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रविवार, 2 दिसंबर 2018

संबोधि के क्षण-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

असुरक्षा..प्रवाह..स्वीकार

यह स्वभाव क्या? और हमारे मस्तिष्क की जो गहरी पकड़ है, वह विपरीत स्थिति में भी मौजूद रहती है। कठिनाई तो यह है, क्योंकि जब मैं किसी से कहूं कि तुम प्रयास मत करना, तो नींद आ जाएगी। तो वह कहे कि न प्रयास करने से नींद आ जाएगी, यह पक्का है? यानी अब न प्रयास करना भी उसके चित्त में प्रयास का ही एक हिस्सा है। यानी ऐसे तो वह कहता है, मैं नहीं प्रयास करूंगा। अगर पक्का हो कि नींद आ जाएगी तो मैं प्रयास नहीं करूंगा। लेकिन करने का भाव उतना का ही उतना शेष है जितना कि प्रयास करने में शेष था, उतना न करने में भी शेष है। वह कह रहा है कि पक्का है न, नींद आ जाएगी, तो मैं प्रयास नहीं करूंगा। हां, वह यही कह रहा है कि मैं नहीं करूंगा पयास, तो लग तो रहा है कि उलटी बात कह रहा है। लेकिन वह, लेकिन उसका करने वाला जो चित्त है वह अब भी इतना ही है जैसा कि कल प्रयास करने में मौजूद था, अब वह न कहने में मौजूद होगा। यही जब तक वह यह भी कह रहा है कि मैं प्रयास न करूंगा अब, तब तक भी गड़बड़ है। वह इतना ही समझ ले कि प्रयास व्यर्थ है और चुप हो जाए और बात खत्म हो जाए।

 वह तो जिस स्थिति की हम बात कर रहे हैं क्योंकि वह जो दूसरी स्थिति है। वह इस स्थिति के विपरीत नहीं है। वह इस स्थिति का पूर्ण अभाव है। ऐसा नहीं है कि जब हम कह रहे हैं कि प्रयास करने से नींद न आएगी, तो हम यह कह रहे हैं न करने से आ जाएगी। हम यह नहीं कह रहे हैं। और भाषा कठिनाई पैदा करती है। प्रयास करने से नींद न आएगी..तब हम सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि प्रयास करने से नींद न आएगी। कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि वह हम नहीं कह रहे हैं प्रयास न करने से नींद आ जाएगी।


मेरे खीसे में पैसा न कम पड़ जाए। यह डर उतना ही डर है जितना कि मैं डरा रहा कि मेरा पैसा खीसे का निकल न जाए। इस फियर में फर्क नहीं है जरा भी। और इसलिए सिक्योरिटी, निगेटिव सिक्योरिटी और इन सिक्योरिटी, इन तीन शब्दों पर ध्यान देना चाहिए। असल में सिक्योरिटी और इनसिक्योरिटी से बात नहीं करनी चाहिए, नहीं तो इनसिक्योरिटी का मतलब निगेटिव सिक्योरिटी हो। हां, अगेंस्ट नहीं है वह। और इसलिए आप इनसिक्योरिटी को मैनेज नहीं कर सकते। इनसिक्योरिटी का मतलब यह है कि हम कुछ भी मैनेज नहीं कर सकते, जो है वह।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

न, मैं नहीं कह रहा हूं कि वह आदत की स्थिति है। क्योंकि आदत की स्थिति तो बिना प्रयत्न के कभी आएगी ही नहीं। अगर आपने आदत की बात की, तो वह तो बिना प्रयत्न के कभी आने वाला नहीं है। आदत में तो, न आदत में तो अनिवार्य, आदत में तो अनिवार्य प्रयत्न मौजूद है।

जब हम कहते हैं, आदत, स्थिति में उसमें तो अनिवार्य प्रयत्न होगा।

न, मैं यह नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि हमारी जिंदगी के सब प्रयत्नों को समझने का फल, नया प्रयत्न नहीं। हमने जिंदगी में जो-जो प्रयत्न किए हैं, अगर हम उनको समझे और पाएं कि वह विफल हो जाते हैं, और सुरक्षा उपलब्ध नहीं होती। हमारे सारे प्रयत्नों की विफलता का बोध, नया प्रयत्न नहीं है। हमारे प्रयत्नों की सारी, सारे प्रयत्नों की विफलता अंततः हमें अप्रयत्न में, नो एफर्ट में ले जाती है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, यह मैं कह ही नहीं रहा हूं कि आप जाएं। आप गए तो, आप तो प्रयत्न करेंगे ही। जब हम पूछते हैं कि हम जाएं कैसे, तब तो प्रयत्न होगा ही।

वह प्राप्त कैसे हो?

नहीं, प्राप्त का प्रश्न ही नहीं है। न, मैं जो कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि आप जब प्राप्त की, पाने की और आदत की भाषा में सोचेंगे, तो प्रयत्न से कभी मुक्त हो नहीं सकते, क्योंकि प्रयत्न पीछे रहेगा। न, मैं तो यह कह रहा हूं कि मैंने हजार बार प्रयत्न करके सोने की कोशिश की है और हर प्रयत्न पर मैंने पाया कि प्रयत्न असफल हुआ और नींद नहीं आई। मेरी हजार प्रयत्नों कि विफलता मुझे किसी नये प्रयत्न में नहीं ले जाती, मुझे अप्रयत्न में ले जाती है। अब सवाल यह नहीं है कि अब मैं क्या करूं सोने के लिए, अब सवाल यह है कि जो भी मैंने किया उससे नींद नहीं आई। यह जो मेरा बोध है कि जो भी मैंने किया उससे नींद नहीं आई। यह मेरा बोध अब मुझे और कुछ न करने देगा नींद लाने के लिए, और ऐसी स्थिति में नींद आएगी। यानी नींद लाना मेरे प्रयत्नों की असफलता मुझे अप्रयत्न में छोड़ देगी।
तो मैंने सुरक्षा का इंतजाम किया, जिसको प्रेम किया, चाहा कि उससे जन्म भर प्रेम रहे, लेकिन पाया कि वह विदा हो गया। फूल सुबह खिला, मैंने सोचा कि जिंदगी भर खिला रहे, लेकिन कि तो सांझ कुम्हला गया। तो मैंने प्रयत्न किए कि फूल को तोड़ कर मैंने तिजोरी में बंद कर लिया ताकि वह कुम्हला न पाए, लेकिन तब मैंने पाया कि जो सांझ कुम्हलाता वह सुबह ही कुम्हला गया। तो मेरे सारे प्रयत्न जब विफल हो जाएं।
यानी मेरी अपनी दृष्टि में मेरे प्रयत्नों कीविफलता अंततः मेरे अहंकार की विफलता है कि मैं कुछ न कर पाया। और अगर इसमें पीड़ा भी रह गई थोड़ी सी कि मैं कुछ न कर पाया, तो अभी विफलता पूरी नहीं हुई है। अगर इसमें थोड़ी पीड़ा का दंश है और ऐसा लग रहा है कि शायद मैं ऐसा करता तो हो जाता, वैसा करता तो हो जाता, तो अभी मैं कुछ और करूंगा, अभी मैं करने के बाहर नहीं जा सकता। नहीं, लेकिन एक ऐसी घड़ी आती है जिंदगी में कि जब आप सब कर चुके, सब कर चुके, सब कर चुके, अब अंततः आप अचानक पाते हैं कि करने का कोई फल नहीं, सब करना निष्फल हो गया। यह टोटल, यानी अब ऐसा भी न रहा कि मुझे दुख है कि निष्फल हो गया। क्योंकि दुख का मतलब है कि सफलता की आकांक्षा अभी भी कहीं शेष है। न, अब ऐसा हो गया है कि मैंने इसे सहज जाना कि मैं पागल था, कि मैं प्रयत्न कर रहा था, यह प्रयत्न सफल हो ही नहीं सकता है। यह जान कर मैं एक शांति की अवस्था को उपलब्ध हुआ। उसकी मैंने कोशिश अलग से कुछ न की। जो कोशिश चलती थी वह कोशिश विफल हो गई।
मैं दौड़ रहा था, दौड़ते-दौड़ते थक गया और मैंने पाया कि दौड़ने से कहीं नहीं पहुंचा और मैं खड़ा हो गया। यह खड़ा होना एक तरफ से नहीं है, यह सिर्फ दौड़ने की असफलता का फल है। इस खड़े होने को भी आपने पूछा है कि आप कैसे खड़े हो गए हैं, तो प्रयत्न की भाषा शुरू हुई। तो अगर कोई आदमी खड़ा हुआ है, तो अभी दौड़ेगा। क्योंकि जिसने कोशिश करके खड़ा हुआ है उसमें भी दौड़ने की गति मौजूद थी। अभी वह थोड़ी-बहुत देर में फिर दौड़ेगा। नहीं, लेकिन जिसका दौड़ना विफल हो गया है, जो इसलिए खड़ा नहीं हुआ कि खड़े होने से सफलता मिल जाएगी, जो इसलिए खड़ा हुआ कि अब दौड़ने का कोई अर्थ न रहा। दौड़ना ही फिर व्यर्थ हो गया है। खड़े होने में कोई सार्थकता है, ऐसा नहीं, लेकिन दौड़ना व्यर्थ हो गया है, इसलिए ख.ड़े हो जाना पड़ा। यह जो खड़े हो जाने की स्थिति है इसे हम किसी भी प्रयास से नहीं ला सकते। हां, हम सब प्रयास करते रहे और सब प्रयासों में झांकते रहें कि सब प्रयास असफल हो जाते हैं, तो वह असफलता का बोध अंततः...इस असफलता के बोध को मैं वैराग्य कहता हूं। यह मेरी दृष्टि मैं वैराग्य का जो अर्थ है, वह राग की असफलता का बोध है। वैराग्य राग का विपरीत नहीं है, वह उलटा नहीं है, वह सिर्फ राग असफल हुआ इसका सम्रग बोध है। इसमें अब वह दौड़ न रही। ऐसा नहीं है कि नई दौड़ शुरू हो गई और अगर नई दौड़ शुरू होती है तो वह वैराग्य नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

यह भी मैं नहीं कह रहा हूं, इसे भी मैं नहीं कह रहा हूं। गुड और बैड का अगर सोचेेंगे तब बात बिल्कुल बदल जाएगी। न, यह जो भीखा जी ने कहा यही एक कंडीशंस है, गुड और बैड का सवाल नहीं है। यही जीवन की अवस्था है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, यह दूसरी बात। मैं आपसे बात कर लूं एक मिनट। जब हम सोचते हैं कि क्या यह अनिवार्यरूप से अच्छी अवस्था है, तब हम सोचते हैं कि दो तरह की अवस्थाएं हो सकती हैं, अच्छी और बुरी। मेरा मानना है कि अच्छी और बुरी, ऐसी दो अवस्थाएं नहीं होती हैं। गलत और सही, गुड और बैड नहीं, राइट और रांग। राइट और रांग में सोचेंगे तो आसानी पड़ेगी। क्योंकि गुड और बैड में एक वैल्यूएशन है, राइट-रांग में वैल्यूएशन नहीं है। न, वैल्यूएशन नहीं है। वह हमें गुड और बैड से ही जोड़ते हैं, इसलिए वैल्यूएशन है। राइट और रांग का कुल मतलब इतना है कि मैं इस दरवाजे से निकला, यह गुड नहीं है। न, मेरा मतलब, मेरा मतलब यह मैं दरवाजे से निकला और मैं दीवाल से निकला, तो दीवाल से निकलने से मेरा सिर टकराया और दरवाजे से निकलने से नहीं टकराया।

गुड और बैड मे मॅारल वैल्यू रही है, राइट और रांग में मॅारल वैल्यू नहीं होती?

हां, वही कह रहा हूं, वही कह रहा हूं, तो अगर, अगर हम गुड और बैड की भाषा में सोचें, हां, तो राइट और रांग की भाषा सोचना अच्छा है, सीधा और साफ है। न, वैल्यूएशन इसीलिए है कि वह गुड और बैड हमसे भारी है, वह राइट-रांग में भी घूस जाता है। वह वैल्यूज अलग नहीं रह पाती है। असल में राइट और रांग का कुल मतलब इतना है कि मैंने दो-दो जोड़े पांच। इसको बैड नहीं कह सकते, सिर्फ रांग कह सकते हैं। यानी इसमें कोई बैड का सवाल ही नहीं है। मैंने कोई न पाप किया है, न कुछ बुरा किया है। न मैं कोई इम्मॅारल एक्ट कर लिया हूं, सिर्फ मैं गलत जोड़ा हूं। और दो-दो चार जोड़े तो गुड नहीं है यह कुछ, यह सिर्फ राइट है। राइट का मतलब है यह है कि बस, जितना जोड़ना था उतना मैंने जोड़ा और जितना नहीं जोड़ना था उतना मैंने जोड़ा। कोई मॅारल वैल्यू साथ नहीं जोड़ता हूं मैं। यह जो मैं कह रहा हूं कि जिंदगी की अगर सारे प्रयत्न विफल गए हों सुरक्षा के, सिक्योरिटी की सारी कोशिश विफल हो गई हो, तो जो स्थिति रह जाएगी वह गुड नहीं है, राइट है। राइट..मतलब वैसी जिंदगी है।

