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गुरुवार, 26 सितंबर 2019

सरहा और सुखदा-(कहानी)

सरहा और सुखदा-(ऐतिहासिक कहानी) 

मनसा मोहनी


इतिहास में बहुत कुछ ऐसा भी छूपा होता है, जिसे हम सामने के द्वार से देख नहीं पाते है। परंतु वह छूपा हिस्सा उस इतिहास का महत्वपूर्ण अंग होता है, जिसे चाह कर भी हम छोड़ नहीं सकते। जिसे हम छूपाना भी चाहे तो वह समय पाकर अपना परिचय खूद दे देता है। जिस तरह से हम एक पल्लवीत वृक्ष के पात, उस लदे सुंदर पूष्प, नाचती झूमती टेहनियां, गीत गाते पक्षी, अटखेलियां करते तोते, तो दिखाई दे जाते है, परंतु कितने ही लोग उन अंधेरी गहरी जड़ो को देख पाते है। जिन सिराओं से वह वृक्ष जीवित है, परंतु हम जानते है, वृक्ष का जीवन उसकी जड़ो के बिना नहीं हो सकता। जिस के माध्यम से उसे भोजन मिलता है। उसी तरह से एक पोखर में खिला सुंदर कमल तो हम देख लेते है, परंतु उसकी गाध, उस किचड़ को जिसमें वह कमल खिला है हम नहीं देख पाते। हमारी आंखों से वंचित रह जाता है।

ठीक इसी तरह से इतिहास में चमकते चांद-सितारें तो हमें दिखई देते है, परंतु उस अंबर की श्वेत श्याम को हम नहीं देख पाते जिसके कारण वह चमक रहे हैं। हजारों लाखों ऐसे महान लोग हुए हैं जिनके पीछे छूपी वह श्वेतश्याम पट हम नहीं देखते, भुल जाते है, सुजाता की वह खीर जिसे खाने के बाद भगवान बुद्ध के अंतस के द्वार खूले, उनके अंतस का सब गिर गया, निरझरा की भंति, सब आपेक्ष-निरापेक्ष समाप्त हो गए, सब धारणाए जो कहीं अचेतन में दबी थी, उस खीर के कारण निराधार हो गई, और खुल गए पाट उस पथ के जिसे खोलने के लिए न जाने क्या-क्या जतन भगवान बुद्ध ने किए थे। जो काम बड़े-बड़े गुरु नहीं कर सके, एक चावल के दाने पर कई महीनों तक जीवित रहे, पेट-पीठ एक हो गई थी, वो एक अछुत कन्या की छुअन ने, उसके हाथ की बनी उस खीर ने पल में कर दिया, मैं यह नहीं कहता की बुद्ध ने जो तपस्चार्य की वह सब बेकार थी, परंतु कहीं अंतस में दबी धारणाओं को हम छोड़ नहीं पाते। जिसे न हम देख पाते न हम समझ ही पाते है, वो बाड इतनी अदृश्य होती है, उसे छूना और देखता लगभग असंभ्व होता है। तब हमें एक तीसरे का सहारा होता है, उसी को हम गुरु कहते है।
 सुजाता की उस महान देन को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए, चाहे वह अनजाने ही हो गई हो। परंतु बुद्ध के बुद्धत्व में उस घटना का विशेष योग दान है।
इसी तरह इतिहास में दबी एक घटना सरहा और सुखदा की है, सरहा को तो हम जानते है, परंतु सुखदा पटाक्ष से निरपेक्ष हो गई, अगर सुखदा न होती तो सरहा का पैदा होना अति कठीन ही नहीं न मुमकिन हो जाता, इतिहास किस चतुराई से उन महत्वपूर्ण को छूपा लेता है, एक तीरवाली सरहा  की गुरु परंतु नाम नहीं ले पाते, उस मानसिकता के दिवालिए पन को हम एक सूंदर नाम दे देते है।
बुद्ध के फूल के खिलने में जितना हाथ, उस पूर्णिमा की रात का है, उतना ही महत्व पूर्ण सुजाता की खीर का भी है, इसी तरह सरहा ने समाज को जो अनमोद भेट की दी है, तंत्र को को एक नया मार्ग दिया है, उस अनुठे वरदान में उस सरहा के साथ सुखदा का पूर्ण सहयोग है।
अब हम सुखदा के विषय में कुछ जानने का प्रयास करेंगे। इतिहास तो इस विषय में मौन है, बस एक तीर बनाने वाली का ही नाम ले लेता है, कहीं-कहीं बौद्ध ग्रंथो में एक नाम आता है, ‘सुखनाथ’ उसे एक बुद्ध का ही अवतार माना जाता है, और उसी ने कहते है, नारी का रूप लेकर सरहा को मुक्त किया।
चलो अब हम खुद ही चलते है इतिहास की उस अंधेरी गलियों में, सुखदा का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। उसके पिता एक डोंम जाति के थे, जिन्हें हरीजन भी छूना नहीं चाहते थे, आप आज सब छुआ-छुत की बात तो करते हो, परंतु हरिजन भी छुआछुत को मानता था। ड़ोम यानि श्मशान में मुर्दो को जलाने वाली जाति। सुखदा की मां का देहांत तो बचपन में ही हो गया था। शायद सुखदा को तो उनका चेहरा भी याद नहीं होगा। पिता को मुर्दे जलाते देखती, वहीं पर रहना, वहीं पर खाना, उन सब क्रर्मिक घटनाओं ने उसके अंदर की संवेदना को छू लिया। गरीब परिवार, में पेदा होना और श्मशान में रहते, मुर्दो को जलते देखते, उसकी निरोही कोमल आंखों ने यहीं सब देख।
एक तरफ मुर्दो के परिवार के लोग, रोते कल्पते आते, परंतु कुछ ही क्षणों में सब कुछ बदल जाता, और जलती अग्नि इस पास से उस पार पीडा को ले जाती। जो अभी तक इतना प्यारा था उसे अपने ही हाथों से जलते हुए देखते, और पल में ही सब सामान्य सा घटने लग जाता। कौन किस के लिए जीता है कौन किस के लिए मरता है, एक मोह है, एक साहारा है जिसे हम प्यार और संबंधों का नाम दे देते है। ये सब देखते-देखते सुखदा के मन में एक बैराग्य का भाव बहुत गहरे में उतर गया। लगाव के लिए उसके जीवन में था ही क्या, एक मात्र पिता, न कोई महल-दुमेहले, गरीबी भी हमारे जीवन में वो सब ले कर आ सकती है, वो संपदा हमें दे सकती है, जिसे धन दौलत वैभव हमसे हजारों मील दूर कर देता है। उस लिप्तता में एक नशा होता है, जो अपने मदहोशी में हमें दबा देता है।
जीवन में कोई विशेष महत्वकांक्षा न होने से एक वैराग्य का सा भाग उसे महसुस होने लगा, धीरे-धीरे वह एकांत में बैठ कर ध्यान करती, पिता से बातें करते हुए भी वह लगभग यही जिज्ञास दिखलाती की ये शरीर, जो इतना महत्व पूर्ण लगता है, एक दिन किस तरह से हमें छोड़ देना होता है। तीव्र बुद्धि की थी सुखदा बचपन से ही। ध्यान से उसके अंदर एक प्रज्ञा का जन्म होने लगा। पिता अपनी बेटी को इतनी शांत और आनंदित देख का अपने पर गर्व करने लगता। सुखदा जन्म से अभुतर्पूव संपदा लेकर पैदा हुई जो उसके देनिक जीवन और उसकी आंखों से झलकता था।
