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शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-08

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
जिन खोजा तिन पाइयां-(प्रवचन-आठवां)

पहला प्रश्न: भगवान,
मैं क्या करूं? मेरे लिए क्या आदेश है?
दिनकर,
मैं करने पर जोर नहीं देता हूं। मेरा जोर है होने पर। कृत्य तो बाहरी घटना है--मनुष्य के जीवन की परिधि है, केंद्र नहीं। और परिधि को हम कितना ही सजा लें, आत्मा वैसी की वैसी दरिद्र की दरिद्र ही बनी रहती है। लेकिन सदियों से यह अभिशाप मनुष्य की छाती पर सवार रहा है: यह करने का भूत--क्या करें! नहीं कोई पूछता कि मैं कौन हूं। बिना यह जाने कि मैं कौन हूं, लोग पूछे चले जाते हैं--क्या करूं? फिर तुम जो भी करोगे गलत होगा। भीतर तो अंधेरा है; फिर नाम चाहे तुम दिनकर ही रखो, कुछ भेद न पड़ेगा। आंखें तो अंधी हैं, फिर चाहे तुम चश्मा ही लगा लो, तो भी किसी काम नहीं आएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन आंखों के डॉक्टर के पास गया था। आंखों की जांच चलती जाती और बार-बार वह पूछता कि डॉक्टर साहिब, चश्मा बन जाएगा तो मैं पढ़ने तो लगूंगा न? डॉक्टर ने उसे कई दहा कहा कि बड़े मियां, कितनी बार कहूं? जरूर पढ़ने लगोगे। एक दफा ठीक-ठीक नंबर का चश्मा बन जाए, क्यों नहीं पढ़ोगे!

नसरुद्दीन सुनता, लेकिन भरोसा न कर पाता। फिर थोड़ी देर में पूछता कि आप सच कहो, पढ़ने लगूंगा, फिर से पढ़ने लगूंगा? डॉक्टर ने कहा कि तुम होश में हो या पागल हो? तुम्हारी आंखों का इलाज करवाना है या दिमाग का? कितनी बार कहूं, लिख कर दे दूं?
नसरुद्दीन ने कहा: "मैं इसलिए बार-बार पूछता हूं कि असल में पढ़ना मुझे आता नहीं। तो चश्मा बन जाएगा, पढ़ने तो लगूंगा न?'
पढ़ना न आता हो तो चश्मा भी बन जाएगा तो कैसे पढ़ोगे? और आंख ही न हो, फिर चश्मे पर चश्मे लगाए चले जाओ, तो और बोझ हो जाएगा। न गिरते होते तो भी गङ्ढों मैं गिरोगे। ये चश्मे महंगे पड़ जाएंगे।
लेकिन यही आदमी कर रहा है। यह तो जानने में लगता नहीं कि मैं कौन हूं; मेरा अस्तित्व क्या है; यह मेरे भीतर जो चैतन्य है, इसका स्वरूप क्या है; यह जो मेरे भीतर जीवन की ज्योति जल रही है, इससे पहचान करूं। फिर इस पहचान के बाद तुम्हारे जीवन में गलतियां अपने-आप तिरोहित हो जाएंगी। क्योंकि जिसने अपने को जाना वह गलत करने में असमर्थ हो जाता है। और जिसने अपने को नहीं जाना वह ठीक करने में असमर्थ होता है।
मत पूछो कि मैं क्या करूं। अभी तो यह पूछो कि मैं कौन हूं। अभी तो आत्म-परिचय बनाओ।
आत्मा केंद्र है, कृत्य परिधि है। चूंकि हम परिधि पर ही जीते हैं, इसलिए हमारे प्रश्न भी परिधि से ही संबंधित होते हैं, तो कब्रों को भी चाहो तो सफेद चूने से पोतो, सुंदर रंगों में रंगों, क्या होगा?
जीसस ने बार-बार कहा है कि तुम पुती हुई कब्रों जैसे हो। बाहर से तो यूं साफ-सफेद दिखाई पड़ते हो और भीतर सब सड़ा-गला। लेकिन आचरण पर तुम्हारे तथाकथित संत-महंत, महात्मा, साधु, वे सब जोर देते हैं। उसकी भाषा में और तुम्हारी भाषा में भेद नहीं है। उनको तल में और तुम्हारे तल में भेद नहीं है। वे भी बाहर पीठ करके दौड़ते हैं, अगर दौड़ते दोनों हैं। और दोनों की दौड़ का कारण धन होता है। तुम पद के लिए दौड़ते हो, वे पद से बचने के लिए दौड़ते हैं; लेकिन दोनों की दौड़ बुनियाद में महत्वाकांक्षा होती है। रुकोगे कब? ठहरोगे कब? कृत्य तो दौड़ाए ही रखेगा, दौड़ाए ही रखेगा।
कृत्य का अर्थ ही है: "अब क्या करूं, अब क्या करूं, अब और क्या करूं?'
मेरा जोर आचरण पर नहीं है, आत्मा पर है। ठहरो, करने की जल्दी नहीं है कुछ। जानो। और फिर उस जानने में से अपने-आप करना निकलेगा। और अभी तक तुमने बहुत कुछ किया होगा। यह प्रश्न तुम पहली बार नहीं पूछ रहे होओगे। और-और न मालूम कितनों से पूछा होगा। पूछ-पूछ कर ही यहां आए होओगे। कितना तो कर चुके, पूजा भी की होगी, पाठ भी किए होंगे, यज्ञ-हवन किए होंगे, तीर्थयात्राएं की होंगी, मंत्र जपे होंगे, यंत्र साधे होंगे, क्या-क्या नहीं किया होगा! अभी करने से थके नहीं? कब थकोगे? प्रभु करे, जल्दी थको! समझदार आदमी जल्दी थक जाता है। देख लेता है कि दौड़ता व्यर्थ है, जब तक मैं पहचान न लूं कि मैं कौन हूं। फिर बिना दौड़े भी पहुंचना हो जाता है।
सुनो ठीक से। मैं कह रहा हूं, फिर बिना दौड़े भी पहुंचना हो जाता है। क्योंकि जहां पहुंचना है वहां तुम हो ही। वहां से तुम एक इंच कभी दूर नहीं हटे। वह तुम्हारी आत्यंतिक निजता है, तुम्हारा स्वभाव है। कहीं जाना नहीं है जो दौड़ना पड़े। वहीं आना है जहां हम हैं। भूल हो गयी है, विस्मरण हो गया है। सुरति चाहिए, स्मृति चाहिए। पुनः स्मरण चाहिए।
कुछ करना नहीं है--जागना है! और जागना कोई कृत्य नहीं है। लेकिन हमारी भाषायें हैं और भाषायें सुनिश्चित हो जाती हैं।
सेठ चंदूलाल मारवाड़ी एक मनोवैज्ञानिक को मिलने गए, क्योंकि बहुत चिंता, बहुत संताप, बहुत विषाद में थे। मित्रों ने समझाया; परिवार वालों ने धक्के दिए। मगर जाते नहीं थे, टालते थे, क्योंकि फीस बहुत थी। यूं तो सेठ हैं, धन की कुछ कमी नहीं। मगर मारवाड़ी सेठ भी हो तो भिखारी से भी ज्यादा भिखारी होता है। आखिर एक मित्र थक गया, उसने कहा। "पैसे मैं चुका दूंगा, फीस मेरे ऊपर रही।'
तो चंदूलाल जाने को राजी हुए। गए। मनोवैज्ञानिक ने बात शुरू की। पूछा: "सेठ चंदूलाल, मनुष्य पर किस प्रकार के भावों का सबसे घातक प्रभाव पड़ता है?'
चंदूलाल ने कहा: "बाजार के भावों का।'
एक सुनिश्चित ढांचा होता है। एक चिंतना की प्रक्रिया हो जाती है। एक बंधी हुई भाषा हो जाती है। उसको बदलने की भी कोशिश करो तो कुछ फर्क नहीं पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर लौटा। घर में छाया हुआ मातम, उदासी। सहमा, डरा, भीतर प्रवेश करते झिझका। रात उतर आयी है और दीया जला नहीं। अनुमान लगा लिया कि आज जरूर कोई बुरी खबर सुनने को मिलेगी। जैसी ही पत्नी दिखी, उसने कहा कि सुन, पहले ही सुन ले। देख, मैं दिन भर का परेशान लौटा हूं, बहुत तरह की मुसीबतें आज झेली हैं। नौकरी से हथ गंवा बैठा हूं, जेब कट गयी है। अदालत में मुकदमा हार गया हूं। और क्या-क्या कहूं! आत्महत्या तक का विचार मेरे मन में आने लगा है। ऐसी स्थिति में कोई बुरी खबर मत सुनाना।
पत्नी बोली कि मैं क्यों बुरी खबर सुनाऊंगी! हमारे सात बच्चे हैं, उनमें से छः अभी भी जिंदा हैं।
ऐसे कहो कि वैसे कहो। एक बच्चा मर गया, ऐसा कहो; या ऐसा कहो कि हमारे सात बच्चे हैं, उनमें से छः अभी भी जिंदा हैं--क्या भेद पड़ेगा?
मिलिट्री के जनरल ने अपने एक कर्नल को बुलाया और कहा कि देखो, लालीराम की मां मर गयी है, तो जरा आहिस्ता से, प्रेम से, ढंग से उसे सूचना देना, क्योंकि लालीराम नाजुक तबीयत का आदमी है, कहीं सदमा ज्यादा न खा जाए। अगर अब इस खबर को कैसे कहो कि मां मर गयी! कर्नल गया, उसने कहा: "ऐ लालीराम के बच्चे, कुछ पता है, बड़ी अकड़ से चले जा रहे हो! अरे मां चल बसी!'
लालीराम वहीं ढेर हो कर गिर पड़ा। जनरल ने बुला कर कहा कि मैंने समझाया था, फिर भी तूने वही नालायकी की। देख, आगे कभी कोई मौका आए तो आहिस्ता-आहिस्ता कोई बात कहनी चाहिए। संयोग की बात, सात दिन बाद लालीराम के पिता भी चल बसे। जनरल ने फिर कर्नल को बुलाया और कहा कि देख, फिर अवसर आ गया। और लालीराम का ही मामला है, पिता चल बसे। अब जरा सम्हल कर बात कहना। और धीरे-धीरे कहना, टुकड़े-टुकड़े में कहना, ऐसी क्या जल्दी करना एकदम से कि आदमी ढेर ही हो जाए!
कर्नल ने भी कहा कि नहीं, मैंने सब सोच रखा है। जाकर सब सिपाहियों को कहा, लाइन में खड़े हो जाओ। और फिर कहा कि जिनके पिता जिंदा हैं, वे एक कदम आगे बढ़ें। स्वभावतः लालीराम भी बढ़ा। कर्नल ने कहा: "बेटा लालीराम, इतने जल्दी नहीं, धीरे-धीरे बढ़ो! इतने विश्वास से मत बढ़ो, आहिस्ता, इतनी जल्दी न करो।'
कैसे भी कहो, बात वही हो जाएगी। लोगों की तर्कसरणी निश्चित हो जाती है। तुम्हारी भी तर्कसरणी निश्चित हो गयी है।
एक अध्यापक शिकार को गए, अपने बेटे को भी साथ ले गए। जंगल में दूर निकल गए और रास्ता भूल गए। आखिर गुस्से में आ कर बच्चे को मारने लगे। शिक्षक ही जो ठहरे। शिक्षक को गुस्सा आए तो क्या करें! बच्चों को मारता है। पति को गुस्सा आए, पत्नी को मारता है। पत्नी को गुस्सा आए, बच्चों को। बच्चों को गुस्सा आए, खिलौनों को तोड़ देते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि शिक्षक वे ही लोग होते हैं जो जानते हैं भलीभांति कि और किसी को तो जिंदगी में सता न सकेंगे, छोटे-छोटे बच्चों को ही सता सकेंगे, हो जाओ शिक्षक। यह धंधा अच्छा है। पीटने लगा अपने बेटे को और बोला: "हरामजादे, मैं तो रास्ता भूल गया हूं, इसलिए भटकता फिर रहा हूं। लेकिन तू क्यों नहीं घर जाता? तू तो घर जा।'
तुम पूछते हो दिनकर: "मैं क्या करूं?' कुछ मत करो। घंटे दो घंटे को करना बिलकुल छोड़ दो, अक्रिया में उतर जाओ।
एक मित्र पत्र लिखे थे कि मैंने क्रिया-योग में दीक्षा ले ली हैं। मैंने कहा: "क्रिया-योग तो तुम्हारी जिंदगी भर तुम्हें सताता रहा, अब और क्रिया-योग में दीक्षा ले ली!'
