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मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

गोल-गोल घूमने की विधि-(प्रवचन-05)

ओशो के अंग्रेजी साहित्य से अनुवादित विभिन्न प्रवचनांश

प्रवचन-05 सूफी दरवेश गोल-गोल घूमने की विधि-ओशो

The Transmission of the Lamp, chapter #27, Chapter title: Unless your feet are holy...,

8 June 1986 am in Punta Del Este, Uruguay.

(ओशो दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)

प्यारे ओशो,
अपने बचपन के जिन अनुभवों के विषय में हमने आपको बताया, आपने कहा कि वे अनुभव वास्तव में ध्यान की विधियां हैं जो शरीर से बाहर निकलने के लिए सदियों से उपयोग की जाती रही हैं। क्या यह विधियां बचपन में हुए अनुभवों को देखते हुए ही विकसित की गई थीं, या बचपन में ऐसे अनुभव पिछले जन्मों की स्मृतियों के कारण होते हैं?
ये विधियां- और केवल ये ही नहीं, बल्कि अब तक विकसित की गईं सभी विधियां- मनुष्य के अनुभवों पर ही आधारित हैं।

बहुत सी विधियां बच्चों के सरल अनुभवों पर आधारित हैं। तुम्हें उन अनुभवों को संभव बनाने के लिए फिर से उस सरलता को प्राप्त करना होगा।
सदियों से मनुष्य के अंतर जगत में उत्सुकता रखने वाले लोग स्वयं को और दूसरों को देखते हुए विधियां विकसित करते रहे हैं। लेकिन सभी की सभी विधियां कुछ ऐसे अनुभवों पर आधारित होती हैं जो स्वभावतः अपने आप घटते हैं।
ऐसे कितने ही अनुभव हमें रोज होते हैं, लेकिन कोई उनकी परवाह नहीं करता। बल्कि समाज उन अनुभवों को दबाने की कोशिश करता है, क्योंकि वे अनुभव व्यक्ति के विद्रोह का कारण भी बन सकते हैं।
उदाहरण के लिए, जलालुद्दीन रूमी को एक बड़ी ही विचित्र विधि से बुद्धत्व प्राप्त हुआ, जो उसने बचपन में सहज ही सीख ली थी- गोल घूमना।
सभी बच्चों को गोल घूमने में मजा आता है, क्योंकि सामान्यतः तुम्हारा शरीर और तुम्हारे प्राण एक जगह केंद्रित हैं। लेकिन जब तुम गोल घूमना शुरू करते हो और तेज से तेज घूमते चले जाते हो, तो शरीर तो घूमता चला जाता है और एक खास गति पर तुम्हारी चेतना उसके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकती। तो तुम्हारी चेतना उस पूरे चक्रवात का केंद्र बन जाती है; शरीर घूमता चला जाता है और चेतना बिना हिले एक जगह केंद्रित रहती है।
संसार भर में सभी बच्चे ऐसा करते हैं, लेकिन माता-पिता को डर लगता है कि वे गिर जाएंगे, उनकी हड्डी टूट जाएगी, उन्हें फ्रैक्चर हो जाएगा, शायद बीमार पड़ जाएंगे। तो मां-बाप उन्हें घूमने से रोकते हैं, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है कि बच्चे क्या कर रहे हैं, न उन्होंने कभी बच्चों से पूछा है, ‘तुम घूम क्यों रहे हो और तुम्हें घूमने से क्या मिल रहा है?’
जलालुद्दीन ने बचपन से ही इस विधि का प्रयोग किया और उसका आनंद लिया, और क्योंकि लोग उसे रोकते थे, वह रेगिस्तान में चला जाता और अकेला इस विधि को करता। और इस विधि के लिए रेगिस्तान सबसे अच्छी जगह है, क्योंकि तुम यदि गिर भी जाओ, तो तुम्हें चोट नहीं लगेगी; तुम जितनी गति से घूमना चाहो घूम सकते हो।
उसे नहीं पता था कि उसके साथ कुछ आध्यात्मिक घटना घट रही है, लेकिन वह देख रहा था कि उसमें परिवर्तन आ रहे हैं। वह अलग किस्म का व्यक्ति होता जा रहा था। आसानी से उसे परेशान नहीं किया जा सकता था, निंदित नहीं किया जा सकता था, उसका अपमान नहीं किया जा सकता था। उसकी प्रतिभा की धार तेज से तेज होती जा रही थी।