परंतु काल का चक्र अभी भी सुखदा के जीवन में पूर्ण नहीं हुआ था, अभी उसने यौवन अवस्था में पेर रखा भी न था कि उनके पिता भी उन्हें छोड़ कर स्वर्ग सिधार गये। उस निरजन श्मशान में उसका अकेले यूं रहना, और अपने पिता के कार्य को करना सुखदा में एक और ही सुखदा को जन्म दे गया। अब वह खुद मुर्दो को जलाती, वहीं अकेली सुनसान विराने में रहती।
अब मुर्दो के जलानें से रोजी रोटी तो चल नहीं सकती थी, कोई रोज-रोज मुर्दे जलने के लिए आते भी नहीं थे, सो सुखदा ने अपने पिता के समय से ही तीर-कामन बनाने की कला सीख ली थी, उसके बने तीर इतने अचुक होते थे कि बजार में हाथों-हाथ बिक जाते थे। चारों और जहां केवल मुर्दे ही हो, वहां पर जीवन में उत्सव का प्रवेश अति कठिन होता है। सुखदा का सांवला रंग जवानी के प्रथम कदम पर, एक अलग ही आर्कषण से ओतप्रोत होने लगा था, उसकी गहरी काली आंखें और भी पारदर्शी होती जा रही थी, जिसमें झांकने से मौत का सा आभास होता था, सफेद मौतीयों से उसके दांत उसके रुप पर चार चांद लगा रहे थे। जब वह हंसती तो मानों किसी ने चारों और किसी ने मुधर मधुर राग का आलाप छेड़ दिया हो। उसकी चाल में एक प्रकार को मादकता थी, शायद होश की, आप किसी होश से भर व्यकित की चाल जरा आप गौर से देखना आपको उसकी चाल में एक मस्ती, एक गीत का सा तरूनम भी मिलेगा। आपको लगेगा यह व्यक्ति चल नहीं रहा पृथ्वी पर कोई गीत लिख रहा है। आपकी आंखें वहां पल भर की ठहर जाएंगी।
ठीक इसी तरह से सुखदा का जवान होना, और उसके श्रगांर के साथ, गुणों को जीवन में प्रसाद की तरह से ऊतार रहा था। भगवान बुद्ध की साधना पद्यति में श्मशान का विशेष महत्व था। उसके अलावा एक स्त्री का रहना तो और भी कठीन था, यहीं सुखदा के लिए वरदान बन गया। श्मशान का एकांत, वहीं रहना, वहीं खाना पकाना, सुखदा को अपने परिपूर्णता से खिलने में सहयोग दे रहा था, वह एक बन के पुष्प की तरह से अंछुई खिल रही थी। खाली समय में वह तीर बनाती थी, उसका होश ही था जो उसके बने तीरे इतने अचुक होते थे की अनाडी भी उसे बडी ही सरलता से निशाने पर मार देता था। सो उसके तीरो की बहुत मांग थी। परंतु वह इतने तीर बना नहीं पाती थी, वह तो तीर बनाना एक व्यवसाय नहीं मानती थी आपने ध्यान को गहरा करने के लिए तीर बनाती थी। वहीं उसका ध्यान होता था। कुछ देर के लिए ही बजार आती और उसके सारे तीर कमान बिक जाते, तब वह फिर से अपने एकांत में चली जाती।
ध्यान तो अपनी पुर्णता को मांगता है, आप उसमें बस डूब जाओ, बस आप एक दृष्टा मात्र रह जाओ, पुर्णता से जागे हुए, पुर्णता एक कुंजी है, उसे किसी के साथ जोड़ दो ध्यान घटने लग जायेगा। इसे आप यूं समझ ले, नृत्य, गीत, संगीत, काम, चलना, आप बस जागे रहो वहीं ध्यान शुरू हो जाता है।
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    अब हम कहानी के दूसरे पहलू की और भी कदम रखते है, सरहा का जन्म भगवान बुद्ध के बीच कोई खास दूरी नहीं है, कुछ फूल इस वृक्ष पर अभी भी खिल खिल रहे थे। बुद्ध का वृक्ष अभी भी हरा-भरा है। अभी भी जब बसंत आता है तो यह वृक्ष अपनी सुगंध फैला देता है, अभी भी उसमें फूल खिलते है। इसके तने साखाप्रसाखा अभी सुड़ोल थी। वृक्ष अभी जवान था।
सरहा इसी वृक्ष का एक फूल है। सरहा का जन्म बुद्ध के कोई दो सौ वर्ष बाद हुआ था। वे एक दूसरी ही शाखा से उदभूत परंपरा के अंग थे। एक शाखा चलती है महाकश्यप से बोधिधर्म तक, जिसमें से झेन का जन्म हुआ और जो अभी तक फूलों से भरी है। दूसरी शाखा निकलती है बुद्ध से उनके पुत्र राहुलभद्र, राहुलभद्र से श्री कीर्ति, श्री कीर्ति से सरहा, और सरहा से नागार्जुन तक यह तंत्र की शाखा तिब्बत में आज भी फूल दे रही है।
तंत्र ने तिब्बत को बदल दिया, और जिस प्रकार बोधिधर्म झेन के जनक हैं, उसी प्रकार सरहा तंत्र के जनक हैं। बोधिधर्मा ने चीन, कोरिया तथा जापान पर विजय पायी, सरहा ने तिब्बत को विजय किया। उसे अपने अनमोल र्स्वण कमल से गौरंगवित कर दिया।
जहर और अमृत दोनों एक ही शक्ति के दो रूप हैं, वैसे ही जैसे जीवन और मृत्यु, दिन और रात, प्रेम और घृणा, संभोग और समाधि।
तंत्र कहता है: किसी चीज की निंदा न करो, निंदा करने की वृत्ति ही मूढ़तापूर्ण है। निंदा करने से तुम अपने विकास की पूरी संभावना रोक देते हो। कीचड़ की निंदा न करो, क्योंकि उसी में कमल छिपा है। कमल पैदा करने के लिए कीचड़ का उपयोग करो। माना कि कीचड़ अभी तक कीचड़ है कमल नहीं बना है, लेकिन वह बन सकता है। जो भी व्यक्ति सृजनात्मक है, धार्मिक है, वह कमल को जन्म देने में कीचड़ की सहायता करेगा, जिससे कि कमल की कीचड़ से मुक्ति हो सके।
सरहा तंत्र-दर्शन के प्रस्थापक हैं। मानव-जाति के इतिहास की इस वर्तमान घड़ी में जब कि एक नया मनुष्य जन्म लेने के लिए तत्पर है, जब कि एक नई चेतना द्वार पर दस्तक दे रही है, सरहा का तंत्र-दर्शन एक विशेष अर्थवत्ता रखता है। और यह निश्चित है कि भविष्य तंत्र का है, क्योंकि द्वंदात्मक वृत्तियां अब और अधिक मनुष्य के मन पर कब्जा नहीं रखा सकतीं। इन्हीं वृत्तियों ने सदियों से मनुष्य को अपंग और अपराध-भाव से पीड़ित बनाए रखा है। इनकी वजह से मनुष्य स्वतंत्र नहीं, कैदी बना हुआ है। सुख या आनंद तो दूर इन वृत्तियों के कारण मनुष्य सर्वाधिक दुखी है। इनके कारण भोजन से लेकर संभोग तक और आत्मीयता से लेकर मित्रता तक सभी कुछ निंदित हुआ है। प्रेम निंदित हुआ, शरीर निंदित हुआ, एक इंच जगह तुम्हारे खड़े रहने के लिए नहीं छोड़ी है। सब-कुछ छीन लिया है और मनुष्य को मात्र त्रिशंकु की तरह लटकता छोड़ दिया है ।
