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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

नये भारत की खोज-(प्रवचन-04)

नये भारत की खोज-(चौथा प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है, सुबह मैंने कहा, सब आदमी नकली हैं, उन मित्र ने पूछा है कि नकली कौन है? असली कौन है? हम कैसे पहचानें?
पहली तो बात यह है, दूसरे के संबंध में सोचें ही मत कि वह असली है या नकली है। सिर्फ नकली आदमी ही दूसरे के संबंध में इस तरह की बातें सोचता है। अपने संबंध में सोचें कि मैं नकली हूं या असली? और अपने संबंध में सोचना ही संभव है और जानना संभव है।
इसलिए पहली बात है, हमारा चिंतन निरंतर दूसरे की तरफ लगा होता है, कौन दूसरा कैसा है? नकली आदमी का एक लक्षण यह भी है, स्वयं के संबंध में नहीं सोचना और दूसरों के संबंध में सोचना। असली सवाल यह है कि मैं कैसा आदमी हूं? और इसे जान लेना बहुत कठिन नहीं है, क्योंकि सुबह से सांझ तक, जन्म से लेकर मरने तक मैं अपने साथ जी रहा हूं। और अपने आपको भलीभांति जानता हूं। न केवल में दूसरों को धोखा दे रहा हूं, अपने को भी धोखा दे रहा हूं। मेरी जो असली शक्ल है, वह मैंने छिपा रखी है। और जो मेरी शक्ल नहीं है, वह मैं दिखा रहा हूं, वह मैंने बना रखी है। दिन भर में हजार बार हमारे चेहरे बदल जाते हैं। असली आदमी तो वही
होगा, सुबह भी सांझ भी। हर खड़ी वही होगा, जो है। लेकिन हम? हम हर घड़ी वही होते हैं, जो हम नहीं हैं।
एक फकीर था नसरुद्दीन, एक सम्राट की पत्नी से उसका प्रेम था। एक रात वह अपनी प्रेमिका से विदा हो रहा है और उसने उस स्त्री को कहा, तुझसे ज्यादा सुंदर स्त्री पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। और मैंने सिर्फ तुझे ही चाहा है। मेरे प्राणों में बस तेरे अतिरिक्त और किसी की कामना और आकांक्षा नहीं है। वह स्त्री आनंद से भर गई, उसकी आंखें खुशी से भर गईं। और तभी उस फकीर ने कहा, ठहर, ठहर, मैं तुझे यह भी बता दूं कि यही बात दूसरी स्त्रियों से भी मैं कहता रहा हूं।
यह फकीर अदभुत आदमी रहा होगा। और इस क्षण में इसने अपने नकलीपन को भी पहचाना होगा और अपने असलीपन को भी जाहिर करने की हिम्मत की। हम सब पहचानते हैं कि हम नकली हैं। हम जैसे दिखाई पड़ते हैं वैसे हैं? यह किसी दूसरे के संबंध में सोचने का सवाल नहीं है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के भीतर प्रवेश नहीं कर सकता, बाहर से ही देख सकता है। बाहर से जो दिखाई पड़ता है वही हम देख सकते हैं। लेकिन अपने तो हम भीतर जा सकते हैं, वहां तो हम देख सकते हैं हम कौन हैं?
एक आदमी मंदिर में बैठ कर माला जप रहा है, भगवान का नाम ले रहा है। बाहर से दिखाई पड़ता है वह माला जप रहा है, भगवान का नाम ले रहा है। धार्मिक पूजा और प्रार्थना में तल्लीन है। हम तो बाहर से इतना ही देख सकते हैं, लेकिन वह आदमी भीतर से देख सकता है कि वह क्या कर रहा है? यह माला यंत्र की तरह हाथ फेर रहे हैं। यह राम का जप ओंठों पर मशीन की तरह हो रहा है। भीतर क्या हो रहा है? वह आदमी सच में क्या कर रहा है?
मैंने सुना है, एक आदमी अपनी पत्नी से निरंतर कहता था कि कभी मेरे गुरु के पास चल, वे परम साधु हैं। उनसे मुझे जीवन मिला, शांति मिली, भगवान का रास्ता मिला। वह पत्नी हंसती और बात टाल देती। आखिर उस आदमी ने अपने गुरु को कहा कि आप कभी आएं और मेरी पत्नी को समझाएं, उसका जीवन नष्ट हुआ जा रहा है, वह नर्क के रास्ते पर है।
एक दिन सुबह पांच बजे वह गुरु उस शिष्य के घर पहुंचा। उसका शिष्य मंदिर में बैठ कर, घर के सामने ही, घर के बगीचे में ही मंदिर बना रखा है, उसमें बैठ कर राम-राम जप रहा है, माला फेर रहा है। गुरु ने जाकर मकान का दरवाजा खटखटाया, पत्नी ने द्वार खोला, और पत्नी से उसने पूछा की मेरा शिष्य कहां है?
उसकी पत्नी ने कहा, जहां तक मैं समझती हूं, आपका शिष्य बाजार पहुंच गया है और एक जूते की दूकान पर जूते खरीद रहा है। और उसका जूता खरीदने में झगड़ा हो गया है और उसने चमार की गर्दन दबा ली है।
उसका पति बगल में मंदिर में बैठा यह सब सुन रहा है, वह बाहर निकल कर आ गया, उसने कहा, सरासर झूठ है यह बात! मैं मंदिर में प्रार्थना कर रहा हूं! अभी बाजार भी नहीं खुला, अभी दूकानें भी नहीं खुलीं। और यह मेरी पत्नी झूठ बोल रही है। उसकी पत्नी ने...
उसके गुरु ने भी कहा कि हैरानी की बात है, तेरा पति मंदिर में पूजा कर रहा है!
उसकी पत्नी ने कहा, आप मेरे पति से पूछें, सच में वह क्या कर रहा था?
और उसका पति हैरान हो गया! सच में ही पूजा तो वह बाहर से कर रहा था, लेकिन पहुंच गया था एक जूते की दूकान पर! जूता खरीद रहा था और दाम घटाने-बढ़ाने में झगड़ा हो गया उससे। चमार की गर्दन पकड़ ली। लेकिन उसने पूछा, तुझे कैसे पता चला?
तो उसने कहा, रात सोते वक्त तुमने मुझसे कहा था कि सुबह उठ कर ही जूते खरीदने जाना है। जहां तक मेरा अनुभव है, रात के सोते समय जो अंतिम विचार होता है, सुबह उठते समय वही पहला विचार होता है। तो मैंने सोचा कि शायद तुम बैठे तो माला जप रहो हो, लेकिन तुम्हारे चेहरे से ऐसा लग रहा था कि तुम किसी से झगड़ रहे हो। तो मैंने सोचा कि कहीं जूते की दूकान में तो नहीं पहुंच गए हो?
वह नकली आदमी मंदिर में पूजा कर रहा था, असली आदमी चमार की गर्दन दबा रहा था। लेकिन इसे बाहर से जानना-पहचानना बहुत मुश्किल है।
अनुमान लगाए जा सकते हैं, लेकिन अनुमान गलत भी हो सकते हैं। हर आदमी को स्वयं को जानना पड़ेगा कि मैं कितना असली हूं कितना नकली हूं? यह चौबीस घंटे का परीक्षण है; यह जन्म से लेकर मृत्यु तक का। अंतहीन परीक्षण है। आब्जर्वेशन है कि मैं क्या हूं?
और ध्यान रहे, जितना नकली आदमी हमारे ऊपर बढ़ता चला जाएगा, जीवन उतना ही दुख होता चला जाता। अगर जीवन दुख हो, तो जानना कि नकली आदमी भारी हो गया। एक ही जांच की कसौटी है, सिर्फ नकली जब हमारे ऊपर बहुत बोझिल हो जाता है तो दुख और चिंता और पीड़ा और उदासी छा जाती है। और जब असली प्रकट होता है तो जिंदगी में बहुत सुगंध, बहुत संगीत, बहुत आनंद का जन्म होता है। हमारा दुख देख कर कहा जा सकता है कि हम सब नकली हो गए हैं।
ऊपर से आदमी दिखाता है कि अहिंसक है और भीतर हिंसा होती है। ऊपर से आदमी दिखाता है मैं त्याग कर रहा हूं और भीतर त्याग में भी लोभ होता है।
रामकृष्ण के पास एक दिन एक आदमी आया। तो उसने कहा, मैं हजार स्वर्ण-मुद्राएं लाया हूं, हे परमहंस, इन हजार स्वर्ण-मुद्राओं को रखो। और उसने जोर से थैली खोल कर पत्थर पर वे स्वर्ण-मुद्राएं पटकीं।
रामकृष्ण ने कहा, मेरे भाई, धीरे से रख दो, इतने जोर से क्यों पटकते हो कि पड़ोस के लोगों को आवाज सुनाई पड़ जाए? अब दान धीरे से करो तो मजा ही चला जाता है। तो दान तो आदमी ऐसे करता है कि सारा गांव सुन ले, इतने जोर से रुपये पटकता है कि सारा गांव सुन ले। वह आदमी चौंका होगा। लेकिन रामकृष्ण ने उसके नकलीपन को पकड़ लिया है। फिर भी वह कहने लगा कि नहीं भूल से गिर गई। वह झूठ बोल रहा है। फिर रामकृष्ण ने कहा, मैं क्या करूंगा इन रुपयों का? स्वर्ण-मुद्राएं हैं, हजार हैं। तुम एक काम करो, तुम इनकी गठरी बांध लो और जा कर गंगा में डाल आओ। नीचे ही गंगा बहती है। पास ही, सीढ़ियां उतरे और वह गंगा में डाल आए। अब रामकृष्ण को दे चुका था, इसलिए मना भी नहीं कर सकता था। गया, मजबूरी थी, लेकिन बहुत देर हो गई, लौटा नहीं। तो रामकृष्ण ने एक आदमी को भेजा कि जाकर देखो उस आदमी का क्या हुआ?
उस आदमी ने लौट कर कहा कि वह एक-एक रुपये को बजाता है, गिन रहा है, और एक-एक रुपया फेंक रहा है। और वहां बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई है। फिर वह आदमी लौटा, रामकृष्ण ने कहा, तू बड़ा पागल है, आदमी धन इकट्ठा करता है तो गिन कर इकट्ठा करना पड़ता है। लेकिन जब गंगा में फेंकने गया तो गिन कर फेंकने की क्या जरूरत थी? गिन कर तो बचाया जाता है, गिन कर फेंका नहीं जाता। तो तू ऊपर से तो फेंक रहा था और भीतर से बचा रहा होगा, नहीं तो गिनती क्यों करता? ऊपर से यही दिखाई पड़ रहा था, वह फेंक रहा है और भीतर से वह बचाने में लगा था। वे लोग जो मंदिर बना रहे हैं, बाहर से लगता है, दान कर रहे हैं, भीतर से वे स्वर्ग में रिजर्वेशन कर रहे हैं, संरक्षण कर रहे हैं, वहां इंतजाम कर रहे हैं। यहां लगता है, वे दान कर रहे हैं। वे वहां कमाई कर रहे हैं। यहां लगता है, वे दे रहे हैं, वे इनवेस्ट कर रहे हैं। वे वहां आगे लेना चाहते हैं।
एक आदमी घर छोड़ देता है, त्यागी हो जाता है, सब छोड़ देता है। लेकिन पूछो उसकी आत्मा में प्रवेश करके, उसने कुछ भी नहीं छोड़ा है, छोड़ा इसलिए है ताकि मिल सके, और ज्यादा मिल सके। और किताबें कहती हैं, जो एक छोड़ेगा उसे हजार मिलेंगे। आदमी एक छोड़ता है कि हजार मिल सकें। बाहर त्यागी है, भीतर भोगी बैठा हुआ है। बारह छोड़ने वाला है, भीतर पकड़ने वाला बैठा हुआ है। लेकिन यह कौन पहचानेगा?
एक आदमी बाहर से सफेद कपड़े पहने हुए हैं और अगर कपड़े खादी के हों तो और भी अच्छा। और भीतर-भीतर एक बिलकुल काला आदमी बैठा हुआ है। सच तो यह है कि सफेद कपड़े में काला आदमी ही अपने को छिपाने की कोशिश कर रहा है। वह भीतर काला है, वह सफेद कपड़े पहन रहा है। और सफेद कपड़े वालों के हाथ में अगर कोई कौम और समाज चला जाए तो बड़ा खतरा हो जाता है। इस मुल्क के साथ हो ही गया है। कपड़े सफेद हैं, आदमी काला है। लेकिन हम तो जान ही सकते हैं कि मैं भीतर कैसा आदमी हूं? मैं बाहर जैसा हूं वही मैं भीतर हूं? जो मेरे वस्त्रों से दिखाई पड़ता है वही मेरी आत्मा है? लेकिन नहीं, जब मैं यह कहता हूं, तो लोग विचार करने लगते हैं पड़ोसी के बाबत कि वह कैसा है! जरूर सफेद कपड़े पहनता है भीतर काला आदमी होगा!
