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मंगलवार, 23 जुलाई 2013

माई डायमंड डे विद ओशो—मां प्रेम शुन्‍यों (अध्‍याय—17)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 
पुणे दो विश्‍लेषण: थैलीयम ज़हर (अध्‍याय—17)


     पुलिस कमिशनर ने आदेश को रद्द करने से इनकार कर दिया। लेकिन आश्रम के लिए आचार-प्रतिमानों के रूप में कुछ शर्तों पर उसे स्‍थापित कर देने की इच्‍छा  प्रकट की शर्तें चौदह थी। उनमें से कुछ शर्तें ऐसी थी जो यह भी निश्चित करती थी कि ओशो किस विषय पर और कितना समय प्रवचन दें। वे किसी धर्म के विरूद्ध न बोले या कोई भड़काने वाली बात न कहें। केवल एक सौ विदेशियों को ही आश्रम के द्वार के भीतर प्रवेश कर सकते है; प्रत्‍येक विदेशी का नाम पुलिस के पास होना चाहिए, हमें कितने ध्‍यान करने होंगे और ध्‍यान की समयावधि क्‍या होगी यह भी निर्धारित किया जाएगा; पुलिस को किसी भी समय आश्रम में प्रवेश करने और प्रवचन में सम्‍मिलित होने का अधिकार होगा।

    ओशो ने शेर की तरह गरजते हुए इन शर्तों का प्रतिसंवेदन किया। उनके उत्‍तर में दिए गए प्रवचनों में आग बरसी: क्‍या यह वही स्‍वतंत्रता है जिसके लिए हजारों व्‍यक्‍तियों ने अपने प्राण गवांए।
      यह परमात्‍मा का मंदिर है। कोई हमे यह नहीं कह सकता कि हम एक घंटे से अधिक ध्‍यान नहीं कर सकते.....। मैं सभी धर्मों के विरूद्ध बोलूंगा क्‍योंकि वे मिथ्‍या है—वे सच्‍चे धर्म नहीं है। और यदि इस बात को गलत सिद्ध करने की उसमें (पुलिस कमिश्‍नर में) थोड़ी भी बुद्धि है तो उसका स्‍वागत है...हम देशों में विश्‍वास नहीं करते और हम राष्‍ट्रों में विश्‍वास नहीं करते। हमारे लिए कोई भी विदेशी नहीं है।
      और पुलिस ने प्रवेश की बात का उत्‍तर देते हुए कहा, नहीं यह परमात्‍मा का मंदिर है और तुम्‍हें हमारे निर्देशानुसार चलना होगा।
      ओशो ने कहा कि यदि पुलिस कमिश्‍नर और उन दो पुलिस के अधिकारियों को उनके कार्यालय से हटाया नहीं जाता तो वे उन्‍हें अदालत तक ले जाएंगे।
      जनवरी के तीसरे सप्‍ताह विवेक तीन महीनों के लिए थाइलैंड चली गई, अत: मैं उनके कमरे में आ गई और उसका कार्य करने लगी। हम एक बार फिर संकटपूर्ण स्‍थिति में फंस गये1 एक अतिवादी ने जिसने 1980 में चाकू फेंक कर ओशो की हत्‍या करने का प्रयास किया था—प्रेस में घोषणा की, हम ओशो को यहां शांति पूर्ण नहीं रहने देंगे। उसने राष्‍ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत ओशो की गिरफ्तारी की मांग की तथा यह धमकी भी दी कि उसकी संस्‍था (हिंदू एकता आन्‍दोलन) के जूड़ों व कराटे में प्रशिक्षित सदस्‍य आश्रम पर धावा बोल देंगे। तथा ओशो को बलपूर्वक उठाकर ले जाएगें। हमें सरकार से भी धमकी मिली। सरकारी कर्मचारी तो आश्रम को ध्‍वस्‍त करने के लिए बाहर दरवाजे पर बुलडोजर लेकर आ गए।
      मुझे एक और चिंता थी कि पुलिस किसी भी आएगी, मेरा वीज़ा रद्द करके मुझे निर्वासित कर देगी। कई रातें में सो न सकी। क्‍योंकि हमें धमकियां दी जा रही थी कि पुलिस किसी भी समय धावा बाले देगी। एक दूसरे को सावधान करने के लिए हम सबके पास अलार्म घंटी थी हम घर की प्रत्‍येक खिड़की और द्वार पर पहरा देते। मैं ओशो के कमरे में खुलनेवाले शीशे के दरवाज़ों के पीछे रहती क्‍योंकि यदि पुलिस फिर आती है तो ओशो को पकड़ने के लिए। उसे हमारी लाशों पर से गुजरना होगा। पुलिस रात में दो बार और दिन में एक बार आई। परंतु ओशो के निवास स्‍थान पर प्रवेश नहीं किया। हमारे संन्‍यासी वकीलों तथा एक साहसी वकील श्री राम जेठ मिलानी द्वारा महीनों तक अदालत में लड़ने के बाद धीरे-धीरे पुलिस का तंग करना समाप्‍त हुआ। तथा विलास तुपे को आदेश मिला कि वह कोरेगांव पार्क में प्रवेश नहीं करेगा। पूना के मेयर ने ओशो से क्षमा याचना की। तथा आश्रम को तहस नहस करने के लिए भेजे गये सरकारी कर्मचारियों को रोकने में सहायता की। आगामी दो वर्षों में लगातार भारतीय वाणिज्‍य दूत विश्‍व भर में संन्‍यासियों को  परेशान कर रहा था। और यदि उन्‍हें संदेह हो जाता की ओशो से मिलने आ रहे है तो उन्‍हें वीज़ा नहीं दिया जाता। कई संन्‍यासियों को मुम्‍बई हवाई अड्डे पर ही रोक लिया गया। और बिना किसी स्‍पष्‍ट करण के उन्‍हें हवाई जहाज़ से वहीं वापस कर दिया गया। जहां से वे आये थे। परंतु इसके बावजूद आनेवाले संन्‍यासियों की लहर ज्‍वार का रूप धारण करने ही वाली थी।