हमारे स्वामी योग चिन्मय हैं, उनका पहले नाम था--क्रियानंद। पता नहीं  किस मूढ़ ने उनको यह नाम दे दिया--क्रियानंद! अक्रियानंद हैं वे बिलकुल! मगर क्रिया-योग में दीक्षा ले ली थी, तो क्रियानंद कहलाते थे।
दिनकर, अक्रिया साधो। अगर चौबीस घंटे में एक घंटे के लिए भी अक्रिया सध जाए तो जीवन-सत्य दूर नहीं है, बहुत निकट है। एक घंटे कुछ करो ही मत। राम-राम भी मत जपना, माला भी मत फेरना। मंत्र भी मत पढ़ना। एक घंटा कुछ करना ही न, पड़ रहना। योगासन इत्यादि वगैरह भी मत साधना।
एक से एक योगासन दुनिया में प्रचलित हैं! अभी-नए-नए योगासन निकले हैं। एक नाम है--चमचासन।
सबसे पहले सीधे खड़े हो जाइए। मुंह पर भोलापन और आंखों में मक्कारी लाइए। फिर क्रमशः भोलापन को दीनता में बदलिए और मक्कारी को चाटुकारिता में परिवर्तित कीजिए। अब टांगों को सीधा रख कर धीरे-धीरे झुकते हुए नासिका को जमीन पर पहले से रखे हुए जूतों पर रगड़िए। और गहरी-गहरी श्वास लीजिए। कुहनियों को पेट से सटा कर दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम की मुद्रा बनाइए। जब तक जूते हटा न लिए जाएं तब तक सीधे खड़े मत होइए। प्रारंभ में इस आसन में कठिनाई होती है और स्वाभिमान आड़े आता है, किंतु एक सप्ताह के निरंतर अभ्यास से स्वाभिमान का सत्यानाश हो जाएगा और साधक एक सुयोग्य चमचा बन कर आशातीत लाभ उठाएगा।
चमचासन के लाभ--
नहीं नौकरी मिल रही बैठे हो बेकार।
चमचासन की कृपा से, हो जाए उद्धार।।
हो जाए उद्धार, उदासी दूर भगाओ।
बिना परिश्रम इनक्रीमेंट प्रमोशन पाओ।।
चमचासन से मुफ्त नौकरी मिल सकती है।।
पुराने आसन तो थे ही थे, नए और जुड़ते जा रहे हैं! दूसरा और एक नया आसन मैंने सुना है--क्लर्कासन। यह आसन कुर्सी पर और मेज की सहायता से होता है। सर्व प्रथम कुर्सी पर तन कर बैठ जाइए, बिलकुल सीधे बैठ जाइए! और मस्तिष्क में फाइलों की कल्पना करिए। दाहिनी काल्पनिक फाइलों को बाएं हाथ में उठा कर बाई और रखने जैसी क्रिया कीजिए। पुनः दाहिने हाथ से बायीं फाइल को झटके के साथ दाहिनी और फेंकने का उपक्रम कीजिए। अब एक काल्पनिक सिगरेट को दो अंगुलियों के बीच दबाकर श्वास अंदर खींचकर कुंभक कीजिए। अर्थात धुएं को भीतर रोकिए, फिर उसी धुआं मिश्रित श्वास का नासिका-रंध्रों द्वारा रेचन कीजिए। संपूर्ण क्रिया को पांच बार दोहराइए। अंतिम बार रेचक क्रिया करते समय मुंह को गोल बना कर जैसी अंग्रेजी का ओ बोलते समय बनाया जाता है, झटके से सांस छोड़िए ताकि वायुमंडल में धुएं के वर्तुलाकार छल्ले तैरने लगें। तब दोनों हाथों को कुर्सी के हत्थों पर टिका कर दोनों पैरों को सिकोड़कर उठाइए और आहिस्ता-आहिस्ता मेज पर लंबे हो कर आराम फरमाइए। आप चाहें तो खर्राटे भी भर सकते हैं।
क्लकार्सन के लाभ--
घर से दफ्तर को चलो, कर नाश्ता भरपेट।
उलटो पलटो फाइलें, सुलगाओ सिगरेट।।
सुलगाओ सिगरेट, इत्र का फाहा सूंघो।
पांव मेज पर फैलाकर, जी भर कर ऊंघो।।
घर बच्चों के कारण, रह गया रेस्ट अधूरा।
दफ्तर में हो जाए, नींद का कोटा पूरा।।
ओवरटाइम बने, प्राप्त हों दुगुने पैसे।।
न तो पुराने, न नए--किसी आसन, किसी क्रिया, किसी धार्मिक विधि में मत उलझ जाना। तुम आतुर दिखते हो उलझने को। मुझसे पूछते हो कि मैं क्या करूं! मुझसे पूछो कि मैं कौन हूं। करने से कैसे जानोगे कि तुम कौन हो? करने से तो तुमने क्या किया, यह पता चलेगा। चोर को पता चलेगा चोरी का, दुकानदार को पता चलेगा। दुकानदारी की, प्रार्थना करने वाले को पता चलेगा प्रार्थना की। लेकिन चोर प्रार्थना कर सकता है। प्रार्थना चोर बना सकती है। दुकानदार प्रार्थना कर सकता है। प्रार्थना करने वाला दुकानदारी कर सकता है। कृत्य तो हजार हो सकते हैं, लेकिन तुम एक हो। तुम्हारा केंद्र एक है। परिधि तो बड़ी हो सकती है और प्रत्येक जीवन की परिधि बहुत बड़ी है। लेकिन सदियों का रोग है। हमें यही सिखाया गया है।--यह करो वह करो, ऐसा करो वैसा करो, इतने बजे उठो इतने बजे सोओ, यह खाओ वह पीओ, ऐसे बोलो ऐसे उठो। बस इसी गोरखधंधे में लोग लगे हैं और सोचते हैं उनका जीवन धार्मिक हो रहा है। जीवन हाथों से खिसका जा रहा है। जीवन के धार्मिक होने की एक ही संभावना है कि उसको पहचान लो जो सब करने के पीछे बैठा है; जो सब कृत्य का साक्षी हैं; कर्ता नहीं है, साक्षी है, सिर्फ द्रष्टा है। न कर्ता न भोक्ता--बस द्रष्टा।
ये तीन शब्द समझने जैसे हैं। कर्ता--सबसे बाहर। भोक्ता--थोड़ा भीतर। और द्रष्टा--सबसे भीतर। कर्ता की बजाए भोक्ता होना बेहतर की बजाए द्रष्टा होना बेहतर। क्योंकि जितने तुम भीतर आते हो, उतने अपने ही करीब नहीं आते, परमात्मा के भी करीब आते हो।
और पूछा कि मेरे लिए क्या आदेश है? मैं आदेश तो देता नहीं। सच पूछो तो मैं उपदेश भी नहीं देता। महावीर ने कहा है: तीर्थंकर आदेश नहीं देते, उपदेश देते हैं। मैं उपदेश भी नहीं देता। आदेश-उपदेश का भेद समझ लो, तो तुम्हें यह भी समझ में आ जाएगा कि मैं उपदेश भी क्यों नहीं देता। आदेश का अर्थ होता है--स्पष्ट सूचना, निर्देश, ऐसा करो। उसका जोर कृत्य पर होता है। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठो--यह आदेश। उपदेश थोड़ा नाजुक, इतना स्पष्ट नहीं, इतना सीधा नहीं। उपदेश का अर्थ होता है--मुझे देखो। उपदेश का शाब्दिक अर्थ होता है--मेरे पास बैठ। उप यानी पास देश--स्थान। मेरे पास बैठो। अर्थ उपासना का होता है, वही उपदेश का। जो अर्थ उपवास का होता है, उपनिषद का होता है, वही उपदेश का।
महावीर ने कहा है कि तीर्थंकर आदेश नहीं देते। वे किसी को नहीं कहते कि ऐसा करो, क्योंकि प्रत्येक की स्वतंत्रता को वे अंतिम मूल्य देते हैं। लेकिन तीर्थंकर उपदेश देते हैं। उपदेश का अर्थ: मेरे पास बैठो, देखो, समझो, पहचानो। फिर उसके अनुसार जीओ।
यह परोक्ष आदेश हुआ। मैं ब्रह्ममुहूर्त में उठता हूं और तुम मेरे पास उठोगे, बैठोगे तो तुम भी ब्रह्ममुहूर्त में उठने लगोगे। मैंने कभी कहा नहीं कि ब्रह्ममुहूर्त में उठो, सीधे-सीधे नहीं कहा। लेकिन मेरे पास रहोगे...तो मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति अनुकरण की है जैसा देखता है वैसा करने लगता है। जिनके संग होता है उन जैसा हो जाता है। चोरों के साथ रहोगे, चोर हो जाओगे। साधुओं के साथ रहोगे, साधु हो जाओगे। मगर न चोर होने में कुछ बड़ा मूल्य है और न साधु होने में बड़ा मूल्य है। क्योंकि दोनों हालत में तुमने अनुकरण ही तो किया। भेद क्या है?
