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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(धर्म और विज्ञान का समन्वय)

मनुष्य के जीवन की सारी यात्रा, जो अज्ञात है उसे जान लेने की यात्रा है। जो नहीं ज्ञात है उसे खोज लेने की यात्रा है। जो नहीं पाया गया है उसे पा लेने की यात्रा है। जो दूर है उसे निकट बना लेने की। जो कठिन है उसे सरल कर लेने की। जो अनुपलब्ध है उसे उपलब्ध कर लेने की। मनुष्य की इस यात्रा ने स्वभावतः दो दिशाएं ले ली हैं। एक दिशा मनुष्य के बाहर की ओर जाती है, दूसरी मनुष्य के भीतर की ओर।
एक फकीर औरत थी, राबिया। एक सुबह उसका एक मित्र फकीर उसके झोपड़े के बाहर आकर उसे बुलाने लगा और कहने लगा, राबिया, तू भीतर क्या कर रही है? बाहर आ। सूरज निकल रहा है। और बड़ी सुंदर सुबह का जन्म हुआ है। इतना सुंदर प्रभात मैंने कभी नहीं देखा। तू भीतर द्वार बंद किए क्या करती है?
बाहर आ। राबिया भीतर से हंसने लगी और उसने कहाः हसन, बाहर के सूरजों को मैंने बहुत देखा, बाहर, बाहर की प्रभात भी मैंने बहुत देखी, बहुत सुंदर सुबह देखी, बहुत सुंदर रात्रियां देखीं। बड़ी अदभुत हैं। लेकिन जब से मैं भीतर आ गई हूं, तब से जो देखा है, उसके सौंदर्य के आगे बाहर का सौंदर्य कुछ भी नहीं है। तो मैं तुझसे कहती हूं हसन, तू ही भीतर आ जा। तू बाहर क्या कर रहा है?


पता नहीं हसन की समझ में बात आई या नहीं। लेकिन एक तो जगत वह है जो आंखों से दिखाई पड़ता है, और एक जगत वह भी है जो आंखों से दिखाई नहीं पड़ता है। एक सत्य वह भी है जो हाथ के स्पर्श में आ जाता है, और एक सत्य वह भी है जिसकी सपनों में झलक मिलती है। एक हमसे बाहर है जगत, और एक हमारे भीतर भी। और इन दोनों जगतों का अपना सौंदर्य है, अपना सत्य है। इन दोनों जगतों की अपनी सच्चाई है, अपना यथार्थ है। शायद अंततोगत्वा, अल्टीमेटली ये दोनों जगत किसी एक ही चीज के दो पहलू हों। लेकिन साधारणतः ऊपर से देखे जाने पर ये दो दिखाई पड़ते हैं। इन दो के कारण ही धर्म और विज्ञान का जन्म हो गया।
जो जगत बाहर है, उसकी खोज; जो अज्ञात, जो अननोन, बाहर है, उसे जान लेने की यात्रा विज्ञान बन गई है। और जो जगत भीतर है, वह जो अज्ञात भीतर है, उससे परिचित हो जाने की, उसे जी लेने की और जान लेने की यात्रा धर्म बन गई। और मनुष्य की समृद्धि और शांति इसमें ही निर्भर है कि ये दोनों यात्राएं विरोधी न हों--सहयोगी हों, साथी हों, समन्वित हों। लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका।
अब तक जिन लोगों ने पदार्थ की जगत में खोज की है, वे लोग परमात्मा के विरोधी रहे हैं। और जिन लोगों ने परमात्मा की खोज की है, वे पदार्थ के निंदक रहे हैं। इन दोनों तरह के लोगों ने मनुष्य की संस्कृति को परिपूर्ण होने से रोका है। इन दोनों ने ही उसे परिपूर्ण होेने से रोका है। क्योंकि मनुष्य न केवल शरीर है, न केवल आत्मा है; मनुष्य न केवल पदार्थ है, न केवल परमात्मा है; मनुष्य तो दोनों का अदभुत मिलन और संगीत है। मनुष्य का जीवन दोनों के मध्य एक सेतु है, एक ब्रिज है। और इस बात को आज तक विस्मरण किया गया है, झुठलाया गया है।
जिन लोगों ने परमात्मा की प्रशंसा की, उन्होंने पदार्थ की निंदा पर परमात्मा की प्रशंसा की, जो गलत थी। पदार्थ के गौरव और गरिमा पर भी परमात्मा की प्रशंसा हो सकती थी। जिन लोगों ने पदार्थ की खोज-बीन की है और पदार्थ पर विजय की है, उन्होंने यह विजय परमात्मा की तरफ उपेक्षा, विरोध और अस्वीकार से की है।
यह परमात्मा के साथ और परमात्मा की प्रार्थना के साथ भी हो सकती थी। इसमें परमात्मा का कोई विरोध न था। लेकिन यह अब तक नहीं हुआ कुछ कारणों से। और विज्ञान और धर्म दो शत्रुओं की भांति खड़े हो गए हैं। उनकी शत्रुता मनुष्य के लिए बहुत महंगी पड़ रही है।
पश्चिम विज्ञान का प्रतीक बन गया है। पूरब धर्म का प्रतीक बन गया है। विज्ञान नास्तिकता का प्रतीक बन गया है, धर्म अलौकिकता का। ये दोनों ही बातें भ्रांत हैं और गलत हैं। ये दोनों ही बातें अधूरी और एकांगी हैं।
एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है, उससे मैं यह बात समझाना चाहूंगा।
रोम में एक सम्राट बीमार पड़ा हुआ था। वह इतना बीमार था कि चिकित्सकों ने अंततः इनकार कर दिया कि वह नहीं बच सकेगा। सम्राट और उसके प्रियजन बहुत चिंतित हो आए। और अब एक-एक घड़ी उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा ही करनी थी। और तभी रोम में यह खबर आई कि एक फकीर आया है जो मुर्दों को भी जिला सकता है। सम्राट की आंखों में आशा वापस लौट आई। उसने अपने वजीरों को भेजा उस फकीर को ले आने को। वह फकीर आया। और फकीर ने आकर उस सम्राट को कहा कि कौन कहता है कि तुम मर जाओगे? तुम्हें तो कोई बड़ी बीमारी भी नहीं है। तुम उठ कर बैठ जाओ, तुम ठीक हो सकोगे, एक छोटा सा इलाज कर लो। सम्राट जो महीनों से लेटा हुआ था, उठा नहीं था, उठ कर बैठ गया। उसने कहाः कौन सा इलाज? जल्दी बताओ उसके पहले कि मैं समाप्त न हो जाऊं। क्योंकि चिकित्सक कहते हैं कि मेरा बचना मुश्किल है। वह फकीर बोलाः क्या तुम्हारी इस राजधानी में एकाध ऐसा आदमी नहीं मिल सकेगा जो सुखी भी हो और समृद्ध भी? अगर मिल सके तो उसके कपड़े ले आओ और उसके कपड़े तुम पहन लो, तुम बच जाओगे। तुम्हारी मौत पास नहीं। वजीर बोलेः यह तो बहुत आसान सी बात है। इतनी बड़ी राजधानी है, इतने सुखी, इतने समृद्ध लोग हैं, महलों से...आकाश छू रहे हैं महल, आपको दिखाई नहीं पड़ता? यह वस्त्र हम अभी ले आते हैं।