सरहा का जन्म विदर्भ महाराष्ट्र...का ही अंग है, पूना के बहुत नजदीक। राजा महापाल के शासनकाल में सरहा का जन्म हुआ। उनके पिता बड़े विद्वान ब्राह्मण थे और राजा महापाल के दरबार में उच्च पद पर थे। पिता के साथ उनका जवान बेटा भी दरबार में था। सरहा के चार और भाई थे, वे सबसे छोटे परंतु सबसे अधिक तेजस्वी थे। उनकी ख्याति पूरे देश में फैलने लगी और राजा तो उनकी प्रखर बुद्धिमत्ता पर मोहित सा हो गया था।
चारों भाई भी बड़े पंड़ित थे परंतु सरहा के मुकाबले में कुछ भी नहीं। जब वे पांचों बड़े हुए तो चार भाइयों की तो शादी हो गई, सरहा के साथ राजा अपनी बेटी का विवाह रचाना चाहता था। परंतु सरहा सब छोड़-छाड़ कर संन्यास लेना चाहते थे। राजा को बड़ी चोट पहुंची, उसने बड़ी कोशिश की सरहा को समझाने की--वे थे ही इतने प्रतिभाशाली और इतने सुंदर युवक। जैसे-जैसे सरहा की ख्याति फैलने लगी वैसे राजा महापाल के दरबार की भी ख्याति सारे देश में फैलने लगी। राजा को बड़ी चिंता हुई, वह इस युवक को संन्यासी बनते नहीं देखना चाहता था। वह सरहा के लिए सब-कुछ करने को तैयार था। परंतु सरहा ने अपनी जिद न छोड़ी और उसे अनुमति देनी पड़ी। वह बौद्ध संन्यासी बन गया, और श्री कीर्ति का शिष्य हो गया।
श्री कीर्ति बुद्ध की सीधी परंपरा में आते हैं, गौतम बुद्ध, फिर अनके पुत्र राहुल भद्र, और फिर आते हैं श्री कीर्ति। सरहा और बुद्ध के बीच सिर्फ दो ही गुरु हैं, बुद्ध से वे बहुत दूर नहीं हैं। वृक्ष अभी बहुत ही हरा-भरा रहा होगा; उसकी तरंगें अभी बहुत ताजी-ताजी रही होंगी। बुद्ध अभी-अभी जा चुके थे, वातावरण उनकी सुगंध से भरा रहा होगा।
राजा को बहुत धक्का तब लगा जब उसे पता चला कि ब्राह्मण होते हुए भी सरहा ने हिंदू संन्यासी बनना छोड़ एक बौद्ध को अपना गुरु चुना। इस घटना से सरहा का परिवार भी बहुत चिंतित हुआ। वे सब सरहा के दुश्मन हो गए, क्योंकि यह तो ठीक नहीं हुआ था। और बाद में तो हालत और भी बिगड़ गई जिसको हम आगे चल कर देखेंगे।
सरहा का असली नाम था राहुल जो उनके पिता ने रखा था। वे राहुल से सरहा कैसे बने यह हम आगे देखेंगे, वह बड़ी प्रतिकर कथा है। तो जब सरहा श्री कीर्ति के पास पहुंचे, पहली बात जो श्री कीर्ति ने उनसे कही वह थी: ‘भूल जाओ तुम्हारे वेदों को, और तुम्हारा सारा ज्ञान, और वह सारी बकवास’ सरहा के लिए यह बड़ा कठिन था, परंतु वे सब-कुछ करने के लिए तैयार थे। श्री कीर्ति के व्यक्तित्व में बड़ा अनूठा आकर्षण था। सरहा ने अपना सारा ज्ञान छोड़ दिया, वे पुनः अज्ञानी हो गए। त्याग दिए सारे ग्रंथ, पूजा पाठ, क्रिया कालाप, यज्ञ आदि।
यह त्याग बड़े से बड़े त्यागों में से एक था; धन छोड़ना आसान है, बड़ा राज्य छोड़ना आसान है, परंतु ज्ञान छोड़ना बड़ा कठिन है इस संसार में। पहली बात तो यह कि उसे कैसे छोड़ा जाए? वह तो भीतर है तुम्हारे। तुम अपना राज्य छोड़ सकते हो, तुम हिमालय जा सकते हो, तुम अपना पूरा धन बांट सकते हो, परंतु तुम अपना ज्ञान कैसे छोड़ोगे?
और फिर पुनः सीखे को अनसीखा करना, फिर बच्चे की तरह भोला बनना....परंतु सरहा इसके लिए तैयार थे।
साल पर साल बीतते गए और धीरे-धीरे सरहा ने अपना सारा ज्ञान पोंछ डाला, वे बड़े ध्यानी बन गए। जैसे पहले उनकी ख्याति महा पंड़ित के रूप में फैली थी वैसे अब उनकी ख्याति महान साधक के रूप में फैलने लगी। लोग दूर-दूर से इस नवयुवक की झलक पाने के लिए आने लगे जिससे एक नये पत्ते सा या घास पर पड़े ओस के बिंदुओं सा भोलापन आ गया था।
एक दिन अचानक सरहा को ध्यान में यह दिखाई दिया कि बाजार में एक स्त्री बैठी हुई है जो उनकी सच्ची गुरु बनने वाली है। श्री कीर्ति ने तो केवल उन्हें मार्ग पर लगा दिया है, असली शिक्षा तो उन्हें स्त्री से ही मिलने वाली है। अब यह जरा समझने जैसी बात है। एक तंत्र ही ऐसा है जिसने कभी कट्टर पुरुषत्व नहीं दिखाया। सच तो यह है कि बिना किसी ज्ञानी स्त्री का सहयोग से तंत्र के अटपटे जगत में प्रवेश करना ही असंभव है। इसके लिए सरलता चाहिए, संस्कार रहित, अनछुआ परिपूर्ण विकास जो आज समाज में असंभव है। इसी लिए तंत्र को समझना और उस में उतरना तो अति कठिन है।
ध्यान में सरहा को बाजार में बैठी हुई स्त्री दिखाई दी। पहली बात तो स्त्री और फिर बाजार में! तंत्र बाजार में ही फलता-फूलता है, बिलकुल जीवन की सघनता में। उसका दृष्टिकोण नितांत विधायक है, नकारात्मक है ही नहीं। तब अचानक ध्यान को छोड़ कर सरहा खड़े हो गए, श्री कीर्ति ने पूछा: ‘क्या हुआ, इस तरह से अचानक उठ कर कहां जा रहे हो?’ सरहा ने कहा: ‘आपने मुझे मार्ग दिखाया। आपने मेरा ज्ञान छीना। आपने आधा काम पूरा किया, आपने मेरी स्लेट पोंछ डाली। अब मेरी स्लेट साफ हो गई है। उसपर लिख सब अनलिखा हो गया है। अब आगे मैं जो कुछ बचा हुआ है, उसे पूरा करने को तैयार हूं। आपने मेरे लिए जो किया सच ही वो अलमोल है, अदुत्य है, इसके बिना में आज उस को समझ नहीं सकता था। आपने अपना काम पूरा किया...अब आप मुझे मुक्त करे...मेरा मार्ग मुझे बुला रहा है। कोई अंजान चुंबकिए शक्ति मुझे खिच रही है। सरहा की इस बात को सून कर श्री कीर्ति हंसे, उनकी उस हंसी में एक प्रकार की विजय मुस्कान थी, उनकी आंखों में गर्व छलक रहा था, उनके हृदय में उतंग लहरे उठ रही थी। और उन्होंने आशीर्वाद दिया और कहा सरहा जाओं तुम्हारा मार्ग तुम्हें बूला रहा है। और सरहा ने श्रीकीर्ति के पैरा छू कर उनसे विदा ली।
