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मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-05)

 प्रवचन-पांचवां

आनंद व अहोभाव में डूबा हुआ नव-संन्यास

अभी-अभी साधना मंदिर में जो भजन चल रहा था उसे देखकर मुझे एक बात ख्याल में आती है। वहां सब इतना मुर्दा, इतना मरा हुआ था जैसे जीवन की कोई लहर नहीं है। सब औपचारिक था- करना है, इसलिए कर लिया। तुम्हारा भजन, तुम्हारा नृत्य, तुम्हारा जीवन जरा भी औपचारिक न हो, फॉरमल न हो। उदासी के लिए तो नव-संन्यास में जरा भी जगह न हो। क्योंकि संन्यास अगर मरा तो उदास लोगों के हाथ में पड़कर मरा।  ‘हंसता हुआ संन्यास’, पहला सूत्र तुम्हारे ख्याल में होना चाहिए। अगर हंस न सको तो समझना कि संन्यासी नहीं हो। पूरी जिंदगी एक हंसी हो जानी चाहिए। संन्यासी ही हंस सकता है। उदासी एवं गंभीरता संन्यासी के लिए एक रोग जैसा है। इसलिए आज तक संन्यासी होना एक ऐसा बोझ-सा और भारी गंभीरता का काम कर रहा है, जिसमें सिर्फ रुग्ण और बीमार आदमी ही उत्सुक होते रहे हैं। स्वस्थ आदमी न तो उदास हो सकता, न गंभीर हो सकता।  नव-संन्यासी तो नाचता-गाता, प्रसन्न होगा। इसका यह मतलब नहीं है कि वह उथला होगा। सच तो यह है कि गंभीरता गहरेपन का सिर्फ धोखा है। वह गहरी होती नहीं, सिर्फ दिखावा है।


जितना गहरा आदमी होगा उतना फ्रुल्ल होगा। जितना भीतर जाएगा, उतना बाहर प्रसन्न होता चला जाएगा। भीतर जाने की परीक्षा और कसौटी ही यही है कि वह कितना बाहर प्रसन्न और हलका होता चला जाता है। जिंदगी बाहर उड़ने लगे, वेटलेस, भारशून्य हो जाए तभी समझना कि भीतर गति हो रही है।  इस मुल्क में संन्यास को हंसता हुआ बनाना पहला बड़ा काम है। गांव-गांव, गली-गली, घर-घर हंसी गूंज जाए। संन्यासी हमारा जहां प्रवेश करे वहां फ्रुल्लता छा जाए, वहां उदासी न बचे। हमारे संन्यासी को कोई कहीं देखे तो खुशी से भर जाए। उसके चेहरे, उसके व्यक्तित्व, उसके ढंग, उसके पूरे जीवन से प्रसन्नता निकले। लेकिन यह इसलिए कहता हूं कि संन्यास के साथ गंभीर होना ऐसोसिएट, संयुक्त हो गया है।  तुम्हारा चूंकि पहला ग्रुप, समूह होगा संन्यासियों का, तुम पर बहुत कुछ निर्भर करेगा कि तुम्हारे पीछे जो लोग आएंगे ....अगर तुम उदास रहे तो वे उदास होते चले जाएंगे। आदमी बिल्कुल ‘इमिटेटिव’ है, बिल्कुल नकलची है। एक कमरे में अगर बीस आदमी उदास बैठे हैं तो जो आएगा वह भी उदास हो जाएगा। सोचेगा कि हमने कोई गड़बड़ी की तो फंस जाएंगे।
तो तुम पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। तुम पर सब कुछ निर्भर करेगा कि तुम्हारे पीछे जो लोग आएंगे, तुम जैसे होओगे, वे वैसे बनते चले जाएंगे।  फिर जो धर्म हंस नहीं सकता वह धर्म बहुत नहीं फैल सकता, क्योंकि इस जगत् में कोई भी रोना नहीं चाहता। जो रो रहा है, वह भी मजबूरी में रो रहा है, वह भी रोना नहीं चाहता। जो उदास है वह भी मजबूरी में उदास है, वह भी उदास होना नहीं चाहता। इसलिए अगर हम उदास तरह की व्यवस्था बना लें तो उसमें थोड़ा-सा उदास वर्ग उत्सुक हो जाता है। हम हंसते हुए, जीवन को कहीं अस्वीकार नहीं करते, नकारते नहीं, उसे पूरा परमात्मा मानकर स्वीकार करते हैं, उसे नृत्यपूर्वक स्वीकार करते हैं, अहोभावपूर्वक स्वीकार करते हैं।  तो मैंने जो कहा कि तुम जाओ सड़कों पर और गांव में और नाचो और गाओ, वह किसी भगवान की स्तुति में उतना नहीं जितना तुम्हारे आनंद की अभिव्यक्ति है। वह किसी भगवान की स्तुति का उतना सवाल नहीं है, जितना तुम्हारी प्रसन्नता को खिलने-फूलने का मौका मिले, उसका सवाल है। और भगवान की स्तुति तो हो ही जाती है, जब भी हम आनंदित होकर एक क्षण भी जीते हैं तो हमारे आनंद का वह फूल उसके चरणों में पहुंच जाता है।  अभी वहां देखकर मुझे ख्याल आया कि वैसी भूल तुमसे नहीं होनी चाहिए।
तुम अपने गीत में, नृत्य में व्यवस्था भी देना तो भी व्यवस्था को गौण रखना, प्राण को ही प्रमुख रखना। व्यवस्था होगी, लेकिन वह गौण होगी। उसको तोड़ने की हिम्मत तुममें सदा हो। किसी विशेष ढांचे में ही नाचना है, ऐसा भी नहीं है। लेकिन तोड़ने की हिम्मत भी किसी क्षण में होनी चाहिए। क्योंकि जब बहुत व्यवस्था ऊपर बैठ जाती है, बहुत नियम और बहुत ढांचा बन जाता है तो भीतर से प्राण सिकुड़ जाते हैं और मर जाते हैं।  तो तुमसे मुझे बहुत व्यवस्था की फिक्र नहीं है। तुम्हें बहुत प्राणवान होना है। हां, जितना प्राणवान होने पर भी व्यवस्था चल सके उतना चलाना, उससे ज्यादा नहीं। ध्यान प्राणवान होने पर रखना, व्यवस्था पर नहीं।  निश्चित ही संन्यास का जैसे ही हम नाम लेते हैं तो संन्यास के साथ जो हजार बातें जुड़ी रही हैं उन्हें तुम्हारा जोड़ने का मन होगा। उसको जरा सोच-समझकर जोड़ना, क्योंकि मैं तुम्हें निपट कोई मरी-मराई, पुरानी परंपरा से नहीं जोड़ रहा हूं। सच तो यह है कि संन्यास की एक नई ही अवधारणा तुम्हारे साथ जन्म लेती है। तुम्हारे साथ पृथ्वी पर एक नए ही संन्यासी को भेज रहा हूं। आज तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा, कल दिखाई पड़ेगा, जब हजारों आएंगे उस धारा में तब तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि घटना कितनी बड़ी थी। जो प्राथमिक घटना में सम्मिलित होते हैं, उन्हें बहुत देर में पता चलता है कि घटना कितनी बड़ी थी, यह तो पीछे पता चलता है। तो तुम्हारे ऊपर दायित्व भी बहुत बड़ा है- बोझ का नहीं, दायित्व का। दायित्व यही बड़ा है कि तुम किसी तरह का बोझ मत इकट्ठा कर लेना, नहीं तो पीछे लोग उसे घसीटते चले जाएंगे।   संन्यास का मतलब ही यही है मेरी दृष्टि मेंः एक व्यक्ति ने जिंदगी को एक काम समझना बंद किया, खेल समझना शुरू किया- काम नहीं खेल, ‘वर्क’ नहीं ‘प्ले’।
