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सोमवार, 4 नवंबर 2019

झेन शुद्ध धर्म है-(प्रवचन-08)

झेन शुद्ध धर्म है--(प्रवचन-आठवांं) 

(ओशो झेनः दि पाथ ऑफ पैराडॉक्स अंग्रेजी से अनुवादित)

Zen: The Path of Paradox, Vol 1, Chapter #1, Chapter title: Join the Farthest Star,

11 June 1977 am, Poona.

झेन कोई दर्शनशास्त्र नहीं है, बल्कि एक धर्म है। और धर्म जब बिना दर्शनशास्त्र के होता है, बिना किसी शाब्दिक जाल के तो वह घटना बहुत अनोखी हो जाती है। बाकी के सभी धर्म परमात्मा की धारणा के आसपास घूमते हैं। उनके अपने दर्शन हैं। वे धर्म परमात्मा की ओर केंद्रित हैं, मनुष्य केंद्रित नहीं हैं; उनके लिए मनुष्य लक्ष्य नहीं है, परमात्मा उनका लक्ष्य है।

लेकिन झेन के लिए ऐसा नहीं है। झेन के लिए, मनुष्य ही अंतिम लक्ष्य है, मनुष्य स्वयं अपने आप में लक्ष्य है। झेन के लिए परमात्मा मनुष्य से ऊपर नहीं है, परमात्मा मनुष्य में छिपी हुई सत्ता का ही नाम है। झेन कहता है कि मनुष्य अपने स्वयं के भीतर परमात्मा को एक संभावना की तरह लिए हुए है।

रविवार, 3 नवंबर 2019

तंत्र की कल्पना की विधि-(प्रवचन-07) 

तंत्र की कल्पना की विधि--प्रवचन-सातवां 

(ओशो दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)

The Transmission of the Lamp, Chapter #6,

(Chapter title: Pure consciousness has never gone mad, 29 May 1986 am in Punta Del Este, Uruguay)

प्यारे ओशो,
बारह से पंद्रह वर्ष की उम्र के बीच, रात के समय बिस्तर पर लेटे हुए मुझे कुछ विचित्र अनुभव हुआ करते थे, जो मुझे बहुत अच्छे लगते थे। मैं बिस्तर पर लेटकर ऐसी कल्पना किया करता था कि जैसे मेरा बिस्तर गायब हो गया, फिर मेरा कमरा, फिर घर, फिर शहर, सभी लोग, पूरा देश, पूरा संसार...  जगत में जो कुछ है सब गायब हो गया। बिल्कुल अंधेरा और सन्नाटा बचता; मैं अपने को आकाश में तैरता हुआ पाता।

19-दरियाशाह (बिहार वाले)-ओशो

दरियाशाह (बिहार वाले)-भारत के संत

दरिया कहै शब्द निरबाना-(ओशो)

निर्वाण को शब्द में कहा तो नहीं जा सकता है। निर्वाण को भाषा में व्यक्त करने का कोई उपाय तो नहीं। फिर भी समस्त बुद्धों ने उसे व्यक्त किया है। जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा की है। असंभव प्रयास अगर पृथ्वी पर काई भी हुआ है तो वह एक ही है--उसे कहने की चेष्टा, जो नहीं कहा जा सकता। उसे बताने की व्यवस्था, जो नहीं बताया जा सकता।
और ऐसा भी नहीं है कि बुद्धपुरुष सफल न हुए हों। सभी के साथ सफल नहीं हुए, यह सच है। क्योंकि जिन्होंने न सुनने की जिद्द ही कर रखी थी, उनके साथ सफल होने का कोई उपाय ही न था। उनके साथ तो अगर निर्वाण को शब्द में कहा भी जा सकता होता तो भी सफलता की कोई संभावना न थी। क्योंकि वे वज्र-बधिर थे।

18-दरिया दास—(ओशो)