एक्सेप्टेंस।

हां, एक्सेप्टेंस आ जाएगा उसमें, एक एक्सेप्टेंस होगा। फूल सांझ कुम्हलाएगा तो मैं उसे स्वीकार करूंगा, उसी तरह जैसे सुबह उसका खिलना स्वीकार किया था। और मैं यह जानूंगा कि उसके खिलने में उसका मुरझाना छिपा था। और यह भी धन्यभाग है कि वह सुबह खिला और सांझ मुरझाया, इतना फासला भी कुछ कम नहीं है। इसके लिए मैं ग्रेटिट्यूट और अनुग्रह अनुभव करूंगा। तब उसका मुरझाना मेरे लिए पीड़ा नहीं है। बल्कि इतनी देर से मुरझाया यह मेरे लिए आनंद है। क्योंकि यह भी हो सकता था कि सुबह खिलता और मुरझाता, और यह भी हो सकता था कि खिलता ही न, यह सब संभव था, तब मैं अपनी आकांक्षा नहीं थोपूंगा। यानी जो मैं कह रहा हूं वह यह, सुबह फूल खिलता है वह सांझ मुरझाएगा। मैं अपनी आकांझा थोपता हूं कि वह कभी न मुरझाए, तब मेरी आकांक्षा और यथार्थ में तालमेल टूट जाता है।
मेरा आपसे प्रेम हुआ, अब मैं कहता हूं कि विवाह कर लूं, जिंदगी भर हम साथ रहें। यह विवाह प्रेम का सहज फल नहीं है, यह किसी और आकांक्षा का फल है। क्योंकि प्रेम से विवाह का क्या लेना-देना, प्र्रेम काफी हो सकता था, लेकिन मुझे डर है कि कल टूट जाए, परसों टूट जाए, तो कल और परसों की सुरक्षा आज कर लेनी है कि टूट न पाए। इस समाज को गवाह बना लेना है, कानून को गवाह बना लेना है कि हम यह...करते हैं कि जिंदगी भर साथ रहेंगे। प्रेम कुल इतना कह रहा था कि अभी साथ रहना आनंदपूर्ण है और विवाह कहता है हम जिंदगी भर साथ रहें और जिंदगी भर आनंदपूर्ण ढंग से साथ रहेंगे। अब हम आकांक्षाएं थोप रहे हैं। यह आकांक्षाएं फूल को न कुम्हलाने देने की आकांक्षा है। इनका यथार्थ से तालमेल टूट गया है। अब हम एक तरह के आदमी होंग, और जिंदगी एक तरह की होगी और उसमें कभी तालमेल होने वाला नहीं है और वह दुख और वह पीड़ा, उसको मैं रांग कह रहा हूं, बैड नहीं। वह दुख और पीड़ा और मैं कहता हूं, किसी को अच्छी लग रही हो तो झेले, इसमें कुछ हर्जा भी नहीं है, कुछ पाप नहीं है। उसमें कुछ पाप नहीं है कि उसको हम कंडेम करें कि तुम गलत कर रहे हो, उसे अच्छा लग रहा है, वह झेल रहा है। लेकिन किसी को अच्छा लग नहीं सकता। क्योंकि दो और दो को पांच जोड़ लेना, एक भीतरी दंश और पीड़ा है जो कांटे की तरह चुभती रहेगी।
यह जो मैं कह रहा था प्रताप, वह मैं यह कह रहा था कि सुरक्षा की खोज है और। और यह इनका ख्याल यह था कि सुरक्षा की खोज के कारण सुरक्षा पैदा हो रही है, वह मैं नहीं मानता हूं। मेरी अपनी समझ यह है कि असुरक्षा है। वह जीवन का तथ्य है। असल में जीवित होने का लक्षण वही है। सिर्फ मृत सुरक्षित हो सकते हैं। जीवित तो कभी सुरक्षित नहीं हो सकते हैं और जितना जीवंत व्यक्तित्व होगा उतना असुरक्षित होगा। क्योंकि जितने जोर से मैं जीऊंगा उतने ही जोर से मरने की संभावना उपस्थित हो जाएगी।
...ने एक छोटा सा वाक्य लिखा है। उसने लिखा है कि मुझे सदा ऐसा लगा कि अगर जीना ही है तो ऐसे जीना चाहिए जैसे मशाल सब तरफ से जला दी गई हो। एक तरफ से नहीं जला दी गई है, सब तरफ से जला दी गई है, सब दोनों छोरों पर आग लगा दी गई है। सब तरफ से जला दी गई है। उसके किसी मित्र ने उसको कहा, लेकिन तब मशाल बड़ी जल्दी जल जाएगी। जो रात भर जल सकती थी, वह हो सकता है सांझ ही जल जाए। तो उसने कहा कि अगर ठीक से जलने का मजा लेना है तो बुझने की उतनी ही शीघ्रता की तैयारी भी कर ले। वह जो तीव्रता से जीना है उसमें तीव्रता से बुझने की...है। लेकिन मजा यह है कि जो तीव्रता से जलने का मजा ले ले, वह तीव्रता से बुझने का भी मजा ले सके, क्योंकि तीव्रता का मजा है...सवाल बुझने और जलने का नहीं है। धीरे-धीरे बुझना भी दुखद है, धीरे-धीरे जलना भी दुखद है। मरे-मरे जलना हुआ न, धीरे-धीरे जलने का मतलब और मरे-मरे मरना भी हुआ। और इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर जवान आदमी मरे तो शीघ्रता से मर जाता है और नब्बे वर्ष तक जिंदा रह जाए तो फिर लंबा बहुत धीमा होगा, फिर मरना बहुत धीमा होता है। क्योंकि मर एकदम वही सकता है जो एकदम जी रहा था। ...
ज्योति तो बहुत जोर से जली थी, वह बहुत जोर से बुझ भी सकती है। वह जोर से एक ही शक्ति का लक्षण है। मैंने कहा: आदमी नब्बे या सौ साल तक जिंदा रह जाए तो फिर उसका मरना भी क्रमिक होता है। फिर वह दस-पंद्रह साल के लंबे अरसे में फैल कर मर पाता है क्योंकि मरने की तीव्रता की क्षमता भी उसमें नहीं रह जाती।
तो सुरक्षा की खोज बहुत गहरे में जीवन का भय है। यानी हम जीना नहीं चाहते इसलिए हम सुरक्षा खोजते हैं। अगर इसे इस भाषा में समझो की सुरक्षा की खोज स्युसाइडल है तो बहुत आसानी हो जाए। इस भाषा में अगर हम सोचें तो सुरक्षा की खोज आत्महत्या का आग्रह है। जैसा मैं आज जी लिया हूं, मैं वैसा ही सदा जीने के लिए कष्ट कर लेता हूं। नहीं तो मैं कल को मरा जा रहा हूं, कल के लिए जिंदा रहने की बात नहीं। मैंने बच्चुभाई को कहा कि मैं आपको प्रेम करता हूं तो बच्चुभाई और मैं दोनों तय करते हैं कि हम कल भी प्रेम करेंगे। उसका मतलब यह हुआ कि मेरा आज कल को तय करेगा। और आज तो कल मर चुका होगा और कल को तय करेगा मरा हुआ। जीवित को तय करता रहेगा सदा। दस साल पहले मैंने किसी से तया किया था कि मैं प्रेम करूंगा और वह दस साल से मुझे प्रेम करना पड़ रहा है क्योंकि वह मैंने तय किया था। तो दस साल मेरे मर गए। दस साल मैं प्रेम नहीं कर पाया, वह पुराना आश्वासन ही मुझे पकड़े है। वह डैड जो है वह मेरे ऊपर भारी है और वह मुझे पकड़े हुए चला जा रहा है। कल का अगर हम आज इंतजाम करते हैं तो हम कल के लिए एक अर्थ में मर रहे हैं और बहुत गहरे में अर्थ भी यही है कि कल के लिए हम इंतजाम ही इसीलिए करते हैं कि हमें पक्का भरोसा नहीं है कि कल हम इतने जीवित होंगे तो कल के लिए हम आज इंतजाम कर लेते हैं। आज ही पक्का कर लेते हैं कल के लिए कि कल कैसे जीएंगे? कैसे मिलेंगे? किस मकान में रहेंगे? कितना धन होगा? कैसे कपड़े होंगे?
यह सारा का सारा इंतजाम हमारा आत्मघाती रूख है। और दूसरी बातः इस इंतजाम से हम इंतजाम कर नहीं पाते, बड़ा मजा यह है कि इंतजाम भी हो जाता तो भी ठीक था। इंतजाम भी हो जाता तो भी ठीक था, वह हो नहीं पाता। तो जिंदगी की अड़चन, जिंदगी के जीने की अड़चन अलग बनी रहती है, वह है, और यह इंतजाम की अड़चन अलग हो जाती है। यह दोहरी अड़चन उसके ऊउपर खड़ी हो जाती है। इन दोहरी अड़चनों के बीच मनुष्य के चित्त का तनाव है, वह सारी एंग्विश इस दोहरे तनाव में है। इतना तनाव जो मनुष्य के भीतर है, वह उस तनाव का कारण ही यह है कि जिंदगी एक ढंग से बहती है और हमारी आकांक्षा जिंदगी को दूसरे ढंग पर ढालना चाहती है। बस, तब खिंचाव शुरू हो जाता है।
इनसिक्योरिटी में जीने का कुल मतलब यह है कि जिंदगी जैसी है हम उसे जीते हैं। और हमारा उसमें कोई ऊपर से थोपने का भाव ही नहीं है, क्योंकि थोप कर हमने देखा और इम असफल हुए हैं। और असफलता पूर्ण हो गई है। इसलिए मैं मानता हूं कि गलत जीने का भी एक फायदा है कि वह गलत जीने को असफल कर जाता है, विफल कर जाता है। और जो लोग अगर ठीक से, गलत ढंग से नहीं जीए हैं, ठीक से गलत ढंग से नहीं जीए हैं, तो वे बहुत कठिनाई में पड़ जाते हैं। उनको अभी विफल तो हुआ नहीं, अभी उनको ख्याल तो यह है कि कोशिश करने से नींद आ जाएगी और किसी की बात सुनने चले गए हैं, जो कहता है कि कोशिश करने से नींद न आएगी। अब वे और कठिनाई मेें पड़ गए हैं। यह उनको अनुभव से ही जानना होगा कि कोशिश करने से नींद नहीं आती है, प्रयत्न व्यर्थ है। और तब वह ऐसा नहीं पूछेंगे कि फिर क्या करें क्योंकि फिर क्या करना है, पूछने का मतलब है कि वह अभी प्रयत्न की भाषा उनके मन में जारी है! वह इतना समझ लेंगे कि प्रयत्न व्यर्थ है और चुपचाप उठ जाएंगे।

चुपचाप जीने से आपका क्या मतलब है?

अगर मतलब खोजेंगे तो फिर कठिनाई शुरू होती है क्योंकि चुपचाप जीने का मतलब है जिंदगी आई हुई है, जिंदगी मिली हुई है, जिंदगी जैसी आ रही है, जिंदगी जैसी आ रही है उसे वैसा ही जीएं और उतना ही जीएं। आप मेरे पास बैठे हैं, और मैं प्रीतिकर लग रहा हूं आपको, तो अच्छा है कि मेरे इस प्रीतिकर होने की जीएं। नहीं, लेकिन आप इसको जीने की फिकर नहीं करते। आप यह कहते हैं कि कल भी इसी वक्त मिलेंगे न। आप कल की फिकर कर रहे हैं। आप कह रहे हैं, परसों भी इतना ही प्रेम देंगे न? अभी जिंदगी मिली है, कोई पास खड़ा है, वह आपको प्रेम दे रहा है, आप सुख में हैं, एक आनंद का अनुभव हो रहा है। लेकिन मन आपका अपेक्षाओं में भाग गया है, जीने में नहीं है। वह कहता है, कल, परसों का भी इंतजाम कर लो।

यह स्वभाव है क्या?

नहीं, स्वभाव नहीं है। स्वभाव नहीं है। स्वभाव नहीं है। असल में हमारे मन में चारों तरफ असुरक्षा तो है ही। यह तो पक्का ही है कि कल का भरोसा नहीं है कि कल मैं आपको मिलूंगा, यह पक्का नहीं है। इसको हम पक्का कर लेना चाहते हैं। भूल इसलिए है कि जो पक्का नहीं है, उसे पक्का किया ही नहीं जा सकता, जो भूल है वह यह, भूल यह नहीं है कि स्थिति तो यह है ही। अगर मैंने आज आपको प्रेम किया है तो कल पक्का नहीं है कि कल मैं आपको प्रेम कर सकूं। और अगर इसको हमने पक्का किया तब तो बिल्कुल ही पक्का नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, असल में, असल में, जब हम इसे ऐसा पूछते हैं कि क्या यह सत्य है? क्या यह संभव है? क्या यह हो सकता है कि आदमी असुरक्षा में जी सके? तो मैं इसे दूसरी तरफ से लेना चाहूंगा। मैं यह कहना चाहूंगा कि सुरक्षा में रहने की कोशिश सत्य हुई है? नहीं, मैं इसको इस तरह नहीं लेता। मैं इस तरह पूछना चाहता हूं कि इसको उलटा सत्य हुआ है जिसे हम कह रहे हैं? सुरक्षा की जो हमने इंतजाम और व्यवस्था की है क्या उससे जीना सत्य हुआ है? क्या हम जी पाए हैं? अगर वह असत्य हो गया है, तो यही जो मैं कह रहा हूं उसकी सत्यता है। इसकी अपनी अलग से सत्यता नहीं है। अगर आपके प्रयत्न से आप नींद नहीं ला पाए हैं, आप मुझसे पूछते हैं क्या मैं बिना कोशिश करे सो जाऊंगा, यह सत्य है? तो मैं कहता हूं, यह, यह इसकी सत्यता मत पूछें। इसकी सत्यता का सवाल ही नहीं है। क्योंकि सत्यता का सवाल सदा प्रयत्न का होता है। प्रयत्न सत्य और असत्य हो सकता है। अप्रयत्न, नो-एफर्ट में सत्य और असत्य का प्रश्न नहीं है। क्योंकि जिसे हमने किया ही नहीं, वह हो सकेगा कि नहीं हो सकेगा, हम कैसे पूछें? जो हमने किया है, उसके संबंध में रिलवेंट है यह बात पूछना कि यह होगा कि नहीं होगा? तो मैं यह कह रहा हूं कि वह जो हम कर रहे हैं क्या वह असत्य हो गया है? हमें दिखाई पड़ा है कि वह असत्य है, अगर वह असत्य दिखाई पड़ गया है, उसकी असंभावना, उसकी एब्सर्डिटी हमें दिखाई पड़ गई है।
झेन में वे कोआन का प्रयोग करते हैं। उस कोआन का जो आप पूछ रहे हैं वह, उसमें बड़ा सार्थक बात है। वह एक एब्सर्ड पहेली दे देंगे किसी को, जो सत्य ही नहीं है। जैसा उन्होंने कह दिया है कि एक साधक को कहा है कि तू इस पर ध्यान कर कि एक हाथ की ताली कैसे बजेगी? तू समझ कर आ कि एक हाथ की ताली कैसे बजेगी? अब वह ध्यान करता है तो वह सोचता है कि पैर पर हाथ को मारने से बज जाएगी। वह भागा हुआ गुरु के पास आता है, वह कहता है कि पैर पर हाथ मार देंगे। तो वह कहता है, पागल, वह पैर तो दूसरा हाथ हो गया। हम तो कहते हैं एक हाथ की ताली। उसमें दूसरे का उपाय ही नहीं है। अब तू दुबारा यह सोच कर मत आना, दूसरे की मौजूदगी का उपाय ही नहीं है। एक हाथ की ताली ही बजानी है, अकेले हाथ की, जहां दूसरा कोई भी नहीं है, अकेला हाथ ही है और ताली बजानी है। तो वह फिर सोचता है और कुछ उत्तर खोज लाता है, फिर कोई उत्तर खोज लाता है, यह चलता है। लेकिन एक क्षण में पूरे-पूरे प्राणों में उसे लगता है कि यह असत्य है, यह एक हाथ की ताली बज नहीं रही। यह जो है, असंभव है, यह एब्सर्ड है। तब वह यह भी कहने नहीं आता है कि नहीं बज सकती। क्योंकि यह कहना भी तभी तक अर्थपूर्ण है, जब तक बज सकती हो। तब वह आते ही आते गुरु के सामने हंसने लगता है या चुप बैठ जाता है। और गुरु उससे पूछता है क्या हुआ उस एक हाथ की ताली? वह चुप ही बैठा रहता है। वह यह भी नहीं कहता कि नहीं बज सकती है। क्योंकि नहीं बज सकती है, कह कर अर्थ तभी होता है कुछ जब बज सकती होती। नहीं, वह असत्य ही है।
और अगर हम जिंदगी को समझने जाएं, तो हमने जिंदगी में बहुत से कोण खड़े कर लिए हैं। जैसे सुरक्षा। सुरक्षा एक हाथ की ताली है जो इतनी ही असत्य है जितनी एक हाथ की ताली असत्य है। सुरक्षित हम हो नहीं सकते। क्योंकि जन्म के साथ मृत्यु खड़ी है। वह हम जन्में नहीं कि मरना शुरू हो गया है। इधर जन्में नहीं कि उधर मरना शुरू हो गया है। शायद मरना और जन्मना एक ही साथ हो गया है।
वह जो पहले दिन का बच्चा पैदा हुआ है, वह भी एक दिन मर चुका है। घंटा भर मर चुका है, घड़ी भर मर चुका है। इधर वह जी रहा है, इधर वह मर रहा है। इधर से गिने तो जन्मदिन मालूम पड़ता है, उधर से गिने तो मृत्यु की यात्रा मालूम पड़ती है। अब अगर हमने सोचा कि हम मरेंगे न, तो हम असत्य को सोच रहे हैं। तो मैं यह कह रहा हूं कि जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं, जो हमें सत्य मालूम पड़ती है, वह बिल्कुल असत्य है। और अगर यह हमें असत्य दिखाई पड़ जाए तो वह जो दूसरा जिसकी मैं बात कर रहा हूं, उसके बाबत हम यह नहीं पूछेंगे कि वह सत्य है या असत्य है, वह है ही। उसके अलावा उपाय ही नहीं। यानी मरना मरने से बचना असत्य है तब फिर मरने के साथ ही जीना होगा। उसको सत्य पूछने का सवाल नहीं है, उपाय ही नहीं है कोई, वही है। यानी हमें ऐसे जीना होगा जहां कि मरना स्वीकृत रहेगा। हम, हमारा मन होता है कि हम कैसे स्वीकार करके जीएं मरने को, यह सत्य कहां है कि हम मरने को...कि मैं आपको प्रेम करूं और यह मान कर चलूं कि यह प्रेम का फूल भी कुम्हला सकता है, क्योंकि सब फूल कुम्हला जाते हैं। असल में फूल ही कुम्हलाते हैं, कांटे तो बहुत देर टिक जाते हैं। तो अगर यह प्रेम है, फूल है और कांटा नहीं है, तो यह कुम्हलाएगा ही। और जितना बड़ा फूल है और जितना कोमल है और जितना सुगंधित है और जितना खिला है उतना जल्दी कुम्हला जाएगा। मन तो मानने को राजी नहीं होता, मन तो कहता है, प्र्रेम। और कुम्हलाएगा? नहीं, हम ऐसा मान कर फिर प्रेम ही नहीं कर पाएंगे। फिर सत्य ही नहीं कि हम प्रेम कर पाएं। लेकिन सत्य हो या नहीं, यह सवाल नहीं, ऐसा है। ...
सच, नहीं यह सवाल नहीं है कि हम ऐसा कर पाएंगे कि नहीं कर पाएंगे, ऐसा है ही। अब आप कुछ करें या न करें, फूल कुम्हलाएगा, यह फूल कुम्हलाएगा। आप चाहें आंख बंद करें, चाहे पीठ फेरें, चाहे भागें फूल से, चाहे कुछ भी करें। आपके कुछ भी करने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। फूल खिला है, फूल कुम्हलाएगा, और हमें यह स्वीकार करके जीना पड़ेगा। फूल को जब वह खिला है तो उसके खिले होने में हमें उसके कुम्हलाने को स्वीकार करके जीना होगा। और इस स्वीकृति में अगर जरा सी भी अस्वीकृति छिपी है, तो हम फूल के खिलने को भी न जी पाएंगे और फूल कुम्हला ही जाएगा। जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि जिंदगी ऐसी है। आपकी स्वीकृति, अस्वीकृति से कुछ फर्क नहीं पड़ता, सिर्फ आपके जीने की कठिाइयां कम और ज्यादा हो सकती हैं।

परंतु फूल के खिलने से आपको आनंद आया होगा तो यह बिल्कुल मुमकिन है कि बिल्कुल वही है, रियलिटी, यानी कि उसके कुम्हलाने से आपको दुख होगा। उससे जो आप प्रेम करेंगे तो प्रेम का वास्तव ही ऐसा है आपके दिल में ऐसा होगा कि यह प्रेम चालू रहे, उससे जो वीतराग की स्थिति कहते हैं, वह कहते हैं, प्रेम भी वह न करो तो दुख भी न होगा, पर आपकी जो है वह उससे अलग बात है?

बिल्कुल ही अलग बात है, बिल्कुल ही अलग बात है, वह तो बिल्कुल ही अलग बात है। ठीक है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

ठीक है न, ठीक है न, मैं दुखी न हूं यह नहीं कह रहा हूं। अगर मैं यह कहूं तो गड़बड़ हो जाएगी। मैं तो यह कह रहा हूं कि जब मैंने फूल के खिलने से सुख लिया है तो मेरी दुख की पूरी तैयारी है, उसके कुम्हलाने पर मैं दुख लूंगा। और यह तो बड़ी एब्सर्ड बात होगी कि सुख मैं ले लूंगा तो दुख कौन लेगा? मैंने जब फूल के खिलने से सुख लिया है तो मैं फूल के कुम्हलाने पर दुखी होने को तैयार हूं, इसकी स्वीकृति को मैं यह कह रहा हूं। यानी हम क्या करते हैं, हम कहते हैं, या तो हम सुख को ही स्वीकार करेंगे कि फूल के खिलने से सुख मिले और तब हम उसके मुरझाने को इंकार करेंगे ताकि हमें दुख न मिले। और या फिर दूसरा उपाय जो आप कह रहे हैं वह हमारी समझ में आता है कि फिर यह कि फूल कि फिकर ही छोड़ दो, ताकि न सुख मिलेगा, न दुख मिलेगा। या तो हम हां, या तो हम सुख ही लेंगे और कुम्हलाने न देंगे फूल को, या तो मैं किसी स्त्री को प्रेम करूंगा और उसे छूटने न दूंगा अपने से, उसको कुम्हलाने न दूंगा और या फिर मैं, ...

