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शनिवार, 17 नवंबर 2018

अमृत वर्षा-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-धर्म की यात्रा 

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
सिकंदर विश्वयात्रा पर निकला हुआ था। भारत की ओर आते समय रास्ते में एक फकीर डायोजनीज से वह मिलने गया। डायोजनीज की बड़ी ख्याति थी। डायोजनीज एक नग्न फकीर था और सिकंदर उससे मिलने जाए, इसकी खबर भी दूर-दूर तक पहुंच गई। बहुत से लोग डायोजनीज के झोपड़े पर इकट्ठे हो गए थे। सिकंदर से पहले सिकंदर के दो सेनापतियों ने जाकर डायोजनीज को कहाः महान सिकंदर तुमसे मिलने आ रहा है, उसके स्वागत के लिए तैयार हो जाओ। डायोजनीज अपने झोपड़े के बाहर बैठा था, वह जोर से हंसने लगा और उसने कहाः जो स्वयं अपने को महान समझता है, उससे छोटा आदमी और दूसरा नहीं होता।

सिकंदर आ गया था, डायोजनीज बाहर बैठा हुआ सुबह की धूप ले रहा था। सर्दी के दिन थे। सिकंदर ने कहाः कि मैं तुम्हारी कुछ सेवा कर सकूं, तो मुझे खुशी होगी। डायोजनीज ने कहाः धूप आ रही थी मेरे शरीर पर, तुम बीच में खड़े हो गए और धूप आनी बंद हो गई, इतनी ही कृपा करो, धूप के मार्ग से हट जाओ। और यह भी प्रार्थना करता हूं, तुम्हारे हाथ में बहुत ताकत मालूम होती है, तुम न मालूम कितने लोगों के जीवन की धूप छीन सकते हो, इतना ध्यान रखना, तुम किसी के जीवन के लिए छाया न बनो तो बड़ी कृपा होगी।


सिकंदर को इस तरह की बात सुनने का कोई ख्याल न था। फिर भी उसने कहाः मैं तुमसे मिल कर खुश हुआ हूं। और अगर मुझसे परमात्मा पूछता कि तुम सिकंदर होना चाहते हो या डायोजनीज, तो नंबर दो पर मेरा चुनाव डायोजनीज होने के लिए होता।
लेकिन डायोजनीज ने कहाः अगर परमात्मा मुझसे पूछता कि तुम सिंकदर होना चाहते हो या डायोजनीज, तो मैं डायोजनीज के अतिरिक्त और कुछ भी होना पसंद न करता। और सिंकदर होना तो कभी भी नहीं। सिकंदर ने पूछाः सिकंदर होने में ऐसी कौन सी बुराई है? डायोजनीज ने कहाः मैं तो सिकंदर होने में आदमी को एक रुग्णता से घिरा हुआ देखता हूं। जो आदमी दूसरों को जीतने चल पड़ता है वह आदमी अपनी इस हार को छिपाने की कोशिश में लगा है कि वह अपने को नहीं जीत पाया। इसे मैं फिर से दोहराऊं। डायोजनीज ने कहाः जो आदमी दूसरों को जीतने चल पड़ता है वह आदमी अपने मन की इस पीड़ा को भुलाने में लगा है कि वह स्वयं अपने को नहीं जीत पाया है। और दुनिया में दो ही तरह की विजय हैं। एक तो विजय है जो हम अपने बाहर दूसरों पर उपलब्ध करते हैं और एक विजय है जो हम स्वयं अपने ऊपर उपलब्ध करते हैं। और दो ही तरह के लोग भी हैं जगत में। दूसरों के जीतने के लिए आकांक्षा से भरे हुए लोग या स्वयं को जीतने की आकांक्षा से भरे हुए लोग। दूसरों को जो जीतने चल पड़ता है वह दूसरों को तो कभी जीत नहीं पाता, लेकिन स्वयं को जीतने से भी वंचित रह जाता है।
 यह घटना इसलिए मैं शुरू में कहना चाहता हूं, हम सारे लोगों के जीवन के समक्ष भी दो ही तरह के मार्ग होते हैं। एक तो महत्वाकांक्षा का; दूसरों की विजय का मार्ग है, और एक स्वयं की विजय का। अधिकतर लोग दूसरों को जीतने के प्रयास में जीवन की उस संपदा से वंचित ही रह जाते हैं जो स्वयं को जीतने से उपलब्ध होती है। और जो लोग बाहर की विजय में उलझ जाते हैं, मनुष्य के जीवन में दो ही रास्तें हैं। और अधिक लोग महत्वाकांक्षा के, एंबीशन के रास्ते पर ही चलते हैं।
साधारणतः सिकंदर, नेपोलियन या हिटलर जैसे लोग बहुत कम हमें दिखाई पड़ते हैं, जो संसार-विजय के लिए निकल पड़ते हों। लेकिन हम सारे लोग भी अपनी छोटी-छोटी ताकत से संसार-विजय में लगे रहते हैं। हम सबकी यात्रा भी दूसरों की विजय के लिए है। और यह समझ लेना बहुत उपयोगी है, जरूरी भी कि आखिर हम दूसरों की विजय में इतने उत्सुक क्यों हो जाते हैं? चाहे वह विजय धन की हो, चाहे यश की, चाहे पद की, क्यों हमारा मन इतना आतुर हो उठता है इस विजय के लिए? शायद कभी विचार भी न किया हो? विचार करेंगे तो बहुत हैरानी होगी। मनुष्य दूसरों की विजय के लिए इसलिए उत्सुक हो आता है कि अपने भीतर तो वह पाता है एक रिक्तता, एक खालीपन, एक अभाव, एक अंधेरा, भीतर तो कोई संपत्ति नहीं दिखाई पड़ती, न कोई प्रकाश दिखाई पड़ता, न कुछ पाने जैसी कोई दिशा अनुभव होती है, भीतर तो एक दरिद्रता मालूम पड़ती है। इस दरिद्रता को भरने के लिए वह बाहर की समृद्धि के पीछे आतुर हो उठता है। भीतर तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, जो भी दिखाई पड़ता है वह बाहर है। लेकिन भीतर एक रिक्तता की एक कमी, एक एंप्टीनेस का अनुभव जरूर होता है। ऐसा लगता है जैसे भीतर कुछ भी नहीं है, एक अभाव है। यह अभाव पीड़ा देता है। इस अभाव को भरने के लिए मन आतुर हो उठता है।
कैसे भरें इस अभाव को जो भीतर है?