हम सब पड़ोसी के संबंध में चिंतन करते हैं। विचारशील व्यक्ति अपने संबंध में चिंतन करेगा। क्योंकि पड़ोसी के संबंध में चिंतन करने से क्या प्रयोजन? क्या हल? हल तो एक ही हो सकता है कि मैं अपने संबंध में निरीक्षण करूं कि मैं कैसा आदमी हूं? और मैं आपसे कहना चाहता हूं, अगर मैं निरीक्षण करूं और मुझे दिखाई पड़ जाए कि मैं नकली आदमी हूं, तो बदलाहट तत्क्षण शुरू हो जाएगी, करनी नहीं पड़ेगी। इसीलिए हम निरीक्षण नहीं करना चाहते हैं क्योंकि निरीक्षण क्रांति की शुरुआत है। अगर मैं जान लूं कि मैं झूठा आदमी हूं, तो इस झूठे आदमी के साथ जीना मुश्किल हो जाएगा। इस झूठे आदमी को बदलना ही पड़ेगा। इसलिए देखता ही नहीं अपनी तरफ, दूसरे की तरफ देखता हूं। आंखें सदा दूसरे की तरफ देखती रहती हैं। हम दूसरों की निंदा में जो इतने उत्सुक होते हैं और आनंदित होते हैं उसका कोई और कारण नहीं है। अपनी तरफ देखने से हम बचना चाहते हैं। इसलिए दूसरे की निंदा में संलग्न हो जाते हैं।
और ध्यान रहे, चोर दूसरों की चोरी की निंदा करता हुआ दिखाई पड़ेगा। बेईमान दूसरों की बेईमानी की निंदा करता हुआ दिखाई पड़ेगा। क्यों? अपनी बेईमानी को देखने से बचना चाहता है। हम सब अपने से बचना चाहते हैं। हम सब यह चाहते ही नहीं कि हमें दिखाई पड़ जाए कि हम कौन हैं!
नकली और असली कहीं और खोजने नहीं जाना है, अपने ही भीतर खोज लेना है, वस्तुतः मेरे भीतर क्या है?
जब मैं एक भिखमंगे को दो पैसे दान करता हूं, तो मेरे भीतर भिखमंगे के प्रति दया है या चार लोग मुझे देख रहे होंगे कि मैं दो पैसे दान करता हूं, यह भाव है? इसलिए भिखमंगे आपसे अकेले में भीख मांगने में बहुत डरते हैं। चार मित्रों के साथ आप खड़े हों तो वे बिलकुल आपके हाथ-पैर जोड़ कर खड़े हो जाएंगे। वह चार आदमियों की आंख में आपकी इज्जत का फायदा उठाना चाहते हैं। वे भी जानते हैं कि आदमी कमजोर है, कहां कमजोर है। कोई दया से कोई दान नहीं करता। अहंकार की तृप्ति के लिए दान वह दे। तो भिखमंगा देखता है कि जब आदमी सड़क पर हो, चार आदमी देख रहे हों और इनकार न कर सके दो पैसों के लिए तब हाथ फैला देने चाहिए। आपको अगर दया आए, तो आप दो पैसे देकर मुक्त नहीं हो जाएंगे। दया इतनी सस्ते में मुक्त नहीं हो सकती। अगर एक भिखमंगे पर दया आए, तो आप एक ऐसे समाज को बनाने की चेष्टा करेंगे, जहां भीख न मांगी जा सके। जहां कोई भिखमंगा न हो। लेकिन अगर आपको मजा आता है अहंकार का कि मैंने दिए दो पैसे एक गरीब आदमी को, तो आप एक ऐसा समाज बनाएंगे जिसमें गरीब भी रहे, भिखमंगा भी रहे, नहीं तो आप दान किसको देंगे।
मुझे खयाल आता है कि करपात्री जी ने एक किताब लिखी है, उस किताब का नाम है: राम-राज्य और समाजवाद। उस किताब में उन्होंने एक बहुत मजेदार बात लिखी है जो धार्मिक आदमी के ढोंग को खोल देती है। उसमें उन्होंने लिखा है: कि शास्त्रों में लिखा हुआ है कि दान के बिना मोक्ष नहीं। और दान तो तभी हो सकता है जब दान लेने वाले गरीब दुनिया में हों। इसलिए समाजवाद अधार्मिक हैं, क्योंकि समाजवाद से गरीब मिट जाएंगे और कोई दान लेने वाला नहीं होगा, तो मोक्ष कोई कैसे जा सकता है! समाजवाद के खिलाफ जो दलील वे दे रहे हैं वह बड़ी अदभुत है। वे यह कह रहे हैं कि गरीब रहना चाहिए, भिखमंगा रहना चाहिए, नहीं तो दया कैसे करोगे और बिना दया के मोक्ष कैसे जाओगे! दुनिया में दया के लिए भिखमंगों का रखना बहुत जरूरी है। यह दयावान ने दुनिया बनाई है जिसमें भिखमंगे पैदा हुए हैं। और ये दयावान दो-दो पैसे देकर भिखमंगे को मिटा नहीं रहे हैं, भिखमंगे को जिला रहे हैं, जिंदा रखना चाह रहे हैं। लेकिन कोई देखने नहीं जाता भीतर की मेरे क्या है?
एक तरफ मैं हजारों रुपये इकट्ठे करूं और दूसरी तरफ दो पैसे दान करूं और दयावान हो जाऊं, दानवीर हो जाऊं। यह धोखा, यह झूठा आदमी, और कहां खोजने जाना पड़ेगा कि झूठा आदमी हम देखें? हम अपने झूठे आदमी को सब तरह से जस्टिफाई करते हैं। उखाड़ते नहीं, उसको सब तरह से न्याययुक्त ठहराते हैं। हम सब तरह की दलीलें खोजते हैं कि वह हमारा झूठा जो आदमी हमने ऊपर चढ़ा रखा है वही सच्चा है। और जब तक कोई आदमी इस कोशिश में लगा रहे कि अपने झूठ को यह सब सिद्ध करता रहे। अपने वस्त्रों को ही कहे यह मेरी आत्मा है। तब तक वह आदमी एक धार्मिक नहीं हो सकता। उस आदमी के जीवन में वह क्रांति नहीं हो सकती, जिस क्रांति के अंतिम परिणाम में प्रभु के मंदिर का द्वार खुलता है। झूठा आदमी प्रभु के मंदिर में प्रविष्ट नहीं हो सकता। उस मंदिर में तो वे ही प्रविष्ट हो सकते हैं, जो सच्चे हैं, आथेंटिक हैं, जो वही हैं, जो हैं।
इस अर्थ में मैंने सुबह कहा कि हम सब झूठे आदमी हो गए हैं, हमारा पूरा समाज झूठा हो गया है। और जब मैंने यह कहा, तो मेरा मतलब यह नहीं था कि दूसरा झूठा हो गया, मेरा मतलब था, हम झूठे हो गए हैं, मैं झूठा हो गया हूं। इस झूठ की खोज करनी चाहिए। यह कौन बताएगा कि कैसे? हम खुद जानते हैं, हम भलीभांति पहचानते हैं। जब हम मुस्कुराते हैं तो हमारी मुस्कुराहट सच्ची है? भीतर आग जल रही है और क्रोध जल रहा है। रास्ते पर एक आदमी मिलता है और हम कहते हैं, आपसे मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई और भीतर मन कह रहा है इस दुष्ट का सुबह-सुबह से चेहरा कैसे दिखाई पड़ गया। अब कौन बताएगा कि झूठ है? आदमी कहां खोजने जाना?
घर में कोई मेहमान आ गया और हम कहते हैं, बड़ा आनंद आ रहा है कि आप आ गए। और प्राण संकट में पड़े हैं कि यह मेहमान आ कैसे गया, पहले पता चल जाता तो ताला लगा कर कहीं खिसक गए होते, कहीं चले गए होते। लेकिन चुक हो गई। इसीलिए मेहमान को हम पुराने दिनों में अतिथि कहते थे। अतिथि का मतलब है: जो बिना तिथि की खबर दिए घर पर हाजिर हो जाए। बताए न कि किस तारीख को आ रहे हैं, कब आ रहे हैं। क्योंकि बता दे तो घर वाले की मिलने की बहुत कम उम्मीद है कि वह घर में मिले। इसलिए अतिथि कहते हैं उसे, बिना तिथि बताए आकर खड़े हो गए हैं।
भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है। एक बेटा जिंदगी भर बाप को तकलीफ देता है, कष्ट देता है। सम्मान नहीं देता, आदर नहीं, प्रेम नहीं। और मरते वक्त बैठ कर आंसू बहाता है। झूठ की भी कोई हद है। किसके लिए आंसू बहा रहे हो? उसी बाप के लिए जिसको एक दफे जिंदगी में खुशी का मौका नहीं दिया। फिर श्राद्ध करता है, बैठा है सिर घुटा कर उदास, दुखी। यह दुख कैसा है? यह सच्चे आदमी का हो सकता है? और जिंदा था तब यह बाप तब? मैं मानता हूं, जिन लोगों ने मरे हुए बाप के श्राद्ध की ईजाद की है, ये खतरनाक लोग हैं, ये पश्चात्ताप कर रहे हैं। इन्होंने बाप को जिंदगी में आदर नहीं दिया होगा। क्योंकि जिसे हमने जिंदगी में आदर दिया, उसको मरने के बाद आदर देने का ढोंग दिखाने की कोई जरूरत नहीं है। जिस दिन बेटे बाप को यहीं जीवन में आदर देंगे, उस दिन श्राद्ध-व्राद्ध की जरूरत नहीं हो जाएगी। सब बेईमान लोगों की ईजाद है। मर जाने के बाद सारा पाखंड चल रहा है। और जिंदा आदमी के साथ दर्ुव्यवहार चल रहा है। मरे हुए लोगों के साथ हम बड़ा सदव्यवहार करते हैं। क्यों? कोई आदमी मर जाए, अगर दुनिया में सदव्यवहार चाहना हो तो मरने के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं है। अगर दुनिया में अच्छे सिद्ध होना हो तो मर जाना चाहिए। फिर सारी दुनिया कहती है, बहुत अच्छा आदमी है। जिंदा में इस आदमी को किसी ने सदव्यवहार नहीं किया, कोई आदर नहीं, कोई प्रेम नहीं। मर गया और सब ठीक हो गया। यह क्या है? यह गिल्ट, यह अपराध है हमारे चित्त में, हम जिंदा आदमी के साथ जो नहीं कर पाए, वह मरने पर हम प्रकट करते हैं, दिखावा करते हैं। लेकिन कैसे? पूछते हैं, कैसे हम पहचानें? कोई पहचानने की तरकीब होगी? पहचानने की तरकीब इतनी ही होगी कि हम देखें हर क्षण, एक-एक क्षण धोखा चल रहा है। ऐसा थोड़े ही है कि दिन के किसी खास समय में हम धोखा देते हैं, हम चौबीस घंटे धोखा दे रहे हैं। चलते हैं, तो कमजोर आदमी, डरा हुआ आदमी ऐसे चलता है जैसे बहुत बहादुर हो। धोखा दे रहा है। किसी को भी नहीं, अपने को दे रहा होगा।
अंधेरी गली है, और एक आदमी निकलता है सीटी बजाता हुआ। वह सीटी बजा कर सारे मोहल्ले को और अपने को धोखा दे रहा है कि अंधेरे से मैं डर नहीं रहा, देखो किस खुशी से सीटी से बजा रहा हूं। और सीटी सिर्फ डर में बजा रहा है और कोई कारण नहीं है। सिर्फ डरा हुआ है। और डर में सीटी बजा कर सेल्फ कान्फिडेंस पैदा करने की कोशिश कर रहा है कि आत्मविश्वास आ जाए कि हम तो सीटी बजा रहे हैं, हम कोई डरते हैं।