वह असंभव ही है वह होना कि दुख न हो?

हां, वह तो असंभव है, असंभव है, वही मैं कह रहा हूं। वह अगर असंभव है तो फिर जो, जो संभव है जो है, संभव भी क्या है? कहना चाहिए जो है, है यह कि फूल खिलेगा और सुख देगा और फूल कुम्हलाएगा और दुख देगा, मैं दोनों को स्वीकार करता हूं। जिस तरह सुख को स्वीकार करता हूं, उस तरह दुख को स्वीकार करता हूं। न मेरा दुख का इंकार है, न मेरा सुख का इंकार है। जिसको हम भोगी कहते हैं वह दुख का इंकार कर रहा है और जिसको हम त्यागी कहते हैं वह सुख का इंकार कर रहा है। वे दोनों चुनाव कर रहे हैं। दोनों की च्वाइस है। और इसीलिए दोनों में बहुत बुनियादी फर्क नहीं है, वह आधा-आधा स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि हम यह, हम यह सुख के साथ डर है दुख का। तो मेरी अपनी दृष्टि मेें जिसको हम त्यागी कहते हैं वे भोगी से भी ज्यादा भयभीत आदमी हैं। वह उस दुख के डर के कारण जो सांझ फूल के कुम्हलाने से होगा, सुबह फूल के खिले होने को इंकार कर रहा है। सांझ के डर से कि सांझ फूल कुम्हला जाएगा, वह सुबह ही कहता है हम खिले हुए फूल को ही न देखेंगे क्योंकि सांझ कुम्हलाने का डर है। वह मेरी दृष्टि में भोगी से भी ज्यादा डरा हुआ आदमी है, उसका डर और भी भविष्य का है। यानी यह भोगी कम से कम अभी फूल का सुख ले रहा है, सांझ रोएगा। लेकिन सांझ को त्यागी खुश होगा कि हम सुबह से ही रो रहे हैं, तुम गलती किए, तुम सांझ को रो रहो हो, हम सुबह से रो रहे हैं। और अगर रोने से बचना हो तो सुबह से ही रोने की स्थिति में होना चाहिए। मगर मैं जो कह रहा हूं, मैं यह नहीं कह रहा कि...

सुख की जो खोज है वह तो यह है कि यह जो सुख है वह दुख में मिलता है। वह सुख और दुख, वह दोनों का त्याग करे। जिसमें सुख पाने, जिसमें कभी दुख होता ही नहीं।

समझ गया हूं आपकी बात। ऐसा सुख जो कभी दुख में परिणित नहीं होता, असंभव है, सत्य नहीं है। और अगर ऐसा कहीं कोई सुख है तो उसमें सुख का बोध ही नहीं हो सकेगा। सुख का बोध ही दुख की पृष्ठभूमि में है। अगर ऐसा कोई स्वास्थ्य है कहीं जहां बीमारी न होती हो, तो वहां स्वास्थ्य का कोई बोध न होगा। अगर ऐसा कहीं कोई जगत है जहां प्रकाश और अंधकार नहीं है, तो वहां प्रकाश का कोई पता न होगा। यानी उससे तो गहरे से गहरे अंधकार में भी प्रकाश का पता होगा, उतना भी वहां पता नहीं होगा। यह जो ख्याल है त्यागी का कि हम ऐसे सुख की खोज में हैं, वह असल में वह यही कह रहा है कि हम उस फूल की खोज में हैं जो खिलता तो हो लेकिन मुरझाता न हो। लेकिन प्लास्टिक का ही फूल हो सकता है फिर। फिर बिल्कुल प्लास्टिक का फूल होगा और एकदम कल...वह खिलता भी नहीं एक अर्थ में। वह तभी मुरझाने से बच सकता है जब खिलता न हो। हमारी कठिनाई क्या है कि खिलने की ही प्रक्रिया का हिस्सा है मुरझाना। खिलना और मुरझाना दो घटनाएं नहीं हैं। हां, दो घटनाएं नहीं हैं, एक ही घटना को दो तरफ से देखने के ढंग हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

एक ही...दूसरा चालू है ही, यानी कभी भी ऐसा नहीं है कि एक मौजूद है, दूसरा उसके साथ तत्काल मौजूद है ही। वह साइमलटेनियस है। वे एक ही साथ युग-पथ हैं। हां, हम घटनाएं अलग...मुश्किल हो जाती है। जन्मते हैं हम एक दिन और मरते हैं सत्तर साल बाद। तो जन्म को, मृत्यु को हम सुविधा से अलग कर लेते हैं। लेकिन सच्चाई ऐसी नहीं है। सच्चाई ऐसी है कि जिस दिन हम जन्में उस दिन से ही मरना शुरू। और जिस दिन हम मर रहे थे, उस दिन भी जन्मना जारी था। वह दोनों एकसाथ घटनाएं घट रही थी। वह एक ही साथ चल...वह दोनों पैर थे दायां-बायां। वह जो हम चल रहे थे, वह न हम बाएं पैर से चल रहे थे, न दाएं पैर से चल रहे थे। और जो हम रुक गए हैं, वह न हम दाएं पैर से रुक गए हैं, न बाएं पैर से रुक गए हैं। वे दोनों पैर चलते थे, वे दोनों पैर रुक गए हैं। वह जन्मना और मरना चलता था और जन्मना और मरना रुक गया है। मृत्यु के दिन जन्मना और मरने की जो क्रिया थी वह दोनों क्रियाएं रुक गई हैं। और जन्म के दिन वह दोनों क्रियाएं शुरू हुई थीं। ऐसा नहीं था कि यह एक क्रिया थी और वह दूसरी क्रिया थी।
जब हम जीवन को ऐसा देख पाएं तो सुख और दुख भी ऐसे ही हैं। असल में जब फूल खिला था तभी दुख भी शुरू हो गया था। मैं किसी के घर में रुकता हूं तो इधर मुझे बहुत हैरानी हुई। एक घर में मैं रुका, तो उस घर की गृहिणी, जिस दिन मैं पहूंचा तो उसने उसी दिन से वह उसने रोना शुरू कर दिया, तो मैंने पूछा कि बात क्या है? तुम दुखी क्यों हो? उसने कहा: आप जब आते हैं, तभी से मुझे आपके जाने का भय शुरू हो जाता है कि बस अब जाना है..कल चले जाएंगे, परसों चले जाएंगे, तो जाने का भय शुरू हो जाए। तो उसके पति ने कहा कि तू बिल्कुल नासमझ है, जब जाएंगे तब जाएंगे, जब आए जब आए। पर मैंने उनको कहा कि नहीं, वह कहती तो वही ठीक है, कि आना जो है वह जाने की शुरुआत है। लेकिन उसकी भूल इसमें नहीं है। उसकी भूल इसमें है कि जब मैं चला जाता हूं तब तुझे मेरा आना भी दुबारा दिखाई पड़ता है कि नहीं? वह मुझे दिखाई नहीं पड़ता। तो फिर मैंने कहा: फिर तेरी भूल है। भूल यहां नहीं है, भूल वहां है, क्योंकि अगर आने में जाना छिपा है तो जाने में किसी न किसी गहरे अर्थ में आना छिपा होगा। वे दोनों क्रियाएं अलग नहीं हो सकतीं।
जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि ऐसी जिंदगी है, सत्य या असत्य नहीं है, ऐसा है। और यह जो होना है, यह जो सचनेस, यह जो जिंदगी का ऐसा होना है इसकी प्रतीति है। हां, इसकी प्रतीति, इसकी प्रतीति। एक्सेप्टेंस में भी कहीं न कहीं हमारा...छिपा रहता है। वह शब्द थोड़ा अच्छा नहीं है। उसमें जब हम कहते हैं एक्सेप्टेंस, तो कहीं कोई दंश है पीछे कि हमें स्वीकार करना पड़ा है। हां, कहीं कुछ है बात उसमें। वह शब्द बहुत अच्छा नहीं है। इसलिए, इसलिए बुद्ध ने बहुत अच्छा शब्द प्रयोग किया है। उन्होंने जो शब्द प्रयोग किया है वह है तथाता। थिंग्स आर सच। न, ऐसा नहीं है कि स्वीकार करते हैं, न, ऐसा है ही। ऐसा है कि जन्म में मृत्यु छिपी है, ऐसा है कि सुख में दुख छिपा है, ऐसा है कि मिलने में बिछुड़ना छिपा है, ऐसा है। इसकी स्वीकृति और अस्वीकृति का भी जिम्मा हम पर कहां है? स्वीकार तो हम तब करें जब हम अस्वीकार कर सकते होते। यानी इसमें स्वीकार में भी कहीं हम कुछ कर रहे हैं, वह गलती हो जाएगी। नहीं, कुछ करने का उपाय ही नहीं है, ऐसा है और ऐसे होने का जो बोध हमें घेर ले वह एक्सेप्टेंस है। वह बहुत गहरे मेें एक्सेप्टेंस है, किया गया नहीं, हुआ, दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। दूसरा रास्ता ही नहीं है। ऐसी स्थिति में सुरक्षा-असुरक्षा, सुख और दुख, जन्म और मृत्यु, इन्हें हम अलग-अलग नहीं तोड़ते। ये सब इकट्ठी हो जाती हैं।
और हमारी जिंदगी का सारा कष्ट ही यह है कि हम सब चीजों को तोड़-तोड़ कर देखते हैं और दो हिस्से कर लेते हैं। जो दो हिस्से जिंदगी में एक हैं उन्हें हम विचार में दो कर लेते है, और इसलिए विचार जिंदगी के करीब कभी नहीं पहंुच पाता। वह पहंुच ही नहीं सकता। उसकी सारी उपद्रव यह है वह चीजों को दो हिस्सों में तोड़ लेता है। चीजें दो हिस्सों में टूटी हुई नहीं हैं, और विचार में सदा टूट कर आती है। सुख अलग आता है, दुख अलग आता है। मित्रता अलग आती है, शत्रुता अलग आती है। अंधेरा अलग आता है, प्रकाश अलग आता है। विचार दो खंड कर लेता है। और इसलिए विचार में जीने वाला खंडित जीएगा कि अखंड नहीं जी सकता। और इसलिए जो आप कहते हैं...कि इंटेलेक्चुअली समझ में आ जाता है। नहीं, इंटेलेक्चुअली जो समझ में आता है, वह बड़ा ही खतरनाक है। क्योंकि इंटेलेक्चुअली समझ में ही तब आता है जब वह दो में तोड़ लेता है। इसलिए इंटेलेक्चुअल समझ, नासमझी से भी खतरनाक है।

उससे ही मैं कहता था कि हम समझ लेते हैं कि नींद नहीं आती है, इतने प्रयत्नों के बाद भी, तो आप कहते हैं कि बिना प्रयत्न की स्थिति...

मैं यह नहीं कह रहा हूं। हमारी कठिनाई क्या है? न, न, वही, वही तो वह कह रहे हैं, वही वह कह रहे हैं, सवाल फर्क नहीं हुआ। वही...जी कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि आदमी कुछ न कुछ प्रयत्न तो करता ही रहेगा। नहीं-नहीं, हां, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि प्रयत्न छोड़ दे, अगर मैं ऐसा कहूं तो मैं तथाता की बात नहीं कर रहा हूं फिर। मैं अगर ऐसा कहूं कि आदमी प्रयत्न छोड़ दे, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। क्योंकि प्रयत्न और अप्रयत्न फिर उसी बड़े डवेलिज्म के दो हिस्से हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि प्रयत्न छोड़ दें। मैं यह कह रहा हंूं कि उसे यह समझ में अगर आ जाए कि प्रयत्न कुछ भी नहीं लाता है, तो वह अगर प्रयत्न भी करेगा तो भी फिर लाने की आकांक्षा में नहीं करेगा। और अगर नहीं आएगा तो दुख नहीं भोगेगा क्योंकि वह जानेगा कि प्रयत्न नहीं लाता है। मैं यह कह रहा हूं कि प्रयत्न वह छोड़ दे, प्रयत्न जारी रहेगा। वह भी जीवन का हिस्सा है, वह भी जीवन का हिस्सा है। लेकिन तब प्रयत्न की असफलता भी स्वीकृत है, वह भी स्वीकृत है, वह भी स्वीकृत है। और उन चीजों पर प्रयत्न की असफलता पूरी तरह स्वीकृत है जो जीवंत है। जैसे यह तो हो सकता है कि प्रयत्न से मैं धन कमा लाऊं, यह हो सकता है। क्योंकि धन बिल्कुल मरी हुई चीज है। और इसलिए प्रयत्न करने वाले लोग अक्सर धन की दिशा में चले जाते हैं। क्योंकि...हां, वे, मैं जो यह कह रहा हूं कि प्रयत्न की दिशा में जाने वाला चित्त अक्सर धन की दिशा में चला जाता है, क्योंकि धन प्रयत्न से आ सकता है। एकदम मरी हुई चीज है। लेकिन प्रयत्न अगर प्रेम की दिशा में चला जाए, तो मुश्किल में पड़ जाता है, क्योंकि बहुत जीवंत चीज है।
अगर मैं प्रेम की खोज में निकल पडूं कि मैं प्रेम पाकर रहूंगा, तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। अगर मैं धन की खोज में निकलूं, तो सफल हो भी सकता हूं। सफल हो भी सकता हूं क्योंकि धन मरी से मरी चीज है।

आप क्यों ऐसा कहते हैं..धन मरी हुई चीज है?

मेरा मतलब, मेरा मतलब यह है कि धन मरी चीज का मतलब यह है कि तिजोरी में बंद की जा सकती है, मुट्ठी में बंद की जा सकती है, जमीन में गड़ाई जा सकती है, मरती नहीं। ...जिंदा चीज को तिजोरी में बंद करो, मुट्ठी में बंद करो, जमीन में गड़ाओ तो मर जाएगी। यानी मेरा मतलब यह है कि धन जो है, धन जो है, वह दी गई वैल्यू है। रुपये को आप मार नहीं सकते। मरना बहुत मुश्किल है रुपये को, क्योंकि रुपये में वस्तुतः कोई जीवंत वैल्यू नहीं है, हमने मिल कर वैल्यू दे दी है, दी गई वैल्यू है। प्रेम में एक जीवंत वैल्यू है, हमारी दी गई वैल्यू नहीं है। यानी प्रेम का कोई हमने सिक्का पैदा नहीं कर लिया है, प्रेम जीवन से ही आ रहा है। प्रेम क्योंकि जीवन से ही आ रहा है, वह जीवन की जड़ों से ही आता है, वह कभी खिलता है, फैलता है और इसलिए हवा के तूफान उसको डराते भी हैं। सूरज की गर्मी से वह भयभीत भी हो जाता है। कोई उसे तोड़ भी लेना चाहता है। अब वह सब भय वहां खड़े होते हैं। तो आदमी ने जीवन की चीजों में जब पाया कि प्रयत्न से बहुत मुश्किल है उनको पाना, तो उसने ऐसी चीजें ईजाद कर ली हैं जो प्रयत्न से पाई जा सकती हैं। लेकिन उनसे तृप्ति नहीं होती। क्योंकि वह धन इक्ट्ठा करके फिर धन से भी प्रेम ही खरीदने जाता है। उनसे तृप्ति नहीं होती, क्योंकि मुर्दा चीज तृप्ति नहीं नहीं दे सकती।

धन की जो वैल्यू है वह एक सिंबालिक वैल्यू है?

सिंबालिक का मतलब ही यह होता है, सिंबालिक का मतलब ही यह होता है कि डाली गई है। प्रेम की कोई सिंबालिक वैल्यू नहीं है। न, सिंबालिक वैल्यू नहीं है, आपने डाली हुई है।

प्रेम का भी कोई मीनिंग है तुम्हारा?

न, न, मीनिंग बहुत अलग बात है। मीनिंग बहुत अलग बात है। रुपये में मीनिंग बिल्कुल नहीं है सिर्फ सिंबालिक वैल्यू है। सिंबालिक वैल्यू है। यानी हम कहते हैं कि यह एक रुपये का नोट है और हम पचास आदमी कहें कि एक रुपये का नोट है, कल हम...इंकार करे दें, तो यह एक रुपये का नोट नहीं रह जाएगा। लेकिन प्रेम को आप कल इंकार नहीं कर सकते हैं। आपके बस की बात नहीं है इंकार करना और थोपना। यानी मैं यह कह रहा हूं कि एक रुपये का नोट है यह हमारी स्वीकृति है, तो हम इसको एक रुपये का नोट कहते हैं लेकिन प्रेम आपकी स्वीकृति पर निर्भर नहीं है। क्या आप इसको प्रेम कहते हैं इसलिए प्रेम है? यह प्रेम है इसलिए आपको प्रेम कहना पड़ता है, यह रुपया नहीं है। ...आप सोचा करें।

हम सबसे प्रेम करें, वे हमसे प्रेम करें, या न करें, वह प्रेम कैसे मुरझा जाएगा?