दरिया दास—भारत के संत

अमी झरत विगसत कंवल--ओशो 

मनुष्य-चेतना के तीन आयाम हैं। एक आयाम है--गणित का, विज्ञान का, गद्य का। दूसरा आयाम है--प्रेम का, काव्य का, संगीत का। और तीसरा आयाम है--अनिर्वचनीय। न उसे गद्य में कहां जा सकता, न पद्य में! तर्क  तो असमर्थ है ही उसे कहने में, प्रेम के भी पंख टूट जाते हैं! बुद्धि तो छू ही नहीं पाती उसे, हृदय भी पहुंचते-पहुंचते रह जाता है!
जिसे अनिर्वचनीय का बोध हो वह क्या करें? कैसे कहे? अकथ्य को कैसे कथन बनाए? जो निकटतम संभावना है, वह है कि गाये, नाचे, गुनगुनाए। इकतारा बजाए कि ढोलक पर थाप दे, कि पैरों में घुंघरू बांधे, कि बांसुरी पर अनिर्वचनीय को उठाने की असफल चेष्टा करे।

शनिवार, 2 नवंबर 2019

17-संत भीखा दास-(ओशो)

संत भीखा दास—गुरू प्रताप साध की  संगत-(ओशो) 

भीख जब छोटा बच्‍चा था। लोग हंसते थे कि तू समझता क्‍या। शायद साधुओं के विचित्र रंग-ढंग को देखकर चला जाता है। शायद उनके गैरिक वस्‍त्र,दाढ़ियां उनके बड़े-बड़े बाल, उनकी धूनी उनके चिमटे, उनकी मृदंग, उनकी खंजड़ी,यह सब देखकर तू जाता होगा भीखा। लेकिन किसको पता था कि भीखा यह सब देख कर नहीं जाता। उसका सरल  ह्रदय उसका अभी कोरा
कागज जैसा ह्रदय पीने लगा है, आत्‍मसात करने लगा है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं की मस्‍ती है उसे छूने लगी है। उसे दीवाना करने लगी है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं के पास है, उससे वह आन्‍दोलित होने लगा है। वह जो साधुओं की मस्‍ती है उसे छूने लगी है, उसे दीवाना करने लगी है। वह भी पियक्‍कड़ होने लगा है।

16-सदाशिव स्‍वामी—(ओशो)

सदाशिव स्‍वामी—भारत के संत -(ओशो)

    दक्षिण भारत में एक अपूर्व संत हुआ जिसका नाम था--सदाशिव स्‍वामी। एक दिन अपने गुरु के आश्रम में एक पंडित को आया देख कर विवाद में उलझ गया। उसने उस पंडित के सारे तर्क तोड़ दिये। उसके एक-एक शब्‍द को तार-तार कर दिया। उसके सारे आधार जिन पर वह तर्क कर रहा था धराशायी कर दिये। उसकी हर बात का खंडन करता चला गया। उस पंडित की पंडिताई को तहस नहस कर डाला। पंडित बहुत ख्‍यातिनाम था। तो सदाशिव सोचते थे कि गुरु पीठ थपथपायेगा और कहेगा, कि ठीक किया, इसको रास्‍तेपर लगाया। लेकिन जब पंडित चला गया तो गुरु ने केवल इतना ही कहां: सदाशिव, अपनी वाणी पर कब संयम करोगे? क्‍यों व्‍यर्थ, व्‍यर्थ उलझते हो इस जंजाल में। ये तुम्‍हें स्‍वयं के भीतर तुम्‍हें न जाने देगी। हो सकता है तुम्‍हारा ज्ञान तुम्‍हारे अहं को पोषित करने लग जाये। ज्ञान तलवार की तरह है। और ध्‍यानी का ज्ञान तो दो धारी तलवार। जिसके दोनों तरफ धार होती है। पंडित को ज्ञान तो एक तरफ का होता है। इससे बच संभल। और देख अपने अंदर।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

