शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-उन्नीसवां
आचार्य जी, टुडे आई शैल प्रिपेयर
टु इनवाइट योर व्यू.ज ऑन दि इस्यू ऑफ वेनिटी एण्ड फियर। टु मी सर, दिस इस्यू आलसो अपिअर्स
टु बी वैल्युएबल टु बी एनालाइजड। एज आई हैव बीन गिवन अंडरस्टैंडिंग सर, इम्मैच्योरिटी बिंरग्स
वेनिटी, वेनिटी बिंरग्स प्राइड एण्ड प्राइड बिं्रग्स प्रिज्युडिसिस, प्रिज्युडिसिस अल्टिमेटली
रिजल्ट्स इन कंपेरिजन एण्ड कंपेरिजन रिजल्ट्स इन डिवीजंस एण्ड एण्ड्स इन डिस्ट्रकशंस।
सर, दिस विसियस सर्किल अपियर्स टु बी वेरी डिसीसिव एण्ड डिस्ट्रायस दि ह्युमैनिटी एट
लार्ज। इट हैज बीन स्टेटड बाई दि मैनी-मैनी स्कालर्स दैट दिस कल्चर ऑफ मैनकाइंड इ.ज
वेरी एनसिएंट वन। वुड यू प्लीज एनलाइटन ऑन दिस आस्पेक्ट ऑफ लाइफ?
भय निश्चित ही मनुष्य की सबसे
गहरी और बुनियादी समस्या है। भय से ज्यादा महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है क्योंकि सारी
संस्कृति, सभ्यता, धर्म, शिक्षा, हमारे जीवन की सारी व्यवस्था भय से बचने के लिए ही हमने की है। और जीवन का एक कीमती
सूत्र यह है कि जिससे हम बच कर भागते हैं उससे हम कभी नहीं बच पाते हैं। भय से बचने
के लिए धन इकट्ठा करते हैं, भय से बचने के लिए मित्र जुटाते हैं। पति-पत्नी, परिवार बसाते हैं।
भय से बचने के लिए समाज और राष्ट्र बनाते हैं। लेकिन इनसे भय मिटता नहीं बल्कि नये
भय खड़े हो जाते हैं।
मंदिर में प्रार्थना है, मस्जिद में नमाज है, चर्च में पुकार लगी
है परमात्मा की। उस सब के पीछे हमारा भय ही काम कर रहा है। धन भी भय से और धर्म भी
भय से। गृहस्थी भी आदमी बन रहा है भय से और संन्यासी बन रहा है तो भय से। पाप कर रहा
है तो भय के कारण कि अगर वह पाप नहीं किया तो असफल हो जाएगा, हार जाएगा जीवन की
दौड़ में और पुण्य कर रहा है तो भय के कारण कि कहीं नरक न चला जाए, कहीं आगे के जीवन
में भटक न जाए। अदभुत है भय! क्योंकि हम सब कुछ उसी के कारण कर रहे हैं और इतना सब
करने के बाद भी हम भय के बाहर कभी नहीं हो पाते, क्योंकि भय जीवन का एक तथ्य, एक फैक्टिसिटि है।
तथ्य से हम भाग नहीं सकते। तथ्य
से हम भागने में जो फिक्शन, फैक्ट्स से भागने में जो फिक्शन खड़े करते हैं, वे थोड़ी बहुत देर
को भुलावा बन सकते हैं, छलावा बन सकते हैं। लेकिन फिर भय का कष्ट उभर कर
सामने खड़ा हो जाता है। और हमने जो कल्पनाएं खड़ी की थीं, उन कल्पनाओं को बचाने
के लिए हमने जो झूठ खड़े किए थे, उन झूठों को बचाने के लिए और नये झूठ और नई कल्पनाएं
खड़ी करने पड़े और आदमी एक जाल में गिरता चला जाता है, जिससे बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता।
आज तक मनुष्य की पीड़ा यही रही है। जब मैं उसे ठीक
से खोज करता हूं तो मुझे पता चलता है कि भय बिलकुल अनिवार्य है। मृत्यु आएगी। वह जन्म
के साथ ही आ गई है। वह जीवन का उतना ही हिस्सा है, जितना मृत्यु है, जितना जन्म है। दुख भी आएगा, पीड़ा भी आएगी। मित्र
मिलेंगे भी, बिछुड़ेंगे भी। फूल जो खिला है, वह कुम्हलाएगा भी। सूरज जो उगा है वह डूबेगा भी।
हमारा मन चाहता है कि उगा हुआ सूरज उगा ही रह जाए। यह हमारे मन की कामना ही गलत है।
और हमारा मन चाहता है कि जो मिला है वह कभी न बिछड़े और हमारा मन चाहता है कि प्रेम, सतत बना रहे और हमारा
मन चाहता है कि फूल खिला तो अब खिला ही रहे। उसकी सुगंध कभी समाप्त न हो। उसकी ताजगी
कभी न मिटे। उसका युवापन कभी न मिटे। यह हमारे मन की जो चाह हैं, असंभव की मांग है।
यह कभी पूरी होने वाली नहीं है। अगर हम जीवन को देखेंगे तो वहां जन्मना और मरना साथ
ही साथ खड़े हैं। वे एक ही जीवन के दो हिस्से हैं। जो जीवन को समझेगा वह पूरे जीवन को
स्वीकार कर लेगा। वहां सुख और दुख, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो सुख को स्वीकार
करता है, वह दुख को भी स्वीकार कर लेगा। ऐसी स्वीकृति जिसके जीवन में आ जाए, वह भय के बाहर हो
जाता है। ऐसा नहीं है कि भय के कारण मिट जाते हैं, बल्कि भय का दंश और कांटा विलीन हो जाता है, क्योंकि भय भी स्वीकार
कर लिया गया।
लाओत्सु एक बहुत अदभुत बात कहता
है। वह कहता है कि मुझे कोई हरा नहीं सकता क्योंकि मैं पहले से ही हारा हुआ हूं। हार
को मैंने स्वीकार कर लिया है। इसलिए अब कोई मेरे ऊपर जीत भी नहीं सकता। क्योंकि जीत
उसको सकते हैं जिसको हरा सकते हों। मुझे कोई हरा ही नहीं सकता, क्योंकि मैं पहले