आप जब भी कहें कि हम करें, तो आप अभिनय ही कर सकते हैं। आप अभिनय ही कर सकते हैं। प्रेम का अभिनय कभी नहीं मुरझाएगा, क्योंकि वह सिंबालिक वैल्यू है। जो मैं कह रहा हूं वह रुपये की तरह है। अगर प्रेम का अभिनय करते हो, वह कभी नहीं मुरझाएगा। मुरझाने का कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि वह कभी खिला ही नहीं। वह प्लास्टिक का फूल है जो हमने बनाया था, वह खिला-विला नहीं था, कभी कहीं से आया नहीं था, जोड़ा गया था। कंस्ट्रक्टिड है, क्रिएटिड नहीं है, तो वह नहीं मुरझाएगा। आप जिंदगी भर कर सकते हैं। इसलिए मनुष्यता को प्रेम करना बहुत आसान है, एक मनुष्य को प्रेम करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि मनुष्यता कहीं भी नहीं है। इसलिए मजे से आप अभिनय कर सकते हैं कि मैं मनुष्यता को प्रेम करता हूं, मैं सारे जगत को प्रेम करता हूं, वसुधेवकुटुम्भकम, सारी वसुधा मेरी कुटुम्भ है। और एक पड़ोसी को कुटुंभ में बनाना बहुत मुश्किल मामला है, क्योंकि जिंदा आदमी है। वसुधा तो कहीं है नहीं, उसका आप अभिनय कर सकते हैं।
तो हमने अभिनय के वैल्यूज पैदा किए हैं और वह बचाव है जिंदगी के। प्रेम तो करना पड़ेगा एक जीवंत आदमी को। और जीवंत आदमी को प्रेम करना बहुत कठिन है, क्योंकि वह हजार बाधाएं भी खड़ी करता है। प्रेम लेने में भी बाधा है, देना तो मामला दूसरा है। अगर मैं आपके द्वार पर प्रेम देने आऊं, तो भी आप स्वीकार करेंगे, यह भी कहां पक्का है। वही फिर आप मेरा स्वीकार ही कर लें यह थोड़े ही है कि आपसे मैं कहूं कि देने की फिकर मत करिए, सिर्फ मेरा प्रेम ले लीजिए। यह जरूरी नहीं है कि आप लेंगे। आप कह सकते हैं, जाइए, मुझे नहीं चाहिए। कैसे चले आए हो बिना पूछे प्रेम देने! लेकिन मनुष्यता को दिया जा सकता है, क्योंकि मनुष्यता कहीं भी नहीं है। और मनुष्यता के प्रेम का अभिनय किया जा सकता है। इसीलिए जो एक-एक आदमी के प्रेम से भाग गए, वे सारे जगत के प्रेम की बातें करते रहे हैं। संन्यासी हो, भाग गया। एक आदमी को प्रेम करने से डर गया है, क्योेंकि प्रेम बड़ी जोखिम है और प्रेम बड़ा उपद्रव है, और प्रेम बड़ा संकट है। सभी जिंदगी की चीजों में वह बात छिपी है। वह एक से तो भाग गया है प्रेम करके लेकिन वह सबसे प्रेम कर रहा है। सबके साथ प्रेम में कोई जोखिम नहीं है क्योंकि सबके साथ...न टूटने का डर है, वह जो आप कहते हैं ठीक कहते हैं। न टूटने का डर है, न कुम्हलाने का डर है। लेकिन ध्यान रखना यह है कि वह कुम्हलाने का डर इसीलिए नहीं है कि फूल खिला ही नहीं है, नहीं तो और कोई उपाय नहीं है। अगर कुम्हलाने से बचना है तो खिलने से बचना पड़ेगा और बीच में दोनों के जो है वह सिंबालिक वैल्यू है, वह डाली गई वैल्यू है। वह हमारी अपनी डाली हुई है, वह अभिनय का हिस्सा है। और बहुत सुखद है प्रेम का अभिनय करना। प्रेम करना तो दुखद भी हो सकता है। प्रेम में दुख आएगा ही। प्रेम की अपनी सफरिंग होगी। और शायद इतनी सफरिंग किसी और चीज की नहीं होती। प्रेम का आनंद चूंकि गहरा है इसलिए पीड़ा भी गहरी होगी। वह हमेशा अनुपात में होती है।

यह अगर एक्सेप्ट कर लें, जब हंसी का वक्त आएगा जी भर कर हंस लें और होने का वक्त तो मन भर कर रो लें।

नहीं मैं कहां कह रहा हूं। मैं यही कह रहा हूं, मैं यही कह रहा हूं कि जो आए उसको पूरी तरह जी लें। न जीने की...लेकिन अगर यह भी आपका कंसेप्ट है। न, उतना ही सब कर लेने की जरूरत है। यह भी मेरी धारणा और फिलासफी है कि जब रोने का वक्त आएगा तब मैं पूरा रो लूंगा और जब हंसने का वक्त आएगा तब मैं पूरा हंस लूंगा। अगर यह मेरी फिलासफी है तो मैं न पूरा रो पाऊंगा और न पूरा हंस पाऊंगा। यह मेरी जिंदगी होना चाहिए। जिंदगी का मतलब यह है कि तीसरा कोई उपाय ही नहीं है, जब रोने का वक्त आएगा तो रोऊंगा, इसमें रोने का सवाल क्या है।
मैं पीछे कह रहा था, एक झेन फकीर मरा, उसका शिष्य जो बहुत प्रसिद्ध था, गुरु से भी ज्यादा प्रसिद्ध, वह दरवाजे पर बैठ कर रो रहा है मंदिर के। और लाखों लोग आए हैं, तो वे बहुत बेचैनी में पड़ गए हैं, क्योंकि उसको वे समझते थे कि यह ज्ञान को उपलब्ध हो गया। और यह रो रहा है! तो जो निकटतम थे उन्होंने आकर कहा कि आप ऐसा मत करिए, इसका बड़ा बुरा असर पड़ेगा। हम लोग तो यही सोचते थे कि आप तो ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं और आप रो रहे हैं? तो उसने कहा: ज्ञान ने कब कहा कि रोओ मत। मुझे पता नहीं ऐसे ज्ञान का। तो उन्होंने कहा कि लेकिन आप तो कहते थे कि आत्मा अमर है, फिर अब रोना क्या? उसने कहा: मैं अब कब कह रहा हूं कि रोकर कि आत्मा मर गई है। लेकिन क्या मुझे रोने का भी हक नहीं? तो फिर किसलिए रो रहे हो?
उसने कहा कि मुझे रोना आ रहा है इसलिए रो रहा हूं। क्या रोने के लिए भी कारण चाहिए? कि मुझे पक्का कारण मिल जाए तब मैं रोऊं? न, मुझे रोना आ रहा है तो मैं रो रहा हूं। और मुझे पीड़ा हो रही है तो मैं पीड़ा झेल रहा हूं। और फिर जिसको प्रेम किया था, उसकी विदा में मैं नहीं रोऊंगा तो कौन रोएगा? और मैं उसकी आत्मा के लिए नहीं रो रहा..आत्मा की आत्मा जाने। वह शरीर भी बहुत प्यारा था और वैसा शरीर अब दुबारा नहीं होगा। और अभी थोड़ी देर में हम इसे जला आएंगे। लेकिन मैंने उनसे प्रेम का आनंद लिया था, अब प्रेम विदा हो गया है, तो अब उसकी काली छाया कौन भोगेगा? तुम? मुझे भोगनी पड़ेगी। लेकिन तुम यह मत सोचना कि मैं दुखी हूं। असल में अगर हम बहुत ख्याल से देखें तो खुद दुख में दुख नहीं है। दुख के अस्वीकार में ही दुख है। स्वयं दुख में क्या दुख हो सकता है। मैं रो रहा हूं, यह उतना ही रिलैकिं्सग हो सकता है जितना हंसना भी न हुआ हो। स्वयं दुख में कोई दुख नहीं है। और दुख का अपना सुख है, सुख का अपना दुख है। लेकिन हम स्वीकार नहीं करते। सुख को हम स्वीकार कर लेते हैं इसलिए दुख नहीं मालूम पड़ता। और दुख को हम अस्वीकार करते हैं इसलिए दुख मालूम पड़ रहा है। वह जो अस्वीकृति है, वह दंश ले आती है। लेकिन अगर जीवन स्वीकृत है...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

स्वीकार करे लें तो सुख मिल सकता है। लेकिन जब तक हम चुनाव कर रहे हैं; हम कहते हैं, यह हां और यह नहीं, तब तक हम पूरी जिंदगी को जीने के लिए राजी नहीं है। हम कहते हैं, हम जिंदगी में चुनाव करेंगे। इतनी जिंदगी को जीएंगे, इतनी जिंदगी को इंकार करेंगे। इसलिए मेरा कहना है कि टोटल की स्वीकृति नहीं है। और जहां समग्र की स्वीकृति नहीं है, वहां हम कभी समग्र को उपलब्ध भी नहीं हो सकते, और समग्र के साथ भी पूरे नहीं हो सकते। वहां हम खंड-खंड...और जब समग्र की स्वीकृति बाहर न होगी तो हमारे भीतर भी खंड हो जाएंगे। इसको ध्यान में रखना जरूरी है। अगर मैंने कहा कि मुझे प्रकाश स्वीकार है अंधेरा स्वीकार नहीं है, तो ऐसा नहीं है कि बाहर की पृथ्वी पर जहां प्रकाश होगा वह मुझे स्वीकृत होगी और अंधकार होगा उस...। मेरे घर में भी दो हिस्से हो जाएंगे, तो मेरे घर में भी जो हिस्सा अंधेरे में पड़ जाता होगा वह अस्वीकार हो जाएगा और जो प्रकाश में पड़ता होगा वह स्वीकृत हो जाएगा। मेरे शरीर में भी दो हिस्से हो जाएंगे, जहां अंधकार पड़ता होगा अस्वीकार हो जाएगा। मेरी आत्मा में भी दो हिस्से हो जाएंगे, जहां अंधकार पड़ता होगा अस्वीकृत हो जाएगा जहां प्रकाश पड़ता होगा...तो मैं सारे जगत को आरी से लेकर दो में काट दूंगा। उसमें मैं भी कटूंगा, उसमें मैं नहीं बच सकता। क्योंकि सारे जगत का बहुत छोटा सा रूप मैं भी हूं। उसमें मैं भी दो हिस्सों में कट जाऊंगा। वह जो मेरा कटा हुआ हिस्सा है वह तड़फेगा, वह चिल्लाएगा, उसे दबा कर रखना पड़ेगा, उसे मिटा कर रखना पड़े, मिट सकता नहीं, क्योंकि वह मैं ही हूं। उसकी छाती पर बैठे रहना पड़ेगा कि कहीं वह निकल कर बाहर न आ जाए तो मैं एक उपद्रव में पड़ जाऊंगा। जीवन एक उपद्रव बन जाएगा। बन गया है क्योंकि हम उसे पूरा स्वीकार करने को राजी नहीं हैं।

हम स्वीकार हमेशा करते हैं। हम झूठ बोलते हैं जब हम कहते हैं कि हम स्वीकार नहीं कर रहे, मतलब...

नहीं, नहीं, एक्सेप्ट करना पड़ता है। इसमें ही फर्क हम...हमारे शब्दों में सारी कठिनाई जो है वह यह है, आप जो कहते हैं कि सी ड.ज एक्सेप्ट, तो एक्सेप्टेंस नहीं है। हमें स्वीकार करना पड़ता है। क्योंकि जो है वह है हमारे अस्वीकार से वह मिटता नहीं। लेकिन हमें स्वीकार करना पड़ता है, जब करना पड़ता है तो दंश आ जाता है, तो पीड़ा आ जाती है। पीड़ा जो है वह हमारे स्वीकार करने की चेष्टा में है। जैसे कि आज मां मर गई है, तो कोई कह रहा है कि शरीर कितने वक्त निकलेगा? मां शरीर थी, इसे हमने जिंदगी भर स्वीकार न किया। मां को तो हम बिल्कुल आत्मा ही मान कर चल रहे हैं। उसे शरीर मान कर चलना तो बहुत मुश्किल है।
तो जिंदगी भर अस्वीकार किया कि मां शरीर थी। पत्नी शरीर हो सकती है, मां तो शरीर होती नहीं। लेकिन मां शरीर है, मां भी शरीर है। और भी कुछ होगी, शरीर भी है ही। पर उसका शरीर होना हमने कभी स्वीकार नहीं किया था, वह मरने पर ही इन्हें प्रकट होगा। क्योंकि तब कुछ उपाय न रह जाएगा और। हम स्वीकार करते हैं, करना पड़ता है, लेकिन यह मैं नहीं कह रहा हूं कि करना पड़े। मैं यह कह रहा हूं कि ऐसा करना पड़े, मैं यह कह रहा हूं कि मौका ही क्यों आए कि करना पड़े, हम सदा स्वीकार में ही जीएं तो करना पड़ने का कोई सवाल ही नहीं आता, तब ऐसा न होगा कि मां आज मर गई है। न, तब मुझे बहुत दिन पहले से लगना शुरू होता है कि मां मर रही है। और तब मां मर रही है ऐसा मैंने बहुत दिनों से जाना होता और तब मैं इस ढंग से जीया होता कि मां मर रही है लेकिन मैं बिल्कुल नहीं जीया। अभी एक घंटे पहले तक मां नहीं मरी थी, तक तक मैं मान कर चल रहा था कि मां जिंदा है। और जो जिंदा के साथ व्यवहार करना चाहिए, वह कर रहा था। अब मां मर गई है, तो वह सब व्यवहार मैंने बदल दिया है। हो सकता है घंटे भर पहले धन के लिए उससे लड़ रहा था और घंटे भर पहले पत्नी के लिए उससे लड़ रहा था और घंटे भर पहले उसको घर से निकाल देने के लिए तैयार था, और घंटे भर बाद छाती पीट कर रो रहा हूं। नहीं, लेकिन अगर स्वीकृति पूरी होती तो मैं रोज ही जानता कि मां मर रही है।
मैंने, ये, ये दो हिस्से न होते, तब ऐसे कि एक दिन मां जिंदा थी और एक दिन मर गई, ऐसा हिस्सा करना मुश्किल है। ऐसा मैं रोज जानता। और जब मां रोज मर रही हो, तब शायद मां से लड़ना बहुत मुश्किल हो जाए। लड़ने की सुविधा बन गई, क्योंकि मैंने मां कभी मरेगी, अभी जिंदा है।
अभी एक मेरे परिचित थे एक मित्र। उनकी कोई पांच-छह साल पहले शादी हुई। प्रोफेसर थे यूनिवर्सिटी में। और लड़की भी प्रोफेसर थी। कोई चार-पांच साल ही साथ थे। तो शादी जब हुई तब भी वे मेरे पास आए थे कि मैं परेशानी में पड़ गया हूं, क्योंकि वे हिंदू और ब्राह्मण और वह पारसी थी लड़की। तो पिता राजी नहीं थे। बहुत पुराना अॅार्थाडाक्स परिवार था। तो मैंने उनसे यह कहा कि तुम यह ठीक से समझ लेना कि तुम लड़की से शादी कर रहे हो, कहीं पिता के विरोध से तो शादी नहीं कर रहो हो, इतना भर सोच लेना। नहीं तो तुम पीछे बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे। नहीं, उन्होंने कहा, आप क्या बात करते हैं। पिता के विरोध से क्या लेना-देना है? मुझे तो, उस लड़की के बिना मैं जी नहीं सकता। लड़की के मां-बाप का भी विरोध था। मैंने उस लड़की को भी कहा, वे दोनों ही मुझसे परिचित हैं, उससे भी मैंने कहा कि तू लड़के से शादी कर रही है न, अपने मां-बाप के विरोध से तो नहीं? उसने कहा: आप कैसी बात करते हैं, मां-बाप से विरोध का इससे क्या लेना-देना?
और शादी के दो महीने बाद ही बात साफ हो गई। क्योंकि वह शादी के बाद तो विरोध खतम हो गया, कोई मतलब न रहा विरोध का। जैसे ही विरोध समाप्त हुआ वैेसे ही उन दोनों को पता चला कि वे तो बहुत दूर हैं, कहीं पास नहीं हैं। वे तो उन दोनों के खिंचाव में, धक्के में, रेस्सिटेंस में, रिबेलियन में वे पास थे। वह सब खतम हो गया, तो वे दूर होने शुरू हो गए। और एक साल भर बाद एकदम फासले पर हो गए। और वह इतना कठिन हो गया जीना कि उस लड़के ने शराब पीना शुरू कर दिया और कुछ भी करना शुरू कर किया, और पांच साल बाद मर ही गया, हार्ट अटेक से मरा, पूरा स्वस्थ आदमी था। जब वह मरा उसके पहले उसकी पत्नी ने उसने मुझसे न मालूम कितनी दफा कहा कि हम तलाक करें कि क्या करें कि क्या न करें? उसकी पत्नी एकदफा मुझसे कह गई कि हम दो में से कोई एक मर जाए तो अच्छा है। फिर वह मर गया। जब वह मर गया तो वह पत्नी इतनी आई रोई, इतना शोरगुल मचाया।
मैंने कहा: तू किसलिए रोती है? तू जो चाहती थी वह हो गया। तू रोती किसलिए है, तूझे खुश होना चाहिए। तो एकदम चैंकी...आप क्या कहते हैं? मैंने कहा कि मैं वही कहता हूं कि तूने मुझसे खुद कहा था कि ये मर जाए तो अच्छा है। उसने कहा: वह मैंने क्रोध में कह दिया होगा। मैंने कहा: अभी तू जो रही है, यह दुख में रो रही होगी, कल यह दुख चला जाएगा, फिर?
वह क्रोध में था, वह क्रोध में चला गया। यह कल दुख में चला जाएगा। उसने कहा: यह कभी नहीं जा सकता दुख मेरा। कि हम सदा ही ऐसा सोचते हैं, हम सोचते हैं, प्रेम कभी नहीं जा सकता, वह भी चला जाता है। हम सोचते हैं, दुख नहीं जा सकता, वह भी चला जाता है। हम सोचते हैं, सुख नहीं जा सकता, वह भी चला जाता है। उसने कहा: कभी नहीं जा सकता, अब जिंदगी भर इस दुख में दुखी रहूंगा। तो ठीक है, लेकिन कभी याद रखना इस बात को।
यदि तू कह ले, कहने लगे कि वह मैंने दुख में कह दिया, तब फिर बड़ा मुश्किल है कि तू कभी बोली है कि नहीं, कभी तू क्रोध में बोलती है, कभी तू प्रेम में बोलती है। जब प्रेम में हम बोलते हैं, तो हम कहते हैं, हम जिंदगी भर साथ रहेंगे, सच में हम प्रेम में बोल रहे हैं? दो दिन बाद जब प्रेम नहीं रहेगा, तो हम कहेंगे, वह प्रेम में बोल दिया था, उसमें कोई मतलब न रहा। और हम भी कभी बोले हैं। उसने कहा कि नहीं, यही मैं खुद बोल रही हूं। आप कैसी बातें कर रहे हैं? मेरे पति मर गए हैं और आप इस तरह की बातें कर रहे हैं, मैं इतनी दुखी हूं।

तो शाश्वत क्या होगा?