फकीर हंसने लगा, उसने कहाः अगर तुम वस्त्र ले आओ तो सम्राट बच जाएगा। वे वजीर भागे। वह उस फकीर की हंसी को कोई भी न समझ सका। वे गए नगर के सबसे बड़े धनपति के पास और उन्होंने जाकर कहा कि सम्राट मरणशय्या पर है और किसी फकीर ने कहा है कि वह बच जाएगा, किसी सुखी और समृद्ध आदमी के वस्त्र चाहिए, आप अपने वस्त्र दे दें। वह नगर सेठ की आंखों में आंसू आ गए। उसने कहाः मैं अपने वस्त्र ही नहीं, अपने प्राण भी दे सकता हूं अगर सम्राट बचते हों, लेकिन मेरे वस्त्र काम नहीं आ सकेंगे। मैं समृद्ध तो हूं, लेकिन सुखी मैं नहीं हूं। सुख की खोज में मैंने समृद्धि इकट्ठी कर ली, लेकिन सुख से अब तक मिलन नहीं हो सका। और अब तो मेरी आशा भी टूटती जाती है। क्योंकि जितनी समृद्धि संभव थी मेरे पास आ गई है और अब तक सुख के कोई दर्शन नहीं हुए। मेरे वस्त्र काम नहीं आ सकेंगे। मैं दुखी हूं, मैं क्षमा चाहता हूं।
वजीर तो बहुत हैरान हुए। उन्हें फकीर की हंसी याद आई। लेकिन और लोगों के पास जाकर पूछ लेना उचित था। वे नगर के और धनपतियों के पास गए। और सांझ होने लगी। और जिसके पास गए उसी ने यह कहा कि समृद्धि तो बहुत है लेकिन सुख, सुख से हमारी कोई पहचान नहीं है। वस्त्र हमारे काम नहीं आ सकेंगे।
फिर तो वे बहुत घबड़ाए कि सम्राट को क्या मुंह दिखाएंगे? सम्राट खुश हो गया है। और यह इलाज हमने समझा था कि सस्ता है, यह तो बहुत महंगा मालूम पड़ता है, बहुत कठिन। तभी उनके पीछे दौड़ता हुआ सम्राट का बूढ़ा नौकर हंसने लगा और उसने कहा कि जब फकीर हंसा था तभी मैं समझ गया था। और जब तुम सम्राट के सबसे बड़े वजीर भी अपने वस्त्र देने का खयाल तुम्हारे मन में न उठा और दूसरों के वस्त्र मांगने चले, तभी मैं समझ गया था कि यह इलाज मुश्किल है। ये वस्त्र मिलने कठिन हैं। क्योंकि सम्राट का बड़ा वजीर भी यह नहीं सोचता है कि अपने वस्त्र दे दूं। उस वजीर ने कहा कि मैं अपने वस्त्र कैसे देता? समृद्धि तो मेरे पास है लेकिन सुख, सुख से तो मेरा भी कोई संबंध नहीं हो सका है। फिर उन वजीरों ने सोचा कि सम्राट मरेगा ही, बचना कठिन है। उस फकीर ने धोखा दे दिया। लेकिन दिन की रोशनी में सम्राट को क्या चेहरा दिखाएंगे, तो उन्होंने सोचा कि रात हो जाए फिर अंधेरे में चलेंगे और रोकर और प्रार्थना कर देंगे कि नहीं, यह इलाज नहीं हो सकता। फिर जब सूरज ढल गया तो सम्राट के महल के पास पहुंचे। महल के पीछे ही गांव की नदी बहती थी। अंधेरे में नदी के उस पार से किसी की बांसुरी की आवाज सुनाई पड़ रही थी। वह संगीत बड़ा मधुर था। वह संगीत बड़ी शांति की खबर लिए हुए था। उस संगीत की लहरों के साथ आनंद की भी कोई धुन थी। उन वजीरों ने सोचा कि शायद इस बांसुरी बजाने वाले आदमी को सुख मिल गया। इससे और पूछ लें, इससे पहले कि सम्राट को इनकार करें। एक और कोशिश कर लें।
वे नदी पार करके उस आदमी के पास अंधेरे में पहुंचे। जैसे-जैसे पास गए वैसे-वैसे उन्हें लगा कि शायद यही वह आदमी है जिसके वस्त्र काम आ जाएंगे। उसके संगीत में ही कुछ ऐसी बात थी कि उनके प्राण भी जो निराशा और उदासी से भरे थे वे भी पुलक उठे, वे भी नाचने लगे। वे उस आदमी के पास पहुंचे और उन्होंने कहा कि मित्र, हम बहुत संकट में हैं, हमें बचाओ, सम्राट मरणशय्या पर पड़ा है। हम तुमसे यह पूछने आए हैं कि तुम्हें जीवन में आनंद मिला है? वह आदमी कहने लगाः आनंद, आनंद मैंने पा लिया है। कहो, मैं क्या कर सकता हूं? वे खुशी से भर गए और उन्होंने कहा कि तुम्हारे वस्त्रों की जरूरत है। सम्राट मरणशय्या पर है और किसी सुखी और समृद्ध आदमी के वस्त्र चाहिए। वह आदमी हंसने लगा, उसने कहाः मैं अपने प्राण दे दूं, सम्राट को बचाना हो, लेकिन वस्त्र मेरे पास नहीं हैं, मैं नंगा बैठा हुआ हूं। अंधेरे में आपको दिखाई नहीं पड़ रहा।
उस रात वह सम्राट मर गया। क्योंकि समृद्ध लोग मिले, जिनका सुख से कोई परिचय न था। एक सुखी आदमी मिला, जिसके पास वस्त्र भी न थे। अधूरे आदमी मिले, एक भी पूरा आदमी न मिला। जिसके पास वस्त्र भी हों और जिसके पास आत्मा भी हो, ऐसा कोई आदमी नहीं मिला। इसलिए सम्राट मर गया।
पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है। लेकिन आज तो पूरी मनुष्यता मरणशय्या पर पड़ी है। और आज भी यही सवाल है कि क्या हम ऐसा मनुष्य पैदा कर सकेंगे जो समृद्ध भी हो, शांत भी? जिसके पास वस्त्र भी हों और आत्मा भी? जिसके पास संपदा हो बाहर की और भीतर की भी? जिसके पास शरीर के सुख भी हों और आत्मा के आनंद भी?