      ऐसा लगा जैसे युद्ध समाप्‍त हो गया है। वह अपने सदगुरू के साथ एक बार फिर शांतिपूर्वक जीना आरम्‍भ कर सकते थे।
      ओशो हमारे साथ फिर नृत्‍य में सम्‍मिलित होने लगे। वे च्‍वांगत्‍सु सभागार में प्रवचन देने के लिए आते और वास जाते समय हमारे साथ नृत्‍य करते। जब संगीत उत्‍कर्ष पर होता और अनियंत्रित हो जाता तो मुझे ऐसा प्रतीत होता कि ऊर्जा मुझ पर बरस रही है। और जब मैं विवेक पर बिना ये जाने की मैं क्‍या कह रही हूं। चिल्‍लाती तो लगता आग से लपटें उठ रही है। मुझे चिल्‍ला-चिल्‍ला कर कुछ कहना है, क्‍योंकि मेरे भीतर जो था, उसे संभालना भी था। फिर स्‍टाप का प्रयोग शुरू हुआ। और नृत्‍य में उन्‍मत करते हुए सहसा रूक जाते। उनकी भुजायें हवा में उपर उठ जाती। इस समय वह किसी न किसी की आंखों में देखते। उसके लिए उनकी दर्पण सी शून्‍य आंखों में देखना बहुत शक्‍ति शाली अनुभव होता।
      यह समय पूना-1 के दिनों के ऊर्जा दर्शनों की बहुत याद दिलाता। लगता कि जो ऊर्जा शक्‍ति उस समय विद्यमान थी उसे पुनर्निमित करने के लिए ओशो को बहुत काम करना पड़ रहा है। पूना लौटने पर आश्रम को दुर्दशा देखकर मन बहुत व्‍यथित हुआ। मुट्ठी भर लोग जो यहां रह रहे थे उन्‍हें इमारतों और बग़ीचों की और जरा भी ध्‍यान नहीं दिया। उन पहले कुछ महीनों में आश्रम में तरह-तरह के रंग बिरंगे लोगों को जमघट का और संन्‍यासियों के आसपास प्रात: जो जीवंत अनुभूति होती है, उसका आभाव था। बस थोड़े से लोग गोवा दीवानों विदेशी पर्यटक थे जो भारत भ्रमण के लिए निकले थे। और उत्‍सुकतावश आश्रम देखने के लिए आए थे। जो कुछ बिलकुल नए संन्‍यासी और कुछ बहुत पुराने जरा-जीर्ण संन्‍यासी थे।
      उन कुछ सप्‍ताहों में मैंने देखा कि सभागार में ओशो हमारे साथ इस समग्रता और इस पूरी शक्‍ति से नाचते जिसका प्रति संवेदन हमारी समझ से परे था। वे पूरे वातावरण को विद्युत से ऊर्जा कर रहे थे। अपने प्रवचनों में आग बरसा रहे थे। मैं देख रही थी। कि वे एक बार फिर से शुरू कर रहे थे। वे हमारे साथ अ,, स से शुरू कर रहे थे। वे जो भी जादू निर्मित कर रहे थे। वह काम करता था। संन्‍यासी पहुंचना शुरू हो गए थे। पहले कुछ हिचकते हुए। पिछले कुछ दिन प्रत्‍येक संन्‍यासी के लिए कठिन थे और अब वे अपना घर नौकरी कार छोड़ने के लिए तैयार थे। फिर भी सैकड़ों लोग सब छोड़कर अपनी आंखें ओर ह्रदय खुले रख यहां पहूंच गये थे। उनके साथ-साथ ओशो ने हमें बताना शुरू किया कि वे विश्‍व की स्‍थिति के सम्‍बंध में क्‍या महसूस करते है: द मसाया में खलील जिब्रान पर बोलते हुए उन्‍होंने कहा.....परंतु खलील जिब्रान ने अपने सपनों को किसी भी प्रकार से साकार करने की चेष्‍टा नही की। मैंने कोशिश की है और अपनी उंगलियां जला ली है।
      और जैसे कि मैं पूरे विश्‍व में गया मेरी खोज एकदम स्‍पष्‍ट हो गई। यह मानव जाति विनाश के कगार पर खड़ी है। सम्‍भवत: कुछ लोग बचाए जा सकें और मैं उनके लिए नोहा का आर्क (चेतना का) निर्मित करता हूं। यह जानते हुए कि जब तक यह नोहा का आर्क तैयार होगा तब तक शायद ही कोई बचे। शायद वे सब अपने-अपने रास्‍ते जा चुके हो।
      ओशो ने रेज़र्स एज़ में पाँच कारण दिये। जो यह बताते है कि विश्‍व का विनाश अवश्‍यम्‍भावी है। 1. अणु शास्‍त्र 2. जनसंख्‍या वृद्धि 3. एड्स 4. इकोलॉजी का नष्‍ट हो जाना 5. मनुष्‍य का जाति गत राष्‍ट्र गत वे धर्म गत भेदभाव।
