तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)
प्रवचन-दसवां-(केवल एक स्मरण ही)
दिनांक 10 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न:
प्यारे ओशो!
ऐसा क्यों हैं? जब कभी भी मैं आपके प्रवचन के बाद आपको छोड़कर जाता हूं, तो जो कुछ आपको सुनते हुए मुझे सुंदर और प्रभावी लगा था, वह मुझे शीघ्र ही निराशा करने लगता है। क्योंकि मैं स्वयं को उन आदर्शों
को जी पाने में, जो आपके अपने प्रवचन में सामने रखे थे अपने
को असमर्थ पाता हूं।
तुम किसके बारे में बात कर रहे हो? आदर्शों के? ठीक यही वह चीज़ है जो मैं नष्ट किये चले जाता हूं। मैं तुम्हारे सामने कोई भी आदर्श नहीं रख रहा हूं। मैं तुम्हें भविष्य के बारे में कोई कल्पनाएं और कथाएं नहीं दे रहा हूं, मैं तुम्हें किसी भी प्रकार का कोई भी भविष्य गारंटी नहीं दे रहा हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि भविष्य वर्तमान को स्थगित करने की एक तरकीब है। यह तुम्हें स्वयं से बचाने की एक तरकीब है, यह स्वयं से पलायन कर जाने का एक तरीका है। कामना करना एक धोखा है और आदर्श, कामनाएं सृजित करते हैं। मैं तुम्हें कोई भी ‘चाहिए’ अथवा कोई भी ‘नहीं चाहिए’ नहीं दे रहा हूं। मैं न तो तुम्हें कुछ विधायक दे रहा हूं और न नकारात्मक। मैं सामान्य रूप से तुमसे सभी आदर्शों को छोड़ने और होने के लिए कह रहा हूं।
लेकिन मैं तुम्हारे प्रश्न को समझ
सकता हूं। तुम उससे एक आदर्श निर्मित कर लेते हो और सोचना प्रारम्भ कर देते हो, ‘वैसा होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?’ मैं सभी
आदर्शों को तुमसे पृथक करने का प्रयास कर रहा हूं और तुम उसी से एक आदर्श निर्मित
कर लेते हो: मैं कह रहा हूं किसी भी आदर्शों को कैसे छोड़ा जाये। तुम मुझे गलत समझ
रहे हो, तुम मेरे कहने की गलत व्याख्या कर रहे हो। जो कुछ
मैं कह रहा हूं तुम उसे न सुनकर, वही सुने चले जाते हो,
जो मैं किसी भी प्रकार से कह ही नहीं रहा हूं। मुझे और अधिक सावधानी
से सुनो।
ऐसा हमेशा हुआ है। हम नहीं जानते कि
बुद्ध ने ठीक-ठीक क्या कहा था, क्योंकि जिन लोगों ने
विवरण दिया है, वे लोग तुम्हारे समान ही थे। वह विवरण
निश्चित रूप से यह कहता है कि जैसा भी उन्होंने सुना, लेकिन
वह इस बारे में कुछ भी नहीं कहता है कि उन्होंने क्या कहा। और ये चीज़ें प्रत्यक्ष
रूप से विरोधी भी हो सकती है।
मैं पूर्ण रूप से एक भिन्न भाषा बोल
रहा हूं। तुम उसे किसी अन्य चीज़ में उसका निष्पादन अपनी भाषा में कर लेते हो, तुम अंदर आते हो और विरोध करना प्रारम्भ कर देते हो।
तुम पूछते हो--‘ऐसा क्यों है कि जब कभी मैं आपके प्रवचन के बाद आपको छोड़कर जाता हूं,
तो उसका सत्य मुझे निराश करने लगता है।’ क्योंकि
मैं स्वयं अपने को उन....? तुम स्वयं में भ्रमित होकर निराश
इसीलिए हो जाते हो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो और
तुम्हारे पास स्वयं की एक विशिष्ट छवि है। तुम वह छवि नहीं हो, वह छवि तुम्हारी हो भी नहीं सकती है, वह तुम्हारे मन
का ही एक निर्माण है। तुम्हारे पास तुम्हारी स्वयं की सृजित की हुई एक छवि है—और तुम सोचते हो कि तुम वह ही हो। और जब तुम मुझे सुनते हो कि मैं
तुम्हारे पैरों को खींच रहा हूं, तो तुम्हारा भ्रम टूटने लग
जाता है, वहीं है निराश का कारण, क्योंकि
तुम्हारी छवि टूट जाती है, तुम्हारी छवि उतनी ठीक नहीं रह
जाती, जैसी वह पहले थी।
लेकिन तुम टूटते नहीं हो। वास्तव में
छवि तुम्हारे पास तुम्हें अंतराल की अनुमति नहीं दे रही है। वह तुम्हें बने रहने
की अनुमति नहीं दे रही है। छवि को बाहर फेंक देना है जिससे तुम्हें विकसित होने को
प्रर्याप्त स्थान मिल सके। छवि बहुत अधिक विराट और शक्ति शाली बन गई है। उसने
तुम्हारा पूरा घर अपने अधिकार में ले लिया है और तुम बरसाती में रह रहे हो, वह तुम्हें अंदर आने की अनुमति नहीं दे रही है। और जो छवि तुमने अपने
आदर्शों से बनाई है वह तुम्हें तिरस्कृत किये चले जाती है, सृष्टि
ही सृष्टा का तिरस्कार किये चले जा रही है।
इसकी मूर्खता और हास्यास्पद को देखो।
तुम एक बहुत सुंदर छवि निर्मित करते हो, स्वाभाविक है कि जब तुम सृजित कर रहे हो तो तुम एक सुंदर छवि का ही सृजन
करते हो—और उस छवि के कारण ही तुम तुलना करने पर कुरूप दिखने
लगते हो। तुम अपनी एक बहुत-बहुत महान छवि निर्मित करते हो कि तुम एक संत हो,
तब तुम स्वयं को ऐसे कार्य करते हुए पाते हो जो बहुत सात्विक नहीं
है। अब तुम तिरस्कृत होने का अनुभव करते हो। छवि तुम्हारी ही है और उस छवि के
विरूद्ध तुम्हारे कार्य दुर्गन्ध से भरे प्रतीत होते हैं।
यहां जो मैं कह रहा हूं, वही सरहा भी राजा से कह रहा है—कि छवि को पूरी तरह
से छोड़ देना है। जिस क्षण तुम छवि को गिरा देते हो और तुम छवि के बारे में भूल
जाते हो तब ज्ञात होता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है? तब
ज्ञात होता है कि कौन पापी है और कौन संत है? तब तुम्हारे
पास उसके साथ तुलना करने को कोई भी चीज़ नहीं होती है। तब अचानक तुम विश्राम में होते
हो। तुलना विलुप्त हो जाती है और तिरस्कार भी मिट जाता है। तुलना विलुप्त होती है—और अहंकार भी विलुप्त हो जाता है, पापी होने का
अहंकार और संत होने का अहंकार मिट जाता है। बिना आदर्श के वहां किसी भी तरह का कोई
अहंकार रही नहीं सकता है। वह आदर्श के द्वारा, आदर्श के
माध्यम से ही अस्तित्व में बना रहता है। अहंकार के लिए आदर्श अनिवार्य है।
या तो तुम सोचो कि तुम एक पापी या
अपराधी हो—तुम एक पहचान और एक अहंकार सृजित
करते हो, अथवा तुम सोचते हो की तुम एक संत हो। तब भी तुम एक
अहंकार सृजित करते हो। लेकिन दोनों ही केवल आदर्श के द्वारा ही अस्तित्व में आ
सकते हैं। यदि वहां आदर्श ही नहीं है, तो तुम हो कौन?
संत हो या पापी हो? अच्छे हो अथवा बुरे हो?
कुरूप हो अथवा सुंदर हो? तुम कौन हो? तुम बिना किसी निर्णय के, बिना किसी न्याय पक्ष के,
बिना समर्थन के बिना किसी तिरस्कार के, पूर्णरूप
से स्वयं तुम हो। तुम अपनी पूरी वास्तविकता में वहां हो, यही
है वह जिसे मैं आत्मा कहता हूं।
अब तुम्हें अनिवार्य रूप से बार-बार
जो चीज़ सुंदर और प्रभावी लगी थी वह तुम्हें निराश करेगी, क्योंकि छवि पर से तुम्हारी पकड़ थोड़ी सी ही शिथिल होती है। जब कभी छवि
पर से तुम्हारी पकड़ थोड़ी सी भी ढीली होती है, तुम भयभीत हो
जाते हो। आदर्श एक भ्रम सृजित करता है। और जब कभी मैं आदर्शों को तुमसे पृथक करना
शुरू करता हूं, तुम उस आघात से भ्रमित होकर निराश होने लग
जाते हो, तुम अपने रचे भ्रमों से पूर्ण रूप से निराश हो जाओ
और पुन: आदर्शों के भ्रम सृजित मत करो—और तक देखो कितने अधिक
स्वीकार भाव का जन्म होता है। और कितना बड़ा अनुग्रह अकारण ही पूरी तरह से तुम्हें
चारों और घेर लेता है। केवल कहने भर के लिए वह तुम्हारा है, तुम्हें
इसके लिए कुछ करना भी नहीं है।
तुम जैसे भी हो, तुम अस्तित्व को स्वीकार हो।
मेरा पूरा संदेश यही है, और यही पूरे तंत्र का भी संदेश है: तुम जैसे हो वैसे ही स्वीकार हो। लेकिन
तुम स्वयं को अस्वीकार किये चले जाते हो। अस्वीकार करने के लिए आदर्श उसे सम्भव
बनाते हैं, आदर्श ही तुम्हें स्वयं के प्रति क्रूर, निर्दय, आक्रामक और आत्म पीड़क बनाते हैं। यहां मेरा
प्रयास तुम्हारी सहायता करते हुए तुम्हें समझ दार बनाना है। यह आदर्शवादी
विक्षिप्तता उत्पन्न करता है और इसने पूरी पृथ्वी को एक पागलखाने में बदल दिया है।
और तुम कहते हो: ‘मैं स्वयं के साथ भ्रमित होकर निराश हो जाता हूं, क्योंकि
जो आदर्श आपने प्रवचन में दिये हैं मैं उन आदर्शों को जी पाने में अपने को असमर्थ
पाता हूं।’ तुम किसके बारे में बात कर रहे हो? कैसे आदर्श? मैं यह नहीं कह रहा हूं—‘तुम्हें इस कार्य को करना चाहिए।’ मैं यह नहीं कह
रहा हूं कि तुम्हें इसके समान होना चाहिए, मैं सामान्य रूप
से यहीं कह रहा हूं कि तुम जो कुछ भी हो, वैसे ही बने रहो।
मैं तुमसे सभी बनने वाले आदर्श ले लेने का प्रयास कर रहा हूं। मैं तुम्हें इस
स्थिति को देखने में तुम्हारी सहायता करने का प्रयास कर रहा हूं कि तुम पहले ही से
अपने घर में हो, तुम्हें कभी भी कहीं नहीं जाना है, यह स्थिति पहले ही से है—अस्तित्व तुम पर बरस ही रहा
है। समाधि सदा से तुम्हारी स्थिति है। तुम जहां कही भी हो, तुम
निर्वाण में ही हो।
यही बुद्धत्व है। इसी क्षण बिना
किन्हीं आदर्शों के साथ बिना किन्हीं कामनाओं के साथ, कहीं नहीं जाने के साथ—इसी क्षण—इसमें पूर्ण रूप से विश्राम करना ही—धार्मिकता का
क्षण है, और यही सत्य का भी क्षण है।
लेकिन तुम मुझे सुनते हो और तुम उसे
रटना शुरू कर देते हो, तुम मुझे सुनते हो और
शब्दों को दोहराना शुरू कर देते हो। तुम अर्थ का अनुसरण नहीं करते हो, तुम उसकी आत्मा का नहीं, उस शब्द का अनुसरण करते हो।
मैंने सुना है....