से ही हारा हुआ हूं। लाओत्सु कहता है कि मुझे कोई पीछे नहीं हटा सकता, क्योंकि मैं पहले
से ही पीछे खड़ा हूं। मुझे कोई नीचे नहीं उतार सकता, क्योंकि मैं कभी ऊपर ही नहीं चढ़ा हूं। इसलिए मेरे
ऊपर विजय असंभव है। मेरे ऊपर जीत असंभव है। मुझे कोई असफल नहीं कर सकता। मुझे कोई पीछे
नहीं हटा सकता, क्योंकि तुम जो कर सकते थे, वह मैंने स्वीकार कर लिया है। जीवन में असुरक्षा
है, इनसिक्युरिटी है। हम उसे स्वीकार नहीं करना चाहते, इसी से हम भय के
चक्कर में पड़ जाते हैं।
भय का जो चक्र है, वह असुरक्षा की अस्वीकृति
से जन्मता है। जो व्यक्ति असुरक्षा को मान लेता है कि ऐसा है, उसका भय विदा हो
जाता है। एक युवक मेरे पास आया। वह एक बड़ा चित्रकार है और बड़ी संभावना है प्रतिभा की।
अमरीका रह कर लौटा है और जहां भी गया है वही प्रशंसा पाई है। लेकिन इधर दो तीन वर्षों
से उसके मन में न मालूम कैसे-कैसे भय घर कर गए हैं। रास्ते से निकलता है और एक लंगड़े
आदमी को देख ले तो उसे लगता है कहीं मैं लंगड़ा न हो जाऊं। अंधे को देख ले तो लगता है
कि कहीं मैं अंधा न हो जाऊं। मुर्दे को देख ले तो लगता है कि कहीं मैं न मर जाऊं। अब
घर आकर वह निढाल, हताश पड़ जाता है। घंटों तक फिर उठ भी नहीं सकता। घर के लोग परेशान हैं। वह मेरे
पास उसे लेकर आए थे। घर के लोग समझा चुके हैं। साइकोएनालिसिस हो चुकी है। बड़े मनोवैज्ञानिकों
से मिल चुका है। कोई हल नहीं हुआ है और जितना समझाना-बुझाना और जितना मनोविश्लेषण चला
है उतना भयभीत होता चला जाता है। मेरे पास उसके मां-पिता उसकी पत्नी उसे लेकर आए और
कहने लगे कि हम मुश्किल में पड़ गए हैं। आप समझाएं, शायद आपकी समझ जाए। तो मैंने उनसे कहाः समझाना ही
गलत है। समझाते क्या हो इसे तुम। उन्होंने कहा कि हम समझाते हैं कि तू पूरी तरह स्वस्थ
है; मेडिकल रिपोर्ट है, तेरी आंख नहीं जा सकती है। तेरा पैर लंगड़ा नहीं होगा, तुझे लकवा नहीं लगेगा, फिर तू क्यों व्यर्थ
परेशान हो रहा है!
तो मैंने उनके मां-बाप से कहा
कि तुम ही इसे गलत समझा रहे हो। उसका भय तो बिलकुल ही स्वाभाविक है। जो आदमी आज अंधा
है, उसे कल पता भी नहीं था कि वह अंधा हो जाएगा? और अंधा हो गया। और जो आदमी आज पैरेलिसिस से पड़ा
हुआ है, उसे कल तक पता भी नहीं था। कल वह भी सड़क पर बाजार में उसी खुशी से चल रहा था। और
जो आदमी आज मर गया है उसे कल खबर थी कि मैं मर जाऊंगा? जिंदगी बहुत अनजान
है, आकस्मिक है। जिंदगी में सब कुछ हो सकता है। जिंदगी बड़ी अनप्रिडिक्टेबल है। इसके
बाबत कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। सब हो सकता है। यह तुम्हारा बेटा ठीक कहता है, तुम गलत समझाते हो।
यह ठीक कहता है, आंख जा सकती है, पैर जा सकते हैं, जिंदगी ही जा सकती है। असल में जो मिला है, वह जाएगा ही। अगर आंख अकेली नहीं जाएगी, पैर अकेला नहीं जाएगा
तो सारा शरीर इकट्ठा जाएगा, लेकिन जाना तो निश्चित है।
मृत्यु से ज्यादा निश्चित और
कुछ भी नहीं है। और जो सबसे ज्यादा निश्चित है उसे हम सबसे ज्यादा धक्का देना चाहते
हैं कि वह हमें पता न चले। तो मैंने कहा यह युवक ठीक कहता है। जब मैं यह कह रहा था
तब मैंने देखा कि युवक का चेहरा बदल गया है। उसकी रीढ़ सीधी हो गई है और वह मुझ से बोला
कि आप यह कहते हैं, यह निश्चित है, यह हो सकता है। मैंने कहाः सब हो सकता है। जिंदगी में सब हो सकता है। तुम उससे
बचना चाह रहे हो, इससे भय पैदा हो रहा है और बच तुम सकते नहीं। क्योंकि तुम्हारे भय से और तुम्हारे
भय की धारणा से बचने का कोई संबंध ही नहीं है। और फिर तुम इतने डरते क्यों हो कि आंख
चली जाएगी तो क्या होगा! पैर चले जाएंगे, हाथ चले जाएंगे तो क्या होगा! उस युवक ने कहाः फिर
मैं प्रेम नहीं कर पाऊंगा। चित्र नहीं बना पाऊंगा।
तो मैंने कहा, जब तक आंख नहीं गई
है, तब तक तुम चित्र बना लो। आंख किसी भी दिन जा सकती है। कल सुबह जा सकती है। आज रात
तुम्हें मिली है, चित्र बना लो। प्रेम कर लो। आंख तो जा सकती है। आंख तो बचाने का कोई मामला नहीं
है। तुम घर जाओ। तुम इस निशिं्चत भाव से सोओ, यह सब हो सकता है। तुम्हें समझाने वाले गलत हैं।
उनके समझाने से तुम्हारा भय और बढ़ गया है और वे झूठ समझा रहे हैं। वे भी जानते हैं
कि यह झूठ है। लेकिन तुम्हारा भय मिटाने के लिए वे झूठ खड़ी कर रहे हैं। मैं तुम्हें
ही नहीं समझाता, तुम्हारी मां को, तुम्हारे पिता को, तुम्हारी पत्नी को भी समझाता हूं कि तुम्हारी आंख