अब तुम्हारे लिए जिंदगी काम नहीं है। अब तुम दफ्तर में भी काम कर रहे हो, तो भी काम नहीं है। अगर तुम चैके में खाना भी बना रहे हो, तो भी काम नहीं है। अगर तुम बुहारी भी लगा रहे हो, तो भी काम नहीं हैै। तुम संन्यासी हो, तुम्हारे लिए कुछ भी अब काम नहीं है। काम करना नहीं पड़ेगा, काम होगा, लेकिन तुम्हारे लिए अब सब खेल है। तुम्हारा दृष्टिकोण खेल का ही होगा। और खेल में ही बुहारी भी लगाई जा सकती है और खेल में बड़ा काम भी किया जा सकता है, लेकिन तब खेल से पीड़ा नहीं आती।  काम छोटे और बड़े होते हैं, खेल सब बराबर होते हैं। यह बड़े मजे की बात है। काम में हायरेरिकी, ऊंच-नीच होती है, कोई काम छोटे का काम है, कोई काम बड़े का काम है। खेल- नॉन-हायरेरिकल, ऊंच-नीच मुक्त है, उसमें कोई हायरेरिकी नहीं है; उसमें कोई नीचा-ऊंचा नहीं है। खेल यानी खेल, चाहे तुम शतरंज खेलो, चाहे तुम ताश खेलो, चाहे तुम गिल्ली-डंडा खेलो, चाहे तुम फुटबॉल खेलो, कुछ भी खेलो, खेल कोई छोटा-बड़ा नहीं है।  जैसे ही जिंदगी खेल बनती है, वैसे ही उसमें हायरेरिकी, ऊपर-नीचे का मामला खत्म हो जाता है। तुम्हारे भीतर कोई ऊपर-नीचे नहीं है- किसी भी कारण से नहीं- न कोई ज्ञान में, न उम्र में, न किसी और वजह से। तुम्हारे पीछे भी लोग आएंगे वे भी तुमसे कोई पीछे नहीं होंगे।
जो जब भी आए, वह जैसे ही खेल की दुनिया में सम्मिलित हुआ, वैसे ही काम की दुनिया के जो नियम थे वे लागू नहीं होंगे।  अभी तक संन्यासी की दुनिया में भी काम के नियम लागू होते थे। वहां भी सीनियारिटी, वरिष्ठता है, जूनियारिटी, कनिष्ठता है। वहां जो एक साल पहले संन्यासी हो जाता है वह सीनियर, वरिष्ठ हो जाता है। जो पीछे आता है उसको नीचे बैठना पड़ता है। सीनियर संन्यासी ऊपर बैठता है। सीनियर संन्यासी के पैर पड़ने हैं। तुम्हारा तो पैर पड़ने का मन हो तो तुम किसी के भी पड़ना। तुम्हें न पड़ने का मन हो तो भगवान भी हो तो मत पड़ना। तुमसे मिलने भी कोई आए और तुम्हें उसके पैर पड़ने का मन हो जाए तो बराबर पड़ना। यह भी मत सोचना कि तुम संन्यासी हो और वह गृहस्थ है।  हमें गृहस्थ और संन्यासियों की भी अवधारणाएं तोड़नी हैं। तुमसे कोई मिलने आया है और तुम्हें ऐसा लगे कि पैर पड़ने जैसा लग रहा है, तो बराबर उसके पैरों पर सिर रख देना। तुम्हारा संन्यास उससे सम्मानित होगा। क्योंकि संन्यास की जो मौलिक मनोदशा है वह विनय है, वह विनम्रता है। विनम्रता नियम नहीं मानती, सिर्फ अविनम्रता नियम बनाती है। अविनम्र आदमी कहता है कि ठीक है, आप उम्र में बड़े हैं इसलिए हम पैर छू लेते हैं। जो हमसे उम्र में छोटा है उसके कैसे पैर छू सकते हैं। अविनम्र आदमी कहता है कि अपने से बड़े आदमी के पैर छू लेते हैं और जो छोटी उम्र का है, उससे छुआ लेते हैं। इस तरह बैलेंस संतुलित कर लेते हैं। वह कहता है कि ठीक है, कोई बात नहीं .....चलो, ठीक। छूना भी पड़ता है, इसलिए छुआ भी लेते हैं, तब सब बराबर हो जाता है।  तुम्हारे लिए कोई इस जगत् में छोटा-बड़ा नहीं है।
यदि छोटा बच्चा तुम्हें प्यारा लगे तो उसके पैर छू लेना सड़क पर चलते। उससे तुम्हारे संन्यासी की गरिमा बढ़ेगी, गहरी होगी। और जो संन्यास अहंकारग्रत्त हुआ है, उसे तोड़ने की भी हमें सुविधा हो जाएगी। उसे तोड़ना। मैंने तुमसे पहले कहा कि उदासी, गंभीरता- अगर ठीक से समझोगे तो- ये सब अहंकार के लक्षण हैं। असल में अहंकारी आदमी खेल नहीं खेल सकता। अगर खेल भी खेलेगा तो खेल को काम बना लेगा। उसमें भी उसको जीतना ही चाहिए।  इजिप्त में एक फेरोह नामक सम्राट हुए। वे खेल खेलते थे, लेकिन नियम उसमें यह था कि जीत सदा उसकी ही होनी चाहिए। वह जो उनके साथ खेलता था, उसको हारना सुनिश्चित है। हारना ही है उसे। अगर वह जीत गया तो गर्दन कट जाएगी। क्योंकि वह कोई खेल नहीं है- मामला काम का है, सम्राट जीतना ही चाहिए।  गंभीर आदमी खेल भी खेले तो काम बना लेता है। संन्यासी काम भी करे तो उसको खेल बना लेगा। यह संन्यासी और गृहस्थ का फर्क है- काम और खेल का।  अहंकार अपने तरह के ढांचे बनाता है। वे ढांचे हम नहीं बनने देंगे। तो तुमसे मैं कहूंगा कि पैर छूना किसी के भी, तुम झुक जाना कहीं भी। सड़क चलते हुए कोई तुम्हें दिखाई पड़ जाए- तुम गए हो नाचने और कोई तुम्हें दिखाई पड़ जाए- तुम्हारा मन हो तो एक क्षण मत रुकना, तुम उसके पैर छूना। तुम कहीं भी झुकना। तुम्हारे लिए सब मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बराबर हैं। तुम कहीं भी झुकना। तुम्हें सारे लोगों के हृदयों को अनेक-अनेक मार्गों से अपने करीब लाना है। तुम्हारी जिम्मेवारी इतनी बड़ी है जितनी किसी संन्यासी की कभी नहीं थी। क्योंकि कोई संन्यासी था जो महावीर के सामने झुकता था और राम के सामने अकड़ा रहता था। कोई संन्यासी था, जो कृष्ण के सामने झुकता था, बुद्ध के सामने अकड़ा रहता था। कोई बुद्ध के सामने झुकता था तो कृष्ण के सामने अकड़ा रहता था।  तुम्हें मैं पहली दफा पृथ्वी पर एक ऐसा संदेश देने को कह रहा हूं, कि सब तुम्हारे हैं, क्योंकि कोई हमारा नहीं है। इसका मतलब ठीक से समझ लेना। सब हमारे तभी हो सकते हैं, जब कोई हमारा नहीं है। अगर कोई भी हमारा है तो फिर सब हमारे नहीं हो सकते हैं। सारे मंदिर, मस्जिद तुमको सौंपता हूं, सब तुम्हारे हैं। तुम सब जगह जाना।
 कोई ‘न’ करे तो, मना करे तो?
 ....तो तुम दरवाजे के बाहर नाचना, कहना आप भीतर नहीं आने देते तो हम बाहर नाचकर चले जाएंगे। हमारा दिल नाचने का हुआ है, तुम जितनी दूर बता दो हम उतनी दूर से नाचकर चले जाएंगे।
 मस्जिदवाले भी न नाचने दें तो? 