      उन्‍होंने कहा कि विश्‍व में दो सौ बुद्धों की आवश्‍यकता है। लेकिन कहां से आएंगे। ये लोग। उनका जन्‍म तुममें से ही हो जाना चाहिए। तुम्‍हें ही वे दो सौ लोग होना होगा। और तुम्‍हारा विकास इतना धीमा है। कि भय है तुम्‍हारे बुद्ध होने से पूर्व ही संसार नष्‍ट हो जाये।
      तुम ध्‍यान में, साक्षी में अपनी पूरी शक्‍ति नहीं लगा रहे हो। तुम्हारे बहुत से कामों में से यह भी एक काम है। जो तुम कर रहे हो और यह तुम्‍हारे जीवन को प्राथमिकता भी नहीं है।
      मैं चाहता हूं कि यह तुम्‍हारे लिए प्राथमिकता बन जाये। केवल एक ही उपाय है कि मैं यह बात तुम्‍हारे भीतर गहरे से पहुंचा दूं कि संसार समाप्‍त हो जाने वाला है। तुम्‍हारे ऊपर महान दायित्‍व है। क्‍योंकि पूरे संसार में और कहीं भी लोग बुद्धत्‍व प्राप्‍त करने, ध्‍यान पूर्ण, प्रेमपूर्ण होने का प्रयास नहीं कर रहे है। छोटे-छोटे समूहों में भी नहीं। हम विश्‍व सागर में एक छोटा सा द्वीप है। परंतु इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि थोड़े से लोग भी बचाए जा सकें तो मानवता की सारी विरासत को, सारे संतों की विरासत को, सारे बुद्धों की विरासत को बचाया जा सकता है।
      इसे गले से नीचे उतारना कठिन था।
      सर्जनों ने ओशो से पूछा: यह मेरे ह्रदय के भीतर हंसी की अंतर्धारा क्‍या है हर बार मुझे लगता है कि आप पूरे विश्‍व को हमारे विकास के लिए निर्मित के रूप में प्रयोग कर रहे हो। या फिर पूरे विश्‍व के लिए निर्मित बना रहे हो?
      ओशो: सर्जनों तुम्‍हारे ह्रदय के भीतर इस हंसी को रोकना होगा। यह निर्मित नहीं है। अब किसी भी निर्मित के लिए समय नहीं है। तुम्‍हारी हंसी बुद्धि द्वारा दिया गया एक तर्क मात्र है। तुम यह मानना ही नहीं चाहते हो कि संसार का अंत आने वाला है। क्‍योंकि तुम बदलना ही नहीं चाहते। तुम चाहते हूं कि मैं कहूं कि यह एक उपाय है। ताकि तुम आश्‍वस्‍त हो सको। पुराने ढर्रे पर चल सको। चैन से जी सको। परंतु मैं तुमसे झूठ नहीं बोल सकता।
       यदि मैं किसी चीज कसे विधि की भांति प्रयोग करता हूं तो तुम्‍हें बता देता हूं कि यह एक विधि है। परंतु यह न तो विश्‍व को तुम्‍हारे माध्‍यम से रूपान्‍तरित करने और विश्‍व द्वारा तुम्‍हें रूपांतरित करने का साधन है। मैं तो एक दुखद तथ्‍य बता रहा हूं। तुम्‍हारी हंसी और कुछ भी नहीं बस उस प्रभाव को जो मैं निर्मित करने की चेष्‍टा कर रहा हूं उसे मिटा रही है। उस सरल कर देना चाहती है।
      अन्‍य किसी भी बात पर हंसी, परंतु अपने रूपांतरण की बात पर मत हंसों। तुम्‍हारी हंसी अचेतन है जो तुम्‍हें धोखा देना चाहता है। निकल कर आ रही है। जो कह रहा है कि यह नहीं कुछ और घटेगा, तुम्‍हें चिंतित होने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। यह बात मैं तुम्‍हारे भीतर गहरे में डाल देना चाहता हूं। कि हम मार्ग के अंतिम छोर पर जो पहुंचे है। और सिवाय नृत्‍य और उत्‍सव के कुछ नहीं बचा है। तुम्‍हारा आज बनाने के लिए में तुम्‍हारे कल पूरी तरह नष्‍ट कर देना चाहता हूं। मैं तुम्‍हारे मन से सब वे सब छीन लेना चाहता हूं जो तुम्‍हारे गहरे भविष्‍य के साथ जूड़े है।
      हेराक्‍लटस कहता है, तुम उस नदी में एक बार भी नहीं उतर सकते।
      अंत: पूना जैसा कुछ भी नहीं है।
      जनवरी 1987 के प्रारम्‍भ में जब मैं पूना पहुंची तो मुझे लगा कि मैं सौ वर्ष जी चुकी हूं। मैंने कितने ही जीवन जी लिए थे। कितने ही मरण देख लिए थे। मैंने उपवनों को फूलों से भरे भी देख लिया था और उसे उजड़ते हुए भी देखा था। और ओशो अब भी उसी दश में कार्यरत थे ......वे अब भी हमें उस पथ पर ले जाने का प्रयास कर रहे थे जो उनके शब्दों मे हमारा जन्‍मसिद्ध अधिकार है। वह है बुद्धत्‍व।