ऐसा प्रतीत नहीं होता कि भीतर मैं कुछ हूं, भीतर पैर रखने को कोई भूमि नहीं दिखाई पड़ती, कोई सहारा नहीं दिखाई पड़ता, कोई संगी-साथी नहीं दिखाई पड़ता। भीतर एकदम असहाय, एक हेल्पलेसनेस मालूम होती है। अगर हम अकेले अपने भीतर छोड़ दिए जाएं, तो हम घबड़ा उठेंगे। ऐसे भी हम घबड़ाए हुए रहते हैं। मित्र को खोजते हैं, क्लब को खोजते हैं, मंदिर जाते हैं, सभा में बैठते हैं; शायद ख्याल भी इस बात का न हो कि ये सारी कोशिश अपने से बचने की कोशिश है। अकेले में खुद के साथ रहना बहुत कठिन है, इसलिए हम हजार उपाय करते हैं कि खुद का साथ न हो सके। कोई और साथी हो, कोई और मित्र हो, अखबार हो, रेडियो हो, किसी से बात होती हो, सिनेमा हो; लेकिन ऐसा न हो कहीं कि हम बिल्कुल अकेले छूट जाएं और कोई भी न हो। अकेले होने से हम डरते हैं। और अगर हमें मजबूरी में अकेले में रख दिया जाए तो शायद हम पागल हो जाएं।
 इजिप्त के एक बादशाह ने ऐसा प्रयोग किया। मेरे जैसे किसी आदमी ने उसको कहा होगा कि अकेले होने में आदमी इतना घबड़ा जाएगा कि पागल भी हो सकता है। उसे यह बात विश्वास योग्य नहीं मालूम पड़ी। उसने कहा कि राजधानी में जो सबसे स्वस्थ आदमी हो उसे पकड़ कर ले आया जाए। एक युवक को पकड़ कर लाया गया। सब तरह से वह स्वस्थ था, प्रसन्न था, शांत था, बीमार न था। कोई आर्थिक असुविधा न थी, सब भांति प्रसन्न था। अभी-अभी उसका विवाह हुआ था। वह और उसकी पत्नी दोनों खुश थे। उस युवक को पकड़ कर राजा ने एक अकेले कमरे में बंद करवा दिया। सारी सुविधा जुटा दी, भोजन की, सोने की, कोई तकलीफ न थी वहां। उसके मकान से बहुत ज्यादा राजमहल में व्यवस्था कर दी। लेकिन द्वार पर एक ऐसा आदमी पहरे पर रख दिया जो उस युवक की भाषा नहीं समझता था। और कोई भी उससे नहीं मिल सकेगा, इसकी मनाही कर दी। एक-दो दिन तो युवक चिल्लाता रहा कि मुझे क्यों बंद किया गया है? उसने भोजन खाने से इनकार कर दिया, उसने पानी नहीं पिया। लेकिन क्या करता? दो-चार दिन बाद उसे भोजन भी लेना पड़ा, पानी भी। आठ दिन बीतते-बीतते वह राजी हो गया उस अकेलेपन में रहने को। लेकिन एक महीना पूरा नहीं हो पाया था कि राजा के लोगों ने राजा को खबर दी, युवक में पागलपन के लक्षण आने शुरू हो गए हैं। उसने अपने से ही बातें शुरू कर दी हैं।
जब कोई ओर न मिले बातें करने को तो आदमी अपने से ही बातें शुरू कर देता है। फिर यह एक ही रास्ता है उसका, अपने आप को भुलाए रखने का। तीन महीने होते-होते वह युवक बिल्कुल पागल हो चुका था। तीन महीने बाद उसे छोड़ा तो वह एकदम विक्षिप्त था। क्या हो गया था उसे? अपने को भूलने का उसे तीन महीने तक कोई उपाय नहीं मिल सका।
 कोई भी स्वस्थ आदमी ऊपर से दिखाई पड़ता हो भला, भीतर एक गहरी अस्वस्थता है। उससे हम बचना चाहते हैं, उससे हम एस्केप करना चाहते हैं, पलायन करना चाहते हैं। एक आदमी नशा करने लगता है, एक आदमी भजन-कीर्तन करने लगता है। दोनों बातें हमें भिन्न-भिन्न मालूम पड़ती हैं। दोनों बातें भिन्न-भिन्न नहीं हैं। दोनों आदमी अपने-अपने ढंग से खुद को भूलने का उपाय खोज रहे हैं।
 एक आदमी संगीत सुनने लगता है, उसमें डूब जाता है। एक आदमी खेल खेलता है, कोई जुआ खेलता है, थोड़ी देर को अपने को भूलने का उपाय खोजता है। हम सारे लोग अपने आप को भूल जाने के लिए आतुर हैं। एक आदमी धन की खोज में भूल जाता है अपने आपको। चौबीस घंटे धन और धन, गिनती और गणना, उसे याद भी नहीं आ पाता कि मैं भी हूं। उसकी तिजोरी के हिसाब में उसे भूल जाता है कि मेरा भी कोई हिसाब है। एक आदमी पद की दौड़ में होता है, छोटी कुर्सी से बड़ी कुर्सी। स्वयं की रिक्तता से जीवन भर भागने का एक क्रम चलता है। नाम हम कुछ भी देते हों, रूप कोई हो, दौड़ एक ही है कि किसी भांति भीतर की रिक्तता से हम बच जाएं, उसे भर लें या उससे भाग जाएं। पदों की दौड़ में भी वही है, छोटी कुर्सी से बड़ी कुर्सी है, और बड़ी कुर्सी है; और एक आदमी भूले रहता है इस नशे में, इस बात को भूले रहता है कि कुर्सियां अलग हैं और मैं अलग हूं। और बड़ी से बड़ी कुर्सी भी, बड़े से बड़ा पद भी, मेरे भीतर जो खाली है उसे नहीं भर पाएगा।
एक छोटी सी कहानी आपसे कहूं उससे ख्याल आ सके।