पश्चिम ने वस्त्र पैदा कर लिए। विज्ञान वस्त्र ही पैदा कर सकता है। विज्ञान मनुष्य को आत्मा नहीं दे सकता। विज्ञान समृद्धि दे सकता है। और बहुत समृद्धि दे सकता है। और मनुष्य को अपूर्व समृद्धि से समृद्ध कर सकता है। पश्चिम ने समृद्धि इकट्ठी कर ली है और वस्त्र, और वस्त्र, और वस्त्र बढ़ते चले गए। लेकिन भीतर की आत्मा खो गई, भीतर की शांति खो गई। भीतर का आनंद खो गया। आदमी वहां खड़ा है घबड़ाया हुआ कि सब हमारे पास है, सिर्फ हमको छोड़ कर। भीतर सब खाली है, बाहर सब भर गया है। भीतर आदमी रिक्त होता चला गया और बाहर सामग्री बढ़ती चली गई।
आज आदमी को अपने ही द्वारा इकट्ठे किए गए सामान में खोजना कठिन हो गया है। वह पश्चिम ने अकेले विज्ञान की यात्रा की है, वह समृद्ध हो गया। पूरब दरिद्र से दरिद्र होता चला गया। उसके सब वस्त्र छिन गए, उसकी रोटी छिन गई। वह भूखा और गरीब होता चला गया। उसने कुछ शांति के स्वर पाए। उसने कोई बांसुरी बजाई भीतर की, उसने कोई संगीत अनुभव किया--किसी बुद्ध ने, किसी महावीर ने किन्हीं ऊंचाइयों पर किसी बहुत गहरे आनंद को प्रतीत किया। लेकिन अधिकतम लोग नंगे और उघाड़े होते चले गए। भूखे, दीन-हीन और दास होते चले गए। अकेले धर्म की यात्रा यही कर सकती थी। अकेले धर्म की खोज यही कर सकती थी कि आदमी दीन-हीन होता चला जाए।
भीतर के लिए, बाहर की कुर्बानी का यही परिणाम हो सकता था कि मुल्क, राष्ट्र, वे लोग जो भीतर की यात्रा में एकांगी रूप से पड़ गए हैं वे दास हो जाएं। जिनके पास शक्ति थी बाहर की, वे विजेता होते चले गए। जिनके पास बाहर की कोई शक्ति नहीं थी, वे पराजित होते चले गए।
अकेले धर्म ने पूरब को दीन-हीन कर दिया बाहर से। अकेले विज्ञान ने पश्चिम को दीन-हीन कर दिया भीतर से। अकेला पूरब मर गया धर्म के एकांगीपन से। पश्चिम मर रहा है विज्ञान के एकांगीपन से। क्या इन दोनों के बीच कोई सिंथेसिस, कोई समन्वय संभव नहीं?
पूरब समाप्त हो गया है, पूरब मर चुका है। और पूरब को अब एक ही रास्ता सूझता है कि वह पश्चिम का अनुसरण करे। पूरब को बचने का अब कोई और उपाय नहीं दिखता है कि वह पश्चिम का अनुयायी हो जाए। और यदि उसे दिखाई पड़ रहा है कि पश्चिम का अनुयायी होकर भी वह कहां पहुंचेगा? जहां पश्चिम पहुंचा है वहीं तो पहुंच सकता है।
वह भी कोई सुखद आशा नहीं मालूम पड़ती। वह भी कोई नियति, वह भी कोई भविष्य बहुत कामना-योग्य नहीं प्रतीत होता। लेकिन और कोई विकल्प नहीं दिखता। पश्चिम भी ऐसी जगह पहुंच गया है जहां वह पूरब का अनुयायी हो जाना चाहता है।
यह बड़े मजे की घटना घट गई है। पश्चिम के वैज्ञानिक का आदर पूरब में बढ़ता जाता है, पूरब के संन्यासियों का आदर पश्चिम में बढ़ता चला जाता है। यह कुछ बात ऐसी हो गई है जैसा एक गांव में एक बार हुआ था।
एक गांव में दो बहुत बड़े विद्वान थे। एक आस्तिक था, एक नास्तिक था। उन दोनों में भारी विवाद था। उनके विवाद से गांव परेशान आ गया था।
विद्वानों से गांव अक्सर परेशानी में पड़ जाते हैं।
वह गांव बहुत परेशान हो गया था। वह ऊब गया था, वह घबड़ा गया था। क्योंकि वे दोनों किसी को भी चैन नहीं लेने देते थे। वह आस्तिक आस्तिकता समझाए चला जाता था, नास्तिक नास्तिकता समझाए चला जाता था। लोगों का मन और भी उलझन में पड़ गया था। कुछ साफ नहीं रहा था कि क्या सच है? क्या झूठ? वे गांव के लोग जब बहुत घबड़ा गए, और उनकी शांति और उनकी नींद हराम हो गई, और वे दोनों विद्वान उनका पीछा करने लगे, तो उन्होंने आकर उन दोनों से प्रार्थना की कि हमारी प्रार्थना है: यह सारा गांव इकट्ठा हुआ जाता है, आप दोनों विवाद कर लें। और जो जीत जाए हम उसी के साथ हो जाएंगे। हम उपद्रव में नहीं पड़ना चाहते।
अंततः एक पूर्णिमा की रात्रि उन विद्वानों का विवाद हुआ। सारा गांव इकट्ठा हो गया। आस्तिक ने आस्तिकता के लिए बड़े शक्तिशाली प्रमाण दिए, बड़े तर्क दिए। नास्तिक ने भी उतने ही शक्तिशाली प्रमाण दिए, उतने ही तर्क दिए।
तर्क के साथ यह मजा है कि वह किसी का भी प्रमाण बन सकता है और किसी का भी साथी बन सकता है। तर्क वेश्या जैसा है। वह किसी के भी साथ हो सकता है। वह किसी का नहीं है।
दोनों ने बहुत तर्क दिए, बहुत प्रमाण दिए। सुबह होते-होते एक अदभुत घटना घट गई। उस गांव में आस्तिक नास्तिक से प्रभावित हो गया, नास्तिक आस्तिक से प्रभावित हो गया। गांव की मुसीबत वही बनी रही। दूसरे दिन आस्तिक नास्तिक हो गया, नास्तिक आस्तिक हो गया। और गांव की पंचायत वही रही, वह फिर विवाद चलने लगा। वे फिर दोनों समझाने निकल पड़े।
ऐसी हालत आज दुनिया में हुई जा रही है। पूरब पश्चिम हो जाएगा और पश्चिम पूरब हो जाएगा। और बेवकूफी वही की वही रहेगी। आदमी उतना ही परेशान रहेगा। यहां आइंस्टीन प्रभावी होते चले जाते हैं, वहां विवेकानंद प्रभावी होते चले जाते हैं। लेकिन पागलपन वही रहेगा, उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। क्योंकि विवेकानंद भी किसी अधूरी संस्कृति के पक्षपाती हैं और आइंस्टीन भी किसी अधूरी संस्कृति का पक्षपाती।
जिस अति से हम ऊब जाते हैं उससे हम दूसरी अति पर जाने को उत्सुक हो जाते हैं। गरीब आदमी गरीबी से ऊब जाता है अमीर होने की कोशिश करने लगता है। जो बहुत अमीर हो जाते हैं, वे अमीरी से ऊब जाते हैं, फकीर हो जाते हैं। महावीर और बुद्ध दोनों राजपुत्र थे, वे फकीर हो गए। फकीर अमीर होना चाहता है, अमीर गरीब होना चाहता है। अमीर अमीरी से ऊब जाता है, गरीब गरीबी से ऊब जाता है। आस्तिक आस्तिकता से ऊब जाते हैं, नास्तिक नास्तिकता से ऊब जाते हैं।
पूरब पूरब से ऊब गया, पश्चिम पश्चिम से ऊब गया। धार्मिक लोग धर्म से ऊब गए हैं, वैज्ञानिक लोग विज्ञान से ऊब गए हैं। और वे अति बदल लेना चाहते हैं। और आदमी का मन घड़ी के पेंडुलम की तरह है। एक एक्स्ट्रीम से दूसरी एक्स्ट्रीम पर चला जाता है, फिर दूसरी एक्स्ट्रीम पर चला जाता है। बीच में कभी भी नहीं रुकता है।