तो उनसे कहना कितनी दूर! आप जितनी दूर बता दें हम उतनी दूर खड़े होकर नाच लें। लेकिन मस्जिद के परमात्मा को भी हम अपना गीत भेंट कर जाएंगे। तुम जितनी दूर कहो, उतनी दूर से, हम वहीं से मस्जिद के परमात्मा को सिर झुकाकर नमस्कार कर लेंगे।  तुम्हारे ऊपर बड़ी जिम्मेवारियां मेरे ख्याल में हैं, क्योंकि इन दो वर्ष में मैं दस हजार लोगों को संन्यास की यात्रा पर चला दूंगा। और जो काम कभी नहीं हो सका है, वह हो सकेगा। तो मैं तुम्हें जानकर मंदिर भेजूंगा, मस्जिद भेजूंगा। अगर दस हजार संन्यासी इस मुल्क में मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे के बीच सम्मिलित हो जाएं तो इस मुल्क में दंगे-फसाद खत्म न हो जाएं- इसका कोई कारण नहीं है! असल में जो कहते भी हैं कि सब एक है- कुरान में भी वही है, गीता में भी वही है, वे भी अकड़कर अपने सिंहासन पर बैठे रहते हैं। वे कहते जरूर हैं कि सब एक, लेकिन कुछ होता नहीं उससे। वह हो नहीं सकता है।  हमें सब एक करने की कोशिश नहीं करना है, हम अपने एक्ट, कृत्य से जाहिर करेंगे कि सब एक हैं।
हमें कोई वक्तव्य नहीं देना है कि सब एक हैं। हमारा कृत्य कहेगा कि सब एक हैं। तुम किसी गांव में जाओ तो मस्जिद में भी ठहर जाना, मंदिर में भी ठहर जाना, जहां तुम्हें मौका मिले ठहर जाना। तुम्हें हिंदू बुलाए तो हिंदू के घर खाना खा लेना, मुसलमान बुलाए तो मुसलमान के घर खाना खा लेना, ईसाई बुलाए तो उसके घर चले जाना।  और जल्दी ही मैं चाहूंगा कि नव-संन्यास में मुसलमानों को भी लाना है, ईसाइयों को भी लाना है और सिक्खों को भी लाना है। इस संन्यास के वृक्ष के नीचे सभी धर्मों के लोग आ जाएं, इसकी मैं फिक्र में हूं। तुम जितने विनम्र रहोगे, उतना ही यह सरल हो जाएगा। और इसका तो तुम्हें पता ही नहीं है कि विनम्रता का आनंद कितना है, और अहंकार का दुःख कितना है। क्योंकि हम विनम्र कभी हुए ही नहीं इसलिए उसका हमें पता ही नहीं कि उसका आनंद कितना है! जब तुम उसमें जिओगे तब तुम्हें पता चलेगा। तुम कल सुबह से ही फिक्र करना कि जहां भी जीवन में विनम्र होने का मौका मिले उसे तुम चूकना ही मत, उसे तुम फौरन ले लेना। झुकने का एक भी अवसर मत खोना, फिर तुम्हारे आनंद की कोई सीमा न रह जाएगी। और तुम्हें इतना सहयोग मिलेगा, और तुम्हें इतने साथी मिल जाएंगे जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।  दूसरी बातः धर्म का बहुत गहरा संबंध तर्क से नहीं है, बुद्धि से भी नहीं है। मुझे दिन-रात तर्क और बुद्धि की बात करनी पड़ती है, वह बहुत सिचुएशनल, परिस्थितिगत मजबूरी है। वह मजबूरी मैं तुम्हें कह दूं। वह मजबूरी यह है कि इस युग का जो विचारशील आदमी है, वह ऐसी किसी बात को सुनने को राजी नहीं है, जो तर्क और विचार से प्रमाणित न हो।
धर्म, तर्क और विचार से संबंधित नहीं है, इसीलिए इस समय का जो विचारशील आदमी है वह धर्म से टूट रहा है, टूट गया है। जो विचारहीन हैं वे धर्म के साथ रह गए हैं। विचारहीन होने से ऐसा नहीं है कि वह विचार के पार है। उसमें विचार की शक्ति ही नहीं है, वह विचार ही नहीं कर सकता। और धर्म विचार करने से भी आगे की चीज है। तो विचारहीन के साथ धर्म मर रहा है- बच नहीं सकता उसके साथ। हर युग में वही चीज बचती है जो उस युग की बुद्धिमान प्रजा को, उस युग की जो इंटेलिजेंसिया है, उस युग का जो विचार-संपन्न वर्ग है उसकी स्वीकृति में होती है। वही चीज बचती है, दूसरी कोई चीज बचती नहीं है।   तो मुझे निरंतर धर्म के लिए अत्यंत विचार और तर्क से बात करनी पड़ रही है, और वह सिर्फ इसलिए करनी पड़ रही है, ताकि एक दफा तर्क और विचार से वह जो इंटेलिजेंसिया, बुद्धिमान वर्ग है वह उत्सुक हो जाए तो उसे निर्विचार में धक्का देना बहुत कठिन नहीं है। उसे हम राजी कर लेंगे, लेकिन वह मुझसे ही राजी हो सकता है। जब उसे इतना भरोसा आ जाए कि जहां तक उसका तर्क जाता है वहां तक तो मैं चलता ही हूं, उसके आगे भी तर्क को ले चलता हूं- जिस दिन उसे यह भरोसा आ जाए कि तर्क में मेरी कोई कमी नहीं है; यानी तर्क में मैं कोई कंजूसी नहीं करता, कोई बचाव नहीं करता, जहां तक वह चलता है उसके दो कदम आगे मैं तर्क में चलता हूं, उसी दिन वह इस ओर झुक सकेगा। फिर भी मैं उससे कहता हूं कि तर्क के आगे कुछ है, तो ही उसको बात ख्याल में आ सकती है। लेकिन ऐसे धर्म का बहुत गहरे में तर्क या विचार से कोई संबंध नहीं है, यही मेरी मजबूरी है।
मेरी मजबूरी मैं तुम्हारी मजबूरी नहीं बनाना चाहता। तुमसे मैं कुछ और ही काम लेना चाहता हूं। मेरी मजबूरी तुम अपनी मजबूरी बना भी न पाओगे, उससे तुम अड़चन में पड़ोगे। तुम धर्म को तर्क और विचार की तरफ से पकड़ने की फिक्र ही छोड़ दो। तुम उसे भाव की तरफ से ही पकड़ो। क्योंकि जिनको मैं तर्क और विचार से भाव तक लाऊंगा, उन्हें मैं तुममें डुबाऊंगा। तुमको तर्क और विचार नहीं पकड़ना है।  तुम्हें किसी से विवाद में भी नहीं पड़ना है, वह विवाद का काम तुम मेरे ऊपर छोड़ देना। उससे मैं निपट लूंगा, तुम उसमें पड़ना ही मत। उसमें तुम सिर्फ परेशान और पीड़ित हो जाओगे। उसमें तुम सिर्फ उपद्रव में पड़ोगे। तुम तो धर्म को जीना और तुम्हारा जीना ही किसी के लिए आकर्षण बन जाए तो वह उसे खींच लेगा।  