एक सम्राट के द्वार पर एक भिखारी ने सुबह ही सुबह आकर भिक्षा मांगी। भिक्षापात्र फैलाया, सम्राट द्वार पर ही खड़ा था। उसने अपने चाकरों को कहा कि जाओ, इसके भिक्षापात्र को अन्न से भर दो। लेकिन उस भिखारी ने कहाः एक शर्त पर मैं भिक्षा लेता हूं, मेरा पात्र पूरा भरोगे न? अधूरा भरा हुआ पात्र लेकर मैं नहीं जाऊंगा। राजा हंस पड़ा, उसने कहाः शायद तुझे पता नहीं, तू इस देश के सबसे बड़े सम्राट के द्वार पर भिक्षा मांग रहा है, क्या तू सोचता है तेरे इस छोटे से पात्र को भी हम भर न सकेंगे? उस भिखारी ने कहाः बहुत बड़े-बड़े सम्राटों के द्वार पर मैंने भिक्षा मांगी, अब तक कोई भी भरने का वचन नहीं दे सका। राजा के अहंकार को चोट लगी, उसने अपने मंत्री को कहा कि अब अन्न से नहीं, जाओ स्वर्ण-मुद्राओं से इसके पात्र को भर दो। मंत्री गए, स्वर्णमुद्राएं लेकर आए, लेकिन पात्र में डालने पर पता चला कि राजा गलती सौदे में पड़ गया, गलती दांव लगा बैठा है। मुद्राएं पात्र में गिरीं और कहीं खो गईं, पात्र खाली का खाली रहा। राजा घबड़ाया, लेकिन एक भिखारी के सामने हार जाना उचित न था। उसने अपने मंत्रियों को कहा कि आज मैं हूं और यह भिक्षा का पात्र है, चाहे मेरी सारी संपत्ति इसमें डाल दी जाए लेकिन भिक्षा का पात्र भरना ही होगा।
सुबह यह बात हुई थी दोपहर हो गई, राजा की तिजोरियां खाली होने लगीं, सांझ आ गई लेकिन पात्र खाली का खाली था। तब राजा घबड़ाया और उस भिखारी के पैरों में गिर पड़ा, उसने कहा, मुझे क्षमा कर दो, मुझसे भूल हो गई। लेकिन यह पात्र बहुत अदभुत मालूम होता है, कोई जादू है इसमें? कोई मंत्र सिद्ध है? क्या है यह छोटा सा पात्र मेरी पूरी संपत्ति को पी गया, और नहीं भरा। वह भिखारी हंसने लगा और उसने कहाः इसमें कोई खूबी नहीं है, इस पात्र को मनुष्य के हृदय से हमने बनाया है। मनुष्य का हृदय कभी नहीं भरता, यह पात्र भी कभी भरने को नहीं है।
 यह कहानी मैंने सुनी थी और बहुत इस पर सोचता रहा। सच में ही किसी मनुष्य के हृदय का पात्र कब भरता है? कितनी संपदा मिले, कितना ही यश, कितना ही पद; जीवन में कितनी ही जीत मिल जाए, मनुष्य के मन का पात्र खाली का खाली रह जाता है। अंतिम क्षणों में भी मृत्यु जब द्वार पर दस्तक देती है, तब भी हम अपने भिक्षा का खाली पात्र लिए हुए किसी के सामने खड़े होते हैं। तब भी हम मांग रहे होते हैं, तब भी वही काम जारी रहता है कि कोई भर दे। लेकिन अब तक कोई किसी के पात्र को नहीं भर पाया है। इसी की दौड़ है, इसी की खोज है; और जब सब खोज असफल हो जाती हैं, सब दौड़ व्यर्थ हो जाती हैं, और सब द्वारों पर मांग कर भी हम खाली के खाली रह जाते हैं, तो उस विफलता में विषाद पैदा होते हैं, चिंता पैदा होती है, दुख पैदा होते हैं। दुख अपने को न भर पाने की असफलता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
इसीलिए तो बुद्ध और महावीर जैसे लोगों को भी दुख का अनुभव होता है। जिनके पास सब कुछ था, उन्हें भी। बुद्ध के पास क्या कमी थी या महावीर के पास किस बात का अभाव था, लेकिन दुख का अनुभव होता है। दुख का अनुभव इसी असफलता से होता है कि हम अपने को सारा श्रम करने के बाद भी विफल पाते हैं, नहीं भर पाते हैं। यह जो विफलता है, यह जो दुख है, यह जो पीड़ा है, यह जो चिंता है, इस चिंता और दुख के विचार से ही धर्म का जन्म होता है। जो व्यक्ति मन के इस स्वभाव को समझता है कि यह नहीं भरा जा सकेगा, वही व्यक्ति धर्म की खोज में, वही व्यक्ति उस सत्य की खोज में निकलता है जो स्वयं के भीतर है। बाहर तो हम पाते हैं असफलता, क्या भीतर सफलता मिल सकती है? बाहर मांग कर तो पाते हैं कि पात्र अधूरा और खाली रह जाता है, क्या भीतर भी कोई स्रोत हो सकता है जहां पात्र भर जाए? जो लोग बाहर की दौड़ पर असफल होकर भीतर लौटते हैं, भीतर खोजते हैं, भीतर की संपदा की जिज्ञासा करते हैं, भीतर खोदने की कोशिश करते हैं कि क्या वहां भी कुछ हो सकता है? उन थोड़े से लोगों ने एक अदभुत रहस्य खोज लिया है और वह यह कि कि जो बाहर नहीं मिलता है, वह भीतर मिल जाता है।
 अब तक मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में एक भी व्यक्ति यह कहने में समर्थ नहीं हुआ कि मैंने बाहर खोजा और मुझे आनंद मिला हो, मैंने बाहर खोजा और मैं तृप्त हो गया हूं, मैंने बाहर खोजा और मैंने सफलता पा ली। एक भी व्यक्ति यह नहीं कहने में समर्थ हो सका है। निर्पवाद रूप से सारी मनुष्य-जाति का अनुभव यही है। लेकिन फिर भी हर मनुष्य यही सोचता है कि मैं शायद एक अपवाद, मैं एक एक्सेप्शन सिद्ध हो जाऊं। किसी और को नहीं मिला है, लेकिन शायद मुझे मिल जाए। और यह अपवाद का धोखा ही हर मनुष्य को उस यात्रा पर ले जाता है, जो हजारों वर्षों से असफल है, जिस यात्रा में कोई सफल नहीं होता, फिर भी एक-एक व्यक्ति यही सोचता है शायद मैं भिन्न सिद्ध हो जाऊं। सिंकदर हार गए होंगे, लेकिन मैं शायद न हारूं।
