता है।
इसी कारण से अधिकाधिक लोग बाह्य वस्तुओं में उत्सुक हो जाते हैं, क्योंकि बाह्य वस्तुओं को तो बहुत जल्दी और आसानी से हासिल किया जा सकता है, इसी कारण आज व्यक्ति वस्तुओं तक ही सीमित रह गया है। आदमी की आदमी से दूरी बढ़ती जा रही है, वह अपने ही घेरे में सिकुड़कर रह गया है। सच तो यह है, आदमी का उपयोग भी हम वस्तुओं की भाति करते हैं और वस्तुओं से हम इस भांति प्रेम करते हैं जैसे कि वे कोई व्यक्ति हों।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जो कहते हैं कि मुझे अपनी कार से प्रेम है। वे अपनी पत्नी के प्रेम के लिए इतने सुनिश्चित नहीं हैं —उन्हें अपनी पत्नी से प्रेम है भी नहीं। वे दावे के साथ नहीं कह सकते कि, 'मैं अपनी पत्नी से प्रेम करता हूं, ' लेकिन वह अपनी कार से जरूर प्रेम करते हैं। ऐसे लोग अपनी पत्नी का तो वस्तु की भाति उपयोग करते हैं और कार से प्रेम करते हैं। अब इस तरह के लोगों के साथ पूरी की पूरी बात ही गड़बड़ हो गयी।
वस्तुओं का और चीजों का उपयोग करो, और आदमी से प्रेम करो। लेकिन ध्यान रहे, किसी दूसरे को प्रेम करने के पहले हमें स्वयं प्रेमपूर्ण होना होगा। इसमें समय लगता है, और इसके लिए लंबी तैयारी की आवश्यकता होती है।
इसी कारण जब लोग पतंजलि को पढ़ते हैं, तो भयभीत हो उठते हैं : वह एक बहुत ही लंबी यात्रा मालूम होती है। और वह एक लंबी यात्रा है भी।
मैं कल ही पढ़ रहा था
एक बार अनिद्रा के रोग से पीड़ित एक आदमी को जब डाक्टर ने उसे नींद आने के लिए सस्ती सी दवाई बता दी, तो वह आदमी बहुत ही खुश हो गया।
डाक्टर ने कहा, 'सोने से पहले एक सेब खा लेना।
'बहुत अच्छा!' रोगी ऐसा कहकर चलने को हुआ।
डाक्टर ने उसे सावधान करते हुए कहा, 'ठहरो, बात केवल इतनी ही नहीं है। सेब को एक खास ढंग से खाना है।अनिद्रा का रोगी बाकी का नुस्खा सुनने को जरा ठहरा। डाक्टर ने कहा 'पहले सेब को काटो। आधा भाग खा लो, फिर अपना कोट और हैट पहनकर बाहर आ जाओ, फिर तीन मील पैदल चलो। जब तुम वापस घर आ जाओ तो शेष आधा भाग भी खा लो।
धर्म कोई सस्ता मार्ग नहीं है। सस्ते मार्ग की बातों द्वारा मूर्ख मत बन जाना जीवन किन्हीं सस्ते मार्गों को नहीं जानता है। जीवन का मार्ग बहुत लंबा है, और लंबे मार्ग का अपना कुछ अभिप्राय है, अपना कुछ अर्थ है क्योंकि केवल लंबी प्रतीक्षा में ही जीवन का विकास संभव है, और उस प्रतीक्षा में ही जीवन सुंदर ढंग से विकसित होता है।
लेकिन आधुनिक मनुष्य का मन बहुत जल्दी में है। आखिर क्यों जल्दी में है? जल्दी किस बात की है? आज का मनुष्य इसलिए जल्दी में है क्योंकि आधुनिक मन बहुत ज्यादा अहंकार—केंद्रित है। उसी अहंकार से यह जल्दी आती है। अहंकार को हमेशा मृत्यु का भय रहता है —और उसका यह भय स्वाभाविक भी है, क्योंकि अंततः मृत्यु तो अहंकार की ही होती है। कोई भी उसे नहीं बचा सकता है। कुछ समय तक अहंकार को बचाया जा सकता है, लेकिन कोई भी अहंकार को हमेशा के लिए तो नहीं बचा सकता है। अंततः एक दिन अहंकार की मृत्यु होगी ही। क्योंकि इस विराट अस्तित्व से पृथक होने की मृत्यु तो होगी ही। और जितना अधिक हम इस विराट अस्तित्व से अलग और पृथक महसूस करते हैं, उतने ही अधिक हम मृत्यु से भयभीत होते जाते हैं। अपने को अस्तित्व से पृथक मानने के कारण मृत्यु का भय सताता है। और जितने अधिक हम अस्तित्व से अलग — थलग होते जाते हैं, उतनी ही अधिक चिंताओं, परेशानियों और भय से घिरते चले जाते हैं।
पूरब में लोग अभी भी इतने अधिक एक —दूसरे से पृथक नहीं हैं, जहां लोग अभी भी आदिम अवस्था में हैं, जहां लोग अभी भी समूह का हिस्सा हैं, जहां व्यक्ति अकेला नहीं है. वे लोग किसी जल्दी में नहीं हैं। वे जीवन को बहुत ही आराम से धीरे —धीरे और आनंद से जीते हैं। वे हर काम धीरे — धीरे करते हैं, किसी प्रकार की कोई जल्दबाजी उन्हें नहीं रहती, वे जीवन की यात्रा का पूरी तरह से आनंद लेते हैं।
पश्चिम में जहां कि अहंकार का जोर है और हर व्यक्ति अपने आप में सिकुड़कर अकेला होता जा रहा है : वहां पर लोगों में अधिक चिंता, परेशानी, मानसिक बीमारियां हैं, मृत्यु का भय है। जितना अधिक आदमी अकेला और पृथक होता जाता है, उतना ही अधिक वह अपने को मृत्यु के निकट अनुभव करता है। क्योंकि जितना आदमी अकेला अस्तित्व से, प्रकृति से पृथक और अलग होता जाता है, उसी अनुपात में उसकी मृत्यु घटित होती है, क्योंकि मृत्यु तो केवल व्यक्ति के अहंकार की ही होती है। आदमी के भीतर जो सर्वव्यापी—तत्व है, वह फिर भी जीवित रहता है, उसकी मृत्यु नहीं होती, वह मर नहीं सकता। वह तो जन्म से पहले भी मौजूद था और मृत्यु ३ बाद भी मौजूद रहेगा।