यह कहां-कहां उसे जांच करने जाना पड़ेगा? उसे जीवन की समस्त प्रक्रिया में, जीवन के प्रत्येक छोटे काम में जागरूक हो कर देखना पड़ेगा, मैं क्या कर रहा हूं, वही जो मैं हूं? और मैं आपसे कहता हूं, अगर हिंसक हैं, तो अहिंसक होने के ढोंग में मत पड़ना। अन्यथा अहिंसक कभी नहीं हो सकेंगे। अगर हिंसक हैं, तो अपनी हिंसा को जानना। जो आदमी अपनी हिंसा को जान लेता है, वह अपनी हिंसा को बर्दाश्त नहीं कर सकता। हिंसा बर्दाश्त नहीं की जा सकती, उसे बदलना ही पड़ता है। लेकिन जो आदमी हिंसा को अहिंसा के ढोंग में छिपा लेता है, वह हिंसक बना रहता है और अहिंसा का गुणगान करता रहता है। तख्ती लगा लेता है, अहिंसा परमोधर्मा है। जहां भी यह तख्ती दिखे, समझ लेना कि नीचे आस-पास हिंसक आदमी बैठे होंगे। अहिंसक आदमी, अहिंसा परमोधर्मा नहीं कहेगा। यह हिंसक आदमी ही कहता है।
हिंदुस्तान में अहिंसा की कितने हजार सालों से चर्चा हो रही है, और कोई आदमी अहिंसक है? कोई समाज अहिंसक है? हिंदुस्तान में जिनके हाथ में आज सत्ता है, उन सबने अहिंसा का बहुत ढोंग पीटा। लेकिन सत्ता आने पर, अंग्रेजों ने दो सौ साल की गुलामी में इतनी हिंसा नहीं की थी, जितनी बीस साल के अहिंसकों ने की। आश्चर्यजनक है! जितनी गोली इन्होंने चलाई, जितने लोगों की हत्या इन्होंने की, छोटे से मामले को ले कर, जितने इन्होंने लोगों को मारा, इतना अंग्रेजों ने दो सौ वर्षों में नहीं मारा, जितना इन्होंने बीस वर्षों में मार डाला। ये अहिंसक हैं! वे हिंसक थे। हिंसक आदमी पर भरोसा किया जा सकता है, कम से कम वह सच्चा तो है। अहिंसक आदमी पर भरोसा करना बहुत मुश्किल है, खतरनाक है। भीतर हिंसा है, ऊपर से अहिंसा का ढोंग है।
हिंदुस्तान में अहिंसा की बातें चल रही हैं सैकड़ों वर्षों से। और हिंदुस्तान का समाज जरा भी अहिंसक नहीं है।
पाकिस्तान का हमला हुआ, चीन का हमला हुआ, तो एक आदमी ने नहीं कहा कि अब अहिंसा का उपयोग करना चाहिए। नहीं, सवाल ही कहां है। वह अहिंसा का उपयोग तो हम जब गुलाम थे और कमजोर थे और हिंसा नहीं कर सकते थे, तब थी वह सब अहिंसा की बातचीत। वह सरासर धोखा था। कमजोरी को छिपा रहे थे अहिंसा के नाम से। और अब जब हाथ में ताकत आ गई, तब सीधी हिंसा की बातें कर रहे हैं। और साधारण लोगों को तो हम छोड़ दें, जिनको हम बहुत अच्छे लोग कहते हैं, उनके भीतर भी दोहरी पर्तें होती हैं।
उन्नीस सौ तीस के करीब एक अदभुत घटना घटी। वह घटना यह थी कि पंजाब के एक गांव में, मुसलमानों के एक गांव में दंगा हो गया, और अंग्रेजों की यह नीति थी कि अगर मुसलमानों का गांव हो और दंगा हो, तो हिंदुओं की मिलिट्री भेजो वहां दबाने के लिए। मिलिट्री तो दबाएगी ही, हिंदू होने की वजह से और गर्दन घोट देगी। अगर हिंदुओं का गांव दंगा हो जाए, तो मुसलमानों को भेजो। तो वे वैसे तो दबाएंगे ही, और मुसलमान की वजह से और छाती में छुरे भोंक देंगे। तो उस मुसलमान गांव को दबाने के लिए सिक्खों की बटालियन भेजी गई।
लेकिन एक अदभुत घटना घटी वहां, उस घटना को कीमत दी जानी चाहिए। वह जो, बल्कि बटालियन भेजी गई थी, उसने कह दिया कि हम बंदूक चलाने से इनकार करते हैं, हम अपने भाइयों पर बंदूक नहीं चलाएंगे। और उन्होंने जा कर वे सारी की सारी बंदूकें थाने में समर्पित कर दीं और हथकड़ियां डलवा लीं कि हम बंदूक नहीं चलाएंगे, हम खुद मरने को तैयार हैं, लेकिन अपने भाइयों पर गोली नहीं चला सकते।
सारी दुनिया ने सोचा कि गांधी जी इसकी तारीफ करेंगे, लेकिन गांधी जी ने इसकी निंदा की। यह तो अहिंसा का अदभुत उदाहरण था। हमारे खयाल में आएगा कि गांधी जी को तारीफ करनी चाहिए कि अदभुत बहादुर सैनिक हैं वे, जिन्होंने हिंसा करने से इनकार किया और जिन्होंने अपने भाइयों पर गोली नहीं चलाई। लेकिन गांधी जी ने इसका विरोध किया और निंदा की।
गांधी जी यूरोप जा रहे थे, तो फ्रांस में पत्रकारों ने उनसे पूछा कि हम हैरान हो गए हैं, आप तो अहिंसक हैं और आपके सैनिकों ने अहिंसा का एक उदाहरण उपस्थित किया, उसकी आपने निंदा की? तो गांधी जी ने क्या कहा आपको पता है? गांधी जी ने कहा, मैं इस तरह की अनुशासनहीनता की समर्थन नहीं कर सकता। क्योंकि इन्हीं सैनिकों के हाथ में कल आजादी आएगी, कल इन्हीं सैनिकों के भरोसे हमको हुकूमत करनी है। अगर इन्होंने अहिंसा, इस तरह के काम किए अनुशासनहीनता के, तो फिर हम किनकी ताकत के बल पर हुकूमत करेंगे। बड़ी मजे की बात है! इसका मतलब यह है कि अंग्रेजों से अहिंसा से लड़ना है और लड़ लेने के बाद जब ताकत हमारे हाथ में आ जाए, तो फिर बंदूक के कुंदे से हिंदुस्तान को दबाना है। इसका क्या मतलब होता है? इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ यह होता है कि भीतर बहुत गहरे में चाहे हम जानते हों, चाहे न जानते हों, हिंसा की पर्तें छिपी हैं। और ऊपर, ऊपर अहिंसा की एक व्यवस्था है। और अगर एक हिंसक आदमी अहिंसक हो जाए, तो वह अहिंसा को भी इस तरह थोपने की कोशिश करेगा जैसे कि हिंसा को थोपने की कोशिश की जाती है। वह दूसरों को भी जबरदस्ती अहिंसक बनाने की कोशिश करेगा। वह उनकी भी गर्दन पकड़ लेगा। गर्दन पकड़ने के ढंग बहुत तरह के हो सकते हैं।
मैं आपकी छाती पर छुरा ले कर खड़ा हो जाऊं, और कहूं कि मेरी बात मानिए अन्यथा मैं छुरा मार दूंगा। तो हम कहेंगे, यह हिंसा है। और में आपके सामने अपनी छाती पर छुरा ले कर खड़ा हो जाऊं और कहूं कि मेरी बात मानते हैं कि नहीं, नहीं तो मैं छुरा मार लूंगा। तो हम कहेंगे, यह अनशन! यह अहिंसा है! यह सत्याग्रह है! यह भी हिंसा है। और यह पहली वाली हिंसा से ज्यादा खतरनाक और सूक्ष्म! क्योंकि इसमें दूसरे आदमी को मारने की धमकी नहीं, अपने को ही मारने की धमकी दी जा रही है। दूसरे आदमी को मारने की धमकी में तो दूसरा आदमी बचाव भी कर सकता था, अपने को मारने की धमकी में दूसरा आदमी बिलकुल कमजोर हो गया, वह बचाव भी नहीं कर सकता। अगर हिंसक आदमी अहिंसक हो जाए, तो उसकी अहिंसा भी दूसरे को गर्दन दबाने के काम में आएगी और उसे दिखाई नहीं पड़ेगा।
मैंने एक मजाक सुनी है, मैंने सुना है एक गांव में, एक युवक ने, एक घर के सामने जा कर बिस्तर लगा दिया और कहा कि मैं अनशन करता हूं, सत्याग्रह करता हूं, मुझे इस घर की लड़की से विवाह करना है अन्यथा में मर जाऊंगा। गांव भर में तारीफ हुई, क्योंकि सत्याग्रह था यह। सबने कहा कि सत्याग्रह तो अच्छा होता है। वह तो बेचारा खुद मरने के लिए कह रहा है। दूसरे का हृदय परिवर्तन करने की कोशिश कर रहा है। यह हृदय परिवर्तन की कोशिश है। घर के लोग घबड़ा गए। अगर वह लड़का छुरे से धमकी देता, तो पुलिस में इंतजाम कर देते। लेकिन वह कह रहा है कि मैं अनशन करके मर जाऊंगा, मैं सत्याग्रह कर रहा हूं, मैं हृदय परिवर्तन की कोशिश कर रहा हूं। मैं अपनी आत्मशुद्धि कर रहा हूं और लड़की के बाप की आत्मशुद्धि कर रहा हूं ताकि वह राजी हो जाए। और गांव भर में सत्याग्रह को समर्थन देने वाले लोग मिल गए और जय-जयकार होने लगा। बाप घबड़ाया कि क्या करें? लोकमत सत्याग्रह के पक्ष में है। तो बाप ने एक पुराने वृद्ध सत्याग्रही से जा कर पूछा कि कुछ रास्ता बताओ? उसने कहा, घबड़ाओ मत। शाम को इंतजाम कर देंगे। वह एक बूढ़ी वेश्या के पास गया और उससे कहा कि रात को बिस्तर ले कर आ जाओ और जवान लड़के के सामने अनशन कर दो कि जब तक मुझसे विवाह नहीं करोगे मैं मर जाऊंगी भूखी। उस बुढ़िया ने आ कर अनशन कर दिया। वह लड़का रात ही बिस्तर ले कर भाग गया।
एक-दूसरे की गर्दन इस तरह भी दबाई जा सकती है। लेकिन आप जब तक दूसरे की गर्दन दबा रहे हैं, चाहे गर्दन दबाने का ढंग अहिंसक हो, भीतर हिंसा मौजूद है। दूसरे आदमी को दबाने के पीछे हिंसा है। लेकिन दूसरे के खोजबीन में जाना बहुत मुश्किल है, अपनी खोजबीन में जाना बहुत आसान है। हम देख सकते हैं, हमारी अहिंसा हिंसा तो नहीं है? हमारा प्रेम घृणा तो नहीं है? हमारे सत्य के पीछे झूठ तो नहीं बैठा है? हमारे सदभाव के पीछे दुर्भाव तो नहीं है? हम जैसे हैं भीतर भी हम वैसे ही हैं? अगर नहीं हैं, तो एक काम है, और वह यह है कि हम जैसे हैं उसे जानने में लग जाएं। चाहे कितने ही बुरे हों, बुरे को जानना बुरे को बदलने का कीमिया है, रास्ता है। जैसे भी हैं, कोई फिक्र नहीं कि बुरे हैं। लेकिन बुरे भी हैं, तो उसे हम जानें, पहचानें, धोखा न दें, छिपाएं न। जिस घाव को छिपा लिया जाए वह मिटता नहीं, अंततः वह बढ़ता चला जाता है, नासूर बन जाता है, कैंसर भी बन सकता है। और हमने मन के सब घाव छिपा रखे हैं। और ऊपर हम इस तरह से, जैसे कोई घाव ही नहीं है। ऊपर हम बिलकुल ठीक हैं। किसी भी आदमी से पूछो, कैसे हो? वह कहेगा, बिलकुल ठीक। और कोई आदमी बिलकुल ठीक नहीं है। सब आदमी भीतर गड़बड़ है। लेकिन पूछो कि क्या सच कह रहे हैं? तो वह कहेगा, कहना पड़ता है इसलिए कह रहे हैं। सब उपचार है। फार्मेलिटी से आपने पूछा तो कहा, सब ठीक है, सब खुशी है। लेकिन कोई खुश नहीं है।