      इन तीन वर्षों में 1987 से 1990 के दौरान ओशो अड़तालीस पुस्‍तकें बोले और यह सोचकर कि उस समय विधि के एक तिहाई भाग वे बीमार थे। अचम्‍भा होता है।
      ओशो ने मुम्‍बई में चार महीने बिताए और 4 जनवरी प्रात: 4 बजे पूना आश्रम पहुँचे। जबकि ओशो कार की पिछली सीट पर सो रहे थे आश्रम के ड्राइव-वे पर संन्‍यासी उनका अभिवाद करने के लिए पंक्‍तिबद्ध खड़े थे। वे  जागे और कम्‍बल से निकले बिना उन्‍होंने हाथ हिलाया और मुझे वे एक छोटे से शिशु के समान लग रहे थे। जिसे आधी रात को जगा दिया गया हो।
      तीन घंटे बाद पुलिस ओशो को पूना में प्रवेश करने से रोकने के लिए एक आदेश पत्र लेकर आ पहुंची। यह आदेश पत्र ओशो को पूना में प्रवेश के  बाद दिया जाना था। यदि वह आदेश पत्र उन्‍हें पहले ही दे दिया गया तो इसका अर्थ था कि ओशो ने पूना में प्रवेश करके कानून का उल्‍लंघन किया है। ओशो मार्ग की गर्मी और भारी ट्रैफिक से बचने के लिए मुम्‍बई से निकल पड़े थे। और पुलिस कुछ घंटो से उन्‍हें चूक गई थी। वे लोग बलपूर्वक आश्रम में और फिर लाओत्‍सु भवन पहुंचकर ओशो के शयन कक्ष में घुस गए। जहां वे अब सो रहे थे। ओशो जब सो रहे होते तो कभी कोई उनके कमरे में नहीं गया था; यह अनाधिकार प्रवेश अपमानजनक प्रतीत हो रहा था। मैं विवेक, राफिया तथा मिलारेपा के साथ ऊपर सीढ़ी पर खड़ी थी। विदेशी होने के नाते हम बीच में नहीं आये। लक्ष्‍मी और नीलम ही पुलिस से बात चीत कर रही थी। सीढ़ियों पर खड़े हम ओशो के कमरे से आ रही उँची आवाजें सुन रहे थे—वह ओशो की आवाज थी। वह ऊंची आवाजें दस मिनट तक आती रहीं, फिर विवेक नीचे उतरी और ओशो के कमरे में जाकर उसने पुलिस से पूरा कि या वे एक कप चाय पीना पसंद करेंगे। उसने बताया कि ऐसा लगा जैसे उन्‍हें इस बात से राहत मिली हो। उनकी इतनी दुर्दशा हो चुकी थी कि जितनी उन्‍होंने सोची भी नहीं थी। जब उससे बचने का अवसर पाकर वे प्रसन्‍न थे।
      10 जनवरी के प्रवचन में हमें ओशो ने बताया कि उस दिन क्‍या हुआ था। मैं मुम्‍बई में था। एक नेता ने जो किसी शक्‍ति शाली पार्टी का अध्‍यक्ष था वे मुख्‍यमन्‍त्री को पत्र लिखा तथा उसकी एक प्रतिलिपि मुझे भी भेजी। उस पत्र में मुख्‍यमंत्री को बताया गया था कि मेरी उपस्‍थिति मुम्‍बई के वातावरण को प्रदूषित कर देगी।
      मैंने कहा, हे भगवान क्‍या कोई मुम्‍बई को भी प्रदूषित कर सकता है। पूरे विश्‍व में सबसे खराब नगर.....मै चार महीने वहां रहा, मैं एक बार भी बाहर नहीं गया, यहां तक कि अपनी खिड़की से भी बाहर कभी नहीं देखा। मैं पूरी तरह बंद कमरे में रहा फिर भी दुर्गंध आती थी। ऐसे लगता था जैसे किसी शौचालय में बैठे हो। यह मुम्‍बई है।
      और फिर मेरे एक संन्‍यासी जिसके घर पर चार महीने मेहमान था—के ऊपर दबाव डाला गया कि यदि उसने मुझे अपने घर से नहीं हटाया तो उसे उसके परिवार और मेरे सहित उसके को जला दिया जाएगा।
      कई बार आश्‍चर्य होता है कि यह बात हंसने की है या रोने की।
      शनिवार रात को मैंने मुम्‍बई छोड़ा और अगली सुबह मेरे मेज़बान के घर को बंदूकों से लैस पन्‍द्रह पुलिसवालों ने घेर लिया।
      मैं मुंह अंधेरे प्राय: चार बजे यहां पहुंचा और तीन घंटों के भीतर पुलिस यहां थी। मैं सोया हुआ था। ज्‍यों ही आंखे खोली दो पुलिसवालों को अपने बेडरूम में पाया।
      मैंने कहा, मैं कभी सपने नहीं देखता विशेष रूप से दु:ख स्वप्न । ये मूढ़ मेरे कमरे में कैसे आ गए। मैंने पूछा, क्‍या तुम्‍हारे पास तलाशी के लिए वारंट है। उनके पास नहीं था। तो फिर तुम मेरे निजी कमरे में कैसे प्रविष्‍ट हुए। उन्‍होंने कहा, हमने आपको एक आदेश पत्र देना था।
      कभी-कभी आश्‍चर्य होता है कि हम सोए शब्‍दों को प्रयोग करते है। क्‍या नोटिस देने का यह ढंग है। क्‍या जनता की सेवा का यह तरीका है। ये सब जनता के सेवक है। हम उन्‍हें वेतन देते है। उन्‍हें सेवकों की भांति व्‍यवहार करना चाहिए.....परंतु वे मालिकों की भांति व्‍यवहार करते है।