मैंने एक बहुत सुंदर कथा सुनी है
एक डींग हाकने वाले आदमी ने कहा, 'ही, मेरे परिवार की वंश—परंपरा को मेफ्लावर तक खोजा जा सकता है।
उसके मित्र ने कटाक्ष करते हुए कहा, 'मुझे लगता है, अब आगे तुम हमें यह बताओगे कि तुम्हारे पूर्वज नूह के साथ नाव में थे।
उसने कहा, 'निश्चित ही ऐसा नहीं था, क्योंकि मेरे पूर्वजों की अपनी नाव थी।
अहंकार की यात्रा इसी ढंग से चलती चली जाती है, और वह व्यक्ति को एकदम अकेला और पृथक कर देती है। और यही पृथकता मृत्यु का कारण है।
क्योंकि मृत्यु आ रही है, इसलिए हम हमेशा जल्दी में ही रहते हैं —जीवन छोटा है, समय कम है, और इस छोटे से जीवन में बहुत से कार्य करने को हैं। ध्यान करने को किसके पास समय है? योग करने के लिए किसके पास समय है? लोग सोचते हैं कि यह सब तो केवल पागलों के लिए है। झेन में किसको रुचि है? क्योंकि अगर ध्यान करो तो लंबे समय तक, कई —कई वर्षों तक आतुरता से प्रतीक्षा करनी होती है, लेकिन उस आतुरता में भी धैर्य और जागरूकता चाहिए होती है, उसमें तो केवल प्रतीक्षा ही की जा सकती है। लेकिन पश्चिमी मन को, या कहें आधुनिक मन को —क्योंकि आधुनिक मन पश्चिम की दृष्टि से ही जुड़ा हुआ है — आधुनिक मन को किसी भी बात के लिए प्रतीक्षा करना समय की बर्बादी लगता है। इसी अधैर्य और आतुरता के कारण ही पृथ्वी पर धर्म के फूल का खिलना असंभव हो गया है।
अधिकांश लोग बस इस बात का दिखावा करते हैं कि वे धार्मिक हैं, लेकिन सच्चे वास्तविक और प्रामाणिक धर्म से वे बचते हैं। अभी तो धर्म एक सामाजिक औपचारिकता बनकर रह गया है। लोग चर्च में केवल इस कारण से जाते हैं कि चर्च जाने से समाज में आदर और सम्मान मिलेगा। आदमी आदमी को नहीं जानता, आदमी आदमी से प्रेम नहीं करता है —क्योंकि समय किसके पास है? जीवन थोड़ी देर का है और अभी तो बहुत से काम करने हैं।
अधिकांश लोगों का वस्तुओं में अधिक रस रह गया है उन्हें बड़ी कार खरीदनी है, उन्हें बड़ा घर बनाना है, उन्हें बड़ा बैंक —बैलेंस बनाना है —लोगों की पूरी की पूरी 'ऊर्जा इन्हीं वस्तुओं के संग्रह में नष्ट हो जाती है —हम इस बात को तो पूरी तरह से भुला ही बैठे हैं कि असली बात स्वयं की प्रत्यभिज्ञा, स्वयं के अस्तित्व की पहचान है। जीवन का वास्तविक उद्देश्य स्वयं की सत्ता को, और स्वय के अस्तित्व को पा लेना है —न कि बड़ी कार, बड़ा नया मकान या बैंक —बैलेंस को बड़ा करते जाना है। क्योंकि बैंक —बैलेंस कितना ही बड़ा हो अंत में यहीं का यहीं पड़ा रह जाएगा। सभी कुछ यहीं का यहीं पड़ा रह जाएगा, अत में तो केवल हमारा होश, हमारा बोध, और हमारी जागरूकता ही हमारे साथ जा सकेगी।
योग व्यक्ति के आंतरिक अस्तित्व का विज्ञान है। आत्मा को जानने का विज्ञान है। अंतस में हम कैसे अधिकाधिक विकसित और जागरूक हों, इसका विज्ञान है। कैसे अधिकाधिक कि कैसे हम भगवत्ता को उपलब्ध हो जाएं, और समग्र अस्तित्व के साथ एक हो जाएं, अस्तित्व से जुड़ जाएं। अब हम सूत्रों में प्रवेश करेंगे
'जो प्रतिछवि दूसरों के मन को घेरे रहती है, उसे समय द्वारा जाना जा सकता है।
अगर व्यक्ति एकाग्रता को पा ले, समाधि को उपलब्ध कर ले, और उसके भीतर इतना गहन मौन, शाति और सन्नाटा छा जाए कि एक भी विचार की तरंग, एक भी विचार की लहर मन में न उठे, तो दूसरे लोगों के मन में उठती हुई कल्पनाएं, विचार और भाव को देखने में व्यक्ति सक्षम हो जाता है। फिर दूसरे के विचारों को पढ़ा भी जा सकता है।
मैंने सुना है कि एक बार दो योगी मिले। दोनों ही योगी समाधि को उपलब्ध थे। इसलिए दोनों के बीच वार्तालाप करने जैसा कुछ था भी नहीं। लेकिन फिर भी जब किसी से मुलाकात होती है तो कुछ न कुछ बात तो करनी ही होती है।
तो उनमें से एक योगी ने कहा, 'मैं तुम्हें एक चुटकुला सुनाता हूं, और तुम्हारे साथ उस चुटकुले का आनंद लेना चाहता हूं। चुटकुला बहुत पुराना है। एक बार की बात है. 'और बस दूसरे योगी ने जोर —जोर से हंसना शुरू कर दिया।
और वह पूरा का पूरा चुटकुला यही है। क्योंकि वह दूसरा योगी उस पूरे के पूरे अनकहे चुटकुले को समझ सकता था।