शाश्वत कुछ भी नहीं है। परिवर्तन ही शाश्वत है। शाश्वत की आकांक्षा ही हमारा भ्रम है। पता नहीं कि छुटकारा हो। मैं कहता नहीं कि छुटकारा हो, क्योंकि यह छुटकारे की बात भी हमारे किसी दुख के क्षण में हो जाती है। जब हम आनंद के क्षण में होते हैं तब हम जोर से पकड़ लेना चाहते हैं। छुटकारा-वुटकारा बिल्कुल नहीं चाहते। विषाद के क्षण में छुटकारा बोलने लगते हैं। जब विषाद का क्षण होता है, हम कहते हैं, छुटकारा कैसे हो? असफलता का क्षण होता है, कहते हैं, छुटकारा हो कैसे हो? सफलता के क्षण में, आनंद के क्षण में हम कहते हैं, कैसे सदा बंधे रहे, छुटकारा कभी न हो। नहीं, मैं यह कह रहा हूं कि यह समझना पड़ेगा कि आपकी ये सब आवाजें सब आपकी हैं। ये सब आवाजें इकट्ठी आपकी हैं। ये छुटकारे की आवाज भी आपकी है और ये सदा बंधे रहने की आवाज भी आपकी है। ...ये सब आवाजें आपकी हैं। ये जिंदा रहने की आवाज भी आपकी है और कल मरने की इच्छा भी हो सकती है, वह भी आपकी है। ये सब विरोधी सब आपकी हैं। और इसमें कोई भी एक आपकी नहीं है, ये सब आपकी हैं।
हम क्या करते हैं, जब एक आवाज होती है तब हम उसके साथ आइडेंटिफाइड करते हैं कि यह मैं हूं। जब मैं दुख में होता हूं तो मैं कहता हूं ऐसा मैं जिंदगी भर दुखी रहूंगा, अब मैं कभी सुखी नहीं हो सकता। यह दुख बोल रहा है, यह मैं नहीं बोल रहा हूं। यह मुझ पर छाया हुआ दुख का क्षण बोल रहा है। जब मैं सुख में होता हूं, तब मैं दूसरी बात बोलूंगा। प्रेम में कुछ और बोलूंगा, क्रोध में कुछ और बोलूंगा। ये सब मेरी आवाजें हैं। लेकिन इनमें से कोई आवाज मैं नहीं हूं। हमारी गलती है कि हम हरेक आवाज को जब वह हमारे ऊपर होती है हम कहते हैं मेरी आवाज। उसे हम कहते हैं, यह मेरी आत्मा है इस वक्त, मेरा सेल्फ है। इसमें कोई हमारा सेल्फ नहीं है।
जैसे नदी बह रही है, वह एक वृक्ष के नीचे से गुजरती है, तो उसकी वृक्ष की पराछाई बनती है उसमें, नदी उस वक्त सोच सकती है कि मैं वृक्ष हूं, और वह सोच भी नहीं पाई है कि बह गई और एक चट्टान के पास से गुजर गई, और चट्टान की छाया बन रही और नदी सोचती है कि मैं चट्टान हूं, और वह सोच भी नहीं पाई कि वह बह गई, और अब वह बादलों के नीचे से गुजर रही है और बादलों की छाया बन रही है और नदी सोचती है कि मैं बादल हूं, और एक पक्षियों की कतार निकल गई उसकी छाती पर से और चमक गई और उसने सोचा कि मैं पक्षी हूं। न, इनमें से कोई भी नदी एक नहीं है।

तो नदी क्या है?

हां, नदी सारे बहाव का जो भी प्रतिफलन है, उस सबका जोड़ है। इस सबका एक अर्थ में वह उस चट्टान से भी एक है जो उसमे झलक गई है, उस वृक्ष से भी जिसने उसमें फूल गिरा दिए और पक्षियों की उस कतार से भी जो उसके ऊपर से पार हुई है। उस सूरज से भी, उस पृथ्वी से भी, उस रेत से भी, और उस आदमी से भी जो उसमें स्नान कर गया और उस बांसुरी बजाने वाले से भी जिसने गीत गाया, वह नदी उन सबसे एक है। और जिस दिन नदी समग्र की एकता को जान पाएगी, उस दिन नदी की फिर कोई आकांक्षा नहीं है कि ऐसा ही हो। क्योंकि तब वह जानती है कि ऐसा ही होने का मतलब मरना होगा। अगर वह ऐसा सोचेगी कि वृक्ष ही मैं हो जाऊं तो फिर चट्टान न हो सकेगी। और फिर पक्षियों की कतार न हो सकेगी। और फिर गिरता हुआ फूल न हो सकेगी, बांसुरी की आवाज न हो सकेगी, फिर रेत और सागर, यह सब कुछ भी न होगा, फिर बादल और सूरज यह कुछ भी न होगा, फिर वह चट्टान ही हो जाएगी, फिर वह नदी न रह जाएगी। जिस दिन नदी ऐसा समझ ले कि वह यह अनंत प्रवाह के बीच आए सभी प्रतिबिंब है वह, सभी प्रतिबिंबों से, तब बहाव सहज हो जाएगा, तब कहीं ठहरने का सवाल नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि तब वह झाड़ की तरफ देखेगी नहीं। न, जब गुजरती होगी तो पूरी तरह देख लेगी और बहुत प्रेम से देख लेगी, क्योंकि हो सकता है दुबारा गुजरना न हो। मतलब यह नहीं है कि वह आंख बंद कर लेगी कि अब झाड़ से क्या मतलब हमें जब हम झाड़ नहीं हैं। जब हम चट्टान नहीं हैं हमें चट्टान से क्या मतलब। वह जो मैं फर्क कर रहा हूं, वैराग्य की भाषा हमें सिखाती है कि जब तुम चट्टान से गुजर ही जाना है, तो चट्टान से क्या मतलब। मोह मत बांधो।

यह सब होने पर भी नदी भी है, वृक्ष होने पर, बादल होने पर, पक्षी होने पर वह नदी भी है।

यह जो हम कहते हैं कि नदी भी है, इसका मतलब कुछ ऐसा हो जाता है कि अगर इस सबको हम निकाल लें तो भी नदी होगी। नहीं, ऐसी कोई नदी नहीं होगी। हां, मैं नहीं हूं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पस्ट नहीं। )

अगर हम सब निकाल लें तो कुछ भी न होगा वहां। वह सबके ही प्रवाह के जोड़ में ही घटी घटना है। वह एक संहार है जैसा बुद्ध कहते हैं कि वह एक संहार है। वह बहुत चीजों का जोड़ है। ऐसी बहुत चीजों का जो हमें पता भी न हो वे भी उसमें जुड़ी हो सकती हैं। उसमें परमात्मा और मोक्ष और निर्वाण और जो हमें पता भी न हो, उनके भी प्रतिबिंब उसमें बन रहे होंगे, वे भी जुड़े हो सकते हैं। लेकिन नदी है...सबसे अलग करके आइसोलेटिड कहीं भी नहीं है। आइसोलेशन में कोई एंटीटी नहीं है। और वह हमारा पक्का भ्रम है। वह भी हमारा शाश्वत का भ्रम है, क्योंकि हम कहते हैं चट्टान तो बीत जाएगी, रेत तो बीत जाएगी। आज तट है कल तट नहीं होगा, आज वृक्ष हैं कल वृक्ष नहीं होगा। आज एक बांसुरी बजाने वाला है, कल नहीं होगा। मुझे तो होना चाहिए, जब कुछ भी नहीं होगा तब भी मुझे तो होना चाहिए। जब बिल्कुल कुछ नहीं होगा मोक्ष होगा, तब भी मुझे तो होना चाहिए। सब शून्य होगा फिर भी मैं तो रहूंगा।
वह भी हमारी...जीवन में हम पराजित हो गए हैं शाश्वत को पाने से, तो हमने जीवन में शाश्वत की तो खोज छोड़ दी, अब अपने में ही शाश्वत को पकड़ लिया। तो मैं तो शाश्वत हूं। न होगा प्रेम शाश्वत, जाने दो; न होंगे फूल शाश्वत, जाने दो, लेकिन मैं, मैं तो शाश्वत हूं। लेकिन शाश्वत की आकांक्षा क्या? शाश्वत का प्रयोजन क्या? शाश्वत होने का मतलब क्या? असल में होना ही, होना मात्र ही परिवर्तन है। होने का अर्थ भी परिवर्तन में है। सच तो यह है कि है, इस जैसी कोई चीज नहीं है होना। होने जैसा है कुछ।
पहली दफा बर्मी भाषा में बाइबिल का अनुवाद किया, तो शब्द उनको बड़े कठिनाई के पड़ गए। गॅाड इ.ज, यह कैसे अनुवाद करें। ईश्वर है, क्योंकि बुद्ध के प्रभाव में जहां-जहां भाषाएं विकसित हुई हैं वहां...नहीं है। वहां टेबल है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, वहां टेबल हो रही है। उस भाषा का जो रूप होगा वह ऐसा ही होगा, क्योंकि टेबल है यह भी ठीक नहीं है। बच्चू भाई हैं यह ठीक नहीं है, बच्चू भाई हो रहे हैं। नदी है बहाव, और है का मतलब है ठहराव। ये कंट्राडिक्ट्री ट्रम्स हैं। नदी है, यह शब्द उपयोग करना ही गलत है। नदी का मतलब ही है कि जो है कभी नहीं, सदा हो रही है। किसी क्षण भी जिसको हम नहीं पकड़ पाएंगे। हां, सदा प्रवाह में है, सदा होने में ही है। और है कि स्थिति में कभी भी नहीं आती। यह जो ख्याल में हमारे आ जाए, तो फिर भीतर भी शाश्वत की आकांक्षा नहीं है, बाहर भी नहीं है। तब ही हम जिसको एक्सेप्टेंस कह रहे हैं, वह फलित होगा, फिर हमें करना नहीं पड़ेगा, फिर कोई उपाय नहीं है। फिर ठीक है फिर नदी जानती है कि चट्टान झलकेगी और फिर नहीं भी झलकेगी। बांसुरी सुनाई पड़ेगी फिर नहीं भी सुनाई पड़ेगी। तट मिलेगा और छूटेगा भी। ये दोनों तो स्वीकृत हैं और यह नदी का होना ही हो गया। इसलिए अब इस होने में उसे कोई विरोध भी नहीं है। तट आता है तो प्रेम है, तट विदा हो जाता है तो दो आंसू भी गिरते होंगे और वह बह जाती होगी।
इतनी सरलता से अगर हमें सब दिखाई पड़ने लगे, तो वह जो आप पूछते हैं कि हम कैसे जीएं, वह सवाल गलत है। कैसे जीने में सदा हम जीवन पर अपने को थोपने की आकांक्षा लिए हैं। नदी नहीं पूछती कि कैसे हम बहें? बहती है क्योंकि बहना नदी का होना है। यह नहीं पूछने का सवाल है कि हम कैसे? आदमी पूछता है कि हम कैसे जीएं? यानी वह यह कहता है कि जीवन पर्याप्त नहीं है। हमें उसे ढंग देना होगा, व्यवस्था देनी होगी, मार्ग देना होगा, लक्ष्य देना होगा, उद्देश्य देना होगा, और हम बड़े खुश होते हैं। अगर कोई आदमी हमको ऐसा मिलता है जो लक्ष्य दे सकता है, उद्देश्य दे सकता है, कह सकता है वहां पहंुचो, यह पाओ, यह करो, हम बड़े प्रसन्न होते हैं। हम कहते हैं यह आदमी है इसके पीछे चलने जैसा है। सब गुरु इसी भांति पैदा हुए। उन्होंने कहा कि ऐसे जीयो। उन्होंने बताया कि यह ढंग है जीने का। जिंदगी के ऊपर भी कुछ थोपो और ढांचा बनाओ और वह सब ढांचे हमें दुख में डाल देंगे।

इससे निष्क्रियता नहीं आ जाएगी?

हां, हमेशा हमें लगता है ऐसा, पर मेरा ख्याल यह है कि इससे सक्रियता सहज होगी सिर्फ, निष्क्रियता नहंीं आ जाएगी। क्योंकि निष्क्रियता भी गलत सक्रियता का परिणाम है, रिएक्शन है।
यानी एक आदमी बहुत दौड़ा, इतना दौड़ा कि थक कर गिर पड़ा, लेकिन एक आदमी धीरे-धीरे चला, इतना चला कि कभी थका नहीं, कभी गिरा नहीं। और मेरा मानना है कि वह जो बहुत दौड़ा है पीछे पड़ जाएगा, और वह जो बहुत धीमे चला है और कभी नहीं दौड़ा और कभी सक्रिय नहीं मालूम पड़ा, बहुत सीघ्र आगे निकल जाएगा। क्योंकि कभी भी दौड़ इतनी नहीं कि निष्क्रियता में ले जाए, असल में दौड़ की अति निष्क्रियता मेें ले जाती है।
तो जो मैं कह रहा हूं, उससे गति धीमी होगी, निष्क्रिय नहीं। लेकिन सहज सक्रियता होगी, सहज और सरल हो जाएगी। और कोई भाग नहीं रह जाएगी। लेकिन अंततः अगर हिसाब-किताब कभी कोई करने बैठेगा, तो दौड़ने वाले पीछे पड़ जाएंगे और यह जो सहज धीरे चले थे बहुत आगे निकल जाएंगे।
मैं एक कहानी कहता रहा हूं। कोरिया में एक वृद्ध भिक्षु एक नदी पार कर रहा है एक नाव से। वह उसके साथ एक युवा भिक्षु है। और नदी के पार पहंुच कर जैसे ही नाव बांधी है मांझी ने, तो उन्होंने उस बूढ़े से पूछा है कि गांव कितना दूर है, क्योंकि हमने सुना है कि सूरज ढ़लते ही गांव का द्वार बंद हो जाएगा और सूरज ढल रहा है। कितनी दूर है? हम पहंुच पाएंगे कि नहीं? उसने नाव बांधते हुए कहा, कि धीरे गए तो पहंुच भी सकते हो।

धीरे का मतलब संतोष तो नहीं?