और वह बाकी के बच्चों जैसा भी नहीं रह गया था, वह अलग ही व्यक्तित्व पैदा कर पाने में सक्षम हो रहा था। उसे खेल-कूद में कोई रस न था। जब बाकी बच्चे खेलते, वह दूर कहीं रेगिस्तान में जाकर गोल-गोल घूमता रहता। यह अनुभव उसके लिए इतना आनंददायी था कि उसे किसी और चीज की सुध ही न थी। लेकिन उसे यह नहीं पता था कि यह कोई आध्यात्मिक विधि है या इसका बुद्धत्व से कोई लेना देना है।
जब वह जवान हुआ, तो कई गुरु उसमें उत्सुक हो गए- उसके गुणों को देखते हुए। वह कुछ अनूठा ही व्यक्ति था। वह बुद्धत्व के ठीक कगार पर खड़ा था, और उसे पता भी नहीं था- वह तो सत्य को खोज भी नहीं रहा था। वह तो बस इस विधि को कर रहा था। और इसे उसने जारी रखा।
और एक दिन उसने निर्णय लिया कि वह अपनी पूरी ताकत लगाकर जितनी देर तक घूम सकता है घूम कर देखेगा। जब थोड़ा-थोड़ा घूमने से ही इतने सुंदर अनुभव हो रहे हैं तो उसने सोचा, यदि मैं घूमता ही चला जाऊं, घूमता ही चला जाऊं तो न जाने क्या होगा! वह छत्तीस घंटे तक, दिन-रात, बिना रुके घूमता रहा। और जब छत्तीस घंटे बाद वह जमीन पर गिरा तो वह अलग ही व्यक्ति था, उसमें से एक अलग ही प्रकाश झर रहा था।
उसने एक परंपरा शुरू की, जो पिछले बारह सौ वर्षों से क्रियाशील है। उसकी परंपरा में सूफी दरवेश गोल-गोल घूमकर नृत्य करते हैं। उनके पास केवल एक ही विधि है- और कोई विधि वे नहीं जानते। उनके पास कोई शास्त्र नहीं है, केवल रूमी की कुछ कविताएं हैं- वह बहुत सुंदर कविता करता था। तो इन दरवेशों के पास रूमी की कविताएं और एक विधि है, गोल-गोल घूमने की। और केवल इस एक विधि के द्वारा इन बारह सौ वर्षों में न जाने कितने लोग परम घटना को उपलब्ध हुए हैं। पर यह परंपरा रूमी के द्वारा शुरू की गई थी, जो सत्य को खोज भी नहीं रहा था।
मैंने संसार में आज तक जितनी विधियां संभव हुई हैं उन सभी को गौर से देखा है, यह जानने के लिए कि वे कैसे शुरू हुई होंगी। मैंने पाया कि ये कोई आविष्कार नहीं हैं, वे तो मनुष्य के उन अनुभवों पर आधारित हैं जो अपने आप हो ही रहे हैं। केवल इन अनुभवों को थोड़ा तराशने की जरूरत है, थोड़ा उन्हें विधि के रूप में ढालने की जरूरत है, थोड़ा परिष्कृत करने की जरूरत है, ताकि जिस व्यक्ति को यह अनुभव संभवतः नहीं हो पा रहे हैं वह उनमें सरलता से प्रवेश कर सके।
ये सभी विधियां इसी तरह से खोजी गई हैं।
मुझे आज तक ऐसी एक भी विधि नजर नहीं आई जो मनुष्य के अनुभव पर आधारित न हो। ऐसा लगता है कि प्रकृति तुम्हें खुद ही वह सामर्थ्य देती है जिसके साथ तुम साधारण मन को पार करके समाधि तक पहुंच सको। लेकिन दुर्भाग्य से अपनी इस सामर्थ्य का हम उपयोग ही नहीं करते, हम उसे समझने की कोशिश भी नहीं करते।
लेकिन संसार में ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने इन सब संभावनाओं को इकट्ठा किया है, उन्हें परिष्कृत किया है, उन्हें सहज बनाया है और सरल बनाया है, ताकि हर कोई उनका उपयोग कर सके।
लेकिन एक बात निश्चित है, कि आध्यात्मिक विकास के लिए ऐसी कोई विधि नहीं हो सकती जिसे बनावटी तौर पर मनुष्य के ऊपर थोपा जा सके। प्रकृति ने पहले सब कुछ दे दिया है- तुम उसे परिष्कृत कर सकते हो, उसे बेहतर बना सकते हो, उसे साफ कर सकते हो। लेकिन कोई बनावटी विधि आविष्कृत नहीं की जा सकती।
प्रकृति के साथ किसी तरह की बनावट काम नहीं देगी। और जब प्रकृति खुद ही तुम्हारी मदद करने को तैयार है, तो बनावटी विधियां बनाने का काम बेवकूफी ही होगा।

 ओशो

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