 अरब में एक कहावत है, परमात्मा जब लोगों को बना कर भेजता है दुनिया में, तो हर आदमी को बनाने के बाद उसके कान में एक सूत्र जरूर बोल देता है, वह यह कह देता है हर आदमी को, तेरे जैसा आदमी मैंने कोई दूसरा नहीं बनाया, तू अनूठा है। और यह बात वह हरेक के कान में बोल देता है। और यह एक बड़ा गहरा मजाक है, हर आदमी को यह ख्याल होता है मैं एक अपवाद हूं। जो कोई भी नहीं कर सका, वह मैं कर सकूंगा। जो कोई भी नहीं पा सका, वह मैं पा सकूंगा। जो किसी जीवन में संभव नहीं हुआ, वह मेरे लिए संभव होगा। यह अहंकार का बोध, यह ईगो, यह अस्मिता कि मैं कर लूंगा जो किसी को नहीं हुआ, फिर एक जीवन को असफल बना देती है। यह जानना जरूरी है कि मनुष्य का स्वभाव एक जैसा है। मनुष्य के स्वभाव में भेद नहीं है। और अगर मनुष्य का स्वभाव ही बाहर के जगत में असफल होने को बाध्य है, तो मैं भी अपवाद नहीं हो सकता हूं। इतना चिंतन जिसके भीतर पैदा हो, वह भीतर लौटने में समर्थ हो सकता है। और शायद जैसा कि हुआ आज तक, जो लोग भीतर गए हैं उनमें से भी कोई यह नहीं कह सका कि मैं भीतर गया और खाली हाथ लौटा हूंं। जो भीतर गया है उसने पाया है कि वह पात्र जो हमेशा खाली था, भर गया है।
 सिकंदर मरा, शायद आपको पता हो, जिस नगर में उसकी अरथी निकली, सारे लोग हैरान हो गए। अरथी के दोनों हाथ उसके बाहर लटके हुए थे। हर कोई पूछने लगा कि अरथी के बाहर क्यों हाथ लटके हुए हैं? हमेशा अरथी के भीतर हाथ होते हैं। तो पता चला कि सिकंदर ने मरते वक्त कहा था कि मेरे हाथ अरथी के बाहर लटकाए रखना, ताकि हर आदमी देख ले मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। मेरे हाथ भरे हुए नहीं हैं। लेकिन सिकंदर को मरे सैकड़ों वर्ष हो गए, उसके अरथी के बाहर लटके हुए हाथ कौन देख पाया? किसको यह ख्याल आया कि सिकंदर एक असफलता है? किसी को भी नहीं। हमें यह भ्रम ही है कि बहुत धन उपलब्ध हो, बहुत पद, बहुत यश; बाहर के जगत में एक साम्राज्य स्थापित हो जाए, हमारी अस्मिता का तो शायद कमी पूरी हो जाएगी। लेकिन यह कमी पूरी नहीं होनी है, क्योंकि दारिद्रय है भीतर और संपत्ति होती है बाहर, उसका कोई मिलन नहीं हो पता। खालीपन है भीतर और भरते हैं जिन वस्तुओं से वह भीतर पहुंचाई नहीं जा सकती। धन को भीतर ले जाने का कोई उपाय है। धन आपके भीतर कैसे पहुंचेगा? पहुंच जाएगा आपकी तिजोरी में। लेकिन आपके भीतर कैसे पहुंचेगा? यश कैसे आपके भीतर पहुंचेगा? जो बाहर खोजा जाता है उसे भीतर ले जाने का कोई भी मार्ग नहीं है। इसलिए बाहर ढेर लगता जाता है हमारी समृद्धि का और भीतर हमारी दरिद्रता पूर्ववत ही बनी रहती है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है।
 अभी कुछ ही वर्ष हुए अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति एण्ड्रू कारनेगी मरा। मरते वक्त उसके पास कोई चार अरब रुपये की संपत्ति थी। संभवतः अमरीका में सबसे बड़ी संपत्ति उसी के पास थी। चार अरब रुपये छोड़ कर वह आदमी मरा। मरने के दो ही दिन पहले उसकी जीवन-कथा लिखने वाले लेखक ने उसको पूछा कि आप तो तृप्त हो गए होंगे इतनी संपत्ति आप इकट्ठी कर पाए। एण्ड्रू कारनेगी ने उदासी से कहाः कहां तृप्त हो गया? जरा भी तृप्त नहीं हुआ हूं। दस अरब रुपया छोड़ने का मेरा इरादा था और मैं केवल चार अरब ही इकट्ठे कर पाया। क्या आप सोचते हैं एण्ड्रू कारनेगी के पास दस अरब रुपये होते तो बात हल हो जाती? नहीं हल होनी थी, दस अरब जब तक रुपये होते, कारनेगी की आकांक्षा शायद सौ अरब रुपयों की हो जाती।
जो हमारे पास है हमारी आकांक्षा हमेशा उसके आगे निकल जाती है। और तब एक भ्रम जीवन भर कायम रहता है। जीवन भर हम दौड़ते भी हैं और हर दौड़ के बाद हम पाते हैं मंजिल और आगे निकल गई। हम फिर हमेशा पीछे रह जाते हैं। आदमी हमेशा पीछे रह जाता है, आकांक्षा हमेशा आगे निकल जाती है। और तब गरीब भी गरीब रहता है, अमीर भी गरीब। वे तो दरिद्र हैं ही जो सड़कों पर भिक्षा मांगते हैं, वे भी दरिद्र रह जाते हैं जिन्हें सम्राट होने का भ्रम पैदा होता है। भीतर की दरिद्रता में कोई फर्क नहीं पड़ता है।
 धर्म की जिज्ञासा शुरू होती है इसी तथ्य से कि क्या यह जो भीतर हमारे एक दरिद्र बैठा हुआ है, एक भिखारी, क्या यह भिखारी मिट सकता है? क्या ऐसा हो सकता है कि एक आंतरिक संपदा उपलब्ध हो और प्राण आनंद से भर जाएं? क्या यह हो सकता है कि भीतर का खालीपन मिट जाए, एक भरापन पैदा हो? क्या यह हो सकता है कि भीतर रिक्तता न रहे, एक पूर्णता आ जाए? इस बात का विचार, इस बात की जिज्ञासा, इस बात का प्रश्न ही मनुष्य के भीतर एक नई खोज का शुभारंभ बनता है। लेकिन शायद हम पूछते ही नहीं, शायद कभी हम रुक कर दो क्षण ठहरते भी नहीं कि जीवन की धारा पर प्रश्न कर लें, देख लें कि क्या हमने पाया है? हिसाब कर लें, कभी दो क्षण रुक कर पीछे लौट कर देख लें?