भीतर इसकी एक-एक व्यक्ति को अपनी ही निरीक्षण और खोज करनी जरूरी है ताकि हम पहचान सकें, कहां हम असली हैं, कहां हम नकली हैं। और ध्यान रहे, कि असली को पहचान लेना ही बहुत अदभुत काम है। क्योंकि असली को पहचानते ही जो बुरा है वह गिरना शुरू हो जाता है। और जो शुभ है वह बढ़ना शुरू हो जाता है।
ज्ञान की जो अग्नि है, उसमें बुरा जल जाता है और जो शुभ है वह शेष रह जाता है।
लेकिन जाने ही न, तो अज्ञान में शुभ दबा रहता है, अशुभ बढ़ता चला जाता है।
जैसे किसी घर में अंधेरा हो, दरवाजे बंद हों, कोई भीतर मालिक जाता ही न हो, तो वहां कूड़ा-कर्कट इकट्ठा होता है, कीड़े-मकोड़े इकट्ठे होते हैं, सांप-बिच्छू इकट्ठे होते हैं, अंधेरे में गंदगी इकट्ठी होती है, दुर्गंध फैलती है। फिर मालिक उस मकान में भीतर जाए, सिर्फ जाए, और उसके जाने से ही फर्क शुरू हो जाएगा। क्योंकि वह जैसे ही देखेगा कि मेरे घर में कीड़े-मकोड़े इकट्ठे हैं, इन कीड़े-मकोड़ों के साथ कैसे रहा जा सकता है? कीड़े-मकोड़ों को हटाना पड़ेगा। वह हटा देगा, लेकिन मालिक बैठा है घर में ताला लगा कर बाहर, पीठ टेके हुए घर से, और घर के भीतर ही नहीं जाता और भीतर यह सब बढ़ता चला चला जा है। और घर के सामने उसने बड़ी-बड़ी तख्तियां लगा रखी हैं कि यहां कोई कीड़े-मकोड़े नहीं हैं, यहां कोई अंधेरा नहीं है, यहां सब अच्छा है, आइए, स्वागत है आपका! और वहीं सीढ़ियों पर सब स्वागत चल रहा है। और घर के भीतर न वह खुद जाता है, न किसी और को ले जा सकता है। जहां खुद ही नहीं गया वहां दूसरे को कैसे ले जाए।
हम जिसे प्रेम करते हैं, उसको भी अपने भीतर का हिस्सा नहीं देखने देते, उसे भी हम धोखा ही देते चले जाते हैं। इसलिए कोई प्रेम भी नहीं हो पाता। हम खुद ही डरते हैं अपने को देखने से, तो हम दूसरे को कैसे देखेंगे? आत्म-साक्षात्कार का मतलब यह नहीं है कि बैठ कर एक आदमी चिल्लाए कि मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं। यह मूढ़ता है, आत्म-साक्षात्कार का उपाय नहीं। आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है कि मैं जानूं, मैं कैसा हूं? मैं जैसा हूं वैसा जानूं, उसे पहचानूं, उसे पूरी सच्चाई में पहचानूं कि मैं ऐसा आदमी हूं, यह मेरे भीतर है। और आप कहेंगे कि जब दिखाई पड़ जाए, तो फिर हम क्या करें? मैं कहता हूं, पहले देख लें, जल्दी मत करें कि हम क्या करें। पहले देख लेना जरूरी है। और देखने से ही, जो करना है वह दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा कि हम क्या करें।
रास्ते पर आप जा रहे हैं और एक सांप आ गया रास्ते पर, फिर आप किसी से पूछते हैं अब मैं क्या करूं? फिर आप पूछते हैं कि जाऊं किसी गुरु के पास, पता लगाऊं कि सांप रास्ते पर आ जाए तो क्या करना चाहिए। सांप रास्ते पर दिखा, फिर न गुरु की फिक्र, न किसी से पूछने की, आदमी छलांग लगाता है। घर में आग लग जाए, फिर आप गीता खोल कर देखते हैं कि घर में आग लगी हो, तो क्या करना चाहिए। गीता-वीता वहीं घर में पड़ी रह जाती है आदमी छलांग लगा कर बाहर हो जाता। जब जिंदगी की असलियत दिखाई पड़नी शुरू होती है, वहां सांप और आग दिखाई पड़नी शुरू होती है। वहां जहर दिखता है, तो कोई पूछने नहीं जाता कि क्या करूं, छलांग लग जाती है। वह इतनी खतरनाक चीजें हैं कि उनके साथ एक क्षण रहा नहीं जा सकता। एक सडन चैंज, एक जैसे विस्फोट हो गया हो, इस तरह का परिवर्तन शुरू हो जाता है। जीवन में जो क्रांति आती है, वह आपके बदलने से नहीं आती, आपके जानने से आती है। ज्ञान के अतिरिक्त और कोई क्रांति नहीं है। नालेज इज़ ट्रांसफार्मेशन। बस ज्ञान ही क्रांति है। लेकिन हम ज्ञान से ही बचते हैं। और अज्ञान में जीते हैं। और फिर हम लोगों से पूछते हैं, अहिंसा लाना है तो क्या करें? क्रोध हटाना है तो क्या करें? अशांति मिटानी है तो क्या करें? दूसरों से पूछते हैं!
एक मित्र मेरे पास आए और मुझसे कहने लगे कि मैं श्री अरविंद आश्रम गया। शांति नहीं मिली वहां भी। तो ऋषिकेश गया, वहां भी शांति नहीं मिली। किसी ने आपका नाम दिया, आपके पास आ गया। छह महीने से भटक रहा हूं। कृपा करके मुझे शांति दें। मैंने उनसे पूछा, अशांति लेने के लिए किस आश्रम गए थे? अरविंद आश्रम गए थे? ऋषिकेश गए थे? मेरे पास आए थे? अशांति खुद ही पैदा कर ली? बड़े काइयां और चालाक मालूम होते हैं! और शांति दूसरों से पाने के लिए निकले हुए हैं। जिस ढंग से अशांति पैदा की है उस ढंग को समझो, शांति पैदा होनी शुरू हो जाएगी। क्योंकि अशांति मैंने पैदा की है, तो मैं जानूं कि मैंने अशांति कैसे पैदा की है? मैं जानता हूं कि मैंने कैसे पैदा की है। उसको बदलना भी नहीं चाहता, अशांति के जो कारण हैं उनको देखना भी नहीं चाहता। फिर किसी गुरु से पूछता हूं, कृपा हो जाए, प्रसाद मिल जाए भगवान का कि चित्त शांत हो जाए। अशांति के कारण भी नहीं बदलना है और शांत भी होना है। यह असंभव है।
इसलिए मैं कहता हूं, शांति को खोजना ही मत; अशांति को खोजना। अशांति को जो खोज लेता है वह शांत हो जाता है। अहिंसा को खोजना ही मत; हिंसा को पहचानना, जो हिंसा को पहचान लेता है वह अहिंसक हो जाता है। घृणा को छोड़ना ही मत; जो छोड़ेगा वह खतरे में पड़ जाएगा। क्रोध को छोड़ना ही मत; छोड़ेगा, उसके भीतर क्रोध इकट्ठा होने लगेगा।
नहीं, क्रोध को जानना, पहचानना, क्रोध को देखना, समझना और क्रोध विलीन हो जाएगा। जो अशुभ है, वह ज्ञान के सामने टिकता ही नहीं है। जैसे दीये के सामने अंधेरा नहीं टिकता, ऐसे ज्ञान के सामने अशुभ नहीं टिकता। वह जो नकली आदमी है, उसको देखें, वह नकली आदमी विदा हो जाएगा। वह कब घर छोड़ कर चला गया और असली आदमी आ गया इसका पता भी नहीं चलेगा।
लेकिन हम कहते हैं, दूसरे आदमी में कैसे पहचानें? दूसरे आदमी में पहचानने की पहली तो बात जरूरत नहीं है। दूसरी बात, दूसरे आदमी को पहचानने में समय खोना खतरनाक है। समय बहुत सीमित, समय बहुत अल्प, उसको अपने काम में लगाइए। तीसरी बात, दूसरे आदमी में नकली आदमी देख कर प्रसन्न होने का चित्त होता है कि अरे सब नकली हैं, तो हर्ज क्या है, अगर हम भी नकली हुए। एक तृप्ति मिलती है कि सभी नकली हैं।
आदमी सुबह से अखबार पढ़ता है, उसमें देखता है, फलां जगह हत्या हो गई, फलां जगह चोरी हो गई, फलां जगह फलां औरत--और आदमी के साथ भाग गई। वह बड़ा खुश होता है कि सारी दुनिया खराब है। क्यों खुश होता है? क्योंकि तब अपने खराब होने में कोई खास हर्जा नहीं है। ऐसा है ही। अगर कोई अखबार अच्छी-अच्छी खबरें छापे, अखबार बिकेगा ही नहीं। क्योंकि कौन खरीदे? अखबार को बुरी खबरें छापनी पड़ती हैं, न मिले तो बनानी पड़ती हैं, झूठी भी गढ़नी पड़ती हैं। क्योंकि बुरा आदमी बुरी खबरें पड़ने को घर के भीतर जग कर बैठा हुआ है चाय पी कर, वह खबर कर रहा है कि न्यूज पेपर कहां है? क्यों? क्योंकि वह तृप्त हो सके कि अब दिन भर बुरा करो। सारी दुनिया में बुरा हो रहा है। इसलिए अखबार अच्छी खबर छापने में मजबूर है, नहीं छाप सकता, बिकेगा नहीं। बुरा आदमी अखबार पड़ने की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है, वह जानना चाहता है कि हर आदमी अपराधी है। क्यों? क्योंकि वह अपने अपराध के बोझ को कम करना चाहता है। जब सभी अपराधी हैं, तो हर्ज क्या है। फिर मैं भी हूं, आखिर मैं भी तो सब जैसा ही हूं। फिर बदलने की जरूरत भी क्या है। दुनिया ही ऐसी है। दूसरे की तरफ हम देखते हैं। हम जैसे हैं उससे बचने के लिए। और जिस आदमी को अपने को बदलना है, वह अपनी तरफ देखता है दूसरे की तरफ नहीं।
एक छोटी सी बात फिर हम मैं दूसरे प्रश्न की बात करूं।
मैंने सुना है, जापान में एक फकीर था, एक साधु। एक रात आधी रात अपने कमरे में बैठा हुआ पत्र लिख रहा है। किसी ने दरवाजे पर आकर धक्का दिया, कोई चोर, दरवाजा अटका था, खुल गया। चोर ने समझा था, साधु सो गया होगा। साधु ने आंखें उठाईं ऊपर, चोर घबड़ा गया, उसने छुरा निकाल लिया, साधु ने कहा, छुरे को भीतर रखो, यहां कोई जरूरत न पड़ेगी। आओ, अंदर आ जाओ। चोर इतना घबड़ा गया, इसलिए नहीं कि साधु के हाथ में कोई छुरा था। जिसके हाथ में छुरा है, उससे बहुत घबड़ाने की जरूरत नहीं। क्योंकि छुरे के खिलाफ छुरा उठाया जा सकता है। वह साधु निहत्था बैठा था, और जोर से हंसने लगा, उसने कहा, रख लो छुरा भीतर, कोई जरूरत न पड़ेगी, आओ बैठ जाओ, कैसे आए, बड़ी रात गए? वह आदमी घबड़ाहट में बैठ गया। उस साधु ने पूछा, कुछ जरूरी काम से ही आए होंगे। इतनी रात कोई भी तो नहीं आता? गांव दूर है। कैसे आए? क्या जरूरत पड़ गई? मैं क्या सेवा कर सकता हूं, बोलो? वह चोर तो घबड़ा गया! लेकिन इतने सच्चे आदमी के सामने झूठ बोलना भी बहुत मुश्किल हो जाता है। तो उस चोर ने कहा, क्षमा करें, मुझे जाने दें, मैं किसी काम से नहीं आया, मैं चोरी करने के खयाल से आया था। उस साधु ने कहा, चोरी करने के खयाल से? लेकिन बड़ा मुश्किल है, झोपड़े में तो कुछ है ही नहीं? और अगर आना था तो पहले खबर करनी थी, तो फकीर का झोपड़ा है, हम कुछ इंतजाम करके रखते। बड़ी गलती हो गई, सुबह ही एक आदमी सौ रुपये भेंट करता था। मैंने उसे वापस लौटा दिए। नहीं माना तो सिर्फ दस रुपये रखे हैं। दस रुपये से काम चल जाएगा? अब दुबारा कभी आओ, तो गरीब आदमी का खयाल रख कर आना चाहिए। पहले खबर करना चाहिए। अमीर के घर में बिना खबर जा सकते हो। हम गरीब हैं, हमारे घर में बिना खबर किए नहीं आना चाहिए। इसमें हमारा बहुत अपमान होता है।