एक समुद्री जहाज के बूढ़े रूखे कैप्टन
ने एक विदेशी बंदरगाह पर यह आश्वस्त होने के बाद कि वह अद्भुत ढंग से सीखने वाला
पक्षी एक युवा तोता खरीदा ओर पिंजरे को जहाज के पुल पर लटका दिया। बिस्के की खाड़ी
से वापस लौटते हुए एक भयानक काला घना बादल चारों और से घिर आया और जहाज़ के कप्तान
ने टिप्पणी करते हुए कहा—यह बेरहम अँधेरा अचानक
चारों और तुरंत घिर आया है।
इसके बाद शीघ्र ही वह बादल फटा और
भयंकर रूप से मूसलाधार वर्षा होने लगी। और कप्तान से मेट से कहां—‘आह यह पानी भी भयानक रूप से पेशाब की तरह नीचे गिर रहा है।’ तूफान भयानक से भयानक होता गया और जहाज डगमगा कर एक और झुक गया और जहाज
में रिस-रिस कर पानी भरने लगा। इसी बीच एक व्यक्ति ने चिल्लाते हुए कहा—‘अब हम लोगों को इससे बचने के लिए क्या करना होगा?’ कप्तान
ने प्रत्युत्तर में कहा—‘ओ, धूल में
लोटने वाले पिस्सुओ! पानी को पम्प करो, वर्षा भी भयानक रूप
से हो रही है। और भिखारियों की तरह सिफलिस बटोरने वाले मूर्खों, पानी को तेजी से पम्प कर बाहर उलीचो।’
जहाज़ और सभी कुछ नष्ट होकर सागर में
खो गया। वह तोता भीगा हुआ धुला पुछा दृढ़ता से अकेला जीवित बचा और एक प्यारी सी
प्रौढ़ अविवाहित स्त्री जो सागर तट पर केवल पादी की प्रतीक्षा कर रही थी, उसे कुछ अपूर्व अनुभव होने के बाद वह तोता मिला। सावधानी बरतते हुए उसने
तोते के पिंजर के ऊपर एक कपड़ा फेंक कर उसे ढक दिया। क्योंकि उसे पादरी का स्वागत
करना था। कपड़े से ढकते ही तोते ने कहां—‘ये बेरहम अँधेरा
चारों और तुरंत घिर गया है।’ वह महिला यह सुनकर बहुत क्रोधित
हुई और उसने तोते के पिंजरे को तुरंत ठंडे पानी के नल के नीचे रख दिया। इस पर तोते
ने चीख कर कहा—‘अब यह पानी भी भयानक रूप से पेशाब की तरह
नीचे गिर रहा है।’ यह सुनकर क्रोधित होकर जैसे ही उसने
पिंजरे को बाहर फेंकना चाहा उसके अंदर के स्वर ने उससे कहा—‘नहीं-नहीं
मिस फनेटाईट। तुम्हें परमात्मा के पक्षियों पर इतना अधिक निर्दय नहीं होना चाहिए।
अच्छा यह होगा कि रविवार के पवित्र दिन तुम इसे गिरजा घर में ले जाओ। जिससे उस पर अच्छा
प्रभावों का प्रकाश पड़े। उस महिला ने ऐसा ही किया। और अचानक तोता फरिश्ते जैसा
व्यवहार करने लगा और भजनों में भी भाग लेने लगा। अपनी सफलता के संदेश को प्रसारित
करने के लिए पादरी उठ कर खड़ा हुआ और उसने अपनी बाइबिल का एक अंश पढ़ते हुए घोषणा
करते हुए कहा—‘धर्म के प्रिय अनुरागियों। आज हम आपसे पूछते
हैं—अब हम लोगों की बचाने के लिए क्या करना होगा?’ और पास के गलियारे से तोते की आवाज़ साफ सुनाई दी—‘और
धूल में लोटने वाले पिस्सुओ, पानी को पम्प करो। वर्षा भी
भयानक रूप से हो रही है। ओ! भिखारियों की तरह सिफलिस बटोरने वाले मूर्खों, पानी को तेजी से पम्प कर बाहर उलीचो।’
तोता मत बनो। जो कुछ मैं कह रहा हूं, तुम उसे दोहरा सकते हो, लेकिन किसी भी प्रकार यह
अभिप्राय है ही नहीं। जो कुछ मैं कह रहा हूं, उसे समझो।
दोहराना तुम्हारे लिए मुसीबतें खड़ी करेगा ध्वनि में थोड़ा सा परिवर्तन, एक कोमा अथवा अर्द्ध विराम का थोड़ा सा परिवर्तन ही उसके बल को समाप्त कर
देगा। और पूरा अभिप्राय ही खो जायेगा। उसके अर्थ को सुनो।
और वहां सुनने के विभिन्न तरीके हैं।
एक सुनने का रास्ता मन से है, जिसे तुम स्मृति में
रख सकते हो। और तुम्हें यह सिखाया गया है कि मन के द्वारा कैसे सुना जाए। क्योंकि
तुम्हारे सभी स्कूल कॉलेज और विश्वविद्यालय यह सिखाते हैं कि परीक्षा के लिए शीघ्र
कैसे तैयार हुआ जाये। वे तुम्हें एक गलत धारणा देते हैं—जैसे
मानो स्मृति ही ज्ञान है। स्मृति ज्ञान नहीं है, स्मृति पूरी
तरह तोते की तरह रट कर उसे दोहरा देना है। तुम अक्षरों को जानोगे, तुम शब्द को जानोगे लेकिन वह वहां पर खाली होंगे। वहां अंदर वह अर्थपूर्ण
न होगा, उसमें कोई भी अर्थ नहीं होगा। और शब्द जिसके पास
उसके अंदर कोई अर्थ नहीं होता है, वह बहुत ही खतरनाक नाक
होते हैं।
वहां सुनने का एक दूसरा तरीका भी है, और वह है हृदय से सुनना। हृदय के द्वारा सुनो। ऐसे सुनो, जैसे मानो तुम कोई भी तर्क-वितर्क न सुनते हुए, एक
गीत सुन रहे हो। यों सुनो जैसे मानो तुम एक तत्व ज्ञान नहीं सुन रहे थे, बल्कि एक कविता सुन रहे थे। यों सुनो जैसे तुम एक संगीत सुनते हो। मेरा यों
निरीक्षण करो जैसे तुम एक नर्तक का निरीक्षण कर रहे हो।
मेरा इस भांति अनुभव करो जैसे तुम एक
प्रेमी को अनुभव करते हो। शब्द तब वहां पर होंगे, तब वह एक वाहन की भांति उपयोग होगा, लेकिन वह भी
प्रामाणिक चीज़ नहीं होगी। वाहन भी भुला दिया जायेगा, और तब
तुम्हारे हृदय में उसका अर्थ प्रविष्ट होगा और वहां बना ही रहेगा। और वह तुम्हारे
अस्तित्व को बदल देगा और वह तुम्हारे जीवन की अंर्तदृष्टि को बदल देगा।
दूसरा प्रश्न:
प्यारे ओशो! बौद्ध धर्म से तंत्र कैसे
विकसित हुआ, जहां तक मैं जितना भी जानता हूं,
उसकी दृष्टि में सेक्स एक अवरोध की भांति है?
यह प्रथम प्रश्न से ही सम्बन्धित है।
बुद्ध ने जो भी कहा, उसे अनिवार्य से गलत समझा गया। हां, उन्होंने कहा कि
किसी को भी ध्यान में जाने के लिए सेक्स का अतिक्रमण करना होगा। अब जिन लोगों ने
इसे सुना उन्होंने सोचा कि वह सेक्स के विरूद्ध बात कर रहे थे। ऐसा स्वाभाविक है:
उन्होंने कहा कि तुम्हें सेक्स के पार जाना होगा। उन्होंने सोचना प्रारम्भ कर दिया
कि तब सेक्स एक अवरोध होना ही चाहिए, अन्यथा तुम्हें सेक्स
के पार क्यों जाना है? वस्तुतः: उसके पार जाने की उपेक्षा
उन्होंने सेक्स के साथ लड़ना शुरू कर दिया, उनकी पूरी
अभिव्यक्ति जिस पर वह बल देते थे, पूर्ण रूप से बदल गई।
उन्होंने सेक्स के साथ लड़ना शुरू कर दिया और बौद्ध धर्म विश्व के सबसे अधिक
अनुशासित धर्मों में से एक बन गया।
क्या तुम बुद्ध की मूर्तियों और उनके
चित्रों में उनके अत्यधिक सौंदर्य और अनुग्रह का निरीक्षण नहीं कर सकते हो?—क्या यह तपस्या और अनुशासन से आ सकता है। क्या यह सम्भव है कि यह सौंदर्य
पूर्ण और आकर्षण अस्तित्व, यह अनुग्रह पूर्ण और दीप्तिवान
चेहरा, यह उनका प्रेम ओर उनकी करूणा क्या अनुशासित और आत्मपीड़न
करने वाले संन्यास से आ सकता है? तपस्वी वे लोग होते हैं जो
स्वयं को यातनाएं देकर सताते हैं, और जब एक स्वयं को यातनाएं
देता है, वह दूसरों को भी यातनाएं देकर सताना प्रारम्भ कर
देता है। और संदेह होने पर उन्हें दण्ड देता हैं। जब एक व्यक्ति स्वयं दुःखी है,
वह किसी अन्य व्यक्ति को भी प्रसन्न होता नहीं देख सकता है, वह दूसरों की प्रसन्नता को भी नष्ट करने लगता है। यही है वह चीज़ जो
तुम्हारे तथाकथित महात्मा लोग किये चले जा रहे है। वे तुम्हें प्रसन्न नहीं देख
सकते। इसलिए जब कभी भी तुम प्रसन्न होते हो, वे तुरंत आकर
तुमसे कहते है—‘वहां कुछ न कुछ चीज़ गलत होनी ही चाहिए,
क्योंकि एक प्रसन्न व्यक्ति का अर्थ है—एक
पापी होना।’
तम इसे स्वयं अपने अंदर भी देख सकते
हो क्योंकि बीती हुई सदियों से तुम्हारे तथाकथित महात्माओं और संतों ने, जब तुम प्रसन्नता का अनुभव करते हो, तुम्हें नीति
नियम और अनुशासन का ढ़ांचा देकर ऐसी आदत उत्पन्न कर दी है कि तुम अपराध-बोध का
अनुभव करते हो। जब भी तुम दुःखी होते हो, तो प्रत्येक चीज़
ठीक है। लेकिन यदि तुम महान आनंद का अनुभव कर रहे हो तो तुम्हें थोड़ी सी बेचैनी की
अनुभूति होने लगती है कि यह किसी भी प्रकार ठीक प्रतीत नहीं होता। क्या यह बात
तुमने स्वयं अपने अंदर नहीं देखी है? यह बात कहां से आती है?
