योग—सूत्र:
(कैवल्यपाद)
तत्र
ध्यानजमनाशयम्
।। 6।।
केवल
ध्यान से
जन्मा मौलिक
मन ही इच्छाओं
से मुक्त होता
है।
कंर्माशुल्काकृष्णं
योगिनस्तिबिधमितरेषामू।।
7।।
योगी
के कर्म न
शुद्ध होते
हैं, न
अशुद्ध, लेकिन
अन्य सभी कर्म
त्रि—आयामी होते
हैं—शुद्ध, अशुद्ध और
मिश्रित।
ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्बासनानामू।।
8।।
जब
उनकी पूर्णता
के लिए
परिस्थियां
सहायक होती
हैं तो इन कर्मों
से इच्छाएं उठती
हैं।’'
जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्य
स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्।।
9।।
क्योंकि
स्मृति और
संस्कार समान
रूप में ठहरते
हैं,
इसलिए कारण और
प्रभाव का
नियम जारी
रहता है, भले
ही वर्ण, स्थान
समय में उनमें
अंतर हो।
तासामनादित्वं
चाशिषो नित्यत्वात्।।
10।।
और
इस प्रक्रिया
का कोई
प्रारंभ नहीं
है,
जेसे कि जीने
की इच्छा
शाश्वत होती
है।
तत्र ध्यानजमनाशयम्।
'केवल
ध्यान से
जन्मा मौलिक
मन ही इच्छाओं
से मुक्त होता
है।’
यह
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
सूत्रों में
से एक है।
पहली
बात, मौलिक
मन क्या है? क्योंकि
प्रत्येक
प्रकार के योग
का चरम लक्ष्य
मौलिक मन ही
है। पूर्व
लगातार मौलिक
मन का रास्ता
खोजता रहा है।
मौलिक मन वह
मन है जो
तुम्हारे पास
तुम्हारे जन्म
से पूर्व था, न केवल इस
जीवन में, बल्कि
उससे भी पहले
जब तुम
इच्छाओं के
संसार में
प्रविष्ट हुए
थे, बल्कि
उससे भी पहले
जब तुम
विचारों, इच्छाओं,
मूल
प्रवृत्तियों,
शरीर, मन
में सीमित हो
गए .थे; वह
मौलिक अंतराल,
किसी भी
वस्तु द्वारा
अप्रदूषित, वह मौलिक
आकाश, बादलों
से शून्य— वही
है मौलिक मन।
उस
मौलिक मन पर
मनों की अनेक
पर्तें होती
हैं। मनुष्य
की अवस्था
प्याज के समान
है, इसे
तुम छीलते चले
जाते हो। तुम
एक पर्त छील
देते हो, दूसरी
पर्त वहां
होती है, तुम
उस पर्त को
छील देते हो, एक और पर्त
दिखाई पड़ती है।
तुम्हारे पास
एक मन नहीं है,
तुम्हारे
पास अनेक मनों
की पर्त दर
पर्त हैं।
क्योंकि
प्रत्येक
जीवन में
तुमने एक
निश्चित मन
निर्मित किया
है, फिर
दूसरे जीवन
में एक और मन, और इसी
भांति अनेक मन
बन चुके हैं।
और इन मनों के
पीछे, इन
पर्तों दर
पर्तों के
पीछे मौलिक मन
पूरी तरह खो चुका
है। किंतु यदि
तुम प्याज को
छीलते चले जाओ
तब एक क्षण
आता है जब
तुम्हारे
हाथों में
केवल खालीपन
बच रहता है।
प्याज खो चुका
होता है।
जब
सारे मन खो
जाते है तभी
मौलिक मन का
उदय होता है।
वस्तुत: इसे
मन कहना उचित
नहीं है, लेकिन इसको
अभिव्यक्त
करने का कोई
और उपाय नहीं
है। यह अ—मन है।
मौलिक मन अ—मन है।
जब वे सभी मन
जो तुम्हारे
पास हैं विलीन
हो जाते हैं, तिरोहित हो
जाते हैं, तब
मौलिक मन अपनी
प्राथमिक
शुद्धता, अपने
कुंवारेपन के
साथ प्रकट
होता है। यह
मौलिक मन
तुम्हारे पास पहले
से ही है।
शायद तुम इसे
भूल चुके हो।
तुम अपने मनों
की
संस्कारिताओं
में खो सकते हो,
लेकिन गहरे
में इन सभी
पर्तों के परे
तुम अभी भी
अपने मौलिक मन
में जीया करते
हो और किन्हीं
दुर्लभ
क्षणों में
तुम इसमें
डुबकी लगा
लेते हो। गहरी
नींद में जब
स्वप्न भी मिट
चुके हैं, स्वप्न
रहित निद्रा
में तुम मौलिक
मन में डुबकी
लगा लेते हो।
यही कारण है
कि प्रातःकाल
तुम इतनी
ताजगी अनुभव
करते हो।
किंतु यदि
पूरी रात भर
स्वप्नों का
सातत्य चलता
रहा हो, तो
तुम्हें थकान
अनुभव होती है।
तुम उससे भी
अधिक थकान
अनुभव करते हो
जितनी तुम्हें
सोने से पहले
थी। तुम अपने
अंतस की गंगा
में, अपनी
शुद्ध चेतना
की धारा में
डुबकी नहीं
लगा पाए हो।
तुम इसमें जा
नहीं सके हो, तुम इसमें
स्नान नहीं कर
पाए हो। तब
प्रातःकाल
में तुम स्वयं
को थका हुआ, चिंतित, संशयग्रस्त,
खंडित पाते
हो। तुम्हारे
पास वह
लयबद्धता नहीं
होती जो गहन
निद्रा से आती
है। लेकिन यह
लयबद्धता गहन
निद्रा से
नहीं आ रही है,
गहन निद्रा
तो मौलिक मन
के लिए मात्र
एक रास्ता है।
इसीलिए तो
पतंजलि कहते
हैं कि समाधि
और गहन निद्रा
(सुषुप्ति) एक
समान हैं, उनमें
मात्र एक अंतर
है समाधि में
तुम ठीक उसी
मौलिक मन में
चले जाते हो
जिसमें तुम
गहन निद्रा
में जाते हो, किंतु तुम
पूर्णत:
जाग्रत होकर
जाते हो, गहन
निद्रा में
तुम बेहोशी
में वहां जाते
हो, बिना
यह जाने कि
तुम कहां जा
रहे हो, बिना
यह जाने कि
तुम किस
रास्ते से जा
रहे हो। मौलिक
मन से
तुम्हारा यही
संपर्क बचा
हुआ है।
चिकित्सक
भलीभांति
जानते हैं कि
जब भी कोई रोग
से पीड़ित होता
है और यदि वह
सो नहीं पा
रहा है तो उसे
रोग मुक्त
करने का कोई
उपाय नहीं है।
निद्रा
रोगनाशक है।
वास्तव में
रोगी के लिए
पहली बात यही
है : उसे गहरी
निद्रा, गहन विश्राम
में जाने में
किस भांति
सहायता की जाए।
यह विश्राम
रोगी को ठीक
कर देता है, क्योंकि
रोगी पुन:
मौलिक मन से
जुड़ जाता है, और मौलिक मन
स्वास्थ्यदायी
स्रोत है। यह
तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा, प्रेम का
स्रोत है। जो
कुछ भी
तुम्हारे पास
है वह
तुम्हारे
मौलिक मन के
महासागर जैसे
संसार से आ
रहा है।
निःसंदेह