सरहा बाजार पहुंचे। उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ, सचमुच वही स्त्री दिखाई दी जिसे उन्होंने ध्यान में देखा था। वह स्त्री तीर बना रही थी, तीर बनाने वाली एक सांवले रंग की लडकी।
तंत्र के बारे में जो तीसरी बात खयाल में रखनी चाहिए वह यह कि तंत्र के अनुसार कोई व्यक्ति जितना ही सुसंस्कृत, जितना सभ्य होगा उतनी ही उसके तांत्रिक रूपांतरण की संभावना कम होती चली जाती है। जितना ही व्यक्ति कम सभ्य और अधिक आदिम होगा उतना ही अधिक जानदार होगा। जितने ही तुम सभ्य बनते हो उतने ही तुम प्लास्टिक के बन जाते हो, तुम कृत्रिम बन जाते हो, जरूरत से ज्यादा परिष्कृत बन जाते हो, तुम्हारी जड़ें धरती में ही खो जाती हैं। तुम्हें संसार की गंदगी से डरने लग जाते हो। तुम एक परसोना पहन लेते हो।
सरहा ने उस स्त्री को देखा, जवान थी, अत्यंत तेजस्वी और प्राणवान। तीर का फल बना रही थी, न दाहिने देख रही थी न बाएं, बस तीर बनाने में तल्लीन थी। सरहा को तत्काल उस स्त्री के सान्निध्य में एक असाधारण अनुभूति हुई, ऐसी अनुभूति उन्हें पहले कभी नहीं हुई थी। यहां तक कि उनके गुरु श्री कीर्ति भी उस स्त्री के आगे फीके पड़ गए। उसमें एक अदभुत ताजगी थी। वह निरोई दूब पर पडी औस की बुंद के समान लग रही थी।
श्री कीर्ति बड़े दार्शनिक थे, और यद्यपि उन्होंने सरहा से अपना सारा ज्ञान छोड़ देने के लिए कहा था, फिर भी वे स्वयं अभी तक ज्ञानी थे। उन्होंने सरहा से सारे वेद और शास्त्र छोड़ देने के लिए कहा था, परंतु उनके अपने शास्त्र थे और अपने वेद थे। यद्यपि वे दर्शन विरोधी थे लेकिन उनका दर्शन-विरोध भी एक तरह का दर्शन ही था। अब यह स्त्री न तो दार्शनिक है और न ही दर्शन-विरोधी, वह तो श्याद यहां तक भी नहीं जानती होगी कि दर्शन क्या चीज है, जो अपनी आनंदमग्नता में दर्शन और विचार के जगत से बिलकुल बेखबर है। यह एक ऐसी स्त्री है जो कर्मनिष्ठ है और जो अपने काम में पूरी तरह डूबी हुई है। यहीं तो बुद्ध का दर्शन था, परिपुर्णता से डूबना, केवल किया ही बचे वहां मात्र देखने वाला।
 सरहा ने बड़े गौर से देखा, तीर तैयार था, स्त्री ने एक आंख बंद कर एक अदृश्य लक्ष्य का भेद करने की मुद्रा बना ली थी। सरहा ने जरा और नजदीक से देखा। अब असल में वहां कोई लक्ष्य वगैरह कुछ नहीं था, उसने सिर्फ एक मुद्रा बना ली थी। उसकी एक आंख बंद और दूसरी आंख खुली हुई थी और वह किसी अदृश्य निशान को ताक रही थी जो वहां था ही नहीं। सरहा को इसमें कोई संकेत दिखाई देने लगा। मुद्रा प्रतिकात्मक थी, उन्हें धुंधली सी प्रतीति होने लगी थी परंतु स्पष्ट कुछ नहीं हो रहा था।
तो सरहा ने उस स्त्री से पूछा कि क्या तीर बनाना तेरा व्यवसाय है, यह सुन कर उस स्त्री को बड़े जोर की उद्याम हंसी आई और उसने कहा: ‘अरे मूढ़ ब्राह्मण! तूने वेदों को तो छोड़ दिया परंतु अब बुद्ध के बचन धम्मपद को पूजना शुरू कर दिया है, तो फर्क क्या हुआ? तूने किताबें बदल ली हैं, दर्शन बदल लिया है, परंतु अरे मूढ़ तू तो यह सारा समय वैसा का वैसा ही रहा।’
सरहा को यह सुन कर बड़ा धक्का लगा, इस तरह से उनके साथ इससे पहले किसी ने बात नहीं की थी। एक असंस्कृत स्त्री ही इस प्रकार बोल सकती थी। और जिस तरह वह हंसी थी वह इतना असभ्य था, इतना आदिम, परंतु फिर भी उसमें ऐसा कुछ था जो बहुत ही प्राणवान था और सरहा उस स्त्री के प्रति ऐसे खिंचे जा रहे थे जैसे लोहा चुंबक के प्रति खिंचता है।
उस स्त्री ने फिर कहा, ‘क्या तुम अपने आप को बौद्ध मानते हो?’ सरहा ने बौद्ध साधुओं के पीले वस्त्र पहन रखे होंगे। वह स्त्री फिर हंसी, और कहने लगी, ‘बुद्ध जो कहते हैं उसका अर्थ सिर्फ कर्म द्वारा जाना जा सकता है, न शब्दों द्वारा और न पुस्तकों द्वारा। क्या अभी तक तुम्हारा इन ग्रंथों से जी नहीं भरा? क्या अभी तक तुम्हें इनसे ऊब पैदा नहीं हुई? अब इस तरह की खोज में और ज्यादा समय बरबाद मत करो, चलो आओ मेरे साथ।’
और एकाएक कुछ हुआ, एक भीतरी संवाद जैसा कुछ घट गया। सरहा को इस प्रकार की अनुभुति पहले कभी नहीं हुई थी। उस घड़ी में वह स्त्री जो कर रही थी उसका आध्यात्मिक अर्थ उन्हें एकाएक स्पष्ट हुआ। सरहा ने देखा कि न वह बाएं देख रही थी न दाएं; उसकी दृष्टि मध्य में ग़ढ़ी हुई थी।
पहली बार उनकी समझ में आया कि बुद्ध जिसे मध्य में होना कहते हैं उसका अर्थ हैं: अति से बचना। पहले वे दार्शनिक थे, अब वे दर्शन-विरोधी बन गए है--एक अति से दूसरी अति। पहल वे एक चीज की पूजा करते थे, अब वे उसके बिलकुल विरोधी वस्तु की पूजा कर रहे हैं--परंतु पूजा जारी है। तुम बाएं से दाएं जा सकते हो या दाएं से बाएं परंतु इससे तुम्हारा कोई फायदा नहीं होगा। तुम सिर्फ एक घड़ी के पेंडूलम कि तरह बाएं से दाएं और दाएं से बाएं घूमते रहोगे।
यह सब सरहा ने श्री कीर्ति के मुंह से कई बार सुना था; उन्होंने इसके विषय में पढ़ा भी था, उस पर विचार किया था, मनन किया था; इस विषय में औरों से चर्चा भी की थी कि मध्य में होना ही सबसे अधिक उचित हैं। परंतु यहां पहली बार उन्होंने इस सत्य को घटते हुए देखा: वह स्त्री न बाएं देख रही थी न दाएं, वह सिर्फ मध्य में देख रही थी, उसका पूरा ध्यान मध्य में केंद्रित था।
मध्य ही वह बिंदु हैं जहां से अतिक्रम होता है। इस बात पर जरा विचार करो, जरा मनन करो, अपने जीवन में देखो। आदमी धन के पीछे भाग रहा हैं, पागल की तरह, धन ही उसका परमात्मा है.....