इससे बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है। अगर पूरब का एकाध योगी पश्चिम में चला जाता है और वहां के छोेकरे उसके पीछे गिरोह बना कर घूमने लगते हैं, इससे बहुत खुश मत हो जाना। यह वही पागलपन का लक्षण है, जैसे आपके छोकरे विज्ञान के पीछे घूम रहे हैं। ऐसे उनके छोकरे योगियों के पीछे घूम रहे हैं। इसमें कोई खास खूबी की और आदर की और इज्जत की कोई भी बात नहीं है। आपके लड़के अगर सिनेमागृहों के पास भीड़ कर रहे हों और पश्चिम के लड़के अगर मंदिरों के आस-पास इकट्ठे होने लगें, तो बहुत हैरान मत हो जाना। ये एक सी बातें हैं, इनमें कोई भी भेद नहीं है। उनका मन उनकी अति से ऊब गया, आपका मन आपकी अति से ऊब गया है। लेकिन अब तक अति से किसी का भी मन नहीं ऊबा है। तो एक अति से हम दूसरी अति को चुन लेते हैं।
मैं यह कहना चाहता हूं, एक ज्यादा सिंथेटिक कल्चर, एक ज्यादा समन्वित संस्कृति, एक ऐसी सभ्यता विकसित होनी जरूरी है जो अतिवादी न हो, जो एक्सट्रीमिस्ट न हो। जो संतुलन, समन्वय और मध्य पर खड़े होने की सामथ्र्य रखती हो। जो विज्ञान को उसकी जगह दे सके और धर्म को उसकी जगह दे सके। जो इस बात को स्वीकार कर सके कि विज्ञान का अपना मूल्य है, विज्ञान असार नहीं है। संसार का अपना मूल्य है और संसार माया नहीं है। और जो इस बात को भी स्वीकार कर सके कि संसार के सत्य होने के बावजूद भी संसार से ऊपर भी सत्य है। परमात्मा इस कारण व्यर्थ नहीं है कि संसार सत्य है। परमात्मा इस कारण और भी सत्य है। संसार भी जब सत्य है तो परमात्मा इस कारण और भी गहरे सत्य को उपलब्ध होता है।
परमात्मा और संसार के बीच का जो विरोध और खाई है, वह समाप्त होनी चाहिए। मनुष्य के जीवन में जो सबसे बड़ा दुर्भाग्य सिद्ध हुआ है, जो सबसे बड़ी दुर्घटना हुई है वह यह कि हमने सत्य और संसार के बीच एक बड़ी खाई खोद रखी है। जो आदमी ईश्वर की तरफ जाना चाहता है वह संसार को छोड़ कर भागता है। वह कहता है संसार तो असार है, संसार तो सपना है, संसार तो माया है--छोड़ कर भागता है।
हालांकि उसका छोड़ कर भागना ही यह बताता है कि संसार असार नहीं है, संसार सपना नहीं है। क्योंकि सपनों को छोड़ कर भागने की कोई भी जरूरत नहीं रहती। जो असार है, उससे भागने की कोई भी जरूरत नहीं है। जो है ही नहीं, उससे भागने की कोई जरूरत है?
एक आदमी कहे कि मैं भूत-प्रेत नहीं मानता हूं, वे होते ही नहीं, और भाग रहा है कि भूत-प्रेतों से बचने के लिए भाग रहा हूं। हम क्या कहेंगे? कि या तो यह आदमी पागल है या यह जो कह रहा है उस पर इसका विश्वास नहीं है। एक आदमी कहता है कि सब संसार माया है, फिर भी कहता है, मैं संसार त्याग दिया हूं। जो नहीं है उसका त्याग कैसे हो सकता है?
नहीं, लेकिन संसार है। चाहे उसे भोगो, चाहे उसे त्यागो। चाहे उसमें डूबो, चाहे उससे भागो--वह है। उसके होने को नहीं पोंछा जा सकता।
एक भूल यह संन्यासी करता है, जो कहता है कि संसार असार है, इसे मैं छोड़ता हूं। मैं तो परमात्मा का प्यारा हूं, मैं परमात्मा की तरफ जाता हूं। ठीक इससे उलटी भूल वह जो पदार्थवादी है, वह करता है। वह कहता है: संसार सार है, संसार सार्थक है।
और जब संसार सार है तो परमात्मा नहीं हो सकता? क्योंकि परमात्मा जो मानता है, वह कहता है, संसार असार है। संसार की असारता पर वह परमात्मा के प्रमाण को मानता है। तो जो आदमी संसार में सार देखता है, वह परमात्मा को अप्रमाण मान ले तो कोई आश्चर्य नहीं।
ये दोनों तर्क एक से हैं। जिन लोगों ने संसार को माया कहा, उन्हीं लोगों ने परमात्मा को झूठा सिद्ध करवाने की कोशिश भी तय कर दी। क्योंकि जिन लोगों को संसार सार्थक दिखा, सत्य दिखा, सब्स्टेंशियल दिखा, फिर उनको लगा कि ठीक है, फिर इनका परमात्मा झूठा होना चाहिए कि दो में से एक ही बात सच हो सकती है।
यह बात गलत है कि दोनों में से एक ही बात सच हो सकती है। दोनों बातें एक साथ सच हो सकती हैं और दोनों बातें एक साथ झूठ भी हो सकती हैं। दो में से एक ही सच हो इसका कोई सवाल नहीं है।
जीवन में अनेक तरह के सत्य हैं। पदार्थ का अपना सत्य है; पैसे का अपना सत्य है। प्रेम का अपना सत्य है; परमात्मा का अपना सत्य है। सत्यों में भी मूल्यांकन है कि हम निरंतर ऊपर से ऊपर सत्य की खोज में बढ़ते चले जाएं। लेकिन एक सत्य कोई दूसरे का खंडन नहीं है। सपनों की अपनी सच्चाई है और जागने की अपनी सच्चाई है। नींद की अपनी सच्चाई है और होश की अपनी सच्चाई। इन सच्चाइयों में कोई ऐसा विरोध नहीं है कि एक है तो दूसरा नहीं हो सकता है।
और जिस दिन कोई व्यक्ति इन दोनों सच्चाइयों की गहरी से गहरी सीमा को छू लेता है उस दिन तो वह हंसता है, उस दिन तो वह हैरान हो जाता है। उस दिन वह पाता है कि जिनको मैंने दो समझा था, वे एक ही सत्य को दो तरफ से देखने के उपाय थे। वे दो दृष्टियां थीं, वे दो सत्य नहीं थे। एक ही चीज को बहुत तरह से देखा जा सकता है।
बुद्ध एक रात्रि प्रवचन किए। रोज का उनका नियम था कि प्रवचन के बाद वे भिक्षुओं को कहते थे कि अब आप जाएं और रात्रि के अंतिम कार्य में संलग्न हों। वह रात्रि का अंतिम कार्य था--रात्रि का ध्यान। भिक्षु जब विदा होते, तो रात्रि का ध्यान करते और सो जाते। तो बुद्ध रोज फिर इतना ही कहते थे। इसको कहने की रोज जरूरत न थी कि अब आप ध्यान करें। वे इतना ही कहते थे कि अब आप जाएं, और रात्रि के ध्यान में संलग्न हों--यह नहीं कहते थे। इतना ही कहते थे, रात्रि का अंतिम कार्य करें।
उस रात उस सभा में एक चोर भी आया हुआ था, एक वेश्या भी आई हुई थी। जैसे ही बुद्ध ने कहा कि अब आप जाएं और अपना रात्रि का कार्य शुरू करें। वैसे ही चोर को खयाल आया कि अरे, मैं कहां बैठा हुआ हूं, रात हो गई और अपने काम का समय आ चुका? वेश्या ने भी सोचा कि बहुत रात हो गई, अब मेरी दुकान के खुलने का वक्त आ गया, मैं जाऊं। और भिक्षु ध्यान पर चले गए।