जब इसे अनेक
पर्तों से
होकर गुजरना
पड़ता है तो यह
प्रदूषित, विषाक्त
हो जाता है।
तुम्हारा
भीतरी
पर्यावरण अब
मौलिक नहीं
रहा, यह
भरा हुआ है, अनेक मुर्दा
चीजों से भरा
हुआ है।
तुम्हारे मन
और कुछ नहीं
वरन तुम्हारे
मुर्दा अनुभव
हैं।
कोई
व्यक्ति जो
मौलिक मन में
सजग, बोधपूर्ण
होकर जाना
चाहता है उसको
सीखना पड़ेगा
कि अनसीखा
कैसे हुआ जाए,
अनुभव को
अनसीखा कैसे
करें, अतीत
के प्रति कैसे
लगातार मरते
रहा
जाए, अतीत से
कैसे न चिपका
जाए। एक क्षण
तुम जी लिए हो
यह क्षण मिट
गया, इसके
साथ मामला
समाप्त करो।
इसके साथ कोई
सातत्य मत
होने दो, इससे
असंबद्ध हो
जाओ। अब यह
तुमसे संबद्ध
नहीं रहा। यह
समाप्त हो गया
और सदा के लिए
मिट गया। इस
पर
पूर्णविराम
लगा दो, और
तुम इसमें से
इस भांति बाहर
निकल आओ जैसे
कि सांप अपनी
पुरानी
केंचुली से
बाहर निकल आता
है और पलट कर
देखता भी नहीं।
बस एक क्षण
पूर्व यही
केंचुली उसके
शरीर का एक
भाग थी, अब
वह उसका भाग न
रही। अतीत से
सतत बाहर आते
रही ताकि तुम
वर्तमान में
रह सकी। यदि
तुम वर्तमान
में रह सको तो
तुम अपने मौलिक
मन से बाहर
नहीं जा सकते
हो। मौलिक मन
न अतीत जानता
है और न
भविष्य।
जिसको
तुम मन कहते
हो वह कुछ और
नहीं बल्कि
अतीत और
भविष्य है, अतीत और
भविष्य—अतीत
और भविष्य के
मध्य एक झूला—और
तुम्हारा मन
कभी अभी और
यहीं नहीं
रुकता। ध्यान
का अभिप्राय
यही है, अतीत
से बाहर निकल
आना, भविष्य
को निर्मित न
करना और उस
सत्य के साथ बने
रहना जो अभी
और यहीं
उपलब्ध है।
इसके साथ रहो
और अचानक तुम
देखोगे कि
तुम्हारे और
वास्तविकता
के बीच, तुम्हारे
और उसके मध्य,
जो है, कोई
मन नहीं है, क्योंकि
वर्तमान में
मन रह नहीं
सकता। तुम
इसके बारे में
विचार नहीं कर
सकते, क्योंकि
जिस क्षण तुम
किसी के बारे
में विचार करते
हो, तो यह
पहले से ही
अतीत हो गया है,
या यह अभी
भी वर्तमान
नहीं है।
विचार करने के
लिए समय चाहिए।
इसलिए यह
सूत्र है कि
केवल ध्यान के
माध्यम से ही
व्यक्ति
मौलिक मन पर
आता है।
ध्यान
कोई विचार
करना नहीं है, यह विचार
का त्याग है।
मैंने
सुना है, एक वृद्ध
किसान से जब
यह पूछा गया
कि सारा दिन वह
क्या किया
करता है, तो
उसने कहा, अच्छा,
कभी—कभी मैं
बैठता हूं और
सोचता हू और
बाकी समय मैं
मात्र बैठता
हूं।
यह 'मात्र
बैठना' ही
ध्यान का ठीक—ठीक
अर्थ है।
जापान में वे
ध्यान को
झाझेन कहते
हैं। झाझेन का
अर्थ है मात्र
बैठना और कुछ
न करना, बस
होना और कुछ न
करना, मन
की निलंबित
सक्रियता। और
बादल छंट जाते
हैं और तुम
अंतरिक्ष को,
आकाश को देख
सकते हो। एक
बार तुम जान
लो कि अंतर—आकाश
में कैसे जाया
जाए, तो यह
सदा के लिए
उपलब्ध हो
जाता है। तुम
कार्य करते रह
सकते हो और जब
कभी भी तुम चाहो
तुम भीतर एक
डुबकी लगा
सकते हो। और
यह इतना सरल
हो जाता है
जैसे कि तुम
मकान के भीतर
जाते हो और
मकान से बाहर
निकल आते हो।
एक बार तुमने
जान लिया कि
द्वार कहां है,
तब कोई
समस्या नहीं
रहती। तुम
इसके बारे में
सोचते भी नहीं।
जब बाहर तेज
गर्मी अनुभव
हो रही हो, तुम
मकान के भीतर
शीतलता और
आश्रय में चले
जाते हो।
जब
अधिक सर्दी
लगने लगी हो
और तुम ठंड के
कारण जमने लगे
हो, तुम
मकान से बाहर
गर्म धूप में
निकल आते हो।
बाहर और भीतर
के मध्य तुम
एक तरलता बन
जाते हो।
अंदर
के रास्ते को
मन अवरुद्ध कर
रहा है। जब
कभी भी तुम
अपने भीतर
जाते हो, बार—बार
तुमको मन की
कोई पर्त मिल
जाती है। किसी
विचार के अंश,
कोई इच्छा,
कोई योजना,
कोई स्वप्न,
भविष्य का
कुछ या अतीत
का कुछ। और
याद रहे, भविष्य
और कुछ नहीं
बल्कि अतीत का
प्रक्षेपण है।
भविष्य है
अतीत का थोड़ा
परिष्कृत ढंग
से, कुछ
बेहतर रूप में
पुन: चाहत।
अतीत में
तुम्हारे पास
प्रसन्नता थी
और
अप्रसन्नता
थी, खुशी
थी, दुख था,
कांटे थे, फूल थे।
तुम्हारा
भविष्य और कुछ
नहीं है केवल
फूल हैं, कांटे
हटा दिए गए
हैं, दुख
छोड़ दिए गए
है—बस खुशियां
और खुशियां, और खुशियां।
तुम अपने अतीत
की छंटनी करते
रहते हो, और
जो कुछ भी
तुम्हें
अच्छा और
सुंदर अनुभव
हुआ था उसको
तुम भविष्य
में
प्रक्षेपित
कर देते —हो।
एक बार
तुम जान लो कि
अतीत से किस
भांति बाहर आया
जाए, तो
भविष्य स्वत:
ही तिरोहित हो
जाता है। जब
भीतर कोई अतीत
नहीं होता तो
कोई भविष्य नहीं
हो सकता है।
अतीत भविष्य
को उत्पन्न
करता है। अतीत
भविष्य की
जननी, भविष्य
का गर्भ है।
जब न कोई अतीत
है और न
भविष्य, तब
जो है वही है।
फिर जो है है।
तभी अचानक तुम
शाश्वतता में
होते हो।
यही है
जो मौलिक मन
है, विचार
के किसी
स्पंदन के
बिना; दृष्टि
में कोई बादल
नहीं, तुम्हारे
चारों ओर कोई
धूल नहीं—बस
शुद्ध आकाश।
तत्र
ध्यानजमनाशयम्।
'केवल
ध्यान से
जन्मा मौलिक
मन ही इच्छाओं
से मुक्त होता
है।’
क्योंकि
मौलिक मन अतीत
से मुक्त है, अनुभवों
से मुक्त है।
जब तुम
अनुभवों से
मुक्त हो तो
तुम इच्छा कैसे
कर सकते हो? इच्छा अतीत
के बिना
अस्तित्व में
नहीं रह सकती।
जरा सोचो, यदि
तुम्हारा कोई
अतीत न हो, तुम
इच्छा कैसे कर
सकते हो? तुम
क्या इच्छा
करोगे? कुछ
चाहने के लिए
अनुभव संचित
अनुभव की