      ‘……और नोटिस में....मैंने कहा। इसे पढ़ो कि मेरा अपराध क्‍या है। मैं केवल तीन घंटे से सोया हुआ हूं। क्‍या ये अपराध है। उनमें एक बोला, आप विवादास्‍पद व्‍यक्‍ति है। और पुलिस कमिश्‍नर को लगता है कि आपकी उपस्‍थिति से नगर में हिंसा हो सकती है।
      ....ओर नोटिस में.....मैंने कहा, पढ़ो इस में मेरा अपराध। मेरा अपराध है कि मैं विवादास्पद आदमी हूं। लेकिन क्‍या तुम मुझे बता सकते हो कि कहीं कोई ऐसा प्रज्ञावान व्‍यक्‍ति हुआ जो विवादास्पद नहीं रहा हो। विवादास्‍पद होना कोई अपराध नहीं है। वास्‍तव में मानव चेतना का विकास विवादास्‍पद व्‍यक्‍तियों पर निर्भर करता है। सुकरात, जीसस, गौतम बुद्ध, महावीर, बोधिधर्म, जरस्‍थुस्‍त्र....कबीर,  नानक....। वे भाग्‍य शाली थे उनमें से किसी ने पूना में प्रवेश नहीं किया।
      पुलिस अफसर ने असभ्य ढंग से व्‍यवहार किया। मैं अपने बिस्‍तरे पर लेटा था। और वह नोटिस मेरे मुंह पर फेंकता है। मैं ऐसा व्‍यवहार सहन  नहीं कर सकता। मैंने तुरंत नोटिस को फाड़ा और फेंक दिया। और उन पुलिस अफसरों को कहा की जाओ और अपने कमिश्‍नर को बताओ।
      मैं जानता हूं कि सरकार द्वारा भेजा गया नोटिस फाड़कर नहीं फेंका जाना चाहिए। लेकिन हर बात की एक सीमा होती है। पहली बात कानून को भी व्‍यक्‍ति के प्रति मानवीय और आदरपूर्ण होना चाहिए। उसके बाद उसे व्‍यक्‍ति से आदर की अपेक्षा करनी चाहिए।
ओशो
दि मसाया भाग—1,
      बुद्धत्‍व और कुछ नहीं बस तुम्‍हारी चेतना का एक बिंदु पर केन्‍द्रित होना है अभी और यहीं।
      ‘….मेरा इस बात पर बल कि कोई भविष्‍य नहीं है, उदास होने की कोई बात नहीं है। यदि तुम भविष्‍य का विचार पूरी तरह छोड़ दो तो तुम्‍हारा बुद्धत्‍व उसी क्षण सम्‍भव है। और भविष्‍य का विचार छोड़ने का यह अच्‍छा अवसर है। क्‍योंकि भविष्‍य अपने से ही समाप्‍त हो रहा है। परंतु अपने मन किसी कोने में भी यह विचार संभालकर मत रखना कि शायद यह एक उपाय है। ये मन की चालाकियां है। तुम्‍हें मूर्ख बनाए रखने के लिए।
(दि हिडनस्‍पलैंडर)
      विश्‍व की दशा पर ऐसे हिला देने वाले प्रवचनों के साथ-साथ ओशो हमें चुटकुले सुनाते और मज़ाक करते। ओशो के साथ हमें जीवन को गम्‍भीरता से लेने की इजाज़त नहीं थी। ईमानदारी से लेकिन गम्‍भीरता से नहीं। वे प्रवचनों के दौरान आनंदों को खूब छेड़ते और भूत प्रेतों की बातों से चिढ़ाते। जब वे उसके कमरे में से गुजर कर सभागार में आते तो एक दूसरे से छेड़छाड़ करने का वही सबसे उपयुक्‍त समय होता। प्रवचन के बाद लोगों को अपने प्रवचन से अचम्‍भित सा कर ओशो सभागार से  जाने के लिए उठते बाएं घूमते एक शरारत भरी मुस्‍कान लिए आनंदों के बाथरुम में जाते। वे जानते थे कि वहां अपने टब में वह सो रही होगी। (च्‍वांगत्‍सु सभागार प्रवचन के समय इतना भर जाता कि सब बारी-बारी से जाते,अंत: आनंदों अपने टब में कम्‍बल और तकिया समेत लेटकर कर प्रवचन सुनती)
       ओशो को उसके दरवाज़े पर दस्‍तक देना और फिर इसकी चीख सुनना अच्‍छा लगता था। और एक बार वह बाथरुम की अलमारी में छिप गई। उस अलमारी की पीठ दिखावटी थी। ज्‍यों ही वे उसके कमरे से गुज़रे उसने बाथरुम के दरवाज़े से अपना हाथ निकालकर हिलाया। वे बाथरुम में गए और देखा वहां कोई नहीं था। उन्‍होंने अलमारी की पीठ को धक्‍का दिया वह गिर गई। आनंदों पकड़ी गई। उसकी हंसी की चीखें सुनाई दी और बाहर गलियारे में आश्‍चर्यचकित लोगों की भीड़ खड़ी थी। मुझे ओशो के ये खेल बहुत प्रिय थे। क्‍योंकि इनमें मुझे वे कहानियां याद आती थी। जिनमें ओशो ने अपने बचपन की शरारतों का उल्‍लेख किया था। उन्‍हें शरारतें अच्‍छी लगती थी। जो बदले में उनके साथ की जातीं और आनंदों यह सब करने के लिए उपयुक्‍त व्‍यक्‍ति थी।