मैं तुमसे कहता हूं: न मैं आदेश देता, न उपदेश देता। मैंने जो जाना है, जो मैंने जीया है, उसे सिर्फ अभिव्यक्त कर देता हूं। फिर तुम्हारी मौज है, तुम्हारी मर्जी। करने जैसा लगे, करना; न करने जैसा लगे, न करना। अनुकूल न पड़े, न करना। न तो तुम करोगे तो मैं प्रसन्न होऊंगा और न तुम न करोगे तो मैं अप्रसन्न होऊंगा। मेरी कोई अपेक्षा ही नहीं है।
मेरे संन्यासियों से मेरी कोई अपेक्षा नहीं है। मैं अपना जीवन तुम्हारे सामने खोल कर रख देता हूं। मैं अपनी जीवन-दृष्टि तुम्हारे समाने उघाड़ देता हूं। और मैं तुम्हारा धन्यवादी हूं, क्योंकि तुमने मेरी जीवन-दृष्टि को समझने योग्य समझा। तुमने इस योग्य भी समझा कि मेरे दो शब्द सुनते। तुम मानो, यह तो सवाल ही नहीं उठता। मैं कौन हूं जो तुम्हें कहूं कि मानो? और अनजाने ढंग से तुम्हें मनाऊं, यह भी सवाल नहीं उठता, क्योंकि वह भी राजनीति हो जाएगी।
जैसे दीया जलता है; अब उसकी रोशनी का तुम्हें जो करना हो वह कर लो। फूल खिलता है; उसकी गंध का तुम्हें जो करना हो कर लो। न कोई आदेश है, न कोई उपदेश है। प्रार्थना है। प्रार्थना कर सकता हूं--न आदेश, न उपदेश। निवेदन कर सकता हूं--न आदेश, न उपदेश।
इक न इक शमअ अंधेरे में जलाए रखिए
इक न इक शमअ अंधेरे में जलाए रखिए
सुबह होने को है माहौल बनाए रखिए
जिनके हाथों से हमें जख्मों निहां पहुंचे हैं
वो ही कहते हैं कि जख्मों को छपाए रखिए
इक न शमअ अंधेरे में जलाए रखिए
कौन जाने कि वे किस राहगुजर से गुजरे
कौन जाने कि वो किस राहगुजर से गुजरे
हर गुजर-राह को फूलों से सजाए रखिए
इक न इक शमअ अंधेरे में जलाए रखिए
दामने यार की जीनत न बने हर आंसू
अपनी पलकों के लिए कुछ तो बचाए रखिए
इक न इक शमअ अंधेरे में जलाए रखिए
कौन जाने कि वो किस राहगुजर से गुजरे
कौन जाने कि वो किस राहगुजर से गुजरे
हर राहगुजर को फूलों से सजाए रखिए
इक न इक शमअ अंधेरे में जलाए रखिए
और शमा तो जल ही रही है। जलाए रखिए, यह कहना भी शायद ठीक नहीं। लेकिन शमा जल रही है भीतर और आंखें तलाश रहीं बाहर; इससे तालमेल नहीं हो पाता। शमा कहीं, तुम कहीं। शमा भीतर, तुम बाहर। जरा भीतर लौट कर देखना शुरू करो।
दिनकर, घड़ी दो घड़ी, चौबीस घंटे मैं चुप बैठे रहो, कुछ न करो। लेट रहो, पड़े रहो, जैसे हो ही नहीं शून्यवत! और उसी शून्य में धीरे-धीरे भीतर की शमा स्पष्ट होने लगेगी, धुआं कट जाएगा। और जिस दिन भीतर का धुआं कटता है, आंखें स्पष्ट देखने में समर्थ हो जाती हैं--उस दिन तुम परमात्मा हो, सारा अस्तित्व परमात्मा है। और वह अनुभूति आनंद है, मुक्ति है, निर्वाण है।

दूसरा प्रश्न: भगवान
इस देश की युवतियां पश्चिम से आए फैशनों का अंधानुकरण करके अपने चरित्र का सत्यानाश कर रही हैं, जिससे अंततः समूचे समाज का नैतिक पतन होगा। इस अंधा अनुकरण को रोकने के उपाय बताने की अनुकंपा करें।

शकुंतला पाराशर,
ऐसा लगता है तुम गलत जगह आ गईं। यह बात तुम्हें करपात्री महाराज से पूछनी चाहिए, पुरी के शंकराचार्य से पूछनी चाहिए, आचार्य तुलसी से पूछनी चाहिए, कानजी स्वामी से पूछनी चाहिए। देश में महात्मा ही तो महात्मा हैं। यहां कौन है जो महात्मा नहीं है? संतों की भीड़ है।
गलत कह गए पुराने लोग कि संतों के नहीं लेहड़े, सिंह न चलें जमात। गलत! बिलकुल गलत! यहां तो लेहड़े ही लेहड़े हैं संतों के। चले जाओ कुछ के मेला और लेहड़े ही लेहड़े। हर तरह के संत, तरहत्तरह के संत। हर प्रकार के संत। तुम इसी तरह के लोगों से सत्संग करती रही हो मालूम होता है। मेरे जैसा आदमी से यह तुम्हारी पहली मुलाकात लगती है। नहीं ऐसा नहीं प्रश्न भूल कर भी तुमने उठाया न होता। अब तुम ने उठा ही लिया है तो मैं भी क्या करूं?
पहली तो बात, इस भ्रांति को छोड़ दो कि तुम्हारा समाज कोई नैतिक समाज है, कि इसका पतन हो जाएगा। इसका पतन हो ही नहीं सकता। असंभव है, क्योंकि और नीचे क्या गिरोगे? नीचे गिरने को जगह भी तो चाहिए।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन बहुत दुखी बैठा था। मैंने पूछा: "क्या हुआ नसरुद्दीन?' हाथ में पट्टियां बंधी थीं।..."कोई झगड़ा हो गया, मारपीट हो गयी? पत्नी ने ज्यादा मार दिया या कोई दुश्मनों ने लूट लिया, क्या हुआ? हाथ का क्या हुआ?' दोनों हाथों में पट्टियां बंधी हैं।
नसरुद्दीन ने कहा: "कुछ मत पूछिए। दुर्भाग्य है। बस दुर्भाग्य, अब और कुछ ज्यादा क्या कहना! थोड़ा कहा और ज्यादा समझना।'
मैंने कहा कि मेरा मामला उलटा है। मेरा मामला यूं है कि बहुत कहा और थोड़ा समझा। तुम मुझे जरा विस्तार से कहो।
तो उसने कहा: "अब क्या विस्तार से कहूं? कल चंदूलाल की पत्नी से प्रेम कर रहा था। ऐसी कोई नयी बात नहीं, जग-जाहिर है। सभी जानते हैं, चंदूलाल भी जानता है। मगर कल न मालूम दुष्ट को क्या चढ़ा, एकदम आया अंदर, दरवाजा खटखटाया। उसकी पत्नी बोली: "नसरुद्दीन, भागो! खिड़की से कूद जाओ! चंदूलाल आ गए!' सो मैं घबड़ाहट में, कपड़े तक नहीं पहना और एकदम खिड़की पर जा कर...अंधेरा सो कूदने की हिम्मत भी न हुई। सो खिड़की के चौखटे को पकड़ कर मैं लटक रहा बहार, कि थोड़ी-बहुत देर में चंदूलाल कहीं जाएगा, बाथरूम में जाएगा, कुछ भी होगा, तो अपने कपड़े ले कर भाग खड़ा होऊंगा। मगर उस दिन अगर मालूम उसे क्या धुन सवार हुई थी, और होती भी क्यों नहीं, क्योंकि मेरे कपड़े उसको वहीं रखे मिल गए। उसने कहा, ये कपड़े किसके हैं? पत्नी ने कहा कि क्या कोई मैं दुनिया भर का हिसाब रखती हूं कि किसके कपड़े हैं? अरे होंगे किसी के! इन कपड़ों पर किसी का नाम लिखा है, तुम्हारे ही होंगे!
चंदूलाल तो भन्ना गया। एकदम सब दरवाजे द्वार खोल-खोल कर खोजने लगा। बाथरूम, अलमारियां तक छान डालीं, पेटियां तक खोल लीं, जिनमें आदमी घुस ही नहीं सकता ऐसे छोटे-छोटे बक्से भी खोल डाले। सब सामान तितर-बितर कर दिया और आखिर में उसने आखिर खिड़की खोली। और तो कुछ नहीं दिखा अंधेरे में, मेरे दोनों हाथ चौखटे पर दिखाई पड़ गए। उसने कहा: "तो ठीक! तो ये रहे सज्जन!" ले आया एक एक हथौड़ा और एक-एक अंगुली पर मारे और कहे--जय बजरंग बली!'
तो मैंने कहा: "यह तो बात सच में दुर्भाग्य की है। दुख की बात है।'
"अरे'--उसने का--"यह तो कुछ भी नहीं है। अभी दुख की बात आयी ही नहीं!'
मैंने कहा: "अरे, तुम्हारी अंगुलियां तोड़ रहा है हथौड़े से!'
उसने कहा: "यह कुछ भी नहीं। एक अंगुली उसने मेरी पिचल डाली, फिर दूसरी पिचल डाली, तीसरी पिचल डाली, चौथी पिचल डाली, पांचवीं। गिनती कर-करके और कहे--जय बजरंग बली! और कैसा आनंदित हो रहा, कैसा प्रफुल्लित हो रहा! उसको मैंने इतना प्रफुल्लित कभी देखा ही नहीं। जब उसने नौ अंगुलियां मेरी कुचल डालीं...।'
मैंने कहा: "यह तो सच में दुख की बात है।'
"अरे'--उसने कहा--"दुख की बात अभी आयी ही नहीं जी। जब उसने मेरी दसवीं अंगुली पर हथौड़ा मारा और जब मेरी दसों अंगुली चौपट कर दीं...।'
मैंने कहा: "यह तो बड़े दुख की बात है।'
उसने कहा: "आप बीच-बीच में बोल देते हैं दुख की बात है, अभी दुख की बात आयी ही नहीं!...जब दसवीं अंगुली भी मेरी उसने तोड़ डाली और धड़ाम से मैं नीचे गिरा तो मैं चकित हुआ कि वहां गिरने को कुछ था ही नहीं। मैं जमीन पर ही खड़ा था। मुश्किल से इंच भर फासला था मुझमें और जमीन में। तब मैंने अपनी खोपड़ी पीट ली कि अपने अंगुलियां नाहक बरबाद करवायी, गिरने को जगह ही नहीं थी। मगर अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था।'
ये सदियों पुराना अंधेरा है, शकुंतला पाराशर। इसमें तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा कि यहां गिरने को है क्या! इस देश से ज्यादा भ्रष्ट चरित्र और कहीं होगा? हां, यह बात जरूर है कि इस देश का चरित्र इतना भ्रष्ट है कि यह अपने चरित्रवान तक घोषित करने की हिम्मत रखता है। यह भ्रष्टता का लक्षण है। इसमें इतनी निष्ठा भी नहीं है, इतनी ईमानदारी भी नहीं है कि स्वीकार कर ले अपनी भ्रष्टता को। यह बेईमानी की हद है। यहां चोर साधु हैं। यहां बेईमान राजनेता हैं। यहां सब तरह के दुष्ट, क्रूर हिंसक गांधीवादी बने बैठे, अहिंसक हो गए हैं। यहां सब तरह से जिनका हृदय अंधेरे से भरा है, कालिख से, उन्होंने शुद्ध खादी के कपड़े पहन रखे हैं। जगमग-जगमग हो रहे हैं! किस देश के नैतिक पतन की बातें कर रही हो? और यह मत सोच लेना कि मैं आज की बात कर रहा हूं। ऐसा कोई समय नहीं रहा इस देश में, जब इस देश में कोई नैतिक ऊंचाई रही हो। तुम अपने सारे पुराण उठा कर देख डालो। मगर किसको पड़ी देखने की! शायद इसी डर से हम देखते भी नहीं कि कहीं कोई ऐसे तथ्य न मिल जाएं कि हमारी भ्रांतियां टूट जाएं। नहीं तो तुम्हारे पुराणों में जितनी सड़ी-गली कथाएं हैं, दुनिया के किसी साहित्य में नहीं हैं। और जैसी अनैतिक तुम्हारे देवताओं, तुम्हारे महात्माओं और ऋषि-मुनियों के जीवन में घटनाएं हैं, कोई दूसरा देश इतनी हिम्मत नहीं कर सकता कि उनको पुराणों में सम्मिलित करे।
कृष्ण कितने लोगों की स्त्रियों को चुरा लाए, वे कोई आधुनिक थे तुम समझती हो? कोई केम्ब्रिज में कि आक्सफोर्ड में पढ़े थे? लेकिन हमने स्वीकार कर लिया। न केवल स्वीकार कर लिया, बल्कि पूर्णावतार घोषित कर दिया। सोलह हजार स्त्रियों को इकट्ठा कर लिया जिस व्यक्ति ने, उसको हमें पूर्णावतार कहने मैं जरा भी संकोच न हुआ। जरा आज किसी की गगरी में कंकड़ तो मारो और किसी का माखन तो चुराओ और किसी के कपड़े तो चुरा कर झाड़ों पर चढ़ जाओ...! अरे खुद की पत्नी के ही कपड़े तो जरा चुराकर झाड़ पर चढ़  जाओ, वही तुम्हारी ठठरी बांध देगी। ऐसा शोरगुल मचाएगी कि सारा मुहल्ला इकट्ठा हो जाएगा। मगर नहीं, इस सबका नाम रासलीला! प्रभु लीला कर रहे हैं! और जब प्रभु लीला कर रहे हैं तो छोटे-मोटे महात्मा क्यों न करें? आखिर यह भी तो उसी थैली के चट्टे-बट्टे हैं, छोटे ही सही। और जब इनको भी लीला करनी है तो बड़े लीलाधर को कैसे इनकार करें! थैली फट जाए तो ये चट्टे-बट्टे भी नीचे गिर जाएं।
तुम जरा अपना इतिहास तो उठा कर देखो, अपने ऋषि-मुनियों की कथाएं तो उठा कर देखो। उनके जीवन में तुम्हें ऋषि-मुनियों जैसा कुछ भी न मिलेगा। तुम दुर्वासा जैसे व्यक्ति को भी ऋषि कहते हो! शर्म भी नहीं, संकोच भी नहीं! सब तरह के भ्रष्ट लोग, क्रोधी, कामी, लोभी, इनको तुम ऋषि-मुनि कहते हो!