पहली बार सरहा ने वह घटते हुए देखा जो उन्होंने श्री कीर्ति में भी नहीं देखा था। सच में वह घट रहा था, और उस स्त्री ने ठीक ही कहा था, ‘तुम केवल कर्म द्वारा सीख सकते हो।’ और वह इतनी तल्लीन थी कि उसने सरहा को देखा तक नहीं जो उसे वहां खड़े-खड़े देख रहे थे। वह इतनी तल्लीन थी, अपने काम में इतनी डूबी हुई थी--यही बुद्ध का संदेश है: काम में पूरितरह से डूबो जिससे कर्म से ही मुक्ति मिल जाए।
कर्म बनता ही इसलिए है क्योंकि तुम उसमें उतरते नहीं हो। अगर तुम कर्म में पूरे उतर जाते तो उसका कोई निशान नहीं बचता। कोई भी काम अगर पूरा कर लो तो वह हमेशा के लिए खत्म हो जाता है, फिर उसकी कोई स्मृति नहीं बचती। अधूरा काम पीछा करता ही रहता है, और मन उसे पूरा किए बिना छोड़ना नहीं चाहता।
क्या तुमने कभी कोई चीज पूरी की है? या सब अधूरा-अधूरा? अभी एक काम पूरा हुआ नहीं और दूसरा शुरू कर देते हो, और अभी वह पूरा हुआ नहीं कि तीसरा शुरू कर देते हो। इस तरह तुम अधूरे कर्मों के बोझ के नीचे दबते चलते हो। इसी को कर्म कहते हैं--कर्म का मतलब है अधूरा कृत्य।
पूर्ण बनते ही तुम मुक्त हो जाते हो।
वह स्त्री पूर्णतः डूबी हुई थी। इसीलिए वह इतनी तेजस्वी और सुदंर लग रही थी। वैसे तो वह एक साधारण स्त्री ही थी, परंतु उसका सौंदर्य अलौकिक था। उसका सौंदर्य इसीलिए खिला हुआ था क्योंकि वह अपने काम में पूरी तरह डूबी हुई थी, क्योंकि वह अतिवादी नहीं थी। उस का सौंदर्य निखर रहा था इसीलिए क्योंकि वह मध्य में थी, संतुलित थी। सतुंलन से शोभा आती है।
पहली बार सरहा को एक ऐसी स्त्री मिली थी जिसने न केवल शारीरिक बल्कि आध्यात्मिक सौंदर्य था। स्वभावतः वे समर्पित हो गए। कहना चाहिए समर्पण हो गया। वह स्त्री जो भी कर रह थी उसमें सरहा पूरा डूब गए, और उसे देख कर वे पहली बार समझे कि इसे कहते हैं ध्यान। ध्यान का यह अर्थ नहीं है कि तुम किसी खास समय पर बैठ कर राम-राम जपो, या कि तुम चर्च जाओ, या मंदिर, मस्जिद जाओ। ध्यान का अर्थ है जीवन में पूरी तरह संलग्न होना, साधारण सा काम भी इतनी तन्यमता से करना कि काम में से गहराई झलकने लगे।
पहली बार सरहा की समझ में आया कि ध्यान क्या है? ध्यान तो वह भी करते थे, बड़ी मेहनत करते थे, लेकिन यहा पहली बार ध्यान वस्तुतः घटित हुआ था, एक दम सजीव। वे उसे अनुभूत कर सकते थे, छू सकते थे, ध्यान जैसे साकार हो उठा था। और तब उन्हें याद आया कि एक आंख बंद और दूसरी आंख खुली रखना यह एक बौद्ध प्रतीक है।
बुद्ध कहते हैं--और आज के मनस्विद उनसे सहमत होंगे; पच्चीस सौ साल बाद मनोविज्ञान उस नतीजे पर पहुंचा है जहां बुद्ध इतने पहले पहुंच चुके थे। बुद्ध कहते हैं, हमारा आधा मस्तिष्क तर्क करता है और आधा मस्तिष्क अंतर्बोध (संप्रेषण) करता है। हमारा मस्तिष्क दो भागों में या दो क्षेत्रों में बंटा हुआ है। बायां हिस्सा सोचता है, तर्क करता है, तर्कबद्ध दलील करता है, विश्लेषण करता है। वह दर्शन और धर्मशास्त्र का क्षेत्र है, जिसमें शब्द ही शब्द भरे पड़े हैं, जिसमें दलीलें ही दलीलें हैं। तर्क और निष्कर्ष है वह बायां मस्तिष्क बिलकुल अरस्तु जैसा है।
तो सरहा को उस स्त्री की मुद्रा का स्मरण आया। उस एक अज्ञात, अदृश्य, अगाम्य की ओर लक्ष्य किये हुए थी। कैसे अस्तित्व के साथ एक हुआ जाए? लक्ष्य है अद्वैत जहा विषय और विषयी दोनों खो जाते हैं, जहां ‘मैं’ और ‘तू’ खो जाते हैं।
सरहा ने जैसे ही यह जाना, उस स्त्री की क्रियाओं को परखा और उन्हें सत्य की पहचान हुई, उस स्त्री ने उन्हें ‘सरहा’ कह कर पुकारा। उनका नाम तो राहुल था, उस स्त्री ने लेकिन उन्हें ‘सरहा’ कहा। ‘सरहा’ बड़ा प्यारा शब्द है। उसका अर्थ होता है, ‘वह जिसने तीर मार लिया है।’ ‘सर’ का अर्थ होता है ‘तीर’ ‘हा’ का मतलब है ‘मार लिया’ ‘सरहा’ का अर्थ है ‘वह जिसने तीर मार लिया’। जैसे ही उन्हें उस स्त्री की क्रियाओं का भेद समझ में आ गया, उसकी वह प्रतिकात्मक मुद्राएं, जैसे कि वह उन्हें कुछ देने का प्रयत्न कर रही थी, वह क्या दिखाने का प्रयत्न कर रही थी उसका रहस्य समझ में आया, वैसे ही वह स्त्री अति आनंदित हुई। वह नाच उठी और उसने उन्हें ‘सरहा’ कह कर बुलाया और कहा: ‘आज से तुम सरहा कहे जाओगे: तुमने तीर मार लिया है। मेरी क्रियाओं का भेद समझ कर तुमने प्रवेश कर लिया है।
सरहा ने कहा: ‘तुम कोई साधारण तीर बनाने वाली स्त्री नहीं हो, मेरा ये सोचना है कि तुम एक सामान्य तीर बनाने वाली स्त्री हो, भूल थी, मुझे क्षमा करो, इस बात का मुझे बहुत खेद है। तुम एक महान गुरु हो और तुम्हारे कारण मेरा पुनर्जन्म हुआ है। कल तक मैं सच्चा ब्राह्मण नहीं था, लेकिन आज से मैं जरूर ब्राह्मण हूं। तुम ही मेरी गुरु हो, और तुम ही मेरी माता हो, और तुम्हीं ने मुझे नया जन्म दिया है। मैं अब वही नहीं हूं। इसलिए तुमने ठीक ही किया जो मेरा पुराना नाम बदल कर मुझे नया नाम दे दिया’
सो इस प्रकार राहुल सरहा बन गए।
कहा तो यह जाता है कि वह स्त्री और कोई न होकर गुप्त रूप  में स्वंय बुद्ध थे। शास्त्रों में जो बुद्ध का नाम दिया गया है, वह है ‘सुखनाथ’ बुद्ध, जो सरहा जैसे बड़ी संभावना रखने वाले व्यक्ति की सहायता के लिए आए थे। बुद्ध ने, या कहो किसी सुखनाथ नाम के बुद्धपुरुष ने स्त्री का रूप  ले लिया था। लेकिन क्यों? क्यों स्त्री का रूप? क्योंकि तंत्र यह मानता है कि जैसे मनुष्य का जन्म स्त्री से होता है वैसे ही शिष्य के रूप में उसका नया जन्म भी स्त्री से ही होगा। असलियत तो यह है कि सभी गुरु मां अधिक और पिता कम होते हैं। उनमें स्त्रैणता का गुण होता है।
गुरु को तुम्हें अपने गर्भ में महीनों तक, सालों तक और कभी-कभी तो जन्मों तक रखना पड़ता है। कोई नहीं कह सकता कब तुम जन्म लेने को तैयार हो जाओ। गुरु को मां बनना पड़ता है। गुरु में स्त्री-शक्ति की भारी सामर्थ्य होना जरूरी है तभी वह तुम पर प्रेम की वर्षा कर सकता है, तभी वह तुम्हें खत्म कर सकता है। जब तक तुम्हें उसके प्रेम के बारे में पक्का नहीं होगा, तुम उसे खत्म नहीं करने दोगे। तुम श्रद्धा करोगे कैसे? केवल गुरु का प्रेम ही तुम्हें श्रद्धा करने योग्य बनाएगा और उसी श्रद्धा द्वारा वह धीरे-धीरे तुम्हारे अंग-प्रत्यंग काटेगा। और फिर तुम एक दिन एकाएक मिट जाओगे। धीरे...धीरे...धीरे और मिटे और एक दिन तुम पूर्ण डूब गए। ‘गते-गते-पारगते।‘ तभी नये का जन्म हो सकता है और होता है।
