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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-14)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो 

(प्रवचन -चौहदवां)

इंद्रियों की जड़ें शरीर में

...सब ऐसा हो सकता है जो ऊपर की तरफ इशारा करता हो, और सब ऐसा हो सकता है कि नीचे की तरफ इशारा करता हो। असल में कोई सीढ़ी ऐसी नहीं जो दोनों तरफ नहीं जाती हो। सब सीढ़ियां दोनों तरफ जाती हैं। ऊपर की तरफ भी वही सीढ़ी जाती है, नीचे की तरफ भी वही सीढ़ी आती है। सिर्फ आपके रुख पर निर्भर करता है कि आप किस तरफ जा रहे हैं। तो एक दफा रुख साफ हो जाए। इधर तो मैं इस पर सच में निरंतर सोचता हूं। अगर एक चित्र को देख कर एक आदमी की कामुकता जग सकती है तो ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि एक चित्र को देख कर आदमी की कामुकता विलीन हो जाए। ये दोनों बातें एक साथ हो सकती हैं। मगर ऐसा चित्र तो बना नहीं पाता साधु जो कामुकता को विलीन करता हो। चिल्लाता यह है कि वह कामुकता वाला चित्र नहीं चाहिए। वह तो रहेगा। तुम चित्र को और श्रेष्ठ चित्र से बदल सकते हो। और कोई उपाय नहीं बदलने का। संगीत और श्रेष्ठ संगीत से बदल सकता है; संगीत मिटाने का उपाय नहीं है।

इधर मेरी दृष्टि यह है कि जीवन की सारी चीजों का, समग्र जीवन का ऐसा उपयोग होना चाहिए कि वह रोज सीढ़ी बनती चली जाए। और रोज हमें पता चलता जाए कि कितनी इसमें मिथ्या है। अब जैसे हमें लगे कि इतनी देर संगीत सुना, तो हम फिर कभी पीछे सोचते नहीं कि क्या हुआ। न कभी विचार करते कि आखिर हमको आधा घड़ी अच्छा लगा, क्यों लगा? क्या बात थी? सोचेंगे तो बहुत इंप्लिकेशंस हैं।
एक उदाहरण के लिए आपको कहूं कि इतनी देर आप सुन रहे थे, कोई भी इंद्रिय पूरी तरह से कहीं सक्रिय हो जाए तो शेष सारा मन उस तरफ बहने लगता है और, और से शिथिल हो जाता है। और तरफ से मार्ग उसके बंद हो जाते हैं। यानी जब आप संगीत सुन रहे हैं, जब सच में ठीक से सुन रहे हैं, और ठीक से संगीत चल रहा है तो आप सिर्फ कान ही हो जाते हैं, बाकी आप नहीं रह जाते। बाकी सब तरफ से चेतना जो है वह कान की तरफ आकर इकट्ठी हो जाती है। क्योंकि वहां से कुछ रस आ रहा है। तो सारी चेतना वहां चली आती है। और चेतना किसी भी कारण से कहीं भी इकट्ठी हो जाए तो सुखद है। टूटी हुई चेतना दुखद है। बिखरी-बिखरी चेतना दुखद है। खंड-खंड है, अखंड हो गई थोड़ी देर के लिए, सब सरक आई वहीं। यानी सब ताकत वहीं आ गई। और प्रतिपल हमारे शरीर की सब इंद्रियों में चेतना सरकती रहती है।
जैसे आपने खाना खा लिया, फिर नींद आने का मन होता है। वह नींद आने के मन का और कोई कारण नहीं है। सारी चेतना पेट के पास आ गई और वह पचाने में लग गई है। मस्तिष्क खाली हो गया है और वह शिथिल हो रहा है। और वह सो जाना चाहता है। और कोई कारण नहीं है। इसलिए ज्यादा खा लेते हैं, इसलिए नींद फौरन पकड़ना शुरू करती है। वह जितनी शक्ति मस्तिष्क के पास थी, वह वापस आ गई है। वह पेट पर काम कर रही है। पेट ज्यादा प्राइमरी है। अभी काम वहां होगा, इसके बाद कुछ होगा। इसके बाद फिर मस्तिष्क को मिल सकती है शक्ति। अभी वहां से बुला लिया गया है। तो इमरजेंसी की स्थिति है पेट के लिए, वह सारी चीज वहां आ गई।
आप संगीत सुन रहे हैं तो सारी चेतना कान के पास आ गई। यानी कहना चाहिए आपकी आत्मा कान के पास है उस वक्त। और चूंकि वह इकट्ठी होती है, इसलिए सुखद मालूम पड़ती है। और इंद्रियों पर इकट्ठी होती है तब इतना सुखद मालूम पड़ता है। जब इंद्रियों से भिन्न कहीं इकट्ठी होती हो, उस सुख का तो कोई हिसाब नहीं। जब आप भोजन कर रहे हैं तब भी आपको जो सुख आता है, वह पूरी चेतना वहां आ गई तो, नहीं तो नहीं आएगा।
जैसे आप भोजन कर रहे हैं। बहुत ही स्वादिष्ट और बहुत स्वादपूर्ण लग रहा है। और एक आदमी ने आकर खबर दी कि नीचे पुलिस वाले खड़े हैं, वारंट लिए हुए हैं, हथकड़ी बांधे हुए हैं। अचानक सब विदा हो गया। अब भी आप भोजन खा रहे हैं, लेकिन अब मुंह में कोई स्वाद नहीं आ रहा है। चेतना वहां से विदा हो गई। जीभ रह गई वहां सिर्फ। अब वह जीभ बेकार है। अब वह, अब वह डाले जा रही है जल्दी, अब उसको कोई मतलब नहीं रहा है, बात खत्म हो गई। क्योंकि चेतना वहां से हट गई, वह और कहीं चली गई, जहां जरूरत है। अब वह वहां चिंतन में लग गई कि अब क्या करना है, क्या नहीं करना है? खाना गया। खाना गया ही।