भी जा सकती है और तुम भी मरोगे। तुम इसको मत समझाओ। तुम खुद ही समझो। यह होने वाला
है।
वह युवक गया। वह दूसरे दिन सुबह
पांच बजे उठ कर मेरे पास आया। उसने कहा, तीन साल में मैं पहली दफा शांति से सोया हूं। मैं
इस तथ्य को झुठलाना चाहता था कि यह नहीं हो सकता, कभी ऐसा नहीं हो सकता कि मेरी आंख जाएगी। और भीतर
शक सरकता था कि जा तो सकती है। मैं कभी पागल नहीं होऊंगा। लेकिन एक मेरा मित्र पागल
हो गया, वह कल तक ठीक था। आखिर जब ठीक आदमी पागल हो सकता है तो मैं भी आज ठीक हूं, कल पागल क्यों नहीं
हो सकता हूं? मैं इसे हटाने की, छिपाने की कोशिश करता था। दूसरों से भी पूछता था
तो इसीलिए कि वे शायद मुझें समझा दें। शायद मेरा भय मिट जाए। और उससे ही मैं परेशान
हो गया था। नींद खो गई थी। मैं पागल हुआ जा रहा था। लेकिन कल रात जब मैंने देखा किसी
भी क्षण यह सब हो सकता है और जब दूसरों के साथ हुआ तो मैं कोई अनूठा हूं! मेरे साथ
भी हो सकता है। और जैसे ही मैंने इसे स्वीकार कर लिया है कि यह सब संभव है वैसे ही
मेरे मन से सारा भय चला गया। रात मैं पहली दफा तीन वर्षों में शांति से सोया था। और
आज मैं दूसरा ही आदमी उठा।
हम भय को अस्वीकार कर रहे हैं
वही हमारे भय को बढ़ाता चला जा रहा है। और एक नियम है मन का जिसे लाॅ आफ रिवर्स इफेक्ट
कहते हैं, विपरीत परिणाम का नियम--जो हम करना चाहते हैं, उससे उलटा हो जाता है।
एक आदमी नदी में डूबता है। वह
बचने की सारी कोशिश करता है और पानी में नीचे डूब जाता है और आदमी मर जाता है और मरा
हुआ आदमी कुछ कोशिश नहीं कर सकता। वह नदी के ऊपर तैर आता है। अब यह सोचने जैसा है कि
मरा हुआ आदमी ऊपर तैर आता है जिंदा आदमी नीचे चला जाता
है। बात क्या है? अगर जिंदा आदमी भी मुर्दे की भांति अपने को पानी में छोड़ दे तो डूब नहीं सकता।
मगर वह छोड़ नहीं पाता। वह बचाने की सारी कोशिश करता है। उसकी बचाने की सारी कोशिश में
वह थकता है, टूटता है, घबड़ाता है, चिल्लाता है। पानी भरता है और डूब जाता है। अगर एक आदमी जीवित अवस्था में भी मुर्दे
की भांति अपने को पानी पर छोड़ दे, वह डूबने वाला नहीं है। वह पानी पर तैर जाएगा। पानी
मुर्दों को डुबाता ही नहीं।
एक आदमी नया-नया साइकिल सीख
रहा है। वह डरता है कि कहीं उस खंभे से साइकिल न टकरा जाए। अब इतना बड़ा रास्ता है, साठ फीट चैड़ा और
खंभा एक छोटा सा चार इंच जगह घेर रहा है और यह घबड़ा रहा है कि खंभे से न टकरा जाए।
और खंभे से बचने की कोशिश कर रहा है। जब वह खंभे से टकरा न जाऊं और बचने की कोशिश में
लग गया तो रास्ता मिट गया, खंभा ही उसे दिखाई पड़ने लगा। अब उसका कनसनट्रेशन, उसका मस्तिष्क पूरा
खंभे पर टिक गया। साठ फीट का रास्ता मिट गया, खंभा रह गया। अब खंभा है और वह है। और बचने की कोशिश
है कि कहीं टकरा न जाऊं और उसका हैंडल घूमने लगा और उसका चाक खंभे की तरफ चलने लगा।
अब वह हिप्नोटाइज्ड हो गया है। अब खंभा ही सब कुछ है, उससे ही बचना है
और वह आदमी उस खंभे से टकराएगा। इस खंभे से टकराने में खंभे का कोई कसूर नहीं है। अगर
आदमी आंख बंद करके भी सड़क पर साइकिल चलाता तो भी खंभे से टकराने की बहुत कम संभावना
थी, क्योंकि खंभा इतनी छोटी जगह घेरे हुए है। निशानबाज भी चूक सकता था, लेकिन यह आदमी नहीं
चूका। इसका कारण है। इसने जिससे बचना चाहा, जिससे भयभीत हुआ, वही इसके मन में जगाता चला गया। इसने जितना कहा, खंभे से नहीं टकराऊंगा, उतना ही इसके मन
में विपरीत भाव उठने लगा कि कहीं टकरा न जाऊं, टकरा न जाऊं। यह मन में मजबूत होने लगा। जितना इसने
कहा कि नहीं टकराऊंगा, बचूंगा, बचने की कोशिश करूंगा; उतना ही मन इसका...।
भीतर चेतन में हम जो सोचते हैं, अचेतन में उससे ठीक विपरीत हो जाता है।
चेतन और अचेतन में हमारे विपरीत
संबंध हो गया है। एक आदमी चेतन में सोचता है कि किसी से डरना नहीं है और वह अचेतन में
सबसे डरने लगता है। एक आदमी चेतन मन में, कांशस माइंड में सेक्स से बचना चाहता है, अचेतन में सेक्स
ही सेक्स भर जाता है। हम चेतन 15ः37 (शब्द अस्पष्ट)में जिससे भागते हैं, अचेतन में वही हमें
घेर लेता है। हम दूसरे को धोखा दे भी सकते हैं कि हम नहीं डरते, लेकिन हम अपने को
कैसे धोखा दे सकते हैं? हम तो जानते ही रहेंगे कि डर है, पूरी तरह मौजूद है।
हम भयभीत हैं। घबड़ाए हुए हैं। यह जान कर हैरानी होगी कि जो लोग बाहर की दुनिया में