और तुमने स्त्रियों के साथ जो व्यवहार है पांच हजार सालों के इतिहास में, इससे ज्यादा अमानवीय व्यवहार कहीं भी नहीं हुआ। खुद राम ने सीता के साथ दर्ुव्यवहार किया है। और रामराज्य की बातें करते तुम अघाते नहीं। रामराज्य को फिर से लाना चाहते हो! महात्मा गांधी को यह झक सवार थी कि फिर रामराज्य आना चाहिए, जैसे एक बार रामराज्य देख कर तुम्हारा मन नहीं भरा! राम ने शूद्र के कानों में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया! अग्नि-परीक्षा ली हुई पत्नी को--कहीं मेरी प्रतिष्ठा और मेरे अहंकार को चोट न लगे--गर्भवती स्त्री को जंगल में छुड़वा दिया! यह सब तुम स्त्री के साथ करते रहे। स्त्री को नरक का द्वार...और स्त्री की कैसी कुत्सित चर्चा की है कि आश्चर्य होता है कि स्त्रियां बर्दाश्त करती रहीं! स्त्रियां ही इन महात्माओं की सबसे ज्यादा सेवा करती हैं। स्त्रियों को इनकी गर्दन दबा देनी चाहिए। स्त्रियों को महात्माओं को खदेड़ कर गांव के बाहर कर देना चाहिए। स्त्रियां एक बार तय कर लें तो महात्मा कहीं टिक नहीं सकते। पति की कोई हैसियत है कि महात्मा को घर में टिका ले? स्त्रियों की वजह से महात्मा टिके हुई हैं। पति तो वैसे ही नहीं टिकाना चाहते कि यह और एक लफंगा कहां से आ गया! मगर पत्नी ले आयी है तो अब ठीक है। अगर ज्यादा गड़बड़ करो तो महात्मा तो यहीं टिकेंगे, पति को निकाल बाहर करेगी। पति हो जाएंगे लावारिस और महात्मा यहीं बसेंगे। सो बेहतर यही है कि सह-अस्तित्व को मान लो कि ठीक है भई...पत्नी जिसके पैर छुए उसके पति भी पैर छूता है। और भी जोर से छूता है। पत्नी को भी राजी रखना है।
तुम कहती हो: "इससे समूचे समाज का नैतिक पतन होगा।' नहीं हो सकता तुम्हारा नैतिक पतन। असंभव है।
मैंने सुना है कि एक राजनेता एक मनोवैज्ञानिक से चिकित्सा करवा रहा था। उसने कहा कि मैं हीनता-ग्रंथि से पीड़ित हूं। तीन महीने तक चिकित्सा के बाद एक दिन जब पहुंचा राजनेता चिकित्सक के पास, चिकित्सक ने उससे कहा कि बिलकुल प्रसन्न हो जाएं आप, आनंदित हों! आज उत्सव मनाएं, हो जाए दीवाली! चले होटल में, मेरी तरफ से आज आपको नाश्ता करवाना है। पक्का हो गया मेरे विश्लेषण से कि आपको हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होने का कोई भी कारण नहीं।
राजनेता भी बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा: "लेकिन आपने पहले कभी नहीं कहा! तीन महीने बाद कहा!'
तो उसने कहा: "पहले खोजबीन करनी पड़ी। आज ही मुझे पक्का पता चला है कि आप हीनता ग्रंथि से पीड़ित हो ही नहीं सकते, क्योंकि आप तो हीन हैं ही। हीनता की ग्रंथि से तो वह पीड़ित हो जो हीन न हो। आप तो आखिरी दर्जे के हैं, इसके नीचे तो कोई दर्जा ही नहीं होता। आपको तो कोई गिराना भी चाहे तो नहीं गिरा सकता। गिराएगा कहां? गिराने की कोशिश में यह हो सकता है कि कहीं चढ़ा बैठे!'
मैं नहीं देखता कि इस देश का कोई नैतिक स्तर है या कभी रहा है। जिनको तुम धर्मराज युधिष्ठिर कहते हो, वे भी अपनी स्त्री को दांव पर लगा सके। और फिर भी धर्मराज कहे जाते हो! तुम्हें कभी विचार भी नहीं उठता कि और क्या भ्रष्टता होगी--जो अपनी स्त्री को भी जुए पर लगा दे! एक तो जुआ खेलना भ्रष्टता, फिर स्त्री को भी जुए पर लगा दे, दांव पर लगा दे--इसकी भ्रष्टता की तो हद हो गयी! और वहीं मौजूद हैं बड़े-बड़े ज्ञानी। भीष्म पितामह! महाज्ञानी! जिनसे अर्जुन मरते समय ज्ञान लेने पहुंचता है--वही अर्जुन, जो इसके पहले कृष्ण से गीता का ज्ञान ले चुका; गीता ज्ञान लेने के बाद भी भीष्म पितामह से ज्ञान लेने पहुंचता है। मतलब गीता-ज्ञान भी उतना ऊंचा नहीं है, जितना ऊंचा ज्ञान-भीष्म-पितामह का है। और ये बैठे रहे चुपचाप, मजे से देखते रहे सारा खेल। नमक हलाल थे! बड़े ज्ञानी रहे होगे! इनके मुंह से यह भी न निकला कि यह क्या अन्याय हो रहा है! स्त्री को दांव पर लगा रहे हो, स्त्री कोई संपत्ति है? कोई जर-जेवरात है?
लेकिन हमारे देश में ऐसे ही गिनती होती रही--जर, जोरू, जमीन, झगड़े की जड़ तीन; उसमें जर, जोरू, जमीन, इनको एक साथ गिनाया है। जमीन हो कि धन हो कि औरत--बस ये झगड़े को तीन जड़ हैं।
तुमने स्त्री को कभी आत्मा की तरह स्वीकार किया? नहीं, स्त्री को कहते हैं--स्त्री-संपदा, स्त्री-संपत्ति। कन्या को बाप विवाह करता है तो दान में देता है--कन्यादान। न किसी को विरोध उठता, न किसी को हैरानी होती। हम आदी हो गए इस अनीति के।
पांडवों ने एक स्त्री को बांट लिया--पांच भाइयों ने। और किसी को अड़चन नहीं है। किसी ऋषि-मुनि को एतराज नहीं है। और तुम्हें फिक्र अब पड़ रही है कि "इस देश की युवतियां पश्चिम से आए फैशनों का अंधानुकरण करके अपने चरित्र का सत्यानाश कर रही हैं।' कौन-सा चरित्र? किस चरित्र की बात हो रही है? किसी चरित्र के लिए घबड़ा रही हो कि इसका नाश हो जाएगा?
पश्चिम की स्त्री के पास एक चरित्र है, जो तुम्हारी स्त्री के पास नहीं है। क्योंकि पश्चिम की स्त्री ने स्पष्ट घोषणा कर दी है कि मनुष्य के साथ मेरा अधिकार समान है। यह चरित्र है! तुम्हारी स्त्री के पास क्या चरित्र है? वह तो कहती है पति को कि "मैं आपके पैरों की जूती, दासी!' यह चरित्र है? यह आत्मवान होना है? पश्चिम की स्त्री ने पहली दफा दुनिया में स्त्रियां को गौरव दिया है। लेकिन तुम्हारे चरित्र की धारण ही और है। तुम्हारे चरित्र के हिसाब ही और, तुम्हारे मापदंड ही और हैं। बस तुम्हारे चरित्र का तो कुल इतना हिसाब होता है कि एक ही पति के साथ जिंदगी भर बंधी रहे, तो चरित्र है। और पति कुछ करे। इतनी वेश्याएं कैसे चलती हैं? कौन चलाता है? पति ही चलाते होंगे। या तुम सोचते हो छोटे-छोटे बाल-बच्चे चलाते हैं? ये उन्ने-मुन्ने, जो स्कूल में पढ़ते हैं, ये चलाते हैं? ये पति ही चलाते होंगे इतनी वेश्याएं। ये जगह-जगह जो वेश्याओं के अड्डे जमे हैं, ये कौन चलाता है? लेकिन मर्द मर्द है! वह जो भी करे ठीक है, स्त्री की बात और है।
तुम्हारे चरित्र का एक ही अर्थ होता है बस कि स्त्री पुरुष से बंधी रहे, चाहे पुरुष कैसा ही गलत हो। हमारे शास्त्रों में इसकी बड़ी प्रशंसा की गयी है कि अगर कोई पत्नी अपने पति की--बूढ़े, मरते, सड़ते, कुष्ठ रोग से गलते पति को भी--कंधे पर रख कर वेश्या के घर पहुंचा दी तो हम कहते हैं: "यह है चरित्र! देखो, क्या चरित्र है कि मरते पति ने इच्छा जाहिर की कि मुझे वेश्या के घर जाना है और स्त्री इसको कंधे पर रख कर पहुंचा आयी।' इसको गंगा जी में डुबा देना था, तो चरित्र होता। यह चरित्र नहीं है, सिर्फ गुलामी है। यह दासता है और कुछ भी नहीं।
पश्चिम की स्त्री पहली दफा पुरुष के साथ समानता के अधिकार की घोषणा। की है। इसको मैं चरित्र कहता हूं। लेकिन तुम्हारी चरित्र की बड़ी अजीब बातें हैं। तुम इस बात को चरित्र मानते हो कि देखो भारतीय स्त्री सिगरेट नहीं पीती और पश्चिम की स्त्री सिगरेट पीती है। और भारतीय स्त्रियां पश्चिम से आए फैशनों का अंधा अनुकरण कर रही हैं! अगर सिगरेट पीना बुरा है तो पुरुष का पीना भी बुरा है। और अगर पुरुष को अधिकार है सिगरेट पीने का तो प्रत्येक स्त्री को अधिकार है सिगरेट पीने का। कोई चीज बुरी है तो सबके लिए बुरी है और नहीं बुरी है तो किसी के लिए बुरी नहीं है। आखिरी स्त्री को क्यों हम भेद करें? क्यों स्त्री के अलग मापदंड निर्धारित करें? पुरुष अगर लंगोट लगा की नदी में नहाए तो ठीक और स्त्री अगर लंगोटी बांध कर नदी में नहाए तो चरित्रहीन हो गयी! ये दोहरे मापदंड क्यों?
ये दोहरे मापदंड चरित्रहीनता के सबूत हैं, मापदंड एक होना चाहिए। पुरुष-स्त्री के लिए अलग-अलग क्यों? और इस अलग-अलग मापदंड का परिणाम क्या है? परिणाम यह है कि भारत का पुरुष चौबीस घंटे स्त्री के कपड़े उघाड़ने में लगा रहता है--कल्पना में सही, सपने में सही। जब भी बैठा है तब यह यही सोच रहा है--कैसे कपड़े उघाड़े? स्त्रियों को नंगा करने में लगा रहता है। और स्त्रियां अपना आंचल सम्हाल कर और अपना कपड़े-लत्ते लपेट कर अपने को बचाने में लगी हुई हैं। यह तुम्हारा चरित्र है!