तो हमारी सारी इंद्रियां चेतना को इकट्ठा करने का उपाय बनती हैं। और इसलिए जिस व्यक्ति के पास जो इंद्री बहुत सजग हो जाती है...आखिर कलाकारों का वही सुख है। जैसे एक पेंटर है, वह भी देखता है बगीचे में आकर फूलों को। आपने भी देखा है। लेकिन आपको कभी कुछ नहीं दिखाई पड़ता है जो उसको दिखाई पड़ता है। क्योंकि आपने सिर्फ आंख से देखा है, उसकी आंख में उसकी पूरी आत्मा इकट्ठी हो जाती है। उसकी जो इंटेंसिटी है, वह वैसी ही है जैसे कि भोजन आप पहले कर रहे थे, और खाने में थी। और खबर मिली कि वारंट आ गया और विदा हो गई, जीभ रह गई सिर्फ। तो हममें, हममें कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमारी आंख, पूरी की पूरी आत्मा वहां आ गई हो। तो, तोे जो हम जानेंगे, वह पेंटर जान रहा है। कान के पास पूरी आत्मा आ जाए तो हम वह जानेंगे, जो संगीतज्ञ जान रहा है।
एक प्रेमी ने अपने प्रेमी का हाथ हाथ में लिया है तो सारी आत्मा हाथ में आ गई। अगर आ जाए तो ही हाथ में पता चलेगा कि कुछ है, नहीं तो बेकार है। हाथ में हाथ रह जाएगा और कुछ नहीं रह जाएगा। हमारी इंद्रियां भी उतनी ही सतेज हो जाती हैं अनुभव करने में, जहां हम पूरे इकट्ठे हो जाते हैं। और यह...लेकिन इससे सिर्फ दुख ही भूल पाता है, बस।
इंद्रिय के द्वार से कभी भी ऐसे आनंद के आने का उपाय नहीं है जो शाश्वत हो, परम हो। जो आता है, वह चला जाता है फिर। फिर थोड़ी देर में बिखर जाता है। लेकिन एक ऐसा आनंद भी है जो हम इंद्रियों से दूर अपने भीतर वहां इकट्ठे होते हैं जहां इंद्रियों का सवाल नहीं है। इंद्रियों का जो घेरा है, उसके बिलकुल मध्य में हम इकट्ठे होते हैं जहां इंद्रियां नहीं हैं। वहां जो अनुभव होता है, वह अतींद्रिय है।
यह जो अतींद्रिय अनुभव है, यह सुख, आनंद, कहीं से आया हुआ नहीं है, अब किसी द्वार से। यह अपने ही भीतर जन्मा है। इसलिए अब इसके जाने का भी कोई सवाल नहीं है। तो संगीत से आपको सुख मिल सकता है। संगीत बंद हो जाएगा और सुख खो जाएगा। वह आपमें ऐसा डाला गया था। वह वापस लौट गया। एक ऐसा आनंद है जो आपमें ही जन्मता है। जो कहीं बाहर से नहीं आता। इंद्रियां जो हैं वे बाहर से लाने के द्वार हैं। इसलिए इंद्रियों पर जो निर्भर होकर आनंद को खोज रहा है, वह हमेशा क्षणिक आनंद से बाहर कभी भी नहीं खोज पाएगा। खोजेगा, खोज भी नहीं पाएगा कि गया। पकड़ में आ भी नहीं पाया कि छूट गया।
तो आनंद की खोज तो वहां करनी है जहां हम बाहर के द्वार से सवाल हटा लेते हैं। द्वार का सवाल ही नहीं है। हम सब द्वारों से हट जाते हैं। और वहां खड़े हो जाते हैं जहां कोई द्वार नहीं। जहां हम ही हैं भीतर सिर्फ। और एक बार हम वहां इकट्ठे हो जाएं, इसी का मतलब इंटिग्रेशन या योग। योग का मतलब हैः वहां इकट्ठे हो जाना, जहां इंद्रियां नहीं हैं। जहां इंद्रियां हैं, वहां इकट्ठा होने का नाम है भोग।
अगर इसके पूरे साइंटिफिक अर्थ को समझें, तो भोग का मतलबः जहां इंद्रियां हैं, वहां आत्मा को ले जाना। खाने पर ले जाओ, संगीत पर ले जाओ, प्रेम में ले जाओ, कहीं भी ले जाओ। जहां भी आत्मा को इंद्रिय पर ले जाया जाता है, उस अनुभव का जो नाम है, वह है भोग। और जब आत्मा को हम ऐसी जगह ले जाते हैं जहां कोई द्वार नहीं, कोई इंद्रिय नहीं, किसी का भोग नहीं, किसी से संबंध नहीं; जहां असंग, अकेली, निद्र्वार, डोरलेस आत्मा खड़ी हो जाती है और इकट्ठी हो जाती है--उसका नाम है योग। ऐसी इकट्ठी हुई आत्मा उस आनंद को जान लेती है जो भीतर से जन्मता है।
और तब इसको आप बांट तो सकते हैं, लेकिन चुका नहीं सकते। चुका नहीं सकते हैं। क्योंकि यह आपके प्राणों का हिस्सा है। इसे चुकने का कोेई कारण नहीं है। इसे खत्म भी नहीं कर सकते हैं। और इसे जान लें तो फिर सारी इंद्रियों के सुख अत्यंत फीके हो जाते हैं। यानी कोई अर्थ के नहीं रह जाते। कोई अर्थ ही नहीं है। तो ये सारी कलाएं इंद्रियों के द्वार पर आत्मा को इकट्ठा करने का काम करती रही हैं। पर उनको मार्ग बनाया जा सकता है कि वे आगे की खबर दें। वहीं न अटका दें।