बड़े अकड़ कर चलते हुए मालूम पड़ते हैं मगर भीतर बड़े डरे हुए लोग हैं। तो वह जो आपने पूछा
है, वेनिटी--वह (16ः08 अस्पष्ट) फियर से जुड़ी हुई है। असल में दंभी आदमी, अकड़ा हुआ आदमी जो
कह रहा है--मैं कुछ हूं, वह भीतर डरा हुआ है कि मैं कुछ भी नहीं हूं और वह
दूसरों के सामने यह सिद्ध करने में लगा हुआ है कि वह मेरा भय गलत है। मैं कुछ हूं।
वह बहुत सेंसिटिव है। अगर जरा उसे आपका घक्का लग जाए तो वह कहेगा कि आपको पता नहीं
कि मैं कौन हूं। जानते नहीं कि मैं कौन हूं? वह अत्यंत संवेदनशील है कि कहीं कोई मुझे नो-बडी
तो नहीं समझ रहा, क्योंकि भीतर तो वह जान रहा है कि मैं नो-बडी हूं। मैं कुछ भी तो नहीं हूं।
तो सच बात यही है कि कोई भी
कुछ नहीं है और इसलिए समबडी होने का, कुछ होने का भाव पैदा कर रहा है चेतन में। ताकि वह
जो नो-बडीनेस है भीतर, जो नथिंगनेस है--है क्या कोई आदमी? पानी पर बने हुए
एक बबूले से ज्यादा क्या है! मगर वह डर है भीतर और उसको हम स्वीकार नहीं कर रहे तो
उससे उलटा हम किए चले जा रहे हैं। उससे उलटा हम बता रहे हैं कि नहीं, एक आदमी डरा हुआ
है मृत्यु से, वह दूसरों को डरा रहा है कि मैं तुम्हें मार डालूंगा और वह अपने लिए यह विश्वास
दिलाना चाह रहा है कि जब मैं दूसरों को मार सकता हूं तो मुझे कौन मार सकता है! मेरी
मृत्यु होने वाली नहीं है।
दुनिया में यह जो चंगीज है, तैमूर है, हिटलर है, ये जो दूसरों को
मारने की धमकी दे रहे हैं, मार रहे हैं, ये सब मृत्यु से डरे हुए लोग हैं। और ये दूसरों को
मार कर यह आश्वासन पा रहे हैं कि मैं तो कई को मार सकता हूं, मुझे कोई नहीं मार
सकता है।
हमारे चेतन मन में हम वही करना
शुरू कर देते हैं जिससे हम भीतर डरे हुए हैं। तो अक्सर भयभीत आदमी अभय का आवरण ओढ़ लेता
है, कवच ओढ़ लेता है, अकड़ कर चलता है। उसकी अकड़ सिर्फ भय का सबूत है। असल में जिस आदमी ने भय को स्वीकार
कर लिया, वह अकड़ कर भी नहीं चल रहा। वह मानता है कि ठीक है, भय है। तब उस आदमी
की जिंदगी में एक और ही तरह की सरलता आ जाती है और उस आदमी के चेतन और अचेतन मिल जाते
हैं। तब वे दो विरोध नहीं रह जाते। तब एक हारमोनियस माइंड उसके भीतर पैदा हो जाता है।
उसने स्वीकार कर लिया है, जो है वह है। उसने इनकार ही करना बंद कर दिया। क्योंकि
इनकार वह कर सकता है लेकिन जीवन के गहरे में जो बैठा है, उसे इनकार करने से
वह मिटता नहीं।
हमें पता है कि हम मरेंगे। यह
हमारे अचेतन में बैठा है। यही निश्चित होकर बैठा है। अब उसे हम चेतन मन में इनकार कर
रहे हैं कि मैं मरने वाला नहीं हूं। सब मर जाएंगे, मैं नहीं मरूंगा। तो हमारे भीतर विरोध पैदा हो रहा
है। सच बात तो यह है कि कांशस और अनकांशस जैसे दो मन नहीं हैं। मन तो एक ही है। लेकिन
चेतन मन इस तरह की धारणाएं करता है कि असली धारणाओं को उसे अंधेरे में धक्का देना पड़ता
है। जो वस्तुतः जीवन के तथ्य हैं...और इस तरह एक दीवाल खड़ी कर लेता है खुद ताकि उसे
पता न चल पाए कि भीतर उसके वह असली बात छिपी है। वह असली बात उसके भीतर मौजूद है, वह उसको पता न चल
पाए कि वह एक दीवाल खड़ी कर रहा है, वह उसे अंधेरे में डाल रहा है। वह उतना ही जानना
चाहता है जो प्रकाशित है जो उसको दिखाई पड़ता है साफ सुथरा, जो उसने बनाया है।
तो एक मन है जो हमने निर्मित
किया है और एक मन है जो हमें मिला है। जो हमें मिला है, उस मन के तथ्यों
का बोध है उस मन को और जो हमने बनाया है, वह बिलकुल ही प्रोजेक्शन है, बिलकुल ही फिक्शन
है। भय है तो हमने एक अभयता पैदा कर ली है। मौत का डर है तो हमने सिद्धांत बना लिए
हैं कि मृत्यु हो नहीं सकती। आत्मा अमर है। प्रेम टूट सकता है तो हमने सिद्धांत बनाया
है कि प्रेम शाश्वत है। प्रेम कभी नहीं टूटता। मित्रता कभी टूट ही नहीं सकती। जो अपने
हैं वे सदा अपने हैं। ये सब हमने चेतन मन में खड़े कर लिए हैं। इन सबसे वेनिटी पैदा
हुई है। वेनिटी जो है वह इनवेंटड फियर है। शीर्षासन करता हुआ भय है। अहंकार है। उलटा
खड़ा हो गया है। उलटा खड़ा होकर अब वह अपने को समझ रहा है कि निशिं्चत हो गया है। बात
खत्म हो गई। अब कोई डर भी नहीं है। लेकिन डर भीतर मौजूद बना ही रहेगा। वह खाएगा ही।
जो आदमी घर के बाहर बहुत गंभीर है, वह घर के भीतर दब्बू पाया जाएगा। जो आफिसर दफ्तर
में बहुत अकड़ वाला है वह घर जाकर अपनी पत्नी बच्चों से ही डरेगा। जो आदमी दिन भर अकड़ा
रहेगा, रात सपने में बहुत भय के सपने देखेगा। नाइट मेयर (20ः50 अस्पष्ट)...