वह चोर तो बहुत घबड़ा गया, उसकी तो श्वास फुल गई कि क्या करे क्या न करे? उस फकीर ने कहा, उस आले में रखे हुए दस रुपये उठा लो। लेकिन बड़ा दुख मन को होता है कि इतनी रात तुम आए और सिर्फ दस रुपये! उस चोर ने घबड़ाहट में, उसे कुछ होश नहीं है कि क्या कर रहा है, रुपये उठा लिए, जाने लगा, तो उस फकीर ने कहा, अगर कृपा कर सको और असुविधा न हो, तो एक रुपया मुझे उधार दे जाओ। बाद में लौटा दूंगा, क्योंकि सुबह से ही जरूरत पड़ेगी। उसने जल्दी से एक रुपया नीचे रख दिया, दरवाजे से भागने लगा, तो उस फकीर ने कहा, ठहरो, कम से कम दरवाजा तो अटका दो, और कम से कम धन्यवाद तो दे जाओ। रुपये तो कल खतम हो जाएंगे, धन्यवाद बाद में भी काम पड़ सकता है। उस चोर की तो सब समझ के बाहर हो गया। चोर को चोर मिल जाए, तो समझ के भीतर होता है। चोर को साधु मिल जाए, तो समझ के बाहर हो जाता है। चोर चोर को ही पहचान पाते हैं। और जो साधु चोर को भी पहचानते हैं, समझ लेना कि वह साधु भी चोर होगा, नहीं तो पहचान नहीं सकता। चोर चोर को ही पहचान सकता है। साधु तो बहुत गड़बड़ हो जाएगा, उसके समझ के बाहर हो जाएगा। तो चोर जिन साधुओं को पूजते हैं, समझ लेना कि उन दोनों की भी कोई आंतरिक संबंध है अन्यथा यह पूजा नहीं चल सकती।
साधु की पूजा बहुत मुश्किल है। साधु की हत्या की जा सकती है, पूजा नहीं की जा सकती। लेकिन हां, अपने ही ढंग का चोर हो, कपड़े और तरह के पहने हों, तो चल जाएगा। उस साधु ने कहा कि धन्यवाद पीछे काम पड़ेगा, दरवाजा अटका पागल, और धन्यवाद देना सीख! चोर ने घबड़ाहट में धन्यवाद दे दिया, दरवाजा भी अटकाया और भाग गया।
दो साल बाद वह चोर पकड़ा गया। और चोरियों के भी जुल्म उसके ऊपर थे। यह चोरी का भी पता चल गया अदालत को। तो उस साधु को बुलाया गया पूछने के लिए कि क्या इसने कभी तुम्हारे यहां चोरी की थी? चोर डरा हुआ था, क्योंकि साधु की इतनी, उसके शब्द का इतना मूल्य था कि अगर वह कह दे कि हां यह एक दफा चोरी करने आया था। तो फिर सब प्रमाण व्यर्थ हैं। फिर चोरी सिद्ध ही हो गई। चोर डरा हुआ कंप रहा है। साधु गया, जज ने पूछा, इसने कभी चोरी की है? उस साधु ने गौर से देखा, उसने कहा, चोरी! चोरी की बात ही अलग, यह आदमी बहुत अदभुत है। एक रुपया इसका मुझे उधार देना है, दो साल से खीसे में रख कर घूम रहा हूं, इसका कोई पता नहीं है। यह रुपया ले, फिर मिला की नहीं मिला, वह तो अदालत की कृपा है कि तू मिल गया, यह रुपया सम्हाल अपना। हम मुसीबत में पड़े हुए हैं कि रुपया कैसे लौटाएं।
जज ने कहा, कहां का रुपया, यह क्या मामला है? उस साधु ने कहा, दस रुपये मैंने इसे भेंट किए थे, भेंट के बदले में इसने धन्यवाद दे दिया था। वह बात खतम हो गई। एक रुपया इससे मैंने उधार लिया था। वह मुझे वापस लौटाना है। और इसको आप चोर कहते हैं। यह चोर नहीं है। अगर यह चोर होता, तो चोरी करने की जरूरत ही न पड़ती। चोरों को चोरी करने की जरूरत नहीं है। राजधानी में बड़े-बड़े महल बना कर वे बैठे हुए हैं। चोर को चोरी की कोई जरूरत ही नहीं है। यह चोर है, तो इसको चोरी की क्या जरूरत होती। अब तक महल खड़े कर लिए होते, तिजोड़ियां भर ली होतीं इसने। यह आदमी बहुत सीधा-साधा है। जज तो बहुत घबड़ाया, उसने कहा, सीधा-साधा, आप कहते हैं? आपके घर यह चोरी करने नहीं गया? उसने कहा, पागल है यह, जिस घर में कुछ भी नहीं है, दो मील गांव छोड़ कर वहां गया। यह बहुत दीन-हीन है, यह बहुत दरिद्र है, यह चोर कैसे हो सकता है? यह दया के योग्य है। और जिस समाज ने इसे इतना दीन-हीन बनाया, वह समाज चोर है!
लेकिन ऐसे आदमी को समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा। यह आदमी इस चोर में भी चोर को नहीं देख पा रहा है, इस चोर में भी यह और कुछ देख पा रहा है, जो हमें दिखाई पड़ना मुश्किल हो जाए। क्यों? हम तो इसमें चोर ही देखना चाहेंगे, ताकि हमारे भीतर के चोर को राहत मिल जाए।
दूसरे की तरफ देख कर हम अपने को तृप्त कर रहे हैं। अपने को तृप्त इस तरह करना बहुत खतरनाक है। इसलिए मत पूछें कि हम दूसरे में कैसे पहचानें कि क्या असली है और क्या नकली है। जानें, खोजें, खुद में क्या असली है और क्या नकली है?

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि पश्चिम में मैटीरियलिज्म है, वहां भी लोग शांत नहीं है, वहां भी बड़ी अशांति है?
भारत इस तरह की बातें सुन कर बड़ी तृप्ति अनुभव करता है। अच्छा वे भी अशांत हैं, तो फिर ठीक है, हम भी अशांत हैं तो क्या हर्जा है। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं, गरीब की अशांति में और अमीर की अशांति में बुनियादी फर्क है। गरीब की अशांति अभाव की अशांति है। और अभाव की अशांति बहुत खतरनाक है। अमीर की अशांति अभाव की नहीं, अतिरेक की, एफ्लुअंस की अशांति है। और अतिरेक की अशांति बहुत सौभाग्य है। क्यों? क्योंकि गरीब अपनी अशांति में, रोटी-रोजी के सिवाय कुछ भी नहीं सोच सकता। और अमीर अपनी अशांति में परमात्मा के संबंध खोजना और सोचना शुरू कर देता है। गरीब अशांत होता है तो उसकी कामना पदार्थ के लिए होती है। और अमीर अशांत होता है तो उसकी कामना परमात्मा के लिए शुरू हो जाती है। यह बहुत अदभुत बात है कि जो मैटीरियलिस्ट हैं, भौतिकवादी हैं, वे आध्यात्मिक हो सकते हैं। लेकिन जो निपट थोथे अध्यात्मवादी हैं, वे सिवाय भौतिकवादी के और कुछ भी नहीं हो सकते हैं। इसलिए पश्चिम में एक अशांति है। लेकिन वह अशांति सौभाग्यपूर्ण है। पश्चिम उस जगह पहुंच गया है, जहां से पदार्थ व्यर्थ हो जाएगा। धन मिल गया है, मकान मिल गए हैं, सब मिल गया है जो मिल सकता था। लेकिन अब क्या करें? अब कहां जाएं? अब कहां खोजें? बाहर खोज लिया है, बाहर जो मिल सकता था, मिल गया है, लेकिन फिर भी शांति नहीं है, पश्चिम की भीतर की खोज शुरू हो जाएगी, हो गई है।
लेकिन भारत में, बाहर की खोज ही पूरी नहीं हो पाई, तो भीतर की खोज कैसे शुरू हो? रोटी ही नहीं मिल पाई, प्रार्थना कैसे शुरू हो? नहीं, हम कहेंगे, गलत कहते हैं आप, हम तो प्रार्थना करते हैं। लेकिन वह प्रार्थना भी रोटी के लिए होती है। वह प्रार्थना भी प्रार्थना नहीं है, रोटी ही है। मंदिर में एक आदमी हाथ जोड़े खड़ा है, खोलो उसके हृदय को और पूछो, क्या मांग रहे हो? मांग रहा है कि लड़की की शादी नहीं हो रही, कहीं शादी लगा दो। यह अध्यात्मवाद है! मांग रहा है कि लड़का बीमार है, दवा के लिए पैसे चाहिए। हे भगवान, या तो पैसे दिलवा दो या लड़के की बीमारी ठीक कर दो। यह अध्यात्मवाद है! मांग रहा है कि नौकरी नहीं लगती, नौकरी लगवा दो। यह अध्यात्मवाद है!
गरीब आदमी की प्रार्थना भी पदार्थ के लिए ही हो सकती है, परमात्मा के लिए कैसे होगी? वह अगर परमात्मा को भी मांगेगा, तो इसलिए कि पदार्थ मिल जाए, रोटी मिल जाए, रोटी मिल जाए।
तो मैं आपसे कहता हूं, पश्चिम भी अशांत है, पूरब भी। लेकिन पश्चिम की अशांति बहुत दूसरी है पूरब की अशांति से। पूरब की अशांति गरीब की अशांति है। गरीब की अशांति क्या सोचती है, क्या मांगती है, गरीब की अशांति से मैटीरियलिज्म पैदा होता है, भौतिकवाद पैदा होता है। अमीर की अशांति से अध्यात्मवाद पैदा होता है।
हिंदुस्तान के तीर्थंकरों का इतिहास उठा कर देखें। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के लड़के हैं। हिंदुओं के भगवान सब राजाओं के लड़के हैं। हिंदुस्तान में गरीब का एक भी बेटा अब तक तीर्थंकर और अवतार नहीं हो सका भगवान का। क्यों? कुछ कारण हैं। बुद्ध के घर में सब कुछ है, महावीर के घर में सब कुछ है। और फिर भी शांति नहीं है, तो भीतर की यात्रा शुरू हो गई। महावीर को एक गरीब के घर में रख दो, भूख में पैदा हों, नंगे पैदा हों, फिर नंगे होने का खयाल कभी पैदा नहीं होगा! फिर यही खयाल होगा कि कपड़े कैसे मिल जाएं, एक मकान कैसे मिल जाए, रोटी कैसे मिले, नौकरी कैसे मिले!