प्रश्नः अतींद्रिय जो सुख है उसका, उसका अनुभव हुआ, गहराई कैसे बढ़ती चली जाती है?

वह शुरू तो हो। शुरू हुआ तो गहराई में देर नहीं लगती।

प्रश्नः अतींद्रिय सुख की शुरुआत तो आभासिक शांति से होनी चाहिए न?

होनी चाहिए, ऐसा नहीं कहता। हां, हो सकती है। हो सकती है, ऐसा नहीं कहता हूं, होनी चाहिए।

प्रश्नः तो क्या आभासिक शांति ओम के उच्चारण द्वारा नहीं हो सकती?

वह तो शांति, आभासिक शांति तक भी नहीं है वहां। वहां तो आभासिक शांति तक नहीं है। उसको तो मैं विक्षिप्तता कह रहा हूं। वह तो पागलपन है। सुबह थे न तुम? उसे तो मैं विक्षिप्तता कह रहा हूं, वह आदमी तो सिर्फ पागलपन में पड़ा हुआ है।

प्रश्नः तो संगीत ओम पर लाया जा सकता है क्या?

हां, हां। बिलकुल लाया जा सकता है। ओम पर लाया जा सकता है। किसी भी चीज पर लाया जा सकता है। तुम पर जो परिणाम होगा, वह ओम का नहीं होने वाला है। तुम पर जो परिणाम होगा वह तो स्वरों की जो हार्मनी है, उसका होने वाला है। संगीत कुछ भी हो। उसमें जो दो स्वरों के बीच जो लयबद्धता है उसका तुम पर परिणाम होगा। वह चाहे ओम कहे, चाहे कुछ भी कहे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे तुम्हारा संबंध नहीं है।
तुम्हारा संबंध तो यह है कि चित्त पर स्वरों का जो आघात हो रहा है, वह आघात लयबद्ध होनी चाहिए। बस लयबद्धता संगीत है। तुम उससे क्या गा रहे हो, फिल्मी गाना गा रहे हो कि भजन गा रहे हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लयबद्धता उसकी तुम्हारे चित्त को प्रभावित करती है।
इसको भी मैं आभासिक शांति ही कह रहा हूं। यह शांति नहीं है। यह शांति नहीं है। लेकिन एक आदमी जो बैठ कर ओम, ओम, ओम जप रहा है, वह तो बेचारा अत्यंत ही जिसको कहें साइको-न्यूरोटिक हालत में है। वह तो उस हालत में है जहां उसकी चिकित्सा, इलाज होना चाहिए। बहुत बुरी हालत में है। उसकी सारी प्रतिभा मर जाएगी। जो चित्त की जागरूकता है, तेजस्विता है, वह मर जाएगी। डल हो जाएगा। तुमने कभी भी राम-राम जपने वाले आदमियों को प्रतिभावान नहीं देखा होगा। जीनियस नहीं पाओगे। डल माइंड, और धीरे-धीरे स्टुपिड हो जाएंगे।
क्योंकि ये काम स्टुपिड हैं। यह जो काम है न, इतना मैकेनिकल और इतना मूढ़तापूर्ण है कि इसका टोटल इंपेक्ट जो होने वाला है, वह डलनेस की तरफ ले जाने वाला है, तमस की तरफ। यानी यह, यह सब इस तरह का नाम जप वगैरह तामसिक निद्रा पैदा करने वाला है। तमसपूर्ण है। इसका सत्य से कोई संबंध नहीं है।

प्रश्नः पर वास्तव जगत को भूलने के लिए जैसी शास्त्रों...?

वास्तव जगत को भूलना नहीं है। वास्तव जगत को जानना है। भूलना क्यों?

प्रश्नः नहीं-नहीं, वास्तव जगत यानी, आई एम नाॅट मीन... मैं वह नहीं बोल रहा हूं कि जैसे आपने कहा कि अब शराब का एक प्याला लेने के बाद...?

हां, तो उतना ही मूल्य इसको भी मैं देता हूं। मैं तो यही कहता ही हूंः जैसे शराब है, वैसे ही यह राम-राम है। मैं फर्क नहीं करता इसमें। मधुशाला में जाओ कि मंदिर में चले जाओ, मैं तो फर्क नहीं करता। हां, हां, वही तो। वह तो मैं कहता ही हूं। वह तो है ही।

प्रश्नः शरीर में और कौन सी जगह इकट्ठी की जा सकती है?

असल में जैसे ही तुम इंद्रियों से अलग हुए कि तुम शरीर से अलग हो जाते हो तत्काल। वह घटना शरीर के भीतर नहीं घटती। अब वह जरा मामला और हो जाएगा। वह घटना शरीर के भीतर घटती ही नहीं। असल में तो शरीर तो जो है, वह पूरा का पूरा इंद्रियों का ही बहिर्मुख और अंतर्मुख स्नायुओं का जाल है। यानी अगर ठीक से हम समझें तो शरीर सब इंद्रियों का जोड़ मात्र है, और कुछ भी नहीं है। शरीर में और कुछ है ही नहीं। सब इंद्रियों का जोड़ है। जैसे कि यह एक फोन लगा हुआ है। तुम फोन उठा कर फोन कर रहे हो। तो यह जो फोन का तुम्हें चोंगा दिखाई पड़ रहा है, यही फोन नहीं है। इसकी जो वायरिंग की सिस्टम है पूरी की पूरी, वह भी इसका ही हिस्सा है। समझे न? वह पूरा का पूरा इसी का हिस्सा है। वह एक्सचेंज जो है, वह भी इसी का हिस्सा है। यानी वह पूरा का पूरा जाल ही उसका है।
जब तुम आंख से देख रहे हो तो सिर्फ आंख ही काम नहीं कर रही। आंख के पीछे का पूरा का पूरा स्नायुओं का जाल काम कर रहा है। अगर तुम इंद्रिय से हट गए तो तुम शरीर से हट गए। अतींद्रिय यानी अशरीर। तो बाॅडीलेसनेस में चले गए। वह घटना घटती है। वह घटना बियांड बाॅडी है। जब भी कोई व्यक्ति सारी इंद्रियों से चित्त को अलग करके खड़ा होता है तो फौरन पाता है कि शरीर अलग पड़ा है, और मैं अलग हूं। यह जो, इसलिए कहां शरीर में यह घटती है, कहा नहीं जा सकता है। शरीर के बाहर घटती है घटना, शरीर के भीतर नहीं घटती है।

प्रश्नः शरीर में कोई काउंटरपार्ट होता है उसका?