तुमसे तो कोई तर्क करे तो तुम नाचना, तुमसे कोई विवाद करे तो तुम गीत गाना। अपनी जिंदगी से उत्तर देना तो ही तुम जीत पाओगे, अन्यथा तुम चिंता में पड़ जाओगे और तुम खुद की भी शांति खो दोगे। उनको तो तुम शांत नहीं कर पाओगे, तुम खुद भी अशांत हो जाओगे। तर्क की तो मैं सिर्फ उसी को आज्ञा देता हूं जो तर्क को खेल की तरह कर सके, जो उसमें अशांत न हो। जिस दिन तुममें से कोई भी तर्क ऐसा कर सके जैसे कि वह उसकी मौज है, मजा है, उससे उसे कोई झंझट नहीं है, तभी तुम तर्क में उतरना। यदि तर्क तुम्हारी चिंता बन जाए और विवाद तुम्हें परेशानी में डालने लगे तो मैं तुमसे नहीं कहूंगा कि तुम तर्क करो। तुम उसमें पड़ना ही नहीं, तुम्हें उसमें पड़ने की जरूरत नहीं है।  और ध्यान रहे, दुनिया में धर्म का प्रभाव कम होता है, इसलिए नहीं कि धर्म को तर्क देनेवाले नहीं मिलते, बल्कि इसलिए कि धर्म को जीकर उत्तर देनेवाले नहीं मिलते। वह कम पड़ते चले जाते हैं।  तुम्हें एक और दूसरे सेतु का उपयोग करना है। मैं जो कर रहा हूं उससे मैं मुल्क की और मुल्क के बाहर की जो इंटेलिजेंसिया, बुद्धिशाली-वर्ग है उससे तो निकटता बना लूंगा, लेकिन वही सब कुछ नहीं है। उससे भी बड़ा हिस्सा है जगत् का, समाज का जिसको बुद्धि से कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हें मैं उसे भी पकड़ने भेजना चाहता हूं, तुम उसे भी घेर लाना।
तो तुम्हारी जो एक स्पष्ट दिशा है, वह यह है कि तुम इतने मौज से जियो और इतने आनंद से जियो कि जो भी करो वह इतना रसपूर्ण हो कि दूसरे के मन में लोभ आ जाए। उसे लगे कि ऐसी भी एक चीज है! तुम उसे मत कहना कि हम तर्क देते हैं, हम तुम्हें समझाते हैं। समझाने का काम ही नहीं है तुम्हारा। तुम तो कहना कि हम ऐसे जीते हैं और मजे से जीते हैं। हम नहीं कहते कि ईश्वर है, हम इतना ही कहते हैं कि हमारा होना एक आनंद है। और उस आनंद में हम किसी को धन्यवाद देना चाहते हैं। हम किसको दें! हम सब जगत् को ही धन्यवाद देना चाहते हैं। यह जो हम गीत गा रहे हैं, यह किसी मंदिर में बैठे भगवान के लिए नहीं है, सबमें जो व्याशात है उसके लिए है। उसको हम धन्यवाद दे रहे हैं।  तुमसे लोग पूछेंगे कि तुम किस धर्म के हो? तो तुम कहना कि सिर्फ धर्म के हैं, क्योंकि किस धर्म’ के लोग बहुत दिन रह चुके, उससे कुछ हुआ नहीं। अब हम एक और प्रयोग करते हैं, हम सिर्फ ‘धर्म-मात्र’ के हो जाते हैं, या सब धर्म हमारे हैं और सब धर्मों के हम हैं। हजार प्रश्न तुमसे लोग पूछेंगे, तुम प्रश्नों के उत्तर सदा सीधे देना। तुम्हारे उत्तर आर्गुमेंट्स, तर्क नहीं होने चाहिए। तुम्हारे उत्तर सिर्फ स्टेटमेंट्स, वक्तव्य होने चाहिए। इसका फर्क समझ लेना।  एक तो उत्तर होता है जो दलील होता है। दलील का मतलब होता है कि दूसरा जो कह रहा है वह गलत है और हम उसे सिद्ध करेंगे कि वह गलत है।
स्टेटमेंट का मतलब और होता है। वक्तव्य का मतलब होता है कि हमें पता नहीं गलत-सही क्या है, हम जो जी रहे हैं वह यह है, और हम उसमें आनंदित हैं। अगर तुम अपने वक्तव्य में आनंदित हो तो भगवान को धन्यवाद दो और तुम आनंदित रहो। और अगर तुम नहीं हो तो हमारे वक्तव्य में भी आकर देख लो, हम आनंदित हैं।  मेरा मतलब समझे न, कि वक्तव्य का मतलब क्या है? वक्तव्य आर्गुमेंट नहीं है, दलील नहीं है। हम यह नहीं कहते कि हम सिद्ध करते हैं। हम इतना ही कहते हैं कि हम मजे में हैं। तुम अगर मजे में हो तो खुशी की बात है। हमें तुम्हारे मजे से जरा भी एतराज नहीं है। तुम अपने मजे में रहो। किसी दिन हमारा मजा खो जाएगा तो हम तुम्हारे मजे में सम्मिलित हो जाएंगे। अगर तुम मजे में नहीं हो तो व्यर्थ दलीलों में मत पड़ो; हमारे मजे में सम्मिलित होकर देखो- तुम्हें भी मिल जाए तो ठीक, अन्यथा हम बुलाते नहीं हैं, बुलाने का कोई कारण नहीं है।  इतनी सरलता से ही तुम अगर जाओगे जगत् में तो तुम व्यापक काम कर पाओगे। इसका मतलब यह है कि जो मैं बोलता हूं उस चक्कर में बहुत मत पड़ना। वह तुम्हारे लिए है, उसे तुम समझ लेना, लेकिन तुम दूसरे के लिए उसकी फिक्र में मत पड़ना! वह तुम्हारे लिए सिर्फ मानसिक क्लेश बन जाएगा। और तुम्हारा मानसिक क्लेश किसी को भी प्रभावित करनेवाला नहीं है। तुम्हारी मानसिक फ्रुल्लता प्रभावित करेगी। इसका तुम प्रयोग करोगे तो तुम्हें फर्क ख्याल में आ जाएगा फौरन। तुम हंसना, तुम्हारे विरोध में कोई बोले तो ....!
और तुम कहना कि आप जो विरोध में बोलते हैं, ठीक ही बोलते होंगे, बाकी हम इतने आनंद में हैं कि हम उस आनंद को किसी तर्क के आधार पर छोड़ने की कोई मर्जी नहीं रखते। उससे बड़ा आनंद तुम हमें बताते हो तो हम चलने को राजी हैं।  कोई कहता हो कि ईश्वर नहीं है तो उससे पूछना कि अगर ईश्वर नहीं हो तो हमारा आनंद कैसे बढ़ जाएगा, वह हमें समझा दो तो हम चलने को राजी हैं। कोई कहे कि यह भजन-कीर्तन बेकार है, तो कहना कि हम बिल्कुल बंद करने को राजी हैं, लेकिन जो नहीं कर रहा है वह आनंद में हो तो ....! उससे कहना कि तुम बिना भजन-कीर्तन के यहां खड़े होकर दिखा दो, हम भजन-कीर्तन करके दिखा देते हैं। और जो आनंदित दिखे उसको चुन लेंगे।  मेरा मतलब समझ रहे हो न ....! मेरा मतलब कुल इतना है कि तुम एक वक्तव्य बनना- नॉन अरिस्टोटेलियन! नो-आर्गूमेंट, कोई दलीलबाजी न हो उसमें। दलीलबाजी के बड़े खतरे हैं। पहला खतरा तो यह है कि दलीलबाजी सिर्फ उस आदमी को करनी चाहिए जिसे दलील खेल हो- जिसको उससे कहीं कोई अड़चन पैदा नहीं होती हो, जिससे कोई चिंता उसे पैदा नहीं होती हो- किया और गया, जैसे पानी पर एक लकीर होती है। उसे फिर कोई मतलब नहीं है, कोई लेना-देना नहीं है पीछे लौटकर। ऐसे आदमी की दलील ही प्रभावी होती है, इस पर ध्यान रखना। क्योंकि दूसरे आदमी को यह पकड़ जाता है कि वह आदमी सिर्फ दलील नहीं दे रहा है, दलील देने में बहुत आनंदित है, यह उसकी कोई तकलीफ नहीं।  और दूसरी बात यह है कि दलील का अलग मैकेनिज्म है। उसकी अलग व्यवस्था है, उसकी अलग ट्रेनिंग है। वह वर्ष की ट्रेनिंग है, वह एक दिन का काम नहीं है। फ्रुल्ल तो तुम अभी हो सकते हो, तर्कयुक्त तुम्हें होने में वर्ष लग जाएंगे, क्योंकि फ्रुल्लता क्षण में खिल सकती है।