प्रसन्नता—और वह ठीक नहीं है? और दुःख और वेदना होना तो ठीक है। मनुष्य के रक्त प्रवाह में कुछ बहुत
जीवन विरोधी चीज़ कोई बहुत जीवन को नकारने वाली और उससे इंकार करने वाली चीज़
प्रविष्ट हो गई है। और वह इन तथाकथित महात्माओं के द्वारा आई है। ये महात्मा लोग
मानसिक रूप से रूग्ण है; ये लोग स्वपीड़क हैं, वे स्वयं को ही यातनाएं देकर सताते हैं। अधिक से अधिक दुखों और कष्टों का
सृजन करना ही उनका केवल मात्र आनंद है।
बुद्ध स्वपीड़क नहीं हैं, हो भी नहीं सकते हैं। बुद्ध तो इतने अधिक सुंदर आकर्षक इतने अधिक आनंदित,
इतने अधिक प्रसन्न और अत्यधिक परमानंद और अनुग्रह से भरे दिखाई देते
हैं। हां, वह कहते हैं कि सेक्स के पास जाना है, एक व्यक्ति को उसके पार है, क्योंकि वही सीढ़ी का
प्रथम डंडा है। लेकिन वह उसके विरूद्ध जाने के लिए नहीं कह रहे हैं। उसके पार जाने
का अर्थ आवश्यक रूप से उसके विरूद्ध जाने का नहीं है। वास्तव में स्थिति ठीक
विपरीत है: यदि तुम सेक्स के विरूद्ध जाते हो, तुम कभी भी
उसके पार जाने में समर्थ न हो सकोगे। केवल उसके द्वारा जाने से ही उसके पार जाना
आता है। तुम्हें सेक्स को समझना है, तुम्हें सेक्स को अपना
मित्र बनाना है।
कुछ चीज़ की कहीं न कहीं गलत व्याख्या
की गई है। बुद्ध की बात की सही व्याख्या करने के लिए सरहा ही आगे आता है। और सरहा
ने अनिवार्य रूप से ये निरीक्षण किया होगा। कि उन लाखों लोगों के साथ जो बुद्ध का
अनुसरण कर रहे थे, ऐसा कौन से गहरे संकट
की घटना घट गई कि वस्तुतः: सेक्स के पार जाने की अपेक्षा वे स्वयं ही उससे ग्रस्त
हो गए। जब तुम निरंतर किसी चीज के साथ लड़ रहे हो तो तुम उससे ग्रस्त अथवा आविष्ट
हो जाते हो।
तुम इसका निरीक्षण कर सकते हो: एक
व्यक्ति जो उपवास करने में विश्वास रखता है, भोजन के साथ आविष्ट हो जाता है। महात्मा गांधी भोजन के साथ आविष्ट बने
रहते थे, वह निरंतर भोजन के बारे में ही सोचते रहते थे कि
क्या खाया जाए और क्या न खाया जाये, जैसे मानो—‘क्या खाना है और क्या न खाना है’ जैसे केवल खान ही
जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण चीज़ बन गई है। सामान्य लोग कम आविष्ट होते हैं,
वे इसके बारे में बहुत अधिक नहीं सोचते हैं। तीन दिन का उपवास करो
और इस बारे में सोचो कि तुम्हारे मन के अंदर क्या चल रहा है। तुम निरंतर भोजन के
बारे में ही सोचोगे। अब भोजन के पार जाना अच्छा है, लेकिन
उपवास वह मार्ग नहीं बन सकता क्योंकि उपवास भोजन के साथ ग्रस्त हो जाता है। यह
उसके पार जाने का उपाय कैसे हो सकता है? यदि तुम वास्तव में
भोजन के पार जाना चाहते हो तो तुम ठीक से भोजन करना होगा। तुम्हें ठीक और उचित
भोजन करना होगा, तुम्हें उसे सम्यक रूप से और ठीक समय पर
खाना होगा। तुम्हें यह खोजना होगा कि तुम्हारे शरीर को कैसा भोजन संतुष्ट करता है
और कैसा भोजन उसे पोषण देता है।
हां, यह तुम्हें भोजन के पार ले जायेगा, और तुम भोजन के
बारे में कभी नहीं सोचोगे। जब शरीर पोषण से शक्तिशाली और हष्ट-पुष्टि होते है,
तुम भोजन के बारे में नहीं सोचते हो। बहुत से लोग भोजन के ही बारे
में ही सोचते रहते हैं, क्योंकि किसी न किसी तरह वह उपवास कर
रहे हैं। जब मैं ऐसा कहता हूं तो तुम आश्चर्य करोगे। हो सकता है तुम बहुत अधिक
आइसक्रीम खा रहे हो—यह भी एक तरह की उपवास है क्योंकि यह
तुम्हारा पोषण ही कर रहा है, और तुम अपने अंदर व्यर्थ की
चीजें फेंक रहे हो, वे तुम्हारा पेट भर देती हैं, पर तुम्हें संतुष्ट नहीं करती हैं, और न वे तुम्हें
तृप्त करती है। तुम पेट भरने का तो अनुभव करते हो पर संतुष्टि का नहीं।
गलत भोजन असंतोष उत्पन्न करेगा, और तुम्हारी भूख संतुष्ट नहीं होगी क्योंकि भूख भी भोजन नहीं पोषण चाहती
है। स्मरण रहे भूख भोजन क लिए नहीं, पोषण के लिए होती है।
मौलिक चीज़ यह है कि क्या वह तुम्हारे शरीर को संतुष्ट करती है, और क्या वह तुम्हारे शरीर को आवश्यक ऊर्जा देती है। यदि वह तुम्हें जरूरी
ऊर्जा देती है, तो वह ठीक है। यदि ठीक पौष्टिक भोजन के साथ
स्वाद भी होता है, तो तुम अत्यधिक तृप्त और संतुष्ट होगे।
और स्मरण रहे, मैं स्वाद के विरूद्ध नहीं हूं, मैं पूरी तरह से
उसके पक्ष में हूं। लेकिन केवल स्वाद ही पोषण नहीं हो सकता। और बिना स्वाद के भोजन
करना भी बुद्धिहीनता और मूर्खता ही तो है। जब दोनों ही तुम्हारे पास हो सकते हैं,
फिर वे क्यों न हों? एक बुद्धिमान व्यक्ति
पोषक भोजन के साथ स्वादिष्ट भोजन भी पा लेगा। यह कोई ऐसी बड़ी समस्या नहीं है।
मनुष्य चन्द्रमा पर जा सकता है तो क्या वह अपने लिए पोषक और स्वादिष्ट भोजन नहीं
खोज सकता? मनुष्य ने अनेक चमत्कार किये है और क्या वह अपनी
भूख को संतुष्ट नहीं कर सकता? यह स्थिति ठीक प्रतीत नहीं
होती है। नहीं मनुष्य ने इसके अंदर देखा ही नहीं है।
इस जगह ऐसे लोग हैं जो उपवासों में
विश्वास रखते हैं और वे अपने शरीर को बर्बाद कर लेते हैं। और तब इसी जगह ऐसे भी
लोग है जो अंट-शंट चीजें में ठूंसे चले जाते हैं—और
वे भी शरीर को बर्बाद कर लेते है। दोनों ही तरह के लोग एक ही नाव में सवार हैं,
दोनों ही दमन के द्वारा भोजन से आविष्ट है। रूपांतरण ठीक मध्य में
है।
यही स्थिति सेक्स के भा साथ है, और ऐसी ही स्थिति जीवन में प्रत्येक चीज़ के साथ है। सरहा अनिवार्य रूप से
इसके प्रति सचेत हो गया कि वे लोग जो कहते है कि बुद्ध ने सेक्स के पार जाने को
कहा था। तो क्या वे किसी भी प्रकार से आपको पार जाते नजर आ रहे है। वस्तुतः वे लोग
उसके साथ अधिक से अधिक आविष्ट हो गए थे और उसकी दलदल की गहराई में गिर रहे हैं।
वहां एक युवा नन थी जो अपनी किसी
पीड़ा में मदर-सुपीरियर के पास गई, और मुख्य विषय से बड़ी देर तक इधर-उधर भटकते हुए आखिर में उससे स्वीकार
किया कि वह गर्भवती थी।
मदर सुपीरियर ने पूंछा—‘वह कौन था? वह बदमाश व्यक्ति था कौन?’
नन ने दुःख प्रकट करते हुए कहा—‘ओह! श्रद्धेय मदर! मैं किसी मनुष्य के साथ शारीरिक संबंध जोड़ने का गृहीत
कार्य कैसे कर सकती थी?’
क्रोधित होकर मदर सुपीरियर ने कहा—‘तो क्या स्त्री एक बच्चे के पिता के बिना गर्भवती हो सकती थी?’
नन ने बनावटी मुस्कान के साथ उत्तर
दिया—‘कृपालु मदर! वास्तव में ऐसा नहीं हो सकता। पर जिसने
मुझे गर्भवती बनाया, उस बच्चे के पिता पवित्र फरिश्ते थे।’
पवित्र फरिश्ते? ‘कैसी व्यर्थ की बकवास कर रही हो तुम।’
नन ने कहा—‘हां, दयालु मदर। वह मध्यरात्रि में पृथ्वी पर नीचे
उतर कर मेरे सपने में आया। और जब मैंने उससे पूंछा कि आप कौन हैं, तो उन्होंने कहा—‘मैं सेंट माइकल हूं।’ और इसे सिद्ध करते हुए उन्होंने अपनी पसीने से सनी कमीज पर लिखा हुआ अपना
नाम भी मुझ दिखाया।’
एक बार तुम किसी चीज़ के विरूद्ध हो, तो तुम उससे बाहर आने के लिए कोई पिछला द्वारा खोज सकते हो। मनुष्य बहुत
बेईमान है। यदि तुम किसी चीज को दबाते हो तो चालाक मन कोई दूसरा रास्ता खोज लेगा।
इसी वजह से तुम सेक्स के बारे में सपने देखते हो, तुम्हारे
संत महात्मा सेक्स के बारे में बहुत अधिक सपने देखते हैं, उन्हें
देखने ही पड़ते हैं। दिन में वे उससे इनकार कर सकते है। लेकिन जब वे सो जाते हैं,
तो सपने में सेक्स असामान्य काल्पनिक रंगों को लेकर तितली पंखों के
समान आकर्षक बन जाता है। और तब सुबह वे अपराध बोध का अनुभव करते हैं, और क्योंकि वे अपराध-बोध को अनुभव करते हैं, वे उतना
और अधिक दमन करते हैं। और जब वे और अधिक दमन करते हैं तो अगली रात उनके पास सेक्स
के और भी कहीं अधिक सुंदर और आकर्षक स्वप्न होते हैं—अथवा
उनकी चित्त वृति के अनुसार वे भयानक भी हो सकते हैं। यह तुम पर निर्भर करता है कि
तुम कैसे उनकी व्याख्या करते हो कि वे सुंदर हैं अथवा भयानक हैं।
एक पन्द्रह वर्ष की दुस्साध्य स्कूल की छात्रा एक मनोवैज्ञानिक के पास भेजी गई, जिसने उससे अनेक व्यक्तिगत प्रश्न पूंछें। वह आश्वस्त था कि उसकी मुसीबत
की जड़ में सेक्स मौजूद है।
उसने उससे पूंछा—‘क्या तुम प्रेम करने के अथवा कामुक सपनों से पीड़ित हो?’
उसने कहा—‘निश्चित रूप से नहीं?’
मनोवैज्ञानिक ने पूछा—‘क्या तुम निश्चित हो?’
लड़की ने कहा—‘मैं पूरे विश्वास से कहती हूं। वास्तव में मैं वैसे सपनों से पीड़ित न
होकर उनका मज़ा लेती हूं।’
यह तुम पर निर्भर है कि तुम उन्हें
सुंदर कहते हो अथवा भयानक? रात में वे सुंदर
होते हैं और सुबह वे भयानक बन जाते है। रात में तुम उनका आनंद लेते हो, और सुबह होने पर तुम उनसे कष्ट पोते हो। इस बारे में एक दुष्चक्र सृजित हो
जाता है। और तुम्हारे तथा कथित संत महात्मा इसी दुष्चक्र में फंसे चले जाते है।
दिन में वे कष्ट पाते है और रात में वे उनका मजा लेते हैं। दिन में वे पीड़ित होते
हैं और रात में वे उनका आनंद लेते है और वे इन दो के मध्य एक को नहीं चुन पाते।
यदि तुम स्वयं अपने अंदर गहराई में
देखो, तो तुम उसे आसानी से पा लोगे। तुम जो कुछ भी दमन करते
हो, वह वहां बना रहेगा। तुम उसे छुटकारा नहीं पा सकते। दमन
किया गया बना रहता है। केवल अभिव्यक्त किया हुआ ही विलुप्त होता है। अभिव्यक्त
किया गए आवेग भाप बनकर उड़ जाते हैं, और दमित किए गए आवेग
बने रहते हैं—और न केवल बने रहते हैं, वे
अधिक से अधिक शक्तिशाली बन जाते हैं।
जैसे-जैसे समय गुजरता है, वे अधिक से अधिक शक्तिशाली बन जाते
हैं।
सरहा ने अनिवार्य रूप से देखा होगा कि
बुद्ध के दो सौ वर्षों बाद गलत व्याख्याओं से क्या हुआ। लोग सेक्स के साथ लगभग
आविष्ट हो चुके थे। बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों के आविष्ट होने के कारण एक
विद्रोह की भांति तंत्र का जन्म हुआ। वह विद्रोह के द्वारा सरहा बुद्ध के सत्य को
वापस लाया। हां, एक व्यक्ति को सेक्स का अतिक्रमण
करके पार जाना होता है, लेकिन यह अतिक्रमण समझ के द्वारा ही
घटता है।
तंत्र समझ में विश्वास रखता है। एक
चीज़ को पूर्णरूप से समझ लो और तुम उसकी पकड़ से मुक्त हो जाते हो। कोई भी चीज़ जो
ठीक तरह से नहीं समझी गई, तुम्हारे ऊपर ही झुकी
रहेगी।
इसलिए तुम ठीक ही पूंछ रहे हो—‘बौद्ध धर्म से तंत्र कैसे विकसित हुआ और जहां तक मैं जितना जानता हूं कि
उसकी दृष्टि में ध्यान में सेक्स एक अवरोध की भांति है?’ यथार्थ
में वह उसके कारण ही उत्पन्न हुआ। वह बौद्ध धर्म के विरूद्ध एक विद्रोह है और वह
बुद्ध के लिए ही है। वह उसके अनुसरण करने वालों के विरूद्ध जाता है, लेकिन सद्गुरू के विरूद्ध नहीं? धर्म के अनुयाई तो
शब्दों को ढ़ो रहे थे। परंतु सरहा बुद्ध की मूल प्रवृति को वापस लौट कर लाता है।
सरहा में बुद्ध जैसा बुद्धत्व ही
अवतरित हुआ था। सरहा एक बुद्ध थे।
तीसरा प्रश्न-
प्यारे ओशो! हनीमून समाप्त हो गया।
इसका क्या अर्थ हैं?