एक तरफ हम किसी तरह अपने को
सम्हाल लें तो मन का दूसरा हिस्सा असर्ट करेगा। वह निकलेगा। उससे हम बच नहीं सकते।
इसलिए हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि बड़े-बड़े सेनापति, बड़े-बड़े बादशाह जिनकी
बहादुरी में कोई शक नहीं, वह भी अपनी औरत से घर में जाकर डरने लगता है, क्योंकि एक हिस्सा
पूरा हो गया आकर। आखिर कहीं तो रिलैक्स होओगे जाकर। चैबीस घंटे अकड़े कैसे रह सकते हो, विश्राम तो करना
पड़ेगा। तो बाहर अगर अकड़े रह गए तो घर जाकर विश्राम करना पड़ेगा। और जब विश्राम करोगे
तब वह दब्बुपन सब गायब हो जाएगा। इसलिए अक्सर यह हो जाता है बड़े बहादुर, बड़े नेता और एक साधारण
सी स्त्री से भयभीत हो गए और उनके भयभीत होने का कारण स्त्री में नहीं है। उनके भयभीत
होने का कारण है कि घर में आकर तो विश्राम करोगे। अगर बाहर चित्त अकड़ा रखा है तो घर
में आकर शिथिल करना पड़ेगा। अगर शिथिल करोगे तो सब अकड़ चली जाएगी और तब कोई भी तुम्हें
दबा सकता है।
हम अपने मन को दो हिस्सों में
तोड़ लेते हैं। भय ही अहंकार बन जाता है। भय, जो अपने को स्वीकार नहीं करता है। इनकार किया गया
भय अहंकार बन जाता है। मेरा कहना है कि भय को इनकार मत करो, वह है। आज मेरा प्रेम
है कल का पता नहीं। जिंदगी बड़ी अनिश्चित है, सब यहां अनसर्टेन है। सर्टेनिटी सिर्फ मनुष्य का
खयाल है। यहां कोई चीज स्थिर नहीं है। आज मेरे मित्र हैं कल का कुछ पता नहीं। कल सुबह
मेरे शत्रु भी हो सकते हो। यह संभावना बाकी है। यह संभावना मुझे स्वीकृत होनी चाहिए।
तब फिर भय का क्या कारण है! तब फिर भय का कोई कारण नहीं है। यह मैं मानता हूं कि कल
ऐसा हो सकता है, उसकी स्वीकृति मेरे मन में है, विरोध नहीं है। तो जब ऐसा होगा तो मैं स्वीकार कर
लूंगा और जब तक ऐेसा नहीं हुआ है तब तक मैं मित्रता का जो आनंद ले सकता हूं, वह लूंगा। ऐसा व्यक्ति
मित्रता का भी आनंद लेगा। और कल मित्रता चली जाएगी तो पीड़ित भी नहीं होने वाला है।
क्योंकि वह जानता था कि जो फूल खिलता है, वह मुर्झाता है।
ऐसे व्यक्ति को कोई पीड़ा नहीं
घेरने वाली। ऐसा व्यक्ति जीवन के सब सुखों-दुखों में सहजता से गुजरता चला जाएगा। सुख
आएगा तब भी वह जानेगा कि यह भी निश्चित नहीं है। यह तो कल चले ही जाने वाला है। और
दुख आएगा तब भी वह जानेगा कि यह भी दुख निश्चित नहीं है। यह भी कल चला जाएगा। और ऐसा
व्यक्ति जो सारी चीजों को जानता है कि आएंगी और जाएंगी, धीरे-धीरे सबसे मुक्त
हो जाता है। न उसे सुख घेरता, न उसे दुख घेरता। वह जानता है कि धूप भी आती है, छाया भी आती है।
यह सब आते हैं और चले जाते हैं। पर धीरे-धीरे ऐसा व्यक्ति साक्षी हो जाता है, विटनेस हो जाता है, जो हो रहा है।
एक फकीर मर गया। उसका शिष्य
छाती पीट कर रो रहा था। उस शिष्य की बड़ी ख्याति थी। अब सैकड़ों लोग ऐसा समझते थे कि
वह ज्ञान को उपलब्ध हो गया। हजारों लोग आए थे फकीर के मरने पर। और उस व्यक्ति को रोते
देख कर उन्हें बड़ी बेचैनी होने लगी। और उनमें से कुछ ने आकर कहा कि तुम रोते हो तो
हमें हैरानी होती है। हम तो सोचते थे, तुम ज्ञान को उपलब्ध हो चुके हो। हम तो सोचते थे
कि तुम जानते हो कि मृत्यु होती ही नहीं। आत्मा अमर है।
उस फकीर ने कहा कि वह मैं जानता
था, अब भी जानता हूं। लेकिन जो भी होता है उसे मैं कभी नहीं रोकता हूं। मैं उसे स्वीकार
करता हूं। इस वक्त आंसू आ रहे हैं, मैं उन्हें स्वीकार कर रहा हूं। रोना आ रहा है , मैं स्वीकार कर रहा
हूं। मैं इसे दबाऊंगा नहीं। वर्षा आती है, सर्दी आती है, धूप आती है और फिर मैं उस आदमी की आत्मा के लिए नहीं
रो रहा हूं। क्योंकि आत्मा नहीं मरती, यह मैं जानता हूं। लेकिन उसका शरीर भी बड़ा प्यारा
था। वह शरीर अब जगत में दुबारा नहीं होगा। और फिर यह सवाल नहीं है, क्योंकि मैं यह सोचता
ही नहीं कि मैं क्या करूं! जो होता है वह मुझे स्वीकार है। रोना आ रहा है तो मुझे स्वीकार
है। शायद ही वे लोग समझ सके हों कि वह आदमी ज्ञान को उपलब्ध हुआ है। क्योंकि हमारी
ज्ञान की धारणा है कि जो न भयभीत हो, जो न दुखी हो, जो न पीड़ित हो। लेकिन हमें पता ही नहीं है, हमें पता ही नहीं
है कि जो आदमी मुस्कुराया और मुस्कुराने को स्वीकार करता है, वह कभी रोएगा और
रोने को स्वीकार करना चाहिए।
असल में जीवन के सत्य को उपलब्ध
व्यक्ति इस द्वंद्व में से एक को नहीं चुनता है। इन दोनों के बीच समभावी हो जाता है।
रोते हुए भी वह साक्षी है कि रोना आ रहा है तो मैं क्या करूंगा, ठीक है। उसका कोई
सप्रेशन, कोई दमन उसका नहीं है। जीवन के सारे सत्य स्वीकार हो जाने चाहिए और हमें जानना