इसका फर्क समझ लेना।  तुम चाहो तो अव्यवस्थित ढंग से नाच सकते हो, इसमें कोई तुम्हें दुनिया में रोकने को नहीं है, लेकिन अव्यवस्थित ढंग से तर्क करोगे तो बेकार में फंस जाओगे। उसमें तो व्यवस्था चाहिए। और उसकी व्यवस्था का जाल भारी है। मुझे पता है कि उसकी व्यवस्था का जाल कितना लंबा है। उस जाल में अगर मैं तुम्हें डालूं तो तुम्हारी पूरी जिंदगी निकल जाएगी। उससे न तुम किसी को राजी कर पाओगे और न तुम कुछ कर पाओगे।  तुम्हें तो मैं तर्क से बिल्कुल ही विमुक्त करता हूं। तर्क-वर्क में तुम पड़ना ही मत। और इससे तुम मेरी जो तर्क की व्यवस्था है उसमें सहयोगी बनोगे, क्योंकि अगर मेरी तर्क की व्यवस्था के पास तुम्हारे नृत्य भी दिखाई पड़ते हों तो मेरा तर्क सिर्फ तर्क नहीं रह जाता। उसके साथ नाच भी हो रहा है। तो इसको ख्याल में रखना।  संन्यासियों के लिए काम बहुत हैं, कई तरह के हैं। एक तो जहां भी तुम हो, जल्दी से वहां मित्रों के छोटे-छोटे मंडल बनाने शुरू करो। एक गांव में, एक संन्यासी बहुत कारगर नहीं होता, क्योंकि कुछ चीजें हैं जो सिर्फ समूह में कारगर होती हैं, एक से नहीं होतीं। अगर एक संन्यासी सड़क पर नाचेगा तो पागल मालूम पड़ेगा, और पचास नाचेंगे तो नहीं मालूम पड़ेंगे, क्योंकि जगत् संख्या से जीता है। अगर तुम्हें अकेले मैं भेज दूं सड़क पर नाचने, तो तुम पागल मालूम पड़ोगे। लेकिन जब पचास जाते हैं तो फर्क समझते हो क्या होता है! देखनेवाला अकेला होता है, तुम पचास होते हो। देखनेवाला हमेशा अकेला है, क्योंकि दो आदमी इकट्ठे नहीं देख सकते। दो आदमी इकट्ठे नाच सकते हैं। समझे न फर्क! देखनेवाले कितने ही खड़े हों, हजार आदमी खड़े हों, लेकिन हर देखनेवाला अकेला होता है। नाचनेवाले पचास होते हैं।
इस पचास से एक की टक्कर होती है तब वह समझता है कि मैं ही पागल हूं। इसीलिए तुम गांव-गांव में, जहां-जहां हो, वहां-वहां ग्रुप को बड़ा करने में लग जाओ।  नव-संन्यास में बड़ी सुविधा है। लेकिन पुराना संन्यास जो था वह भारी व्यवस्था में से आता था। कहीं पांच वर्ष की, कहीं दस वर्ष की प्राथमिक सीढ़ियां थीं। अगर दिगंबर जैनियों का संन्यासी होना हो तो पांच सीढ़ियां पार करनी पड़ती हैं। पांच सीढ़ियां पार करने में अंदाजन बीस से चालीस वर्ष लग जाते हैं। यानी अगर दस साल का लड़का संन्यासी हो तो वह साठ साल की अवस्था में जाकर उनकी आखिरी संन्यास की सीढ़ी पर खड़ा हो पाता है। इस पचास साल में उसके भीतर जो भी रागयुक्त है, जो भी संवेदनयुक्त है वह सब मर जाता है, इतनी लंबी है यह ट्रेनिंग।  मैंने तो संन्यास को बिल्कुल खेल कर दिया है। तुम अभी ले लो। तुमसे यह भी नहीं कहता कि तुमने दुबारा सोचा कि नहीं। इसकी भी कोई बात नहीं है। क्योंकि तुम्हें गंभीर मैं बनाना नहीं चाहता हूं। वह तुम्हारा निर्णय है। तुम किसी का कुछ बिगाड़ नहीं रहे हो, बना नहीं रहे हो, वह निपट तुम्हारी निजी बात है। तुम्हारे गैरिक कपड़े पहनने से यह जगत् कहीं खिसका नहीं जा रहा है, कुछ हुआ नहीं जा रहा है। फिर मैं कहता हूं, कल तुम्हें लगे तो तुम वापस लौट जाना। कोई जरूरी नहीं है।  पुराने संन्यास में इतनी लंबी व्यवस्था इसीलिए थी ताकि वापस न लौटा जा सके।
अब सोचें कि जो आदमी एक जगह में पचास साल ‘एप्रेंटिस’, परीक्षार्थी रहा हो- पचास साल, तीस साल, पच्चीस साल जिस आदमी ने सिर्फ प्रवेश का शिक्षण लिया हो वह लौट सकता है? लौटते वक्त उसको लगेगा कि पच्चीस साल सिर्फ शिक्षण है प्रवेश का! जिंदगी तो चली गई उसकी सीढ़ियां चढ़ने में, अब मंदिर में पहुंच पाया, अब मंदिर से लौट कैसे सकता है? पच्चीस साल की जिंदगी जो खोई है उसने, वही मार्ग में खड़ी हो जाती है, अब वह वापस नहीं लौट सकता।  असल में इतने लंबे-लंबे संन्यास की जो ट्रेनिंग थी, वह न लौट सके कोई वापस, इसका इंतजाम था। और कुछ मामला नहीं है। संन्यासी तो कोई इसी वक्त हो सकता है। वह तो सिर्फ एक डिसीजन, निर्णय है तुम्हारे मन का, लेकिन इतनी व्यवस्था सिर्फ इसीलिए की थी कि वापस लौटना फिर असंभव हो जाए, फिर कोई उपाय न बचे।  नव-संन्यास में तो जो भी राजी होता है, उसे तत्काल संन्यास दे देना है, तुम सब अधिकारी हो। उसको राजी कर लेना, मुझे खबर कर देना- उससे कहना, जाओ अब तुम यात्रा पर।  तुम्हारे ऊपर और कोई बंधन नहीं है सिवाय तुम्हारे अपने विवेक के- उसको बंधन नहीं कहा जा सकता। तुम पर और कोई डिसिप्लिन, नियम नहीं है। तुम्हारे कपड़े, तुम्हारी माला वह कोई डिसिप्लिन नहीं है, वह भी उस खेल का हिस्सा है, जिनमें यूनिफार्म की जरूरत पड़ती है और वे कुछ नहीं हैं।  चूंकि उसमें समूह का उपयोग करना है, इसलिए बिना यूनिफार्म के समूह नहीं बनता। अगर तुम पचास आदमी अलग-अलग कपड़ों में सड़क पर खड़े हो तो तुम एक-एक खड़े हो। अगर तुम पचास आदमी एक-से कपड़े पहनकर खड़े हो तो तुम इकट्ठे पचास खड़े हो। तुम्हारे कपड़े तुम्हें इकट्ठा कर देंगे, तुम्हें जोड़ देंगे और समाज के लिए उपयोगी होंगे। और उनसे तुम्हारे लिए सदा स्मरण बना रहेगा। तुम्हें चैबीस घंटे स्मरण रहेगा कि तुम संन्यासी हो। छोटी घटना नहीं है यह। आदमी की पूरी की पूरी व्यवस्था बदल जाती है, बहुत छोटी-सी घटना से- एक दफे उसे रिमेंबरिंग-भर होनी शुरू हो जाए।