काउंटरपार्ट हैं। काउंटरपार्ट हैं शरीर में। शरीर के भीतर घटना नहीं घटती है। लेकिन शरीर के भीतर वे हिस्से हैं जहां से आत्मा का संपर्क शरीर को उपलब्ध होता है। जैसे कि दो तार लगे हुए हैं, दोनोें तार छू रहे हैं। तो एक कांटेक्ट फील्ड है जहां से एक तार की बिजली दूसरे तार में चली जाती है। तो ऐसे हमारे शरीर में कोई कुछ स्थान हैं, कांटेक्ट फील्ड हैं, जहां से चेतना और शरीर जुड़ता है। उन्हीं को चक्र कहते हैं। और चक्र भी इसीलिए कहते हैं उनको, चक्र भी इसीलिए कहते हैं कि जब दो शक्तियां जुड़ती हैं तो वहां चक्र पैदा हो जाता है। तीव्र मूवमेंट पैदा हो जाता है। उसी मूवमेंट से घुसती है चेतना भीतर। यानी चक्र कोई ठहरी हुई चीज नहीं है।
अंग्रेजी में सेंटर शब्द से पता नहीं चलता कुछ, भूल हो जाती है। सेंटर स्टैटिक है। सेंटर का मतलबः ठहरा हुआ एक बिंदु। चक्र का मतलब हैः चलता हुआ। मूवमेंट उसमें है। तो जब भी दो कांटेक्ट फील्ड मिलते हैं तो मूवमेंट की स्थिति बनती है। उस मूवमेंट की स्थिति को भी तुम शरीर से नहीं पकड़ सकते हो। शरीर से पकड़ने जाओगे तो खोज ही मुश्किल है। अगर आदमी...फिजियोलाॅजिस्ट से पूछोगेः हम सारा शरीर काट डाले, इसमें कहीं हमें चक्र तो दिखाई नहीं पड़ता। कहीं न कोई हृदय-चक्र है, न कोई कुछ और है, न कोई आज्ञा-चक्र उसमें कहीं नहीं मिलता। इसमें कहीं वह है भी नहीं।
यह ऐसे ही है जैसे कि यह बल्ब जल रहा है। हम इस बल्ब को निकाल लें और सारे बल्ब को तोड़ डालें। और खोज-बीन करें कि वह कहां है, जो रोशनी थी? तो वह कहीं नहीं मिलेगी। तब एक आदमी कह सकता है कि मैं निश्चय से कहता हूं, कि इस बल्ब में रोशनी नहीं थी। क्योंकि इसमें हमने पूरा खोल-खोल के देख लिया, इसमें रोशनी कहीं भी नहीं। रोशनी बाहर से आती हुई कांटेक्ट थी, बल्ब से प्रकट होती थी, लेकिन ठीक बल्ब में नहीं थी। आती बाहर से थी।
तो हमारे शरीर में जो चेतना आ रही है, वह तो बाहर से आ रही हैं, कहीं और से। किन्हीं, कुछ स्थल हैं, जिनसे वह प्रवेश कर रही है। अगर थोड़ी संवेदनशीलता बढ़ जाए, समझ बढ़ जाए, थोड़ी खोज बढ़ जाए तो तुम्हारे शरीर में तुम्हें वे केंद्र बहुत जीवंत और चक्रीय मालूम पड़ने लगेंगे। बिलकुल साफ दिखाई पड़ने लगेगा उनका मूवमेंट। वह सब दिखाई पड़ने लगेगा। लेकिन फिर भी अगर तुम काट कर देखोगे शरीर को तो वह नहीं वहां मिलेगा। और इसलिए योगी बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है, और उसके लिए बड़ी कठिनाई है। उसको पूरा अनुभव होता है कि चक्र यहां है। और अस्पताल में जाता है, और डाक्टर जांच करता है तो वह कहता हैः यहां तो कुछ है नहीं।
अब यह ऐसे ही है मामला जैसे कि अगर अभी हम सब यहां बैठे सोच रहे हैं। अगर मैं इनसे पूछूं कि आप सोच रहे हैं, तो आप कहेंगेः हां। और अभी हम खोपड़ी खोल कर देखें तो विचार नहीं मिलेगा। तब हम कह सकते हैं कि आप झूठ बोलते थे। क्योंकि विचार कहां हैं? खोपड़ी तो खोल कर हम देखते हैं। और अगर कोई सिद्ध करना चाहे तो वह सिद्ध कर सकता है--कोई भी आदमी कभी नहीं सोचता, सब लोग झूठ बोलते हैं। क्योंकि जब भी खोपड़.ी खोली जाती है, विचार नहीं मिलता। वह तो हम मान लेते हैं, यह दूसरी बात है।
अगर मानने से इनकार कर दें तो कोई आदमी सिद्ध नहीं कर सकता कि विचार है। खोपड़ी खोलने से कुछ मिलता नहीं, विचार एकदम खो जाता है। उसका लेकिन अनुभव है पक्का तुम्हें, कि विचार का हमें अनुभव हो रहा है। मैं जानता हूं कि विचार भीतर है। लेकिन शरीर में पकड़ में नहीं आता। ठीक वैसे ही चक्रों का अनुभव भी होता है। और चक्रों से बड़ी व्यवस्था है पूरे जीवन की।
अगर चक्रों को ठीक से समझा जा सके तो सारे जीवन की प्रक्रिया को बदलने में बड़ा सहयोग मिले, बड़ा सहयोग। क्योंकि हो सकता है कि तुम जिंदगी भर मेहनत करते रहो, सिर्फ तुम्हारा एक चक्र शिथिल पड़ा है, और तुम्हारी सब मेहनत बेकार हो जाती हो। यानी ऐसा ही होता है कि तुम दरवाजे को धक्का दिए चले जाते हो और चाबी लगी हुई है, ताला बंद है। और तुम्हें पता ही नहीं कि दरवाजे में ताला भी होता है। तुम सिर्फ, धक्के दे रहे हो। तुम फिजूल मेहनत कर रहे हो। होशियार आदमी आएगा, वह जानता है तो चाबी घुमा देगा। हाथ का इशारा करेगा, वह दरवाजा खुल जाएगा।
तो कई बार तो यह है कि हम बहुत सी फिजूल मेहनत करते रहते हैं। अगर थोड़ा सा हमें कांटेक्ट फील्ड्स का पता हो जाए तो हम उनसे बहुत जल्दी गति कर सकते हैं। एकदम गति कर सकते हैं। इधर मैं सोचता हूं इस पर एक किताब पूरी दे देने को, ताकि यह खयाल में पूरी बात आ सके।

प्रश्नः तो अलग-अलग चक्रों पर केंद्रित होती है। आत्म-आनंद के साथ, आत्मा का जो आनंद उपलब्ध होता है, वह चक्रों पर अलग-अलग केंद्रित होता है।