आवश्यकता
होती है। यदि
तुम इच्छा न
कर सको तो तुम
एक शून्य में
होओगे
आत्यंतिक
सुंदर खालीपन।
केवल
मौलिक मन ही
इच्छाओं से
मुक्त होता है, इसलिए
इच्छाओं के
साथ संघर्ष मत
करो। यह
संघर्ष
तुम्हें कहीं
नहीं ले जाएगा,
क्योंकि
इच्छाओं से
संघर्ष करने
के लिए तुम्हें
प्रतिइच्छाएं
निर्मित करनी
पड़ेगी। और वे
भी उतनी ही
इच्छाएं हैं
जैसी कि दूसरी
इच्छाएं।
इच्छाओं से
संघर्ष मत करो,
तथ्य को
देखो।
इच्छाओं से
संघर्ष करने
के माध्यम से
मौलिक मन नहीं
पाया जा सकता।
तुम्हें एक
श्रेष्ठ मन
मिल सकता है, लेकिन मौलिक
मन नहीं मिल
सकता। हो सकता
है कि
तुम्हारे पास
एक पापी का मन
हो, और यदि
तुम इसके साथ
संघर्ष करो तो
तुमको साधु का
मन मिल सकता
है, लेकिन
एक साधु उलटे
खड़े हुए असाधु
के अतिरिक्त
और कुछ नहीं
है।
पापी
और महात्मा
भिन्न
व्यक्तित्व
नहीं हैं, वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। तुम
सिक्के को एक
ओर से दूसरी
ओर पलट सकते
हो। एक पापी
किसी भी क्षण
साधु बन सकता
है और साधु किसी
भी क्षण पापी
बन सकता है।
और पापी सदैव
साधु होने के
स्वप्न देखा
करता है और
साधु सदैव पाप
की कीचड़ में
पुन: वापस
गिरने से
भयभीत रहता है।
वे अलग नहीं
हैं, उनका
अस्तित्व साथ—साथ
है। वास्तव
में यदि संसार
से सभी पापी
मिट जाएं तो
साधुओं के हो
पाने की भी
कोई संभावना न
रहेगी। वे
पापियों के
बिना
अस्तित्व में
नहीं रह सकते।
मैने
सुना है, एक पादरी
अपने गिरजाघर
की ओर जा रहा
था, रास्ते
में सड़क के
किनारे उसने
एक आदमी को
देखा जो बुरी
तरह घायल था, करीब—करीब
मृतप्राय: था।
खून बह रहा था।
वह दौडा गया, लेकिन जैसे
.ही वह उसके
पास पहुंचा और
उस व्यक्ति का
चेहरा देखा, वह वापस लौट
पड़ा। उसका
चेहरा वह
अच्छी तरह
पहचानता था।
वह आदमी और
कोई नहीं
स्वयं शैतान
था। अपने चर्च
में उसने
शैतान की
तस्वीर लगा
रखी थी, लेकिन
शैतान ने कहा,
मुझ पर
करुणा करो। और
तुम करुणा के
बारे में
बोलते हो, और
तुम प्रेम के
बारे में बोला
करते हो, और
क्या तुम भूल
गए? अपने
चर्च में अनेक
बार तुम उपदेश
दिया करते हो,
अपने शत्रु
को प्रेम करो,
मैं
तुम्हारा
शत्रु हूं
मुझको प्रेम
करो।
वह
पादरी भी उसकी
तर्कयुक्त
बात को नकार न
सका। हां, 'शैतान के
अतिरिक्त
इतना बड़ा
शत्रु और कौन
होगा? पहली
बार उसने इस
बात को समझा, लेकिन फिर
भी वह स्वयं
को मरते हुए
शैतान की सहायता
हेतु तैयार
नहीं कर पाया।
उसने कहा, तुम
ठीक जानते हो,
लेकिन मैं
जानता हूं कि
शैतान
शास्त्रों के
उद्धरण दे
सकता है। तुम
मुझको मूर्ख
नहीं बना सकते।
यह अच्छा है
कि तुम मर रहे
हो। यह बहुत
अच्छा है, यदि
तुम मर जाओ तो
संसार बेहतर
हो जाएगा।
शैतान हंसा, एक बहुत
शैतानी हंसी
हंसा और उसने
कहा, तुम
नहीं जानते, यदि मैं
मरता हूं तो
तुम कहीं के न
रहोगे। तुमको
भी मेरे साथ
मरना पडेगा।
और इस समय मैं
शास्त्रों का
हवाला नहीं दे
रहा हूं मैं
व्यवसाय की
बात कर रहा
हूं। मेरे
बिना
तुम्हारा
क्या होगा, और तुम्हारा
चर्च और
तुम्हारा
ईश्वर? अचानक
वह पुजारी
सारी बात समझ
गया। उसने
शैतान को अपने
कंधों पर
उठाया और वह
उसे लेकर
अस्पताल चला
गया। उसको
जाना पड़ा,. क्योंकि
शैतान के बिना
ईश्वर का भी
अस्तित्व नहीं
हो सकता।
पापी
के बिना
महात्मा बच
नहीं सकता। वे
एक—दूसरे से
पोषित होते
हैं, वे
एक—दूसरे की रक्षा
करते हैं, वे
एक—दूसरे का
बचाव करते हैं।
वे दो विभिन्न
लोग नहीं हैं,
वे एक ही
घटना के दो
ध्रुव हैं।
मौलिक
मन मन नहीं है।
यह न तो पापी
का मन है और न
साधु का मन है।
मौलिक मन में
कोई मन नहीं
है। इसकी न
कोई परिभाषा
है, न
कोई सीमा। यह
इतना शुद्ध है
कि तुम इसे
शुद्ध भी नहीं
कह सकते
क्योंकि किसी
वस्तु को
शुद्ध कहने के
लिए तुमको
अशुद्धता की
अवधारणा को
बीच में लाना
पड़ेगा। वह
धारणा तक इसे
प्रदूषित कर
देगी। इतना
शुद्ध है यह, इतना
आत्यंतिक रूप
से शुद्ध है
यह कि यह कहने में
कि यह शुद्ध
है कोई सार न
रहा।
'केवल
ध्यान से
जन्मा मौलिक
मन ही इच्छाओं
से मुक्त होता
है।’
अब 'तत्र
ध्यानजम' ' ध्यान
से जन्मा हुआ'
यह शाब्दिक
अनुवाद है, लेकिन इसमें
कुछ खो रहा है।
संस्कृत बहुत
काव्यात्मक
भाषा है। यह
मात्र एक भाषा
नहीं है, यह
मात्र एक
व्याकरण नहीं
है, यह
उससे भी अधिक
एक काव्य है, एक बहुत
घनीभूत काव्य।
यदि इसका ठीक
से अनुवाद
किया जाए, यदि
भाव का अनुवाद
किया जाए, केवल
शब्द नहीं, तो मैं इसका
अनुवाद
करूंगा 'जिसका
ध्यान से
पुनर्जन्म
होता है।’ बस
केवल जन्म
नहीं, क्योंकि
मौलिक मन का
जन्म नहीं
होता, यह
पहले से ही
विद्यमान है,
बस
पुनर्जन्म, यह पहले से
वहां है, बस
प्रत्यभिज्ञा
होती है, यह
पहले से ही
वहां है, बस
पुन: अन्वेषण
होता है।
परमात्मा
सदैव एक पुन:
अन्वेषण है।
तुम्हारा
स्वयं का
अस्तित्व
पहले से वहां
है। इस पर कोई
बहुत अधिक
ताकत नहीं
लगानी है, यह
पहले से ही
वहां है, तुम्हें
इसको पुन:
उपलब्ध करना
है। नया कुछ
भी नहीं जन्मा
है, क्योंकि
मौलिक मन नया
नहीं है, यह
पुराना नहीं
है, यह
शाश्वत है, सदा और सदैव
और सदा के लिए।
'अनाशयम्' का अभिप्राय
है.