तुम्हारे कपड़े, माला वे तुम्हारे स्वयं के स्मरण के लिए हैं, और समाज भी तुम्हें स्मरण रखेगा। यह दोनों स्मरण तुम्हारे विवेक को जगाने के लिए प्रेरणा के काम करते रहेंगे। प्रेरणा का काम ही कर सकते हैं, जगाना तो तुम्हें है ही। अब तुम्हें अपने ही विवेक से जीना है। और जिम्मेवारी तुम्हारी बढ़ जाती है, क्योंकि तुम्हें एक बड़ा काम करने का ख्याल अपने में और अपने से बाहर भी तुम्हें पकड़ा है।   यह भी ध्यान रखना कि संन्यास आमतौर से अब तक निजी काम था, ‘सेल्फिश’, त्वार्थपूर्ण काम था बहुत, बस अपना ही था। दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं था। मैं जिस संन्यास की दिशा में तुम्हें ले जा रहा हूं वह सिर्फ तुम्हारा अपना काम नहीं है। क्योंकि मेरी अपनी समझ में यह है कि इस जगत् में जो भी श्रेष्ठतम फलित होता है वह सदा संबंधों में फलित होता है। तुम भी खिलते हो तो दूसरे के अंतर्संबंधों में खिलते हो। अकेले तुम जरूर भीतर हो, लेकिन अकेले होने का कोई आकार नहीं बनता। आकार तो सब तुम्हारे दूसरों के साथ होने से बनता है। तुम सच बोलते हो, झूठ बोलते हो, अकेले में उसका कुछ अर्थ नहीं है। दूसरों के साथ सब बनना शुरू होता है। ईमानदार हो, बेईमान हो, तुम प्रसन्न हो कि उदास हो, तुम क्या हो? इसकी जो डेफिनेशन, परिभाषा है, इसकी जो सीमा-रेखा है वह दूसरे बनाते हैं, उनसे तुम निर्मित होते हो। यह संन्यास हमारा सिर्फ निजी मामला नहीं है- निजी तो है ही, समूहगत भी है- व्यक्तिगत तो है ही, समष्टिगत भी है।  तो तुम अकेले अपनी ही साधना पर निकले हो इतना ही नहीं है।
तुम अपने साथ-साथ समाज की साधना पर भी निकले हो, क्योंकि समाज ही तुम्हें पैदा करता है, समाज ही तुम्हें बड़ा करता है, समाज में तुम जीते हो, समाज में तुम मरते हो। तुम भी समाज हो! इसलिए बिल्कुल अकेले होने की बात बिल्कुल बेईमानी है। अपने को बिल्कुल तोड़ा नहीं जा सकता। सब जुड़ा है।  इसीलिए अपने विवेक से तुम्हें पूरे वक्त ख्याल रखना है कि तुम कैसे उठते हो, कैसे बैठते हो, क्या करते हो। वह सब तुम्हें ख्याल में रखना है। ख्याल में रखने का मतलब यह नहीं है कि तुम उससे गंभीर हो जाओ और तुम उसे पेटर्नाइज, ढांचाबद्ध कर लो। मैं तुमसे नहीं कहूंगा कि तुम होटल में बैठकर खाना मत खा लेना, मैं तुमसे नहीं कहूंगा कि तुम सिनेमा मत चले जाना। नहीं, तुम सिनेमा भी जा सकते हो, तुम होटल में भी खाना खा सकते हो, लेकिन फिर भी संन्यासी होकर तुम होटल में भी और तरह से प्रवेश कर सकते हो।  यह बड़ी अलग बात है। होटल में प्रवेश करना उतना कठिन नहीं है, संन्यासी की तरह होटल में प्रवेश करना बिल्कुल दूसरी बात है। तुम सिनेमा में भी जाओ तो भी तुम संन्यासी हो तो तुम संन्यासी की तरह ही सिनेमा में प्रवेश करना। असल में संन्यासी कमजोर था इसलिए वह नहीं गया था। तुम जाना, तुम्हें लगे तो जाना, तुम्हें आनंदपूर्ण हो तो जाना। तुम्हें न लगे तो न जाना, लेकिन जहां भी तुम जाओ वहां तक तुम संन्यासी हो वैसे ही जाना। संन्यासी की तरह’ का मतलब है कि तुम साधारण नहीं हो अब, तुम्हारे पास एक विशेष व्यक्तित्व है, तुम्हें चारों तरफ लोग देख रहे हैं। जब तुम साधारण हो तब तुम्हें कोई नहीं देखता।
  हम उछलते-कूदते हैं?
 उछलने-कूदने में मुझे कोई हर्जा नहीं है, लेकिन संन्यासी की तरह उछलना-कूदना। उछलें, कूदें- मुझे पसंद है। उछलना-कूदना मुझे पसंद है। पर उसमें भी तुम जानना कि तुम्हें लोग देख रहे हैं। उनके देखने का कोई प्रश्न नहीं है, उनसे कोई भयभीत नहीं होना है। लेकिन जिन लोगों के बीच तुम्हें बड़े काम करने हैं, जिन लोगों के बीच तुम्हें और बहुत कुछ करना है, उनके मन में तुम्हारे प्रति एक आनंद का भाव, एक अहोभाव बनता जाए, पर गंभीरता से नहीं, यह फर्क ख्याल में ले लेना। ऐसा न लगने लगे कि तुम भारी गंभीर हो। ऐसा नहीं है। तुम्हारे प्रति एक अहोभाव बने, कि इतना पुलकित भी व्यक्तित्व है, इतना आनंदित भी। फिर भी एक अनुशासन है उस आनंद में, फिर भी एक व्यवस्था है उस आनंद में। वह तुम्हारा आकर्षण बने। वह लोगों को खींचेगा तुम्हारे पास। फर्क ख्याल में ले लेना।  पुराना संन्यासी भी ख्याल रखता था कि लोग देख रहे हैं, लेकिन इसलिए कि लोग उसका आदर करें। यह मैं तुमसे नहीं कह रहा कि लोग तुम्हारा आदर करें। लोग तो तुम्हारा आदर करें, न करें, यह सवाल नहीं है बड़ा। नहीं, लोग तुम्हें देखकर आनंदित हों। इन दोनों में बड़ा फर्क है।
ध्यान रखना कि आदर हम उसका करते हैं जिसे देखकर हम आनंदित नहीं होते, बल्कि थोड़े बेचैन हो जाते हैं। इसलिए आदर करनेवाला आदमी चैबीस घंटे कमरे में रहे तो हम कहेंगे- अब बस बहुत हो गया। इस कमरे में हम नहीं घुस सकते। क्योंकि आदर जिसका हमें करना है उसके साथ थोड़ी-बहुत देर चल सकता है। घड़ी, आधा घड़ी हम आदर की व्यवस्था में रह सकते हैं, फिर उसके बाद वह घबरानेवाला हो जाता है। लेकिन जिसके साथ हम आनंदित होते हैं, उसके साथ हम चैबीस घंटे रह सकते हैं। उसका साथ कभी घबरानेवाला नहीं होता।   तो तुम्हें आदर मिले, यह तुम्हें ध्यान में नहीं लेना है। यह तो अहंकार है, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन तुम कहीं से भी निकलो तो खुशी की एक लहर लोगों के मन में छोड़ देना। बस इतना तुम्हारा काम है।
 तुम्हें कुछ पूछना हो तो पूछ लो! संन्यास लेने में घरवालों से बगावत हो जाती है। इस व्यवहार को क्या आप न्यायसंगत मानते हैं? और यदि परिवार के सदस्यों को हमारे संन्यास से बहुत तकलीफ होवे तो संन्यास छोड़ देना क्या उचित होगा?