      प्रत्‍येक रात्रि आनंदों के कमरे में दरवाजे पर खटखट की आवाज़ सुनाई देती जिससे वह डर जाती। ओशो इस बात को लेकर उसे चिढ़ाते रहते। एक बार मध्‍य रात्रि के समय ओशो ने मुझे बुलाया और कहां कि मैं जाकर उसका दरवाजा खटखटाऊं और फिर धीरे से दरवाजा खोलूं और पहिए वाली कुर्सी पर पुरूषों जैसे वस्त्र पहने पुतले को उसके कमरे में धकेल दूं। हमारे पास एक पुतला था। आनंदों ने ही उसे बनवाया था। वह एक टाँग दूसरी पर रखे समाचार पत्र पढ़ते दिखाई देता था। उसे गलियारे बिठा दिया गया था। ताकि सुबह प्रवचन के लिए जाते समय ओशो का उससे आमना सामना हो सके। मैंने ओशो को कभी चौंकते नहीं  देखा। वह अवसर भी अपवाद नहीं था। कितने वर्षों तक दिन में दो बार इस गलियारे से गुजरकर वे च्वांगत्सु सभागार में जाते रहे। तथा इस बात का प्रात: जब ओशो ने वहां एक व्‍यक्‍ति को इस तरह बैठे समाचार पत्र पढ़ते देखा जैसे की कोई अपनी बैठक में बैठा हो। उन्‍होंने उसे दोबारा भी नहीं देखा। वे केवल मुस्‍कुराये ओर समीप से देखने के लिए पास से गुजर गये। लेकिन मुझे सफलता मिली जब मैंने उस भूत को आनंदों के कमरे में धकेल दिया। दरवाजे पर मेरी दस्‍तक से वह जाग गई थी। उसने जब अर्द्ध-निन्‍द्रा की अवस्‍था में उसे देखा जिसे वह बाहर से आती रोशनी पड़ रही थी। अंधेरे में अपनी ही रचना को वह पहचान नहीं सकी। और चीख पड़ी।
      कितना विनोदपूर्ण, कितना शिशु वत, कितना अगम्‍भीर,  कितना जीवंत है ज़ेन मार्ग।
      जब मैं ओशो की देखभाल करती उनके प्रति श्रद्धा के कारण चुप रहती जिसे ओशो मौन कहते। मेरे पास शायद ही कोई समाचार या बात सुनाने के लिए होती और जब वे मुझसे पूछते, संसार में क्‍या हो रहा है?तो मेरे पास कहने को कुछ भी नहीं होता। क्‍योंकि मेरा संसार तो केवल इतना था के कौन से पेड़ों पर कौन से नए पत्‍ते आए है। और पैराडाइंज फ्लायकैचर बाग़ में घूमता है या नहीं।
      आनन्दो यथार्थ में जीती थी। और उसके साथ हंसी-मजाक भी करती थी। वह आश्रम के भीतर और बाहर के सब समाचार उनको सुनाती थी। एक दिन मैंने उसे ओशो के साथ राजनीति के बारे में चर्चा करते सुना, भारतीय राजनीति के बारे में उसका समझ प्रभावशाली थी; और उसे सभी दलों के नाम मालूम थे। वह और ओशो उन दो मित्रों की भांति बातें करते, जिनके मित्र व शत्रु साझे हों। मुझे लगता कि आनन्दो ने और मैंने एक अच्‍छा संतुलन बनाया हुआ था।
      विवेक दोनों थी; वह हम दोनों के व्‍यक्‍तियों को समाएँ हुए थी। ओशो के साथ उसका सम्‍बन्‍ध मेरे लिए सदा रहस्‍य बना रहा क्‍योंकि वह बहुत पुरातन प्रतीत होता था। इन तीन वर्षों में वे कितनी बार चली गई, परंतु हर बार जब वह लौटती ओशो उसका स्‍वागत करते और उसी समय चुनाव उस पर छोड़ देते कि वह उनकी परिचर्या करना चाहती है या नहीं। आश्रम में कुछ भी करने की उसकी स्‍वतंत्रता के बारे में कोई प्रश्‍न नहीं उठता था। यह अपवाद के कोई नियम नहीं होता और ओशो का व्‍यवहार किन्‍हीं दो व्‍यक्‍तियों के प्रति एक समान नहीं होता। दो व्‍यक्‍तियों द्वारा पूछे गए एक जैसे प्रश्‍न के दो बिल्‍कुल विपरीत उत्‍तर भी हो सकता है।
      इस समय के दौरान हम ओशो की देखभाल एक टीम की तरह कर रहे थे। अब यह एक ही व्‍यक्‍ति का कार्य नहीं रह गया था क्‍योंकि उनका स्‍वास्‍थ्‍य ठीक नहीं था और वे दुर्बल हो गए थे। आनन्‍दो और मेरे साथ ओशो के चिकित्‍सक अमृतो का अच्‍छा तालमेल बैठ गया था। यद्यपि वह ब्रिटिश और उस पर पुरूष था परंतु अब वह अधिकाधिक स्‍त्रैण होता जा रहा था हालांकि उसकी दृष्‍टि भावुकता रहित और स्‍पष्‍ट थी। ओशो को लेकिर मैंने उसमें कभी कोई संकोच या अस्‍वीकार का भाव नहीं देखा और ओशो ने बहुत बार उसके सम्‍बन्‍ध में कहा कि वह अति विनम्र व्‍यक्‍ति है।
      ओशो को दांतों में तकलीफ़ होने लगी; लगभग तीन सप्‍ताह तक उन्‍हें दांतों के इलाज के लिए कई सैशन लेने पड़े। गीत, डैंटल नर्स नित्या मो, अमृतो, आनन्‍दो और मैं इन सैशनों में उपस्‍थित रहते।