बिना किसी
प्रेरणा के, बिना
किसी सहारे के,
बिना किसी
कारण के बिना
किसी वजह के।
तत्र
ध्यानजमनाशयम्।
मौलिक
मन बिना किसी
प्रेरणा के
रहता है। यह
बिना किसी
कारण के रहता
है। यह बिना
किसी सहारे के
रहता है।
अनाशयम् का
शाब्दिक अर्थ
होता है किसी
सहारे के बिना।
यह बिना किसी
आधार के, भूमि के
बिना रहता है।
इसका
अस्तित्व
अपने, आप
में है, इसको
बाहर से कोई
सहायता नहीं
मिलती। ऐसा
होना ही है, क्योंकि परम
कोई सहायता ले
ही नहीं सकता,
क्योंकि
परम का
अभिप्राय है
संपूर्ण इसके
बाहर कुछ भी
नहीं है। तुम
सोच सकते हो
कि तुम पृथ्वी
पर बैठे हो, और पृथ्वी
सौरमंडल के
चुंबकीय बलों
से सहारा पा
रही है, और
सौरमंडल के
ग्रह किसी
महासूर्य के
गुरुत्वीय बल
से सहारा पा
रहे हैं।
लेकिन
संपूर्ण को
कोई सहारा
नहीं मिल सकता
है, क्योंकि
वह सहायता
आएगी कहां से?
संपूर्ण के
पास इसके लिए
कोई आधार नहीं
होता।
तुम
बाजार जाते हो, निःसंदेह
तुम्हारा कोई
उद्देश्य
होता है, तुम
धन अर्जित
करने जाते हो।
तुम घर आते हो,
तुम्हारे
पास एक
निश्चित
उद्देश्य है,
विश्राम
करना। तुम
भोजन करते हो,
क्योंकि
तुम भूखे हो; इसके लिए एक
कारण है। तुम
मेरे पास आए
हो, इसका
एक उद्देश्य
है। तुम किसी
चीज की तलाश
में हो। यह
चीज अस्पष्ट,
स्पष्ट, ज्ञात,
अज्ञात, कुछ
भी हो सकती है,
लेकिन
उद्देश्य
वहां है।
लेकिन
संपूर्ण का
उद्देश्य
क्या हो सकता
है? यह
उद्देश्य
विहीन है, यह
इच्छारहित है,
क्योंकि
प्रेरणा बाहर
से कुछ लेकर
आएगी। यही
कारण है, हिंदू
इसे लीला, एक
खेल कहते है।
खेल भीतर से
आता है, तुम
बस टहलने जा
रहे हो, वहां
कोई उद्देश्य
नहीं .है, स्वास्थ्य
तक नहीं।
स्वास्थ्य की
सनक वाला
व्यक्ति कभी
टहलने नहीं
जाता, वह
जा ही नहीं
सकता, क्योंकि
वह टहलने का
मजा नहीं ले
सकता। वह
हिसाब—किताब
लगाता है, कितने
मील? वह
गणना कर रहा
है, कितनी
गहरी श्वासें?
वह हिसाब
जोड़ रहा है, कितना पसीना?
वह गणित लगा
रहा है। वह
सुबह के टहलने
को किए जाने
वाले कार्य की
भांति, एक
अभ्यास की
भांति ले रहा
है। यह, मात्र
एक खेल नहीं
रह गया है।
अंग्रेजी
शब्द इल्युजन
का प्रयोग
करीब—करीब
हमेशा ही
पूर्वीय शब्द
माया के
अनुवाद के रूप
में किया जाता
है। सामान्यत:
इल्युजन का
अर्थ होता है
अवास्तविक, यथार्थ में
जिसका
अस्तित्व
नहीं है।
किंतु यह इसका
सही अर्थ नहीं
है। यह लैटिन
मूल ज्यूडेरे
से आता है, जिसका
अर्थ है.
खेलना।
इल्युजन का
अर्थ बस खेल
है., और
माया का यही
वास्तविक
अर्थ है। माया
का अर्थ भ्रम
नहीं है, इसका
अर्थ है
खेलपूर्ण।
परमात्मा
स्वयं के साथ
खेल रहा है।
निःसंदेह वह
अपने स्वयं के
अतिरिक्त और
कुछ था भी
नहीं, इसलिए
वह अपने स्वयं
के साथ
लुकाछिपी का
खेल खेल रहा
था, वह
अपना एक हाथ
छिपा देता है
और दूसरे हाथ
से इसको खोजने
का प्रयास
करता है, जब
कि वह
भलीभांति
जानता है कि
यह कहां है।
मौलिक
मन
निरुद्देश्य
है, इसके
होने का कोई
कारण नहीं है।
अन्य मन जो
मौलिक नहीं
हैं, बल्कि
आरोपित कर दिए
गए हैं, निःसंदेह
वे
उद्देश्यपूर्ण
हैं, और
उद्देश्य के
कारण ही हम
उनको
परिपोषित करते
हैं। यदि तुम
एक चिकित्सक
बनना चाहते हो
तो तुमको एक
खास प्रकार का
मन विकसित
करना पड़ेगा, तुम्हें चिकित्सक
बन कर रहना है।
यदि तुमको एक
इंजीनियर
बनना है तो
तुमको एक दूसरे
प्रकार का मन
विकसित करना
पड़ेगा। यदि
तुम कवि बनना
चाहते हो तो
तुम गणितज्ञ
का मन विकसित
नहीं कर सकते,
तब तुमको
कवि का मन
विकसित करना
पड़ेगा। इसलिए
जो कुछ भी
तुम्हारा
उद्देश्य हो
उसी के अनुरूप
तुम एक
निश्चित मन
निर्मित करते
हो।
मैंने
सुना है, एक महिला
अपने पुत्र के
साथ बस में
बैठी हुई थी।
उसने मात्र एक
टिकट खरीदा।
कंडक्टर ने
बच्चे को
संबोधित किया,
छोटे बच्चे
तुम्हारी आयु
कितनी है?