‘हनीमून’ समाप्त
हो गया, इसका अर्थ है कि तुम्हारे प्रेम का कल्पनाओं और
स्वप्नों का रूमानी भाग समाप्त हो गया। हनीमून अथवा मधु यामिनी एक प्रक्षेपित
कल्पना होती है, वह वास्तविकता के परे होती है, एक प्रक्षेपित स्वप्न होता है। हनीमून समाप्त हो गया—‘इसका अर्थ है कि सपना समाप्त हो गया ओर अब विवाह की वास्तविकता का
प्रारम्भ होता है। जितना भव्य और उच्च कोटि का हनीमून होता है उतनी ही अधिक तुम
भ्रमित और निराश होते हो। इसी वजह से प्रेम विवाह सफल नहीं होते। विवाह सफ़ल होते
है, लेकिन प्रेम विवाह नहीं होते।’
प्रेम विवाह सफल हो ही नहीं सकता, असफलता उसके साथ अंतर्निहित है। एक प्रेम विवाह एक कल्पना होती है और
कल्पना सत्य पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती। कल्पनाओं में बने रहने का और हमेशा
हनीमून में बने रहने का केवल एक ही उपाय है और वह यह है कि कभी अपनी प्रेमिका से
मिलना ही मत। तब यह सम्भव है कि वह तुम्हारे पास पूरे जीवन भर रह सकती है—लेकिन अपने प्रेमी अथवा अपने प्रेमिका से कभी भी मुलाकात मत करना।
इतिहास में महानतम प्रेमी वे थे
जिन्हें कभी भी मिलने की अनुमति ही नहीं दी गई: जैसे लैला और मजनू, सीरी और फरहाद ये सब महानतम प्रेमी है। उन्हें मिलने की अनुमति नहीं दी गई
थी समाज ने उनके लिए अनेक बाधाएं उत्पन्न की इसलिए वे हमेशा हनीमून की स्थिति में
ही बने रहे। यह ठीक इस तरह है कि जब वहां भोजन तो होता है, लेकिन
तुम्हें उसे खाने की अनुमति नहीं दी जाती है। इसलिए कल्पना निरंतर बनी रहती है।
यदि तुम्हें भोजन करने की अनुमति दी जाती है, तब कल्पना
विलुप्त हो जाती है।
एक प्रेम-विवाह सफल नहीं हो सकता। सफल
न होने से मेरा क्या अर्थ है? लोगों का अभिप्राय
उसे सफल बनाना चाहता है, पर वह सफल नहीं हो सकता। विवाह सफल
होता है, जब वहां कोई प्रेम होता ही नहीं। इसी कारण विश्व के
सभी समाजों ने अतीत में अपने अनुभव के आधार पर प्रेम के विरूद्ध और विवाह के पक्ष
में निर्णय लिया है, भारतीय समाज, संसार
की सबसे अधिक प्राचीनतम समाजों में से एक है। वह कम से कम पाँच हजार वर्षों अथवा
कुछ इससे भी अधिक समय से अस्तित्व में है। इस लम्बें अनुभव के आधार पर भार ने बिना
प्रेम के विवाह के पक्ष में निर्णय लिया; बिना प्रेम का
विवाह सफल हो सकता है क्योंकि उसके अंदर कोई भी हनीमून नहीं होता, वह बिलकुल प्रारम्भ ही से व्यवहारिक और वास्तविक होता है। वह सपनों को
देखने की अनुमति नहीं देता है।
भारत में स्वयं विवाह करने वाले भागीदारों
को चुनाव करने की अनुमति नहीं होती है। लड़के को लड़की को चुनने की और लड़की को
लड़के की अनुमति नहीं होती है। चुनाव उसके माता-पिता करते है। स्वाभाविक रूप से वे
लोग कहीं अधिक अनुभवी रहे, व्यवहारिक और समझदार
होते है। और स्वाभाविक रूप से वे लोग प्रेम में नहीं गिर सकते है। वे दूसरी चीजें,
जैसे आर्थिक स्थिति प्रतिष्ठा, सम्मान और
परिवार के बारे में सोचते रहते है। वे अनेकानेक चीजों के बारे में सोचते हैं, लेकिन वे केवल एक चीज़ प्रेम के
बारे में नहीं सोचते हैं। इस मामले में किसी भी प्रकार से प्रेम को नहीं लाया जाता
है। वे ज्योतिषी के पास जाते हैं, वे ज्योतिषी के प्रत्येक
चीज के बारे में पूछते है, और जांच पड़ताल करते है, लेकिन प्रेम के बारे में नहीं पूछते है। प्रेम का उसके अंदर कोई भी अंश
नहीं होना चाहिए।
माता-पिता के द्वारा और समाज के
द्वारा दो अंजान लोग एक पुरूष और एक स्त्री को एक साथ एक दूसरे के सुपुर्द कर दिया
जाता है और एक साथ छोड़ दिया जाता है। स्वाभाविक रूप से जब तुम एक व्यक्ति के साथ
रहते है, तो एक तरह की पसंद या चाह उत्पन्न होती है। लेकिन यह
पसंदगी अथवा चाह ठीक वैसी ही होती है, जैसी तुम्हारे पास
अपनी बहनी के लिए होती है। यह प्रेम नहीं होता है। तुमने अपनी बहन का चुनाव नहीं
किया है, और न तुमने अपने भाई का चुनाव किया होता है,
वे तुम्हारे द्वारा नहीं चुने गए हैं। यह एक संयोग था कि उन्हीं
माता-पिता के यहां तुम लोगों के जन्म हुए। तुम्हारे पास एक विशिष्ट पसंद है। लम्बी
अवधि तक साथ रहने से अनेकानेक तरह से संबंध जुड़ते है। और कोई भी व्यक्ति किसी भी
व्यक्ति को पसंद या ना पसंद करने लग जाता है। लेकिन ये कभी न तो प्रेम होता है और
न घृणा, यह कमी चरम स्थिति तक नहीं जा सकती। यह बहुत संतुलित
रहता है। यही स्थिति आयोजित विवाह के भी साथ होती है। पति और पत्नी एक साथ रहते
हैं, और धीमे-धीमे वे एक दूसरे को अनुभव करना शुरू कर देते
हैं।
समाज एक दूसरा कार्य भी करता है: समाज
किसी अन्य स्त्री पुरूष से सेक्स संबंध रखने की अनुमति नहीं देता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से पति को अपनी पत्नी से और पत्नी को अपने पति से ही
प्रेम करना होता है। यदि तुम केवल भोजन में एक ही चीज खाने की अनुमित दी जाये और
किसी दूसरे भोजन को खाने की अनुमति न दी जाये तो तुम कितने समय तक प्रतीक्षा कर
सकते हो? तुम्हें उसी भोजन को करना ही होगा। यह समाज की एक
तरकीब है। यदि विवाह के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति से सेक्स करने की अनुमित दी जाये,
तब इस बारे में प्रत्येक संभावना यही है, कि
हो सकता है कि पति अपनी पत्नी से प्रेम न करना चाहे और पत्नी भी अपने पति से प्रेम
न करना चाहे। केवल अन्य कोई निकास न होने से सेक्स की भूख के कारण ही वे एक दूसरे
के साथ प्रेम करना शुरू कर देते हैं। हताशा के कारण ही वे एक दूसरे के साथ संबंध
जोड़ने लगते है। तब बच्चे उत्पन्न होते हैं—और अधिक बंधन हो
जाता है, धार्मिक और सामाजिक बंधन भी दृढ़ हो जाते हैं। तब बच्चे
और उनकी जिम्मेदारी और परिवार धुरी पर घूमने लगता है।
एक प्रेम विवाह का असफल होना
सुनिश्चित है, क्योंकि प्रेम विवाह एक
काव्यात्मक घटना है। तुम प्रेम में गिरते हो और तुम स्त्री अथवा पुरूष के बारे में
स्वप्न देखना शुरू कर देते हो और तुम सपनों
के एक सर्वोच्च शिखर पर पहुंचते हो।
ये स्वप्न तब तक जारी रहते हैं जब तक कि तुम स्त्री अथवा पुरूष से मिलते नहीं। तब
तुम एक साथ एक दूसरे के निकट आते हो तुम संतुष्ट होते हो, और
तब वे स्वप्न विलुप्त होने शुरू हो जाते है। अब पहली बार तुम दोनों एक वास्तव
स्थिति में प्रवेश करते हो, अब तुम्हारे मन पर फैले धुंध के
बादल छितरी जाते है। तुम वास्तविकता को साफ-साफ देख पाते हो। जो तुम्हारे वास्तविक
रूप है।
जब तुम पत्नी को जैसी वह है देखते हो, जब तुम अपने पति को जैसा वह है, देखती हो, तो ‘हनीमून’ समाप्त हो जाता
है। इस वाक्य का यही अर्थ है—‘हनीमून समाप्त हो गया है।’ और यह केवल विवाह में ही
नहीं होता है, यह कई तरह के संबंधों में भी होता है। यह यहां
मेरे साथ होता है। तुम मेरे पास आते हो और तुम्हारे पास एक ‘हनीमून’
हो सकता है, तुम मेरे बारे में कल्पनाएं कर
सकते हो। मेरा उसमें कोई भाग नहीं है। मैं उसका एक पक्ष नहीं हूं। वह कुछ ऐसी चीज़
है जिसे तुम बिलकुल अकेले ही करते हो। लेकिन तुम कामनाएं और कल्पनाएं करना शुरू कर
देते हो कि यह होने जा रहा है और वह होने जा रहा है, ओशो यह
करेंगे और ओशो वह करेंगे तब एक दिन हनीमून समाप्त हो जायेगा। वास्तव में मैं हमेशा
तब तक प्रतीक्षा करना पसंद करता हूं जब तक कि हनीमून समाप्त नहीं हो जाता। तभी मैं
कार्य करना प्रारम्भ करता हूं, कभी भी इससे पूर्व नहीं,
क्योंकि मैं तुम्हारी कल्पनाओं और सपनों में एक पार्टी नहीं बनना
चाहता। मैं केवल तभी कार्य करना शुरू करता हूं जब मैं देखता हूं कि अब हनीमून
समाप्त हो गया है और तुम यथार्थ की भूमि पर वापस लौट आए हो। अब कुछ चीज प्रामाणिक
रूप से की जा सकती है।
वास्तव में मैं हमेशा तभी संन्यास
देना पसंद करता हूं, जब हनीमून समाप्त हो
जाता है। हनीमून के दौरान संन्यास देना खतरनाक है, बहुत अधिक
खतरनाक है क्योंकि जिस क्षण हनीमून समाप्त होता है, तुम मेरे
विरूद्ध अनुभव करना प्रारम्भ कर दोगे। तुम संन्यास के विरूद्ध विद्रोह करने लगोगे
और तुम प्रति क्रिया करना शुरू कर दोगे। इससे प्रतीक्षा करना बेहतर है।
प्रत्येक संबंध और मित्रता में, गुरु-शिष्य के संबंध में और किसी भी तरह के संबंधों में वहां एक भाग ऐसा
होता है जो कल्पनाओं का होता है। कल्पना अथवा स्वप्न ही केवल तुम्हारा मन है,
दमित कामनाएं स्वप्न में उड़ान भर रही हैं। एक बेहतर संसार में जहां
कहीं अधिक समझ होगी, विवाह व्यवस्था विलुप्त हो जाएगी। और
विवाह के साथ ही हनीमून भी समाप्त हो जायेगा।
अब ध्यान से सुनो। वहां ऐसे समाज रहे
है जहां केवल विवाह व्यवस्था ही विद्यमान है, उदाहरण के लिए हिन्दू समाज-उसने प्रेम की हत्या कर हनीमून को समाप्त कर
दिया है। अमेरिका में वे वहां विवाह नहीं केवल हनीमून ही अस्तित्व में है और विवाह
विलुप्त हो रहे हैं। लेकिन मेरे देखे दोनों ही गहराई में एक षडयंत्र में लिप्त
हैं। हनीमून केवल अस्तित्व में तभी हो सकता है, यदि वहां कुछ
दमन है। अन्यथा वहां योजना बनाने को कुछ भी नहीं है। और यदि वहां कुछ चीज़ योजना
बनाने को है, तब प्रेम बार-बार असफल होता है। तब समाज के
पुरोहित अंदर आकर विवाह के लिए व्यवस्थाएं करना प्रारम्भ कर देते है क्योंकि प्रेम
असफल होता है। वह लोगों को पागलपन की और ले जाता है और उन्हें जीवन जीने में कोई
भी सहायता नहीं करता है। वह उन्हें मानसिक रूप से रूग्ण और मिर्गी का रोगी बना
देता है, वे उन्हें आत्मघात करने के लिए उकसाता है।
इसलिए समाज के पंडित और पुरोहित को
अंदर आना होता है राजनीतिक व्यक्ति को अंदर आना होता है, और उन्हें विवाह के लिए व्यवस्था करनी होती है। क्योंकि प्रेम करना बहुत
अधिक खतरनाक है। और इस तरह से समाज दो ध्रुवों के मध्य गतिशील हो जाता है।
कभी-कभी जब लोग विवाह से थक कर दुःखी
हो जाते हैं, जैसे कि वह अमेरिका में उस
स्थिति में लम्बी अवधि तक रहने से वे दुःखी हो जाते हैं, वे
लोग प्रेम करने के बारे में सोचने लगते है। जब लोग एक लम्बी अवधि तक प्रेम करते
हुए भी अप्रसन्न हो उठते है, जैसे ही देर अथवा सवेर वे
पायेंगे—कि वे पहले से ही वैसा ही खोज रहे हैं—‘तब वे विवाह की और चल पड़ते हैं। एक ही खेल के दोनों ही विरोधी ध्रुव हैं।’
मेरे देखे एक भिन्न प्रकार के समाज की
जरूरत है, जहां विवाह और रोमांस दोनों विलुप्त हो जाते है,
विवाह इस लिए मिट जाता है, क्योंकि बलात कानून
दबाव से दो व्यक्तियों को एक साथ रहना अनैतिक है। दो लोगों को एक साथ रहने के लिए
बलात विवश करना जब वे एक साथ नहीं रहना चाहते हैं, प्रकृति
के विरूद्ध है और अस्तित्व के भी विरूद्ध है। यदि लोगों को विवश न किया जाए तो निन्यानवे
प्रतिशत सामाजिक रुग्णता विलुप्त हो जायेंगी।
जरा इस प्रसंग को सुनो......