अगर हम मौन हों, शांत हों, भीतर किसी भी प्रकार की कोई विचार या भाव की तरंग न उठती हो, तो हम अपनी निस्तरंग झील में दूसरे के मन को जानने —समझने के योग्य हो जाते हैं। और उसके लिए किसी तरह का कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। पतंजलि उन सभी बातों की चर्चा कर रहे हैं जो इस मार्ग पर आती हैं। वस्तुत: एक सच्चा योगी, सच्चा साधक कभी भी दूसरों के विचारों को देखने की, या पढ़ने की चेष्टा नहीं करता। क्योंकि दूसरे के विचारों को पढ़ना दूसरे की स्वतंत्रता में अनधिकार हस्तक्षेप करना है, दूसरे के स्वात में बाधा डालना है। लेकिन फिर भी अंतस यात्रा में ऐसा होता है, ऐसे बहुत से पड़ाव आते हैं।
और 'विभूतिपद' के इस अध्याय में पतंजलि इन सारे चमत्कारों की बात इसलिए नहीं कर रहे हैं कि हमें इ_न चमत्कारों को पाने के लिए प्रयास करना है। नहीं, पतंजलि हमें बल्कि इन चमत्कारों के प्रति सजग और सचेत कर रहे हैं कि इस—इस तरह के चमत्कार मार्ग में घटते हैं और तुम इन चमत्कारों के चक्कर में मत आ जाना, और उनका उपयोग मत करने लगना—क्योंकि एक बार जब हम उनका उपयोग करने लगते हैं, तो फिर हमारी आगे की विकास यात्रा रुक जाती है। तब ऊर्जा सारी की सारी चमत्कारों में ही अटककर रह जाती है।
इसलिए पतंजलि सचेत कर रहे हैं कि उन चमत्कारों का उपयोग मत करना। यह सारे के सारे सूत्र हमें सजग और सचेत करने के. लिए ही हैं, कि मार्ग में यह—यह बातें घटेंगी, और मन की यह एक प्रवृत्ति होती है र मन का एक प्रलोभन होता है कि इन चमत्कारों का उपयोग कर लो। कौन नहीं चाहेगा, दूसरे के मन को जान लेना? और उस समय हमारे पास दूसरे पर अधिकार जमा लेने की अदभुत शक्ति भी होती है। लेकिन योग कोई शक्ति —यात्रा नहीं है, और एक सच्चा योगी, एक सच्चा साधक ऐसा कभी करेगा भी नहीं।
लेकिन ऐसा घटित होता है। कुछ ऐसे लोग हैं जो केवल उस शक्ति को उपलब्ध करने की ही कोशिश करते हैं, उसके लिए ही ध्यान —साधना करते हैं —और उसे उपलब्ध किया भी जा सकता है। उस शक्ति को बिना धार्मिक हुए भी पाया जा सकता है। योग के वास्तविक शिष्य हुए बिना भी उसे पाया जा सकता है।
और कभी —कभी ऐसा संयोगवश भी घटित? हो जाता है। अगर हमारा मन किसी ढंग से मौन और शांत हो जाता है, तो हम दूसरे के मन के विचारों के प्रतिबिंब को देखने में समर्थ हो सकते हैं क्योंकि अगर हमारा मन शांत और मौन है तो दूसरा मन हमसे बहुत दूर नहीं है, वह हमारे निकट ही है। जब हमारा मन विचारों की भीड़ से भरा होता है, तब दूसरे का मन हमसे दूर चला जाता है क्योंकि हमारे अपने ही विचारों की भीड़ हमारा स्वयं के ध्यान को भंग कर देती है। हमारे स्वयं के भीतर चलते विचारों का शोर इतना अधिक होता है कि तब हम दूसरे के विचारों को नहीं सुन पाते हैं।
क्या कभी तुमने ध्यान दिया है? कई बार साधारण आदमी, जिसका ध्यान से कोई लेना—देना नहीं है, जिसका योग से या किसी टेलिपैथी शक्तियों से कोई संबंध नहीं है, या जिसका किन्हीं देहातीत अलौकिक संवेदन —शक्तियों से कोई संबंध नहीं है, वे भी कई बार स्वयं में घटने वाली किन्हीं —किन्हीं बातों के प्रति सजग हो जाते हैं।
उदाहरण के लिए, अगर दो प्रेमी एक — दूसरे को अत्यधिक प्रेम करते हैं, तो धीरे — धीरे उनका एक —दूसरे के साथ इतना तालमेल बैठ जाता है कि उन्हें आपस में एक—दूसरे के विचारों का पता चलने लगता है। पत्नी को पति के मन में क्या चल रहा है इसका पता चल जाता है। और हो सकता है वह इस बात के प्रति वह जागरूक न हो, लेकिन फिर भी सूक्ष्म रूप से वह यह अनुभव करने लगती है कि पति के मन में क्या चल रहा है। चाहे यह बात उसे एकदम से स्पष्ट न भी हो, हो सकता है यह सब कुछ उसको बहुत ही धूंधले रूप में हो, उसे एकदम साफ न हो, अस्पष्ट हो; लेकिन फिर भी अगर प्रेमी एक — दूसरे के साथ गहन प्रेम में हों, तो वे धीरे — धीरे एक दूसरे के विचारों को, भाव को अनुभव करने लगते हैं। कोई मां अगर वह बच्चे को प्रेम करती है, तो बच्चे के बिना कुछ कहे, बिना कुछ उसके बताए, वह बच्चे की आवश्यकताओं को जान लेती है।
कहीं न कहीं कोई ऐसा सूक्ष्म धागा होता है, जिसके द्वारा हम दूसरे से जुड़े होते हैं। इसी सूक्ष्म धागे के माध्यम से हम सभी लोग इस विराट अस्तित्व के साथ जुड़े हुए हैं।
पतंजलि कहते हैं, ' संयम के द्वारा ' एकाग्रता को उपलब्ध करने से, आंतरिक संतुलन, समाधि, मौन और शाति को पाने से, ' दूसरे के मन को जिस प्रतिछवि ने घेरा हुआ है, उसे जाना जा सकता है।