एक ही वाक्य था। एक ही बात कही गई थी। लेकिन तीन अर्थ हो गए उस बात के। तीन देखने वाले थे। तीन देखने की दृष्टियां थीं। तीन तरफ से वह बात देखी गई और अपना-अपना अर्थ ले लिया गया।
जीवन को हम जिस दृष्टि से देखते हैं, वह वैसा दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। जो लोग पदार्थ की दृष्टि से देखते हैं, उन्हें जीवन पदार्थ दिखाई पड़ता है। जो लोग चैतन्य की दृष्टि से देखना शुरू करते हैं, उन्हें जीवन चैतन्य दिखाई पड़ने लगता है। यह हम पर निर्भर है कि हम किस भांति देखते हैं।
एक कवि एक फूल को देखता है, वह कहता है, बहुत सुंदर है। उसके चित्त में सौंदर्य की न मालूम कितनी प्रतिमाएं घूम जाती हैं। हो सकता है उसे अपनी प्रेयसी का चेहरा याद आ जाए। हो सकता है उसे आकाश के तारे उन फूलों में चलते दिखाई पड़ जाएं। हो सकता है किसी झील पर उसे किसी लहर की स्मृति उसे फूल की पंखुड़ियों में दिख जाए। हो सकता है उस सुगंध के साथ उसे दूर की सुगंधों का बोध आ जाए। हो सकता है उस फूल के साथ न मालूम किन सपनों का गीत उसके मन में खुल जाए। फूल वही रह जाए, वह सपनों की दुनिया में चला जाए।
एक वैज्ञानिक फूल को देखता है, उसे न कोई सौंदर्य दिखाई पड़ता है, न कोई चांद-तारे दिखाई पड़ते हैं। उसे तो कुछ कैमिकल्स दिखाई पड़ते हैं। उससे अगर कोई कहे कि फूल बहुत सुंदर है, तो वह पूछेगा, यह सौंदर्य कहां है? मैं तो अपनी प्रयोगशाला में जाकर, काट-पीट करके देखता हूं तो कोई सौंदर्य नहीं मिलता। हां, कुछ कैमिकल्स मिलते हैं, कुछ खनिज मिलते हैं, कुछ और मिलता है। लेकिन सौंदर्य तो, हमने अपनी प्रयोगशाला में बहुत जांच-बीन की, आज तक मिला नहीं है।
फूल में सौंदर्य प्रयोगशाला में मिल भी नहीं सकता, तो कवि झूठा हो जाता है। लेकिन कवि को सौंदर्य ही मिलता है उस फूल में। उसे कोई खनिज नहीं मिलते, कोई कैमिकल, कोई रसायन नहीं मिलती, तो क्या वैज्ञानिक झूठा हो जाता है? फूल बड़ी सत्ता है। उसे हजार ढंग से देखने के उपाय हैं।
एक-एक चीज इतनी अनंत है, छोटी से छोटी चीज इतनी अनंत है कि उसे अनंत दृष्टियों से देखने के मार्ग सदा खुले हुए हैं। एक दृष्टि दूसरी दृष्टि को गलत नहीं कर जाती। एक दृष्टि केवल इतनी ही कहती है कि मैंने किस भांति देखा। जब कवि कहता है, मुझे फूल में सौंदर्य दिखाई पड़ा, तो वह यह नहीं कहता है कि फूल में सौंदर्य है। वह यह कह रहा है कि मैंने फूल को कवि की तरह देखा। और जब वैज्ञानिक कहता है कि मुझे फूल में खनिज मिले, रसायन मिली, कैमिकल्स मिले, तब वह यह नहीं कह रहा है कि फूल में कैमिकल्स ही हैं। तब वह यह कह रहा है कि मैंने फूल को एक वैज्ञानिक की तरह देखा है। ये हमारे देखने के ढंग हुए।
विज्ञान देखने के ढंग का एक रूप है; धर्म जीवन को देखने का दूसरा रूप है। और दोनों रूप जीवन के देखने की समृद्धि को बढ़ाते हैं। उन दोनों में से एक भी विदा नहीं हो जाना चाहिए। विज्ञान जिस दृष्टि से जीवन को देखता है, उससे शक्ति बढ़ती है। धर्म जिस दृष्टि से जीवन को देखता है, उससे शांति बढ़ती है।
शक्ति भी चाहिए और शांति भी चाहिए। अकेली शक्ति खतरनाक है। और अशांत आदमी के हाथों में तो बहुत खतरनाक है। अशांत आदमी तो कमजोर हो तो अच्छा, अशांत आदमी शक्तिशाली हो तो खतरनाक है। क्योंकि अशांति के हाथ में शक्ति मिल जाए तो उपद्रव बढ़ेंगे।
नादिरशाह हिंदुस्तान की तरफ आता है। एक राजधानी में रुका और एक ज्योतिषी उससे मिलने आया। उस ज्योतिषी से नादिर ने पूछा कि मैं बहुत सोता हूं, मुझे नींद बहुत आती है। मैं कोई बारह-तेरह घंटे, चैदह घंटे सोता हूं। लोग कहते हैं इतना सोना बहुत बुरा है, आपका क्या खयाल है? आप बहुत बुद्धिमान आदमी हैं। आपका क्या खयाल है? उस ज्योतिषी ने कहाः बुरे आदमी का ज्यादा सोना अच्छा होता है। अच्छे आदमी का ज्यादा जागना अच्छा होता है। आप और सोएं और चैबीस ही घंटे सोए रहें तो बहुत अच्छा है। क्योंकि आप जैसा आदमी जितनी देर जागता है उतनी देर दुनिया में उपद्रव बढ़ते हैं। आपके जागने से कोई हित नहीं होता किसी का भी; न मुल्क का हित होता है, न किसी और का हित होता है।
उस ज्योतिषी ने कहा कि बुरा आदमी जितना सोया रहे उतना अच्छा। यह अच्छे आदमी के लिए कहा गया है कि वह जागा रहे। यह बुरे आदमी के लिए नहीं कहा गया है। शक्ति उन हाथों में हो जो शांत हैं, तब तो ठीक। अन्यथा कमजोर होना बुरा नहीं है। अशांत आदमी के हाथ में शक्ति आत्मघाती और परघाती सिद्ध होती है।
विज्ञान ने शक्ति दे दी और शांति नहीं दी, वह घातक सिद्ध हुई जा रही है। दो महायुद्ध हमने देख लिए, तीसरे की तैयारियां हैं। और तीसरा खतरनाक होगा, बहुत खतरनाक होगा।
आइंस्टीन से मरने के पहले किसी ने पूछा था कि तीसरे महायुद्ध के संबंध में आप कुछ बताएंगे? आइंस्टीन ने कहाः तीसरे के संबंध में बताना बहुत कठिन है। हां, चैथे के संबंध में कुछ बता सकता हूं। सुनने वाला बहुत हैरान हुआ। उसने कहाः आप तीसरे के बाबत बता नहीं सकते, चैथे के बाबत क्या बता सकते हैं? आइंस्टीन ने कहाः चैथे के बाबत एक बात निश्चित ही कही जा सकती है कि चैथा महायुद्ध कभी नहीं होगा। क्योंकि तीसरे में सभी आदमी समाप्त हो जाने को हैं। तीसरे के बाबत कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या होगा। तीसरे की जो तैयारी है, वह बहुत हैरान करने वाली है। मनुष्यता को ही नहीं, समस्त जीवन को नष्ट कर देने के हमने उपाय कर लिए हैं। जीवन को ही नहीं, हो सकता है पृथ्वी भी बिखर जाए और टूट जाए।
तो एक छोटी सी कल्पना आपको दूं तो खयाल हो सके कि अशांत हाथ में कितनी ताकत इकट्ठी हो गई है। इस समय पृथ्वी पर कोई पचास हजार उदजन बम तैयार हैं। पचास हजार की संख्या से हमें कुछ पता नहीं चलता कि पचास हजार उदजन बम का क्या अर्थ होता है?