न, बिल्कुल नहीं। मेरा मतलब जल्दी मत निकलाना। संतोष से बिल्कुल नहीं। न, संतोष से बिल्कुल नहीं। उस बूढ़े मांझी ने कहा कि धीरे गए तो पहंुच भी जाओगे! अब ऐसे पागल की बात कौन सुने। उन्होंने सोचा कि पागल, इसकी बात में पड़े तो गए, क्योंकि जब यह कहता है धीरे गए तो पहंुच भी जाओगे! तो भागे, फिर उन्होंने उससे पूछा भी नहीं। सांझ हो रही है, सूरज ढला जा रहा है। वे तेजी से भाग रहे हैं, क्योंकि द्वार बंद हो गया तो जंगल में रह जाना पड़ेगा। पहाड़ी रास्ता है, फिर सूरज एकदम ढलने के करीब हो गया है। तब वे और तेजी से भागे। फिर वह बूढ़ा गिर गया और उसके घुटने टूट गए और लहू बह रहा है, उसकी सब किताबों के पन्ने बिखर गए हैं जो वह सिर पर लिए था।
फिर वह मांझी पीछे से गीत गाता हुआ आ रहा है, वह पास खड़े होकर खड़ा हो जाता है। और उसने कहा: मैंने कहा था, क्योंकि मेरा बहुत दिन का अनुभव है। रोज ही सांझ यहां कोई उतरता है और रोजी ही कोई मुझसे पूछता है कि कितनी दूर है, पहंुच जाएंगे न सूरज ढलते? तो मेरा निरंतर का अनुभव यह है कि जो धीरे जाते हैं वे पहंुच भी जाते हैं। रास्ता बहुत बीहड़ है, जो तेजी से जाते हैं अक्सर गिर जाते हैं। लेकिन मेरी बात उस वक्त ठीक नहीं लगती, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि धीरे गए तो कैसे पहंुचेंगे?
क्योंकि हमारा पहंुचने का ख्याल ही तेज जाने वाले से जुड़ा हुआ है। लेकिन कुछ मुकाम ऐसे भी हैं जहां धीरे जाने से पहुंचते हैं। और कुछ मुकाम ऐसे हैं जहां जाने से कभी पहंुचते ही नहीं, जहां न जाने से ही पहंुच जाते हैं। पर उन मुकामों का हमें कोई पता नहीं। सक्रियता जो है वह आपकी चेष्ठा नहीं है, सक्रियता आपके भीतर शक्ति का सहज प्रकटन है। आपकी चेष्टा नहीं है, आप अपनी चेष्टा से सक्रिय नहीं हैं। और अगर आप बिल्कुल सहज हो जाते हैं तो आपके भीतर की जो शक्ति है वह आपको सक्रिय रखेगी। लेकिन वह सक्रिय होना उतना ही होगा जितनी शक्ति होगी, उससे ज्यादा कभी नहीं होगा। इसलिए रिएक्शन की निष्क्रियता कभी भी नहीं आएगी। इसलिए कभी थकेंगे नहीं। क्योंकि थकने के पहले शक्ति वापस लौट जाएगी। चेष्टा तो उसमें है नहीं, जितना है उतना है, उतना आप करते हैं श्रम, थक जाते हैं, विश्राम पर चले जाते हैं, फिर सुबह उठ आते हैं, फिर काम करते हैं, फिर विश्राम पर चले जाते हैं। और चूंकि कहीं पहंुचना नहीं है इसलिए जल्दी का कोई सवाल नहीं है। जहां हम हैं वहां जितनी देर रहें, फिर जितनी देर जहां होंगे वहां होंगे।
जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि जिंदगी की अपनी सक्रियता है, आपको उसे देने की जरूरत नहीं। और आदमी ने जितनी सक्रियता दी, उसमें सिर्फ बीमारी है। सिर्फ बीमारी लाई है, उससे चित्त रुग्ण हुआ है, विक्षिप्त हुआ है, परेशान हुआ है और कुछ भी नहीं हुआ।
आदमी के द्वारा लाई गई सक्रियता के दो परिणाम हैं: या तो सक्रियता इतनी बढ़ जाती है कि रुग्ण और विक्षिप्तता हो जाती है, या सक्रियता का अंतिम फल एकदम सब निष्क्रियता में परिवर्तित हो जाता है कि आदमी निढाल होकर पड़ जाता है कि अब कुछ भी नहीं करने को है, कुछ नहीं करना है। ये दो ही फल हो सकते हैं। लेकिन सहज सक्रियता बिल्कुल और बात है। उसका मतलब यह है कि जितना होता है होता है, जितना चलते हैं चलते हैं और थक जाते हैं तो विश्राम करते हैं, फिर चलते हैं फिर विश्राम करते हैं। न कहीं पहंुचने की जल्दी है, न कहीं से भागने की जल्दी है। भोगी को कहीं पहंुचने की जल्दी है, त्यागी को कहीं से भागने की जल्दी है। और इसलिए दोनों बड़ी तेजी में सक्रिय हैं।
भोगी कहता है, वहां पहंुचना है..वह बड़ा मकान बना लेना है, वह बड़ी कार ले लेनी है, वह बड़ा पद ले लेना है। और त्यागी कहता है..इस मकान से जितनी दूर भाग जाएं भाग जाएं, इस कार से जितनी दूर निकल जाएं, निकल जाना है, कहीं ऐसा न हो कि मन लोलुपता से भर जाए और गाड़ी में बैठ जाएं, तो भाग जाना है। वे दोनों भाग रहे हैं।
तो धार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं जो भाग ही नहीं रहा, जो चल रहा है। चल रहा मतलब यह है कि जितना जिंदगी चला रही है चल रहा है, नहीं चला रही नहीं चलता है। विश्राम करा रही है तो विश्राम कर रहा है। अपनी तरफ से कोई सक्रियता थोपने की जरूरत नहीं है। न कोई मेथड, क्योंकि जिंदगी का क्या मेथड हो सकता है, सिर्फ मरने के मेथड हो सकते हैं। अगर कोई आदमी पूछे कि हम मरने के लिए क्या करें, तो मेथड बताए जा सकते हैं कि पहाड़ से कूदो कि जहर खाओ कि छुरी मार लो। मरने के मेथड हो सकते हैं, जिंदा रहने का क्या मेथड हो सकता है। जिंदगी इतनी अनंत है कि मेथड हो ही नहीं सकता।
और अगर किसी ने अगर जिंदगी में मेथड का उपयोग किया, तो किसी न किसी अर्थ में मरने की तरकीब हो गई। क्योंकि बहुत सी जिंदगी छूट जाएगी। मेथड तो थोड़ा सा ही पकड़ पाता है। इसलिए मरने का मेथड हो सकता है कि छुरा मार लिया, लेकिन जीने का कैसे होगा? जीना बहुत बड़ी घटना है, उसका कोई मेथड नहीं हो सकता। अनंत रूपों में, अनंत और असीम है, और रोज नई है, प्रतिपल नई है, उसका पक्का भी नहीं है कुछ कि कल क्या होगा? सुबह क्या होगा? इसलिए जिंदगी जीयी जा सकती है, विधि नहीं पूछनी चाहिए।
और सारी विधि छोड़ देंगे तो भी जीएंगे, करेंगे क्या? भागेंगे कहां? जाएंगे कहां? अगर समझ लें सारी विधि छोड़ दूं, सारा लक्ष्य छोड़ दिया, कहीं पहंुचने का ख्याल न रखा, कुछ करने की बात न रखी, तो क्या समझते हैं मर जाएंगे? तो जीएंगे लेकिन तब जीना अत्यंत सरल और सहज हो जाएगा, तब अभी और यहीं हो जाएगा, फिर कोई उपाय नहीं रहेगा कल का और परसों का, अभी और यहीं हो जाएगा, फिर जीएंगे, फिर भी जीना होगा। लेकिन वह जीना तब फिर भीतर से होने लगेगा, जितना हो सकेगा होगा, नहीं हो सकेगा नहीं होगा। बात दौड़ न रह जाएगी
एक गाय चली जा रही है रास्ते पर, यह भी एक जाना है, और एक गाय को लगाम बांध कर एक आदमी लिए जा रहा है, यह भी एक जाना है, और एक गाय को पीछे से कोई डंडे मार रहा है, यह भी एक जाना है। लेकिन जब गाय को कोई रस्सी से बांध कर लिए जा रहा है तो यह लक्ष्य से बंधा हुआ आदमी का प्रतीक है। आगे से कोई खींच रहा है, वहां पहंुचना है, दिल्ली पहंुचना है, कहीं और पहंुचना है। वह लगाम से जुती हुई गाय का प्रतीक है। अगर कोई पीछे से कोई धक्का मार रहा है कि यहां से भागना है, यहां नहीं रहना है चाहे और कहीं भी चले जाएं।
जिसको हम त्यागी कहते हैं वह पीछे है। डंडे जिसको मारे जा रहे हैं कि यहां नहीं रहना, यह पत्नी, ये बच्चे, यह घर, यह गृहस्थी, यह दुकान, यहां नहीं रहना है, और कहीं। यानी उसे कहीं जाने का उतना सवाल नहीं है जितना यहां से जाने का सवाल है, जितना छोड़ने का सवाल है। लेकिन एक गाय है जो अपनी मौज से चली जा रही है। कभी लौट भी आती है, कभी इस कोने पर चली जाती है, कभी उस कोने पर चली जाती है। कभी नहीं भी जाती है, वृक्ष के नीचे विश्राम भी करती है, कभी आंख बंद करके सो भी जाती है, न कोई खींचने वाला है, न कोई भगाने वाला है।
इसे मैं सहज जिंदगी का प्रतीक कहता हूं। और इतनी ही सहज जिंदगी हो, तो ही हम जीवन के पूर्ण अर्थ को, पूर्ण आनंद को जिसमें दुख समाविष्ट है, जिसमें अर्थहीनता समाविष्ट है। जीवन के पूरे सत्य को जिसमें जीवन के सपने समाविष्ट हैं उपलब्ध होते हैं। खंड करके नहीं उपलब्ध होते कि सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं और असत्य विदा हो जाता है। नहीं, ऐसा नहीं हो जाता है कि दुख विदा हो जाते हैं और सुख को उपलब्ध हो जाते हैं। नहीं, दुख और सुख दोनों एक ही चीज के पहलू हो जाते हैं। और हम दोनों में जी पाते हैं और दोनों किनारों के बीच से बह पाते हैं। उतना बहाव लक्ष्य नहीं है जिंदगी का, जिंदगी एक बहाव है, बहाव में बहुत लक्ष्य आते हैं, वह बिल्कुल दूसरी बात है, उससे कुछ बहुत पड़ाव आते हैं, वह बिल्कुल दूसरी बात है, लेकिन लक्ष्य नहीं। और इसलिए जिंदगी बहुत टेढ़ी-मेढ़ी है, जिग.जैग, सीधा सीमेंट रोड़ की तरह नहीं है। क्योंकि सीमेेंट रोड़ को कहीं जाना है तो वह सीधा जाता है। तो भी जितना...उतना लंबा इसका फासला हो जाएगा तो सीमेंट रोड़ शार्टकट होता है। लेकिन नदी जिग.जैग जाती है, उसी कहीं पहंुचना नहीं है, सागर पहंुच जाती है यह बिल्कुल दूसरी बात है, बिल्कुल दूसरी बात है। उसे कहीं पहंुचना नहीं, बहने का आनंद है, वह बहती है, बहती है, और जहां रास्ता मिलता है वहीं बह जाती है। कभी इस वृक्ष के किनारे से गुजरती है, कभी वापस भी लौट आती है, कभी चक्कर भी लेती है। कोई जल्दी नहीं है कहीं पहंुच जाने की, कोई जल्दी नहीं है।
जिंदगी है तो नदी की धार की तरह जिग.जैग, और हम जो जिंदगी बना रहे हैं वह जिंदगी एक सीमेंट रोड़ की तरह है, रेल की पटरियों की तरह है साफ-सुथरी, सीधी बिल्कुल, पटरियों से नीचे उतरना नहीं और चले जाना है तो कोई...कहीं न कहीं रेल के डिब्बे जैसे पहंुचते हैं वैसे ही पहंुचेंगे। इसलिए लक्ष्य भी नहीं, उद्देश्य भी नहीं, जीना काफी है, पर्याप्त।

डिटरमिनिज्म है कि नहीं?

असल में वह पूछना ही अर्थहीन है। अर्थहीन इसलिए है कि हमें यह नहीं दिखाई पड़ता न ख्याल में, हमें लगता है कि भाग्य डिटरमिनिज्म दि फ्रीडम की स्वतंत्रता। ये हमने दोनों तोड़े हुए हैं, और ये एक ही चीज के हिस्से हैं। अगर आदमी जिंदगी से अलग है तो ही फ्री हो सकता है, और तो ही डिटरमिंड हो सकता है। और अगर जिंदगी के साथ एक हैं तो फ्रीडम का क्या मतलब है और डिटरमिनिज्म का भी क्या मतलब है? कोई मतलब नहीं है। कि अगर मैं अलग हूं जिंदगी से, तो दोनों बातें संभव हैं..या तो मैं स्वतंत्र हूं और या मैं परतंत्र हूं। स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों में मेरा अलग अस्तित्व स्वीकृत है।
लेकिन मैं यह कह रहा हूं कि मेरा कोई अलग अस्तित्व कहां है, तो स्वतंत्र किससे हो जाऊं और परतंत्र किसका हो जाऊं। मेरा मतलब आप समझे न? यह मेरा हाथ मुझसे स्वतंत्र है या परतंत्र है? यह मेरा हाथ मुझसे स्वतंत्र है कि परतंत्र है? अगर मैं इसे स्वतंत्र कहूं तो यह मुझसे अलग होगा, और परतंत्र कहूं तो भी मुझसे अलग होगा, लेकिन यह हाथ मैं ही हूं। इसकी स्वतंत्रता-परतंत्रता का कोई मतलब नहीं है क्योंकि ये मुझसे अलग नहीं है कि मेरे परतंत्र हो जाए या मुझसे स्वतंत्र हो जाए। मैं इससे अलग नहीं हूं कि इससे स्वतंत्र हो जाऊं कि इससे परतंत्र हो जाऊं, ये हम एक हैं। तो मेरी दृष्टि में दोनों ही गलत हैं। वे जो फ्रीडम वाले लोग हैं, वे कहते हैं, सब स्वतंत्र हैं और जो कहते हैं कि डिटरमिनिज्म है, सब बंधा हुआ है, सब प्रारब्ध है। वे दोनों ही गलत हैं। क्योंकि दोनों ही एक ही बिंदु पर खड़े हैं कि आदमी अलग है कि आत्मा अलग है। उस पर दोनों का भाव खड़ा हुआ है। परंतु दो व्याख्याएं हैं उसकी। लेकिन मैं उस भाव को ही नहीं मानता कि आदमी अलग है।
मैं कहता हूं, सब एक है। इसलिए यहां जो सत्य है वह इंटरडिपेंड्स है। सत्य जो है न इनडिपेंड्स और न डिपेंड्स। गहरे से गहरा सत्य जो है वह है इंटरडिपेंड्स, परस्परतंत्रता। न तो स्वतंत्रता, न परतंत्रता, हो ही नहीं सकती दोनों चीजें। ये दोनों चीजें परस्परतंत्रता को दो हिस्से में तोड़ना जैसे जन्म-मृत्यु को तोड़ना है दो हिस्सों में।
हम सब परस्परतंत्र में, एक परस्परतंत्रता है...ऐसा कहना चाहिए। एक इंटरडिपेंड्स है सारे अस्तित्व की, जिसमें हम हैं। अब एक लहर उठी है पानी पर, कहना मुश्किल है, कि हवाओं ने लहर को उठा दिया कि चांद ने लहर को उठा दिया, कि किसी बच्चे ने किसी किनारे पर पत्थर फेंका है और लहर उठीं। इससे उलटा भी संभव है कि लहर उठी इसलिए हवा को हिल जाना था। इससे उलटा भी संभव है कि लहर ने बच्चे को पुकारा और उसे पत्थर फेंकना पड़ा। यह सब संभव है, मेरा मतलब समझे न आप। बच्चे ने पत्थर फेेंका और लहर उठ गई है ऐसा नहीं है। लहर ने बच्चे को पुकारा और पत्थर फेंकना पड़ा यह भी संभव है। कई दफा लहर आपसे पत्थर फिंकवा लेती है। लहर भी, आप ही पत्थर फेेंक कर लहर उठाते हैं ऐसा नहीं, बहुत बार लहर भी आपसे पत्थर फिंकवा लेती है। किनारे पर बैठे हैं और पत्थर फिंकने लगता है। कोई काम नहीं है, कोई आसार नहीं है। सारा जगत इतना अंतरनिर्भर है कि कह सकते हैं कि इस बगिया में जो फूल खिला है अगर वह आज न खिलता तो हम यहां न होते और कठिन नहीं है यह मामला। कोई कठिन इतना अंतरनिर्भर है कि बगिया में जो फूल खिला है, जिसको हमने देखा भी नहीं है, पास हम गए भी नहीं। वह अगर आज यहां न खिलता तो शायद आज हम यहां न होते। क्योंकि उस फूल के खिलने में जगत की सारी स्थितियां उतनी ही समाविष्ट हैं जितने हमारे यहां होने में। और वह जाल इतना बड़ा है अंतरनिर्भरता का जाल, परस्परनिर्भरता का जाल इतना बड़ा है कि मस्तिष्क उसमें डांवाडोल होकर टूट जाए। इसलिए हमने सुविधापूर्ण व्यवस्था की है कि या डिपेंड्स या इनडिपेंड्स जो है। दो बातें ही सुविधापूर्ण हैं कि आदमी स्वतंत्र है कि परतंत्र। यह बड़े सस्ते से मामला हल हो जाता है, लेकिन मामला हल करना नहीं है। मामला क्या है यह जानना है।
मैं हल करने को उतना उत्सुक नहीं हूं। हल करने की उत्सुकता पांच हजार वर्ष से चलती बनी आ रही है कि हमको हल कर लेना है मामले को। तो हल करने में हम सिर्फ साफ-सुथरे कंसेप्ट बनाने की फिकर में लग जाते हैं।

ंककमक तिवउ इववा . ांीं ांीनद ने कमे ाप रु3
 मुझे इसकी फिकर नहीं है। अगर मामला है, तो हमें जान लेना है, और ऐसा भी मामला हो सकता है जो हल ही न होता हो। तो इसको भी जान लेना है। सब मामले हल होना चाहिए, ऐसा भी क्या है? और अंततः तो जीवन का जो पूर्ण मामला है, वह हल नहीं हो सकता; उसका कोई थियोरीटिकल साल्यूशन नहीं हो सकता। तब एक ही रास्ता हो सकता है कि हम उस पूरे मसले को जान लें, कि ऐसा है। और उस ऐसा है को जान लेने में एक हल उपलब्ध होगा जो जीवन का हल होगा, सिद्धांत का नहीं। अगर हम इतना ही जान लें कि हम परस्पर निर्भर हैं...। और ऐसा नहीं है कि मनुष्य मनुष्य पर निर्भर है, ऐसा भी नहीं है कि सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर आपसे किसी भी तरह संबंधित नहीं है।
संबंधित हैं हम बहुत गहरे अर्थों में, और सड़क पर पड़ा हुआ पत्थर भी आपको प्रभावित कर रहा है और जरूरी नहीं है कि आप ही पत्थर को चोट मारते हों, पत्थर भी आपको चोट मारता है। तो इतना जाल घबड़ानेवाला हो जाता है, इसलिए हम सुविधापूर्ण सिद्धांत तैयार करते हैं। सुविधापूर्ण सिद्धांत दिक्कत डाल देते हैं, कठिनाई डाल देते हैं। हमने सब तरफ ऐसा ही कर लिया है कि यह आत्मा रही, यह शरीर रहा, इससे सिद्धांत बना लिया, इससे सुविधा है।
और सचाई बहुत उलटी है। सचाई यह है कि तय करना मुश्किल है कि कहां शरीर खत्म होता है और कहां आत्मा शुरू होती है! शरीर को गड़ा हुआ कांटा आत्मा को नहीं गड़ता है, ऐसा कहना कठिन है। और आत्मा पर लगी चोट शरीर पर नहीं सही जाती, कहना कठिन है। सच बात तो यह है, वे हमारे सब हिसाब हैं, जो हमने तोड़ लिये हैं। तो मैं तो ऐसा देखता हूं: कि आत्मा का जो हिस्सा दिखायी पड़ता है, वह शरीर है, और शरीर का जो हिस्सा दिखायी नहीं पड़ता, वह आत्मा है। उससे ज्यादा और कोई मतलब नहीं है।

प्रश्नः आपकी आत्मा की क्या कल्पना है?
कल्पना करता ही नहीं! कल्पना नहीं करता हूं। समष्टि है, टोटैलिटी है..आत्मा नहीं है।

प्रश्नः अपना प्रेक्षक भाव है?