अलग-अलग केंद्रित होती है। और इसलिए हर चक्र पर जहां पर तुम केंद्रित कर लेते हो, वह वहीं-वहीं प्रवेश करने लगती है। जैसे सेक्स के सेंटर पर अगर किसी को आनंद मिल गया तो उसकी आत्मा उसी के आस-पास इकट्ठी हो जाएगी। और वह उसी को रिपीट करता रहेगा। और उसे पता ही नहीं चलेगा कि और भी सेंटर्स थे जो खाली पड़े रह गए। जहां उसे पता ही नहीं, वहां भी कांटेक्ट हो सकता था। जिसको जहां... और अक्सर यह होता है कि अधिक लोग एकाध सेंटर में जीते हैं और मर जाते हैं--अधिक लोग।
जैसे बहुत बुद्धिशाली व्यक्ति इंटलेक्चुअल है तो वह बुुद्धि के चक्र पर ही जीता है। उसकी सारी शक्ति, सब आत्मा वहीं इकट्ठी हो जाती है। इसलिए हो सकता है एक वैज्ञानिक को शादी की जरूरत न पड़े, उसे सेक्स का सवाल ही नहीं। इसका कारण यह नहीं कि वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध है। इसका कुल कारण इतना है कि सारी आत्मा इंटलेक्ट के उस सेंटर पर आ गई है जहां वह सेक्स की तरफ लौटती ही नहीं। इसलिए सवाल नहीं रहा, उसके लिए सारी आत्मा वहां इकट्ठी हो गई। उसके लिए एक ही काम रह गया। और इन सारे चक्रों की, अलग यात्राएं हैं इनकी।
क्योंकि जिस चक्र पर तुम काम कर रहे हो, उसी चक्र के तल पर जीवन के जो अनुभव हैं, वे तुम्हें उपलब्ध हो सकेंगे। तुम लोग... मैं यहां से देखूं, अगर मेरी आंख का कोन सीधा है तो दीवाल पर जो सीधा पड़ रहा है, वह मुझे दिखाई पड़ेगा। अगर आंख का कोन मेरा ऊपर है तो आकाश में जो है, वह मुझे दिखाई पड़ेगा। अगर नीचे झुका है तो जमीन पर जो है, वह मुझे दिखाई पड़ेगा। चीजें सब हैं, लेकिन मैं तो वही देखूंगा जो मेरी आंख का कोन है।
तो हमारे जो सेंटर्स हैं, वे हमारे अनुभूति के केंद्र हैं। हम वही जानते हैं जो हमारा सेंटर है। इसलिए हमें, दूसरे सेंटर मेें क्या होता है, कुछ पता नहीं। और जब दूसरे सेंटर वाला आदमी हमसे कुछ कहेगा तो हम कहेंगे कि यह क्या पागलपन है, यह हो नहीं सकता। यह हो ही नहीं सकता।
जैसे एक छोटा बच्चा है। अभी उसका सेक्स सेंटर सक्रिय नहीं हुआ। उसे कल्पना भी नहीं हो सकती है कि लोग सेक्स के लिए किस तरह परेशान, पीड़ित और पागल हो रहे हैं। उसे कल्पना ही नहीं हो सकती है अभी। और अगर कोई कहे कि दुनिया ऐसी पागल हुई जा रही है इसमें, तो वह कहेगा कि क्या जरूरत है, क्या मामला है? अभी उसका सेक्स सेंटर सक्रिय नहीं हुआ है। अभी वह वहां से दुनिया को देख ही नहीं रहा है।
ठीक जो हमारा केंद्र सक्रिय हो जाए, उसी तल पर जितने अनुभव हों, वे हमें अनुभव में आने शुरू होते हैं। और जिसके सारे केंद्र सक्रिय हो जाएं, वह जीवन को एक समग्रता में अनुभव करता है। और तब एक बहुत ही नया अनुभव होता है। अभी हमारा जो...जिसे समझें, दो चीजें हैं। एक तो जमीन पर हम एक सीधी रेखा खींचें, हाॅरिजांटल और एक रेखा हम वर्टिकल खींचें जमीन से आकाश की तरफ। तो जो आदमी हाॅरिजांटल रेखा पर जाएगा सीधा, वह जमीन से कहीं भी मुक्त नहीं होगा। वह कितना ही चलता चला जाए, वह कितना ही करोड़ों मील चले, वह रहेगा जमीन पर। क्योंकि जो रेखा उसने पकड़ी है वह जमीन पर चलती है। और जिस आदमी को वर्टिकल यात्रा करनी है, जैसे हवाई जहाज उठा ऊपर, तो वर्टिकल यात्रा उसी बिंदु से शुरू हुई होगी, जहां जमीन छूटेगी। उसके पहले शुरू नहीं होगी। हाॅरिजांटल यात्रा जो है वह जमीन पर ही चलेगी। यानी उसमें तुम कितने चलते हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम यह कहो कि हम हजार मील चल कर बाहर हो जाएंगे, तो तुम गलती पर हो। हजार मील भी तुम उस पर ही चलोगे। वह जो तुम्हारी यात्रा का पथ है, वह हाॅरिजांटल है।
इन सेंटर्स में भी दो रास्ते हैं। आमतौर से हम हाॅरिजांटल जीते हैं। जैसे सेक्स का सेंटर है। यह सेक्स का सेंटर हैः समझो। तो हम इस सेक्स के सेंटर को पार करके हाॅरिजांटल चलते चले जाते हैं। सेक्स के बाहर कहीं नहीं जाता यह। एक स्त्री आए, एक पुरुष आए; हजार स्त्रियां आएं, हजार पुरुष आएं--कोई फर्क नहीं पड़ता। हजार जन्म हों, कोई फर्क नहीं पड़ता। यह, यह हाॅरिजांटल रेखा चलती जाएगी। और यह यात्रा, इस रेखा पर जो भी मिलेगा, उसी से सेक्स के संबंध होते चले जाएंगे। यह बढ़ता चला जाएगा। इसके बाहर तुम कहीं नहीं जाओगे। तुम कहोगे कि हम बहुत अनुभव से गुजर जाएंगे बाहर तो निकल जाएंगे। लेकिन तुम कहीं बाहर नहीं निकलोगे। क्योंकि तुम्हारी यात्रा हाॅरिजांटल है।
एक और यात्रा है, जो वर्टिकल है। वर्टिकल का मतलब यह है कि तुम एक सेंटर से आर-पार नहीं जाते। तुम एक सेंटर से दूसरे सेंटर पर जाते हो। यानी एक सेंटर नीचे, उसके ऊपर, उसके ऊपर, उसके ऊपर। अब तुम एक सेंटर से ऊपर की तरफ जाते हो। नीचे के सेंटर से उसके बाद वाले सेंटर को, उसके बाद वाले सेंटर पर, तुम ऐसा बढ़ रहे हो। तुम वर्टिकल हो। तुम वर्टिकल हो। यानी यूं समझो कि मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन की भूमि जो हैः वह सेक्स है। भूमि है वह उसकी। और उस पर वह हाॅरिजांटल चल सकता है अनंत जन्मों तक। उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कोई अनुभव उसे बाहर नहीं ले जाएगा। उसी सेंटर से एक और यात्रा जाती है जो वर्टिकल है। जो ऊपर के सेंटर से जोड़ती है।
और एक दफा वर्टिकल यात्रा शुरू हो जाए तो जैसे ही सेक्स के सेंटर से ऊपर उठे तो ऊपर के सेंटर पर सेक्स से हजार गुना आनंद है। और जैसे ही वह आनंद अनुभव हो जाए तब नीचे जाने का कोई सवाल नहीं रहा। वह आदमी हंसेगा। वह कहेगा, क्या पागलपन है। और अब जब उसे यह पता चल गया कि एक सेंटर से ऊपर हटने पर इतना आनंद मिला है, तो अब उसकी खोज ऊपर की तरफ होनी शुरू हो गई।