दर्पण में देखना-(तंत्र विधि)-(प्रवचन-06)

तंत्र की विधि- दर्पण में देखना-प्रवचन-छठवांं 

(ओशो दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)

Traslated from- The Transmission of the Lamp, Chapter #3, Chapter title: True balance, 27 May 1986 pm in Punta Del Este, Uruguay   
प्यारे ओशो,
जब मैं ग्यारह या बारह वर्ष की रही होंगी, मेरे साथ एक विचित्र घटना घटी। स्कूल में एक बार खेल-कूद का पीरियड चल रहा था, मैं यह देखने के लिए कि मैं ठीक-ठाक लग रही हूं या नहीं, बाथरूम में गई। शीशे के सामने मैं खुद को देखने लगी तो अचानक, मैंने पाया कि मैं अपने शरीर और शीशे में अपने प्रतिबिंब दोनों से अलग बीच में खड़ी हूं और देख रही हूं कि मेरा शरीर अपने प्रतिबिंब को शीशे में देख रहा है।

15-दादूदयाल और सूंदरो-(ओशो)

15- दादूदयाल और सूंदरो—भारत के संत-(ओशो) 

कहो होत अधीर-पलटूदास 

     दादू के चेले तो अनेक थे पर दो ही चेलों का नाम मशहूर है। एक रज्‍जब और दूसरा सुंदरो। आज आपको सुंदरो  कि विषय में एक घटना कहता हूं। दादू की मृत्‍यु हुई। तब दादू के दोनों चलो ने बड़ा अजीब व्यवहार किया। रज्‍जब ने आंखे बंध कर ली और पूरे जीवन कभी खोली ही नहीं। उसने कहां जब देखने लायक था वहीं चला गया तो अब और क्‍या देखना सो रज्‍जब जितने दिन जिया आंखे बंध किये रहा। और दूसरा सुंदरो—उधर दादू की लाश उठाई जा रही थी। अर्थी सजाई जारही थी। वह श्मशान घाट भी नहीं गया और दादू के बिस्‍तर पर उनका कंबल ओढ़ कर सो गया। फिर उसने कभी बिस्‍तर नहीं छोड़ा। बहुत लोगों ने कहा ये भी कोई ढंग है। बात कुछ जँचती नहीं।ये भी कोई जाग्रत पुरूषों के ढंग हुये एक ने आँख बंद कर ली और दूसरा बिस्‍तरे में लेट गया। और फिर उठा ही नहीं। जब तक मर नहीं गया।

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2019

14-संत बाबा शेख फरीद-(ओशो)

संत बाबा शेख फरीद—भारत के संत-(ओशो) 

     शेख फरीद के पास कभी एक युवक आया। और उस युवक ने पूछा कि सुनते है कि हम जब मंसूर के हाथ काटे गये, पैर काटे गये। तो मंसूर को कोई तकलीफ न हुई। लेकिन विश्‍वास नहीं आता। पैर में कांटा गड़ जाता है, तो तकलीफ होती है। हाथ-पैर काटने से तकलीफ न हुई होगी? यह सब कपोल-काल्‍पनिक बातें है। ये सब कहानी किसे घड़े हुये से प्रतीत होते है। और उस आदमी ने कहां, यह भी हम सुनते है कि जीसस को जब सूली पर लटकाया गया,तो वे जरा भी दुःखी न हुए। और जब उनसे कहा गया कि अंतिम कुछ प्रार्थना करनी हो तो कर सकते हो। तो सूली पर लटके हुए, कांटों के छिदे हुए, हाथों में कीलों से बिंधे हुए, लहू बहते हुए उस नंगे जीसस ने अंतिम क्षण में जो कहा वह विश्‍वास के योग्‍य नहीं है। उस आदमी ने कहा, जीसस ने यह कहा कि क्षमा कर देना इन लोगों को, क्‍योंकि ये नहीं जानते कि ये क्‍या कर रहे है।