      एक दिन एक सैशन के समय मैं ओशो की कुर्सी के पास बैठी था और उन्‍होंने मुझसे कहा, बकबक बंद करो, चुप हो जाओ उनका क्‍या अभिप्राय था, मैं समझ न पाई। मैं जितना चुप बैठ सकती थी वह मैं बैठी हुई थी। मैंने सोचा कि मैं ध्‍यान कर रही थी। लेकिन ध्‍यान मेरे लिए बिल्‍कुल नई बात थी और मुझे कभी पक्‍का विश्‍वास नहीं हो सकता कि मैं जो अनुभव करती थी वह ध्‍यान था या मेरी कल्‍पना। ज़रा सा संकेत मिलने पर कि जिसे मैं ध्‍यान समझ रही थी, वह ध्‍यान नहीं था तो मैं कह उठती, भाड़ में जाए यह ध्‍यान, और प्रयास करना भी छोड़ देती। उसकी बजाय किसी उद्देश्‍य किसी प्रयोजन के बारे में सोचने लगती, जैसे कि मैं जानबूझकर किसी चित्र या ऐसा ही कुछ और जो मैं करना चाहती था उसकी योजना बनाती। ध्‍यान का मेरा अनुभव यह बताता है कि यह बहुत ही सुकोमल और भंगुर स्‍थिति है। अत: शीध्र ही यह विचार आता कि, यह सब बकवास है। शुरू-शुरू में ऐसा होता है और मैं कई वर्षों तक मेरे ध्‍यान की शुरूआत पर ही रही।
      अत: यद्यपि मैं सोचती कि मैं ध्‍यान कर रही, ओशो मुझसे कहते,चुप हो जाओ, बकबक करना बंद करो। मैं बहुत उलझन में पड़ जाती और क्रोधित हो उठती। वे कहते मेरा मन निरंतर बकबक कर रहा था। और उन्‍हें परेशान कर रहा था, लेकिन मैं उनका अभिप्राय समझ न पाती।
      सात दिन से अधिक यह सब चलता रहा। और हार रोज मैं आँख बंद करती और उस बिंदु तक पहुंचने के प्रयास में अपने भीतर गहरे में जाने की कोशिश करती जहां ओशो यह न कह सकें कि मुझे परेशान मत करो। बाकी सारा दिन में शांत रहती लेकिन फिर सैशन शुरू होता और मैं तनाव से भर जाती। मैं बहुत अशांत और क्रुद्ध थी और एक दिन उन्‍होंने वहां उपस्‍थित दूसरे लोगों से कहा।
      तुम देखते हो चेतना मुझसे कितनी नाराज है। 
      मैं अपने में सोचती, वे मेरी ही बात क्‍यों उठते है। क्‍या अन्‍य सभी अपने मन का अतिक्रमण कर चुके है। क्‍या उनमें से प्रत्‍येक व्यक्ति मौन मैं है।
      वास्‍तव में मुझे इसी कारण क्रोध आ रहा था कि एक मैं ही वहां ऐसी थी जो ध्‍यान करने में असमर्थ थी।
      दो सप्‍ताह बीत गए और मैं इस बकबक करने और शोर करने के कारण बहुत परेशान थी। अंतत: एक दिन ओशो ने मुझे कुर्सी के दूसरी और बैठने के लिए कहा। सैशन के दौरान वे उस खाली स्‍थान की और मुड़े जहां में बैठती थी। और बोले, चुप हो जाओ और बकबक मत करो। जब सैशन समाप्‍त हुआ तो उन्‍होंने कहा की वह मैं नहीं थी जो उन्‍हें परेशान कर रही थी, परंतु उस स्‍थान पर एक भूत था। उन्‍होंने कहा की कभी-कभी कोई प्रेतात्‍मा का भूत किसी के शरीर का उपयोग कर सकता है। और मैं उसके लिए ग्रहणशील वाहन बन गई थी। वह मुझे बकबक करने के लिए उपयोग में ला रहा था। और उन्‍होंने कहा, खाना पकाने वालों को मत बताना ’( रसोईघर बिल्‍कुल साथ था) खाना पकाने वालों को मत बताना नहीं तो वह डर जाएंगे। और काम करना नहीं चाहेंगे। उन्‍होंने कहा कि वे एक दिन भूतों के विषय में चर्चा करेंगे।
      मेरे विचार में स्‍वप्‍नों की भांति भूत-प्रेतों को भी गम्‍भीरता से नहीं लेना चाहिए। वे भी इन्‍द्रधनुष के दूसरे रंग है। एक दूसरा आयाम है जिनका हमे कभी-कभी पता चलता है।
      जब मुझे इस बात का स्‍पष्‍ट अनुभव होता है। कि मेरा भीतरी जगत अभी अज्ञात क्षेत्र है और चौबीस घंटे ध्‍यान करने की हम बातें ही करते है तब मुझे समझ में आता है कि क्‍यों ओशो गुह्म और भूत-प्रेतों के जगत की बात पर अधिक बल नहीं देते। मैं इस दुनिया में गुम हो सकती थी। और अब भी वह कितना भी रहस्‍यपूर्ण क्‍यों न हो मुझसे बाहर है। वह मेरे बोध को विकसित करने में सहायक न होगा।
      कुछ और ऐसे आयाम भी है जो कभी-कभार दिखाई देते है और उन्‍हें समझाया नहीं जा सकता। लेकिन वे है। उदाहरण के लिए विचार। वे किस तत्‍व से बने है?