यह जो हाॅरिजांटल यात्रा थी, यह भी आनंद की वजह से थी। उस एक पुरुष ने एक स्त्री को भोगा, उसे लगा कि बहुत आनंद मिला है। तो अनेक स्त्रियों को भोगूं तो और आनंद मिलेगा। तो वह एक स्त्री से दूसरी स्त्री पर, एक पुरुष से दूसरे पुरुष पर बदलता चला जा रहा है। एक जन्म में इतना मिला है तो और दस जन्मों में और ज्यादा मिलेगा। पिछला अनुभव उसे आगे धक्का दे रहा है--हाॅरिजांटल। ठीक ऐसे ही एक सेंटर से दूसरे सेंटर में भर गति हो जाए उसकी एक बार तो उसको पता चलता है कि एक सेंटर को छोड़ने से, इतना ऊपर उठने से इतना...।
हवाई जहाज ऊपर उठा, हजार फीट ऊपर आया तो नीचे की जमीन से बड़ा खुला आकाश आ गया। नीचे की गंदगी, बदबुएं सब छूट गईं। कचरा है, स्लम्स कुछ दिखाई नहीं पड़ते हैं। और हजार फीट ऊपर उठता है तो और खुला आकाश निकट आता चला जाता है। एक-एक सेंटर बढ़ता है उतना ही। यानी मेरा अपना कहना यह है कि प्रत्येक सेंटर से दूसरे सेंटर पर हजार गुना ज्यादा अनुभव है। लेकिन उसको भी वह अगर हाॅरिजांटल पकड़ ले तो मुश्किल में पड़ जाएगा।
और अक्सर योगी पकड़ लेता है। एक सेंटर पर वह गया, सेक्स के सेंटर से ऊपर उठ गया। अब उसकी फिर यात्रा हाॅरिजांटल शुरू हो गई। तो वह फिर भटका। अब वह गया। अब वह फिर जमीन से ऊपर उठ गया, चार फीट ऊपर, तो दौड़ने लगा। अभी उन्होंने कुछ कारें बनाईं, जो चार फीट ऊंचे, जमीन से चल सकेंगीं। चलेंगी जमीन पर ही, चार फीट का फासला रहेगा। तो उनके लिए जमीन के गड्ढे-वड्ढे की झंझट मिट जाएगी। रद्दी जमीन या सड़क की जरूरत नहीं रह जाएगी। बिना सड़क के भी वे जा सकेंगे। मगर जाएंगी हाॅरिजांटल। यात्रा ऐसी ही होगी।
तो एक आदमी को किसी भी दूसरे सेंटर पर थोड़ा सा आनंद आ गया, बस वह उस पर चला गया हाॅरिजांटल। फिर भटक गया। इसलिए हमारे जितने सेंटर हैं, उतने ही भटकने के मार्ग भी हैं। अगर उनसे वर्टिकल गए तो, तो ठीक। अगर हाॅरिजांटल चले गए, तो गए बिलकुल। और हाॅरिजांटल यात्रा कहीं खत्म ही नहीं होती। तुम अनंत जन्मों उसमें फिर जा सकते हो। चले जाओगे, चले जाओगे, कहीं नहीं पहुंचोगे।
तो साधना का मतलब यह है कि माइंड हाॅरिजांटल न रह जाए, वर्टिकल हो जाए। साधना की शुरुआत का मतलब यह है कि अब दिमाग सीधे पथ पर यात्रा नहीं करता, आकाश की तरफ यात्रा करता है। यह जो दीये को, जैसे कि आपने मुझसे पूछा कि क्या बनाना, तो मैंने कहा कि दीया बना दो। दीया वर्टिकल यात्रा है। इसलिए उसको कह दिया कि उसको प्रतीक बना दो। दीया जो है उसे तुम हाॅरिजांटल चला ही नहीं सकते। कोई उपाय नहीं दीये को चलाने का कि तुम ऐसा चला दो उसको। वह भाग रहा है ऊपर की तरफ। इसलिए अग्नि प्रतीक बन गया। बहुत अर्थों में प्रतीक बन गया।
वह प्रतीक बन गया सिर्फ इसलिए कि वह शायद अकेली चीज है जिसकी कभी भी यात्रा हाॅरिजांटल नहीं होती। हमेशा उसकी यात्रा वर्टिकल है। ऊपर, ऊपर, ऊपर जाती है। वह जो निरंतर ऊपर जाने का बोध है--वही। और एक सेंटर से दूसरे सेंटर पर हजार गुना फर्क पड़ता जाता है आनंद का।
और जब तुम उन सातों सेंटर्स को पार कर जाते हो--तो सात सेंटर। समझो सेक्स का सेंटर नंबर दो है, नंबर एक नहीं है। सेक्स का सेंटर नंबर दो है। उससे नंबर एक सेंटर पर नीचे भी उतर सकते हो, अगर उसके नीचे चले गए तो कोमा में चले जाओगे, मूच्र्छित हो जाओगे। उसके नीचे चेतना नहीं है। पौधे वहीं जी रहे हैं, पत्थर वहीं जी रहे हैं, पशु-पक्षी वहीं जी रहे हैं। वह सेक्स के सेंटर से एक सेंटर नीचे के, उस पर जी रहे हैं। वे कभी-कभी सेक्स पर आते हैं, लेकिन फिर अपने सेंटर पर वापस नीचे गिर जाते हैं।
इसलिए पशुओं में, पक्षियों में सेक्स जो है वह पीरियाडिकल है; आदमी में पीरियाडिकल नहीं है। उसका कारण सिर्फ इतना ही है। क्योंकि कभी किसी मौसम में, किसी प्रकृति के दबाव में वे बेचारे मुश्किल से सेक्स तक आ पाते हैं। और काम उनका पूरा हुआ और वे वापस नीचे के सेंटर पर लौट गए। इसलिए कई लोग कहते हैं कि आदमी से तो पशु अच्छा है। अच्छा-वच्छा नहीं है। उसका कुल कारण यह है कि सेक्स के सेंटर पर वह कांस्टेंट नहीं रह सकता। वह कभी छूता है और फिर वापस नीचे गिर जाता है।
आदमी के लिए सेक्स का सेंटर कांस्टेंट है, इसलिए आदमी पीरियाडिकल नहीं है। वह चैबीस घंटे सेक्स से भरा ह‏ुआ है। वह उस सेंटर पर ही जीता है। उससे वह नीचे, उससे नीचे गिर सकता है अगर कोई आदमी सेक्स शक्ति का अतिरेक अपव्यय करे, तो वह नीचे गिर सकता है--कोमा में। तो वह पशु-पौधों के नीचे गिर जाए। और इसलिए कुछ लोग भूल से इसको भी समाधि समझ लेते हैं। यह मूच्र्छित समाधि है।
यह समाधि नहीं है। इसमें भी गिरा जा सकता है। इसमें गिरने से आदमी प्रकृति से एक हो जाता है, परमात्मा से एक नहीं। इसमें नीचे गिरा तो वह पदार्थों की तरह हो गया। वह भी एक हो जाता है। उसे एक-वेक का कुछ पता नहीं चलता। लेकिन वह बड़ी तमस, गहरी निद्रा में चला जाता है।
तुम हैरान होगे, नींद में भी तुम सेक्स के सेंटर से नीचे उतर जाते हो--नींद में भी। वहां पहुंच जाते हो जहां वनस्पति, पशु-पक्षी, पत्थर। हां, सुषुप्ति में चले जाते हो। नीचे उतर गए तुम सेंटर से। वहां तुम सेक्स के सेंटर पर कभी-कभी आते हो। नहीं तो तुम वापस नीचे गिर जाते हो। यह नंबर दो का सेंटर है। और ऐसे ही नंबर दो का एक सेंटर और है। अगर सेक्स के सेंटर से नीचे गए तो प्रकृति में मिल जाओगे।
सेक्स के मुकाबले ठीक दूसरा सेंटर ‘आज्ञा’ है। अगर उसके ऊपर गए तो उस सेंटर में पहुंच जाते हो जहां से परमात्मा के लिए द्वार खुलता है। जैसे सेक्स के नीचे उतरे तो उस सेंटर में पहुंचते हैं जहां प्रकृति के लिए द्वार खुलता है। आज्ञा से ऊपर गए कि वहां पहुंचते हो जहां से परमात्मा में द्वार खुलता है।