हमें तो बस दूसरे की ओर स्वयं को केंद्रित करना है। गहन मौन और शाति से दूसरे पर ध्यान देना है, दूसरे की तरफ देखना है। और तुम पाओगे कि उसका मन तुम्हारे सामने एक पुस्तक की भांति खुलता चला जा रहा है। लेकिन फिर भी ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि अगर एक बार ऐसा हो जाता है, तो और भी बहुत सी संभावनाएं इसके साथ —साथ चली आती हैं। फिर दूसरे के विचारों में हस्तक्षेप किया जा सकता है. दूसरे के विचारों को निर्देशित किया जा सकता है। फिर हम दूसरे के विचारों में प्रवेश करके अपने विचारों को वहा प्रक्षेपित कर सकते हैं। फिर दूसरे के मन को अपनी इच्छा के अनुसार चलाया जा सकता है और सामने वाला व्यक्ति कभी नहीं समझ पाएगा कि उसके मन को दूसरे के द्वारा परिचालित किया जा रहा है। वह तो यही समझेगा कि वह उसके स्वयं के ही विचार हैं और वह अपने ही विचारों और धारणाओं के अनुसार जी रहा है। लेकिन इन शक्तियों का उपयोग नहीं करना है।
'लेकिन संयम द्वारा आया बोध उन मानसिक तथ्यों का ज्ञान नहीं करवा सकता जो कि दूसरे के मन की छवि —प्रतिछवि को आधार देते हैं, क्योंकि वह बात संयम की विषय—वस्तु नहीं होती है।
हम किसी के भी मन में चलते विचारों की प्रतिछवि को देख सकते हैं —लेकिन उसके विचारों की प्रतिध्वनि को देख लेने का यह मतलब नहीं है कि हम उसके अभिप्राय को भी समझ सकेंगे। अभिप्राय को समझने के लिए अभी और भी गहरे जाना होगा। उदाहरण के लिए, हम किसी को देखते हैं और साथ —साथ हम उसके मन के भीतर की वैचारिक प्रतिछवि को भी देख सकते हैं। जैसे उदाहरण के लिए, चांद की एक प्रतिछवि होती है। सफेद बादलों के बीच घिरे हुए पूर्णिमा के सुंदर चांद की एक प्रतिछवि होती है। हम चंद्रमा की प्रतिछवि को देख सकते हैं, यह तो ठीक है, लेकिन चंद्रमा की छवि का अस्तित्व क्यों है उसके प्रयोजन के बारे में हमें कुछ पता नहीं होता है। अगर कोई चित्रकार सफेद बादलों से घिरे हुए पूर्णिमा के चांद को देखेगा तो उसके देखने का नजरिया, उसके देखने का ढंग अलग होगा, और अगर कोई प्रेमी देखेका तो उसके देखने का ढग कुछ अलग होगा और अगर कोई वैज्ञानिक देखेगा तो उसके देखने का ढंग कुछ और ही होगा।
तो किसी के विचारों का अभिप्राय क्या है, उसके विचारों की प्रतिछवि वहां क्यों मौजूद है —केवल उस छवि को देखने से हम उसके पीछे छिपे अभिप्राय को नहीं पहचान सकते हैं। क्योंकि विचारों को बनाने वाली प्रेरणा, छवि की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होती है। छवि तो स्थूल होती है। वह तो केवल मन के पर्दे पर प्रतिबिंबित होती है, उसको देखा जा सकता है। लेकिन वह छवि होती क्यों है? वह मन के पर्दे पर क्यों प्रतिबिंबित होती है? चांद के बारे में व्यक्ति सोचता ही क्यों है —फिर चाहे वह चित्रकार हो, कवि हो, या कोई पागल आदमी ही क्यों न हो। लेकिन किसी के विचारों को केवल छिपकर देख लेने मात्र से हमें उसके उद्देश्य का पता नहीं चल सकता है। उसके विचारों के अभिप्राय को, उद्देश्य को समझने के लिए हमें स्वयं में और भी गहरे जाना होगा।
किसी व्यक्ति के विचारों के अभिप्राय का ज्ञान, या उसके प्रयोजन का ज्ञान केवल तभी हो सकता है, जब व्यक्ति निर्बीज समाधि को उपलब्ध हो जाए। इससे पहले विचारों के अभिप्राय का ज्ञान संभव नहीं है। क्योंकि अभिप्राय को जानना बहुत ही सूक्ष्म बात है। उसकी कोई प्रतिछवि नहीं होती कुछ भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि वह आदमी के गहरे अचेतन में छिपी हुई उसकी इच्छा होती है। जब व्यक्ति पूरी तरह से सजग और जागरूक हो जाता है और जब उसकी सभी इच्छाएं तिरोहित हो जाती हैं तब देखना। जब विचार बिदा हो जाते हैं तो हम दूसरों के विचारों को पढ़ने में सक्षम हो जाते हैं जब हमारी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं तो हम दूसरों की इच्छाओं को जानने में सक्षम हो जाते हैं।
'ग्राह्य — शक्ति को हटा देने के लिए, शरीर के स्वरूप पर संयम संपन्न करने से द्रष्टा की आख और शरीर से उठती प्रकाश किरणों के बीच संबंध टूट जाता है, और तब शरीर अदृश्य हो जाता है।
तुमने उन योगियों की कथाएं—कहानियां अवश्य सुनी होंगी जो अदृश्य हो सकते हैं। पतंजलि हर बात को वैज्ञानिक नियम में बिठाने का प्रयास करते हैं। पतंजलि का कहना है, इसमें भी कोई चमत्कार नहीं है। व्यक्ति किसी अनुकूल नियम के तहत भी अदृश्य हो सकता है। और वह नियम क्या है? अब भौतिक —विज्ञान कहता है कि अगर हम एक—दूसरे को देख पाते हैं तो केवल इसीलिए देख पाते हैं, क्योंकि सूर्य की किरणें हम पर पड़ रही हैं और फिर वे सरकती हुई, हमसे प्रतिबिंबित होती हैं। वे सूर्य की किरणें हमारी आंखों पर पड़ रही हैं, इसीलिए तो हम एक —दूसरे को देख पाते हैं अगर कोई ऐसा तरीका हो कि हम सूर्य की किरणों को सोख लें और वे फिर प्रतिबिंबित न हों, तो हम एक — दूसरे को नहीं देख सकेंगे। हम केवल तभी देख सकते हैं जब सूर्य की किरणें हम तक आती हैं। अगर अंधकार हो और कहीं से भी सूर्य की किरणें न आ रही हों तो हम नहीं देख सकते हैं। लेकिन अगर हम सभी सूर्य —किरणों को केवल सोखते जाएं और वापस कुछ भी प्रतिबिंबित न हो, तो हम एक — दूसरे को नहीं देख सकेंगे। फिर केवल एक काला धब्बा ही दिखायी देगा।