एक उदजन बम चालीस हजार वर्गमील में समस्त जीवन को नष्ट करता है, समस्त जीवन को। मनुष्य के नहीं, पशु के, पौधे के, छोटे-छोटे बैक्टीरिया और अमीबा, छोटे-छोटे कीटाणुओं को--सबको नष्ट करता है। चालीस हजार वर्गमील में एक उदजन बम। पचास हजार उदजन बम इतने हैं जितने से हमारे बराबर पृथ्वियां--सात, नष्ट की जा सकती हैं--एक नहीं। या ऐसा समझ लें कि एक-एक आदमी को अगर हमें मारना हो, तो हम सात-सात बार मार सकते है। वैसे एक आदमी एक ही दफा में मर जाता है, इतना कमजोर है। अब तक ऐसा सुना ही नहीं गया कि एक आदमी को दुबारा मारना पड़ा हो। मर गया तो एक ही दफा में मर गया, नहीं मरा तो बात दूसरी है। लेकिन एक दफा में ही मर जाता है, दुबारा मारने की जरूरत नहीं पड़ती।
लेकिन हम बहुत होशियार लोग हैं, सब इंतजाम कर लेना ठीक है। कोई एक दफा में बच जाए तो दुबारा मार सकते हैं, तिबारा मार सकते हैं। सात बार का इंतजाम काफी है। सात बार में कोई बच सकेगा, इसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। तो आदमी ने पूरा, सब कैल्कुलेशन, सब हिसाब लगा लिया है, पूरा इंतजाम कर लिया है। अब तैयारी कर रहे हैं कि हम कब सबको खत्म कर लें।
एक उदजन बम क्या करता है? मर जाए आदमी, यह भी बहुत कठिन बात नहीं है। न बहुत हैरान होने की बात है। लेकिन कितनी पीड़ा से गुजरेगा, इसकी भी हम कल्पना नहीं कर सकते।
सौ डिग्री पानी हम गर्म करें, सौ डिग्री पर तो पानी भाप बन कर उड़ता है। उस पानी में हम किसी को डाल दें, उबलते हुए पानी में, तो उसको क्या होगा? लेकिन सौ डिग्री गर्मी कोई बहुत गर्मी नहीं है। पंद्रह सौ डिग्री गर्मी पर लोहा भी पिघल जाता है। उस लोहे में किसी को डाल दें, पिघले हुए लोहे में, लोहे में...तो उसका क्या होगा? क्या उसके प्राणों को अनुभव होंगे? कौन से आनंद उसको पता चलेंगे? उसका थोड़ा सोचें। किस परमात्मा की उसे उस वक्त याद आएगी? लेकिन पंद्रह सौ डिग्री गर्मी कोई बड़ी गर्मी नहीं है। पच्चीस सौ डिग्री गर्मी पर लोहा भी भाप बन कर उड़ने लगता है। उसमें किसी को डाल दें, तो उसको क्या होगा? लेकिन पच्चीस सौ डिग्री गर्मी भी कोई बड़ी गर्मी नहीं है।
एक उदजन बम से जो गर्मी पैदा होती है, वह होती है दस करोड़ डिग्री। इस दस करोड़ डिग्री गर्मी की भट्टी में हम आदमी को डालने का इंतजाम कर लिए हैं। यह गर्मी उतनी ही है जितनी सूरज पर। तो अब तक सूर्य देवता वगैरह को आप नमस्कार करते थे, वह बहुत दूर है। हमने इंतजाम किया है कि वह आपके घर ही आ जाए, आपसे मिलन हो जाए, जिससे मुलाकात ही हो जाए सूर्य भगवान से आपकी--इसका वैज्ञानिकों ने इंतजाम कर दिया है।
यह जो इतना बड़ा नरक हम पृथ्वी को बनाने का आयोजन कर रहे हैं, यह किसलिए और क्यों? यह अशांत मन के हाथ में शक्ति पहुंच गई है। शांत मन के हाथ में यह शक्ति पहुंचती, तो आज पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है। जिसके लिए ऋषि-मुनियों ने सपने देखे थे। कहीं आकाश में, स्वर्ग में जाने की अब कोई जरूरत नहीं। मनुष्य के हाथ में इतनी बड़ी ऊर्जा, इतनी बड़ी शक्ति पर हाथ पड़ गया है उसका कि वह इस सारी पृथ्वी को पहली दफा स्वर्ग बना सकता है। आज पृथ्वी पर किसी के दरिद्र होने की कोई भी जरूरत नहीं है; सिवाय राजनीतिज्ञों की शैतानी के और कोई कारण नहीं है। आज पृथ्वी पर किसी के दीन-हीन, बीमार, कम उम्र होने की, असुंदर होने की, दुखी होने की, कष्ट में होने की कोई जरूरत नहीं है; सिवाय अशांत आदमियों के हाथ में शक्ति है, इसके अतिरिक्त।
आज पृथ्वी एक अनूठी जगह बन सकती है, इतनी शक्ति, इतनी ऊर्जा हमारे हाथ में है। आज पहली बार चांद-तारे हमारे हाथ में हैं। आज पहली बार पदार्थ के भीतर छिपी हुई सबसे बड़ी शक्ति हमारे हाथ में है। आज हम क्या कर सकते हैं इसका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। लेकिन हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि अशांत आदमी के हाथ में ताकत है। वह कहता है, हम तो मरने की तैयारी करेंगे और मारने की तैयारी करेंगे।
अशांति हमेशा मृत्यु की आकांक्षा को जन्म देती है। अशांति हमेशा दूसरे को मारने की और खुद को मारने की चेष्टा में संलग्न करती है। अशांति सुसाइडल है, आत्मघाती है। और जब भी अशांत आदमी के हाथ में ताकत मिल जाएगी, तो पहले दूसरों को मारेगा। और अगर कोई मारने को नहीं मिला या कोई मरने को राजी नहीं हुआ, तो खुद को मारेगा। कोई न कोई रास्ता मारने का करेगा।