मैं
चार वर्ष का', लड़के ने
उत्तर दिया।
और तुम
पांच वर्ष के
कब होओगे? कंडक्टर
ने पूछा।
बच्चे
ने अपनी मां
की ओर एक नजर
डाली, जो
बच्चे की इस
बातचीत को
मुस्कुरा कर
अपनी सहमति दे
रही थी, और
बोला, जब
मैं इस बस से
नीचे उतर
जाऊंगा।
उस
बच्चे को कुछ
कहना सिखाया
गया है, लेकिन फिर
भी वह असली
उद्देश्य को
नहीं जानता है।
उसको टिकट के
रुपये बचाने
के लिए चार
वर्ष कहना
सिखाया गया है,
लेकिन इसके
पीछे
उद्देश्य
क्या है वह यह
नहीं जानता, इसलिए वह इस
बात को तोते
की तरह दोहरा
देता है।
प्रत्येक
बच्चा बड़े
लोगों की
तुलना में
मौलिक मन के
साथ अधिक
लयबद्धता में
होता है।
बच्चों को
खेलते हुए, इधर—उधर
दौड़ते हुए
देखो, तुम्हें
उनका कोई
विशिष्ट
उद्देश्य
नहीं मिलेगा।
वे आनंदित हो
रहे हैं, और
यदि तुम उनसे
पूछते हो
किसलिए? तो
वे अपने कंधे
उचका देंगे।
उनके लिए बडे
लोगों से
संवाद कर पाना
लगभग असंभव है।
बच्चों को यह
करीब—करीब
नामुमकिन सा
महसूस होता है;
कोई सेतु
नहीं है; क्योंकि
बड़े लोग एक
बहुत
मूर्खतापूर्ण
प्रश्न पूछते
हैं किसलिए? बड़े लोग एक
खास किस्म के
अर्थशास्त्रीय
मन के. साथ
जीते हैं। तुम
कुछ कमाने के
लिए कुछ करते
हो। बच्चे इन
सतत
उद्देश्यपूर्ण
कृत्यों से
अभी परिचित
नहीं हैं। वे
इच्छा की भाषा
को नहीं जानते
वे खेलपूर्ण
होने की भाषा
को जानते हैं।
जब जीसस कहते
हैं, तुम
परमात्मा के
राज्य में तब
तक प्रवेश
नहीं कर सकते
जब तक कि तुम
छोटे बच्चों
जैसे नहीं हो
जाते, तो
यही है उनका
अभिप्राय, वे
कह रहे हैं कि
जब तक कि तुम
पुन: बच्चे
नहीं बन जाते,
जब तक कि
तुम उद्देश्य
नहीं छोड़ते और
खेलपूर्ण
नहीं हो जाते...।
याद रखो, कार्य
कभी किसी को
परमात्मा तक
नहीं ले गया
है। और वे लोग
जो परमात्मा
की ओर जाने
वाले अपने रास्ते
पर कार्य कर
रहे हैं, बाजार
में ही गोल—गोल
घेरे में
घूमते रहेंगे,
वे कभी
परमात्मा तक
नहीं
पहुचेंगे। वह
खेलपूर्ण है
और तुमको भी
खेलपूर्ण
होना पड़ेगा।
तब अचानक
संवाद घटित
होगा, अचानक
एक संपर्क, एक सेतु बन
जाएगा।
खेलपूर्ण
ढंग से ध्यान
करो, गंभीरतापूर्वक
ध्यान मत करो।
जब तुम ध्यान—कक्ष
में जाते हो
तो अपने गंभीर
चेहरे वहीं छोड़
दो जहां तुम
अपने जूते छोड़
देते हो।
ध्यान को एक मजा
होने दो। मजा
एक बहुत
धार्मिक शब्द
है; गंभीरता
बहुत
अधार्मिक
शब्द है। यदि
तुम मौलिक मन
को उपलब्ध
करना चाहते हो
तो तुमको एक
बहुत ही गैर—गंभीर
किंतु
निष्ठापूर्ण
जीवन जीना
पड़ेगा, तुमको
अपने कार्य को
खेल में
रूपांतरित
करना पड़ेगा; तुम्हें
अपने सभी
कर्तव्यों को
प्रेम में.
रूपांतरित
करना पड़ेगा।
कर्तव्य एक
कुरूप शब्द है,
निसंदेह यह
एक चार अक्षर
वाला शब्द है।
कर्तव्य
से बच कर रहो।
कार्य में और
प्रेम अर्पित
करो। अपने
कार्य को एक
नई ऊर्जा में, जिसका
तुम आनंद ले
सकी, और—और
परिवर्तित
करो, और
अपने जीवन को
और अधिक मजे, और अधिक
हंसी और कम
इच्छा, और
कम उद्देश्य
वाला हो जाने
दो। जितना
अधिक तुम
उद्देश्यपूर्ण
हो उतना ही अधिक
तुम एक
निश्चित
प्रकार के मन
से बंध जाओगे।
तुमको बंधना
ही पड़ेगा, क्योंकि
उस उद्देश्य
को एक विशिष्ट
प्रकार का मन
ही पूरा कर
सकता है। और
यदि तुम सारे
मनों का
परित्याग
करना चाहते हो—और
सभी मनों का
परित्याग
किया जाना है—केवल
तब तुम अपने
अंतर्तम
स्वभाव _ तुम्हारी
सहजता को
उपलब्ध कर
सकते हो। यह
पूर्णत: भिन्न
है, इच्छा
से बिलकुल अलग
भाषा है इसकी।
मैं
तुम्हें एक
कहानी सुनाता
हूं।
अदालत
में मुल्ला
नसरुद्दीन के
विरुद्ध एक
मुकदमा चल रहा
था। निचली
अदालत के
समक्ष
प्रस्तुत किए
गए सबूतों की, जो इस
मुकदमे के
बारे में थे, प्राथमिक
जानकारी
सुनने के
उपरांत
न्यायाधीश ने
निर्देशित
किया कि शेष
बचा हुआ
मुकदमा इन
कैमरा
(अभियुक्त के
बयान की फिल्म
बना कर) सुना
जाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने,
जो
अभियुक्त था,
इस आधार पर
इसका विरोध
किया कि उसे
इस शब्द 'इन
कैमरा' का
अर्थ ज्ञात
नहीं है, लेकिन
न्यायाधीश ने
यह कह कर कि
मैं जानता हूं
कि इसका क्या
अर्श है, बचाव
पक्ष का वकील
जानता है कि
इसका क्या
अर्थ है, गवाही
पक्ष जानता है
कि इसका क्या
अर्थ है, न्यायसभा
को पता है कि
इसका क्या
अर्थ है; अब
न्यायालय का
समय नष्ट न
करो, उसका
आक्षेप नकार
दिया।
इसके
उपरांत बचाव
पक्ष के वकील
ने अभियुक्त मुल्ला
नसरुद्दीन से
कहा कि वह
अपने शब्दों
में न्यायालय
को बता दे कि
जिस रात की
बात चल रही है
उस रात क्या
हुआ था। ठीक
है मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, मैं
इस लड़की के
साथ गांव की
सड़क से घर जा
रहा था और
हमने एक
रास्ता कम
करने के लिए
एक खेत के बीच
से होकर
निकलने का
फैसला किया।
खेत से होकर
आधा रास्ता तय
करने के बाद
वह थकी हुई
मालूम पड़ी तो
हम आराम करने
के लिए बैठ गए।
गर्मी की यह
एक सुंदर रात
थी और मैंने
स्वयं को थोड़ा
रोमांटिक अनुभव
किया, तो
मैंने उसका
चुंबन ले लिया
और उसने मेरा
चुंबन ज्या, फिर मैंने
उसका चुंबन
लिया और उसने
मेरा चुंबन
लिया, और
दस मिनट के
बाद, हाई
टिड ली हीटी।
न्यायाधीश
ने पूछा, हाई टिड ली
हीटी? क्या
अर्थ हुआ इसका?