यही आधुनिक भौतिक —विज्ञान कहता है; इसी भांति हम रंगों को देखते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति लाल रंग के कपड़े पहने हुए हो, तो मैं देख सकता हूं कि वह लाल रंग के कपड़े पहने हुए है। इसका क्या अर्थ है त्र: इसका केवल इतना ही अर्थ है कि उसके वस्त्र लाल रंग की किरणों को वापस फेंक रहे हैं। और शेष सारी किरणें वस्त्रों के द्वारा सोख ली जा रही हैं। केवल लाल रंग की किरण ही वापस आ रही है। जब सफेद रंग को देखते हैं, तो उसका अर्थ होता है कि सभी किरणें वापस फेंकी जा रही हैं। सफेद कोई रंग नहीं है; सभी रंग वापस फेंके जा रहे हैं। सफेद रंग का अर्थ है, सभी रंगों का जोड़। अगर सभी रंगों को एकसाथ मिला दिया जाए, तो वे सफेद बन जफ्रे हैं। सफेद का अर्थ है सभी रंग, इसलिए वह कोई रंग नहीं है। और अगर काला वस्त्र हो, तो कुछ भी वापस नहीं फेंका जा रहा है, सभी किरणें उसमें समाहित हो रही हैं। इसीलिए काले वस्त्र काले दिखायी पड़ते है। काला रंग भी कोई रंग नहीं है; वह रंग — विहीन है। काले रंग के द्वारा सभी सूर्य की किरणों को सोख लिया जाता है।
इसीलिए अगर किसी गरम देश में काले रंग के कपड़े पहनो, तो बहुत गरमी महसूस होती है। तेज धूप में काले रंग के कपड़े मत पहनना। क्योंकि तब बहुत अधिक गरमी लगेगी, क्योंकि काला रंग सूरज की प्रत्येक किरण को सोखता चला जाता है। सफेद रंग ठंडा और शीतल होता है। सफेद रंग को देखने मात्र से ही ठंडक का अहसास होता है। सफेद रंग के कपड़े पहनने से शीतलता अनुभव होती है, क्योंकि सफेद रंग अपने में कुछ भी आत्मसात नहीं करता, वह सभी सूरज की किरणों को वापस फेंक देता है।
भारत में जैन धर्म ने त्याग की परंपरा के कारण ही अपना रंग सफेद चुना—क्योंकि जैन धर्म में सभी का त्याग कर देना होता है। सफेद रंग त्याग का प्रतीक है। सफेद रंग सभी कुछ वापस फेंक देता है, अपने में कुछ भी समाविष्ट नहीं करता। मृत्यु को सभी जगह कालिमा की भांति चित्रित किया जाता है, क्योंकि काला रंग सभी अपने में सोख लेता है, उससे कुछ भी वापस नहीं आता है, सभी कुछ उसमें समाहित हो जाता है और उसमें खो जाता है। काला रंग एक ब्लैक होल की तरह होता है। शैतान को सभी जगह काले के रूप में ही चित्रित किया जाता है, बुराई को भी काले की भांति ही चित्रित किया जाता है, क्योंकि काले रंग में किसी भी चीज को त्यागने की क्षमता नहीं होती। काला रंग पजेसिव होता है। वह कुछ भी वापस नहीं दे सकता है; वह कुछ भी बांट नहीं सकता है।
हिंदुओं ने अपने संन्यासियों के लिए एक विशेष कारण से गेरुआ या भगवा रंग को अपना रंग चुना है, क्योंकि लाल किरणें वापस प्रतिबिंबित हो जाती हैं। लाल किरणें शरीर में प्रवेश करके कामुकता और हिंसा को जन्म देती हैं। लाल रंग हिंसा का, खून का रंग है। लाल किरण शरीर में पहुंचकर हिंसा, कामुकता, उद्वेग, अशांति को जगाती है। अब तो वैज्ञानिक भी कहते हैं कि अगर किसी व्यक्ति को ऐसे कमरे में छोड़ दिया जाए जो कि पूरी तरह लाल हो, तो सात दिन के भीतर वह आदमी पागल हो जाएगा। और किसी भी चीज की जरूरत नहीं है; बस सात दिन तक लगातार लाल रंग को देखने से ही वह पागल हो जाएगा। कमरे में —पर्दे, फर्नीचर हर सामान, हर चीज लाल हो —यहां तक कि दीवारें भी लाल हों। तो सात दिन के भीतर व्यक्ति पागल हो जाएगा; लाल रंग उसके लिए असहनीय हो जाएगा।
हिंदुओं ने अपने लिए लाल रंग और लाल रंग से मिलते —जुलते रंगों को चुना है, जैसे नारंगी गैरिक और इसी तरह के दूसरे रंग। क्योंकि वे आदमी के भीतर की उत्तेजना और हिंसा को कम करने में सहयोगी होते हैं। लाल किरण वापस फेंक दी जाती है, वह शरीर के भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाती।
पतंजलि कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति अपने पर पड़ने वाली सारी किरणों को सोख ले, तो फिर वह अदृश्य हो सकता है। फिर उसे देख सकना संभव नहीं है। फिर तो बस एक रिक्तता, काली रिक्तता दिखाई दे सकती है, लेकिन व्यक्ति अदृश्य हो जाएगा। योगी ऐसा कैसे कर पाता है? और कई बार योगी ऐसा करते हैं। योगी के साथ कई बार ऐसा होता .है और योगी को इसका पता भी नहीं होता है। अत: इसकी पूरी प्रक्रिया को ठीक से समझ लें।