चाहिए, ऐसा है। थिंग्.ज आर ए.ज सच। और जब इतना बोध गहरा होता चला जाए कि ऐसा है। और हम
किसी तथ्य से बचने की चेष्टा में न लग जाएं तो भय विलीन हो जाता है।
और जिस व्यक्ति का भय विलीन
हो गया, उस व्यक्ति के जीवन के सारे झूठ विलीन हो जाते हैं। क्योंकि भय से बचने को ही झूठ
खड़े किए थे। तब वह किसी स्त्री को पत्नी नहीं कहेगा, क्योंकि वह झूठ था। जो प्रेम न टूट जाए, इस डर से खड़ा किया
गया था। यह डर था कि आज प्रेम है, कल टूट जाए तो कानून से व्यवस्था कर ली है। समाज
के सामने साक्षी ले ली। वह अब किसी पत्नी को पत्नी नहीं कहेगा। अब मित्र ही कोई पत्नी
हो सकती है। और वह मित्रता भी वैसी ही है जो किसी भी क्षण विदा हो सकती है और मेरा
मानना है कि जिस चीज के विदा होने का हमें पता है, उसका रस, उसका आनंद गहरा हो जाता है, कम नहीं होता।
सड़क के किनारे पत्थर पड़ा है, वह उतना रसपूर्ण
नहीं मालूम होता और जो फूल खिला है, जो घड़ी भर बाद कुम्हला ही जाने वाला है, वह ज्यादा रसपूर्ण
मालूम होता है। क्योंकि वह इतना जीवंत है। उसका जीवन इतना तीव्र है, इसलिए तो विदा होगा।
तो वैसा व्यक्ति मित्रों को बांध नहीं लेगा। पजेशन नहीं होगा। क्योंकि वह जानता है, चीजें छूट सकती हैं
और मजे की बात यह है कि जितना पजेसिव होता है आदमी, उतनी जल्दी चीजें छूट जाती हैं। और जितना नाॅन-पजेसिव
होता है, उतनी चीजें उसके निकट चली आती हैं। क्योंकि ऐसा आदमी जो हमें बांधना चाहता है, उससे हम स्वतंत्र
होना चाहेंगे। और जो आदमी हमें बांधता ही नहीं, जिसने कभी हमें बांधा ही नहीं, उससे स्वतंत्र होने
का सवाल ही नहीं उठता। यानी मेरा मानना है कि एक स्त्री को मैं पकड़ कर बैठा लूं कि
जीवन भर मुझे प्रेम करना पड़ेगा तो यह प्रेम इसी वक्त खत्म हो गया। जीवन की तो बात ही
अलग, इसी क्षण गया। क्योंकि यह मांग इतनी कठोर है कि प्रेम को मार डालेगा।
प्रेम स्वतंत्रता का दान है, तो हो सकता है कि
स्त्री के शरीर को मैं जीवन भर बांधे रहने के लिए प्रेम पहले दिन ही मर गया। इस मांग
ने ही मार डाला। इस मालकियत ने मार डाला। लेकिन मैं कहता हूं कि इस क्षण दिया, यही धन्यवाद है मेरा।
और यह क्षण क्या कम है और यह क्षण पर्याप्त है, अगले क्षण मिलेगा तो धन्यवाद है; नहीं मिलेगा तो मानूंगा
कि यह जीवन का हिस्सा है। तो हो सकता है कि जीवन भर भी मिल जाए, क्योंकि मुझे क्षणों
से ज्यादा की कामना भी नहीं है। और जिस क्षण में मिल गया है, उसके लिए आभारी हूं, अनुगृहीत हूं। बात
खत्म हो गई है। कोई मालकियत नहीं है, कोई दबाव नहीं है, कोई दमन नहीं है। तो जो आदमी जितना कम परतंत्र करता
है, उससे स्वतंत्र होने का सवाल ही नहीं उठता है। हम उसके साथ जन्मों-जन्मों तक मित्र
हो सकते हैं।
मित्रता टूटती है पजेशन से।
प्रेम टूटता है पजेशन से। और पजेशन पैदा होता है भय से। भय है इसका कि कल कहीं किसी
और को प्रेम न करने लगो। तो मैं सब तरफ दीवालें खड़ी करता हूं। द्वार दरवाजों पर ताले
लगाता हूं कि तुम कहीं किसी और से प्रेम मत करने लगना। क्योंकि किसी और को तुमने प्रेम
किया तो मेरा क्या होगा, तो मैं इंतजाम कर रहा हूं। और ऐसे इंतजाम में मैं
प्रेम को मार डालूंगा। यह वैसे ही है जैसे कोई फूल को तिजोड़ी में बंद कर दे, ताला लगा दे। उसके
हाथ में राख ही हाथ आने वाली है। फूल तिजोड़ी में बंद होने वाली चीज नहीं है। वहां सिर्फ
मरी चीजें ही बंद की जा सकती हैं। रुपये से ज्यादा मृत कोई चीज नहीं है। इसलिए तिजोड़ी
में बंद हो सकता है और वही का वही रहता है, जैसा बंद किया, वैसा ही निकल आता है। वह मरता है, मरा हुआ है। फूल
बंद नहीं हो सकते। प्रेम बंद नहीं हो सकता।
आदमी जीवंत है और प्रेम जीवन
का फूल है। यहां जो भी महत्वपूर्ण है, वह बंद नहीं हो सकता। बंद करते ही मर जाएगा। और हमारा
भय सब चीजों को बंद कर लेना चाहता है। हम तो परमात्मा तक को बंद कर लेना चाहते हैं।
हम तो परमात्मा तक पर दावा करते हैं कि यह मेरा भगवान है। यहां दूसरा आदमी इस मंदिर
में नहीं घुस सकता है। वह हमारा वही पजेशन जो स्त्री पर, पत्नी पर, मित्र पर था वह भगवान
पर भी है। यह, यह देवी का मंदिर है। यह मुसलमान का मंदिर है, यह ब्राह्मण का मंदिर है, यहां शूद्र नहीं
आ सकता। यह हमारा है। वहां भी हमारी मालकियत है। हम भगवान को भी मार डाले हैं। इसलिए
मंदिरों में जिंदा भगवान नहीं मिल सकता। जिंदा भगवान इस जीवन में मिल जाएगा कहीं भी, मंदिर में नहीं मिल
सकता। जैसे तिजोड़ी में फूल बंद होने से मर जाता है, ऐसे मंदिर में भगवान बंद होने से मर गया है। और बंधन