सच तो यह है, जहां स्त्री और पुरुषों में नदियों में, समुद्रों में, तालाबों पर, स्नान-गृहों में नग्न स्नान करना शुरू कर दिया है, वहां एक-दूसरे को नग्न करने की आकांक्षा तिरोहित हो गयी है। अगर पश्चिम में किसी पुरुष का किसी स्त्री से प्रेम है तो जरूर उसका आलिंगन करेगा, लेकिन तुम्हारे जैसी बेहूदगी नहीं करेगा, कि जिस स्त्री से तुम्हारी कोई पहचान नहीं है, जरा भीड़ में मौका मिल गया तो चिंहुटी ले दी, कि धक्का ही मार दिया, कि साड़ी का पल्ला ही खींच दिया। तुम्हारी बेहूदगी तो देखो। हे ऋषि-मुनियों की संतानो! हे धर्मप्राण देश के सदपुरुषो! सन्नारियों के साथ तुम क्या-क्या गजब के काम करते हो! आंचल ही खींच दिया, उसकी धोती ही खींच दी और बड़े प्रसन्न घर लौटे-बड़े तीसमारखा हैं कि देखो तो पैर जमीन पर नहीं पड़ते, कि स्त्री की साड़ी खींच कर आ गए हैं! कि आज बड़ा गजब हो गया, मजा आ गया कि दो-चार स्त्रियों को धक्का मार आए हैं!
ये धक्के जारी रहेंगे। जब तक स्त्री ढंकी रहेगी, ये धक्के जारी रहेंगे।
शकुंतला पाराशर, मैं तो पश्चिम की स्त्रियों के कपड़ों के पक्ष में हूं।
बट्रेंड रसेल ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब मैं छोटा था तो यूरोप में अभिजात्य परिवार की स्त्रियों के पैर भी नहीं देख सकता था कोई, अंगूठा भी नहीं देख सकता था और इस तरह के पकड़े पहने जाते थे, जो कि जमीन पर घसिटते थे। इस तरह के घागरे पहने जाते थे जो कि जमीन को छूते थे। तो अगर कभी किसी स्त्री का भूल-चूक से पैर का अंगूठा भी दिख जाता था तो कामोत्तेजक होता था। बात यहां तक बिगड़ गयी थी कि लोग कुर्सियों के पैर को कपड़े पहनाते थे, क्योंकि वे भी पैर हैं और कुर्सी स्त्री! तो उसके भी पैर ढांक देते थे।
और अब, बट्रेंड रसेल ने अपनी उम्र के अंतिम दिनों में, नब्बे वर्ष की उम्र में लिखा कि मैं चकित हूं कि क्या हुआ! स्त्रियां अपने शरीर को उघाड़ कर जी रही हैं, लेकिन किसी को कोई चिंता नहीं है। न किसी को कोई पैर देख कर कामोत्तेजना होती है, न कोई किसी का पैर देख कर एकदम दीवाना हो जाता है कि नशे में आ जाता है, कि कुछ का कुछ कर गुजर!
जो चीज खुल जाती है उसमें रस ही चला जाता है। अब स्त्रियां तो इतने छोटे-छोटे स्कर्ट पहन रही हैं कि अब उघाड़ने को भी कुछ नहीं बचा है।
एक छोटा बच्चा एक दुकान में रो रहा था खड़ा। मैनेजर ने पूछा कि भई क्यों रोता है? उसने कहा: "मेरी मां खो गयी।'
मैनेजर ने कहा कि तू अपनी मां का स्कर्ट पकड़े रखा कर। उसने कहा: "वही तो मुश्किल है। मेरा हाथ वहां तक पहुंचता नहीं।'
शकुंतला पाराशर, तुम्हें तकलीफ हो रही होगी, क्योंकि पुरानी धारणाओं में पली होओगी। लेकिन तुम्हें मनोविज्ञान का या मनुष्य के जीवन के निर्माण का कोई बोध नहीं है। अगर स्त्री और पुरुष सहज और स्वाभाविक हो जाएं तो जीवन से सारी अनीति तिरोहित हो जाए।
कभी जा कर बस्तर के आदिवासी इलाकों में देखो, जहां स्त्रियां करीब-करीब अर्धनग्न होती हैं। उनके स्तन तो उघड़े होते हैं। तुम बस्तर में किसी स्त्री के स्तन पर हाथ रख कर पूछ सकते हो कि यह क्या है। वह कहेगी: "यह बच्चे को दूध पिलाने का थन हैं।' और बात खत्म हो गयी। ठीक बात इतनी है ही। और आदिवासियों में कोई उत्सुकता नहीं है किसी स्त्री के स्तन देखने की। चारों तरफ स्त्रियां ही स्त्रियां हैं, स्तन ही स्तन हैं, देखना क्या है? लेकिन तुम्हारे मन में एक ही उत्सुकता बनी रहती है स्त्री के स्तन देखने की। तो स्त्रियां भी स्तनों को खूब संवार कर चलती हैं। प्लास्टिक के स्तनों को उभार कर रखने के कृत्रिम आयोजन किए गए हैं, जिनसे कि ढले-ढलाए स्तन ऐसे लगें कि अभी बिलकुल जवान हैं! स्तन चाहे हों या न हों, रबर और प्लास्टिक के स्तन भी मिलते हैं। और लोग बड़े उत्सुक हो कर देखते हैं।
तुमने भी खयाल किया होगा, बुरके में ढंकी हुई स्त्री को देखो--कैसा आकर्षण पैदा होता है! लाख काम छोड़ कर तुम पीछे लग जाते हो कि कहीं तो मौका मिलेगा, थोड़ा बहुत तो देख ही लेंगे । लेकिन जो स्त्री बुरके में नहीं ढंकी है, उसको देखने की ऐसे कोई उत्सुकता पैदा नहीं होती, देख ही ली।
जो चीज प्रगट है उसमें रस चला जाता है। किसी दरवाजे पर तख्ती लिख कर टांग कर दो कि यहां झांकना मना है, फिर देखना वहां से कितने सच्चरित्र व्यक्ति निकल सकते हैं जो बिना झांके निकल जाएं! और निकल भी जाएं तो लौट कर आएंगे। और दिन में न आ सकें तो रात में आएंगे। और अगर आ ही नहीं सके, बिलकुल ही कायर और कमजोर हुए तो सपने में वहीं-वहीं मंडराएंगे कि है क्या, मामला क्या है, भीतर क्या है!
निषेध आकर्षण बन जाता है। कोई आवश्यकता नहीं है निषेध की। सारे पशु-पक्षी बिना निषेध के जी रहे । मनुष्य को भी इतने निषेध की कोई आवश्यकता नहीं है यह भी मनुष्य की कामोत्तेजना है जो उसने स्त्रियों को ढांका है। यह मनुष्य की ही कोशिश है पुरुष की--पुरुषों ने स्त्री को ढंकने के लिए मजबूर किया, क्योंकि जितनी स्त्री ढंकी हो उतनी कामोत्तेजक हो जाती है। यह चरित्र के कारण नहीं है, स्त्री को कामोत्तेजक बनाने के लिए हैं--उसे ढांको, छिपाओ। जिन-जिन अंगों में पुरुष को उत्सुकता है वे वे ही अंग हैं जो ढंके होते हैं। जो उघड़े हैं उनमें कोई उत्सुकता नहीं होती। अगर स्त्री पूरी उघड़ी हो, पुरुष पूरा उघड़ा हो, तो दुनिया में एक-दूसरे के शरीर में ऐसा पागल जो दीवानापन है, वह अपने-आप नष्ट हो जाए।
तुम कहती हो: "इस देश की युवतियां पश्चिम से आए। फैशनों का अंधानुकरण करके अपने चरित्र का सत्यानाश कर रही है।'
जरा भी नहीं। एक तो चरित्र है नहीं कुछ...। और पश्चिम में चरित्र पैदा हो रहा है। अगर इस देश की स्त्रियां भी पश्चिम की स्त्रियों की भांति पुरुष के साथ अपने को समकक्ष घोषित करें तो उनके जीवन में भी चरित्र पैदा होगा और आत्मा पैदा होगी। स्त्री और पुरुष को समान हक होना चाहिए।
एक युवक अपनी भावी पत्नी को देखने उसके घर गया। बातचीत के दौरान उसने लड़की से पूछा: "क्या तुम्हें खाना बनाना आता है?'
लड़की ने जवाब दिया: "देखिए, हम लोगों को सिलसिलेवार ढंग से हर समस्या के विषय में सोचना चाहिए। पहले आप बताइए कि आप कुछ कमाना जानते हैं? खाना वगैरह तो बाद में बनेगा, पहले कमाना तो आना चाहिए!'
भारतीय लड़की तो घूंघट में दबी, क्या ऐसा प्रश्न पूछेगी? मगर यह प्रश्न पूछना जरूरी है।
एक लखपति का बेटा अपनी प्रेमिका से बोला: "कल मेरे पिताजी का दीवाला निकल गया।'
"मुझे पता था तुम्हारे पिताजी हमारी शादी में जरूर कोई न कोई बाधा डालेंगे--प्रेमिका निराश हो कर बोली।
यह बात पुरुष तो हमेशा ही करते रहे हैं। स्त्रियों में उनकी उत्सुकता नहीं है; स्त्रियों के साथ मिलते दहेज में उत्सुकता है।-- स्त्री से किसको लेना देना है! पैसा, धन, प्रतिष्ठा! मगर इस लड़की ने चौका दिया होगा उसे। अब तुम कहोगी, यह पश्चिम का अंधानुकरण हो गया। लेकिन लड़की ने ठीक जवाब दिया, मुंहतोड़ जवाब दिया। यही जवाब होना भी चाहिए।
मगर हम तो छोटी-छोटी बच्चियों का विवाह करते रहे--इसी डर से कि कहीं वे सवाल न उठाने लगे। हम तो छोटे बच्चों के विवाह में भरोसा करते रहे। उसका कारण था कि छोटे बच्चों का विवाह कर दो, उनको पता ही नहीं क्या हो रहा है। मां-बाप के हाथ में सब निर्णय था। पंडित-पुरोहित निर्णय करते। जन्म-कुंडली देख कर निर्णय होता। यह झूठा विवाह, यह थोथा विवाह--और इसको तुम चरित्र कहते हो! यह तो दुष्चरित्रता की शुरुआत हो गयी। यह पाप है, क्योंकि न इस लड़की ने इस लड़के को कभी प्रेम किया, न इस लड़के ने कभी इस लड़की को प्रेम किया जहां प्रेम नहीं है वहां पाप है। जहां प्रेम है वही पुण्य है।
मध्यस्थों के सहयोग से एक लड़की की शादी तय हो गयी। अचानक लड़की रोने लगी। मां उसे ढाढस बंधने लगी। "रोते नहीं, मेरी बच्ची-- शादी सभी की होती है। देख मैंने भी तो शादी की थी।!'
"वह तो ठीक है मां। लेकिन तुमने शादी पिताजी से की थी और मेरी शादी निपट अजनबी से हो रही है।'
छोटे बच्चे! ठीक कह रही है छोटी बच्चे कि तुमने तो पिताजी से शादी की, सो तुम्हें तो कोई अड़चन नहीं। लेकिन मेरी निपट अजनबी से शादी हो रही है, जिसको मैंने कभी देखा नहीं, पहचाना नहीं।
हम बच्चों पर शादी थोप देते थे। अब इसको तुम अंधानुकरण कहोगी कि लड़की कहे कि मैं लड़के को देखना चाहती हूं! लड़का कहे कि मैं लड़की को देखना चाहता हूं, वह ठीक। यह उसका हक है! लेकिन लड़की कहे मैं भी लड़के को देखना चाहती हूं; लड़की कहे कि मैं लड़के के साथ महीने दो महीने रह कर देखना चाहती हूं कि यह आदमी जिंदगी भर साथ रहने योग्य है भी या नहीं--तो चरित्र का हास हो गया, पतन हो गया! और इसको तुम चरित्र कहते हो कि जिससे पहचाना नहीं, संबंध नहीं, कोई पूर्व-परिचय नहीं, इसके साथ जिंदगी भर साथ रहने का निर्णय लेना। यह चरित्र है तो फिर अज्ञान क्या होगा? फिर मूढ़ता क्या होगी?