ठीक है, मुल्ला
नसरुद्दीन ने
उत्तर दिया, बचाव पक्ष
के वकील को
पता है इसका
क्या अर्थ है
अभियोजन पक्ष
का वकील जानता
है कि इसका
क्या अर्थ है,
और
न्यायसभा
जानती है कि
इसका क्या
अर्थ है—और
यदि आप भी
अपने कैमरा के
साथ वहां होते
तब आपको भी
पता लग जाता
कि इसका अर्थ
क्या होता है!
इच्छा
की अपनी स्वयं
की भाषा है, उद्देश्य
की अपनी स्वयं
की भाषा है, और सभी
भाषाएं इच्छा
की और
उद्देश्य की
हैं—विभिन्न
इच्छाओं की।
मैं तुमसे यह
कहना चाहता
हूं ईसाइयत एक
निश्चित चाह
के लिए भाषा
है, यह कोई
धर्म नहीं है।
हिंदू धर्म
किसी और चाहत
के लिए भाषा
है, किंतु
यह धर्म नहीं
है और अन्य
सभी धर्मों के
साथ भी ऐसा ही
है।
मौलिक
मन की कोई
भाषा नहीं है।
तुम इस तक
हिंदू ईसाई, जैन, मुसलमान,
बौद्ध होकर
नहीं पहुंच
सकते। वे सभी
इच्छाएं हैं।
उनके माध्यम
से तुम कुछ
उपलब्ध करना
चाहते हो। वे
तुम्हारे लोभ
का प्रक्षेपण
हैं।
मौलिक
मन तभी जाना
जाता है जब
तुम सारी
चाहतें, सारी भाषाएं,
सारे मनों
को गिरा देते
हो। और अचानक
तुम नहीं
जानते कि तुम
कौन हो।
धार्मिक
व्यक्ति वह है
जिसने सोच—विचार
के किसी भी
ढांचे के साथ
अपने सारे
तादात्म्य को
छोड़ दिया है, और जो वहां
बस अकेला, आवरणहीन
होकर खडा हो
गया है, वह
बिना
वस्त्रों के,
भाषा और
मनों के खोल
के बिना
अस्तित्व से
घिरा हुआ है—एक
प्याज की
भांति जिसको
पूरी तरह से
छील दिया गया
है, हाथों
में केवल
खालीपन आ गया
है।
तत्र
ध्यानजमनाशयम्।
'केवल
ध्यान से
जन्मा मौलिक
मन ही इच्छाओं
से मुक्त होता
है।’
तो
मौलिक मन कैसे
उपलब्ध हो? अब धर्म
की सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
समस्याओं में
से एक को
समझना है, मौलिक
मन इच्छाओं से
मुक्त है और
इसको उपलब्ध करने
का उपाय है
इच्छा—मुक्त
हो जाना। तब
विचारशील
बुद्धि के लिए
एक समस्या उठ
खडी होती है, कौन सी बात
प्राथमिक है?
क्या हमें
इच्छाओं का
त्याग करना
पड़ेगा? और
तब क्या हम
मौलिक मन को
उपलब्ध कर
सकते हैं? लेकिन
तब यह समस्या
उठती है कि
यदि इच्छाएं
तभी गिरती हैं
जब मौलिक मन
उपलब्ध हो
जाता है, तो
हम इसकी
उपलब्धि से
पूर्व ही
इच्छाओं का त्याग
कैसे कर सकते
हैं? या
यदि मौलिक मन
को उपलब्ध
किया ही जाना
है तो इच्छाएं
स्वत: ही अपने
आप से इसके
परिणाम
स्वरूप गिर
जाती हैं। तब
तो हमें मौलिक
मन उसी समय
उपलब्ध कर
लेना चाहिए जब
इच्छाएं अभी
भी अस्तित्व
में हों, और
मौलिक मन
इच्छाओं को
छोड़े बिना
उपलब्ध नहीं
हो सकता, इस
प्रकार से एक
विरोधाभास उठ खड़ा
होता है।
लेकिन
विरोधाभास
इसीलिए है
क्योंकि
तुम्हारी
बुद्धि
विभाजित करती
है। वास्तव
में मौलिक मन
और इच्छा—शून्य
हो जाना दो
बातें नहीं
हैं, यह बस
एक ही घटना है,
जिसकी दो
ढंगों से
चर्चा की जाती
है। यह बस एक
ऊर्जा है—
इसको
इच्छारहितता
कहो या इसको
मौलिक मन कहो—ये
दो चीजें नहीं
हैं। यह एक
साथ ही घटित
होता है, मैं
जानता हूं।
जब तक
कि मौलिक मन
उपलब्ध न हो
तुम पूर्णत:
इच्छा—शून्य
नहीं हो सकते, लेकिन
तुम
निन्यानबे
दशमलव नौ
प्रतिशत इच्छा
शून्य हो सकते
हो, और यही
है उपाय। तुम
अपनी इच्छाओं
को समझना आरंभ
कर देते हो। समझ
के माध्यम से
उनमें से कई
बस विलीन हो
जाती हैं, क्योंकि
वे मात्र
मूर्खता हैं।
वे तुम्हें और—और
हताशा के
अतिरिक्त
कहीं और नहीं
ले गई थीं।
उन्होंने
केवल नरक के
लिए द्वार
खोले थे और कुछ
नहीं किया था—अधिक
चिंता, अधिक
पीड़ा, अधिक
संताप, और
परेशानी। बस
उनको देख लो; वे खो
जाएंगी। पहले
वे इच्छाएं जो
तुमको हताशा
में ले गई थीं,
मिट जाएंगी,
और तब
तुम्हें अधिक
सूक्ष्मग्राही
परिप्रेक्ष्य
मिल जाएगा।
फिर तुम उन
इच्छाओं को
देखोगे जिन पर
तुम अब तक
विचार कर रहे
थे, वे
इच्छाएं जो
तुमको सुख में
ले गई थीं, जो
तुमको सुख में
नहीं भी ले
गईं—क्योंकि
जो कुछ भी
सुखद प्रतीत
होता है अंततः
अंत में खट्टा
और कडुवा बन
जाता है।
इसलिए
सुख इच्छा की
एक तरकीब
मालूम पड़ती है
: तुमको दुख
में डाल देने
की एक तरकीब।
पहले
पीडादायक गिर
जाएंगी, और फिर तुम
यह देख पाने
में समर्थ हो
जाओगे कि सुख
भ्रामक, नकली,
एक स्वप्न
है, समझ के
माध्यम से
निन्यानबे
दशमलव नौ
प्रतिशत
इच्छाएं
विलीन हो
जाएंगी, और
फिर चरम घटता
है। यह उसी
क्षण घट जाता
है : सौ
प्रतिशत
इच्छाएं
विलीन होती हैं
और मौलिक मन
एक क्षण में
ही प्रकट हो
जाता है, ऐसा
कारण और
प्रभाव से
नहीं घटता, बल्कि तत्क्षण,—
साथ—साथ घट
जाता है।
इसके
लिए कार्ल
गुस्ताव जुग
का शब्द
प्रयोग करना
बेहतर रहेगा—समक्रमिकता।
वे कारण और
प्रभाव की
भांति
संबंधित नहीं
हैं। वे एक
साथ एक ही
क्षण में
प्रकट होते
हैं, और
ऐसा भी इस ढंग
से इसलिए कहना
पडता है क्योंकि
मुझको भाषा का
उपयोग करना पड़ता