एक व्यक्ति अपने वकील के पास आया और
उससे कहा—मैं बहुत धनी व्यक्ति हूं, इसलिए
धन मेरे लिए कोई भी चीज नहीं है लेकिन मैं अपनी पत्नी से, जो
एक कुतिया की भांति है, बिना हत्या का अभियोगी बने हुए
छुटकारा पाना चाहता हूं। इसलिए बतलाइये कि मुझे क्या करना होगा।
‘उसके लिए एक शक्तिशाली घोड़ा
खरीदिए जो उसे अपने ऊपर से नीचे फेंक दे।’
एक माह बाद उस व्यक्ति ने वापस लौट कर
कहा—‘अब उसकी स्त्री जिले की सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार बन गई
है।’
वकील ने कहा—‘कोशिश करते रहिए उसके लिए एक होंडा कार खरीद कर पहाड़ों पर भेज दीजिए।’
उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया। लेकिन
उसने उसे उत्तेजित होकर यों ड्राइव किया कि वह प्रत्येक को खतरे में डालते हुए
लेकिन स्वयं को बचाते हुए रूकावटें हटाते हुए पहाड़ पर चढ़ती चली गई।
उसके पति ने अपने एडवोकेट को बताया कि
वह बहुत-हताश हो गया है।
--‘तब उसके लिए एक जगुआर (बड़ी
बिल्ली जैसा अमेरिकन मांसाहारी पशु) वह व्यक्ति प्रसन्न होता हुआ एक सप्ताह बाद
वापस लौटा और वकील से कहा— ‘यह तरकीब कारगर हुई। आप अपनी फीस
बतलाइये।’
--‘तब आखिर हुआ क्या?’
--‘जब उसने उसे खिलाने के लिए
पिंजरे का दरवाजा खोला, उसने निर्दयता से उसके सिर को चबा
डाला।’
विवाह अनेकानेक जटिलताएं उत्पन्न करता
है और हल कुछ भी नहीं होता। हां, वह सफल होता है,
वह लोगों को गुलाम बनाने में सफल होता है। वह लोगों की वैयक्तिकता
को नष्ट करने में सफल होता है। क्या तुम इसे अपने चारों और सभी जगह नहीं देखते?
एक अविवाहित व्यक्ति के पास एक विशिष्ट वैयक्तिकता होती है। और एक
विवाहित व्यक्ति अपनी वैयक्तिकता खोने लगता है। यह अधिक से अधिक एक सिक्के पर छपी
मूर्ति जैसा बन जाता है। एक अविवाहित स्त्री के पास एक आनंद होता है, उसमें से कुछ चीज़ प्रवाहित होती है। एक विवाहित होता है। एक विवाहित
स्त्री मंद अरूचिपूर्ण और ऊबी हुई होती है। लोगों को उबने के लिए विवश बनाना एक
कुरूपता है। यहां पर लोग प्रसन्न हैं, यहां लोग उत्सव आनंद
मना रहे हैं। विवाह एक कुरूपता है।
मनुष्य जाति का प्रामाणिक समाज, न तो विवाह के बारे में कोई भी चीज़ जानेगा और न हनीमून जैसा किसी चीज़ के
बारे में जानेगा। वह लोगों के साथ सहभागी बनकर केवल आनंद को जानेगा। जितना अवधि तक
तुम सहभागी बने रह सकते हो, अच्छा है, यदि
तुम सहभागी नहीं बन सकते तो अलविदा कह दो। विवाह विलुप्त हो जाता है और उसके ही
साथ कुरूप तलाक भी लुप्त हो जाती है। विवाह के साथ ही हनीमून की कल्पना और सपने भी
विलुप्त हो जाते हैं।
जब तुम प्रेम करने के लिए लोगों के
साथ बने रहने और मिलने के लिए स्वतंत्र होते हो, तो हनीमून विलुप्त हो जायेगा। फिर लैला और मजनूँ तथा सीरी और फरहाद का
होना संभव न होगा—तब कोई भी व्यक्ति तुम्हारे रास्ते में
अवरोध नहीं बन रहा है। तुम किसी भी स्त्री से मिल सकते हो, तुम
किसी भी पुरूष से मिल सकती हो। जिस किसी को तुम चाहते हो, और
जो कोई भी तुम्हें चाहता है, तुम उससे मिल सकते हो, और कोई भी अन्य व्यक्ति तुम्हारा रास्ता नहीं रो रहा है। तब कल्पना करने
और सपने देखने की जरूरत क्या है? यदि सभी तरह के भोज्य
पदार्थ उपलब्ध हैं, जो कुछ भी तुम खाना चाहते हो, वे उपलब्ध हैं और वहां कोई भी व्यक्ति एक पुलिस के सिपाही अथवा एक
मजिस्ट्रेट या पंडित पुरोहित की तरह तुम्हारे आस पास खड़ा है। जो तुम्हें भयभीत
बनाकर और यह कहकर डराए कि यदि तुम यह भोजन खोते हो तो तुम नर्क में जाओगे, और यदि तुम उस भोजन को खाते हो तो स्वर्ग में जाओगे। और जिस भोजन को तुम
नहीं खाना चाहते वह तुम्हें स्वर्ग ले जाता है, और जिस भोजन
को तुम खाना चाहते हो, वह तुम्हें नर्क में ले जाता है....।
कोई भी चीज़ जो तुम्हें आनंद देती है वह तुम्हें नर्क ले जाती है और कोई भी चीज़
जो तुम्हें दुःखी बनाती है, वह तुम्हें स्वर्ग ले जाती है।
जब तुम और तुम्हारी कामनाओं के मध्य
में कोई भी व्यक्ति नहीं खड़ा हुआ है, जब कामना पूरी करने को तुम स्वतंत्र हो, तो वहां कोई
भी दमन नहीं होगा। बिना दमन के हनीमून विलुप्त हो जायेगा। हनीमून गौण होता है,
विवाह के साथ ही उसका अस्तित्व होता है। वह एक प्रलोभन अथवा एक जाल
के समान होता है। तुम मछली का शिकार करने जाते हो और चारे का प्रयोग करते हो।
हनीमून भी एक प्रकार का जाल ही है, जो तुम्हें विवाह में ले
जाता है। इसी कारण स्त्रियां विवाह के बारे में बहुत अधिक बल देती हैं, क्योंकि वे जानती हैं। वे पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक जमींन से गहरे
जुड़ी होती है और उनमें आधिपत्य में रखने की कला आती है। पुरूष स्वप्नदर्शी बने
रहते हैं। वे चाँद और सितारों के बारे में सोचते हैं और स्त्रियां उनकी बेतुकी
कामनाओं पर केवल हंसती है, क्योंकि वह जमींन से बहुत गहरे
जुड़ी होती हैं। वह जानती है कि दस, बारह या पन्द्रह दिनों
में अथवा दो अथवा तीन सप्ताह बाद हनीमून विलुप्त हो जायेगा। तब क्या होगा? इसीलिए वह विवाह पर बल देती है।
एक पुरूष जो एक स्त्री से प्रेम करता
था वह अपनी स्त्री से पूंछ रहा था और उसने वह बात उससे रात में पूछी—‘प्रेम अथवा अन्य कोई चीज़?’
उस स्त्री ने कहा—‘या तो विवाह अथवा कुछ भी नहीं।’
उसने उससे पुन: पूंछा—‘प्रेम अथवा अन्य कोई चीज़?’
और उसने उत्तर दिया—‘केवल विवाह अथवा कुछ भी नहीं।’
प्रेम विश्वसनीय नहीं है। वह आता है
और चला भी जाता है। वह एक मन की तरंग मात्र है। वह एक चित वृति अथवा एक सनक है।
यदि प्रेम बना रहता है, तो इसका इतना ही अर्थ
है कि प्रेम का दमन अभी भी है वह अभी भी नियंत्रण या दबाव में है।
तब एक भिन्न तरह का समाज में वह
प्रसन्नता और आनंद होगा। प्रेम उत्सव आनंद और समारोह जैसे शब्द की भांति इतना अधिक
महत्वपूर्ण नहीं होगा। दो व्यक्ति अपनी ऊर्जाओं में एक दूसरे को सहभागी बनाना
चाहते है, और यदि वे दोनों इच्छुक हैं तो वहां कोई भी बाधा नहीं
होगी। सीमा केवल एक ही होगी कि यदि दूसरा इच्छुक नहीं है तो बात समाप्त हो जाती है
और वह कभी प्रारम्भ ही नहीं होती। अन्य दूसरी सभी सीमाएं छोड़ देना चाहिए।
और अब विज्ञान ने बच्चों की समस्या के
बारे में इसे बहुत सरलता से हल करते हुए सम्भव बना दिया है। पुराने दिनों में लोग
इतने भाग्यशाली नहीं थे। तुम कहीं अधिक सौभाग्यशाली हो क्योंकि बच्चों की समस्या
का समाधान किया जा सकता है। तुम उस समय तक एक स्त्री के पास ठहर सकते हो, जिस दिन तुम यह सोचने लगो कि अब तुम लोग एक पर्याप्त लम्बी अवधि तक एक साथ
रह चुके हो, ओर उस स्त्री के साथ तुम्हारा आनंद बढ़ता चला जा
रहा है और उस पुरूष के साथ स्त्री का भी आनंद बढ़ता चला जा रहा है, अब वहां तुम्हारे पृथक हो जाने के कोई सम्भावना नहीं है और जिस दिन तुम यह
अनुभव करते हो कि तुमने अपनी आत्मा का सहचर पा लिया है—और अब
तुम्हारे पास बच्चे हो सकते हैं, अन्यथा वहां बच्चों के पास
रखने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
और एक श्रेष्ठ समाज में बच्चे कम्यून
के होना चाहिए परिवार को लुप्त होना होगा। वहां लोगों की कम्यून होना चाहिए।
चित्रकारों की कम्यून होना चाहिए। जहां पुरूष और स्त्री चित्रकार एक साथ रहते हुए
एक दूसरे के संग साथ का आनंद लें। वहां एक कम्यून कवियों और लेखकों की हो, एक कम्यून आभूषण बनाने वाले कलाकारों की हो, और
भिन्न-भिन्न लोगों की वस्तुतः: एक परिवार की अपेक्षा अलग कम्यून हो, जहां न एक साथ रह सके। परिवार एक गहरा संकट सिद्ध हुए हैं। अच्छा यही है
जब बहुत से लोग जिनके पास प्रत्येक वह चीज समान है, एक साथ
रहते हैं और जो एक दूसरे के साथ अपने प्रेम को बांटते हैं। लेकिन वहां कोई भी बाधा
नहीं होना चाहिए।
प्रेम को कभी भी एक कर्तव्य नहीं बनना
चाहिए, केवल तभी वह आनंद पूर्ण होता है। जिस क्षण वह एक
कर्तव्य बन जाता है, वह मृत हो जाता है, वह एक भारी बोझ बन जाता है। और अनेकानेक समस्याएं सृजित करता है, जो प्रत्येक रूप से हल नहीं की जा सकती। संसार भर में पूरी स्थिति यही है।
तुम एक मनोविश्लेषक के पास जा सकते हो, तुम एक सदगुरू के पास
आ सकते हो, तुम ध्यान कर सकते हो, तुम
यह कार्य अथवा वह कार्य कर सकते हो, लेकिन तुम्हारी मौलिक समस्या
अस्पृश्यता ही बनी रहती है।
तुम्हारी मौलिक समस्या किसी न किसी
तरह तुम्हारी सेक्स-ऊर्जा के साथ संबंधित बनी रहती है और तुम उसे अन्य कहीं और ही
पकड़ने में लगे चले जाते हो। तुम पत्तियों को तोड़ते और कांटे-छांटे चले जाते हो।
पर तुम जड़ कभी नहीं काटते। लोग दुःखी हैं क्योंकि लोग एक दूसरे के साथ थक गए हैं।
लोग उदास हैं क्योंकि वे एक दूसरे के साथ रहने में आनंद का अनुभव नहीं करते। लोग
सामान्य रूप से भार युक्त हैं, वे अपने कर्तव्य का
पालन कर रहे हैं, जब कि प्रेम वहां है ही नहीं।
विवाह और हनीमून दोनों एक जैसे पैकेज
में आते हैं और उन दोनों को ही जाना होता है। तब वहां बिना नियंत्रण में रखने वाली
मनुष्यता हो सकती है। तब वहां पूर्ण रूप से अपने को अभिव्यक्त करने वाले मनुष्य और
मनुष्यता हो सकती है, जो सिवाय आनंद के और
कुछ भी नहीं जानती है, और जो प्रसन्नता और आनंद के अनुसार ही
निर्णय लेती है।
माप दण्ड आनंद ही होना चाहिए। यही वह
सभी कुछ है जिसके बारे में तंत्र कहता है कि एक मात्र कसौटी आनंद ही होना चाहिए।
चौथा प्रश्न:
मैं एक स्त्री से प्रेम करता हूं और
उसे अपनी मृत्यु होने तक अपने साथ ही रखना चाहता हूं। क्या यह अंतिम कामना शुभ है?