 दो बातें ख्याल में ले लेना चाहिए। एक तो यह कि जहां तक बने कोई दुःखी न हो इसका ख्याल रखना चाहिए। तुम अपनी सारी कोशिश कर लेना कि घर में रहकर, बिना किसी को दुःखी किए, तुम्हारा संन्यास फलित हो पाए, लेकिन किसी के दुःखी होने के लिए अगर कोई उपाय ही न बचे तो इसके लिए संन्यास नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि तब तुम खुद दुःखी होओगे। अगर तुम्हें ऐसा लगे कि संन्यास छोड़ने से मैं इतना दुःखी नहीं होता, जितना संन्यास लेने से घर के लोग दुःखी होते हैं तब मैं दुःखी होता हूं, तब तुम मत लेना। लेकिन घर के लोगों के दुःखी होने से जितना मैं दुःखी होऊंगा उससे ज्यादा दुःखी संन्यास के छोड़ने से हो जाऊंगा, तो मैं तुमसे कहूंगा कि संन्यास ले लो। क्योंकि इस जगत् में एब्सोल्यूट, परम चुनाव नहीं हैं- रिलेटिव, सापेक्ष चुनाव हैं।  दूसरों के दुःख का ध्यान रखना, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि अपने दुःख का ध्यान ही मत रखना, क्योंकि तुम भी हो! कोई दूसरे ने ठेका नहीं ले लिया है दुःखी होने का। ध्यान रखना बिल्कुल जरूरी है कि जहां तक बन सके वे सुखी हों इस भांति। अगर ऐसा लगे कि असंभव है, वे सुखी हो नहीं सकते, और तुमने अपनी सारी कोशिश कर ली, कोई उपाय नहीं है, अब तो उन्हें दुःखी ही रहना पड़ेगा, तो मैं कहूंगा तुम संन्यास ले लो। लेकिन, तुमने अगर सारी कोशिश कर ली है तो घर के लोग ज्यादा देर दुःखी नहीं रहेंगे।
क्योंकि उन्हें यह भी तो दिखाई पड़ेगा कि तुमने सब कोशिश की है।  और संन्यास लेने के बाद भी तुम कुछ उनके दुश्मन मत हो जाना, भले ही वे तुम्हारे दुश्मन हो जाएं। तुम आना-जाना जारी रखना, तुम्हारा सब संबंध जैसा था वैसा जारी रखना। तुम उनसे कहते रहना कि आप नहीं रहने दे रहे हो इसलिए हम घर में नहीं रह रहे हैं, हम तो रहने को राजी हैं। और हममें कहीं भी कोई फर्क नहीं हुआ है। कहीं भी कोई फर्क हुआ है तो वह हमको बताएं। हम वैसे ही रहेंगे जैसे कल तक थे। लेकिन अगर हमारे संन्यास से हममें फर्क नहीं हुआ, आप में फर्क हो गया और आप हमारा रहना बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं तो आपको दुःख न दें इसलिए हम बाहर जा रहे हैं।  लड़ाई अपनी तरफ से नहीं लेना। अपनी तरफ से सदा ही मैत्री रखना। उनकी लड़ाई थोड़े दिन में मर जाएगी, क्योंकि कोई भी लड़ाई एक तरफ ज्यादा दिन नहीं चलती। फिर, वे तुम्हें प्रेम करते हैं इसलिए चिंतातुर हैं। उनकी चिंता एकदम गलत नहीं है। और संन्यास के नाम से वे जो समझते हैं, वह कुछ और है।
जब वे तुम्हें देखेंगे कि वैसा संन्यास नहीं है, कुछ और ही बात है तो वे पिघल जाएंगे। वे तुम्हें प्रेम करते हैं इसलिए विरोध में हैं। लेकिन जब देखेंगे कि कोई नुकसान ही नहीं हुआ है- जिस नुकसान के डर से वे विरोध में हैं तो विरोध गिर जाएगा। उसकी चिंता लेने की जरूरत नहीं है, संन्यास घर में ही रहकर लेना, न बन सके तो ही आश्रम में जाना। और फिर भी घरवाले कल वापस बुलाएं कि बनता है, तुम आ जाओ संन्यासी रहते, तो तुम घर आ जाना। उसमें कोई अड़चन नहीं है।  थोड़ा विरोध आएगा, स्वाभाविक है, लेकिन दो वर्ष का है। जब हजारों लोग होंगे तो विरोध गिरता जाएगा। अभी आनंदमूर्ति के पिता मुझसे क्षमा मांग गए हैं। शुरू में बहुत विरोध आया था। कपड़े छीन लिए थे। सब किया, सब तरह से दबाया। अभी माफी मुझसे मांग गए हैं कि माफ कर देना, आपके लिए कुछ गलत बातें कह दीं गुस्से में, वह भूल हो गई है। और किसी के लिए भी कही हों तो उन सबसे भी मैं माफी मांगता हूं। कितनी देर लगेगी! अगर तुम ठीक हो तो कितनी देर लगेगी, स्थिति के सुलझने में। उसका भरोसा रखना।
 संन्यासियों के लिए कोई अलग शिविर आप लेनेवाले हैं और उनका कोई प्रशिक्षण भी आप करनेवाले हैं? 
जल्दी ही सब संन्यासियों के लिए एक अलग शिविर रखने का ख्याल है। एक तो वह करना ही है और अभी तुम वहां आजोल में जो संन्यासी हैं वे, और बाहर जो संन्यासी हैं वे, सात-आठ दिन का एक शिविर तो अभी तुम ही पहले आजोल के विश्वनीड़ आश्रम में ले लो। वह शिविर तो तुम्हारे नृत्य, तुम्हारे गीत- इस सबके अभ्यास के लिए हो, उसमें मेरी उपस्थिति जरूरी नहीं है। वह तुम्हें ले लेना है। ताकि एक सात दिन के शिविर में तुम्हारी थोड़ी-सी समझ बढ़ जाए। व्यवस्था में बांध नहीं लेना अपने को, लेकिन एक व्यवस्था का तुम्हें बोध हो जाए। फिर तो मेरा आगे से ख्याल यह है कि जहां-जहां भी मेरी मीटिंग, प्रवचनमाला होगी- और अब सब जगह मेरा ख्याल यह हो गया है कि नौ दिन से कम मीटिंग कहीं भी लेना नहीं है ....तो अभी एक वर्ष तो गीता ही पूरा करने में लगेगा- वहां-वहां संन्यासी मेरे पहुंचने के तीन दिन पहले पहुंच जाएंगे और पूरे गांव में अपना संदेश गंुजा देंगे। और मेरे लौटने के तीन दिन बाद तक वे रुकेंगे। तीन दिन फिर गांव में धुन लगा देनी है। साहित्य भी पहुंचा देना हैं, धुन भी पहुंचा देनी है, मैं नौ दिन रहूंगा, तुम पंद्रह-सोलह दिन रहना।
और अब तुम्हें गांव-गांव भेजना शुरू करूंगा। कभी पूरी मंडली एक चक्कर लगा आएगी, साहित्य दे आएगी, समझा भी आएगी।  और यह ख्याल रखो कि हमारे मुल्क का जो मानस है, उसका पूरा उपयोग करना है। जो बीज हमें बोने हैं उसमें मुल्क की भूमि का पूरा उपयोग करना है। गांव में कृष्ण से प्रेम है तो वहां कृष्ण के गीत गाओ, गांव मुसलमानों का है तो सूफियों के गीत गाओ। वह सब सीखना पड़ेगा जो कि बहुत आनंदपूर्ण होगा। गांव ईसाइयों का है, तो कोई बात नहीं, जीसस के गीत गाओ। यह सब तैयारी तुम्हें करनी है।  जैन, हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख कम-से-कम इन पांच धर्मों को तो फिलहाल समेट लेना है, बाद में अन्य धर्मों का भी ख्याल ले लेंगे। इन सबके दो-दो, चार-चार गीत भी तैयार कर लेने हैं। फिर तो मैं अनेक लोगों को तुम्हारे पास भेजूंगा- कोई सूफी भेजूंगा, वह तुम्हें दरवेश नृत्य सिखा जाएगा-!  और जो भी सीखने-जैसा मिल जाए वह सीखना। जल्दी ही सब कित्म के संन्यासी-साधु आ जाएंगे। कोई नाच, कोई गाना, कोई नाटक- वे सब तुम्हें सिखाएंगे।
सामाजिक अन्याय व शोषण से लड़ने के लिए नव-संन्यासी क्या करेगा?
  अभी तुम समाज के अन्याय की फिक्र छोड़ दो। अभी तो तुम समाज में धर्म को पहुंचाने की फिक्र करो, वही समाज के अन्याय को तोड़ने का पॉजिटिव, विधायक उपाय है। अन्याय इसीलिए है न, क्योंकि धर्म का अभाव है। धर्म को तुम पहुंचाने की फिक्र करो। अभी तुम अन्याय की फिक्र छोड़ो। वह आगे की बात है। जब तुम्हारे पास एक बड़ा वर्ग होगा, तब हम तोड़ सकेंगे वह सब भी। अन्याय के खिलाफ भी किसी दिन तुम्हें लड़ाया जा सकता है, लेकिन उसकी ताकत इकट्ठी होनी चाहिए तभी वह हो सकता है।  लड़ाया जा सकता है बराबर। इसमें कोई अड़चन नहीं है। अब समझो जैसे कि किसी गांव ने शूद्रों को जलाकर मार डाला है, तो जिस दिन हमारे पास दस हजार संन्यासी होंगे तो हम उन्हें लेकर उस पूरे गांव पर हमला ही बोल देंगे। पर यह सब बात तुम्हारे पास शक्ति हो जाए उसके बाद सोचने की है। और तब हम अन्याय नहीं होने देंगे। पर अभी तो कुछ नहीं कर सकते हैं हम। नहीं कर सकने की हालत में कुछ करने से व्यर्थ ही ताकत व्यय होती है, उसमें कुछ लेना-देना नहीं होता है।  तो अभी तो शक्ति को बढ़ाओ। अभी तो सब कुछ पॉजिटिव, विधायक रखो। अभी निगेटिव, निषेधात्मक कुछ भी नहीं करना है। इन सबकी अभी कोई चिंता नहीं लेनी है।  वह है, दुःखद है। लेकिन जब तक हम शक्ति इकट्ठी नहीं कर लेते तब तक उससे लड़ना नहीं है।
 संन्यासी क्या विवाह कर सकता है?