एक हकीम ने चंदूलाल से कहा: कौन कहता है तुम बीमार हो? चंदूलाल तुम्हारी नाड़ी तो घड़ी जैसी तेज चल रही है।'
चंदूलाल ने कहा: "हकीम साहब, आपका हाथ मेरी नाड़ी पर नहीं, घड़ी पर ही है।'
समस्याओं पर हाथ रखो। इस देश का चरित्र तो कब का सड़ गया है। जमाने हुए। इतने जमाने हो गए देश के चरित्र को सड़े हुए कि अब हम सड़े हुए चरित्र को ही चरित्र समझने लगे हैं। अब तो हम उसी को मानने लगे कि यही चरित्र है। हमने घोड़े देखे ही नहीं खच्चरों को ही घोड़े मानने लगे।
और अब जब पहली दफा दुनिया में एक स्वतंत्रता की हवा पैदा हुई है, लोकतंत्र की हवा पैदा हुई है और स्त्रियों ने उदघोषणा की है समानता की, तो पुरुषों की छाती पर सांप लोट रहे हैं। मगर मजा भी यह है कि पुरुषों की छाती पर सांप लोटे, यह तो ठीक; स्त्रियों की छाती पर सांप लोट रहे हैं। स्त्रियों की गुलामी इतनी गहरी हो गयी है कि उनको पता नहीं रहा कि जिसको वे चरित्र, सती-सावित्री और क्या-क्या नहीं मानती रही हैं, वे सब पुरुषों के द्वारा थोपे गए जबरदस्ती के विचार थे।
कितनी सतियां हुई, लेकिन एकाध सता भी तो होता! यह बड़े मजे की बात है। इसका अर्थ हुआ कि स्त्रियां ने ही पुरुषों को प्रेम किया; किसी पुरुष ने कभी किसी स्त्री को प्रेम नहीं किया। और ये ही पुरुष और ये...चमत्कार तो तब मालूम होता है जब स्त्रियां भी इसमें सम्मिलित होती हैं। "ढांढन सती की झांकी' बंबई में सजती रहती है। रोज! अखबारों में जब देखो तब ढांढन सती! जहां देखो वहां सती का मंदिर, सती का चौरा!
पुरुष यह शोरगुल मचाते हैं, यह तो समझ में आता है क्योंकि स्त्रियों को कब्जे में रखने की उनकी जालसाजी का हिस्सा है। लेकिन ये स्त्रियां कैसी मूढ़ हैं! मगर उनको मूढ़ रखने को भी उपाय किया गया है। उनके शास्त्र पढ़ने नहीं दिए गए, वेद पढ़ने नहीं दिया गया। उनको जितना अशिक्षित रखा जा सके उतनी कोशिश की गयी, ताकि जो पुरुष कहे वहीं सत्य मालूम पड़े। वे भी पूजा कर रही है, वे भी नहीं पूछती कि एकाध कोई ढांढू सता भी हुए कि नहीं! कोई भोंदू सता भी हुए कि नहीं! एकाध उनका मंदिर और चौरा तो हो कहीं! लेकिन ये काम पुरुषों ने कभी किए ही नहीं। इधर स्त्री मरी उधर उन्होंने विवाह किया। मगर पुरुष मरे तो स्त्री को उसके साथ मरना चाहिए। क्यों! क्योंकि वह पुरुष की संपत्ति है और पुरुष का भरोसा नहीं है कि मेरे मर जाने के बाद कहीं कोई दूसरा पुरुष उस पर कब्जा कर ले या वह किसी से प्रेम कर ले या विवाह कर ले। यह तो हद हो गयी। तुमने जैसी आत्मा खरीद ली! स्त्री न हुई, वस्तु हो गयी! और स्त्रियां इसको बर्दाश्त करती रहीं। न केवल बर्दाश्त करती रहीं, वरन धीरे-धीरे इसमें गौरव अनुभव करने लगीं, कि इसमें कोई खूबी की बात है।
हम जो भी बातें सुनते-सुनते संस्कारित हो जाते हैं, वे हमारे खून में, हड्डी-मांस-मज्जा में मिल जाती हैं। फिर हमें होश आना मुश्किल हो जाता है।
पश्चिम में एक शुभ घड़ी आयी है। घबड़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है। भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। सच तो यह है कि मनुष्य-जाति अब तक बहुत चरित्रहीन ढंग से जीयी है। लेकिन ये चरित्रहीनता लोग ही अपने को चरित्रवान समझते हैं। तो मेरी बातें उनको लगती हैं कि मैं लोगों का चरित्र खराब कर रहा हूं। मैं तो केवल स्वतंत्रता और बोध दे रहा हूं, समानता दे रहा हूं। और जीवन को जबरदस्ती बंधनों में जीने से उचित है कि आदमी स्वतंत्रता से जीए। और बंधन जितने टूट जाएं उतना अच्छा है, क्योंकि बंधन केवल आत्माओं को मार डालते हैं, सड़ा डालते हैं, तुम्हारे जीवन को दूभर कर देते हैं।
एक प्रेमिका अपने प्रेमी से कह रही थी: "अगर मैं तुम्हारे साथ शादी कर लूं तो तुम यह सिगरेट पीना छोड़ दोगे न?'
प्रेमी ने सिगरेट जलाते हुए कहा: "हां-हां क्यों नहीं!'
प्रेमिका ने उसका हाथ अपने हाथ में ले कर कहा: "और शराब पीना भी छोड़ दोगे न?'
प्रेमी ने हीरो के अंदाज में कहा: "मेरी जान, तुम्हारे लिए सब कुछ कर सकता हूं, सब कुछ छोड़ सकता हूं।'
प्रेमिका बोली: "और क्या-क्या छोड़ दोगे?'
प्रेमी ने अपना हाथ छुड़ा कर सिगरेट बुझाते हुए कहा: "तुम्हारे साथ शादी करने का विचार।'
एक-दूसरे की छाती पर सवार हो--यह छोड़ो वह छोड़ो! ऐसा करो वैसा करो! यह प्रेम न हुआ, कारागृह हो गया। यह विवाह न हुआ, कारागृह हो गयी। फिर इसका परिणाम यह होता है कि तुम्हारा विवाह सुख तो नहीं, दुख की एक लंबी कहानी हो जाती है, एक व्यथा हो जाती है। पत्नी तुम्हें सताती है, तुम पत्नी को सताते हो। लेकिन मौलिक कारण यह है कि तुम दोनों क्रुद्ध हो, क्योंकि तुम्हारी स्वतंत्रता छिन गयी।
मैं तो विवाह के विरोध में हूं, शकुंतला पाराशर। मैं तो पश्चिम से बहुत आगे हूं। पश्चिम के लोगों को भी लगता है मैं खतरनाक बातें कह रहा हूं। पश्चिम के सारे देशों में मेरे खिलाफ लेख लिखे जा रहे हैं, किताबें लिखी जा रही हैं। क्योंकि उनको लगता है मैं खतरनाक बातें कह रहा हूं, मैं बर्बाद कर दूंगा पश्चिम के चरित्र को। पश्चिम के चरित्र को! जिससे तुम डरी हुई हो, मैं उसको भी बर्बाद करने में लगा हुआ हूं! तुम घबड़ाओ मत। मैं पश्चिम के चरित्र को तो बरबाद कर ही दूंगा। और रही तुम्हारी बात, सो तुम्हारा तो काई चरित्र है ही नहीं। तुम तो निश्चिंत रहो। तुम तो घोड़े बेच कर सोओ। नंगा नहाए तो निचोड़े क्या? डर ही नहीं है निचोड़ने का, सुखाने वगैरह का तो सवाल ही नहीं उठता कि कहां सुखाएं, क्या करें!
तीन औरतें मरने के बाद स्वर्ग पहुंचीं। तीनों औरतों को सेंट पीटर के सामने लाया गया। सेंट पीटर ने पहली महिला से पूछा कि क्या आपने कभी किसी पराए पुरुष से प्रेम संबंध स्थापित किया था? महिला बोली: "अजी आप भी कैसी बातें करते हैं! शर्म नहीं आती? मैं सीता-सावित्री के देश की नारी, भला मैं  पर-पुरुष के बारे में सोच भी सकती हूं!'
सेंट पीटर ने अपने सहायक से कहा: "इसे स्वर्ण-महल में भेज दो।' अब सेंट पीटर ने दूसरी महिला से पूछा कि क्या आपने कभी पर-पुरुष के साथ प्रेम संबंध स्थापित किया?'
महिला बोली कि सिर्फ एक दो बार ही मैंने अपने मुहल्ले के सेठ चंदूलाल से शारीरिक संबंध बनाए थे। सेंट पीटर ने अपने सहायक से का कि इन्हें ले जाओ, हीरे-जवाहरातों से बने महल में पहुंचा दो। इसके बाद सेंट पीटर तीसरी महिला की तरफ मुखातिब हुआ और उससे बोला: "आप बताइए, आपने कभी किसी पुरुष से प्रेम-संबंध बनाया?'
महिला ने कहा: "माफ करिए, मैं झूठ नहीं बोलूंगी। मेरे पास तो जो भी आया, कभी खाली हाथ नहीं गया। शास्त्रों में कहा भी है, दान से बड़ा कोई धर्म नहीं।'
सेंट पीटर यह सुन कर अपने सहायक से बोले : "इसे मेरे कमरे में पहुंचा दो।'
तुम्हारे संत भी सती-सावित्रियों से नमस्कार करेंगे कि माताजी को ले जाओ दूर जहां से ले जाना हो! वे भी किसी भली महिला को, ढंग की महिला को...। इस महिला ने ठीक बात कि कि मैं झूठ नहीं बोलूंगी। और दान से बड़ी कोई बात है? और प्रेम से बड़ा दान नहीं।
जीवन एक सहज आनंद, उत्सव होना चाहिए। इसे क्यों इतना बोझिल, इसे क्यों इतना भारी बनाने की चेष्टा चल रही है? और मैं नहीं कहता हूं कि अपनी स्व-स्फूर्त चेतना के विपरीत कुछ करो। किसी व्यक्ति को एक ही व्यक्ति के साथ जीवनभर प्रेम करने का भाव है--सुंदर, अति सुंदर! लेकिन यह भाव होना चाहिए आंतरिक; यह ऊपर से थोपा हुआ नहीं, मजबूरी में नहीं। नहीं तो उसी व्यक्ति से बदला लेगा वह व्यक्ति, उसी को परेशान करेगा, उसी पर क्रोध जाहिर करेगा।
मैं भारत के इतने घरों में मेहमान रहा हूं। और मैं यह जान कर चकित हुआ हूं कि न तो पुरुष पत्नियों से प्रसन्न हैं, न पत्नियां पुरुषों से प्रसन्न हैं। पत्नियां क्रुद्ध है, पुरुष क्रुद्ध हैं। और मजा यह है कि दोनों को साफ नहीं है कि यह क्रोध क्यों है। क्रोध इसीलिए है कि दोनों एक-दूसरे के जीवन में बाधा बन गए हैं। दोनों एक-दूसरे के जीवने के प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं। दोनों एक-दूसरे पर नजर रखे हैं जासूस की। दोनों एक-दूसरे का चरित्र सुधारने में लगे हैं। और ध्यान रखना, चरित्र सुधारने वालों को कोई कभी माफ नहीं करता।
शकुंतला पाराशर, ऐसा मालूम होता है कि तुम्हें दूसरों का चरित्र सुधारने की धुन सवार है। अपनी ही फिक्र कर लो। अपने ही जीवन में कोई दीया जला लो। उतना ही काफी है। तुम्हें हम भी नहीं किसी दूसरे का चरित्र सुधारने का। प्रत्येक व्यक्ति अपने चरित्र का मालिक है। मैं अगर अपने चरित्र को बिगाड़ना चाहता हूं तो जब तक मैं दूसरे को नुकसान न पहुंचाऊं, मुझे रोकने का हक किसी को भी नहीं है। नियम, कानून, समाज वहीं आ सकते हैं जहां मैं किसी के जीवन में व्याघात पहुंचाऊं। लेकिन अगर मैं किसी के जीवन में कोई व्याघात नहीं पहुंचाता, मेरी स्वतंत्रता को जीता हूं, तो क्यों कोई मेरे जीवन में बाधा डाले?