अशांति यात्रा है मृत्यु की तरफ।
विज्ञान ने शक्ति तो दे दी, लेकिन शांति विज्ञान के देने की सामथ्र्य नहीं है। उसका कोई सवाल ही नहीं है। उससे अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। उससे मांग भी नहीं करनी चाहिए, वह कोई प्रश्न ही नहीं है। वह तो ऐसा है जैसे कोई गणित से कहने लगे कि कविता भी आप ही हमें दो। तो गणित कविता कैसे देगा? गणित गणित देगा, गणित की अपनी जरूरत है। लेकिन गणित कविता नहीं दे सकता। या कोई कविता से कहने लगे कि हमें फैक्ट्री बना दो, तो कविता फैक्ट्री कैसे बनाएगी? कविता गीत दे सकती है, प्रेम दे सकती है, आनंद की पुलक दे सकती है, नृत्य दे सकती है, लेकिन फैक्ट्री कैसे देगी? ये तो पागलपन की बातें हैं। कोई कान से कहने लगे कि देखो, और कोई आंख से कहने लगे कि सुनो--वैसी ही बातें हैं। विज्ञान से अपेक्षा भी नहीं करने का सवाल है।
शांति तो देगा धर्म। शांति का विज्ञान धर्म है। और शक्ति का विज्ञान विज्ञान है। अंतस्चेतना कैसे शांत होती चली जाए? कितनी निर्विकार, कितनी आनंद को उपलब्ध होती चली जाए, इसकी जो चेष्टा और साधना है, वह धर्म है। लेकिन धर्म केवल शांति दे सकता है, शक्ति नहीं दे सकता।
अकेली शांति निर्बल कर देती है, कमजोर कर देती है। अकेली शांति एक तरह की इंपोटेंस पैदा करती है, एक तरह की नपुंसकता पैदा करती है। भारत जो इतना इंपोटेंट हो गया, उसका कोई और कारण नहीं है। भारत की इतनी दीनता, दरिद्रता और कमजोरी में भारत के उन धार्मिक लोगों का हाथ है जिन्होंने विज्ञान का निषेध करके धर्म को विकसित किया। कमजोर हो ही जाएगा। और शांत आदमी कमजोर हो जाए, यह उतना ही खतरनाक है जितना अशांत आदमी शक्तिशाली हो जाए--एक सी बातें हैं ये दोनों।
शांत आदमी कमजोर हो जाए, यह सारी दुनिया के लिए खतरनाक है। क्योंकि तब शांत आदमी दुनिया में परिवर्तन की सारी सामथ्र्य खो देता है। तब अच्छा आदमी, भला आदमी दुनिया को बदलने की सारी हिम्मत खो देता है। तब उसके पास एक ही काम रह जाता है कि अपने मंदिरों में बैठ जाए और भगवान की प्रार्थनाएं करता रहे। और वह भी तभी तक, जब तक कोई ताकतवर आदमी आकर उसके भगवान की मूर्ति को तोड़-फोड़ कर न फेंक दे, तभी तक प्रार्थनाएं करता है।
और जब कोई धीरे-धीरे कमजोर होता चला जाता है तो यह भी खयाल में ले लें कि कमजोर आदमी बहुत दिन तक शांत भी नहीं रह सकता। दीन-हीन आदमी बहुत दिन तक शांत भी नहीं रह सकता। कष्ट में पड़ा हुआ आदमी बहुत दिन तक शांत भी नहीं रह सकता। तब फिर अशांति का जन्म शुरू हो जाएगा। और एक चक्कर शुरू होगा। अशांति का जन्म होगा तो विज्ञान की खोज शुरू हो जाएगी। और विज्ञान शक्ति लाएगा, और अशांत आदमी के हाथों में शक्ति आ जाएगी। यह चक्कर आज तक पूरी मनुष्यता को पीड़ित किए रहा है। एक विसियस सर्किल है। एक दुष्चक्र है। जिसमें आदमी पड़ गया। जैसे ही आदमी के हाथ में ताकत आती है, वह शांत होने की कोशिश शुरू कर देता है।
हिंदुस्तान में जब शांति की और धर्म की लहर चली, उस वक्त हिंदुस्तान बहुत समृद्ध था। बुद्ध और महावीर का वक्त हिंदुस्तान में स्वर्ण-वक्त था। बहुत समृद्ध था। एकदम सोने की चिड़िया थी। उस वक्त शांति की लहर और धर्म की बातें थीं।
शक्तिशाली आदमी शांत होने की कोशिश में लग जाए तो धीरे-धीरे निर्बल हो जाता है। और निर्बल आदमी अशांत होता है तो अशांत होते से ही शक्ति की खोज में लग जाता है।
पूरब समृद्ध था, शांति की खोज की, दरिद्र हो गया। पश्चिम दरिद्र था, शक्ति की खोज की, समृद्ध हो गया। लेकिन अब तक शक्ति और शांति एक साथ निर्मित नहीं की जा सकी है। दोनों प्रयोग असफल हो गए। विज्ञान भी असफल हुआ, उससे हिरोशिमा और नागासाकी पैदा हुए। और अब तीसरा महायुद्ध पैदा होगा। धर्म भी अकेला असफल हो गया, उससे यह भारत के दीन-हीन, दरिद्र भिखारी पैदा हुए, गुलाम पैदा हुए, बड़े से बड़ा देश छोटे-छोटे देशों के हाथों में गुलाम बन गया। उनके चरण चूमता रहा, वे उसकी छाती पर जूते रख कर चलते रहे, वह पड़ा रहा। वह राम-राम जपता रहा, वह ओम-ओम करता रहा।
ये दोनों प्रयोग असफल हो गए, जो अब तक आदमी ने किए हैं। एक तीसरे प्रयोग में सारी संभावना और सारा भविष्य है। और वह तीसरा प्रयोग है कि धर्म और विज्ञान के बीच सारा विरोध समाप्त हो। विरोध का कोई कारण भी नहीं है, कोई जगह भी नहीं है, कोई वजह भी नहीं है। धर्म और विज्ञान एक संस्कृति के अंग बनें। यह कब होगा और कैसे होगा?