धर्म समृद्ध जीवन से पैदा होता है। मेरे हिसाब में धर्म जो है, समृद्धि की आखिरी लक्जूरी है। जब समृद्ध होता है समाज, तो धर्म के फूल खिलते हैं। गरीब समाज में नहीं। लेकिन गरीब समाज बड़ी तृप्तियां और कनसोलेशन खोजता है। वह यह कहता है, अरे, तो तुम भी तो अशांत हो, तुम्हारे पास हवाईजहाज हैं, राकेट हैं, चांद पर जा रहे हो, क्या फायदा? तुम भी अशांत हो। बड़ी राहत मिलती है मन को कि हम भी अशांत हैं, फिर क्या फिक्र। तुम भी अशांत हो। तुम्हारे यहां भी तो सब अशांति है। तुम भी तो पूरब आते हो पूछने की शांत कैसे हो जाएं। तो फिर क्या जरूरत है हमें।
मैंने सुना है, एक मित्र एक कहानी मुझे सुना रहे थे। वे कह रहे थे कि एक स्टेशन पर हरिद्वार जाने के लिए एक ट्रेन खड़ी, सारे लोग चढ़ रहे हैं डिब्बों में, और हर आदमी यही चिल्ला रहा है कि जल्दी अंदर जाओ, सामान चढ़ाओ, गाड़ी छूटने को है, जगह घेरो, स्थान बनाओ। पांच-सात मित्र एक आदमी को घेरे खड़े हैं, उसे खींच रहे हैं, और वह आदमी तो दलीलें कर रहा है, गाड़ी का गार्ड सीटी बजा रहा है, झंडी दिखा रहा है, वह आदमी से वे मित्र कह रहे हैं, जल्दी अंदर चलो। वह मित्र कह रहा है, पहले एक बात बता दो, इस गाड़ी से उतरना तो नहीं पड़ेगा? अगर उतरना ही पड़ा, तो फिर चढ़ें की क्या जरूरत? चढ़ने से क्या फायदा? अगर उतरना ही है, तो चढ़ने क्यों? उस आदमी का दलील ठीक है। वह यह कह रहा है कि अगर उतर ही पड़ेगा इस गाड़ी से, तो फिर हम नहीं चढ़ते। अगर न उतरना हो तो चढ़ते हैं। अब वे मित्र कैसे समझाएं गाड़ी छूटने को हैं। उन्होंने जबरदस्ती उस आदमी को बिना समझाए, भीतर गाड़ी के अंदर कर लिया।
फिर गाड़ी हरिद्वार पहुंच गई। अब गाड़ी, उतरने को है, सारे लोग उतर रहे हैं। पिछले स्टेशन पर सारे लोग चिल्ला रहे थे, अंदर चलो, अब सारे लोग चिल्ला रहे हैं, बाहर उतरो, गाड़ी छूटने को है, नीचे उतरो, सामान निकालो, जल्दी बाहर आओ। अब वे मित्र फिर उसको पकड़े हैं। वह मित्र कह रहा है, हम उतरेंगे नहीं, क्योंकि हमको चढ़ाया क्यों? जब चढ़ गए तो उतरें क्या! हम वैसे लोग नहीं हैं कि जब चढ़ गए तो उतर जाएं। अब हम उतरने वाले नहीं हैं। जब उतरना ही था, तो हम उतरे ही हुए थे, हमको चढ़ाया क्यों? और वे मित्र कह रहे हैं कि तुम बिलकुल पागल हो, उतरे हुए तुम अमृतसर पर थे, यह हरिद्वार है। अगर वहीं उतरे रह जाते तो अमृतसर पर ही रह जाते, हरिद्वार नहीं आ पाते। यह हरिद्वार है, यहां उतरो अब, यात्रा पूरी हो गई।
हिंदुस्तान का गरीब आदमी कहता है कि अगर समृद्ध होने से भी अशांति रहती, तो हम समृद्ध ही क्यों हों, हम चढ़ें ही क्यों, बकवास छोड़ो, हम गरीब ही ठीक हैं। अशांत तो हम पहले से हैं, लेकिन यह अमृतसर है खयाल रखना, वह हरिद्वार है। वे पहुंच कर उतर रहे हैं, आप पहुंचे ही नहीं हैं। दोनों के बिंदुओं में भेद है, वे जहां खड़े हैं वह समृद्धि के बाद, हम जहां खड़े हैं समृद्धि के पहले। इसमें फर्क समझ लेना जरूरी है? एक आदमी भूखा मर रहा है अकाल में, बिहार में अकाल पड़ा हुआ है, एक आदमी भूखा मर रहा है और दूसरा आदमी उरली कांचन में आ कर उपवास कर रहा है। फर्क समझते हैं दोनों में? यह आदमी ज्यादा खा गया, ओवरफेट, जो उरली कांचन में आया हुआ है, यह ज्यादा खाने की वजह से बेचारा उपवास कर रहा है। चले जाओ बिहार में और वहां भूखे आदमी से कहो कि तू बड़ा सौभाग्यशाली है, भगवान की कृपा, कि उरली कांचन जाने की जरूरत नहीं, तू यहीं उपवास कर रहा है। तो उसकी समझ के बाहर होगा कि आप क्या कह रहे हैं, उपवास? मैं भूखा मर रहा हूं। उपवास करने वाला भूखा नहीं मर रहा है, ज्यादा खा गया है। ज्यादा खाए को उतार रहा है। वह वहां लौट रहा है, नार्मल होने की हालत में। वह आदमी बेचारा उसको खाना ही नहीं मिला। वह मरने की हालत में है, उसे भोजन चाहिए, ताकि वह नार्मल हो सके। इन दोनों की यात्राएं अलग हैं, एक अमृतसर पर है, एक हरिद्वार पर है।
उपवास में और भूखे मरने में फर्क है। गरीब आदमी भूखा मरता है, अमीर आदमी उपवास करता है। जिन समाजों के पास ज्यादा पैसा होता है, उन समाजों में उपवास करने वाला धर्म प्रचलित हो जाता है। जैसे जैनियों में उपवास करने वाला धर्म प्रचलित है, ओवरफेट सोसायटी है। और कोई कारण नहीं है। गरीब आदमी में उपवास की क्रीड नहीं चल सकती, उपवास का पंथ नहीं चल सकता। गरीब आदमी कहेगा, हम उपवासे है हीं। यह कहां कि बातें कर रहे हो? हमें कुछ ऐसा धर्म बताओ कि कभी-कभी उत्सव का दिन आ जाए धर्म का, उस दिन हम अच्छा खाना भी खा सकें। तो गरीब आदमी का जो धर्म होगा, उसमें धार्मिक दिन पर ज्यादा खाना खाया जाएगा। अमीर आदमी का जो धर्म होगा उसमें धार्मिक दिन पर भूखा रहा जाएगा। इसके कारण हैं पीछे, वह अमीर और गरीब का मामला है, उसमें कुछ और मामला नहीं है।
महावीर नग्न खड़े हो गए, वे एक राजपुत्र हैं, उन्होंने श्रेष्ठतम कपड़े पहने हैं। अच्छे-अच्छे कपड? ही अगर मिलते रहें। और आगे अच्छे कपड़े मिलने का दरवाजा बंद हो जाए, मतलब आखिरी कपड़े मिल जाएं, तो उनसे बोर्डम शुरू हो जाती, आदमी ऊबने लगता है। फिर वह आदमी कहता है, अब गरीब होने का मजा लेना चाहिए। सिर्फ अमीर आदमी गरीब होने का मजा ले सकता है, यह ध्यान रखना। गरीब आदमी कभी गरीब होने का मजा नहीं ले सकता। गरीब आदमी को अमीर होने में थोड़ा-बहुत मजा आ सकता है, गरीब होने में नहीं। इसलिए गरीब अमीर होना चाहता है। और जब अमीर अपनी अमीरी पर पहुंच जाता है, तो फिर गरीबी की कल्ट शुरू हो जाती है।
अभी मैं बनारस में था। हिप्पी और बीटनिक और बीटल, बनारस की सड़कों पर सैकड़ों आते हैं। दो हिप्पी मुझसे मिलने आए। मैंने उनसे पूछा, तुम क्या कर रहो हो यह? वे करोड़पतियों के लड़के हैं अमेरिका में और बनारस की सड़कों पर दस पैसा मांग रहे हैं खड़े होकर! मैंने उनसे पूछा, तुम यह कर क्या रहे हो? तुम्हारे पास सब कुछ है! तुम बिना चप्पल के बनारस की गर्म सड़कों पर चल रहे हो, झाड़ों के नीचे सो रहे हो, दस-दस पैसे भीख मांग रहे हो? तुम्हारे पास सब है। उन्होंने मुझसे क्या कहा? उन्होंने कहा, वह सब है, लेकिन उससे हम ऊब गए।
गरीबी बड़ा चैंज मालूम पड़ती है, बड़ा अच्छा लगता है। हाथ फैला कर मांग रहे हैं, वृक्ष के नीचे सो गए हैं, बड़ा आनंद आता है। लेकिन यह आनंद किसको आ रहा है? यह बड़े महलों में जो ऊब गया है उसको। सड़क के किनारे जो पड़ा है, उसकी समझ के बाहर है कि यह कैसा आनंद आ रहा है आखिर! बड़ा आदमी जिसके घर में दस-पच्चीस कारें हों, पैदल चलना चाहता है। कारों में मजा नहीं आता, पैदल चलना चाहता है। पैदल चलने में बड़ा सुख मालूम होता है। राकफेलर या मार्गन जैसे लोग, जब सड़क पर पैदल चलते हैं, तो सारी सड़क के लोग चौंक कर देखते हैं, राकफेलर जा रहा है पैदल! एक गरीब आदमी भी निकलता है वहीं से पैदल, कोई उसकी तरफ नहीं देख रहा। और उस गरीब आदमी के बगल से कार फर्राती हुई निकलती है, धुल उड़ाती हुई, उसकी छाती जल जाती है। सोचता है, कार में बैठे हुए लोग कितना आनंद उठा रहे होंगे, कब मैं बैठूंगा?
मेरे एक मित्र बेल्जियम गए हुए थे। रास्ता भटक गए। कार से ही यात्रा कर रहे थे, यूरोप। एक रास्ते पर जहां कोई नहीं है, एक बूढ़ा किसान सड़क के किनारे बैठा हुआ तंबाकू पी रहा है। गाड़ी रोक कर उससे पूछा, यह रास्ता कहां जाएगा? वह चुप रहा। फिर पूछा कि क्या आप सुनते नहीं। उसने कहा, मैं सुनता हूं, लेकिन किसी कार वाले से पूछो, हम पैदल चलने वाले हैं। हमसे क्या मतलब? हमसे क्या संबंध? तुम कार वाले, हम पैदल चलने वाले। किसी कार वाले से पूछो की रास्ता कहां जाता है। हम अलग ही तरह के आदमी हैं, हम पैदल चलने वाले, हमसे तुम्हारा संबंध क्या? उन्होंने मुझसे कहा, उस आदमी ने यह कहा कि हमसे तुम्हारा संबंध ही नहीं है कोई, तुम दूसरे तरह के आदमी हो! तुम उनसे पूछो जो तुमसे संबंधित हैं, हमसे क्या पूछते हो! हम पैदल चलने वाले, कोई पैदल चलने वाला होगा, तो हम बताएंगे कि रास्ता कहां जाता है।
पैदल चलने वाले के मन में आग लग जाती है कार बगल से गुजरती है तब,र् ईष्या से भर जाता है वह। कोई उसे नहीं देखता कि यह पैदल जा रहा है। लेकिन जब कारों में चलने वाला आदमी पैदल चलता है, चारों तरफ लोग देखते हैं। अब मजा समझ लीजिए आप? गरीब आदमी कार में क्यों बैठना चाहता है? क्योंकि गरीब आदमी को कार में बैठे, तो लोग देखते हैं और अमीर आदमी जब पैदल चले, तो लोग देखते हैं। दोनों की आकांक्षा एक है कि लोग देखें। लेकिन अमीर जब पैदल चले तब देखेंगे और गरीब जब कार में बैठे तब देखेंगे। दोनों की आकांक्षा में बुनियादी फर्क नहीं है। लेकिन अमीर की आकांक्षा और गरीब की आकांक्षा में स्थान का फर्क है। और वह स्थान यह है कि अमीर पहुंच कर लौट रहा है। अमीर अनुभव से लौट रहा है। गरीब अनुभव के पहले खड़ा है। इसलिए गरीब अगर संन्यासी भी हो जाए, तो भी ठीक अर्थों में संन्यासी नहीं हो पाता। क्योंकि जो उसने भोगा नहीं है, उसका त्याग कैसे कर सकता है? वह उसके मन में भोगने की कामना बनी ही रहती है। इसलिए गरीब अगर संन्यासी हो जाए, तो बहुत जल्दी आश्रम खड़ा करेगा। और अमीरों के सारे ढंग उस आश्रम में इकट्ठे होने शुरू हो जाएंगे। गरीब अगर संन्यासी होगा, तो आश्रम खड़ा करेगा। अमीर अगर संन्यासी होगा, तो आश्रम खड़ा नहीं करेगा।
यह जान कर आप हैरान होंगे कि महावीर के संन्यासियों ने कोई आश्रम खड़ा नहीं किया, वे पैदल चलते रहे। उन्होंने आश्रम खड़ा ही नहीं किया। वे धनी घरों से आने वाले लोग थे। वे बड़े-बड़े मकानों में रह चुके थे। अब बड़े मकान बनाने का कोई सवाल नहीं था। गरीब घरों से जो संन्यासी आए जिन समाजों के, उन्होंने बड़े-बड़े आश्रम खड़े कर लिए। और आश्रम में वही इंतजाम कर लिया, जो गरीब आदमी अपने महलों में नहीं कर पाया।
एक शंकराचार्य हैं, कोई भी शंकराचार्य हों, सोने का सिंहासन साथ ले कर चलते हैं, यह गरीब आदमी का सबूत है। यह गरीब घर से आ रहा आदमी। गरीब ब्राह्मण है, संन्यासी हो गया, सोने के सिंहासन पर बैठता, वह कहता है, नीचे मैं नहीं बैठूंगा, मैं सोने के सिंहासन पर बैठूंगा। सोने के सिंहासन पर बैठने की इच्छा थी, गरीब ब्राह्मण है, मौका मिला नहीं, अब संन्यासी हो गया, अब मौका मिल गया, अब वह कहता है, हम नीचे नहीं बैठेंगे, हम सोने के सिंहासन पर बैठेंगे। आगे सिंहासन चलता है, पीछे वह गरीब ब्राह्मण संन्यासी चलता है। वह कहता है, पहले सोने का सिंहासन रखो, फिर हम बैठें।