अब यहां इतने लोग हैं, किसी की दस वर्ष उम्र होगी, किसी की साठ वर्ष भी, लेकिन न दस वर्ष वाला सोचता है कि दस वर्षों में मैंने क्या पा लिया और न साठ वर्ष वाला सोचता है कि मैंने साठ वर्षों में क्या पा लिया? मेरे हाथों में क्या है? कहीं वे खाली ही तो नहीं हैं? मेरी उपलब्धि क्या है? कुछ मकान मैंने खड़े कर लिए हैं, वे उपलब्धि होंगे? कुछ जमीन पर मैंने घेरा बांध लिया है, वह मेरी उपलब्धि है? कुछ संपदा मैंने बटोर ली है, वह मेरी उपलब्धि है? मेरी उस उपलब्धि से क्या वास्ता है? क्या संबंध है? मौत मेरी, मुझे उस उपलब्धि से दूर कर देगी। जीवन भर जिसे मैंने जिसे इकट्ठा किया था, मृत्यु उससे मुझे जुदा कर देगी। तो क्या कुछ ऐसा भी मेरे पास है जिसे मृत्यु दूर न कर सके? अगर ऐसा कुछ भी हमारे पास है, जिसे मृत्यु दूर न कर सके, तो उसी संपदा का नाम आत्मा है, उसी संपदा का नाम परमात्मा है, जिसे मृत्यु हमसे दूर न कर सके। मृत्यु की कसौटी पर हमेशा जीवन की उपलब्धि को जो कस लेता है वह पाएगा कि जिसे उसने धन समझा है, जिसे उसने यश समझा है, जिसे उसने सोचा है कि यह मेरा पाना है, वह उसे मिट्टी दिखाई पड़ेगा, लेकिन मृत्यु की कसौटी पर हम कसते नहीं।
इसलिए मैं आज की सुबह इस चर्चा में आपसे यह निवेदन करना चाहूंगा, फिर आने वाली तीन चर्चाओं में आपसे उस पर विस्तार से बात हो सकेगी। मृत्यु की कसौटी ही सबसे बड़ी कसौटी है मनुष्य के समक्ष, जिस पर वह कस कर देख ले कि उसके पास सोना है या मिट्टी। जो चीज मृत्यु की कसौटी पर व्यर्थ हो जाती हो उसे वह जान ले कि वह मिट्टी है, क्योंकि मृत्यु की ताकत केवल मिट्टी पर ही चल सकती है। जीवन पर मृत्यु की कोई ताकत नहीं चल सकती। अगर हमारे पास कोई जीवन की संपत्ति हो, तो मृत्यु वहां हार जाएगी और व्यर्थ हो जाएगी, लेकिन हमारे पास तो जो भी है वह सब मृत्यु की कसौटी पर मिट्टी सिद्ध होता है। फिर भी लेकिन हम अंत घड़ी तक उसी को सोचे चले जाते हैं, शायद कभी ख्याल पैदा नहीं होता, शायद सभी लोग एक दौड़ में हैं इसलिए ख्याल पैदा नहीं होता। हम यहां इतने लोग हैं, अगर हम सभी एक ही बीमारी से परेशान हो जाएं तो थोड़े दिनों में हमें उस बीमारी का पता होना बंद हो जाएगा। क्योंकि सभी उस बीमारी में होंगे। बीमारी का पता चल सकता है, अगर एकाध बीमारी में हो। पूरी मनुष्य-जाति एक रुग्णता से पीड़ित हो तो पता चलना मुश्किल हो जाता है। पीएगा
 मैंने सुना है, एक गांव में दो कुएं थे। एक गांव का कुआं था और एक राजा के महल का। एक जादूगर उस गांव से निकला और उसने गांव के कुएं में कुछ छोड़ दिया। और कहा कि अब जो भी इसका पानी पीएगा वह पागल हो जाएगा। मजबूरी थी, लेकिन सांझ तक लोगों को पानी पीना ही पड़ा, प्यासे वे कब तक रहते? और धीरे-धीरे पूरा गांव पागल हो गया। सिर्फ राजा, उसका वजीर, उसकी रानी पागल नहीं हुए, उनका कुआं अलग था। लेकिन सांझ को गांव के जो सारे लोग जो पागल हो गए थे वे यह विचार करने लगे कि मालूम होता है राजा का दिमाग खराब हो गया। चूंकि राजा पूरे गांव से अलग मालूम पड़ने लगा, पूरा गांव पागल हो गया। संध्या उन्होंने महल के सामने बड़ी सभा इकट्ठी की और उन्होंने विचार किया कि पागल राजा को गद्दी से उतारना पड़ेगा, पागल राजा के नीचे नहीं रहा जा सकता है। राजा बहुत घबड़ाया, वह अपनी छत पर खड़ा था, उसने अपने बूढ़े वजीर को कहा कि अब क्या किया जाए? पूरा गांव पागल हो गया है। लेकिन चूंकि पूरा ही गांव पागल हो गया है इसलिए यह भी मानने को कौन राजी होगा कि वे पागल हैं और हम ठीक हैं?