13-संत भर्तृहरि-(ओशो)

संत भर्तृहरि—भारत के संत -(ओशो) 

    भर्तृहरि ने घर छोड़ा। देखा लिया सब। पत्‍नी का प्रेम, उसका छलावा, अपने ही हाथों आपने छोटे भाई विक्रमादित्‍य की हत्‍या का आदेश। मन उस राज पाठ से वैभव से थक गया। उस भोग में केवल पीड़ा और छलावा ही मिला। सब कुछ को खूब देख परख कर छोड़ा। बहुत कम लोग इतने पककर छोड़ते है इस संसार को जितना भर्तृहरि ने छोड़ा है। अनूठा आदमी रहा होगा भर्तृहरि। खूब भोगा। ठीक-ठीक उपनिषद के सूत्र को पूरा किया: ‘’तेन त्‍यक्‍तेन भुंजीथा:।‘’ खूब भोगा।एक-एक बूंद निचोड़ ली संसार की। लेकिन तब पाया कि कुछ भी नहीं है। अपने ही सपने है, शून्‍य में भटकना है।

     भोगने के दिनों में शृंगार पर अनूठा शास्‍त्र लिखा, शृंगार-शतक। कोई मुकाबला नहीं। बहुत लोगों ने शृंगार की बातें लिखी है। पर भर्तृहरि जैसा स्‍वाद किसी ने शृंगार का कभी नहीं लिखा। भोग के अनुभव से शृंगार के शास्‍त्र का जन्‍म हुआ। यह कोई कोरे विचारक की बकवास न थी। एक अनुभोक्‍ता की अनुभव-सिद्ध वाणी थी। शृंगार-शतक बहुमूल्‍य है। संसार का सब सार उसमें है।

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2019

गोल-गोल घूमने की विधि-(प्रवचन-05)

ओशो के अंग्रेजी साहित्य से अनुवादित विभिन्न प्रवचनांश

प्रवचन-05 सूफी दरवेश गोल-गोल घूमने की विधि-ओशो

The Transmission of the Lamp, chapter #27, Chapter title: Unless your feet are holy...,

8 June 1986 am in Punta Del Este, Uruguay.

(ओशो दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)

प्यारे ओशो,
अपने बचपन के जिन अनुभवों के विषय में हमने आपको बताया, आपने कहा कि वे अनुभव वास्तव में ध्यान की विधियां हैं जो शरीर से बाहर निकलने के लिए सदियों से उपयोग की जाती रही हैं। क्या यह विधियां बचपन में हुए अनुभवों को देखते हुए ही विकसित की गई थीं, या बचपन में ऐसे अनुभव पिछले जन्मों की स्मृतियों के कारण होते हैं?
ये विधियां- और केवल ये ही नहीं, बल्कि अब तक विकसित की गईं सभी विधियां- मनुष्य के अनुभवों पर ही आधारित हैं।

12-बाबा हरिदास-(ओशो)

फकीर संत  बाबा हरिदास—भारत के संत -(ओशो) 

     अकबर ने एक दिन तानसेन को कहा, तुम्‍हारे संगीत को सुनता हूं, तो मन में ऐसा ख्‍याल उठता है कि तुम जैसा गाने वाला शायद ही इस पृथ्‍वी पर कभी हुआ हो और न हो सकेगा। क्‍योंकि इससे ऊंचाई और क्‍या हो सकेगी। इसकी धारणा भी नहीं बनती। तुम शिखर हो। लेकिन कल रात जब तुम्‍हें विदा किया था, और सोने लगा तब अचानक ख्‍याल आया। हो सकता है, तुमने भी किसी से सीखा है, तुम्‍हारा भी कोई गुरू होगा। तो मैं आज तुमसे पूछता हूं। कि तुम्‍हारा कोई गुरू है? तुमने किसी से सीखा है?