प्रेक्षक भाव कैसे जोड़ेंगे आप? आप हैं कहां? आप प्रेक्षक हैं, ऐसे हैं कहां आप? अपने को तोड़ेंगे अलग, तभी प्रेक्षक हो सकते हैं। नहीं, आप हैं कहां अलग? समझ लें, ऐसा नहीं समझ लेंगे तब तक तो आप कर रहे हैं कुछ। ऐसा है..यह समझना पड़ेगा। अपने को हम किसी न किसी तरह कर्ता-भाव से मुक्त नहीं कर पाते। यानी हमें ऐसा लगता है, कुछ तो हमें करने दो। इतना ही करने दो कि हमने समझ लिया कि ऐसा है, लेकिन हम मौजूद हों और समझानेवाले मौजूद हों। कम से कम इतना तो करने दो कि हम प्रेक्षक बने देख रहे हैं! हम अलग खड़े हैं।
यह सब है, लेकिन हम इसके साथ इकट्ठे हैं। तो हम अपने को खोना नहीं चाहते। बुद्ध ने एक बहुत अदभुत बात कही है। बुद्ध ने कहा है कि स्वयं के होने का मोह, स्वयं को बनाये रखने की तृष्णा गहरी से गहरी तृष्णाएं हैं। बाकी सब तृष्णाएं छूट जाती हैं अगर किसी की, तो भी वह तृष्णा नहीं छूटती कि मैं हूं। और मजा यह है कि मैं हूं तो फिर उससे सारी तृष्णाएं पैदा होने ही वाली हैं। क्योंकि अगर मैं हूं तो मेरा मकान क्यों नहीं है! और अगर मैं हूं, तो मेरी पत्नी क्यों नहीं है! और अगर मैं हूं तो मेरा बेटा क्यों नहीं है! और अगर मैं हूं, तो मेरी पत्नी क्यों नहीं है! क्योंकि जब ‘मैं’ हूं, तब फिर ‘मेरा’ भी निकलेगा। वह ‘मैं’ के बीच से ‘मेरा’ फैलेगा और ‘मेरे’ का फैलाव होगा तो ‘तेरे’ का फैलाव होगा और फिर मेरे और तेरे का संघर्ष होगा और फिर मैं और तू का संघर्ष होगा। तब जाल फैल जायेगा पूरा का पूरा।
अगर जाल को समझ लेना है और मुक्त हो जाना है जाल के उपद्र्रव से, तो वह जो मैं की इकाई है, उसको तोड़ देने की जरूरत है गहरे में। वह वहां से सेल्फ टूट जाना चाहिए। वह वहां होना ही नहीं चाहिए। है ही नहीं वहां। अगर हम झांककर देख पायें, तो हमें सेल्फ जैसी चीज कहीं भी दिखायी नहीं पड़ेगी।
चीजें हैं अपनी समग्रता में और सब जुड़ी हैं। फिर प्रेक्षक कैसे रहेंगे जब निरोध से भय रहेगा! आप हैं कौन जो रोकेंगे? हवाएं आती हैं पूरब से, तो पूरब से आती हैं। पश्चिम से आती हैं, तो पश्चिम से आती हैं। सूरज निकलता है। लेकिन ‘ऐसा होना चाहिए’ जब तक हमारा ख्याल है, तब तक संघर्ष जारी रहता है। जैसा है..है।
लाओत्सु एक जंगल से गुजर रहा है। दस-पंद्र्रह उसके शिष्य उसके साथ हैं। पूरा जंगल कट रहा है। कोई राजधानी बन रही है नयी, तो सारे जंगल के सैकड़ों वृक्षों पर कारीगर लगे हैं और लकड़ियां काट रहे हैं। लेकिन एक वृक्ष अछूता है और इतना बड़ा है कि उसके नीचे हजार बैलगाड़ी ठहर जाती हैं। तो लाओत्से ने कहा, ‘उस वृक्ष से जरा पूछकर आओ’, अपने शिष्यों से कहा, कि ‘राज क्या है? जब सारा जंगल कटा जा रहा है, तो यह बच कैसे गया? ’ तो शिष्य थोड़ी मुश्किल में पड़े कि वृक्ष से क्या पूछें! लेकिन लाओत्से ने कहा, तो जाना पड़ा। गये। वृक्ष के चारों तरफ घूमे, लेकिन वृक्ष क्यों कहता! तो उन्होंने सोचा कि क्या किया जाये? तो आसपास वृक्षों को काटते कारीगरों से पूछ लें कि इसको क्यों छोड़ दिया है। उन कारीगरों से पूछा कि ‘इस वृक्ष को क्यों नहीं काटते हो? ’ तो उन्होंने कहा, ‘वह वृक्ष बिल्कुल बेकार है..टोटली यूजलेस।’ ‘क्या मतलब बेकार का? ’ कहा कि ‘इसकी सब लकड़ियां ऐढ़ी-टेढ़ी हैं। ये किसी काम में आ नहीं सकतीं। ईंधन भी नहीं बनता इसका, क्योंकि इतना धुआं फेंकता है कि कोई घर में ईंधन नहीं जलाता। पत्ते उसके ऐसे हैं कि कोई जानवर भी उसको खाने को राजी नहीं है! तो वह वृक्ष बिल्कुल ही बेकार है।’
वे वापस लौटे। उन्होंने लाओत्से से कहा कि ‘वृक्ष से तो हम नहीं पूछ पाये, लेकिन हमने पास के कारीगरों से पूछा, तो वे कहते हैं कि वृक्ष बिल्कुल बेकार है।’ लाओत्सु ने कहा: ‘धन्य है वह वृक्ष क्योंकि उसका बेकार होना उसका बचाव हो गया।’ उसने कहा कि ‘देखो, ध्यान रखो, कभी बहुत सीधे होने की कोशिश मत करना, क्योंकि जिंदगी तो टेढ़ी-मेढ़ी है। देखो, जो सीधे हो गये हैं, किस तरह काटे जा रहे हैं! सीधे होने की कोशिश मत करना। काम के बनने की कोशिश मत करना’, लाओत्सु ने कहा, ‘काम के बने कि मुश्किल में पड़ जाओगे..कटोगे, बुरी तरह कटोगे। यह वृक्ष बहुत अदभुत है। इससे अपना तालमेल है। इस वृक्ष से हमारी बात मेल खाती है। यह वृक्ष बहुत अदभुत है। यह जैसा हो गया, वैसा हो गया। इसने न सीधा होने की फिक्र की, न किसी के काम के होने की फिक्र की। यह बिल्कुल बेकाम है। और देखो, एक हजार बैलगाड़ियां इसके नीचे विश्राम कर सकती हैं। यह जो बिल्कुल बेकाम है यह हजार लोगों के लिए छाया बन जाता है। और वे जो काम के हैं, वे बुरी तरह कट रहे हैं!’ तो लाओत्सु ने कहा: ‘इस वृक्ष का ख्याल रखना। यह ताओ में जी रहा है, यह धर्म में जी रहा है। इसने कुछ कोशिश ही नहीं की। यह जैसा था टेढ़ा-मेढ़ा, वैसा रह गया। देखो, इसको कोई नहीं काट रहा है; इसको कोई काट ही नहीं सकता। इसके पास ही कोई नहीं आया होगा काटने!’
यह जो मैं कह रहा हूं, हम जैसे हैं और जीवन जैसा है, इसे अगर हम इसकी समग्रता में स्वीकार कर लें, इसको इसकी पूर्णता में जीने लगें, स्वीकार कर लें, तो ऐसा नहीं है कि आप निरोध में पड़ जाएंगे।
मजा यह है कि ऐसा होने से आप मोक्ष में प्रविष्ट हो जायेंगे। ऐसा व्यक्ति ही मुक्त हो सकता है, क्योंकि अब बंधने को ही कोई न रहा। वही मुक्ति है। क्योंकि बंधनेवाला ही न रहा।
दो चेष्टाएं चल रही हैं सारे जगत में। एक तो यह चेष्टा है कि हमारे पास बंधन न रह जाये। एक चेष्टा चलती है कि हमारे बंधन छूट जायें, लेकिन हम रहेंगे। तो फिर बंध सकते हैं। दूसरी चेष्टा यह है कि हम हैं या नहीं, इसको जानें। अगर हम हैं ही नहीं, तो कौन बांधेगा और कैसे बांधेगा और किसको बांधेगा! तो बंधन से छूटनेवाला तो कभी भी मुक्त नहीं है। उसकी अमुक्त होने की संभावना निरंतर शेष है। वह है अभी, वह बांधा जा सकता है। लेकिन जिसके भीतर से मैं भाव विलीन हुआ, तो अब उसको कौन बांधेगा!
डायोजनीज के जीवन में एक बहुत अदभुत घटना है। डायोजनीज एक जंगल से गुजर रहा है। नंगा रहता था और बहुत स्वस्थ और सुंदर आदमी था। असल में स्वस्थ और सुंदर आदमी ही नंगे रह सकते हैं। कपड़े कुरूपता का ही आविष्कार होने चाहिये। तो वह नंगा गुजर रहा है जंगल से। तो कुछ लोगों ने उसे देखा बड़ा स्वस्थ है। और कुछ लोग जा रहे हैं एक बाजार में गुलामों को बेचने-खरीदने। तो उन्होंने सोचा, ‘इसको पकड़ लो न। इसको भी बेच देंगे, तो दाम बहुत अच्छे आयेंगे। इतना सुंदर, स्वस्थ गुलाम मुश्किल से बाजार में कभी आया होगा!’ तो उन्होंने कहा कि ‘वह इतना तगड़ा है कि वह चार को समाप्त कर देगा! हम चार ही हैं।’ वे चार थे, तो उन्होंने कहा कि पकड़ने की कोशिश में खतरा हो सकता है, लेकिन कोशिश कर लेनी चाहिए। अगर ज्यादा झंझट होगी तो छोड़कर भाग जायेंगे।
वे चारों गये। उन्होंने बड़े डरे हुए उस पर हमला किया। लेकिन वह जल्दी से उनके बीच में ऐसा खड़ा हो गया! तो उन चारों ने उसे चारों तरफ से पकड़ लिया। उसने कुछ रेसिस्ट ही नहीं किया। फिर उसने कहा: ‘कहो, क्या इरादे हैं? ’ वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा कि ‘हम तो सोचते थे कि हमारा कचूमर निकाल दोगे। तुम तो एकदम तैयार हो गये हो! हम तुम्हें गुलाम बना कर बेचना चाहते हैं।’ तो उसने कहा, ‘ये रहे हाथ।’ उन्होंने हथकड़ियां डालीं, तो उसने सहायता की उनकी हथकड़ियां डालने में। तो वे कहने लगे, ‘तुम आदमी कैसे हो! हम तो सोचते थे कि तुम हमें मार डालोगे, हमने अगर पकड़ने की कोशिश की।’ उसने कहा, ‘अगर मैं होता, तो जरूर मारता, लेकिन अब हम रहे ही न।’ उन्होंने कहा, ‘तुम कैसे पागल आदमी हो कि अपने हाथ से हथकड़ियों में सहायता देते हो।’ उसने कहा, ‘जब तक मैं हथकड़ियां तोडूंगा, तब तक हथकड़ियों में बंधने की संभावना है। अब मैं खुद ही बांध देता हूं, तुम इसको हथकड़ी कहोगे? हथकड़ी वह है, जो दूसरा डाल दे। जिसका हम विरोध करें और इनकार करें और डाल दिया है।’ उन्होंने कहा: ‘हम तुम्हें गुलाम बना रहे हैं।’ उसने कहा, ‘तुम बना सकते हो। हम राजी हैं। लेकिन ध्यान रहे, जो राजी है, वह मालिक है। उसको गुलाम बनाना बहुत मुश्किल है।’ तो उन्होंने कहा, ‘हम चलें। हमें इससे क्या मतलब? हमें तुम्हारे गहरे दर्शन से कोई मतलब नहीं। हमें तुम्हें बाजार में बेच देना है।’
वे बाजार में ले गये, तो भीड़ लग गयी उस आदमी को देखने के लिए। और जब नीलाम की तिकती पर उसको खड़ा किया गया, तो नीलाम वालों ने जोर से आवाज दी ‘कि एक बहुत सुंदर गुलाम बिकने आया है।’ उसने कहा: ‘चुप नासमझ, इस तरह मत कहो। मैं आवाज खुद ही दिए देता हूं।’
तो डायोजनीज ने कहा, ‘एक मालिक आज बिकने आया है, जिसको खरीदना है, खरीदे।’ और वह खूब खिलखिलाकर हंसा। उस बाजार में तो बड़ा शोरगुल मच गया। और लोगों ने कहा, ‘है तो मालिक ही जैसा आदमी!’ उसने कहा, ‘एक मालिक बिकने आया है, किसी को खरीदना हो तो खरीदे। कोई गुलाम है, जो मालिक को खरीदने को तैयार हो? ’
इसको मैं कहूंगा मुक्त। मुक्त सिर्फ इस अर्थ में कि अब इसे बांधने का कोई उपाय न रहा। क्योंकि अब यह है ही नहीं। जिस अर्थ में हम हैं, उस अर्थ में यह नहीं है। जिस अर्थ में हम हैं, उस अर्थ में हम बंध ही सकते हैं। और हम बंधेंगे ही, चाहे भोग से बंधें, चाहे त्याग से बंधें, चाहे शराब से बंधें और चाहे भजन-कीर्तन से बंधें, हम बंधेंगे ही। हम बच नहीं सकते। चाहे गुरु से बंधें, हम बंधेंगे ही। चाहे घर से, चाहे आश्रम से, हम बंधेंगे। हम जिस ढंग के हैं, उस ढंग में ही बंधने की संभावना है। तो हम इस ढंग के हो जायें कि बंधने की संभावना न रहे? तो एक ही ढंग है कि हम न हो जायें। और हम ‘न’ कोशिश करके कैसे होंगे? अगर हम जान लें जीवन को, जैसा है, तो हम न हो जायेंगे। वह हमारी कोशिश नहीं हो सकती। और वह हमारा न हो जाना निर्वाण है। वह हमारा न हो जाना मुक्ति है।
अर्थहीन है यह सब, क्योंकि वे बंधन की भाषा में ही सोचे गये हैं, और कोई अर्थ नहीं है उनमें। निर्बंध है, उसका भी कहने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि बंधने को कोई नहीं रहा, मुक्त होने को कोई नहीं रहा।
इस मुक्ति की बात को अगर ख्याल ले पायें, तो जिंदगी एक बहुत दूसरे अर्थ में होगी..अपने अर्थ में; जैसी वह है, प्रगट होती है। और अभी तक हम उसको प्रगट करवाना चाहते हैं, इस अर्थ में, उस अर्थ में! तब वह ठीक है, उसी रंग में दिखायी पड़ने लगती है। लेकिन वह हमारी जिंदगी का रंग नहीं है; वह हमारी आकांक्षा का रंग है। वह हमारा राग है।
राग का मतलब रंग होता है। अंग्रेजी में राग को कलर ही कहना पड़ेगा, अटैचमेंट नहीं। वह हमारा रंग है जो हमने आकांक्षा की है, जिंदगी वही दिखा देती है। जिंदगी बड़ी तरल है। वह कहती है, जैसा चाहो वैसा हुए बिना चले जाओ। लेकिन वह जिंदगी का रंग नहीं है। वह हमारा रंग है, जो हमने डाला है। हम कोई रंग न डालें तो जिंदगी का जैसा रंग है, वैसा प्रगट होगा।
हमारे उद्देश्य, हमारा धर्म, हमारा लक्ष्य, हमारी साधना, योग, अयास, ध्यान, समाधि सब रंग डालते हैं। हम कुछ भी न डालें, हम तो रह जायें। जैसी जिंदगी है वैसे ही रह जाएं, तो जो प्रकट होगा, वह जीवन है। और वैसे जीवन को प्रभु कहा जा सकता है।

प्रश्नः सारी जिंदगी के साथ यही होता है कि जिंदगी बह रही है, उसके साथ मेरा कोई संबंध नहीं। तो यह कैसा होता है! समझ में नहीं आता। यह नहीं कि मैं समझने को उत्सुक नहीं हूं, लेकिन फिर भी मेरे कान में, मेरी आंखों में उसकी झलक नहीं दिखायी पड़ती!