पतंजलि की दर्शन —प्रणाली में बाह्य संसार और आंतरिक संसार में एक गहन तालमेल है। वैसा ही होना भी चाहिए; वे एक—दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। हमें प्रकाश दिखाई देता है, प्रकाश सूर्य से आता है। आंखें उसे ग्रहण करती हैं। अगर आंखें उसके प्रति ग्राहक न हों, तो सूर्य मौजूद भी रहे लेकिन हम अंधकार में ही जीएंगे। अंधे आदमी के साथ ऐसा ही तो होता है, अंधे आदमी की आंखें कुछ ग्रहण नहीं करतीं।
तो आंखों का सूर्य के साथ तालमेल है। आंखें शरीर में सूर्य का प्रतिनिधित्व करती हैं, वे परस्पर जुड़े हुए हैं। सूर्य आंखों को प्रभावित करता है, आंखें सूर्य के प्रति संवेदनशील और ग्राहक होती हैं। इसी तरह से ध्वनि कानों पर प्रभाव डालती है। ध्वनि बाहर होती है, कान शरीर के अंग होते हैं। बाहर की वास्तविकता तत्व—रूप में जानी जाती है, भौतिक —तत्व के रूप में, और भीतर की गतिमयता तन्मात्र कहलाती है, भीतर के मूल—तत्व के रूप में। पतंजलि की दर्शन —प्रणाली में इन दोनों को समझना बहुत महत्वपूर्ण है।तत्व' जो है वह 'बाहर की वास्तविकता है, सूर्य और बाहर की वस्तुओं के बीच तालमेल। और भीतर की गतिमयता जिसे पतंजलि 'तन्मात्र' कहते हैं, भीतर के मूल—तत्व कहलाते हैं। इसीलिए आख और सूर्य के बीच, ध्वनि और कान के बीच, नाक और गंध के बीच एक तरह का तालमेल और संवाद रहता है। एक अदृश्य तालमेल जो दिखायी तो नहीं पड़ता है, लेकिन फिर भी उनके बीच कुछ जुड़ा हुआ और सेतु बद्ध होता है।
जब व्यक्ति ध्यान में गहरा जाता है और ध्यान की गइराई में शून्यता के अंतरालों को, गेपों को समझ सकता है, तो पहले तो 'निरोध ' घटित होता है, और वही अंतराल धीरे — धीरे बढ़ते हुए समाधि बन जाते हैं, उसके बाद 'एकाग्रता परिणाम' का उदय होता है, तब व्यक्ति 'तन्मात्राओं' को, आंतरिक मूल तत्वों को, सूक्ष्म तत्वों को जान सकता है। हम सूर्य को तो आख से देख सकते हैं, लेकिन हमने स्वयं की आख को अभी तक नहीं देखा है। केवल गहन शून्यता की स्थिति में, जागरूक होकर ही हम स्वयं की आख को देख सकते हैं। हम ध्वनि सुनते हैं, लेकिन हमने ध्वनि के प्रति अपने कान को प्रतिध्वनित होते नहीं सुना है। जो ध्वनि—तरंग कान के द्वारा आती है, वह एक सूक्ष्म तरंग होती है हमने अभी भी उसे सुना नहीं है। वह ध्वनि बहुत सूक्ष्म होती है और हम बहुत स्थूल हैं। हम अभी इतने परिष्कृत नहीं हुए हैं कि उस सूक्ष्म ध्वनि को सुन सकें। अत: अभी उस सूक्ष्म संगीत को सुनना हमारे लिए संभव नहीं है। हम एक गुलाब के फूल को तो सूंघ लेते हैं, लेकिन हम अभी स्वयं के भीतर के उस सूक्ष्म तत्व को नहीं सूंघ पाए हैं जो गुलाब को सूंघता है, जो तन्मात्र है।
योगी उस अंतर — ध्वनि को जो निपट सन्नाटा है, मौन है, उसको सुनने में सक्षम हो जाता है। योगी आख को भीतर की उस आख को देखने में सक्षम हो जाता है, जो परिशुद्ध निर्मल दृष्टि है। और उसी में अदृश्य हो जाने की पूरी प्रक्रिया समाहित है।
'……शरीर के स्वरूप पर संयम संपन्न करने से......'
अगर योगी केवल अपनी काया पर, अपने ही शरीर के स्वरूप पर ध्यान केंद्रित करता है, तो बस स्वरूप पर ध्यान केंद्रित करने के माध्यम से ही वह सूर्य की किरणों को शरीर में सोख लेता है, और वे किरणें फिर वापस प्रतिबिंबित नहीं होती हैं। जब हम काया पर या शरीर पर, ध्यान करते हैं, तो शरीर खुलता है। शरीर के सभी बंद द्वार खुल जाते हैं और सूरज की किरणें शरीर में प्रविष्ट हो जाती हैं, और तब काया का तन्मात्र सूरज के तत्व को सोख लेता है और अचानक व्यक्ति अदृश्य हो जाता है, और तब कोई भी व्यक्ति उस आदमी को नहीं देख सकता। क्योंकि देखने के लिए तो प्रकाश वापस प्रतिबिंबित होना चाहिए।
ऐसा ही ध्वनि के साथ होता है
'यही नियम शब्द के तिरोहित हो जाने की बात को भी स्पष्ट कर देता है।
जब योगी अपने कान के आंतरिक 'तन्मात्र' पर ध्यान करता है, तो सारी ध्वनियां उसमें आत्मसात हो जाती हैं। और जब सारी ध्वनियां आत्मसात हो जाती हैं, तब योगी की मौजूदगी मात्र ही हमें मौन का स्वाद दे देगी। अगर हम किसी योगी के निकट जाएं तो अचानक हमें ऐसा लगता है कि हम मौन में प्रवेश कर रहे हैं। उसका कारण है कि योगी के आसपास कोई ध्वनि निर्मित नहीं होती। इसके विपरीत चारों तरफ की जो ध्वनियां उस पर पड़ती हैं, वे भी उसमें आत्मसात होकर विलीन हो जाती हैं। और ऐसा ही उसकी सभी इंद्रियों के साथ होता है। इसी कारण योगी कई —कई ढंगों से अदृश्य हो जाता है।