     तो तानसेन ने कहा, मैं कुछ भी नहीं हूं गुरु के सामने; जिससे सीखा है। उसके चरणों की धूल भी नहीं हूं। इसलिए वह ख्‍याल मन से छोड़ दो। शिखर? भूमि पर भी नहीं हूं। लेकिन आपने मुझ ही

11-धनी धर्मदास-(ओशो)

11-धनी धर्मदास-भारत के संत

का सोवे दिन रैन—जस पनिहार धरे सिर गागर-(ओशो)

धनी धरमदास की भी ऐसी ही अवस्था थी। धन था, पद थी, प्रतिष्ठा थी। पंडित-पुरोहित घर में पूजा करते थे। अपना मंदिर था। और खूब तीर्थयात्रा करते थे। शास्त्र का वाचन चलता था, सुविधा थी बहुत, सत्संग करते थे। लेकिन जब तक कबीर से मिलन न हुआ तब तक जीवन नीरस था। जब तक कबीर से मिलना न हुआ तब तक जीवन में फूल न खिला था। कबीर को देखते ही अड़चन शुरू हुई, कबीर को देखते ही चिंता पैदा हुई, कबीर को देखते ही दिखाई पड़ा कि मैं तो खाली का खाली रह गया हूं। ये सब पूजा-पाठ, ये सब यज्ञ-हवन, ये पंडित और पुरोहित किसी काम नहीं आए हैं। मेरी सारी अर्चनाएं पानी में चली गई हैं। मुझे मिला क्या? कबीर को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या? मिले हुए को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या?

इसलिए तो लोग जिसे मिल गया है उसके पास जाने से डरते हैं। क्योंकि उसके पास जाकर कहीं अपनी दीनता और दरिद्रता दिखाई न पड़ जाए। लोग उनके पास जाते हैं जो तुम जैसे ही दरिद्र हैं। उनके पास जाने से तुम्हें कोई अड़चन नहीं होती, चिंता नहीं होती, संताप नहीं होता।

सोमवार, 28 अक्टूबर 2019

10-दयावाई-(ओशो)

दयावाई-भारत के संत

जगत तरैया भोर की-ओशो

संत का अर्थ है, प्रभु ने जिसके तार छेड़े। संतत्व का अर्थ है, जिसकी वीणा अब सूनी नहीं; जिस पर प्रभु की अंगुलियां पड़ीं। संत का अर्थ है, जिस गीत को गाने को पैदा हुआ था व्यक्ति, वह गीत फूट पड़ा; जिस सुगंध को ले कर आया था फूल, वह सुगंध हवाओं में उड़ चली। संतत्व का अर्थ है, हो गए तुम वही जो तुम्हारी नियति थी। उस नियति की पूर्णता में परम आनंद है स्वभावतः।
बीज जब तक बीज है तब तक दुखी और पीड़ित है। बीज होने में ही दुख है। बीज होने का अर्थ है, कुछ होना है और अभी तक हो नहीं पाए। बीज होने का अर्थ है, खिलना है और खिले नहीं; फैलना है और फैले नहीं; होना है और अभी हुए नहीं। बीज का अर्थ है, अभी प्रतीक्षा जारी है; अभी राह लंबी है; मंजिल आई नहीं।

09-सहजो बाई-ओशो

सहजो बाई—भारत के संत 

बिन घन परत फुुहार-सहजो बाई  

     अब तक मैं मुक्‍त पुरूषों पर ही बोला हूं। पहली बार एक मुक्‍त नारी पर चर्चा शुरू करता हूं। मुक्‍त पुरूषों पर बोलना आसान था। उन्‍हें में समझ सकता हूं-वे सजातीय है। मुक्‍त नारी पर बोलना थोड़ा कठिन है। वह थोड़ा अंजान, अजनबी रस्‍ता है। ऐसे तो पुरूष ओर नारी अंतरतम में एक ही है। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति बड़ी भिन्‍न-भिन्‍न है। उनके होने का ढंग उनके दिखाई पड़ने की व्‍यवस्‍था उनका व्‍यक्‍तित्‍व उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्‍न है बल्‍कि विपरीत भी है।
     अब तक किसी मुक्‍त नारी पर न बोला। सोचा तुम थोड़ा मुक्‍त पुरूषों को समझ लो। तुम थोड़ा मुक्‍ति का स्‍वाद ले लो। तो मुक्‍त नारी को समझना थोड़ा आसान हो जाए।