प्रश्न: आज्ञा तो छठवां में आएगा न?

यह गिनती का सवाल नहीं है बड़ा। यानी उसको तुम सात, नौ, दस। वह तो...सच बात तो यह है कि कम से कम हजार सेंटर हैं। लेकिन उसमें जो बहुत पाॅवरफुल हैं, उनकी गिनती कर ली जाती है। बहुत पांच गिन लेते हैं, कोई सात गिन लेता है, कोेई छह, इससे कोई सवाल नहीं। लेकिन उसके बाद वह सेंटर आ जाएगा, जहां से यह यात्रा आगे शुरू हो जाती है। यह वर्टिकल यात्रा करने की बात है।

प्रश्न: हाॅरिजांटल यात्रा को अवाॅइड करने के लिए क्या सूत्र है?

अवाॅइड नहीं करना है।

प्रश्न: वर्टिकल जो यात्रा है, उसमें जो तीसरा स्टेप है...ज्यादा करके रुक जाते हैं उधर ही।

रुकने का डर तो किसी भी चक्र पर है। रुकने का डर किसी भी चक्र पर है। क्योंकि जिस चक्र पर भी हम आते हैं, वहीं काफी आनंद है; और जहां आनंद है, वहीं खतरा है।
एक कहानी, बहुत पुरानी, सूफियों की कहानी है। एक आदमी जंगल गया। उसने एक बूढ़े आदमी को पूछा कि मैं बिलकुल भूखा मर रहा हूं। लकड़ियां काट कर बेच लेता हूं, कोई और उपाय नहीं है। कोई और उपाय नहीं है, लकड़ियां बेच कर ही मैं सिर्फ जिंदगी चला रहा हूं। दिन भर मैं काटता हूं, खाने के लायक भी नहीं जुट पाता दूसरे दिन फिर भूख की भूख खड़ी हो जाती है। उस फकीर ने कहाः थोड़े और आगे जा। तो उसने कहा, थोड़ा और आगे? हां, उसने कहा कि जहां तू लकड़ी काटता है, उससे थोड़ा आगे। वह थोड़ा आगे गया तो वह बड़ा खुश हुआ। आगे जाकर उसने देखा कि वह एक खदान पर पहुंच गया है। वह खदान तांबे की खदान है। वह तांबा लाकर बेच लिया, कई महीनों के लिए इंतजाम हो गया। फिर वह फकीर बूढ़े से मिलने नहीं गया। कई दिन बाद उस बूढ़े को वह दिखाई पड़ा, बड़ा खुश था। बूढ़े से कहने लगा, बड़ा धन्यवाद! बड़े आनंद में जी रहे हैं। उस बूढ़े ने कहा, पागल थोड़ा और आगे भी जा सकता है। उस दिन वह और थोड़े आगे गया और उसने पाया कि वह चांदी की खदान पर पहुंच गया। और उसने कहा, मैं भी बड़ा पागल था कि तांबे पर अटक गया। लेकिन तांबा काफी काम कर रहा था, और वह था लकड़हारा। लकड़ी का अनुभव था कुल जमा, कि एक दिन भर लकड़ी काटो तो दिन भर के लिए खाना जुटता है। तांबा एक दिन ले आता था तो तीन महीने तक जुट जाता था। भारी संपत्ति मिल गई थी, बात खत्म हो गई थी।
वह चांदी लेकर बहुत खुश हो गया। वर्ष-दो वर्ष दिखाई नहीं पड़ा। बूढ़े को रास्ते से मिलता था, अब बड़ी शान में था। अपने रथ पर बैठा हुआ चला जा रहा था। बूढ़े ने कहा, बड़े मजे में दिखाई पड़ते हो। तो उसने कहा, बहुत ही मजे में। आपकी बड़ी कृपा है। उसने कहा कि थोड़ा और आगे भी जा सकते हो। वह थोड़ा और आगे गया तो सोने की खदान मिल गई उसे। उसने कहा कि मैं भी बड़ा पागल था, कि चांदी पर अटक गया था। मर जाता, बेकार जिंदगी खराब हो जाती। इधर साल भर ढोता था, उतना एक दिन में चला जाएगा अब।
मगर तब कई वर्षों तक दिखाई नहीं पड़ा वह। बूढ़ा मरने के करीब हो गया तो उसके घर गया उसे बताने कि भई, तू वहीं रुका हुआ है, थोड़ा और भी आगे जा सकता है। उसने कहा कि तुम इकट्ठा क्यों नहीं बता देते हो। उसने कहा, मैं क्या कर सकता हूं? मैं क्या कर सकता हूं? तू तो रुक-रुक जाता है। फिर गया है, और जाकर उसने पाया है कि हीरों की खदान मिल गई है। अब तो वह कोई सवाल ही नहीं रहा। अब वह बूढ़ा उसके दरवाजे पर कभी-कभी दस्तक भी देता तो पहरेदार उसको भगा देता कि भाग जाओ, मालिक अभी नहीं मिल सकते। तुम्हारी मर्जी। एक दिन वह चिल्ला रहा है तो मालिक निकल रहा है तो पहरेदार ने उसको डांटा, तो उसने कहा कि अरे इसको मत डांटो। इसी बूढ़े ने तो सब व्यवस्था की। उसने कहा कि मैं मरने के करीब हूं, और मैं तुमसे कहने आया हूं कि थोड़े और आगे जा सकते हो।
सच बात यह है असल में कि हम जहां से, जो हम अनुभव में गुजरते हैं, उससे बड़ा अनुभव मिल जाए तो तत्काल रुक जाते हैं। सब बड़ा अनुभव रोकने वाला है।
और यह ध्यान रहे कि एक ऐसी जगह भी है, जहां फिर कोई अनुभव नहीं है, और वहां तक पहुंचना है। वहां तक पहुंचना है, जहां कोई अनुभव नहीं है। और तब उसके और आगे फिर नहीं होता। मगर वे सब अनुभव रोकने वाले हैं, सब अनुभव। बल्कि कोई कहेगा कि और आगे, तो दुष्ट मालूम पड़ेगा, कठोर मालूम पड़ेगा, क्योंकि हम बड़ा रस ले रहे हैं। और वह कह रहा है कि यहां नहीं और आगे। वह यहां से तोड़ना चाहे, हिलाना चाहे, तो हम इंकार करेंगे।
तो और, और मजे की बात यह है कि अगर एक जिंदगी में, समझ लें कि सेक्स के सेंटर से कोई ऊपर उठा और दूसरे सेंटर पर चला गया। अगर वह तीसरे पर नहीं चला जाता है तो अगले जन्म में वह फिर पहले से शुरू करेगा। यानी एक शरीर छोड़ने पर एक सेंटर नीचे गिरता है आदमी, दो सेंटर नीचे नहीं गिरता। अगर सेक्स के सेंटर से उठ कर कोई नंबर दो सेंटर पर चला गया, ऊपर की तरफ। और इसी पर रहा जिंदगी में तो अगले जन्म में वह फिर सेक्स से शुरू करेगा। और अगर नंबर तीन पर चला गया, तो अगले जन्म में नंबर दो से शुरू यात्रा होगी।