मगर हम अब तक जैसे समाज में रहे हैं, वह ऐसा समाज था जिसमें हर एक की गर्दन हर एक दूसरे आदमी के हाथ में है। और जरा-सी बात हो कि पूरा समाज एक आदमी पर टूट पड़े। जरा-सा नियम का उल्लंघन हो और हुक्का-पानी बंद! हमने व्यक्ति को व्यक्तित्व दिया ही नहीं। हमने व्यक्ति से व्यक्तित्व छीन लिया। हमने उसे समाज का एक मुर्दा अंग बना कर रख दिया। और स्वभावतः तब हम दो हजार साल तक गुलाम रहे। इसमें कोई और जिम्मेवार नहीं है। जहां व्यक्ति ही न थे वहां स्वतंत्रता की घोषणा कौन करता? जहां स्वतंत्रता का स्वाद ही नहीं था वहां परतंत्रता से राजी होने में अड़चन क्या थी? जो अपनी पत्नी की परतंत्रता सहने को राजी है, जो अपने पति की परतंत्रता सहने को राजी है, उसको क्या फर्क पड़ता है कि दिल्ली की गद्दी पर मुगल बैठे कि तुर्क बैठे कि हूण बैठे कि अंग्रेज बैठे, कि कौन बैठा, कोई बैठा रहे! वह तो जानता है कि मेरा तो गुलामी का जीवन है, मेरा तो सारा जीवन गुलामी का है। तो इससे भी क्या फर्क पड़ता है कि एक और मालिक ऊपर बैठ रहे दिल्ली में कोई, इससे क्या फर्क पड़ता है!
इसलिए भारत स्वतंत्रता के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाया है। आज भी नहीं कर पाया है। तुम स्वतंत्र हो गए हो--किसी अपने गुण के कारण नहीं; सिर्फ विश्व की, जागतिक को रूपांतरण हुए हैं परिस्थितियों में, उनके कारण। अन्यथा तुम स्वतंत्र अभी भी नहीं हो। और आज भी तुम्हें कोई गुलाम बनाना चाहे तो तुम तत्क्षण गुलाम बनने को राजी हो जाओगे, क्योंकि तुम्हारी भीतरी जड़ों में गुलामी घुस गयी है।
जो पति अपनी पत्नी के सामने पूंछ दबा कर घुसता है घर में, जो पत्नी अपने पति को देख कर कंपती है, जो बच्चे अपने मां-बाप से डरते हैं, जो मां-बाप अपने बच्चों से डरते हैं, जहां डर ही डर व्याप्त है--वहां चरित्र का कहां से जन्म होगा? चरित्र के लिए स्वतंत्रता की भूमि चाहिए।
और मैं कोई खतरा नहीं देखता। पश्चिम के फैशनों में ऐसा क्या है? कुछ भी तो नहीं, जिससे कि चरित्र भ्रष्ट हो जाए। और चरित्र भ्रष्ट हो जाता है। फैशनों के कारण तो वह चरित्र दो कौड़ी का है। मेरा चरित्र अगर मेरे कपड़ों से भ्रष्ट हो जाता हो...समझ लो...।
एक महिला ने मुझे कहा। वह हालैंड गयी--कृष्णमूर्ति के शिविर में भाग लेने और बिना भाग लिए लौट गायी। मैंने उससे पूछा: "क्या हुआ? तूने भाग नहीं लिया!'
उसने कहा: "भाग लेने की बात ही खत्म हो गयी। मैंने कृष्णमूर्ति को एक सांझ, शिविर शुरू नहीं हुआ उसके एक दिन पहले, एक दुकान पर टाई खरीदते देखा।'
अब जरा बात अड़चन की तो है। जैसे महावीर स्वामी मिल जाएं किसी दुकान पर टाई खरीद रहे, या किसी दुकान पर बैठे भजिया खा रहे! महावीर स्वामी! कि भगवान बुद्ध मिल जाएं कि खड़े हैं किसी टाकीज के सामने, क्यू में टिकिट खरीदने के लिए! बात खतम हो गयी। अब क्या बचा? इस महिला ने देखा कृष्णमूर्ति को, पहले तो उसे भरोसा ही नहीं आया अपनी आंखों पर। क्योंकि कृष्णमूर्ति जब भारत आते हैं तो वे कुर्ता-धोती पहनते हैं। ठीक है, भारत में कुर्ता-धोती बिलकुल ठीक जमती है। लेकिन अब कुर्ता-धोती इंग्लैंड में पहनोगे तो दांत किटकिटाते रहेंगे, बोलोगे--बोलोगे क्या! तो वहां तो वे सूट-पैंट पहनते हैं। और जहां ठंडे देश हैं वहां टाई बिलकुल जरूरी है। इस देश में जो लोग टाई बांधते हैं वे गधे हैं, नंबर एक के गधे हैं! जहां गर्मी में लोग मरे जा रहे हैं! टाई बांधने का मतलब ही यह है कि शरीर से कहीं से भी गले से भी हवा न प्रवेश कर सके। तो नीचे मोजे पहने हुए हैं, जूता कसे हुए हैं, ऊपर से टाई बांधे हुए हैं, ताकि सब तरफ से हवा भीतर प्रवेश न कर सके। लेकिन भारत में टाई बांधे हुए हैं, जूता पहने हुए हैं, मोजा कसे हुए हैं--ये छंटे हुए गंवार हैं। ये पढ़े-लिखे गंवार हैं।
कृष्णमूर्ति तो जिस देश में जाते हैं, उस देश के लिए जो जरूरी है वैसा कपड़ा पहनते हैं। और मानता हूं यह बिलकुल ही एक जाग्रत पुरुष का व्यवहार है। मैं महात्मा गांधी के व्यवहार को जाग्रत पुरुष का व्यवहार नहीं मानता। वे इंग्लैंड में भी जाएंगे तो वही अपना ढांचा बनाए हुए हैं। वह ढांचा ठीक है वर्धा में, जहां गर्मी से लोग मरे जा रहे हैं। लेकिन इंग्लैंड में वह ढांचा बिलकुल बेहूदा है,, असंगत है, अप्रासंगिक है। कृष्णमूर्ति का मैं जाग्रत पुरुष कहूंगा, क्योंकि वे देखते हैं जैसी जरूरत है, जहां जैसी अनुकूलता है वहां उस ढंग से जीना चाहिए। कोई जीवन के ऊपर कपड़े नहीं हैं। जीवन के लिए कपड़े हैं, कपड़ों के लिए जीवन नहीं है।
मगर इस महिला की छाती पर तो बात ही जहर की तरह लगी, तीर चुभ गया, कि अरे जिसको मैं सोचती थी कि भगवान के अवतार हैं, वे टाई खरीद रहे हैं! इसका तो सारा मोह-भंग हो गया। यह तो फिर शिविर में सम्मिलित ही नहीं हुई। इसके लिए तो चरित्र भ्रष्ट हो गया, टाई ने चरित्र भ्रष्ट कर दिया!
तुम्हारा चरित्र क्या है? टाई बांधने से भ्रष्ट हो जाएगा! तो टाई ज्यादा मूल्यवान मालूम होती है तुम्हारे चरित्र से।
अब इंग्लैंड में अगर ब्रह्ममुहूर्त में उठोगे तो डबल निमोनिया होगा। इंग्लैंड में तो थोड़ी देर से उठना होगा। जरा धूप आ जाए, थोड़ा सूरज निकल आए; वह भी मुश्किल से कभी-कभी निकलता है। कम से कम सुबह तो हो जाए। हिंदुस्तान में ठीक है तुम तीन बजे से उठो और रामधुन करो। सच तो यह है कि मच्छर सोने कहां देते हैं! मच्छर तो रात भर रामधुन तुम्हारे कान में करते हैं। यहां तो ऐसा धार्मिक कार्य चल रहा है--अखंड! खटमल अलग तपश्चर्या करवा रहे हैं--नीचे से तपश्चर्या! मच्छर ऊपर से तपश्चर्या करवा रहे हैं। बची-खुची बची, अब इनसे थोड़ा और बची-खुची, और थोड़ा-बहुत समय बचा तो उठ आए तीन बजे और तुम रामधुन करने लगे। तुम मुहल्ले वालों को सताने लगे। वे किसी तरह सोने के करीब आ रहे थे, अब तुमने अखंड रामायण शुरू कर दी।
तुम्हारा चरित्र क्या है? किस चीज को तुम चरित्र कहते हो?
यहां हजारों सारी दुनिया से आए हुए संन्यासी हैं। आज छः साल से मैं यहां हूं। किसी एक विदेशी संन्यासी ने किसी एक भारतीय महिला को नहीं छेड़ा, न धक्का मारा, न धोती खींची, न चिहुंटी ली, किसी तरह का दर्ुव्यवहार नहीं किया। और ये चरित्रहीन लोग है! और भारतीयों ने कितनी पाश्चात्य महिलाओं के साथ उपद्रव किया इन छः वर्षों में, बलात्कार करने की कोशिश की, करीब-करीब बलात्कार किया, लहूलुहान कर दिया स्त्रियों को, कपड़े फाड़ डाले। हर तरह से बुरा बोला। कुछ नहीं तो कार से ही उनको धक्का दे देंगे। हाथ नहीं पहुंचा तो कोई बात नहीं, चलो कार नहीं पहुंच गयी। कार से ही धक्का मार कर दिल खुश हो कर गए घर। इन छः वर्षों में जितना अनाचार भारतीयों ने पाश्चात्य स्त्रियों पर किया है, उसको देख कर पता चलता है कि चरित्र किसके पास है। और तुम चरित्र की बातें...!
फिर से सोचो, फिर से सोचना शुरू करो। हमें चरित्र के संबंध में पुनर्विचार करना होगा। और हमें चरित्र के नए मापदंड खोजने होंगे। मैं उसी चेष्टा में संलग्न हूं। इसलिए अकारण ही न मालूम कितने चरित्र के ठेकेदार और समाज के ठेकेदार मेरे दुश्मन हो गए हैं, क्योंकि उनको लगाता है कि मैं जो कह रहा हूं उसे वे गलत तो सिद्ध कर नहीं सकते। अब एक ही उपाय है कि मेरा मुंह कैसे बंद कर दिया जाए। मुझे बोलने ही न दिया जाए। मेरी गर्दन ही काट दी जाए। मुझे देश से बाहर ही निकाल दिया जाए। रोज अखबारों में पत्र छपते हैं कि इस व्यक्ति को देश के बाहर क्यों न निकाल दिया जाए?