  बिल्कुल कर सकता है। क्योंकि संन्यास को इतनी बड़ी बात मानता हूं मैं कि विवाह, लग्न आदि बिल्कुल छोटी बातें हैं। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई आदमी पूछे कि संन्यास के बाद मैं दातुन कर सकता हूं क्या? नहीं, उसका कोई मूल्य नहीं है इतना। उसको इतना महत्वपूर्ण, सिग्निफिकेंट बना लिया है हमने, इसलिए हमको ऐसा लगता है। दातुन की बात पर हमको हंसी आती है, लेकिन जैन साधु-साध्वियों के लिए दातुन करना भी एक बड़ी समस्या है। जैन संन्यासी दातुन नहीं कर सकता है, नहा भी नहीं सकता है। तो जैन संन्यासी पूछता है कि संन्यास के बाद क्या नहा सकते हैं हम? बस इतना ही मामला है।  प्रोटेस्टेंट फकीर शादी करता है तो वहां इस संबंध में कोई प्रश्न खड़ा नहीं होता, कैथोलिक फकीर यह प्रश्न पूछता है क्योंकि शादी करने की सख्त मनाही है।  यह संन्यासी की अपनी बात है। यदि उसे लगता है कि शादी से उसके मन में परमात्मा के प्रति ज्यादा अहोभाव व धन्यवाद देने की सुविधा का जन्म होता है, तो कर ले। और अगर शादी सिर्फ कलह और उपद्रव बनती हो, तो न करे।  यह उसकी निजी बात है। इससे हमें कुछ लेना-देना नहीं है। हमें कोई बाधा नहीं है। हम सब उसकी शादी में आनंद से नाचेंगे। यानी उसका मतलब यह हुआ कि उस संन्यासी के जीवन में एक नया डायमेंशन, आयाम और बढ़ गया- ‘शादी-शुदा संन्यासी’- इससे संन्यासी में कुछ फर्क नहीं पड़ता है।  हम कोई बाधा ही नहीं डालना चाहते। हम संन्यास को इतना परम, अल्टिमेट समझते हैं कि उसमें कोई भी क्षुद्र बात को बीच में बाधा मानना संन्यास को बहुत नीचे उतारना है। ये सब इतनी छोटी बातें हैं। कि इनकी फिक्र ही करने की जरूरत नहीं है। हम फिक्र नहीं करेंगे इसकी। शुरू में कठिन पड़ेगा क्योंकि हमारे मुल्क में लंबे समय से इस संबंध में एक धारणा बनी हुई है। लेकिन धीरे-धीरे सब टूट जाएगा।
  संन्यासी विभिन्न धर्मों का अध्ययन कर सकता है? और संन्यासी आश्रम में किस ढंग से रहेगा? 
बिल्कुल कर सकता है। लेकिन, वह अपनी-अपनी रुचि की बात है। लेकिन ध्यान सबको करना है। क्योंकि किसी भी तरह का आदमी हो उसे ध्यान जरूरी है, बाकी सब रुचि की बात है। किसी संन्यासी को अध्ययन रुचिकर हो तो वह अध्ययन करे, किसी को बागवानी रुचिकर हो तो वह बागवानी करे आश्रम में, किसी को हारमोनियम बजाना रुचिकर हो तो वह हारमोनियम बजाना सीखे। वह जो निजी समय बचता है संन्यासी के पास, उसके उपयोग का चुनाव संन्यासी पर छोड़ देना है।  प्रत्येक संन्यासी आश्रम में कम-से-कम चार घंटे उत्पादक-श्रम करेगा। वह निजी बात नहीं है। वह आश्रम के लिए है। वह जो कर सकता है, वह करेगा। लेकिन, कोई-न-कोई काम हम उससे लेंगे ही। वह चाहे खेती करे, चाहे बागवानी करे, चाहे स्कूल में पढ़ाए, चाहे अस्पताल में सेवा करे। चार घंटे कम-से-कम वह ऐसा काम करे, जिससे उसकी रोजी-रोटी, कपड़ा व रहने की व्यवस्था आदि का खर्च निकलता हो, ताकि हम किसी के सामने रुपए के लिए हाथ जोड़कर कभी खड़े न हों। अगर कोई देने भी आश्रम को कुछ आए तो हाथ जोड़कर ही आए। लेकिन हम उससे लेने नहीं जाएंगे। क्योंकि जो आश्रम समाज पर निर्भर होता है वह बदतर हो जाता है। क्योंकि जो एक भी पैसा देता है- और जब हम पैसा मांगने की हालत में होते हैं, तो वह सशर्त ही देता है, उसमें शर्त होती है, चाहे कोई कहे या न कहे।  तो हम कोई सशर्त पैसे नहीं लेंगे। हम मेहनत कर लेंगे। और तभी हमारा प्रभाव व्यापक हो सकता है। तो धीरे-धीरे वहां आश्रमों में हम सब जमाएंगे, इंडस्ट्री इत्यादि। चार घंटे आश्रम में प्रत्येक को उत्पादक श्रम करना ही चाहिए। और जब हमें ही लगे कि अमुक संन्यासी से चार घंटे खेत में काम करवाना उचित नहीं है, क्योंकि अगर चार घंटे साहित्य-निर्माण के काम में लगाए तो ज्यादा काम होता है तो उसे हम खेत के काम से रोकेंगे।
इसका ख्याल कम्यून रखेगा। अगर उसका चार घंटे पढ़ना आश्रम के लिए ज्यादा उपयोगी हो, तो वह पढ़े। बाकी जो समय बचता है उसका प्रत्येक संन्यासी अपने निजी ढंग से उपयोग कर सकता है। वह उसकी मौज व रुचि पर छोड़ दिया जाएगा।  और धीरे-धीरे अनेक तरह की रुचियों के लोग आएंगे। और विभिन्न रुचियां हों तो फायदा होगा। क्योंकि वे आपस में उपयोगी होंगे- कोई पढ़ेगा, कोई लिखेगा, कोई एडिट, संपादन करेगा, कोई गीत गाएगा, कोई संगीत बजाएगा- उन सबकी तुम्हें जरूरत पड़ेगी। कोई नाटक में रुचि रखता है तो नाटक बनाएगा, ड्रामा तैयार करेगा, कोई अभिनय में रुचि रखता है तो उसकी तैयारी करेगा।  जैसे-जैसे तुम्हारा काम बड़ा होता है और मैं किसी गांव में जाता हूं तो मैं चाहूंगा कि कोई दो सौ संन्यासी उस गांव में उतार दिए जाएं- वे वहां ड्रामा भी करेंगे, नृत्य भी करेंगे, वे समझाएंगे भी, वे कॉलेजों में भी जाएंगे, वे सड़कों पर नाचेंगे भी- वे पूरे गांव को सब तरफ से घेर लेंगे। वे पंद्रह दिन उस गांव में रह जाएंगे तो उस गांव के प्राणों में सब कोनों से घुस जाएंगे।
यानी उस गांव में किसी भी रुचि का आदमी अछूता बच नहीं सकेगा- गांव में अनेक रुचियों के लोग होते हैं। किसी को गीता में रुचि है, किसी को है ही नहीं रुचि। उसे भजन में रुचि है तो वह भजन में आ जाए। यदि किसी को न गीता में रुचि हो, न भजन में रुचि हो, लेकिन नाटक में रुचि हो तो वह नाटक देखने आ जाए। अनेक तरह के कार्यक्रम संन्यासी देंगे, तो उन सबकी तैयारी करनी पड़ेगी।  संन्यासियों को सक्रिय ध्यान के अतिरिक्त ध्यान की गहराई के लिए कोई भिन्न प्रक्रिया करनी जरूरी है?  हां करनी है। धीरे-धीरे सब संन्यासियों को इक्कीस दिन के पूर्ण मौन व एकांत के गहरे ध्यान का प्रयोग कर लेना चाहिए। ध्यान का कोई भी एक विशेष प्रयोग लगातार तीन महीने तक करना चाहिए तो ही गहरा लाभ शीघ्र हो सकेगा। 

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