पहली बात यह कि यदि तुम अभी भी जी रहे
हो तो कोई भी कामना अंतिम नहीं होती। यदि तुम अभी भी जीवित हो तो कोई भी कामना
अंतिम कामना नहीं होती, क्योंकि अगले क्षण के
बारे में कौन जानता है? और तुम अगले क्षणों को जानने की कैसे
व्यवस्था कर सकते हो? तुमने इस स्त्री को कितनी लम्बी अवधि
तक जाना है? शायद कुछ सप्ताहों पूर्व ही। इन थोड़े से
सप्ताहों से पूर्व तुमने उसके बारे में कभी स्वप्न तक न देखा था। यदि ऐसा एक बार
हो सकता है, तो ऐसा फिर भी हो सकता है। तीन सप्ताहों के बाद
तुम दूसरी स्त्री से मिल सकते हो।
जब तक तुम मर नहीं जाते कोई भी कामना
अंतिम कामना नहीं होती है। प्रत्येक कामना से अन्य दूसरी कामना सृजित होती है।
कामना लगभग एक ही तरह की अन्य चीजों का क्रम होती है। जिसमें लगभग प्रथम से अंतिम
भिन्न होती है। कामनाएं केवल दो चीजों से रुकती हैं—वह
मृत्यु हो अथवा बुद्धत्व। और निश्चित रूप से तुम्हें अभी तक इनमें से कुछ भी नहीं
घटित हुआ है। न तो तुम्हें मृत्यु ही घटित हुई है और न बुद्धत्व ही।
कामना को समझ लेना अच्छा है। प्रत्येक
कामना साथ में नई कामनाएं लाती है, और एक कामना दस कामनाएं सृजित करती है। यह ठीक वैसी ही है जैसे एक नन्हे
से बीज से एक विशाल वृक्ष आता है जिसकी हजारों शाखाएं और लाखों पत्ते होते है,
कामना रूपी एक बीज से अनेक कामनाएं उत्पन्न होती है।
तुम भविष्य के बारे में कोई भी चीज
नहीं कह सकते। तुम्हें कहना भी नहीं चाहिए क्योंकि भविष्य खुला हुआ बना रहता है।
यह मनुष्य के महानतम हास्यास्पद प्रयासों में से एक है। लेकिन मनुष्य इसे किये चले
जाता है। पहली बात वह अतीत को सुधारना चाहता है, जो नहीं किया जा सकता। जो कुछ भी हो चुका है, वह हो
चुका है। वहां उसे फिर से करने का कोई भी उपाय नहीं है, तुम
यहां और यहां से उसका स्पर्श तक नहीं कर सकते तुम उसे न तो बेहतर बना सकते हो,
और न उससे अधिक बुरा बना सकते हो। यह सामान्य रूप से तुम्हारे पार
की चीज़ है। वैसा हो चुका है, वह यथार्थ बन चुका है और जो
यथार्थ बन चुका है उसे स्पर्श तक भी नहीं किया जा सकता। अतीत समाप्त हो गया,
वह जिस तरह का है वह पूरा हो चुका है। तुम पीछे लौटकर उसे फिर से
सुव्यवस्थित कर सकते हो। यदि तुम पीछे लौट सकते हो तो तुम पागल हो जाते। अतीत इतना
अधिक लम्बी अवधि का है कि तुम कभी भी वर्तमान में फिर से न आ सकते।
यह अच्छा है कि अतीत के द्वार बंद है।
लेकिन मनुष्य और मनुष्य का मूढ़ मन सुधार करने उसे फिर से नया आकार देने और यहां
तक वहां कुछ कार्य करने के बारे में सोचे चला जाता है। क्या कभी-कभी तुम्हारी यह
इच्छा नहीं होती कि तुमने उस समय कुछ भी नहीं कहा और तुम सोचना शुरू कर देते हो कि
यह अच्छा ही हुआ। यदि तुमने कुछ भी कार्य नहीं किया तो क्या यह अच्छा नहीं हुआ? और अपनी कल्पना में तुम यह कहने अथवा वह करने का प्रयास करते हो। लेकिन
सामान्य रूप से तुम व्यर्थ ही समय नष्ट कर रहे हो। और अब कुछ भी नहीं किया जा
सकता। वह तुम्हारे हाथों से फिसल चुका है।
अतीत में सुधार नहीं किया जा सकता और
भविष्य के बारे में अनुमान से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। मनुष्य यह भी किये चले
जाता है। वह भविष्य के बारे में पूर्वानुमान से कुछ कहना चाहता है। भविष्य वह है
जो अभी तक हुआ नहीं है। भविष्य अनिश्चित बना रहता है। भविष्य जो है, उसके अनावृत बना रहना ही है। भविष्य अनिश्चित है। वह यर्थाथ नहीं है वह एक सम्भावना है और भविष्य के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं
है। भविष्य के बारे में कुछ भी सुनिश्चित नहीं है। लेकिन मनुष्य मूर्ख है: वह फिर
भी भविष्य वक्ताओं से परामर्श लेने जाता है, वह ‘आई चिंग’ और टैरोट कार्ड
और ज्योतिष पढ़ने वालों से परामर्श लेता है। मनुष्य इतना अधिक मूर्ख है कि वह किसी
भी भांति वे उपाय खो जाने का प्रयास करता है, जिससे वह पहले
ही से जान सके कि भविष्य में क्या होगा। लेकिन यदि तुम पहले ही से उसके बारे में
जान सकते हो, तो वह पहले ही से अतीत हो चुका है, और अब वह भविष्य रहा ही नहीं। केवल अतीत को जाना जा सकता है और भविष्य
अज्ञात बना रहता है। यही भविष्य का अंतर्निहित गुण है—उसका
अज्ञात रहने में सभी कुछ संभव है और कुछ भी निश्चित नहीं है—यही
होता है भविष्य और जो अतीत है वह है कि जिसमें सभी कुछ हो चुका है, और कुछ भी अधिक होना सम्भव नहीं है। और वर्तमान केवल छिपी हुई सम्भावना है
जिससे यथार्थ पूर्ण रूप से खला है। चाहे वह मृत्यु से लेकिन जीवन तक का रास्ता हो।
अब तुम पूछते हो: क्या यह अंतिम कामना
का होना अच्छा है। तुम चाहोगे कि तुम्हारी अंतिम कामना हो, लेकिन तब तुम्हें आत्मघात करना होगा। या तो वास्तव में अथवा आलंकारिक रूप
से। यदि तुम चाहते हो कि वह तुम्हारी अंतिम कामना हो, तो
तुम्हें आत्मघात करना ही होगा। यह तो जाकर किसी चलती हुई ट्रेन के सामने कूद जाओ
अथवा किसी खाई या समुद्र में कूदकर वास्तव
में आत्मघात कर लो—तभी यह तुम्हारी अंतिम कामना की भांति हो
सकती है। अथवा मनोवैज्ञानिक रूप से आत्मघात कर लो, जैसा कि
अनेक लोगों ने किया है। फिर तुम अपनी आंखें बंद लो और भयभीत होकर फिर किसी अन्य
स्त्री की और देखो ही मत। जिस स्त्री से तुम प्रेम करते हो, बस
उससे ही बंधे रहो, अधर-उधर जाकर कहीं भटको ही मत और न किसी
स्त्री को बारे में स्वप्न तक में सोचो—और यह होता है
मनोवैज्ञानिक आत्मघात।
लेकिन दोनों ही तरह से तुम जीने में
समर्थ न हो सकोगे, क्योंकि तुम्हारे पास
जीने के लिए कोई भविष्य ही न होगा। यदि तुम वास्तव में जीना चाहते हो.....और तुम
जीना भी चाहते हो। वास्तव में यही बात तो तुम पूछ रहे हो कि तुम अपनी प्रेमिका के
ही साथ जीना चाहते हो। जीने के लिए तुम्हें जीवंत होना होगा।
‘अंतिम इच्छा’ की भाषा में मत सोचो। और क्यों, आखिर क्यों तुम इसे
अंतिम बनाना पसंद करोगे? तुम किसी दिन अन्य कुछ स्त्रियों के
साथ उनकी ऊर्जाओं में सहभागी क्यों नहीं बन सकते? आखिर इतनी
अधिक कंजूसी क्यों? इतनी अधिक अमानवीयता क्यों? क्या अन्य स्त्रियां वैसी दिव्य नहीं है? क्या
अस्तित्व अनेक-अनेक रूपों और आकृतियों में प्रकट नहीं हुआ है, और तुम्हारे चारों और ही क्या उसके लाखों रूप नहीं है? फिर किसी एक आकृति के साथ ही बंधना और चिपकना क्यों? आखिर यह बंधन क्यों?
यह बंधन नियंत्रण में रखने के कारण
आता है। क्योंकि तुमने अपनी कामनाओं को दमन किया है। तब एक दिन तुम एक स्त्री खोज
लेते हो, जो तुम्हारी और प्रेमपूर्ण हो और तुम उसे बंध जाते
हो। तुम उसे खोने से भयभीत होते हो, क्योंकि तुम वे सभी
लम्बी और भयानक रातें जानते हो, जब तुम अकेले थे। यदि अब वह
स्त्री जाती है, तो तुम फिर अकेले हो जाओगे। अब यह स्त्री भी
स्वयं अपने अकेलेपन से भयभीत है, वह तुम से बंध रहती है। वह
डरती है कि तुम किसी अन्य स्त्री की और भी जा सके हो, तुम
उसकी और देख भी नहीं सकते हो और वह अकेली छोड़ दी जायेगी। अकेलेपन की वे रातें
बहुत लम्बी हो जाती हैं, अब और अधिक नहीं: ‘हम लोगों ने एक दूसरे को खोजा है, अब हमें एक दूसरे
के साथ बंध कर रहना चाहिए, हमें एक दूसरे पर अधिकार रखना
चाहिए और हमें एक दूसरे की चौकसी भी करनी चाहिए, जिससे कोई
और व्यक्ति हमारे बीच न आ जाए।’
लेकिन इस चौकसी और देखभाल से ज़रा
देखो होता क्या है: लोग ऊब जाते है। तुम एक प्रेमी चाहती हो एक गार्ड नहीं चाहती; और तुम जेलर न चाहकर एक प्रेमिका चाहते हो। तुम कैद होकर नहीं रहना चाहते
हो, उड़ना चाहते हो। इस विरोधाभासी कामना की और देखो: तुम
रहना चाहते हो और प्रेम करना चाहते हो, लेकिन तुम जो कुछ भी
करते हो, तुम अपने प्रेम को निराश करते हो, तुम अपने प्रेम को नष्ट करते हो, लेकिन तुम जो कुछ
भी करते हो वह उसके विरूद्ध जाता है; और वह उसके विरोध में
है।
यह अंतिम कामना क्यों होना चाहिए? स्मरण रहे मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह अंतिम कामना नहीं होना चाहिए।
मुझे गलत मत समझो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह अंतिम कामना नहीं होना चाहिए। मैं
सामान्य रूप से यही कह रहा हूं कि उसे अंतिम कामना क्यों होना चाहिए? यदि ऐसा होता है कि तुम कभी भी और अधिक सुंदर तथा और अधिक प्रेमपूर्ण
स्त्री नहीं खोज पाते—तो अच्छा है; तुम
भाग्यशाली हो। यदि ऐसा होता है, यदि ऐसा होता है कि तुम्हारी
प्रेमिका कभी भी एक ऐसे अन्य पुरूष को नहीं खोजती है तो तुम्हारी अपेक्षा तुमसे
कहीं अधिक प्रेमपूर्ण और जीवंत हो, तो तुम भाग्यशाली हो।
लेकिन यदि वह कहीं अधिक प्रेमपूर्ण पुरूष खोज लेती है, जो
उसे कहीं अधिक प्रसन्न रख सकता हो और जो उसके लिए परमानंद के महानतम शिखरों को ला
सकता हो, तब क्या होगा? क्या तब भी उसे
तुमसे बाँध रहना चाहिए? तब वह स्वयं अपने ही विरूद्ध जा रही
है। उसे तुमसे फिर क्यों चिपके रहना चाहिए?
और यदि वह तुमसे बंधी रहती है तो वह
तुम्हें कभी भी क्षमा करने में समर्थ न होगी, क्योंकि यह तुम्हारे ही कारण होगा कि उसे उस आनंद दायक पुरूष को खोना पड़ा,
और इस कारण वह तुमसे हमेशा नाराज रहेगी। यही कारण है कि पत्नियां
नाराज हैं पतियों से और पति नाराज़ रहते हैं पत्नियों से। इस क्रोध के पास उसका एक
स्वाभाविक आधार है। क्रोध तुच्छ सांसारिक चीजों के लिए नहीं है; यह उस चाय के बारे में भी नहीं है जो पर्याप्त गर्म नहीं थी, ऐसा वह नहीं है। जब तुम एक स्त्री से प्रेम करते हो तो कौन यह फिक्र करता
है कि चाय गर्म है अथवा नहीं है? जब प्रेम उष्ण होता है,
तो प्रत्येक चीज़ गर्म होती है। जब प्रेम ठंडा पड़ जाता है तो
प्रत्येक चीज़ ठंडी प्रतीत होती है। यह बात नहीं है कि जब तुम उठ कर बैठे तो
तुम्हारे स्लीपर वहां थे या नहीं? जहां उन्हें होना चाहिए
था। जब तुम एक स्त्री से प्रेम करते हो तो कौन इस बात की फिक्र करता है?