महावीर के लिए ले जाओ सोने का सिंहासन, वे कहेंगे, यह क्या यहां ले आए, हम छूते नहीं, अलग हटाओ यहां से। क्यों? यह फर्क क्यों है? यह फर्क क्या है? यह फर्क यह है कि जो सोने के सिंहासनों से उतर कर आया है, उसे सोने के सिंहासन में कोई अर्थ नहीं रह गया। लेकिन जिसके मन में गरीब की जो कामना थी, वह रह गई है, अगर कोई भी मौका मिल जाए, तो वह अमीर दिखाने के ढोंग पूरे के पूरे करेगा। वह करेगा ही।
तो मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि पश्चिम में अशांति है, लेकिन वह अशांति बहुत शुभ है और भगवान वैसी अशांति इस मुल्क को कब देगा, इसकी प्रार्थना करनी चाहिए? इस मुल्क की जो अशांति है, बहुत दुखद है; अभाव की अशांति है, उससे हम कब मुक्त हो जाएं तो अच्छा।
यह मुझे दिखाई पड़ता है कि पूरब के मुल्क धीरे-धीरे भौतिकवादी होते चले जाएंगे। पश्चिम के मुल्क धीरे-धीरे आध्यात्मिक होते चले जाएंगे। यह होगा ही। और जिन तीनों पूरब अध्यात्मवादी था, वह उन दिनों था, जब पश्चिम गरीब था और पूरब अमीर था। जब पूरब में भी अमीरी थी, तो पूरब अध्यात्म की बातें करता था। अब अमीरी पश्चिम चली गई। पेंडुलम बदल गया है। अब वे अध्यात्म की बातें करेंगे। अब आप नहीं। अब आपको तो कम्युनिज्म की बात करनी पड़ेगी, समाजवाद की बात करनी पड़ेगी, टेक्नोलॉजी की बात करनी पड़ेगी, आपको तो बड़े उद्योग, तंत्र खड़े करने पड़ेंगे, आपको तो मैटीरियलिज्म की बात करनी पड़ेगी, आपको साइंस की बात करनी पड़ेगी। नहीं तो आप नासमझी में पड़ जाएंगे, अमृतसर पर खड़े रह जाएंगे। और कहेंगे, हरिद्वार पर लोग उतर रहे हैं तो हम चढ़ें ही क्यों। हम यहीं रुकें रह जाएं, जब उतरना ही है तो हम चढ़ते ही नहीं हैं।
भारत में इस तरह की बातें समझाने वाले लोग हैं, वे कहते हैं कि देखो पश्चिम की तरफ, सब है फिर भी दुखी हैं, इसलिए किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है।
हिंदुस्तान में गरीबी की एक कल्ट, गरीबी का एक पंथ चल रहा है। दरिद्र को हम दरिद्रनारायण कहते हैं। यह बड़ा खतरनाक शब्द है। दरिद्रनारायण, गरीबी को मेग्निफाई कर रहे हैं, गरीबी को ग्लोरीफाई कर रहे हैं, गरीबी को सम्मान दे रहे हैं। कह रहे हैं, यह दरिद्र नारायण हैं। यह नकल है। लक्ष्मीनारायण शब्द तो होता था, दरिद्रनारायण शब्द बिलकुल नया है, अभी-अभी गढ़ा गया है। लक्ष्मीनारायण शब्द पुराना है। पैसा जिसके पास था, उसको हम लक्ष्मीनारायण कहते थे। गरीब को हम कहते हैं कि दरिद्रनारायण हैं ये।
बर्नर्डसा से एक मित्र ने जा कर कहा कि गांधी जी कहते हैं कि दरिद्रनारायण हैं, दरिद्रता भी एक आध्यात्मिकवाद बनाए दे रहे हैं वे। वे थर्डक्लास में चलते हैं, और कोई पूछता है, थर्ड में क्यों चलते हैं? वे कहते हैं, चूंकि फोर्थक्लास नहीं है। वे गरीबी को एक आदर दे रहे हैं। बर्नर्डसा ने कहा, मैं गरीबी को घृणा करता हूं, उतनी ही जितनी प्लेग को, मलेरिया को। और दुनिया से गरीबी मिटनी चाहिए। जड़मूल से मिटनी चाहिए। गरीबी को बचाने की जरूरत नहीं है।
लेकिन गरीबी को अगर आदर देंगे, तो फिर गरीबी मिटेगी नहीं, बचेगी। और हिंदुस्तान गरीबी को आदर दे रहा है। और आदर देने के लिए वह तरकीबें खोजता है। वह एक तरकीब तो यह खोजता है कि देखो जिसके पास सब है, उनके पास भी क्या है। अशांत वे भी हैं, अशांत हम भी हैं। खतम हो गई बात। कुछ वैज्ञानिक साधनों से संपत्ति पैदा करने की जरूरत नहीं है।
लेकिन यह बुनियादी फर्क ठीक से समझ लेना चाहिए। गरीब आदमी भीतर से हमेशा अमीर होना चाहता है, यह स्वाभाविक है। और अगर समझ-बूझ कर उसने अपने को गरीब बना कर रोक लिया, तो वह अमीर भी नहीं हो पाएगा। और अमीरी के बाद जो गरीबी का सुख है, वह भी उसे कभी नहीं मिल पाएगा। अगर सारी दुनिया समृद्ध हो जाए, और सारी दुनिया समृद्ध हो सकती है आज। विज्ञान ने वह स्थिति पैदा कर दी है कि अगर दुनिया से राष्ट्र मिट जाएं, अब राष्ट्र भर एक बीमारी रह गई है जिसकी वजह से दुनिया गरीब है। अगर दुनिया के राष्ट्र मिट जाएं और सारी दुनिया एक हो जाए, तो आज विज्ञान ने इतनी ताकत पैदा कर दी है कि न किसी को भूखे रहने की जरूरत है, न किसी को गरीब रहने की। सब समृद्ध हो सकते हैं। और अगर सब समृद्ध हो जाएं, तो मैं आपसे कहता हूं, समृद्धि फिजूल हो जाएगी। और पहली दफे दुनिया में सरलता पैदा होगी, सादगी पैदा होगी। अब तक पैदा नहीं हो सकी। अब तक सादगी एक तपश्चर्या रही। लेकिन अगर दुनिया पूरी समृद्ध हो जाए, तो सादगी सहजता हो जाएगी। अगर सारी दुनिया में संपत्ति बिखर जाए, तो वह ऐसी ही हो जाएगी, जैसे पानी और हवा है। कोई उसकी चिंता नहीं करेगा। किसी को समझाना नहीं पड़ेगा कि धन का मोह मत करो, धन छोड़ो, त्याग करो, समझाना ही नहीं पड़ेगा, धन कम है, इसलिए धन का मोह है। धन थोड़े लोगों के पास है, इसलिए धन की आकांक्षा है। धन इतना कम है कि धन की तृष्णा है। धन इतने मुश्किल से मिलता है कि आदमी सब गंवा कर धन को इकट्ठा कर लेता है और धन में कुछ भी नहीं पाता; आखिर में तब मुश्किल में पड़ जाता है।
धन जिस दिन हवा-पानी की तरह होगा और आज हो सकता है। लेकिन जिस देश में लोग गरीबी को आदर देंगे और कहेंगे कि हम तो चरखा चलाएंगे, हम बड़ी टेक्नोलॉजी नहीं लाएंगे, हम तो पैदल चलेंगे, हम हवाईजहाज नहीं बनाएंगे, हम तो बड़ी मशीनें नहीं लगाएंगे, हम तो ग्रामोद्योग चलाएंगे। हम तो गांव-गांव में, स्वावलंबी बनेंगे, हम सेंट्रेलाइज नहीं करेंगे। ऐसी बातें करनी वाली कौम गरीब ही रहेगी और उसका चित्त हमेशा भौतिकवादी रहेगा, वह कौम कभी भी धार्मिक नहीं हो सकती और आध्यात्मिक भी नहीं हो सकती। लेकिन ये बड़ी उलटी बातें मालूम पड़ती हैं। क्योंकि हमको हमेशा यही सिखाया गया है। हमें हमेशा यही सिखाया गया है कि धन कुछ भी नहीं है।
लेकिन ध्यान रहे, धन कम है, इसलिए लोगों को समझाना पड़ता है कि धन कुछ भी नहीं है। इस समझाने में भी कि धन मिट्टी है, तुच्छ है, कुछ भी नहीं है। जो समझाता है वह भी बताता है कि धन जरूर कुछ है, नहीं तो समझाने की कोई जरूरत नहीं थी। हम कभी नहीं कहते लोगों से जा कर की मिट्टी मिट्टी है, हम यह कहते हैं, सोना मिट्टी है। सोना मिट्टी नहीं होगा तभी कहते हैं, नहीं तो यह नहीं कहते, कोई जरूरत नहीं थी कहने की। हम कभी नहीं कहते कि कंकड़-पत्थर कंकड़-पत्थर है, हम कहते हैं, हीरे-जवाहरात कंकड़-पत्थर हैं। क्यों? यह हम किसको समझा रहे हैं? हम जो समझाते हैं ठीक उससे उलटी हालत होगी, इसलिए हम समझाते हैं, नहीं तो समझाने की जरूरत नहीं। मेरी समझ यह है, पांच हजार साल हो गए समझाते लोगों को, कौन धन से मुक्त हुआ है? हां, कुछ लोग मुक्त होते हैं। और वे वे ही लोग हैं, जो किसी न किसी अर्थों में धन के अनुभव से गुजर जाते हैं। हां, कुछ लोग और भी मुक्त होते हैं, लेकिन वे मुक्त होते दिखाई देते हैं वे मुक्त हो नहीं पाते, वे धन से मुक्त होते ही नहीं; धन छोड़ देते हैं लेकिन मुक्त नहीं होते। वे हमेशा धन को पकड़े ही रहते हैं। नये-नये रूपों में पकड़े रहते हैं।
मैं जयपुर में था, एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा कि फलां-फलां मुनि हैं, बहुत बड़े संन्यासी हैं, आप उनसे मिलिएगा, आपको बड़ी खुशी होगी। मैंने कहा, तुमने किस तराजू से पता लगाया कि वे बहुत बड़े मुनि हैं? कैसे तौला तुमने कि बहुत बड़े संन्यासी हैं? एक बड़े धनी आदमी को तोला जा सकता है कि बड़ा धनी है, क्योंकि धन के सिक्के नापे जा सकते हैं। एक आदमी को तौला जा सकता है कि वह बहुत बड़े पद है, क्योंकि पद के सिक्के नापे जा सकते हैं। मैंने कहा, तुमने कैसे पता लगाया कि बहुत बड़े संन्यासी हैं? उसने कहा, पता, खुद जयपुर महाराज उनके चरण छूते हैं!
तो मैंने उससे कहा कि इसे ठीक से समझ लो? जयपुर महाराज बड़े हैं, वही मापदंड, अगर जयपुर महाराज उनके चरण न छूते हों, संन्यासी के, संन्यासी छोटे हो जाएंगे। जयपुर महाराज क्यों बड़े हैं? क्योंकि धन उनके पास ज्यादा है! तो धन ही संन्यासी को भी नाप रहा है। धन की ही तौल पर तराजू पर संन्यासी भी नापा जा रहा है। अगर गरीब का बेटा संन्यासी हो जाए, कोई नहीं कहेगा त्यागी है, लोग पूछेंगे, था क्या, जिसको छोड़ा? था ही नहीं कुछ, कुछ काम नहीं करना चाहता था, काहिल है, सुस्त है, अनएंप्लाएड था, बेकार था, संन्यासी हो गया था। लेकिन अमीर का बेटा संन्यासी हो जाए, लोग कहते हैं, महान त्याग किया। इसलिए अगर जैनों के, बौद्धों के ग्रंथ पढ़ें, तो उनमें लिखा हुआ मिलेगा, इतने घोड़े थे महावीर के पास, इतने हाथी थे, इतने रत्न थे, इतने रथ थे, इतना यह था, इतना यह था, इतना लंबा सिलसिला बताते हैं वे सब होने का। क्यों? क्योंकि उसी से नापा जाएगा कि महावीर कितने बड़े त्यागी थे। और तो कोई रास्ता नहीं त्याग का।
कहानी बहुत अदभुत है महावीर की, कहानी यह है कि महावीर का पहले गर्भ एक ब्राह्मण के घर में हुआ, एक गरीब ब्राह्मणी के पेट में हुआ है। कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। देवताओं ने कहा, ऐसा कहीं हुआ है कि तीर्थंकर गरीब के घर में पैदा हो। और अगर गरीब के घर में पैदा होगा, तो लोग पहचान ही नहीं सकेंगे। तो देवताओं ने गरीब ब्राह्मणी के पेट से निकाल कर महावीर को, राजा की पत्नी के पेट में रख दिया। और राजा की पत्नी के पेट के गर्भ को निकाल कर ब्राह्मणी के पेट में रख दिया। देवताओं ने बड़ा अच्छा काम किया, नहीं तो महावीर को कभी कोई पहचान नहीं सकता था कि कितने बड़े त्यागी हैं। कितने ही बड़े त्यागी होते, लेकिन पहचानना मुश्किल हो जाता, क्योंकि तौलना मुश्किल हो जाता। रुपये से हम तौलते हैं त्याग को भी।
और ये जो लोग निरंतर भौतिकवाद को गाली देते हैं, निरंतर, जब कोई आदमी कहता है, मैटीरियलिस्ट, तो ऐसा लगता है कि जैसे बड़ी भारी निंदा कर रहा है वह। लेकिन आपने कभी सोचा, हर आदमी मैटीरियलिस्ट है। हर आदमी। महावीर को भी भोजन करना पड़ेगा और बुद्ध को भी। और भोजन मैटर है कोई आत्मा नहीं है। महावीर को भी सांस लेनी पड़ेगी, कृष्ण को भी, मुझको भी सांस लेनी पड़ेगी, आपको भी, और सांस, सांस मैटर है कोई आत्मा नहीं है। जीना ही मैटर के भीतर है, जीना ही पदार्थ के बीच है, जीवन ही पदार्थ के बीच है। तो पदार्थ से भाग कर जाओगे कहां? कैसे जाओगे?