तीर बनाने वाली स्त्री ने सरहा को स्वीकार कर लिया। असल में वह उसकी प्रतिक्षा कर रही थी। गुरु, शिष्य की प्रतिक्षा करता है। पुरानी परंपराएं कहती है: इससे पहले कि शिष्य गुरु को चुने, गुरु ने शिष्य को चुन लिया होता है। ठीक वही इस कथा में भी घटित हुआ। सुखनाथ स्त्री के रूप में छिप कर सरहा के आने की तथा उनके द्वारा रूपांतरित होने की प्रतीक्षी कर रहे थे।
गुरु और शिष्य का संबंध, आत्मा का प्रेम-संबंध है। सरहा को उनका आत्म-साथी मिल गया था। दोनों एक-दूसरे के गहन प्रेम में थे, ऐसा प्रेम जो इस पृथ्वी पर कदाचित ही होता है।
स्त्री ने सरहा को तंत्र की शिक्षा दी। केवल स्त्री ही तंत्र सिखा सकती है। इसलिए कि केवल स्त्री ही तंत्र के ग्रुप की लीडर बन सकती है। पुरुष के लिए कठिन होगा। हां, कभी-कभी पुरुष भी बन सकता है, लेकिन फिर उसे बहुत ही स्त्रैण बनना होगा। स्त्री तो होती ही है, उसमें पहले से ही वे गुण होते हैं--प्रेम और स्नेह के गुण। उसमें स्वभावतः देखभाल, प्रेम, तथा कोमलता के गुण होते हैं।
इस तीर बनाने वाली स्त्री के मार्ग-दर्शन में सरहा तांत्रिक बन गए। अब उन्होंने ध्यान करना छोड़ दिया। एक दिन उन्होंने वेद, शास्त्र, ज्ञान आदि छोड़ दिया था, अब उन्होंने ध्यान भी छोड़ दिया। सारे देश में अफवाह फैल गई कि सरहा अब ध्यान नहीं करते। वे गाते जरुर हैं, नाचते भी हैं, लेकिन ध्यान बिलकुल नहीं करते। अब संगीत ही उनका ध्यान बन गया, अब नृत्य ही उनका ध्यान बन गया। अब उत्सव ही उनके सारे जीवन को ढंग बन गया।
श्मशान में रहना और उत्सव। रहना जहां केवल मृत्यु घटती हो और जीना आनंद-विभोर होकर। यही तंत्र की खूबी है--वह जहां भी विरोध है, जो भी विपरीत है उसे जोड़ता है। अगर तुम कभी श्मशान जाओ तो उदास हो जाओगे, वहां तुम्हारे लिए आनंद मग्न होना बड़ा कठिन होगा, ऐसी जगह जहां लोग जलाये जाते हो, जहां लोग रोते-चिल्लाते हों, तुम्हारे लिए गाना और नाचना बड़ा कठिन होगा। और रोज मौत ही मौत, दिन रात मौत। कैसे तुम आनंद मनाओगे?
लेकिन अगर वहां तुम आनंद नहीं मना सकते तो जिसे आज तक तुम आनंद समझते रहे हो वह झूठ है। अगर तुम श्मशान में भी आनंद मना सको तब तो यह कहा जा सकता है, कि तुम में आनंद घटित हुआ है। क्योंकि अब वह बेशर्त है। अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कही मृत्यु है या जीवन, कि किसी का जन्म हुआ या मृत्यु हुई।
सरहा गाने और नाचने लगे। अब वे पहले की तरह गंभीर नहीं रहे। तंत्र में गंभिरता है ही नहीं। तंत्र है क्रीड़ा! हां, उसमें ईमानदारी है, लकिन गंभीरता नहीं। वह अत्यंत आनंदपूर्ण है। तो सरहा के आस्तित्व में क्रीड़ा का प्रवेश हो गया--तंत्र है ही क्रीड़ा, क्योंकि तंत्र प्रेम का सबसे विकसित रूप है: प्रेम है क्रीड़ा।
सरहा के जीवन में क्रीड़ा का प्रवेश हुआ, और उसके साथ ही सच्चे धर्म का जन्म हुआ। उनकी भावविभोरता इतनी संक्रामक थी कि लोग उन्हें गाते और नाचते हुए देखने आने लगे। और जब लोग उन्हें देखते तो वे भी उनके साथ नाचने लगते; वे भी उनके साथ गाने लगते। वह पूरा श्मशान बड़े आनंद और उत्सव का केंद्र बन गया। वहां मुर्दे तो अभी भी जलते थे, लेकिन सरहा और तीर बनाने वाली स्त्री के आसपास अधिकाधिक भीड़ एकत्रित होने लगी, और उस श्मशान में बड़ा आनंद मनाया जाने लगा।
और यह सब इतना संक्रामक हो गया कि जिंहें भावविभोरता क्या होती है उसका कुछ भी पता नहीं था, वे लोग आकर नाचते और गाने लगे और भावविभोरता में डूबने लगे, समाधि में उतरने लगे। सरहा की तरंगें, उनकी मौजूदगी ही इतनी प्रभावशाली बन गई कि अगर तुम उनके साथ जुड़ जाओ तो तुम्हारे साथ भी वह घट जाए। वे इतने मस्त बन गए थे कि लोगों पर उनकी मस्ती उमड़ पड़ने लगी। वे इतने उन्मादित हो गए कि उनके साथ अन्य लोग भी अधिकाधिक आनंदग्रस्त होने लगे।
लेकिन फिर जो अपरिहार्य था वह हुआ: ब्राह्मणों ने, पंडित और पुरोहितों ने, और तथा कथित धार्मिक लोगों ने सरहा को बदनाम करना शुरू कर दिया--इसे ही मैं अपरिहार्य कहता हूं। जब भी सरहा जैसा आदमी होगा, पंडित निश्चय ही उसके विरोध में हो जाएंगे, पुरोहित विरोध में हो जाएंगे, और वे तथाकथित सदाचारी, नेतिकतावादी, धर्म परायण लोग विरोध में हो जाएंगे। तो इन लोगों ने सरहा के बारे में बिलकुल बेबुनिया अफवाहें फैलानी शुरू की।
वे लोगों से कहने लगे: ‘वह तो पतित हो गया है। भ्रष्ट हो गया है। अब वह ब्राह्मण ही नहीं रहा। उसने ब्रह्मचर्य छोड़ दिया है। अब वह बौद्ध भिक्षु तक नहीं रहा। वह एक निम्न जाति की स्त्री के साथ लज्जास्पद आचरण करता है और एक पागल कुत्ते की तरह चारों और दौड़ता फिरता है।’ उन्हें सरहा का भावविभोर होना पागल कुत्ते जैसा लगा--सब तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर करता है। सरहा पूरे श्मशान में नाचते फिरते थे। वे उन्मत्त तो थे, लेकिन किसी पागल कुत्ते की तरह नहीं--वे परमात्मा के नशे में उन्मत्त थे।
सब तुम्हारी दृष्टी पर निर्भर है।
राजा को भी इन बातों की खबर पहुंचाई गई। ठीक क्या हो रहा है, यह उसे भी जानने की उत्सुकता हुई। लोग आ-आ कर उसे खबरें पहुंचाने लगे, और वह चिंतित होने लगा। वे लोग राजा को जानते थे, उनके मन में सरहा के प्रति बड़ा सम्मान है, यह उन्हें ज्ञात था, वह उन्हें अपने दरबार का मंत्री बनाना चाहता था। लेकिन सरहा ने तो संन्यास ले लिया था। राजा के मन में सरहा की विद्वत्ता के प्रति बड़ा सम्मान था, सो लोग उसके पास उनकी खबरें लाने लगे।