08-संत दादू दयाल-(ओशो)

08-दादू दयाल-भारत के संत

सबै सयाने एक मत-पिव-पिव लागी प्यास-(ओशो)

संकल्पवान परमात्मा को खोजेगा, फिर झुकेगा। पहले उसके चरण खोज लेगा, फिर सिर झुकाएगा। समर्पण से भरा हुआ व्यक्ति, भक्त, सिर झुकाता है; और जहां सिर झुका देता है, वहीं उसके चरण पाता है। गिर पड़ता है, आंखें आंसू से भर जाती हैं। रोता है, चीखता है, पुकारता है, विरह की वेदना उसे घेर लेती है। और जहां उसके विरह का गीत पैदा होता है, वहीं परमात्मा प्रकट हो जाता है।
तुम्हारी मर्जी! जैसे चलना हो। लेकिन दादू दूसरे मार्ग के अनुयायी हैं। उन्हें समझना हो तो एक शब्द है--समर्पण। उसे ही ठीक से समझ लिया तो दादू समझ में आ जाएंगे।

इसलिए दादू कहते हैं, सबै सयाने एकमत।
वह एकमत समर्पण का है। और जिन्होंने भी जाना है उन्होंने वही कहा है। कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि संकल्प से चलने वाले लोगों ने भी अंत में यही कहा है। चले संकल्प से, पहुंचे समर्पण से।

शनिवार, 26 अक्टूबर 2019

07-संत रज्‍जब दास-(ओशो)

भारत के संत -(ओशो)

संत रज्‍जब दास—सातवाां
रज्जब तैं त किया गज्‍जब......
आज हम जिस अनूठे आदमी की बाणी में यात्रा करेंगे, वह आदमी निश्‍चित अनूठा रहा होगा। कभी ऐसे अनूठे आदमी होते है। और उनके जीवन से जो पहला पाठ मिल सकता है वह यही है।
      संत रज्‍जब की जिंदगी बड़े अद्भुत ढंग से शुरू होती है। तुमने सोचा भी न होगा कि ऐसे भी कहीं जिंदगी बदलती है। वह भी कोई जिंदगी के बदलने का ढंग है। रज्‍जब मुसलमान थे। पठान थे। किसी युवती के प्रेम में थे। विवाह का दिन आ गया। बारात सजी। बारात चली। रज्‍जब घोड़े पर सवार। मौर बाँधा हुआ सिर पर। बाराती साथ है,बैंडबाजा है इत्रका छिड़काव है, फूलों की मालाएँ है। और बीच बाजार में अपनी ससुराल के करीब पहुंचने को ही थे। दस पाँच कदम शेष‍ रह गये थे। सूसराल के लोग स्‍वागत के लिए तैयार थे सूसराल के लोग—और यह क्रांति घटी। कि
अचानकघोड़े के पास एक आदमी  आया उसका पहनाव बड़ा अजीब था। कोई फक्‍कड़ दिखाई दे रहा था।बारात के सामने आ कर खड़ा हो गया। और उसने गौर से रज्‍जब को देखा।

बोध कथा-09

बोध कथा-नौवी--(ओशो)