और सच तो यह है कि पदार्थ और जिसे हम परमात्मा कहते हैं, ये दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो नाम हैं। कहीं ऐसा नहीं है कि पदार्थ कुछ अलग है और परमात्मा कुछ अलग है। पदार्थ जो दिखाई पड़ता है, वह परमात्मा है और परमात्मा, जो पदार्थ नहीं दिखाई पड़ता है, वह पदार्थ है। दि विजिवल पॉट, वह जो दिखाई पड़ता है परमात्मा, उसका नाम पदार्थ है। दि इनविजिवल मैटर, जो पदार्थ नहीं दिखाई पड़ता, उसका नाम परमात्मा है। परमात्मा ही सघन हो कर पदार्थ है और पदार्थ ही विरल हो कर परमात्मा है। कोई परमात्मा और पदार्थ दो चीजें नहीं है। दोनों एक ही चीज के दो रूप हैं।
इसलिए यह सब पागलपन की बातें हैं कि कोई कहे कि फलां मैटीरियलिस्ट है और हम स्प्रिचुअलिस्ट हैं। हम अध्यात्मवादी हैं और फलां भौतिकवादी है। इस तरह की बातें सिर्फ अज्ञान के सबूत हैं और कुछ भी नहीं। हां, यह हो सकता है कि एक आदमी पदार्थ पर ही रुक जाए और आगे खोज न करें कि पदार्थ के और सूक्ष्मतम लोक भी हैं जहां परमात्मा की...आदमी पदार्थ पर रुक सकता है। लेकिन जो पदार्थ को ही नहीं पकड़ पाता, समझ पाता, वह और आगे कैसे बढ़ पाएगा? वह सिर्फ गालियां दे सकता है। गालियां देने से तृप्ति मिलती है और कुछ भी नहीं होता।
एक पश्चिम का विचारक है, वह हिंदुस्तान आया हुआ था। एक-दो छोटी सी घटनाएं, फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। वह हिंदुस्तान आया, वह दिल्ली उतरा। वह जैसे ही दिल्ली के स्टेशन पर उतरा, एक सरदार जी ने उसका हाथ पकड़ लिया। जार्ज माइक्स उसका नाम है। सरदार ने हाथ पकड़ लिया और जल्दी से बिना उसके कुछ कहे वह सरदार बताने लगा, भविष्य और अतीत और जन्म और मृत्यु और रेखाओं का अर्थ। उस जार्ज माइक्स ने कहा, क्षमा करिए, मैं जानना ही नहीं चाहता हूं। मैं जानना ही नहीं चाहता हूं, आप माफ करिए! मुझे भविष्य को जानने की कोई उत्सुकता नहीं है, मैं अभी जीना चाहता हूं, इसी क्षण। जब भविष्य आएगा, तब फिर जीऊंगा। अभी तो भविष्य आया नहीं है, जी सकता नहीं हूं, इसलिए उसकी फिजूल बकवास में समय नहीं खोना मुझे, मैं अभी जीना चाहता हूं।
उस सरदार ने कहा, मैटीरियलिस्ट हो तुम, अभी जीना चाहते हो। और जो भविष्य की रेखा पूछ रहा है कि कल क्या होगा, परसों क्या होगा, कब मरूंगा, ये अध्यात्मवादी हैं। सच बात यह है कि ये उस भौतिकवादी से ज्यादा भौतिकवादी हैं। वह बेचारा आज की फिक्र कर रहा है, यह कल की भी फिक्र कर रहा है, इसकी एंग्झाइटी, इसकी चिंता, इसका लोभ कल तक फैला हुआ है। लेकिन वे सरदार जी बताए ही चले गए। उस आदमी ने कहा, माफ करिए, मैं सिर्फ शिष्टता वश अपना हाथ आपसे नहीं छुड़ा रहा हूं, मैं जानना ही नहीं चाहता। लेकिन सरदार ने कहा, मेरे दो रुपये फीस हो गई है। इतनी देर मैंने बताया, दो रुपये मेरी फीस दे दीजिए। उस आदमी ने दो रुपया फीस दे दी। सरदार फिर और आगे बढ़ने लगा। उस आदमी ने कहा, माफ करिए! आपकी फीस फिर हो जाएगी, वह मैं जानना ही नहीं चाहता। सरदार ने क्या कहा, पता है? कहा कि तुम भौतिकवादी हो निरे, दो रुपये के पीछे भविष्य भी नहीं जानना चाहते!
जार्ज माइक्स ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि भौतिकवादी कौन था, मैं समझ ही नहीं पाया, मैं या वह आदमी, जो बता रहा था। वह दो रुपया खींचने के लिए मुझे जबरदस्ती मुझे बताए चला जा रहा। और जब मैं इनकार करता हूं, दो रुपये दे चुका हूं और आगे दो रुपये देने से इनकार करता हूं, तो मुझे गाली देता है कि तुम भौतिकवादी हो पश्चिम के लोग। दो रुपये के पीछे मरे जा रहे हो। यह हमारी चित्तदशा अध्यात्मवादी है? हम बहुत भौतिकवाद के भी नीचे तल पर खड़े हैं। लेकिन अपने मन को फुलाने के लिए अध्यात्म की बातें किए चले जा रहे हैं। और क्या करते हैं अध्यात्म की बातें?
एक दूसरी घटना मैंने पढ़ा, तो मैं हैरान हुआ। एक विचारक एक किताब पढ़ा। स्वामी शिवानंद ने एक किताब लिखी ऋषिकेश के। अब तो वे चल बसे, स्वर्गीय हो गए। उस किताब में उन्होंने लिखा है कि जो ओम का जाप करे निरंतर, सच्चे भाव से, भावना से ओम का पाठ करे, उसको कभी कोई बीमारी नहीं छू सकती, वह सदा स्वस्थ रहेगा। यहां तक की अगर ओम का पूरे भाव से पाठ किया जाए, तो उस ओम का पाठ करने वाले को मृत्यु नहीं आती, वह अमर हो जाता है।
एक डाक्टर ने यह पढ़ा। और उसने यह भी पढ़ा कि शिवानंद जी पहले खुद डाक्टर थे, संन्यासी होने के पहले। तो उसने कहा, एक डाक्टर जब ऐसी बात लिखता है, तो किसी आधार पर लिखता होगा। वह आदमी यूरोप से हिंदुस्तान आया। वह भागा हुआ ऋषिकेश गया। और उसने कहा कि मैं जा कर पहले उनके दर्शन कर लूं। और यह ओम का पाठ सीख लूं, क्योंकि अगर ओम के द्वारा सब बीमारियां दूर हो सकती हैं, तो ये मेडिकल कालेज और ये मेडिकल का इतना जाल, और इतनी दवाइयां, ये सब फिजूल हो जाएं। इतनी सस्ती तरकीब मिल जाए, तब तो बहुत अच्छा है।
वह गया, उसने जा कर स्वामी जी के दफ्तर में जा कर क्लर्क को पूछा, उनके सेकेट्री को पूछा कि मैं स्वामी जी के दर्शन करना चाहता हूं, इसी वक्त।  उनके सेकेट्री ने कहा, स्वामी जी अभी नहीं मिल सकते। उसने कहा, क्यों? उसने कहा, वे बीमार पड़े हैं और डाक्टर उनकी परीक्षा कर रहा है।
उसने कहा, यह कभी हो ही नहीं सकता कि स्वामी जी बीमार पड़ जाएं! उन्होंने तो लिखा है किताब में कि ओम के पाठ करने से कोई बीमारी कभी नहीं आती! वे तो मर भी नहीं सकते! क्योंकि उसमें लिखा है कि ओम का पाठ करने से मृत्यु भी पास नहीं आती, आदमी अमर हो जाता है! तो उस सेकेट्री ने क्या कहा, पता है? उसने कहा, तुम सब भौतिकवादी हो, तुम समझे नहीं उनका मतलब। वे आत्मा की अमरता की और आत्मा के स्वास्थ्य की बातें कर रहे हैं, शरीर की नहीं। अब आत्मा कभी मरती है? अगर मरती हो, तो फिर ओम का पाठ करने से अमर हो सकती है। आत्मा कभी बीमार पड़ती है? अगर बीमार पड़ती हो, तो ओम के पाठ करने से स्वस्थ हो सकती है। वह बेचारा हैरान हो गया! उसने कहा कि यह तो बात शरीर की होनी चाहिए, शरीर ही बीमार पड़ता है, शरीर ही मरता है। लेकिन उस सेकेट्री ने कहा, आप अजीब से आदमी आ गए यहां, हजारों आदमी आते हैं और हजारों आदमी स्वामी जी की किताब पड़ते हैं, इस तरह के प्रश्न कोई भी नहीं उठाता। हम कभी इस तरह के प्रश्न उठाएंगे नहीं। अगर हमको स्वामी जी बीमार भी मिल जाएं, मरे हुए भी मिल जाएं, तो हम कहेंगे, स्वामी जी लीला दिखा रहे हैं, स्वामी जी कहीं मर सकते हैं। लीला कर रहे हैं, नाटक कर रहे हैं, भक्तों की परीक्षा ले रहे हैं।
अरविंद मर चुके हैं, लेकिन अरविंद आश्रम में अभी भी यह माना जा रहा है कि वे जिंदा हैं, अभी मरे नहीं हैं। अरविंद आश्रम में कोई मानने को राजी नहीं की अरविंद मर गए हैं। क्योंकि अरविंद ने अपनी किताबों में लिखा है कि मैंने फिजिकल इम्मार्टललिटी को पा लिया, मैं शारीरिक रूप से अमर हो गया हूं। और मेरे योग का जो पालन करेगा, वह शारीरिक रूप से अमर हो जाएगा। वह कैसे मर सकता है। अरविंद के आश्रम में अभी भी लोग यही मानते हैं कि वे जिंदा हैं, वे मरे नहीं, सिर्फ अदृश्य हो गए हैं। बड़े अदभुत लोग हैं। बड़े अध्यात्मवादी लोग हैं। और वहां बैठ कर जो अरविंद का योग साध रहे हैं वह किसलिए साध रहे हैं? कि वे भी फिजिकली इम्मार्टल हो जाएं, उनका शरीर भी कभी न मरे। ये बड़ी आध्यात्मिक बात कर रहे हैं आप कि शरीर कभी न मरे?
आध्यात्मिक व्यक्ति वह है, जो जीवन और मृत्यु को बराबर मानेगा। आध्यात्मिक व्यक्ति वह है, जो पदार्थ और परमात्मा को बराबर मानेगा। आध्यात्मिक व्यक्ति वह है, जिसे अंधेरा और प्रकाश समान हो जाता है। आध्यात्मिक व्यक्ति वह है, जिसे सुख और दुख एक ही हो जाते हैं। लेकिन यह तो हमारी स्थिति नहीं है। हम निपट भौतिकवादी हैं। लेकिन अध्यात्म की खोल ओढ़े हुए हैं। वह झूठी खोल है, वह झूठा आदमी अध्यात्म का ऊपर बैठा है और भीतर निपट भौतिकवादी आदमी बैठा है। यह सब का सब जानना, विचारना, खोजना जरूरी है ताकि भारत की सच्ची प्रतिभा निखर सके और प्रकट हो सके। भारत की प्रतिभा के रुकावट में यह सारे कारण हैं।
यह थोड़े से प्रश्नों के आधार पर मैंने कुछ बात कही। कुछ और प्रश्न रह गए हैं, कल संध्या उनकी बात करूंगा। कल सुबह अंतिम सूत्र पर बात करूंगा कि भारत की समस्याएं और उसकी प्रतिभा को रोकने में कहां अटकाव है, कहां पत्थर है, कहां दीवाल है।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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