अगर तुम कभी किसी योगी के पास जाओ तो यही कुछ मापदंड हैं जो ध्यान में रखने के हैं। यही कुछ मापदंड हैं। और ऐसा भी नहीं है कि योगी इन बातों को साधने की या करने की कोशिश करता है। वह ऐसा नहीं करेगा, वह तो उन्हें टालना चाहेगा। लेकिन कभी —कभी ऐसा घटित होता है। कभी —कभी किसी सदगुरु के सान्निध्य में
यहां ऐसा बहुत से लोगों के साथ होता है, और वे मुझे लिखते हैं.....। अभी कुछ दिन पहले ही एक प्रश्न था: 'आपको देखकर मुझे क्या हो जाता है? कहीं मैं पागल तो नहीं होता जा रहा हूं? आपको देखते —देखते कभी —कभी तो आप अदृश्य हो जाते हैं।
अगर तुम मुझे एकटक देखते ही चले जाओ, देखते ही चले जाओ तो तो देखते —देखते एक ऐसा क्षण आएगा जब मैं अदृश्य हो जाऊंगा। मेरे शब्दों को सुनते —सुनते अगर तुम ध्यानपूर्वक उन्हें सुन रहे हो, तो अचानक तुम्हें ऐसा आभास होगा कि वे शब्द किसी गहन सन्नाटे और मौन से आ रहे हैं। और जब तुम्हें ऐसा अनुभव होता है, तभी तुम मुझे सच में सुनते हो, उससे पहले नहीं।
और ऐसा नहीं है कि ऐसा जान —बूझकर किया जाता है। असल में योगी तो कभी कुछ करता ही नहीं है। वह तो बस अपने अस्तित्व के केंद्र में प्रतिष्ठित रहता है और उसके आसपास घटनाएं घटती रहती हैं। सच तो यह है, योगी इन घटनाओं से बचना चाहता है, लेकिन फिर भी उसके आसपास
घटनाएं घटती रहती हैं, चमत्कार घटित होते रहते हैं। हालांकि कोई चमत्कार इत्यादि हैं नहीं, लेकिन जो समाधि को उपलब्ध हो जाता है, उसके पास चमत्कार घटित होते ही रहते हैं। जो व्यक्ति समाधि को उपलब्ध हो जाता है, उस व्यक्ति के पीछे—पीछे छाया की भांति चमत्कार चले आते हैं।
इसे ही मैं धर्म का विज्ञान कहता हू। पतंजलि ने धर्म के विज्ञान के आधार दिए हैं। लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना शेष है। पतंजलि ने तो केवल उसका एक ढांचा दे दिया है—अभी उन अंतरालों में, गेपों में बहुत कुछ भरना है। वह तो केवल एक सीमेंट—काक्रीट का ढांचा है, अभी उसके ऊपर दीवारें खड़ी करनी हैं, भवन का निर्माण करना है। केवल सीमेंट—काक्रीट के ढांचे में रहना संभव नहीं है। अभी उस ढांचे पर भवन का निर्माण करना है। लेकिन फिर भी पतंजलि ने एक आधारभूत संरचना तो दे ही दी है।
और पतंजलि को हुए पांच हजार साल बीत गए हैं और भवन की नींव अभी नींव ही है, वह अभी तक मनुष्य के रहने लायक भवन नहीं बन पाया है। आदमी अभी भी परिपक्व नहीं हुआ है। आदमी खिलौनों से खेलता रहता है, और जो होने के लिए वह आया है, जो उसकी वास्तविकता है वह उसकी प्रतीक्षा ही करती रहती है —इस बात की प्रतीक्षा कि जब भी कभी आदमी पूर्ण रूप से परिपक्व होगा तो उसका उपयोग करेगा। और इसके लिए कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं है, हम ही इसके लिए जिम्मेवार हैं। इस पृथ्वी को जिस विराट मूर्च्छा ने घेरा हुआ है, उसके लिए हम सभी जिम्मेवार हैं। मेरे देखे तो यह ऐसा ही है जैसे कि एक कुहासा पूरी पृथ्वी पर छाया हुआ हो, और मनुष्य गहन मूर्च्छा में सो रहा हो।
मैंने सुना है एक दिन ऐसा हुआ. एक बहुत ही परिश्रमी समाज सेविका ने सडक पर लड़खड़ाते हुए शराब में धुत्त एक आदमी से पूछा, ' ओ भलेमानस, ऐसी कौन सी बात है जो तुम्हें इस तरह शराब पीने के लिए मजबूर कर देती है?'
खुशी में झूमता हुआ वह शराबी लापरवाही से बोला, 'मैडम, कोई मुझे मजबूर नहीं करता। मैं वालंटियर हूं, मैं स्वेच्छा से ऐसा करता हूं।
मनुष्य अपनी इच्छा से अंधकार में जी रहा है। स्वेच्छा से ही मनुष्य अधंकार में जीता है। किसी ने भी हमें अंधकार में रहने के लिए मजबूर नहीं किया है। उस अंधकार से बाहर आने की जिम्मेवारी हमारी अपनी है। शैतान को और दुष्ट राक्षसी शक्तियों को दोष मत देना कि वे हमें बिगाड़ रहे हैं। कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है जो हमें बिगाड़ सके। हम स्वयं ही इसके लिए जिम्मेवार हैं। और जब तक हम मूर्च्छा में हैं, तब जिसे भी हम देखते हैं, वह विकृत हो जाती है, जिसे भी हम छूते हैं वह विकृत हो जाती है—जिस चीज को भी हमारे हाथ का स्पर्श होता है, वह कुरूप और गंदी हो जाती है।
दो शराबी रेलवे लाइन से होते हुए घर लौट रहे थे, वे लड़खड़ाते कदमों से रेलवे लाइन के स्लीपर पर स्लीपर पार करते जा रहे थे। अचानक आगे चल रहा व्यक्ति बोला, 'ओह ट्रेवर! मैंने आज तक शायद ही कभी इतनी लंबी सीढ़ियां देखी होंगी!'