वजीर ने कहाः अब एक ही रास्ता है अपने को बचाने का, हम भी उसी कुएं का पानी पी लें। वे भागे हुए गए, उन्होंने उस कुएं का पानी पी लिया। फिर उस रात उस गांव में बड़ा जलसा हुआ और उस जलसे में सभी लोगों ने राजा के गले में हार पहनाए और भगवान को धन्यवाद दिया कि राजा का दिमाग ठीक हो गया।
चूंकि सारा गांव पागल था। मनुष्य की पूरी की पूरी पीढ़ियां बाहर की दौड़ की रुग्णता से पीड़ित हैं। इसलिए जब कभी कोई आदमी एकाध भीतर की बात कहता है, तो वह हमें पागल ही मालूम पड़ता है। हम गांधी को अकारण गोली नहीं मार देते। यह किसी एकाध गोड़से का सवाल नहीं है कि कोई गोली मार देता है। हम क्राइस्ट को ऐसे ही सूली पर नहीं लटका देते, यह कोई दो-चार-दस पागलों का काम नहीं है। हम सुकरात को ऐसे ही जहर नहीं पिला देते हैं। इसके पीछे बुनियादी कारण हैं, ये लोग हमें पागल मालूम पड़ते हैं। ये लोग हमारे बीच के नहीं मालूम पड़ते, ये आउट साइडर्स मालूम पड़ते हैं। हम एक दुनिया में हैं, ये कुछ अलग आदमी मालूम पड़ते हैं। ये लोग कुछ गड़बड़ मालूम पड़ते हैं, अजनबी मालूम पड़ते हैं। ये हमारे बीच रहे तो हमें मालूम होता है कि ये सारे जीवन को गड़बड़ कर देंगे। इनकी बातें कुछ ठीक नहीं मालूम पड़तीं। इसलिए जरूरी हो जाता है कि हममे से कोई एक उठे और इनको समाप्त कर दे। इधर दस हजार वर्षों में हमारे भीतर जो स्वस्थ आदमी था वह हमें पागल मालूम हुआ, क्योंकि हम सारे लोग एक बहुत बड़ी गहरी पागल दौड़ में हैं। हमारी दौड़ का अंत तक कोई सिलसिला नहीं टूटता है। आखिरी क्षण तक भी हम वही सोचे चले जाते हैं, जिसका जीवन की गहराइयों से कोई भी नाता नहीं है। जिसका जीवन की गहराइयों से नाता है उसकी छाया भी हमारे जीवन में कभी नहीं उतरती।
 एक धनपति बीमार था, मरणासन्न था, अंतिम क्षणों की प्रतीक्षा कर रहा था। जीवन भर धन और धन और धन उसकी दौड़ रही थी। कभी उसने और तरफ आंख उठा कर देखा हो, यह भी उसके गांव के लोगों को पता न था। वह मर रहा था, आखिरी क्षण थे, उसने आंख खोली, और अपनी पत्नी को पूछा, मेरा बड़ा लड़का कहां है? पत्नी के मन में बड़ा आह्लाद हुआ। यह पहला मौका था कि उसने किसी के बाबत कुछ पूछा था, यह पहला मौका था उसने प्रेम दर्शाया था, शायद अंतिम क्षणों में उसके हृदय में प्रेम उठा है, वह अपने लड़कों की बाबत पूछ रहा है। उसकी पत्नी की आंखों में आंसू भर आए, उसने कहाः आप चिंतित न हों, बड़ा लड़का आपके पास बैठा हुआ है। उसने पूछाः और इससे छोटा कहां है? पत्नी ने कहाः वह भी मौजूद है। उससे छोटा? उसके पांच लड़के थे, उसने कहाः सबसे छोटा कहां है? वह भी आपके पैर तले मौजूद है, आप चिंतित न हों। सब मौजूद हैं, आप घबड़ाएं न। वह आदमी जो मरने के करीब था, उठ कर बैठ गया और उसने कहाः इसका क्या मतलब, फिर दुकान पर कौन बैठा होगा? अगर ये पांचों यहीं पर मौजूद हैं तो फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?