लेकिन जब प्रेम विलुप्त हो जाता है तो
वह उष्णता भी लुप्त हो जाती हैं, तब तुम क्रोधित होते
हो और क्रोध ऐसा होता है कि तुम उसे कह भी नहीं सकते। समाज उसकी अनुमति भी नहीं
देता। क्रोध इस तरह का होता है कि तुम उसके बारे में बोल भी नहीं सकते हो। हो सकता
है कि तुमने उसकी इतनी अधिक गहराई तक दमन किया हो कि तुम उसके प्रति सचेत भी नहीं
हुए हो। तुम इसके प्रति भी सचेत नहीं हो कि अभी इस स्त्री के कारण तुम नाराज़ हो,
क्योंकि अन्य दूसरी स्त्रियां तुम्हें उपलब्ध नहीं है। क्योंकि यह
स्त्री तुम्हारे चारों और घूमती हुई सतत तुम्हारा निरीक्षण करती है। अथवा क्योंकि
यह पुरूष तुम्हारा निरीक्षण किये चले जाता है और तुम्हें इधर-उधर जाने की अनुमति
नहीं देता। तुम अभी जिस ढंग से अपना जीवन बिताना चाहती हो, या
बिता सकती हो।
तुम्हारे अतीत के किये गए वायदे
कारागार बन गए हैं। तभी तुम नाराज़ हो। और तुम्हारे क्रोध का विशेष रूप से किसी
चीज़ के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है, यह एक सामान्य तरह का क्रोध है, इसलिए तुम यह भी
नहीं कह सकते हो कि वह कहां से उठ रहा है, वह क्यों उत्पन्न
हो रहा है और वह किस तरह का है। तब वह कोई भी बहाने बना कर कूद पड़ता है—चाय गर्म नहीं है, भोजन वैसा नहीं है, जैसा कि तुम पसंद करते हो।
यह बंधे रहना क्रोध सृजित करता है। और
हम यहां अनावश्यक रूप से क्रोध में बने रहने के लिए नहीं हैं। आखिर क्यों? किसके लिए? किस कारण के लिए? यदि
तुम्हारी प्रेमिका किसी सुंदर पुरूष से मिलती है और अचानक यह अनुभव करती है कि अब
उसने ठीक व्यक्ति को खोज लिया है, तब उसे क्या करना चाहिए?
क्या उसे तुमसे ही बंधकर रहना चाहिए? उसे क्या
तुमसे विश्वासघात करना चाहिए? विश्वासघात....यह शब्द कुरूप
है....वास्तव में यदि वह तुम्हारे साथ बनी रहती है तो वह स्वयं अपनी आत्मा को धोखा
दे रही है, यदि वह तुम्हारे साथ बनी रहती है, तो वह अपने प्रेम को धोखा दे रही है, वह अपनी
प्रसन्नता के साथ और इस अस्तित्व के साथ विश्वासघात कर रही है। अब अस्तित्व ने उसे
एक दूसरे द्वार से बुलाया है, वह उसके साथ धोखा कर रही है।
और वह कभी तुम्हें जरा भी प्रेम करने में समर्थ नहीं होगी। यह सम्भव है ही नहीं।
अस्तित्व ने उसे कहीं किसी अन्य स्थान से पुकारा है। कोई दूसरी आंखें द्वार और
खिड़कियां बन गई है। और कोई दूसरा रूप और आकृति ही जीवंत और आकर्षण बन गई हैं। अब
वह क्या कर सकती है? वह उस व्यक्ति को देखने से बच सकती है
लेकिन वह तुम्हें क्षमा करने में कैसे समर्थ होगी? अब क्रोध
का विस्फोट होना प्रारम्भ होगा। अब वह बिना किसी कारण ही क्रोधित बनी रहेगी और
क्रोध तुम्हारे प्रेम को नष्ट कर देगा। वह पहली ही से कपूर की तरह उड़ चूका है।
स्मरण रहे, प्रेम हवा का एक शीतल सुरभित झोंका होता है। जरा देखो ठीक अभी कोई भी हवा
को वैसा झोंका नहीं है। वृक्ष भी खामोश हैं। वे क्या कर सकते हैं। वे हवा का झोंका
सृजित नहीं कर सकते। जब कभी वह आती है वह आती है। जब वह आती है तो वे आनंद के साथ
नाचेंगे। जब वह चली जाती है, वह चली जाती है। तब उन्हें उसकी
प्रतीक्षा करनी होती है। प्रेम भी ऐसा ही एक सुरभित हवा का झोंका है। जब वह आता है,
तो वह आ जाता है, कौन जानता है कि वह किसी दिशा
से आता है किस व्यक्ति से आता है।
यही तंत्र की मुक्ति है। तंत्र एक
खतरनाक तत्वज्ञान है, वह एक खतरनाक धर्म
है। बड़े पैमाने पर उसका अभी तक प्रयास नहीं किया गया है। मनुष्य अभी तक
प्रर्याप्त साहसी नहीं हुआ है कि वह बड़े पैमाने पर उसका प्रयास करें। केवल थोड़े
से वैयक्तिक लोगों ने ही थोड़ा सा और बहुत दूर से बीच-बीच में उसका प्रयास किया
है। और उन्होंने बहुत से कष्ट भुगते है, क्योंकि समाज इसकी
अनुमति नहीं देता है। समाज सोचता है कि यह पूर्ण रूप से पाप कर्म है। लेकिन तंत्र
कहता है कि एक ऐसी स्त्री के साथ रहना जिसके प्रति तुम्हारे प्रेम का प्रवाह बंद
हो गया है, जिसके साथ तुम अब और अधिक आनंदित नहीं रहते,
एक पाप है। ऐसी स्त्री के साथ प्रेम करना उसके बलात्कार करना है,
तुम उसके साथ प्रेम मत करो। ऐसे पुरूष के साथ प्रेम करना जिससे तुम
प्रेम नहीं करती, वह प्रेम एक बलात्कार है, वह एक वेश्या वृति है।
जीवन के बारे में तंत्र का यही दृष्टि
कोण है। तंत्र आनंद में विश्वास करता है। क्योंकि तंत्र कहता है कि आनंद ही
परमात्मा है। आनंद के प्रति सच्चे बने रहो और आनंद के लिए प्रत्येक चीज़ का बलिदान
कर दो। केवल आनंद को ही परमात्मा बनने दो। और जिस चीज की भी आवश्यकता हो, प्रत्येक चीज का बलिदान कर दो। सदा प्रवाहित होते रहो।
तुम कहते हो—‘मैं एक स्त्री से प्रेम करता हूं। मैं उसे अपने साथ अपनी मृत्यु होने तक
अपने पास रखना चाहता हूं....।’ क्या तुम बहुत शीघ्र मरने जा
रहे हो? कौन जानता है कि तुम कितनी लम्बी अवधि तक जीवित रह
सकते हो? पहली बात तो यह कि तुम भविष्य के बारे में क्यों
सोच रहे हो? भविष्य के बारे में सोचना वर्तमान को खो देना
है। तुम सोचते हो कि तुम महान चीजों के बारे में सोच रहे हो—तुमने
ऐसी चीजें मूर्ख कवियों की कविताओं में पढ़ी है। कवि सदा से ही लगभग मूर्ख जैसे
होते हैं, क्योंकि उन्हें जीवन का असली अनुभव नहीं होता और
वे केवल स्वप्न देखते हैं।
अब देखो: तुम सोचते हो कि यह बहुत
महान प्रेम है—कि तुम उसके साथ अपनी मृत्यु होने
तक रहना चाहते हो। यह महान प्रेम नहीं है। और तुम भयभीत हो। वास्तव में ठीक अभी
तुम उसका आनंद नहीं ले रहे हो, इसी कारण तुम उसे भविष्य में
फैला देना चाहते हो। ठीक अभी तुम उससे चूक रहे हो, इसलिए
किसी दिन चाहते हो कि वह प्रेम तुम्हारे पास हो—हो सकता है
वह आज साथ न हो तब वह कल हो, परसों हो—इसी
कारण भय उत्पन्न होता है। तुम चाहते हो कि वह तुम्हारे साथ पूरे जीवन भर रहे जिससे
किसी तरह तुम व्यवस्था कर सकते हो।
लेकिन अभी तुम क्यों नहीं? यदि वह हमेशा के लिए तुम्हारे पास हो सकता है तो वह ठीक अभी भी तुम्हारे
पास हो सकता है। तुम नहीं जानते कि ठीक अभी कैसे जिया जाये। इसलिए तुम भविष्य के
बारे में सोचते हो। और समय बहुत बड़ा भ्रम है। केवल अभी ही अस्तित्व में है। कल यह
फिर आज हो जायेगा परसों भी यह फिर आज ही होगा। एक वर्ष बाद भी वह फिर आज बनेगा। वह
हमेशा ही आज बना रहेगा। परमात्मा हमेशा वर्तमान में होता है। यदि तुम जीना चाहते
हो तो ठीक अभी जियो। भविष्य के बारे में क्यों सोचते हो? अपने
प्रेम को एक दीप शिखा की भांति इतना सघन होने दो कि वह ठीक अभी तुम्हें समग्रता से
जला दे।
और अब तुम सोच रहे हो—‘जब तक...मैं मर न जाऊं...’ कौन कह सकता है? कम से कम मैं तो इस बारे में कोई चीज़ कहने नहीं जा रहा हूं—क्योंकि मैं चाहूंगा कि तुम स्वतंत्र बने रहो और मैं यह भी चाहूंगा कि
तुम्हारी प्रेमिका भी स्वतंत्र बनी रहे। यों मिलो जैसे दो स्वतंत्र
व्यैक्तिकताएं मिलती हैं, जैसे दो स्वतंत्रताएं मिलती हैं। और उस मिलन को वहां होने दो जब तक कि उस
स्वतंत्रता का अंत नहीं हो जाता। जब तुम्हारे मिलन से स्वतंत्रता प्रदूषित होनी
प्रारम्भ होती है, पृथक हो जाओ, क्योंकि
अब अलविदा कहने का समय आ गया है। उन दिनों के लिए कृतज्ञता का अनुभव करो, जब तुम उस स्त्री के साथ अथवा उस पुरूष के साथ रहे। अत्यधिक कृतज्ञता का
अनुभव करो कि किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा तुम्हें वे मधुर दिन उपलब्ध कराये गये।
उस सभी अनुभव के लिए कृतज्ञता का अनुभव करो। लेकिन तुम और क्या कुछ कर सकते हो?
आंखों में अश्रुओं के साथ कृतज्ञता और प्रेम के साथ, मैत्री तथा करूणा के साथ एक दूसरे से अलग हो जाओ। शीतल हवा का झोंका अब इस
और नहीं बह रहा है। तुम आखिर क्या कर सकते हो? असहायता का
अनुभव करो लेकिन एक दूसरे से अलग हो जाओ। चिपके मत रहो, अन्यथा
तुम एक दूसरे को खो दोगे।
यदि तुम वास्तव में दूसरे व्यक्ति से
प्रेम करते हो, तो जिस क्षण प्रेम लुप्त हुआ था
तुमने दूसरे व्यक्ति को मुक्त कर दिया होता। दूसरे व्यक्ति का स्वतंत्र बनाने के
लिए कम से कम इतना अधिक प्रेम तो देय और उचित है जिससे कहीं और दूसरे स्थान में
किसी दूसरी उपजाऊ भूमि में उसका प्रेम फल-फूल सकता। दूसरे व्यक्ति के लिए कम से कम
इतना अधिक तो तुम कर ही सकते हो कि यदि तुम्हारे दूसरे व्यक्ति के मध्य प्रेम
विलुप्त हुआ है तो वह किसी अन्य व्यक्ति के साथ कहीं अन्य किसी स्थान में फल-फूल
सके। प्रेम ही परमात्मा है। यह असंगत है कि वह कहां होता है, वह किसके मध्य घटित होता है। वह ‘अ’ और ‘ब’ के मध्य, ‘स’ और ‘द’ के मध्य अथवा ‘क’ और ‘ख’ घटित होता है। यह बात ही असंगत है कि वह कहां
होता है। यदि वह होता है तो बहुत शुभ है। यह संसार इतना अधिक प्रेम विहीन हो गया
है क्योंकि जब हम लोगों से बंध अथवा चिपक जाते हैं तब प्रेम समाप्त हो जाता है।
यदि लोग एक दूसरे से बंधें अथवा चिपकें नहीं और स्वतंत्र बने रहें तो यह संसार प्रेम
से बहुत अधिक भरा हुआ होगा।
अपने प्रेम में स्वतंत्र बनो।
स्वतंत्रता से ही एक दूसरे से मिलो और जब स्वतंत्रता नष्ट हो जाये तो उसे इस बात
का संकेत समझो कि प्रेम नष्ट हो गया हैं—क्योंकि
प्रेम स्वतंत्रता को नष्ट नहीं कर सकता; प्रेम और स्वतंत्रता
ये एक ही चीज के लिए दो भिन्न नाम है। प्रेम स्वतंत्रता को नष्ट नहीं कर सकता। यदि
स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है तो कोई अन्य चीज ही प्रेम होने का बहाना बना रही है—वह ईर्ष्या, घृणा, आधिपत्य,
सुरक्षा, बचाव, प्रतिष्ठा
और सामाजिक सम्मान हो सकता है—वह कुछ अन्य चीज़ ही है जो
अंदर आ गई है। इससे पूर्व वह प्रवेश करें और तुम्हें प्रदूषित करें और तुम्हें
बहुत अधिक विषैला बनाये उसे पलायन कर दूर भाग जाना।
प्रश्न पाँचवाँ—
प्यारे ओशो! मैं संन्यास लेना चाहता
हूं, और मैं वर्षों से इसके लिए प्रतीक्षा कर रहा हूं,
लेकिन मैं डरता हूं कि उसके कारण किसी मुसीबत में पड़ सकता हूं।
मुझे क्या करना चाहिए?