पीछे से उसका मित्र चिल्लाया, 'सीढ़ियों की मुझे परवाह नहीं है, जार्ज। लेकिन इतनी नीची रेलिंग मुझे परेशान किए डाल रही है।
हम अहंकार की शराब, वस्तुओं की शराब को पीए चले जाते हैं, और जीवन की वास्तविकता से हम अनभिज्ञ ही रह जाते हैं। और फिर जो कुछ भी हम देखते हैं या छूते हैं वह विकृत हो जाता है। फिर यह विकृति ही हमारे लिए भ्रामक संसार का, झूठी कल्पनाओं के संसार का निर्माण करती है। संसार माया नहीं है। संसार तो माया हमारे मूर्च्छित और बेहोश मन के कारण ही माया हो जाता है। जिस क्षण हमारी मूर्च्छा, हमारी बेहोशी टूट जाती है, और हम जागरूक हो जाते है, उसी क्षण यह जगत एक अदभुत और अभूतपूर्व सौंदर्य के साथ जगमगा' उठता है—तब संसार ही परमात्मा हो जाता है।
परमात्मा और जगत कोई दो अलग— अलग घटनाएं नहीं हैं। वे दो की भाति प्रतीत होते हैं, क्योंकि हम सोए हुए हैं, मूर्च्‍छित हैं, बेहोश हैं। जिस क्षण हम जाग्रत हो जाएंगे, वे दो नहीं रह जाएंगे; वे एक हैं। और जैसे ही हम उस अदभुत सौंदर्य को —जो कि हमें चारों ओर से घेरे हुए है—जान लेते हैं; वे ही हमारी उदासी, निराशा, दुख, पीड़ा सभी कुछ समाप्त हो जाते हैं। तब एक अलग ही आयाम में हम जीने लगते हैं, हमारे ऊपर आर्शीवादों की वर्षा हो जाती है।
योग संसार को सजग और जाग्रत दृष्टि से देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है.. और तब यह संसार ही परमात्मा हो जाता है। फिर परमात्मा को कहीं और ढूंढने जाने की आवश्यकता नहीं है। सच तो यह है, तब परमात्मा इत्यादि को भूलकर बस, और अधिकाधिक जागरूक होते जाना है। और उसी जागरूकता से ही एक दिन परमात्मा प्रकट हो जाता है, हमारी मूर्च्छा में, हमारी बेहोशी में वह खो जाता है। परमात्मा कहीं खो नहीं जाता है, केवल हम ही अपनी मूर्च्छा में, अपनी बेहोशी में खो गए होते हैं। मूर्च्छा में हम भूल जाते हैं कि हम कौन हैं।
जब केवल जागरूकता ही रह जाए, तो वह जागरूकता का अपने शिखर तक पहुंच जाना ही समाधि है। मौन की पराकाष्ठा ही समाधि है। प्रत्येक व्यक्ति समाधि को उपलब्ध —हो सकता है, क्योंकि समाधि प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। अगर हमने ही समाधि की मांग नहीं की है, तो उसका उत्तरदायित्व हमारे ऊपर है। और समाधि तब तक क्यारी ही बनी रहती है, और प्रतीक्षा ही करती रहती .है।
अब बहुत हो चुका अब और अधिक समय मत गवाओ। अब जीवन के प्रत्येक क्षण, प्रत्येक पल का उपयोग, जीवन की श्वास—श्वास का उपयोग अब केवल एक ही बात के लिए करो कि कैसे अधिकाधिक जागरूक हो जाएं, कैसे अधिकाधिक होश से भर जाएं।
मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूं:
दो यहूदी स्त्रियां, सराह और ऐमी, बीस वर्ष के बाद मिलीं। वे दोनों कालेज में साथ—साथ पढ़ी थीं और उनमें आपस में बड़ी गहरी मित्रता थी। लेकिन बीस वर्ष से न तो वे एक—दूसरे से मिली थीं और न उन्होंने एक—दूसरे को देखा था। जब इतने वर्षों के बाद वे मिलीं, तो पहले वे प्रेमपूर्वक एक—दूसरे के गले मिलीं, एक—दूसरे को खूब चूमा।
फिर सराह ने पूछा, 'ऐमी तुम कैसी हो?'
'एकदम ठीक। इतने वर्षों के बाद तुम से मिलना कितना अच्छा लग रहा है। और तुम अपनी सुनाओ सराह, तुम कैसी हो?'
'शायद तुम्हें यह जानकर और सुनकर हैरानी होगी कि जब हेरी और मेरी शादी हुई तो वह मुझे हनीमून पर ले गया—तीन महीने मेडीटेरेनीयन में और एक महीने हम लोग इजरायल में थे! यह सब जानकर तुम्हें कैसा लग रहा है?'
'फैंटास्टिक!' एमी ने कहा।
'फिर जब हनीमून के बाद हम घर वापस लौटे तो हेरी ने मुझे वह नया घर दिखाया जो उसने मेरे लिए खरीदा था। उस घर में सोलह कमरे थे, दो स्वीमिंग मूल थे और एक नयी मर्सिडीज कार थी। तुम्हें कैसा लग रहा है यह सुनकर ऐमी?
'फेंटास्टिक!'
'और अब हमारी शादी की बीसवीं वर्षगांठ की खुशी में उसने मुझे यह हीरे की अंगूठी दी है —दस कैरट की।
'फेंटास्टिक।
'और अब हम समुद्री जहाज से पूरी दुनिया घूमने जाने वाले हैं।
'वाह! फेंटास्टिक!'
'ओह ऐमी, हेरी ने मेरे लिए क्या —क्या किया और आगे वह क्या —क्या करने वाला है, यह सब बातें मैं इतनी तेजी से कह गई कि मैं यह पूछना तो भूल ही गई कि तुम्हारे ऐबी ने तुम्हारे लिए क्या—क्या किया?'
'ओह, हमारी जिंदगी साथ —साथ खूब अच्छी गुजरी।
'लेकिन उसने विशेष रूप से तुम्हारे लिए क्या —क्या किया?'
'उसने मुझे चार्म —स्कूल में पढने के लिए भेजा।
'तुम्हें चार्म —स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा? तुम चार्म —स्कूल में किसलिए जाती थीं?'
'यह सीखने के लिए कि व्यर्थ की बकवास को फेंटास्टिक कैसे कहना!'
यही तो है योग का सार—तत्व—कि तुम अपने इस अनूठेपन के प्रति, फेंटास्टिक के प्रति जागरूक हो जाओ। समाधि खड़ी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, और तुम हो कि अभी भी कचरे में ही पड़े हुए हो। तुम्हें स्वयं को बंधनों से मुक्त करके, उन बंधनों से बाहर होना है। बिना समाधि के अब बहुत हो चुका।
और इसका निर्णय कोई दूसरा नहीं ले सकता है। इसका निर्णय तुमको ही लेना है। अभी जैसे तुम हो यह तुम्हारा अपना ही निर्णय है। और तुमको ही परिवर्तित होना है, तुमको ही रूपांतरित होना है, यह निर्णय भी अपना ही होगा।
मैं तुम से केवल इतना ही कह सकता हूं कि जीवन अनूठा है। और वह तुम्हारे करीब ही है और तुम उसे अपने ही कारण चूक रहे हो। अब और चूकने की आवश्यकता नहीं है।
और योग कोई ऐसा दर्शन नहीं है जो केवल आस्था और विश्वास के आधार पर खड़ा हो। योग तो एक संपूर्ण विधि है, एक वैज्ञानिक विधि। उस विलक्षणता को कैसे उपलब्ध कर लेना, यह जानने की एक वैज्ञानिक विधि है।

आज इतना ही।


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