मैं अकेला। इस देश में तुम्हारे कितने महात्मा, कितने साधु, कितने संत, इस एक आदमी के द्वारा। सारे देश का चरित्र बिगड़ जाएगा और तुम्हारे सारे साधु-महात्मा क्या करते रहेंगे? मगर तुमको डर है। और डर यह है कि तुम्हारे भीतर भी बात साफ होने लगी है कि तुम्हारे साधु-महात्मा जिस बकवास की बातें कर रहे हैं, वे सिर्फ उन्हीं को प्रभावित कर सकती हैं जो पहले से ही प्रभावित हैं। तुम्हारे साधु-महात्माओं के पास न कोई तर्क है, न कोई प्रमाण है। और तुम्हारा पूरा इतिहास तुम्हारी चरित्र-हीनता का सबूत है, और कुछ भी नहीं। और यह भ्रांति छोड़ ही देनी चाहिए कि भारत कोई धार्मिक देश है। जितने जल्दी यह भ्रांति छूट जाए उतने जल्दी भारत धार्मिक देश हो सकता है। मैं भारत को धार्मिक देश बनाना चाहता हूं, मगर पहले तो भ्रांति छूटे। अब कोई बीमार आदमी को भ्रांति है कि मैं स्वस्थ हूं, तो इसका इलाज कैसे करो? पहले तो समझाना होगा कि तुम स्वस्थ नहीं हो, तब इलाज हो सकता है। लेकिन बीमार बड़े जिद्दी होते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन को वहम पैदा हो गया कि वे मर गए। बहुत समझाया लोगों ने कि आप मरे नहीं, आप जिंदा है। "अरे'--वे कहें--"आप भी कैसी बातें कर रहे हैं! मैं तो मर चुका। प्रमाण क्या है मेरा जिंदा होने का?'
अब क्या प्रमाण दो किसी को कि तुम जिंदा हो? मुर्दों ने कभी प्रमाण पूछे नहीं। इसलिए कभी प्रमाण खोजे भी नहीं गए। यह बीमारी भी नयी। आखिर उन्हें मनोवैज्ञानिक के पास ले जाया गया। मनोवैज्ञानिक ने बहुत खोज-बीना कि क्या करना क्या नहीं करना। आखिर उसने एक तरकीब निकाली। उसने कहा: "मुझे एक बात बताओ। जब कोई आदमी मर जाए, अगर हम उसको चाकू से काटे तो खून निकलेगा कि नहीं?'
नसरुद्दीन ने कहा: "कभी नहीं, मरे हुए आदमी को कैसे खून निकल सकता है? खून तो जिंदा आदमी को निकालता है।'
मनोवैज्ञानिक बहुत खुश हुआ। उसने कहा: "अब एक सूत्र हाथ लगा।' लाया चाकू और नसरुद्दीन के हाथ में उसने एक चीरा दिया। झरझर खून आने लगा। उसने कहा: "अब बोलो बड़े मियां! जिंदा हो कि मर गए?'
नसरुद्दीन ने कहा: "इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि वह जो पुराना खयाल था कि मुर्दों को खून नहीं निकलता, वह गलत है। मुर्दों को भी खून निकलता है, इससे सिद्ध हो रहा है। साफ सिद्ध हो रहा है, अरे और क्या प्रमाण चाहिए? मैं मरा हुआ आदमी, तुमने चीरा मारा, खून निकल रहा है। पुरानी कहावत गलत थी।'
कोई जिद्द ही किए बैठा हो कि मैं बीमार नहीं हूं तो उसे बीमार होने का भरोसा दिलाना तक मुश्किल है। और ऐसी ही जिद इस देश की है कि हम चरित्रवान हैं, हम धार्मिक हैं, हम पुण्यात्मा हैं, यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं। इससे हमारे अहंकार को तृप्ति तो मिलती है। और कुछ हमारे पास है भी नहीं अहंकार की तृप्ति के लिए। बस यही थोथी बातें रह गयी हैं। इन्हीं के सहारे किसी तरह अपने को सम्हाले रखते हैं कि हम भी कुछ हैं।
मगर जितनी जल्दी ये थोथी बातें छूट जाएं उतना अच्छा है। क्यों? क्योंकि हमारी क्षमता है कि हम धार्मिक हो सकते हैं। और अगर तुम मेरी बात समझ सको तो मैं तुमसे ये कहना चाहता हूं कि हमारी क्षमता इस पृथ्वी पर सर्वाधिक है, क्योंकि पांच हजार साल से हमारे खेत हमें खेती हुई ही नहीं। जैसे किसी खेत में पांच हजार साल तक खेती न हो तो उसकी उर्वरा शक्ति बहुत बढ़ जाती है। उसमें अगर आज तुम बीज बो दो तो ऐसी फसल आएगी जैसी कि कभी किसी ने देखी न हो।
भारत हजारों साल से चरित्र को पैदा नहीं कर सका है। इसलिए उर्वरा शक्ति इकट्ठी होती गयी है। हमारी ऊर्जा इकट्ठी होती गयी है। अगर आज ठीक मौका मिले तो हम सारी पृथ्वी को चकाचौंध से भर दे सकते हैं। इतने दीए जला सकते हैं! इतने फूल खिल सकते हैं! मगर पहली तो बात उस भ्रांति को छोड़ देना होगा कि हम धार्मिक हैं।

अंतिम प्रश्न: भगवान,
क्या यह सच है कि अहमक अहमदाबादी आपके संन्यासी हैं?

संत महाराज,
यह बिलकुल सच है। अहमक अहमदाबादी चूके जाते थे, बाल-बाल बचे। तय ही कर लिया था काशी जा कर करपात्री महाराज से दीक्षित होने का। बहुत मैंने उन्हें समझाया, मगर माने ही नहीं। फिर मैंने कहा: "जाओ, जैसी तुम्हारी मर्जी। अगर गधा ही होना है तो हो जाओ।'
गधा यानी गंभीर रूप से धार्मिक। मैं तो न गंभीरता में मानता, न तथाकथित थोथी धार्मिकता में मानता। मेरा धर्म का पालन अपना एक नया दृष्टिकोण है--हंसता हुआ, नाचता हुआ, प्रफुल्लित, आनंदमग्न। गंभीरता उसमें जरा भी नहीं। मेरे लिए धर्म नृत्य है, संगीत है, काव्य है। मेरे लिए धर्म उत्सव है, होली है, दीवाली है।
बहुत समझाया, मगर उसकी भी तकलीफ थी। अहमक अहमदाबदी की पत्नी मर गयी। पत्नी के मरने से बहुत दुखी थे। इतने दुखी थे कि एकदम संन्यास का विचार उठा। इस देश में संन्यास का विचार ही ऐसी घड़ियों में उठता है--पत्नी मर जाए, दीवाला निकल जाए, चुनाव हार जाए। बस फिर देर नहीं लगती, मुड़ मुड़ाए भए संन्यासी! वह एकदम काशी जाने की जिद! मैंने उनसे कहा कि इतने दुखी होने की जरूरत नहीं। पत्नी के होने से तुम कौन-से सुखी थे, यह भी तो सोचो! मगर वे सुने ही नहीं। अगर पत्नी के होने से तुम सुखी हो तो तुम्हारा दुख मेरी समझ में आता है। पत्नी के होने से भी दुखी थे और पत्नी के न होने से भी दुखी हो, यह तर्क मेरी समझ के बाहर है। सिर्फ एक बात खयाल में आती है कि तुम्हें दुख की आदत हो गयी है। पत्नी तुम्हें दुख के लिए इतना आदी कर गयी कि अब मर गयी, वह तो मर गयी मगर आदत छोड़ गयी। उल्लू मर जाते हैं, औलाद छोड़ जाते हैं। और अब तुमको अकेलापन अखर रहा है। अब तुमको कोई दुख देने वाला भी नहीं है। पहले तुम मुझसे कहते थे कि कभी थोड़ी देर के लिए भी एकांत मिल जाए। अब तुम्हें एकांत ही एकांत है, तो एकांत काट रहा है।
उन्हें मैंने बहुत-से चुटकुले सुनाए, हंसाने की कोशिश की। मगर वे न हंसे न सुने। जो प्रज्ञा ने कल पूछा न कि दीवाल के कान होते हैं, जरूर होते हैं। मगर अहमक अहमदाबादी के कान नहीं। मैंने बहुत समझाया, नहीं सुने। दीवालों के तो कान होते हैं। प्रमाण-स्वरूप तुमने देखा। जिस दिन मैंने कहा कि मुझे स्वर्ग रॉल्सरायस नहीं ले जाएगी, संत महाराज ले जाएंगे--उसी दिन से रॉल्स ठिठक गयी। साल भर से नहीं ठिठक थी। अंग्रेज महिला है, अकड़ गयी! उसने कहा कि अच्छा, तो देखें कौन तुम्हें "लाओत्सु' तक ले जाता है! उस दिन से टस से मस नहीं हो रही। अरे जब स्वर्ग में भोंदूमल, थोथूमल सब प्रवेश कर जाते हैं तो रॉल्स का कहना भी ठीक है कि मैं प्रवेश न कर सकूंगी, अब ले जाएं संत महाराज! उस दिन से मुझे भरोसा आ गया कि दीवाल के कान होते हैं। अरे जब कारों तक के कान होते हैं!
मगर आदमी कारों से गया-बीता है। इतना बेकार है आदमी कि अहमक को बहुत समझाया, नहीं समझे। तो मैंने कहा: "जाओ भाड़ में! चले जाओ काशी, हो जाओ संन्यासी!'
वे दूसरे दिन गुस्से में चले भी गए। शाम को एक धर्मशाला में रुके। थोड़ी देर में एक भिखारी और एक भिखारिन भी आ कर उसी धर्मशाला में ठहरे तथा उनके पश्चात एक धोबी भी अपने खोए हुए गधे को खोजता हुआ भी उस धर्मशाला में रात बिताने के उद्देश्य से आ पहुंचा और सबसे अंत में एक गन्ने बेचने वाला भी अपने गन्ने लिए उस धर्मशाला में आ कर ठहरा। रात जब काफी होने लगी तो भिखारी और भिखारिन प्रेमालाप में जुट गए। अंधेरा था, अतः जब प्रेमालाप चरम उत्कर्ष पर पहुंचने लगा तो भिखारी ने अपनी भिखारिन को पूछा कि मजा आ रहा है न? भिखारिन गदगद स्वरों में बोली: "अहा, बहुत मजा आ रहा है! तीनों लोक दिखाई दे रहे हैं!'
यह सुन कर कोने में पड़ा हुआ धोबी चिल्लाया कि बाई, जरा देखना तो मेरा गधा कहीं दिखाई पड़ रहा है या नहीं. यह सुन कर भिखारिन चौंक गयी, क्योंकि उसे पता नहीं था कि आसपास और भी कोई मौजूद है। उसने भिखारी से कहा: "जल्दी से निकालो, खिंचो-खिंचो, जल्दी करो!'
यह सुन कर गन्ने वाला चिल्लाया। "सालों, जिसने भी गन्ना निकाला उसके हाथ-पैर तोड़ दूंगा!'
यह सुन कर अहमक अहमदाबादी को भी जोर से हंसी आ गयी और उन्होंने सोचा अब काशी जा कर क्या संन्यास होना, अब चलें भगवान के पास और उन्हीं के संन्यासी हो जाएं! सो वे लौट आए वापिस। अब वे मेरे संन्यासी हैं। यहां मौजूद हैं। नाम उनका मैंने बदल दिया है, ताकि हर कोई उनको पहचान न ले। अहमक अहमदाबादी, यह उनका और मेरे बीच प्राइवेट नाम है। यह निजी। जब वे अकेले में मिलते हैं, तब। नहीं तो उन्हें बड़ा सुंदर नाम दिया है, तुम खोजो। अरे खोजने वाले को क्या नहीं मिलता! जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ!

आज इतना ही।
आठवां प्रवचन; दिनांक ८ अगस्त १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना





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