 पत्नी भूल में थी, वह सोचती थी यह प्रेम की वजह से याद आ रही है यह बात। वह आदमी इसका पता लगा रहा था कि इस वक्त भी कोई दुकान पर मौजूद है या नहीं? यह पूछ कर वह आदमी मर गया। यह वह पूछा कि दुकान पर फिर कौन बैठा हुआ है? और वह आदमी मर गया। इस आदमी के बाबत हम क्या सोचेंगे? यह आदमी कितना दीन-हीन आदमी था? इस पर कितनी दया आए उतनी ही थोड़ी है। इसका जीवन कैसा जीवन रहा होगा? मृत्यु के क्षण में भी, न तो प्रेम था, न प्रार्थना थी, न परमात्मा था। पैसा था। और यह स्वाभाविक है, जिसकी जीवन की पूरी धारा पैसे से जुड़ी रही हो, अंतिम क्षण में वह प्रेम से जुड़ भी नहीं सकता है।
 चित्त तो एकशृंखला है, एक कंटीन्युटी है। गंगा बह रही है, कोई अगर यह कहे कि हिमालय पर तो गंगा गंदी होती है, प्रयाग में गंदी होती है, अपवित्र होती है, सिर्फ काशी के घाट पर आकर पवित्र हो जाती है, आगे फिर अपवित्र हो जाती है, तो हम कहेंगे, तुम पागल हो, क्योंकि गंगा तो एक सतत धारा है। यह नहीं हो सकता कि काशी के पहले अपवित्र हो, काशी के बाद फिर अपवित्र हो जाए। सिर्फ काशी के घाट पर पवित्र हो उठे, ऐसा कैसे होगा? धारा तो जो पहले है वही काशी के घाट पर है, वही काशी के आगे है। चित्त भी एक सतत धारा है, अगर जीवन भर वह बाहर की तरफ घूमती रही हो, तो यह असंभव है कि अंतिम क्षण में वह अंतस की तरफ घूम आए। अगर जीवन भर उसने पैसे को केंद्र बनाया हो, तो यह असंभव है कि वह कभी प्रेम को केंद्र बना ले। और जिस जीवन में प्रेम केंद्र नहीं बनता, प्रेम है आंतरिक संपत्ति, पैसा है बाह्य संपत्ति। इसलिए आप देख कर हैरान होंगे इस बात को कि जो आदमी पैसे के लिए जितना आतुर होगा उसके जीवन में प्रेम उतना ही कम होगा। यह बिल्कुल अनिवार्य है। जिसके जीवन में जितना प्रेम होगा, पैसे पर उसकी पकड़ उतनी ही कम हो जाएगी। प्रेम और पैसे की पकड़ दोनों एक साथ-साथ कभी नहीं हो सकते हैं।
 ये महावीर और बुद्ध हमें धन छोड़ते दिखाई पड़ते हैं, लोग सोचते होंगे, ये त्याग कर रहे हैं। मेरी दृष्टि में मामला दूसरा है, मेरी दृष्टि में इन्हें प्रेम की संपत्ति मिल गई इसलिए पैसे की संपत्ति का अब कोई सवाल नहीं है। इन्होंने बड़ी संपत्ति पा ली है इसलिए यह छोटी संपत्ति छूट रही है। अगर किसी को हीरे-जवाहरात मिल जाएं और वह हाथ के कंकड़-पत्थर फेंक दे, इसको त्याग कौन कहेगा? कंकड़-पत्थर फेंक देगा इसलिए कि उसे हीरे मिल गए हैं। जिसे प्रेम मिल जाता है उसे पैसा व्यर्थ हो जाता है, और जिसे प्रेम नहीं मिलता उसे पैसे के अतिरिक्त कोई सार्थकता नहीं है। जीवन में एक ही सार्थकता है--पैसा। और पैसे के इर्दगिर्द जीवन घूमता हो, तो मन का पात्र अधूरा रह जाएगा। निश्चित रह जाएगा। और तब होगा दुख पैदा, तब होगी पीड़ा, तब लगेगा सब व्यर्थ है। तब उदासी चित्त को घेरेगी, संताप मन पर छाया डालेगा, और हम सबके मन पर वह डाले हुए है। हमारे जीवन में न कोई आनंद है, न कोई उत्फुल्लता है, क्या है कारण इस बात का? कारण एक ही है, हमने जीवन के वृत को बाहर के केंद्र पर घुमा रहे हैं। जो भीतर की आंतरिकता में प्रवेश पाना चाहिए था वह केवल बाहर के गली-कूचों में भटक रहा है। और जो संपत्ति स्वयं के पास थी उसे देखे बिना वह द्वार-द्वार पर भीख मांग रहा है। और जिसे हम अपने में ही खोज कर पा सकते थे उसके लिए हम हजारों-हजारों मील की यात्राएं कर रहे हैं और पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं। थक जाते हैं पैर एक दिन, घबड़ा जाती है तबीयत, मौत करीब आने लगती है और आंखें आंसू से भर जाती हैं, और लगता है सब व्यर्थ हो गया। यह लगना स्वाभाविक है।
जितने जल्दी यह बात बोध में आ जाए कि बाहर की दौड़ व्यर्थ है, उतने ही शीघ्र भीतर की एक नई यात्रा का प्रारंभ हो सकता है। भीतर की यात्रा ही परमात्मा की यात्रा है। इसलिए मैं मंदिर में जाने को धर्म नहीं कहता हूं, न ही तीर्थ की यात्रा को धर्म कहता हूं। क्योंकि तीर्थ भी बाहर है और मंदिर भी बाहर है। यह वही बाहर की खोज वाला आदमी है--मंदिर भी बाहर बनाता है, भगवान भी बाहर खड़े करता है। उसके भगवान ऊपर आकाश में होते हैं, मंदिर बाहर होता है, तीर्थ कहीं काशी में, कहीं काबा में होता है। अभी उसकी भीतर की तरफ आंख नहीं गई। भीतर की तरफ जिसकी आंख पहुंच जाती है वह मन में ही मंदिर को उपलब्ध हो जाता है।
धार्मिक आदमी वह नहीं है जो मंदिर जाता हो, बल्कि वह है जो स्वयं मंदिर बन गया हो। और हर आदमी मंदिर बन सकता है। और तभी जीवन में वे किरणें उपलब्ध होती हैं जो आनंद की हैं, जो प्रेम की हैं, जो सौंदर्य की हैं। और तभी वह शांति मिलती है जिसे उच्छेद करने की सामर्थ्य फिर किसी में भी नहीं। और तभी वह संपदा उपलब्ध होती है जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है। और तभी मिलता है वह अमृत जीवन जिसकी कोई मृत्यु नहीं है।