जब तक हम जगत और परमात्मा के बीच विरोध मानते हैं, यह नहीं हो सकता है। पदार्थ और परमात्मा के बीच एक गहरा संबंध, एक ही दिशा में, एक ही चीज के, एक ही सिक्के के--वे दो पहलू हैं। इस बात की स्वीकृति, धर्म संसार को असार कहना बंद कर दे, विज्ञान परमात्मा को व्यर्थ कहना बंद कर दे। और दोनों की सार्थकता संयुक्त हो, और एक साथ हो। शांति और शक्ति की एक साथ खोज हो। तो एक नये मनुष्य का और एक नई संस्कृति का जन्म हो सकता है।
मेरे देखे, दोनों में कोई भी विरोध नहीं है; न विरोध का कोई कारण है। विरोध हमारी नासमझी पर खड़ा हुआ था। और या तो हम अपनी नासमझी बचा सकते हैं अब, या अपने को बचा सकते हैं। दोनों अब एक साथ नहीं बच सकतीं। पूरब को, पूरब के लोगों को जगतगुरु होने का खयाल छोड़ देना चाहिए। वे पागलपन की बातें हैं। अधूरी संस्कृतियां जगतगुरु नहीं हो सकतीं। पश्चिम के लोगों को भी जगतगुरु होने का खयाल छोड़ देना चाहिए। अधूरी संस्कृतियां जगतगुरु नहीं हो सकतीं।
अब तो एक संस्कृति पैदा होगी, जो न पूरब की होगी; न पश्चिम की होगी। अब तो एक संस्कृति पैदा होगी जो न विज्ञान की होगी; न धर्म की होगी। अब तो एक संस्कृति पैदा होगी जो पूरे मनुष्य की होगी, समग्र मानव की होगी; इंटिग्रेटिड, पूरे मनुष्य की होगी। मनुष्य की संस्कृति पैदा होने का पहली बार अवसर आया है। और यह अवसर तभी सफल हो सकता है जब विज्ञान और धर्म के बीच कोई समन्वय पैदा हो सके।
विज्ञान एक अति है, धर्म दूसरी अति। धर्म और विज्ञान संयुक्त, संश्लिष्ट, मध्य-बिंदु होंगे, वह गोल्डन मीन होगी। वह बीच का मज्झिम निकाय होगा, वह बीच का रास्ता होगा, वह समन्वय होगा।
एक छोटी सी घटना और मैं अपनी बात पूरी करूंगा।
बुद्ध के समय में एक राजकुमार बुद्ध के पास आकर दीक्षित हुआ, संन्यासी हुआ। राजकुमार अक्सर संन्यासी हो जाते हैं। एक अति से दूसरी अति पर चले जाते हैं। वह राजकुमार बहुत विलासी प्रवृत्ति का युवक था। कहते हैं, वह रास्तों पर भी चलता तो पहले कालीन बिछा दिए जाते। वह कभी नंगी भूमि पर नहीं चलता था। वह जब महलों में चलता तो फूलों पर चलता। वह जब सीढ़िया चढ़ता तो नग्न स्त्रियां सीढ़ियों के किनारे खड़ी रहतीं, जिनके कंधों के सहारे लेकर वह ऊपर जाता। वह दीक्षित हो गया और संन्यासी हो गया। तो बुद्ध के भिक्षु बहुत हैरान हुए। यह इतने जोर का परिवर्तन कि जो आदमी शिखर पर था भोग के, वह एकदम योग के दूसरे शिखर पर आ जाएगा? उन्होंने बुद्ध को पूछा, तो बुद्ध ने कहाः आदमी का मन अतियों में चलता है। और इसलिए अक्सर यह होता है कि जो लोग भोग के शिखर पर होते हैं, वे योगी होेने की कल्पना करते रहते हैं। और जो लोग योगी हैं, वे भोगी होने के सपने देखते रहते हैं। यह अक्सर होता है।
अगर संन्यासियों के सपने निकाले जा सकें उनके दिमाग से, तो दुनिया बहुत हैरान हो जाएगी। अगर भोगियों के सपने निकाले जा सकें उनके दिमाग से, तो भी दुनिया बहुत हैरान हो जाएगी। कि जिस आदमी को हम इतना भोगी समझते थे, इसके मन में भी संन्यासी होने की कल्पनाएं दौड़ती रहती हैं। और जिस आदमी को हम इतना त्यागी समझते थे, इसके मन में भी भोग के ऐसे सपने उठते हैं। सपने सब्स्टीट्यूट हैं। जो हम बाहर करते हैं एक अति, दूसरी अति जो हम नहीं करते, उसके सपने चलते रहते हैं।
तो बुद्ध ने कहा, यह स्वाभाविक है। मैं तो सोचता ही था कि यह आदमी आज नहीं कल संन्यासी होगा। अब तुम देखना यह दूसरी अति पर जाएगा। और छह महीने के भीतर भिक्षुओं ने देखा कि वह दूसरी अति पर गया। दूसरे भिक्षु वस्त्र पहनते, उसने वस्त्र भी छोड़ दिए। दूसरे भिक्षु रास्ते पर चलते, पगडंडी पर चलते, राजपथ पर चलते जहां कांटे न होते। वह जान कर ऐसे रास्तों पर चलता जहां कांटे होते, जहां रास्ते न होते। उसके पैर लहूलुहान हो गए। उसके पैरों में फोले और घाव पड़ गए। उसका शरीर धूप में सूखने लगा। भिक्षु वृक्षों की छाया में ठहरते, वह भरी धूप में सूरज के नीचे बैठता। भिक्षु ठंड में गर्मी का सहारा खोजते, वह ठंड में, खुले में पड़ा रहता। छह महीने में उसका सुंदर शरीर सूख कर कांटा हो गया। छह महीने बाद उसे पहचानना मुश्किल था कि यह वही राजकुमार है। छह महीने बाद तो वह बिलकुल ही दूसरा आदमी हो गया था। अत्यंत कुरूप हो गया था, बीमार, रुग्ण हो गया था।
बुद्ध उसके पास गए छह महीने बाद और उससे कहाः श्रोण, उसका नाम श्रोण था। मैं तुझसे एक बात पूछने आया हूं। मैंने सुना है कि जब तू राजकुमार था, तो तू वीणा बजाने में बहुत कुशल था। तो मैं तुझसे यह पूछने आया हूं कि अगर वीणा के तार बहुत ढीले हों, तो संगीत पैदा होता है या नहीं होता है? श्रोण ने कहाः वीणा के तार ढीले हों, तो संगीत कैसे पैदा होगा? तार ढीले हों, तो उनमें टंकार ही नहीं हो सकती, उनको चोट ही नहीं की जा सकती, उनमें प्रतिध्वनि नहीं पैदा की जा सकती। तार ढीले हों, तो ढीले तारों में कैसे संगीत पैदा हो सकता है?
तो बुद्ध ने कहाः अगर तार बहुत कसे हुए हों तो, तो संगीत पैदा होगा? तो श्रोण ने कहाः बहुत कसे तार टूट जाते हैं, उनमें भी संगीत पैदा नहीं होता। तो बुद्ध ने कहाः संगीत कब पैदा होता है? तो उस श्रोण ने कहाः संगीत तो तब पैदा होता है जब तार न तो कसे होते हैं, न ढीले होते हैं, एक ऐसी अवस्था भी है तारों की जब कहा जा सकता है कि न तार ढीले हैं, न तार कसे हैं। वह मध्य-बिंदु है। वहां तार उस जगह होते हैं जहां संगीत पैदा होता है।
तो बुद्ध ने कहाः वीणा का जो नियम है, मैं तुझसे कहने आया, जीवन का नियम भी वही है। जीवन में भी संगीत वहां पैदा होता है जहां न तो तार बहुत ढीले होते हैं, न तार बहुत कसे होते हैं।
एक तरफ विज्ञान के ढीले तार हैं, जिन्होंने मनुष्य की आत्मा को बिलकुल ढीला छोड़ दिया। एक तरफ धर्म के अत्यंत कसे हुए तार हैं, जिन्होंने मनुष्य की आत्मा को इतना कस दिया। और इन दोनों के बीच मर गया मनुष्य। इन दोनों के बीच टूट गई मनुष्य की वीणा। इन दोनों के बीच खो गया मनुष्य के जीवन का संगीत है।
मनुष्य के जीवन के तारों को वहां लाना है, जहां न तो वह पदार्थ की तरफ बहुत खिंचे होते हैं, न आत्मा की तरफ। जहां वे न तो भोग की तरफ दीवाने होते हैं, और न योग की तरफ। जहां वे उस मध्य-बिंदु पर होते हैं, जहां कहा जा सकता है कि यह मनुष्य न तो भोगी है, न योगी है। जहां कहा जा सकता है, यह मनुष्य न तो पदार्थवादी है, न परमात्मवादी है। जहां मनुष्य बिलकुल मध्य के बिंदु पर होता है, वहां जीवन का परिपूर्ण संगीत उपलब्ध होता है। और ऐसे परिपूर्ण संगीत के अनुभव में ही वह जानता है कि पदार्थ भी परमात्मा है, परमात्मा भी पदार्थ है।

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