मैं केवल यही वायदा कर सकता हूं कि
तुम मुसीबतों में पड़ोगे, मैं यह नहीं कह सकता
कि तुम मुसीबतों में नहीं पड़ोगे। वास्तव में तुम्हारे जीवन में एक अराजकता अथवा
एक अव्यवस्था सृजित करना एक विधि है। लेकिन इस बारे में दो तरह की मुसीबतें होती
हैं—विध्वंसक मुसीबतें और सृजनात्मक मुसीबतें। विध्वंसक
मुसीबतों और सृजनात्मक मुसीबतें। विध्वंसक मुसीबतों से बच कर उनसे दूर रहो,
क्योंकि वे सामान्य रूप से नष्ट ही करती हैं। इस बारे में सृजनात्मक
मुसीबतें अथवा कठिनाइयां भी होती है। जो सृजन करती हैं, जो तुम्हें
चेतना के एक उच्चतम तल पर ले जाती हैं। तुम्हारे पास पहले ही से पर्याप्त मुसीबतें
और कठिनाइयां हैं। निश्चित रूप से मैं उस तरह की कोई अन्य मुसीबतें उनमें जोड़ने
नहीं जा रहा हूं।
एक बार ऐसा हुआ.....
रेलवे के सवारी डिब्बे में वहां एक
स्त्री थी जो एक पुरूष के साथ यात्रा कर रही थी। उस पुरूष के पास गंदे और
दुर्व्यवहार तथा शरारतें करने वाले बच्चों की पूरी भीड़ थी। इससे पूर्व कि वे बहुत
दूर पहुंचे होते, उस पुरूष ने अपने एक
बच्चे को अपनी बेल्ट से भयानक रूप से पीटना शुरू कर दिया।
उस स्त्री ने उससे कहा—‘यहां मेरी और देखा। उस बच्चे को तुरंत पीटना बंद करो, अन्यथा मैं तुम्हारे लिए मुसीबत खड़ी कर दूंगी।’
पुरूष ने पूंछा—‘आखिर तुम करोगी क्या?’
स्त्री ने चिल्लाकर कहां—‘मैंने कहा न, मैं तुम्हारे लिए मुसीबत खड़ी कर
दूंगी।’
उस पुरूष ने कहा—‘सुनिये देवी जी, मेरी पत्नी मेरा एक-एक पैसा लेकर एक
काले आदमी के साथ भाग गई है। मैं अपने बच्चों को एक रिश्तेदार के घर छोड़ने के लिए
ही सफर कर रहा हूं और वह रिश्तेदार भी पियक्कड़ है। उस कोने में तुम जो पन्द्रह
वर्ष की लड़की देख रही हो, उसे आठ महीने का गर्भ है। उसके
ऊपर जो बच्चा बैठा है उसने अपनी पेंट गंदी कर ली है। और उससे छोटे बच्चे ने बोतल
खिड़की के बाहर फेंक दी है। और जिस बच्चे को मैं अब पीट रहा हूं उसने हमारे सफर के
सभी टिकट निगल लिए है। मेरे मालिक ने गलत कार्य करने के आरोप में मुझे नौकरी से
अलग कर दिया हैं।’ तुमने कहा कि तुम मेरे लिए मुसीबत खड़ी
करने जा रही हो—इससे अधिक मुसीबतें और क्या हो सकती है?
नहीं, मैं तुम्हें उस तरह की मुसीबत में डालने वाली नहीं हूं। जिस तरह की
मुसीबतों में तुम पूरे जीवन भर जीते रहे हो। मैं तुम्हारे जीवन में नई तरह की
मुसीबतों से तुम्हारा परिचय कराना चाहता हूं। साहसी बनो।
और तुमने लम्बी अवधि तक प्रतीक्षा की
है—तुम कहते हो कि तुम इसके बारे में वर्षों से सोचते आ
रहे हो।
वहां यह फुटबाल मैच चुहियों और कीड़ों-मकोड़ों
के मध्य हो रहा था। इंटरवल तक स्कोर छ: समान था और समाप्त होने पर चुहियों के पक्ष
में वह ग्यारह-दस रहा। इसलिए सभी कीड़े-मकोड़े षड़पदी की गुफा में गये और उससे
कहा---‘आखिर तुम मैच में क्यों नहीं आये?’
षड़पदी ने कहा—‘मैं अपने बूटों को पहनने में व्यस्त था।’
आखिर कितने लम्बें समय तक तुम अपने
बूट पहनते रहोगे? शीघ्र ही मैच समाप्त
हो जायेगा। कृपया अपने कार्य को तेजी से करो।
छठा प्रश्न—
प्यारे ओशो! क्या मैं स्वयं अकेले ही
छलांग नहीं लगा सकता हूं? क्या एक सद्गुरू
पूर्णरूपेण आवश्यक है?
दो सहयोगी पेटे और दबे फांसी देने के
मंच पर चढ़े हुए फंदा बांधने का कार्य कर रहे थे। तभी एक व्यक्ति आता है, जो अपनी वैराईटी कलब में प्राचीन काल के घटना क्रम पर खेले जाने वाले दो
नये नाटकों के बारे में सोच रहा है; जब वह भवन के ठीक नीचे
था तभी अचानक वह देखता है कि फांसी के मचान के शिखर के समाप्त होने पर पेटे ने तीन
बार ऊपर से नीचे भूमि पर आने का रस्सी का फंदा बनाया, और दो
बार मोड़कर दूसरा फंदा बनाकर उसे पीछे से झटका दिया और वह अपने पैरों पर भूमि पर
आकर खड़ा हो गया। फंदों में पैर फंसाकर वह इसी तरह नीचे से ऊपर भी जा सकता था।
भूमि से देखता हुआ व्यक्ति सोचता है
कि यह आश्चर्यजनक कारनामा है, इसलिए वह पेटे के पास
जाता है और उससे कहता है—‘क्या तुम मेरे साथ आना पसंद करोगे
मेरे नाटक में तुम ऐसा ही कार्य कर सकोगे ?’
उसने कहा—‘हां बिलकुल ठीक, मैं जरूर चलूंगा।’
--‘परंतु इस के लिए तुम कितना धन चाहते
हो?’
--‘एक सौ पाउंड।’
--‘एक सौ पाउंड?’
--‘ठीक है न? पचास मेरे लिए और पचास दबे के लिए, जो एक हथौड़े से
मुझे ऊपर नीचे जाने के लिए चोट करता है।’
क्या तुम अकेले इस तरह जाने में समर्थ
न हो सकोगे? तुम्हें चोट करने के लिए सद्गुरू
की जरूरत होगी। यात्रा इतनी अधिक अपरिचित और अनजानी है, कि
वह यात्रा एक गहरी खाई में ले जाती है। जब तक कोई व्यक्ति तुम्हें सख्ती से न
धकेले तो तुम छलांग लेने नहीं जा रहे हो। तुम पर हथौड़े से चोट करनी ही होगी।
और अब यह अंतिम प्रश्न—
प्यारे ओशो! निर्वाण क्या है?
निर्वाण है, यह कथा—यह बौद्धों की एक बहुत प्राचीन कथा है।
एक असाधारण रूप से युवा सुंदर स्त्री एन्यादत्ता
को किसी भी अन्य चीज से इतना आनंद नहीं मिलता था, जितना की स्वयं को दर्पण में देखने में मिलता था। वह थोड़ी सनकी भी थी।
जैसे कि मनुष्य नाम के प्राणी हुआ करते है। एक सुबह जब उसने अपने को दर्पण में
देखा तो उसमें उसका शरीर तो था पर उसका सिर नहीं था। एन्यादत्ता को जैसे
हिस्टीरिया का दौरा पड़ गया और वह चीखती चिल्लाती हुई चारों और भागने लगी। वह चीख
रही थी—‘मेरा सिर चला गया, आखिर मेरा
सर है कहां? मेरा सिर आखिर किसके पास चला गया? यदि मैं उसे खोज नहीं पाती तो मैं मर जाऊंगी।’
यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति ने उसे
आश्वस्त किया ‘एन्यादत्ता!’ तेरा सिर तेरे कंधों पर ही है, पर उसने उन सभी की
बात पर विश्वास करने से इनकार दिया। प्रत्येक बार वह अपने को दर्पण में देखती थी
जहां उसका सिर नहीं दिखाई देता था इसलिए उसने अपनी पागल खोज को जारी रखा और सहायता
के लिए चीखती चिल्लाती रही।
उसकी बुद्धि थिर बनी रहे, इस भय से एन्यादत्ता के मित्रों और सम्बन्धी उसे घसीट कर उसके घर ले गए और
उसे खम्भे से कसकर बाँध दिया, जिससे वह स्वयं अपने को कोई
हानि न पहुंचा सके। एन्यादत्ता के मित्रों ने उसे आश्वस्त करना निरंतर जारी रखा कि
उसका सिर अभी उसके कंघों पर है और धीमे-धीमे उसने आश्चर्य करना शुरू कर दिया कि हो
सकता है कि वे लोग सत्य न बोल रहे हों।
उसके मित्रों में से एक मित्र ने
अचानक उसके सिर पर एक तेज मुक्का मरा, वह दर्द से चीख पड़ी और उसके मित्र ने घोषणा करते हुए कहा—‘वह तुम्हारा सिर है। जहां चोट लगी है वहां वह तुम्हारा ही सिर है।’
एन्यादत्ता ने तुरंत महसूस किया कि वह
स्वयं ही किसी तरह भ्रमित हो गई और सोचने लगी कि उसके पास सिर नहीं है, जब कि वास्तव में वह हमेशा ही से वहां है।
ऐसा ही निर्वाण है। तुम कभी भी उससे
बाहर नहीं हुए हो, तुम कभी भी उससे दूर
नहीं हुआ हो। वह तुम्हारे अंदर ही है और तुम उसके ही अंदर हो। यह स्थिति पहले से
ही है, बस तुम्हें थोड़ा अधिक सचेत होना है। तुम्हारे सिर पर
एक तेज मुक्के पड़ने की जरूरत है।
सिर वही ही है—तुम उसे देख नहीं सकते, क्योंकि तुम गलत दिशा में
देख रहे हो, अथवा तुम एक गलत दर्पण में देख रहे हो। तुम उसे
देख नहीं सकते क्योंकि तुम्हारे पास उसे देखने की निर्मल दृष्टि नहीं है। अन्यथा
निर्वाण कहीं और कुछ लक्ष्य नहीं है, वह जीवन के बाद नहीं है,
वह यहीं और अभी है।
निर्वाण ही वह सामग्री या तत्व हैं
जिससे तुम बने हुए हो। वह तुम्हारे प्रत्येक कोष में है। वह तुम्हारे अस्तित्व के
प्रत्येक रेशे-रेशे में है। वह तुम ही हो।
केवल मात्र स्मरण आ जाने की जरूरत है।
केवल एक स्मरण मात्र।
आज इतना ही।
ओम शांति-शांति शांति।
thank you guruji
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी जानकारी शेयर की है आपने, आप एमपी जेल प्रहरी सिलेबस के बारे में भी जानकारी शेयर कर सकते है
जवाब देंहटाएंSir osho ji ki 700 books hain par ispe 700 abhi kyun nhi aayi
जवाब देंहटाएंYou have written very well here, I have also written boy names in Hindi like yours.
जवाब देंहटाएंhttps://trueenglishweb.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंआधार कार्ड लोन दस हज़ार रुपये कैसे ले
जवाब देंहटाएंThanks for sharing
जवाब देंहटाएंस्वामी विवेकानंद शिक्षा पर विचार
If you are coming to Varanasi to learn yoga and receive teachings in tantra and mantra, you should visit the Top 10 places to visit in varanasi
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