लेकिन उसके लिए भीतर की ही यात्रा करनी जरूरी है। भीतर की यात्रा के कुछ नियम हैं, भीतर की यात्रा के कुछ मार्गदर्शक हैं, भीतर की यात्रा के राह पर लगे कुछ मील के पत्थर हैं, उनकी हम आने वाली तीन चर्चाओं में बात करेंगे। अभी तो इतना ही मुझे आपसे कहना था मुझे सुबह की इस बात मेंः बाहर ही खोजते न रह जाना, क्योंकि बाहर कितनी ही, कितनी ही संपदाएं दिखाई पड़ें, वे मन के पात्र को कभी भी नहीं भर पाती हैं।
 एक रात एक छोटे से गांव में एक छोटे से झोपड़े के भीतर से जोर से आवाज आने लगीः आग लगी है, मेरे भीतर आग लगी है। कोई रो रहा है, छाती पीट रहा है और जोर से चिल्ला रहा है। सारे गांव के लोग जाग गए और उस झोपड़े की तरफ भागे। झोपड़े में अंधकार था। आग तो दूर वहां कोई दीया भी एक जला हुआ नहीं था। लोगों ने दरवाजे हटाए, अंदर गए, एक बूढ़ी औरत चिल्ला रही थी, रो रही थी। उन लोगों ने कहाः पागल, आग कहां लगी है, हमें बता? कुछ लोग दौड़ कर बाल्टियों में पानी भर लाए थे। उन्होंने कहाः कहां आग है? हम उसे बुझा देंगे। वह बूढ़ी औरत जो रोती थी, हंसने लगी और उसने कहाः पागलो, अगर आग बाहर होती तो मुझे भी कुएं का रास्ता मालूम है, मेरे घर में भी बाल्टी है, मैं उसे बुझा लेती। लेकिन आग भीतर लगी है, और तुम मेरी आग नहीं बुझा सकोगे, क्योंकि जो मेरे भीतर है उसे बुझाने का उपाय मुझे ही करना होगा। और निवेदन मुझे यह करना है कि मेरे ही भीतर आग लगी होती तो भी ठीक था, तुम्हारे घर में भी भीतर आग लगी है, जाओ और वहां खोजो। वे लोग गुस्से में बड़बड़ाते हुए अपने घर चले गए, उसने व्यर्थ उनकी नींद खराब कर दी। और जाकर सो गए।
 अक्सर मैं जो बातें कहूंगा तीन दिन में उनमें भी आप में से बहुतों को ऐसा लगेगा, व्यर्थ हमारी नींद खराब कर दी। और आप भी अपने घर जाकर आराम से सो जाएंगे। अक्सर ऐसा ही होता रहा है। लेकिन अगर किसी की नींद टूट जाए इन बातों से, कोई घबड़ा कर बेचैन हो जाए, किसी के भीतर बहुत तीव्र असंतोष जलने लगे, और किसी को ऐसा लगने लगे कि जीवन सचमुच एक आग पर चढ़ा हुआ है, तो निश्चित ही उसके भीतर उस पीड़ा से, उस दुख से, उस आग लगे होने के बोध से, वह संकल्प पैदा हो जाता है जो मनुष्य को आग के बाहर ले जाने में समर्थ है। असंतोष के बाहर ले जाने में समर्थ है। हमारी प्यास और हमारी पीड़ा ही हमारे ऊपर उठने का मार्ग बनती है। इधर तीन दिनों में कोशिश करूंगा कि हम जो संतोष से जीए चले जा रहे हैं, वह टूट जाए, क्योंकि संतोष बहुत झूठा है यह। यह उतना ही झूठा है जैसे सुबह कोई आपसे पूछता है, आप ठीक तो हैं? और आप कहते हैं, बिल्कुल ठीक। बिल्कुल झूठी बात कहते हैं। हर आदमी यही कहता है, बिल्कुल ठीक हूं। अगर यह बात सच होती तो दुनिया ठीक होनी चाहिए थी। लेकिन हम सब जानते हैं, यह कहने की बात है कि हम बिल्कुल ठीक हैं, हम जरा भी ठीक नहीं हैं। जब भी कोई मिलता है, आप मुस्कुरा कर मिलते हैं, उससे भ्रम पैदा होता है, जैसे मुस्कुराहट आपकी जिंदगी में होगी। सच्चाई यह है कि भीतर सिवाय रुदन के और कुछ भी नहीं है, आंसुओं के सिवाय कुछ भी नहीं है। लेकिन हम ऊपर की मुस्कुराहट से भीतर के इन सब आंसुओं को छिपा लेने में इतने होशियार हो गए हैं कि दूसरों को तो हम धोखा देने में समर्थ हो ही जाते हैं, निरंतर दूसरों को तो धोखा देते-देते खुद को भी धोखा देने में हम समर्थ हो जाते हैं। और ऐसा भ्रम पैदा हो जाता है हम खुश हैं, हम प्रसन्न हैं, हम आनंदित हैं। सारा जीवन हमारा एक झूठा संतोष है, एक फॉल्स कंसोलेशन है, जहां सच्चाई जरा भी नहीं है।
 तीन दिन में कोशिश करूंगा कि यह झूठा संतोष आपका टूट जाए। और आपके भीतर एक असंतोष पैदा हो। क्योंकि, स्मरण रहे, जब तक कोई सामान्य जीवन से असंतुष्ट नहीं हो जाता तब तक सच्चे जीवन की खोज शुरू नहीं हो सकती। इसलिए जो लोग कहते हैं, धर्म एक संतोष है, मैं आपसे कहूंगा, वे एकदम ही गलत और झूठी बात कहते हैं। धर्म तो एक बहुत गहरा असंतोष है। एक बहुत डिवाइन डिसकंटेंट है। एक बहुत गहरा असंतोष है भीतर। उससे ही धर्म की शुरुआत होती है। लेकिन हमने तो धर्म को जरूर एक संतोष बना रखा है। जो लोग धर्म को संतोष समझते हैं उनके जीवन डबरों की भांति हो जाते हैं, जिनमें पानी गंदा हो जाता है। लेकिन जो लोग जीवन को एक गहरा असंतोष समझते हैं, निरंतर पार हो जाने के लिए और पार और ऊपर उठ जाने के लिए, उनका जीवन एक सरिता बन जाता है--जो पहाड़ियों, घाटियों, मैदानों को पार करती है इस खोज में, इस तलाश में कि किसी दिन उसे अनंत सागर का मिलन हो सके। असंतोष का जीवन जो निरंतर जीवन की क्षुद्र संतोषों से ऊपर उठता चला जाए, पार करता चला जाए, वही किसी दिन परमात्मा के उस सागर को उपलब्ध होता है, जो कि वास्तविक संतोष और शांति है।
इधर इन तीन दिनों में इस संबंध में आपसे बात करूंगा। यह तो बिल्कुल प्रारंभिक थोड़े से शब्द हैं, इसके बाद चर्चा हो सकेगी।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें। 

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