मैं एक छोटे से गांव में गया था। वहां एक नया मंदिर बन कर खड़ा हो गया था और उसमें मूर्ति प्रतिष्ठा का समारोह चल रहा था। सैकड़ों पुजारी और संन्यासी इकट्ठे हुए थे। हजारों देखने वालों की भीड़ थी। धन मुक्तहस्त से लुटाया जा रहा था। और सारा गांव इस घटना से चकित था। क्योंकि जिस व्यक्ति ने मंदिर बनाया था और इस समारोह में जितना धन व्यय किया था, उससे ज्यादा कृपण व्यक्ति भी कोई और हो सकता है, यह सोचना भी उस गांव के लोगों के लिए कठिन था। वह व्यक्ति कृपणता की साकार प्रतिमा था। उसके हाथों एक पैसा भी कभी छूटते नहीं देखा गया था। फिर उसका यह हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था? यही चर्चा और चमत्कार सबकी जुबान पर था। उस व्यक्ति के द्वार पर तो कभी भिखारी भी नहीं जाते थे। क्योंकि वह द्वार केवल लेना ही जानता था। देने से उसका कोई परिचय ही नहीं था। फिर यह क्या हो गया था? जो उस व्यक्ति ने कभी स्वप्न में भी न किया होगा, वह वस्तुतः आंखों के सामने होते देख कर सभी लोग आश्चर्य से ठगे रह गए थे।

बोध कथा-08

बोध कथा-आठवी--(ओशो) 

एक मित्र ने पूछा है ‘समाज में इतनी हिंसा क्यों हैं?’
हिंसा के मूल में महत्वाकांक्षा है। वस्तुतः तो महत्वाकांक्षा ही हिंसा है। मनुष्य चित्त दो प्रकार का हो सकता है। महत्वाकांक्षी और गैर-महत्वाकाक्षी। महत्वाकांक्षी-चित्त से राजनीति जन्मती है और गैर-महत्वाकांक्षी-चित्त से धर्म का जन्म होता है। धार्मिक और राजनैतिक--चित्त के ये दो ही रूप हैं। या कहें कि स्वस्थ और अस्वस्थ।
स्वस्थ चित्त में हीनता नहीं होती है। और जहां आत्महीनता नहीं है, वहां महत्वाकांक्षा भी नहीं हैं। क्योंकि, महत्वाकांक्षा आत्महीनता के बोध को मिटाने के प्रयास से ज्यादा और क्या है? लेकिन, आत्महीनता ऐसे मिटती नहीं हैं और इसलिए महत्वाकांक्षा का कहीं अंत नहीं आता है। आत्महीनता का अर्थ है आत्मबोध का अभाव। स्वयं को न जानने से ही वह होती है।

06-संत पलटूबनिया—(ओशो)

भारत के संत-ओशो

अजहूं चेत गंवार-(संत पलटूबनिया)
      पलटू दास के संबंध में बहुत ज्‍यादा ज्ञान नहीं है। संत तो पक्षियों के जैसे होते है। आकाश पर उड़ते जरूर है, लेकिन पदचिन्‍ह नहीं छोड़ते जाते है।। संतों के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात नहीं रहता है। संत का होना ही अज्ञात है। अनाम। संत का जीवन अन्तर जीवन है। बहार के जीवन के तो परिणाम होते है। इतिहास पर इति वृति बनता है। घटनाएं घटती है। बहार के जीवन की। भीतर के जीवन की तो कहीं कोई रेखा नहीं होती। भीतर के जीवन की तो समय की रेत पर कोई अंकन नहीं होता। भीतर का जीवन तो शाश्‍वत,सनातन,समयातित जीवन हे। जो भीतर जीते है उन्‍हें तो वे ही पहचान पाएंगे जो भीतर जायेंगे। इसलिए सिकंदरों हिटलरों चंगैज खां और नादिर शाह इनका तो पूरा इतिहास मिल जाएगा। इनका तो पूरा बहार का होता है । इनका भीतर को कोई जीवन होता नहीं। बाहर ही बाहर का जीवन होता है। सभी को दिखाई पड़ता है।