इसलिए करते हैं ताकि हम सुरक्षित रहें। ताकि जब हम उसे खोजना चाहें, वह हमें मिल जाए।
जब हम पाना चाहें तब, हमें वह ऐसा न हो कि हम मंदिर जाएं और भगवान न मिले। हमने पत्थर की मूर्ति वहां
खड़ी कर रखी है, जो हमें मिल ही जाएगी हर हालत में। जब भी हम जाएंगे, तब वह हमें उपलब्ध
होगी।
सब तरफ जहां-जहां हमने भय के
कारण सुरक्षा की है, वहीं-वहीं भूल हो गई। फिर हमारी प्रार्थना भी सच्ची नहीं है। फिर हमारा प्रेम भी
सच्चा नहीं है। क्योंकि सब के पीछे भय सरक रहा है। जब किसी को मैं कह रहा हूं कि मैं
तुम्हें बहुत प्रेम करता हूं, तब हम भीतर अगर थोड़ा झांक कर देखें तो शायद पता चले
कि प्रेम हम बिलकुल नहीं करते हैं। और यह सिर्फ मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि यह मैत्री
कायम बनी रहे। यह पजेशन कायम रहे। आदमी हाथ जोड़ कर भगवान से प्रार्थना कर रहा है। और
पूरे वक्त भयभीत है और शायद इसलिए भगवान की प्रार्थना करने आया है कि डरा हुआ है कि
कहीं प्रार्थना नहीं की तो भगवान नाराज न हो जाएं! कहीं कोई दुख न आ जाए! कहीं कोई
मुसीबत न आ जाए! तो प्रार्थना भी झूठी हो गई है।
भय ने सब असत्य कर दिया है।
और भय ने हजार असत्य खड़े किए हैं जो हमने भय से बचने के लिए खड़े किए हैं। भय न जाए
तो कोई आदमी कभी भी सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। भय जो है, वह ओरिजिनल सोर्स
है--असत्य का, झूठ का, कल्पना का, सपने का, मनमानी कल्पना खड़ी करने का मूल स्रोत है। और भय से ऊपर उठना हो तो भय की स्वीकृति
चाहिए, यह हमारी समझ में नहीं आ पाता। जिससे ऊपर उठना हो उसको स्वीकार कर लो और उसके आदमी
ऊपर उठ जाता है। एक्सेप्टेंस इ.ज दि ट्रांसफार्मेशन। टोटल एक्सेप्टेंस इ.ज टोटल ट्रांसफार्मेशन।
तुम इस स्वीकृति से बाहर हो गए, फिर बात खतम हो गई।
मौत आए मेरे द्वार पर और मैं
पूर्ण स्वीकार कर लूं कि आओ, वैसे ही जैसे कोई मित्र, अतिथि आए और मैं
उसे बुला लूं तो मौत व्यर्थ हो गई। क्योंकि मौत की सार्थकता मुझे भयभीत करने में है
और अगर मौत मुझे भयभीत कर लेती तो मैं मरने के पहले मर गया होता। और मौत अगर मुझे भयभीत
नहीं कर पाती तो मौत आ जाएगी और मैं रहूंगा। मौत आ जाएगी और मैं रहूंगा। जिन्होंने
मौत को स्वीकार कर लिया, उन्होंने पाया कि आत्मा अमर है। लेकिन हम उलटे लोग
हैं। हम आत्मा की अमरता की बात ही इसलिए कर रहे हैं कि मौत को स्वीकार न करना पड़े।
हमारी जो आत्मा की अमरता है वह हम मान ही इसीलिए रहे हैं, किताब पढ़-पढ़ कर पक्का
कर रहे हैं, गुरुजनों से पूछ रहे हैं। साधु-संन्यासियों के चरणों में जा रहे हैं, सिर्फ एक पक्का करने
के लिए--आत्मा अमर है न! आत्मा अमर हो तो हमारी मृत्यु का भय मिट जाए। और आत्मा अमर
नहीं है तो हम मौत से डरे हुए हैं, तो हम मर जाएंगे। इसलिए जिस कौम में, जिस समाज में, जितने आत्मा की अमरता
के मानने वाले ज्यादा लोग हैं, समझना कि वहां मौत से डरने वाले उतने ही लोग हैं।
क्योंकि वे लोग तो बहुत कम हैं जो आत्मा की अमरता को जान पाते हैं, क्योंकि उसको जानने
की शर्त एक है कि जिन्हें मौत स्वीकार हो गई। जिन्होंने मौत को भी गले लगा लिया कि
आओ, वह मौत के बाहर निकल गए। फिर मौत उनके ऊपर विवश, फिर उन पर कुछ भी उसका वश नहीं चलता। फिर वह परवश
हो गई, फिर वह हार गई।
जिस दुख को हम स्वीकार कर लेंगे, हम उसके बाहर हो
जाएंगे। दुख हम पर जीतता है क्योंकि हम अस्वीकार करते हैं। जो दुख आए स्वीकार कर लिया
है। जो भी हुआ स्वीकार कर लिया। हमारे भीतर कोई निषेध नहीं, कोई विरोध नहीं, कोई रेसिस्टेंस नहीं
है। जीवन जैसा आता है, जैसे हवाएं गुजरती हैं वृक्षों के पास, पूरब गुजरती हैं
तो वृक्ष को स्वीकार है। पश्चिम गुजरती हैं तो वृक्ष को स्वीकार है। पूरब गुजरती हैं
तो वृक्ष की शाखाएं पूरब की तरफ उड़ने लगती हैं और पत्ते पूरब की सूचनाएं देने लगते
हैं। और पश्चिम गुजरती है तो वृक्ष को पश्चिम की तरफ स्वीकार है। हवाएं कैसी भी चलें, वृक्ष राजी है। वृक्ष
को कंपा डालती हैं तो राजी है। वृक्ष खड़ा रहता है तो राजी है। सब में राजी है। ऐसी
सब में राजी होने की क्षमता आ जाए, जीवन के सब तथ्यों में हवाएं कैसी भी चलें तो आदमी
तत्काल भय के बाहर हो जाता है।
यू फील सर, दैट दि एजुकेशन व्हिच
वी आर गिविंग इन दि स्कूल्स ऑर युनिवर्सिटीज व्हिच इ.ज बेस्ड आन दि कंपेरिजन इ.ज हार्मफुल
एण्ड इफ इट इ.ज हार्मफुल, वाॅट मेजर्स शुड वी टेक सो दैट वी कैन बिं्रग दि
ह्युमिनिटी विदआउट फियर?