      यह कैसे सम्भव है कि लोगों के विचार पढ़े जा सकते है। जब कि विचार पदार्थ का हिस्‍सा नहीं है।
      एक दिन जब मैं आनन्‍दो के बाथरुम में बंद हो गई और सहायता के लिए पुकार रही थी। ओशो नींद से जाग गए। शायद उन्‍होंने वास्‍तव में मेरी आवाज न सुनी हो। लेकिन बाद में उन्‍होंने किसी समय मुझसे पूछा कि क्‍या हुआ था और मैं क्‍यों पूकार रही थी।
      उन्‍होंने बताया कि हमारे मन में कई बार ऐसे विचार होते है जिनके बारे में हमें पता ही नहीं होता
      जब से मैं ओशो के साथ थी, पहली बार ओशो के प्रवचनों की कड़ी टूटने लगी। कभी-कभी वे इतने दुर्बल होते कि प्रवचन देने के लिए बाहर न आ पाते। उनके जोड़ों में इतना दर्द रहने लगा कि कई बार पूरा दिन बिस्‍तर पर पड़े रहने के सिवाय कोई चारा न रह जाता। मैंने कई बार ओशो को ऐसी स्‍थितियों में देखा है जो इस बात की पुष्‍टि करती है कि वे पीड़ा से पूरी तरह अलग हो सकते है। जैसा कि एक बार उनका दाँत निकाला गया था और उसी दिन दो घंटे का प्रवचन देने आए। एक अन्‍य अवसर पर अनु बुद्धा द्वारा जो आश्रम में शरीर पर कार्य करता था, मालिश के बाद उनके कंधे के जोड़ में टीका लगाया जा रहा था। अनु बुद्धा और मैं फ़र्श पर बैठे ओशो से बातचीत कर रहे थे। और उधर डॉक्‍टर टीका तैयार कर रहा था। वह टीका लगाना बड़ा कठिन और पीड़ा दायी था। डॉक्‍टर हड्डियों के बीच जोड़ के सही स्‍थान को ढूंढ़ नहीं पा रहा था। उसने बहुत बार कोशिश की। हर बार जब सुई भीतर जाती अनु बुद्धा और मैं आंखें बंद कर लेते। और ओशो आराम से हमारे साथ बात करते रहते। न तो उनकी सांस की गति बदली और नहीं उनके चेहरे पर कोई परिवर्तन आया। ओशो ने अनु बुद्धा से कहा कि वास्‍तव में बुद्ध पुरूष पीड़ा के प्रति अधिक संवेदनशील होता है। और फिर भी वह अनुभव कर सकता है वह इससे अलग है। मैंने कभी उन्‍हें चिंतित वह भयभीत होते नहीं देखा और मैं जानती हूं कि मुझे हमेशा पीड़ा का मानसिक भय होता है।
      नवम्‍बर, 1987 में ओशो के कान में साधारण-सी इंफैक्‍शन थी लेकिन जिसे ठीक होने में लगभग दो अढ़ाई महीने लग गए। पूना के एक सर्जन द्वारा कितनी ही बार एंटीबायोटिक्स के टीके लगते रहे और कान की शल्‍य चिकित्‍सा भी की गई। वह समय था जब उनके चिकित्‍सकों को संदेह हुआ कि सम्‍भव: उन्‍हें विष दिया गया है।
      ओशो के रक्‍त बाल तथा पेशाब के नमूने एक्‍सरे तथा उनकी पूरी मेडिकल हिस्‍टोरी के साथ रोग विज्ञानियों तथा विशेषज्ञों द्वारा परीक्षण करने के लिए लंदन भेजे गए। और विस्‍तृत व सम्‍पूर्ण जांच के बाद उनका मत यही था कि ओशो जिन लक्षणों से प्रभावित थे वे यही बताते थे कि उन्‍हें थैलीयम जैसी भारी धातु द्वारा विषाक्‍त किया गया था जब वे अमरीकन सरकार द्वारा बंदी बनाए गए थे।
     
(माई डायमंड डे विद ओशो) हीरा पायो गांठ गठियायो)

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