नहीं दिखायी पड़ेगी। अब तुम कहते हो कि इसलिए नहीं कि मैं उत्सुक नहीं हूं। नहीं, तुम उत्सुक हो इसलिए झलक नहीं सुनायी पड़ी। तुम्हारी उत्सुकता बाधा है। समझने की उत्सुकता, समझने में सबसे बड़ी बाधा है। समझने की उत्सुकता भी क्यों है? समझ लिया, तो समझ लिया। नहीं समझा, तो नहीं समझा। समझने की उत्सुकता भी, तुम रंग डाल रहे हो उसमें। फिर जो है उसको तुम समझने के लिए भी उत्सुक हो तो मुश्किल हो जायेगी। एक फूल खिला है, तुम समझने के लिए काहे को उत्सुक हो! समझ में आ गया, आ गया; नहीं तो अपने निकल गये रास्ते से। अब तुम फूल को भी समझने के लिए खड़े हो गये हो। मुश्किल में डाल दिया!
फूल तुम्हारे समझने के लिए कभी खिला नहीं। अब तुम फूल को भी समझोगे। तब तुमको शास्त्र लाने पड़ेंगे, जिनमें सौंदर्य की व्याख्या और व्यवस्था है। जो बताते हैं कि कितना अनुपात हो तो सुंदर होगा फूल, और कैसा रंग हो तो सुंदर होगा फूल! तब तुमको शास्त्र लाने पड़ेंगे। अब तुम शास्त्र पढ़ोगे कि फूल को समझोगे? और जब तुम सारी व्यवस्था सौंदर्य की समझकर आ जाओगे, तो तुम एकदम असमर्थ हो जाओगे फूल को समझने में। क्योंकि वह तुम्हारी सारी व्यवस्था, तुम्हारा सारा ढांचा, तुम्हारा सारा कंसेप्शन बीच में खड़ा हो जायेगा। नहीं! समझ लिया तो समझ लिया; नहीं समझा तो नहीं समझा। समझने की भी जिद्द क्या है! कम्यूनियन नहीं हो पाता क्योंकि हम समझने के लिए ब.ड़े आतुर हैं। कम्यूनियन अभी हो जाएगा, यदि हम आतुर न हों। ठीक है; सुन लिया, बहुत है; समझने की क्या जरूरत है?
महावीर ने एक बहुत अच्छा शब्द प्रयोग किया है..‘श्रावक।’ श्रावक का मतलब है सुनने वाला..समझने वाला नहीं। जो सुन लेता है और चला जाता है। सवाल यह है कि सुन लिया, अब इसको समझने की क्या जल्दी है। अगर सुनने से आ गया, आ गया; नहीं आया, नहीं आया। रास्ते पर चले गये। तब तुम आतुर नहीं हो। आतुर नहीं हो, तो तुम खुले हो। जब तुम आतुर हो, तो तुम क्लोज्ड हो। जब कोई आतुर है, तो उसकी एक दिशा है। जब वह आतुर नहीं है, तो उसकी कोई दिशा नहीं है, वह डाइमेन्शनलेस है। और कम्यूनियन डाइमेन्शन में कभी नहीं होता। कम्यूनियन होता है डाइमेन्शनलेस में। तुम्हारा कोई डाइमेन्शन ही नहीं है।
जब तुम मुझे भी सुन रहे हो और एक पक्षी चिल्लाये, तो उसे भी सुन रहे हो। अगर तुम सुनने के लिए नहीं, समझने के लिए आतुर हो, तब तो कहोगे कि पक्षी बंद रहो अभी। अभी मुझे सुन रहे हो, तो कहोगे कि अभी बच्चा रोये न, अभी मुझे सुनना है। तुम सब डायमेंशन क्लोज कर रहे हो और सिर्फ एक डाइमेन्शन ओपन कर रहे हो कि मुझे सुनना है, मुझे समझना है; तुम सब तरफ से बंद कर रहे हो। लेकिन ध्यान रहे, या तो सब डायमेंशन खुले होते हैं, या सब बंद हो जाते हैं।
जैसे फूल खिला है। फूल कहे कि एक पंखुड़ी खोलना है और बाकी पंखुड़ी बंद रखना है। तो हम कहेंगे, पागल हो जायेगा यह फूल। पंखुड़ियां खुलेंगी तो सब, बंद होंगी तो सब। माइंड भी ऐसा है। सारी ‘पंखुड़ियां’ खुलती हैं, नहीं खुलतीं, तो एक नहीं खुल सकती। ऐसा उपाय नहीं है कि तुम एक खोल लो पंखुड़ी और सब कर लो बंद। इसलिए कनसनट्रेशन बाधा है, एकाग्रता बाधा है। और हम समझने के लिए कनसनट्रेशन रखते हैं कि एकाग्र करो चित्त को, यानी एक पंखुड़ी खोलो और सब बंद रखो। और कुछ सुनायी न पड़े, बस जो सुन रहे हैं, वही सुनायी पड़े। तब तुम्हें यह भी सुनायी न पड़ेगा। तुम बिल्कुल बंद हो जाओगे।
ध्यान रहे, या तो पूरे खुल सकते हो या पूरे बंद हो सकते हो। आधे खुलने, आधे बंद होने का उपाय नहीं है। तो पूरे तुम कब खुलोगे? पूरे तुम खुलोगे, जब तुम सिर्फ सुन रहे। तुमको समझना-वमझना नहीं है। कम्यूनियन की इच्छा भी बाधा है। क्यों कम्यूनियन की इच्छा है? क्या जरूरत है कि मुझे समझो! सुन लिया, इतना बहुत है। इतनी बड़ी कृपा है। चले गये। अब खुले रहे होंगे, तो समझ में आ जायेगा। बंद रहे होंगे, नहीं आयेगा। नहीं आयेगा, तो भी ठीक है। क्योंकि आने की आकांक्षा बंद करने वाली आकांक्षा है। आए ही..ऐसा क्या है! जिंदगी जितनी आ जाए उतनी बहुत है। जिसको हम सोचते हैं कि इसके कारण हमारा संवाद हो जाना चाहिए, समझ आ जाना चाहिए, वह उसकी ही वजह से नहीं हो रहा है। जिसको तुम कारण समझ रहे हो कि हम समझने को इतने तो आतुर हैं, इतने तो उत्सुक हैं, इतना सुनते हैं, इतना पढ़ते हैं, जाते हैं, यह है, वह है, सब कर रहे हैं, लेकिन समझ में नहीं आ रहा है! यह तुम कर रहे हो, इसलिए समझ में नहीं आ रहा है। इसको मत करो, तो आ जायेगा। और नहीं भी आया, तो हर्ज क्या है!
नहीं भी आया, तो हर्ज क्या है! तुम जैसे हो, काफी हो और अच्छे हो। तुम बहुत हो, लेकिन सब तरफ से हमें ईष्र्याएं पैदा करवायी जाती हैं। तुम एक पेंटर के पास जाते हो, तो कभी ऐसा नहीं सोचते कि मैं पेंटिंग करूं, क्योंकि सबको पेंटर होने का ख्याल नहीं पकड़ा है। लेकिन तुम पेंटिंग को बड़ी सरलता से देख पाते हो। पेंटर कभी नहीं देख पाता है। पेंटिंग करने के लिए आतुर व्यक्ति भी नहीं देख पाता। तुम सहज देख पाते हो। तुम एक गीत पढ़ पाते हो, लेकिन एक कवि दूसरे कवि का गीत नहीं पढ़ पाता है। तुम कोई कवि नहीं हो, तो तुम पढ़ लेते हो। समझ लिया। नहीं समझा, नहीं समझा। कुछ खोया नहीं जा रहा है। लेकिन धर्म के संबंध में उल्टी बात हो गयी है। सबको धार्मिक होना है!
कवि सबको नहीं होना है, इसलिए कविता ज्यादा गहरे तक कम्युनिकेट करती है। और पेंटर सबको नहीं होना है, इसलिए पेंटिंग ज्यादा प्राणों तक उतरती है। धार्मिक सबको होना है इसलिए महावीर, बुद्ध या इस तरह के लोगों का संदेश कम्युनिकेट नहीं हो पाता।
तो जिंदगी है चारों तरफ, बहुत जिंदगी है। और तुम तुम्हारी तरह के हो, वे उन तरह के हैं। क्या जरूरत है कि तुम मुझे समझो या किसी और को समझो। समझने की क्या जरूरत है? सुन लिया, यह भी काफी है। यह मुझ पर अनुग्रह है तुम्हारा, यह तुम्हारी कोई चेष्टा नहीं है। तुम नहीं सुनते, तो मैं क्या करता!

प्रश्नः विधायकता क्यों नहीं आती है?

विधायकता आनी ही क्यों?
वही तो मैं कह रहा हूं पूरे वक्त। विधायकता की जरूरत क्या है?

प्रश्नः घातकता आती है!

घातकता विधायकता का ही हिस्सा है। अगर विधायकता न आयेगी, तो घातकता तो आ ही नहीं सकती। घातकता और विधायकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक साथ रहते हैं, अलग नहीं रहते। विधायक आदमी घातक हो सकता है। हिंसक आदमी अहिंसक हो सकता है, अहिंसक आदमी हिंसक हो सकता है। लेकिन एक ऐसा आदमी भी है, जिसको हिंसा-अहिंसा में नहीं तौला जा सकता है, और घातक-विधायकता में नहीं तौला जा सकता। जिस पर ये दोनों तराजू लागू नहीं होते, वैसे आदमी की बात करता हूं। मैं जो कह रहा हूं, वह घातकता नहीं है, वह निगेटिव नहीं है, न वह पाजिटिव है। मैं यह कह रहा हूं, दोनों के चुनाव हमें करने ही नहीं हैं। जो है, वह है। उसको निगेटिव पाजिटिव में भी तोड़ना नहीं है।
अभी कश्मीर में महेश जी से मिलना हुआ। उन्होंने एक बहुत बढ़िया बात कही..बढ़िया कि मैं हैरान हो गया। मेरी तो पाजिटिव की बात चल रही थी, तो उन्होंने कहा, फूल तो जो है वह पाजिटिव है और कांटा जो है वह निगेटिव है। तो मैं तो हैरान ही हो गया। हमको कांटा निगेटिव लग सकता है क्योंकि दुख देता है और फूल पाजिटिव लग सकता है, क्योंकि फूल सुख देता है। लेकिन हमारा सुख पाजिटिव और हमारा दुख निगेटिव है।
दुख और सुख दोनों पाजिटिव हैं, और कांटा और फूल दोनों पाजिटिव हैं। कांटे का अपना होना है, फूल का अपना होना है, और अगर हम गौर से देखें, तो कांटा ज्यादा पाजिटिव है, फूल से भी ज्यादा। क्योंकि फूल सिर्फ स्पर्श कर सकता है, कांटा प्रवेश कर सकता है। फूल क्षणभर के लिए होता है, कांटा जिंदगीभर के लिए हो सकता है। मुर्झाता भी फूल है। कांटा और फूल दोनों ही पाजिटिव हैं। हिंसा और अहिंसा दोनों पाजिटिव हैं। सिर्फ शब्द से फर्क थोड़े ही पड़ जाता है। वह एक का शीर्षासन करता हुआ रूप है। शीर्षासन कर लिया, तो उल्टा हो जाता है। हिंसक अहिंसक हो सकता है। बस उल्टा हो जायेगा। दूसरे को न मारे, अपने को मारे; अहिंसक हो गया! लेकिन मारना जारी है।
हिंसा और अहिंसा दोनों सचाइयां हैं। और दोनों को जो समग्ररूपेण स्वीकार करता है, उसके सामने एक बिल्कुल तीसरी सचाई आती है, जो पूरी सचाई है, जहां हिंसा-अहिंसा का भेद नहीं रह जाता। जो पूरी सचाई को स्वीकार करता है, वहां कांटे और फूल के भीतर जो रस बह रहा है, उसे वह दिखायी पड़ता है। कांटे में भी वही रस जा रहा है, फूल में भी वही रस जा रहा है। तब फूल और कांटे को वह दो में नहीं देखता। बाहर भीतर जो रस बह रहा है, वह उसको देखता है। वह रसधार जो कांटे को कांटा बना रही है, फूल को फूल बना रही है। और वह रसधार दोनों की एक है। उस रसधार में कांटा और फूल दोनों ही हैं, उस रसधार में कांटा और फूल एक हैं।
इसलिए मेरा मानना है कि महावीर भी समग्र जीवन को स्वीकार नहीं कर सके, क्योंकि हिंसा की अस्वीकृति है। कृष्ण ज्यादा समग्र जीवन को स्वीकार करते हैं। उन्हें हिंसा भी स्वीकार है। अगर हम बहुत गौर से देखें, तो कृष्ण की स्वीकृति बहुत टोटल है। इसलिए कृष्ण को समझना बहुत मुश्किल है और इसलिए कृष्ण की कोई भी व्याख्या हो सकती है। गांधी कृष्ण की व्याख्या ऐसी कर सकते हैं, जिससे वे अहिंसक मालूम पड़ने लगें क्योंकि कृष्ण पूरे हैं, उसमें से अहिंसा भी चुनी जा सकती है, उसमें से हिंसा भी चुनी जा सकती है।
जिंदगी पूरी है। उसमें कोई खंड ही नहीं है। इसलिए ख्याल इस मुल्क का बहुत अदभुत है। हम कृष्ण को पूर्ण अवतार कहते हैं, बाकी किसी को नहीं। इसका कुल कारण इतना है कि जिसने जीवन को उसके पूरे अर्थों में, जिसको हम अशुभ कहते हैं उसको भी, जिसको हम अंधेरा कहते हैं उसको भी, जिसको हम लंपटता कहेंगे उसको भी..यानी वह संत और लंपट एक साथ..ऐसी पूर्णता में।
तो मैं जो बात कह रहा हूं, बिल्कुल ही चुनाव की नहीं कर रहा हूं कि आप चुनाव करें। ऐसा जीवन है पूरा, उसको पूरा जीयें। और कोई उपाय नहीं है। यानी मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि आप ऐसा जीने की कोशिश करें। आप ऐसा जीएंगे ही, अगर यह दिखायी पड़ जाए आपको। इसमें कोई चुनाव नहीं है। न कोई विधायक है, न कोई निगेटिव है। वे सब एक ही चीज के हिस्से और पहलू हैं। और जिस दिन एक आदमी ऐसी पूर्णता में जीए, उस दिन उसकी अहिंसा भी और है, उसकी हिंसा भी और है। उसका कांटा भी और है, उसका फूल भी और है। क्योंकि फासला न रहा वहां। वहां कोई फासला न रहा; वे एक ही चीज के दो छोर हो गये। तो उसकी हमें पकड़ नहीं है, क्योंकि हम तो चुनाव करके ही जीएंगे।
मॅारेलिटी ने, नैतिकता ने आदमी को बुरी तरह खंड-खंड किया है कि उसने जिंदगी को पूरा स्वीकार नहीं करने दिया। उसने कहा: यह गलत है, और यह सही है। और यह शुभ और यह अशुभ है। और यह मानने योग्य, यह छोड़ने योग्य, और यह भोगने योग्य, यह त्यागने योग्य है। तो जिंदगी को सब तरफ से तोड़-तोड़कर टुकड़े कर दिये हैं।
और अगर भविष्य में कभी भी कोई अच्छी मनुष्यता पैदा होगी, तो किसी न किसी गहरे अर्थ में उसको एम्मारल हो जाना पड़ेगा। उसको नीति से मुक्त होना पड़ेगा। मारल और इम्मॅारल एक ही मामला है। उसमें कोई फर्क नहीं है। कृष्ण एम्मारल हैं। इसलिए पहली दफा जब उपनिषदों का अनुवाद हुआ जर्मनी में तो ड्यूशन ने जो अनुवाद किया जर्मनी में, एक ही चर्चा चली कि उपनिषदों में कोई नैतिक शिक्षा नहीं है। इसमें यह नहीं बताया कि झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, हिंसा मत करो, पर-स्त्री को मत भगाओ; इसमें यह कुछ बताया नहीं गया है, यह कैसा धर्म-ग्रंथ है।
असल में उपनिषद बिल्कुल इम्मॅारल हैं। उपनिषद का ऋषि कैसे कह सकता है कि पर-स्त्री को मत भगाओ, क्योंकि ‘पर’ है कहां, तो पर-स्त्री कहां! अगर हम पूरी धारणा देखें, तो वह यह कह रहा है कि पर कौन है, और पर-स्त्री कौन है? इम्मॅारल है बिल्कुल। वह यह नहीं कहता कि चोरी मत करो, क्योंकि चोरी करने में मान लिया कि दूसरा है, दूसरे की संपत्ति है; और दूसरे की संपत्ति को चुरानेवाला मैं हूं। यह सब स्वीकृत हो गया है उसमें। उसमें व्यक्तिगत संपत्ति मान ली गयी, व्यक्ति मान लिया गया। और वह संपत्ति जिसकी है उसके पास होना शुभ है और वह मेरे पास होना अशुभ है, सब मान लिया गया है।
तो उपनिषद चुप हैं, क्योंकि इससे कोई मतलब नहीं है। बात बेमानी है। संपत्ति किसकी है? उपनिषद बिल्कुल इम्मॅारल हैं। इधर पांच हजार वर्ष की पीड़ा उसकी मॅारेलिटी है। और मॅारेलिटी करती क्या है कि आदमी को दो हिस्सों में बांट देती है। एक आदमी मारल हो जाता है, एक इम्मॅारल हो जाता है। और मारल आदमी के भीतर इम्मॅारल छिपा होता है और इम्मॅारल के भीतर मारल छिपा रहता है। पापी से पापी को खोजने जाओ, उसके भीतर महात्मा बैठा हुआ है। और महात्मा से महात्मा को खोजने जाओ, उसके भीतर पापी बैठा हुआ है। बस सिर्फ शक्लें उलटी हो गई हैं। कांशस अनकांशस के फर्क हैं। महात्मा कांशस में महात्मा है, अनकांशस में पापी है। और पापी कांशस में पापी है और अनकांशस में महात्मा है। इसलिए पापी निरंतर सपने देखता है महात्मा होने का और महात्मा सपने देखता है पाप का। यह बचाव नहीं है।
इम्मॅारल का मतलब यह है कि हम दोनों को स्वीकार करते हैं कि ये दोनों हैं। और उन दोनों को एक साथ स्वीकार करते हैं और एक साथ जीते हैं। लेकिन मारल वाले को डर लगता है कि कहीं वह इम्मॅारल न हो जाये बाद में। डर लगता है क्योंकि उसका तो तोड़ कर चुनाव है पूरा। और जिस दिन मारल और इम्मॅारल का अस्तित्व चला गया, उस दिन कांशस और अनकांशस का अस्तित्व चला गया। उस दिन आदमी एक है, फिर कोई अनकांशस नहीं है। अनकांशस पैदा हुआ मॅारेलिटी की वजह से। क्योंकि जिसको हमने दबाया वह अनकांशस बन गया। और अगर कुछ नहीं दबाया है तो आदमी इकट्ठा हो जाएगा, उसके लिए फिर कोई चेतन-अचेतन का फासला नहीं है, वह सब इकट्ठा है। वह जो इकट्ठा आदमी है उसकी सुरभि, उसका सौंदर्य, उसका संगीत दूसरा है।



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