निश्चित ही कंपेरिजन, तुलना की शिक्षा
अत्यंत घातक है, जहरीली है, विषाक्त है। क्योंकि जैसे ही हम किसी व्यक्ति को तुलना में सोचना शुरू करते हैं
और किसी व्यक्ति की किसी से तुलना करते हैं, वैसे ही हम उसमें हीनता, भय, महत्वकांक्षा सब
पैदा करते हैं। वह डर गया है। क्योंकि जब हम किसी व्यक्ति की तुलना करते हैं, अ से हम कहते हैं
कि ब तुझसे श्रेष्ठ है। तुझे भी ब के ऊपर उठना चाहिए। वैसे ही हम अ के भीतर भय पैदा
कर रहे हैं। अब वह डर गया जिंदगी से, कैसे ब से आगे हो! कैसे ब के आगे हो और ब के भी आगे
हो जाए तो क्या फर्क पड़ता है, आगे स खड़ा है। हजारों की कतार है आगे। सबसे आगे होना
है। वह आदमी भयभीत हो गया। वह आदमी डर गया। और जब हम किसी आदमी की तुलना किसी और से
करते हैं तो उसका मतलब है कि हम उस आदमी को स्वीकार नहीं करते हैं। वह आदमी अस्वीकृत
हो गया, उसी वक्त। वह आदमी जैसा है, वह स्वीकार न रहा। उसे ऐसा होना चाहिए तब हम स्वीकार
करेंगे। तो हमने उस आदमी के व्यक्तित्व का इतना गहरा अपमान किया कि यह अपमान उसे घबड़ा
ही देगा, डरा ही देगा और इस अपमान से बचने के लिए वह पागल दौड़ में लग जाएगा।
सच्ची शिक्षा तुलना पर खड़ी नहीं
होगी। सच्ची शिक्षा एक-एक व्यक्ति को वह जैसा है वैसा स्वीकार करेगी। सच्ची शिक्षा
उसे तुलना नहीं सिखाएगी। सच्ची शिक्षा उसे दूसरे से आगे बढ़ना नहीं सिखाएगी। सच्ची शिक्षा
वह जो है, उसी को जानना सिखाएगी। वह आत्म-ज्ञान देगी, सेल्फ-नालेज देगी। अभी जो शिक्षा है वह दूसरे से
तुलना देती है, स्वयं का ज्ञान नहीं। और दूसरे से तुलना में एक दौड़ शुरू होती है, जिसका कोई अंत नहीं
है और व्यक्ति जिंदगी भर कंपता रहता है भय से कि कहीं पीछे न रह जाए। और कितना ही दौड़े, सदा पीछे ही होता
है क्योंकि और लोग आगे हैं। जीवन एक चक्कर है। इसमें अनंत लोग हैं। कोई आदमी आज तक
नंबर एक नहीं हो पाया है। एक तरफ से नंबर एक होता है तो पाता है पच्चीस तरफ से दूसरों
से नंबर दो है। एक आदमी प्रधानमंत्री हो गया तो पाता है कि फलाना आदमी के बराबर ज्ञान
नहीं है उसके पास। एक आदमी ज्ञानी हो गया तो पाता है फलाना आदमी सुंदर है। एक आदमी
सुंदर है तो पाता है फलाना आदमी स्वस्थ है, पहलवान है। जिंदगी के हजार आयाम हैं और सब आयामों
में कोई नंबर एक नहीं हो सकता। इसलिए नंबर दो, नंबर तीन बना ही रहता है हर आदमी। और तब उसे दुख
बना रहता है, अपमान बना रहता है। यह अपमान खा जाता है जीवन को। और जो शिक्षा अपमान देती है व्यक्ति
को, वह शिक्षा व्यक्ति का आदर नहीं करती, सम्मान नहीं करती।
मैं एक ऐसी शिक्षा चाहता हूं
जहां प्रत्येक व्यक्ति स्वयं प्रतिष्ठित स्वीकृत है, वह जैसा है। उससे किसी दूसरे की तुलना का कोई सवाल
ही नहीं है, और तुलना गलत है। क्योंकि कोई दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं। इसलिए तुलना हो भी
नहीं सकती। तुलना हो सकती थी, अगर सब मनुष्य एक जैसे होते, लेकिन एक-एक व्यक्ति
अपने ही जैसा है। उस जैसा कोई आदमी ही दूसरा नहीं है, तो तुलना कैसी! तुलना
किससे और कैसे हो सकती है? न इस जैसे मां-बाप किसी को मिले। न इस जैसा घर किसी
को मिला। न इस जैसी आंख किसी को मिली। न इस जैसा शरीर, न इस जैसा मस्तिष्क, न इस जैसी आत्मा, ऐसा किसी को भी नहीं
मिला। यह बस यूनीक है। यह बेजोड़ है मनुष्य के पूरे इतिहास में, न पीछे, न आगे कभी ऐसा आदमी
होगा। क्योंकि ऐसा आदमी होने के लिए वे सारी परिस्थितियां, अनंत परिस्थितियां
फिर दोहरानी पड़ेंगी, जो नहीं दोहर सकतीं। इसलिए हमेशा आदमी नया है, अलग है, प्रकट है, तुलना गलत है।
एक-एक व्यक्ति अद्वितीय है, यह भाव शिक्षा को
पैदा करना चाहिए। एक-एक व्यक्ति अद्वितीय है और एक-एक व्यक्ति जैसा है, वैसा सम्मानित है।
और कोशिश यह करनी चाहिए कि वह अपने को खोज सके और प्रकट कर सके। वह निरंतर अपने भीतर
जा सके और गहरे और गहरे। अपनी सारी पोटेंशियलिटी को जान सके। क्या बीज उसके भीतर है
और उसे विकसित करने के लिए शिक्षा सहयोगी बने। वह व्यक्ति बन सके जो बनने को पैदा हुआ
है। वह जो हो सकता है, वह हो जाए। इसकी तुलना का कोई सवाल नहीं है। एक घास
का फूल है, वह घास का फूल होगा। एक गुलाब का फूल है, वह गुलाब का फूल होगा। और मजे की बात यह है कि यह
सिर्फ आदमी की तुलना ने घास के फूल को हीन, क्षुद्र बना दिया है और गुलाब के फूल को ब्राह्मण
और श्रेष्ठ बना दिया है। प्रकृति के जगत में घास का फूल इतनी ही महिमा से भरा हुआ है
जितना गुलाब का फूल। जब हवाएं आती हैं उसकी खुशबू...
‘शिक्षाः साध्य और साधन’ विषय पर प्रश्नोत्तर-शृंखला-6
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