राजा को और भी अधिक चिंता हुई। उसे इस युवक से प्रेम था, उसके प्रति सम्मान भी था, और वह उसके लिए चिंतित भी था। कुछ लोगों को राजा ने सरहा को समझाने के लिए भेजा, और कहलवाया कि ‘अपने पुराने मार्ग पर लौट आओ। तुम ब्राह्मण हो, तुम्हारे पिता बड़े पंडित थे, तुम स्वयं बड़े पंडित थे--यह तुम क्या कर रह हो? तुम भटक गए हो। वापस घर लौट आओ। मैं अभी जिंदा हूं। राजमहल आओ और मेरे परिवार के अंग बन जाओ। तुम जो कर रहे हो वह ठीक नहीं है।
जो लोग सरहा का मन बदलने आए थे उनके आगे सरहा ने एक सौ साठ पद गाए। वे एक सौ साठ पद...और वे लोग नाचने लगे, वे फिर लौटे ही नहीं।
राजा को और भी अधिक चिंता हुई। राजा की पत्नी, रानी को भी इस नवयुवक में रुचि थी। वह अपनी बेटी का विवाह उसके साथ करना चाहती थी, तो वह भी सरहा को समझाने गई। और सरहा ने रानी के आगे अस्सी गीत गए....और रानी फिर राजमहल नहीं लौटी।
राजा बड़ा हैरान हुआ: ‘वह यहां हो क्या रहा है?’ तो राजा स्वयं वहां पहुंचा और सरहा ने केवल चालीस पद गाए और राजा का हृदय परिवर्तन हो गया, और वह भी उस श्मशान में पागल कुत्ते की तरह नाचने लगा।
तो सरहा के नाम पर तीन ग्रंथ उपलब्ध हैं: पहला: सरहा के लोक-गीत, एक सौ साठ पद; दूसरा: सरहा के रानी के गीत--पहले एक सौ साठ पद, दूसरे अस्सी पर: और फिर सरहा के राज-गीत जिन का हम ध्यान करेंगे--वे हैं चालीस पद। एक सौ साठ पर आम लोगों के लिए क्योंकि उनकी समझ कोई बहुत अधिक नहीं थी। अस्सी पद रानी के लिए क्योंकि उसकी समझ आम लोगों की समझ से जरा अधिक थी; चालीस पद राजा के लिए क्योंकि वह आदमी बुद्धिमान था, समझदार था, बोधयुक्त था।
 राजा में परिवर्तन हो जाने के कारण धीर-धीरे पूरे देश में धार्मिक परिवर्तन आ गया। और पुराने शास्त्र तो कहते हैं कि एक समय आया जब पूरा देशा शून्य हो गया। ‘शून्य’..? यह बौद्ध शब्द है। इसका अर्थ हुआ कि लोग ना-कुछ हो गए, वे अहंकार-शून्य हो गए। लोग मिला हुआ क्षण आनंदपूर्वक बिताने लगे। आपा-धापी, पतिस्पर्धा की हिंसा सारे देश में से गायब हो गई। पूरा देशा शांत हो गया, वह शून्य हो गया...जैसे वहां कोई था ही नहीं। उस देश में आदमी जैसे गायब ही हो गए; एक महान दिव्यता उस देश में उतर आई। यह चालीस पद उसके मूल में थे, उसके स्त्रोत थे।
जैसे पवन के आघात से
शांत जल में उभर आती है, उतंग तरंगें,
ऐसे ही देखते हो सरहा
अनेक रूपों में, हे राजन!
यद्यपि है वह एक ही व्यक्ति।

जो लोग कामवासना से ग्रस्त रहते हैं उन्हें तंत्र शर्मनाक ही लगता है। वे समझ नहीं पाते, दबी हुई वासनाओं की वजह से उनकी समझ में ही नहीं आता क्या हो रहा है। तो ये तमाम बातें राजा के मानस पर पवन के बड़े झोंके का काम कर रही थी। राजा का एक हिस्सा तो सरहा को प्रेम करता था, उसका आदर करता था; उसका दूसरा हिस्सा गहरी शंका में डूबा हुआ था।
सरहा ने सीधे राजा की और देख कहा: ‘ऐसे ही देखते हो सरहा उनके रूपों में, हे राजन! यद्यपि है वह एक ही व्यक्ति।’ यद्यपि सरहा एक ही व्यक्ति है: मैं एक पूर्णमासी के चंद्रमा की तरह हूं, लेकिन तुम्हारे मानस सरोवर में हलचल मची है। इसलिए अगर तुम मुझे समझना चाहते हो तो कृपा कर सीधे समझने की कोशिश न करो--मुझे समझने का एक ही रास्ता है और वह यह कि जो पवन तुम्हारे मानस को सतह पर चोट कर रहा है उसे रोको। पहले तुम्हारी चेतना शांत हो लेने दो...फिर देखो! पहले इन लहरों ओर मौजों को रूक जाने दो, तुम्हारी चेतना को एक शांत जलाशय बन जाने दो, और तब तुम देखो। जब तक तुम देखने के काबिल नहीं हो जाते, मैं तुम्हें समझा नहीं सकता कि मेरे साथ क्या घटित हो रहा है, यह निश्चित है, और वह भी यहीं। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं! मैं एक ही व्यक्ति हूं, लेकिन मैं तुम में देखा सकता हूं--तुम मुझे इस तरह देख रहे हो जैसे में एक नहीं हजार व्यक्ति हूं।

भेंगा है जो मूढ़
दिखते उसे एक नहीं, दो दीप,
जहां दृश्य और द्रष्टा नहीं दो,
अहा! मन करता संचालन
दोनों ही पदार्थगत सत्ता का।

और फिर सरहा उपमा, प्रतीक देते हैं। पहले तो वे कहते हैं तुम्हारे मानस सरोवर में हलचन मची है। फिर वे कहते हैं: ‘भेंगा है जो मूढ़ दीखाते उसे एक नहीं दो दीप--वह एक देख ही नहीं सकता, वह दो देखता है।
गृह दीप यद्यपि प्रज्वलित..
सुना सरहा का यह सुदंर कथन:
गृहदीप यद्यपि प्रज्वलित,
जीते अंधेरे में नेत्रहिन,
सहजता से परिव्याप्त सभी,
निकट वह सभी के,
पर रहती सब परे मोहग्रस्त के लिए।
तंत्र में एक प्रयोग होता है जिसमें पुरुष स्त्री के सामने बैठता है, नग्न स्त्री के सामने, और वह उस स्त्री के अंग-प्रत्यंग को इतनी गहराई से देखता है कि एक दिन उसकी नग्न स्त्री को देखाने की इच्छा ही विसर्जित हो जाती है। तब वह आदमी रूप से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। अब यह एक बड़ी भारी प्रक्रिया है, वरना तुम तो हरदम अपने मन में नग्न स्त्री को देखते रहते हो। एक स्त्री सड़क से गुजरी कि तुम उसके कपड़े उतार लेना चाहते हो--यह होता है।
अब तुम एकाएक सरहा को एक नग्न स्त्री के साने बैठे हुए देखो तो क्या व्याख्या करोगे? तुम खुद जैसे ही वैसी व्याख्या करोगे। तुम कहोगे, ‘ठीक है, जो हम करना चाहते थे, वह कर रहा है, तो हम तो उससे बेहतर हैं, कम से कम हम वैसा कर तो नहीं रहे हैं। हां, हम कल्पना जरूर कर लेते हैंै विचारों में, लेकिन क्रिया में वैसा कभी नहीं करते। यह तो भ्रष्ट हो चुका है।’ और यह कहने का मौका तुम कभी नहीं चूकोगे।
लेकिन, असल में सरहा कर क्या रहे हैं? वे जो कर रहे हैं वह एक गुप्त विज्ञान है। तांत्रिक महीनों तक स्त्री को देखता है, उसके शरीर के रूप का ध्यान करता है, उसके सौंदर्य का ध्यान करता है। वह स्त्री के अंग-अंग को देखता है, जो भी देखाना चाहे। अगर स्तनों में कुछ आकर्षण है, तो वह स्तन देखेगा, उन पर ध्यान करेगा। वह रूप से मुक्त होना चाहता है, और रूप से मुक्त होने का एक मात्र तरीका यही है कि उसे इतनी गहराई से जान लेना कि फिर उसके प्रति कोई आकर्षण ही न बचे।