प्रश्नः यह आपने कैसे कह दिया?

हां, इसके कारण हैं, इसके कारण हैं। क्योंकि हमारे भीतर चेतना की इंटेंसिटी का सवाल है। जैसे समझें: हम जो श्रम कर रहे हैं, जो भी हम श्रम कर रहे हैं, एक सेंटर पर हम खड़े हैं। जिस सेंटर पर हम खड़े हैं, उससे ऊपर के सेंटर के लिए हम श्रम कर रहे हैं। लेकिन जिस सेंटर पर हम खड़े हैं, वह सेंटर हमारे पैर की भूमि है। समझें, कि मैं यहां खड़ा हूं, जमीन मेरे पैर छू रहे हंैं। हाथ मेरा छप्पर छू रहा है। एक, नंबर एक का सेंटर समझो जमीन है, नंबर दो का सेंटर छप्पर है। जब आप नंबर दो का छप्पर हाथ से छूते हैं तब आपके पैर नंबर एक पर ही होते हैं। आप समझे मेरा मतलब? यानी जब आपका हाथ नंबर दो छू लेता है, तब आपके पैर नंबर एक पर ही होते हैं। और अगर आप गिर गए और फिर से उठे तो नंबर एक से यात्रा शुरू करनी पड़ेगी। लेकिन अगर आप नंबर तीन छू लेते हैं तो आपके पैर नंबर दो पर पहुंच गए होते हैं। मेरा फर्क समझ रहे हैं आप न? और जिस, जिस नंबर पर आप, लग रहा है आपको कि यह नंबर हमें मिल गया है, वह अब सिर्फ हाथ में है आपके, अभी पैर नहीं बन गया है वह आपका। और जब वह आपके पैर के नीचे आ जाएगा, तब आप उससे नीचे नहीं गिर सकते। जो हमारे पैर के नीचे आ गया, उससे नीचे हम नहीं गिरते। लेकिन जिसे हम हाथ से छू रहे हैं, उससे हम कभी भी गिर सकते हैं। कोई भी क्षण है गिर जाने का। उसका तो पूरा का पूरा साइंटिफिक मामला है। यानी भीतर तो पूरी सांइस की बात ही है वह।
और इसलिए, और इसलिए खतरा हो जाता हैैै। इसलिए कई दफा ऐसा होता है कि एक आदमी कई जन्मों से नंबर एक से बस नंबर दो में जाता है, और फिर वापस गिर-गिर जाता है, हर बार नंबर दो तक जाता है, फिर खुश हो जाता है, फिर..अस्पष्ट.. में चला जाता है, फिर बेकार हो जाता है।

प्रश्नः बेकार कैसे हो जाता है?

बेकार का मतलब कि उसको नई यात्रा फिर उसी बिंदु से शुरू करनी पड़ती है।

प्रश्नः अगर उसको उसी में ही संतुष्टि हो जाती है। उसको, उसको ऊपर जाने की जरूरत ही क्या है?

संतुष्टि तो हो ही नहीं सकती। संतुष्टि तो परमात्मा के पहले हो ही नहीं सकती। वह तो असंभव है। संतोष हो सकता है। संतोष का मतलब है कि मनाया हुआ संतोष होगा, कि कोशिश करके समझा लेगा कि सब ठीक है, कि अब कहां जाकर...।
वह तो रहेगा ही। वह तो जब तक आप आखिरी सेंटर के पार नहीं हो जाते हैं, तब तक संतोष ही रहेगा।

प्रश्नः तब आदमी यह कब मानेगा? आखिरी सेंटर पर भी पहुंच कर आदमी मानेगा थोड़ा और आगे चल।

जैसे ही आखिरी सेंटर के बाहर हुआ कि मन गया। वह जो कहता हैः और आगे चल, वह गया। यानी वह जो, वह जो हमको कह रहा था निरंतर, वह कह ही इसीलिए रहा था कि वहां तक चल। इसलिए और आगे, और आगे...
...खास बाइबिल में भी उपलब्ध नहीं है। कुछ और ट्रेडीशनल सोर्से.ज थे, बाइबिल के सीक्रेट, जिनसे वह आया है। तो वह यह है, वह हर जगह पर वे कहते हैंः यह लिख देना कि यह जगह पार कर जाने को है, रुक जाने को नहीं है। जीवन में हर जगह पार कर जाने को है। और एक ऐसी जगह आती है, जो जगह नहीं है। फिर वहां, वहां कोई सवाल नहीं है, आप भी नहीं हैं। वहां कोई भी नहीं है। वैसी जो गति है, वहां फिर और आगे का सवाल नहीं है।

प्रश्नः साधु-संत यही तो बातें करते हैं कि लोगों को...?

बिलकुल नहीं करते, बिलकुल नहीं करते। बिलकुल ही नहीं करते।

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