है। अन्यथा वे
एक ही हैं, एक
सिक्के के दो
पहलू हैं। यदि
तुम समझ के, ध्यान के
माध्यम से
देखो तो तुम
इसे मौलिक मन कहोगे।
यदि तुम अपनी
इच्छाओं, वासनाओं
के माध्यम से
देखो तो तुम
इसे इच्छा शून्यता
कहोगे। जब तुम
इसको इच्छा
शून्यता कहते
हो, तो यह
बस यही प्रदर्शित
करता है कि
तुम इसकी
तुलना इच्छा
से करते रहे
हो, जब तुम
इसको मौलिक मन
कहते हो, तो
यह बस यही
प्रदर्शित
करता है कि
तुम इसकी तुलना
यांत्रिक
मनों से करते
रहे हो, लेकिन
तुम, एक और
उसी चीज की, बात कर रहे
हो।
चाहे
तुम कहीं भी
हो, तुम
यांत्रिक मन
में हो। तुम
जो कुछ भी हो, तुम
यांत्रिक मन
में हो, बंदी
हो। अपने लिए
अफसोस मत करो।
यह स्वाभाविक
है। प्रत्येक
बच्चे को कुछ
न कुछ सीखना
ही पड़ता है, इसी से मन
निर्मित होता
है। और
प्रत्येक
बच्चे को इस
संसार में
जीवित रहने के
उपाय सीखने पड़ते
हैं, इससे
मन निर्मित
होता है। अपने
माता—पिता या
अपने समाज के
प्रति
क्रोधित
अनुभव मत करो,
इससे कोई
सहायता नहीं
मिलने वाली है।
प्रेम में
उन्होंने
तुम्हारी
सहायता की है,
यह
स्वाभाविक था।
तुमको
जीवित रहने के
लिए एक मन की
आवश्यकता
होती है, और प्रत्येक
समाज हर बच्चे
पर मन थोपने
का प्रयास
करता है, क्योंकि
सभी बच्चे
जन्म के समय
जंगली होते
हैं। उनको
पालतू बनाना
पड़ता है, उनको
एक सांचा देना
पड़ता है। वे
बिना सांचे के
आते हैं। उनको
इस संसार में,
जहां बहुत
सा संघर्ष
जारी रहता है,
जहां जिंदा
बने रहना एक
सतत समस्या है,
जीवित बच
पाना और जीना
कठिन होगा।
उनको स्वयं की
रक्षा करने के
कुछ खास
उपायों में निपुण
होना पड़ेगा।
उन्हें संसार
की
शत्रुतापूर्ण
शक्तियों के विरुद्ध
कवच, आवरण,
खोल धारण
करना पड़ेगा।
उनको दूसरों
की भांति
व्यवहार करना
सिखाना पड़ता
है, उनको
नकलची होना
सिखाना पड़ता
है। नकल के
माध्यम से
यांत्रिक मन
निर्मित होता
है। नकल को
त्याग कर
मौलिक मन
निर्मित होता
है।
मैंने
सुना है, तीन भूत ताश
खेल रहे थे, तभी चौथे
भूत ने द्वार
खोला और भीतर
प्रवेश किया।
खुले दरवाजे
से बाहर से आए
हवा के झोंके
ने उनके पत्ते
उड़ा कर फर्श
पर बिखेर दिए।
नया भूत, बच्चा
भूत था—बहुत
छोटा, भूतों
के संसार में
बहुत नया।
उनमें से एक
भूत ने निगाह
उठाई और कहा, क्या तुम
अन्य सभी की
भांति आने के
लिए की—होल का
प्रयोग नहीं
कर सकते थे?
अब
भूतों को भी
प्रशिक्षित
करना पड़ता है.
द्वार खोलने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है; चाबी के छेद
से भीतर आओ
जैसा कि
प्रत्येक कर
रहा है।
इसी
भांति माता—पिता
तुमको सिखाते
चले जाते हैं—नकल
करो, और
वे लोग जो बड़े
नकलची हैं, प्रशंसा
पाते हैं। वह
बच्चा जो नकल
नहीं करता, दंडित होता
है। विद्रोही
बच्चा दंड
पाता है, आज्ञाकारी
बच्चा
प्रशंसा पाता
है।
आज्ञाकारिता
को एक महान
जीवन—मूल्य
समझा गया है
और विद्रोह को
एक बड़ी गलती।
सारा समाज
तुमको आज्ञाकारी
बनाना चाहता
है, तुम्हारे
ऊपर समाज
पुरस्कारों
द्वारा, दंडों
द्वारा, भय,
प्रशंसा, अहंकार को
उकसा कर
आज्ञाकारिता
को थोप देता है।
तुम्हें
दूसरों की नकल
करने को बाध्य
करने के
हजारों उपाय
हैं, क्योंकि
तुमको ढांचा
देने का, तुमको
सिकोड़ने का, तुमको काबू
में लाकर
अनुशासित
करने का यही
एक मात्र उपाय
है। लेकिन
निःसंदेह
इसकी कीमत
बहुत अधिक है।
ऐसा होता ही
है, यह हो
चुका है, और
कोई दूसरा
उपाय था भी
नहीं। इससे
कोई भी बचाव
नहीं कर पाया
है, और
मुझे नहीं
दीखता कि कभी
भी इससे पूरी
तरह बचने की
कोई संभावना
हो सकेगी। कम
या अधिक यह
वहां रहेगा।
लोग
मुझसे पूछते
हैं, कि
यदि मुझको
बच्चों को
शिक्षित करना
हो तो मैं
उनको क्या
सिखाना
चाहूंगा? लेकिन
तुम उनको चाहे
जो कुछ भी
सिखाओ, तुम
उनको एक मन दे
दोगे। तुम
उन्हें
विद्रोह सिखा
सकते हो, लेकिन
यह भी उनको एक
मन दे देगा।
वे विद्रोही
व्यक्तियों
की नकल करना
आरंभ कर देंगे।
फिर से वे
ढांचे में बंध
जाएंगे।
कृष्णमूर्ति
ने सारे संसार
में ऐसे कई
विद्यालय
बच्चों को
सिखाने के लिए, ताकि वे
नकलची न बन
जाएं, आरंभ
किए हैं, लेकिन
वे फिर भी
नकलची बन जाते
हैं। वे
कृष्णमूर्ति
की नकल करना
आरंभ कर देते
हैं। समस्या
बहुत सूक्ष्म
है। जब तुम
बच्चों को नकल
न करना सिखाते
हो, वे
तुम्हारी नकल
करना आरंभ कर
देते हैं; वे
कहते हैं, नकल
मत करो! तुम
उनको सिखाते
हो कि नकल
करना गलत है, और निःसंदेह
तुम भी वे ही
साधन प्रयोग
करते हो। यदि
वे नकल करते
हैं तो उनकी
निंदा की जाती
है, प्रत्येक
उनको नीची
दृष्टि से
देखता है। यदि
वे विद्रोही
हो जाते हैं
तो उनकी
प्रशंसा की
जाती है। यह
पुरस्कार और
दंड की, भ्रम
और लोभ की वही
रणनीति है। वे
नकली
विद्रोही बन
जाते हैं, लेकिन
कोई विद्रोही
नकलची कैसे हो
सकता है?