अब यह हवा उड़ाने वाले जो कह रहे हैं, उसके कुछ विपरीत ही यहां हो रहा है। सरहा तो परे जा रहे हैं, अब वे कभी भी किसी स्त्री के कपड़े उतारना नहीं चाहेंगे--मन तक में नहीं, स्नान तक में नहीं। अब वे दमित भाव से ग्रसित कभी नहीं रहेंगे। लेकिन भीड़, भीड़ की अपनी ही धारणाएं हैं। अज्ञानी, बेहोशी में पड़े हुए, तरह-तरह की बातें किए चले जाते हैं।

सहजता से परिव्याप्त सभी, निकट वह सभी के,
पर रहती सदा परे मोहग्रस्त के लिए।
सरिताएं हो अनेक, यद्यपि,
सागर मे मिल होती है एक,
हों झूठ अनेक परंतु
होगा सत्य एक, विजयी सभी पर।
मिटेगा अंधकार, कितना ही हो गहन,
उदित होने पर एक ही सूर्य के।

और सरहा कह रहे हैं, जरा मेरी और देखो--सूरज उग गया है। मैं जानता हूं, अंधकार कितना ही गहरा क्यों न हो, एक दिन तो वह मिटेगा। देखो मेरी और...मुझसे सत्य का उदय हुआ है! इसलिए तुम्हारे पास मेरे बारे में भले ही अनेक झूठ हों, लेकिन सत्य एक साथ उन सब पर विजयी होकर रहेगा।
ये पद, सरहा के ये गीत गहन ध्यान करने योग्य हैं। प्रत्येक गीत तुम्हारे हृदय में एक फूल खिला सकता है। जिस तरह राजा के अंतर्तम में खिलें। इस बात की मैं आशा रखता हूं। राजा मुक्त हुआ--तुम भी हो सकते हो। सरहा ने तो लक्ष्य भेद लिया। तुम भी सरहा बन सकते हो--वह जिसका तीर लग चुका है।
तंत्र की क्रियाएं इतनी सजग है, वह तुम्हें अधिक से अधिक होशपूर्व बनाती चली जाती है। तंत्र शब्द का अर्थ है—‘चेतना का विस्तार।’यह एक संस्कृत शब्द है, तन का अर्थ है, विस्तार, और तंत्र का अर्थ हो गया चेतना का विस्तार। मौलिक तथ्य और आधार भूत बात तो यह है कि हम एक गहन नींद्रा में है। तुम जागोगे कैसे। कैसे तुम्हें जगाया जा सकता है।
तंत्र भरोसा करता है, समूह-विधियों में, इस बात को भी हमें थोड़ा समझ लेना जरुरी है, एकल चलना अति कठिन है, सब नहीं चल सकते। अगर एक समुह बना कर चले, मार्ग तो वहीं है, परंतु अनेक पथिक होने के कारण, उनकी भाव दिशा के कारण मार्ग सरल हो जाता है, हमें एक संग सहयोग मिल जाता है।
एक थक जाता है, तब दुसरा उसे सहयोग, संतावना देता है, उसकी मदद करता है। कितना ही रास्ता दुर्गम या विहड़ हो उसमें एक सहजता आ जाती है। मार्ग की कठिनाई एक उत्सव बन जाती है। तंत्र तो सेक्स में डूब कर देखना चाहता है, कि ये कामोउन्माद क्या है ?ये कामुकता क्या है? उस उर्ध्वक्षण की पूर्णता को जानना चहाता है। उस के लिए होश चाहिए क्योंकि ये प्रकृति की निंद्रा है, उसका प्रबल आकर्षण, जो अपने उत्पति के लिए प्रत्येक जीवन में भरा हे, उसे भेदना होता है, उस में डूबना और सजगता से डूबना अति कठिन ही नहीं दुलर्भ भी है। परंतु तंत्र इसे करता है, वह कठिन में ही भरोसा करता है।
उस क्षंणात सूख में ही कहीं इस द्वार की कुंजी छूपी है, वहीं से समाधि का मार्ग प्राप्त किया जा सकता हे, सच जानो तो कुदरत ने उत्पती की क्रिया में ही वह रहस्य छूपा रखा है, जिसका प्रबल आकर्षण किसी भी प्राणी का पीछा नही छोड़ा, यही से तो पहली मुक्ति का सवाद मिलता है, हम एक पाश में बंधे है, वह हमें इससे मुक्त नहीं होने देती है, हम लाख छटपटाये उसकी नींद करे, उससे मुख मोडे परंतु वह अंदर रेंगती ही रहती है। क्योंकि कुदरत इतनी आसानी से अपने रहस्य की चाबी किसी को नहीं दे सकती।
एक तरफ तो इस काम से नव जीवन की उत्पती होती है, दूसरी और इसी काम उर्जा मे शाश्वत का राज उसकी कुंजी छूपी हुई है।
 तंत्र की दूसरी पद्यति वलुप्त हो गई, राजा भोज ने उज्जेन में अपने राज्य काल में एक लाख तांत्रिक जाड़ो को मरवा डाला, केवल एक मुर्खता के कारण उसे इस बात की जारा भी समझ नहीं थी की वहां क्या हो रहा है। कुछ तथाकथित मुर्खो ने उस भडकाया और उसने बिना उसे समझे उसे जाने वहां एक नरसंहार करवा दिया। भारत की अनमोल धरोहर हो गई काल के गर्त में विनिष्ठ। वहां से तंत्र का हराश शुरू होता है, आप अजंता या बुद्ध के साधको की बनी तंत्र की मुर्तियां, आपको शिव के तंत्र से बिलकुल अलग ही मिलेगी, राजा भोज ने अपने मुर्खता पुर्ण विवेक के कारण एक अति उन्नत ध्यान की परंपरा को विनिष्ट कर दिया। उज्जेन आज भी तंत्र का गढ़ माना जाता है। और आज भी हम उस राजा भोज को हम महान कहते है, कितनी चतुराई से वे लोग आपने कलंक को इतिहास के पन्नों से उस विलुप्त कर देते है। गजब की बात है। तंत्र में जो दिखता है वह होता नहीं, आप खुद ही समझ ले कि तंत्र कितना गहरा और रहस्यों से भरा है, उसे समझना उसमें डूबना अति कठिन ही नहीं असंभव सा होता जा रहा है।
आज सारी दूनियां ओशो को सैक्स गुरू के नाम से बदनाम करती है, क्योंकि इस लुप्त होती विधि को जीवित करने के लिए हजारों साल के बाद ओशो ने साहस किया, वह खुल कर बोले परंतु हजारों लाखों उनके शिष्य मुक्त सैक्स का प्रचार करते रहे परंतु उन्हें प्रयोग के लिए एक जाडा नहीं मिला, कितने दुर्भाग्य की बात है। हम इतने चलाक और धूर्त हो गये है, की हम अपने जैविक धरातल तक प्रवेश कर ही नहीं सकते। कितनी निराश हुई होगी सदगुरु को....इतनी विज्ञानिक विकास और समझ और स्वतंत्रता के बावजुद मात्र एक जोड़ जिससे की वह उस लुप हुई तंत्र की विधियों को जीवित कर सके।
परंतु अब ऐसा लगता है, श्याद अब कोई उम्मीद नहीं है कि तंत्र के इस माहायग्य को कोई पुर्ण आहुति दे सकेगा। तंत्र से जितने साधको ने मुक्ति के मार्ग को पार किया है, उससे सरल कुछ भी नहीं है, परंतु यह सरला ही आज दुर्भाग्य बन गई है, हम अति जटिल हो गए है।अपने आप को अति आधुनिक और बौधिक मानने लगे है। परंतु सच पूछो तो हमारी सरला और सहजता खो गई है, आज शायद प्रथ्वी के चक्र में मनुष्य सबसे अधिक अहंकारी हो गया है।
शिव का तंत्र और दुसरी और सरहा का तंत्र दोनों ही आज मृत प्राय हो गये है। उनमें प्राण केवल ओशो भर सकते थे। वह भी केवल अपने जीते जी, परंतु वह सूर्य भी अब अस्त हो गया है। अब अगर कोई ओशो सन्यासी तंत्र की बात करता है तो वह अपना विनास या उसके पीछे अपने भोग को छूपा रहा है।
वह भूल जाये तंत्र बिना गुरु के संभव नहीं है।

मनसा--मोहनी

दसघरा 




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