मन से
बचा पाने का
कोई उपाय नहीं
है, किंतु
इससे बाहर आने
का उपाय है।
इसको समाज में
जन्म लेने पर,
माता—पिता
से जन्म लेने
पर जन्मी एक
आवश्यक बुराई
के रूप में
स्वीकार करना
पड़ता है। यह
सहन किए जाने
के लिए एक
आवश्यक बुराई
है। निःसंदेह
इसको जितना
संभव हो सके
उतना शिथिल
बना लो, बस
इतना ही करो।
इसको जितना हो
सके उतना तरल
बना लो, बस
यही पर्याप्त
है। अच्छा
समाज वह समाज
है जो तुमको
एक मन देता है,
और फिर भी
तुमको सजग
बनाए रखता है
कि एक दिन इस मन
को छोड़ना पड़ता
है—यह कोई परम
जीवन—मूल्य
नहीं है, इससे
होकर गुजरना
पड़ता है, लेकिन
इसके परे भी
जाना है। इसका
अतिक्रमण
करना पड़ता है।
मन को देना तो
पड़ता है लेकिन
मन के साथ तादात्मय
बना लेने की
कोई आवश्यकता
नहीं है। यदि
यह तादात्म
शिथिल रहे तो
जब लोग
परिपक्व हो
जाएंगे तो वे
इससे अधिक
सरलता से, कम
पीड़ा, कम
संतप, कम
प्रयास से
बाहर आने में
समर्थ होंगे।
चाहे
तुम धनी हो या
निर्धन, चाहे तुम
गोरे हो या
काले, चाहे
तुम शिक्षित
हो या
अशिक्षित, इससे
जरा भी अंतर
नहीं पड़ता, हम एक ही नाव
में सवार हैं;
कृत्रिम मन
की नाव में।
और यही समस्या
है। इसलिए तुम
निर्धन से धनी
हो सकते हो या
तुम अपनी
संपदा का
त्याग कर सकते
हो, और
भिखारी, बौद्ध
भिक्खु, कोई
साधु बन सकते
हो, लेकिन
यह तुमको बदल
नहीं देगा।
अभी भी तुम
उसी नाव में
बैठे हुए हो।
तुम बस
भूमिकाएं बदल
रहे होगे, तुम
व्यक्तित्वों
को बदल रहे
होंगे, लेकिन
तुम्हारा सार—तत्व
पहले की तरह
सिमटा हुआ
रहेगा।
मैंने
सुना है, एक करोड़पति
ने एक आवारा
के को अपने
बाग में चहलकदमी
करते हुए देखा,
तो वह उस पर
चिल्लाया, यहां
से इसी समय
बाहर निकल जाओ।
उस आवारा ने
कहा : महोदय, देखिए आपमें
और मुझमें
केवल इतना
अंतर है कि आप
अपने दूसरे
करोड़ की
तैयारी में
हैं और मैं अभी
पहले करोड़ को
पूरा करने के
लिए कार्य कर
रहा हूं—कोई
बहुत अधिक
अंतर नहीं है।
निर्धन
व्यक्ति, धनी व्यक्ति,
शिक्षित, अशिक्षित, सुसंस्कृत,
संस्कार—विहीन,
सभ्य, आदिम
पाश्चात्य, पूर्वी, ईसाई,
हिंदू इससे
जरा भी अंतर
नहीं पड़ता है।
मात्रा में
अंतर हो सकता
है, किंतु
गुणवत्ता में
नहीं होता। हम
सभी मन में
हैं, और
सारा धर्म
इससे पार जाने
का एक प्रयास
है।
कर्माशुल्काकृष्ण
योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्।
'योगी
के कर्म न
शुद्ध होते
हैं, न
अशुद्ध, लेकिन
अन्य सभी कर्म
त्रि—आयामी
होते हैं—शुद्ध,
अशुद्ध और
मिश्रित।’
यह कुछ
ऐसी बात है
जिसको पश्चिम
में समझा जाना
बहुत ही कठिन
है, क्योंकि
पश्चिम में
केवल दो
श्रेणियां
अस्तित्व में
.हैं : शुद्ध और
अशुद्ध, महात्मा
और पापी, दिव्यता
और शैतानियत,
स्वर्ग और
नरक, गोरा
और काला। सारा
पश्चिम
अरस्तु के
तर्क का
अनुगमन करता है,
और यह अभी
भी किसी ऐसी बात
को नहीं जान
पाया जो दोनों
के पार हो, उनमें
से कुछ भी न हो
फिर भी उनका
अतिक्रमण करती
हो। इस भांति
के सूत्र किसी
पश्चिमी मन
द्वारा समझे
जाने के लिए
काफी दुरूह
हैं, क्योंकि
मन का एक
निश्चित
ढांचा होता है।
यह ढांचा कहता
है, यह
कैसे संभव हो
सकता है? कोई
व्यक्ति या तो
अच्छा है या
बुरा है! ऐसा
व्यक्ति कैसे
संभव है, ऐसा
मन कैसे संभव
है जो कुछ न हो?
तुम या तो
अच्छे हो या
बुरे। यह
द्वैतवाद, द्विमुखी
पद्धति, पश्चिमी
मन में बहुत
स्पष्ट है। यह
विश्लेषणात्मक
है।
यह
सूत्र कहता
है. 'योगी
के कर्म न
शुद्ध होते
हैं, न
अशुद्ध।’ क्योंकि
वे मौलिक मन
से आते हैं।
अब यहां बहुत
सी बातें समझ
लेनी हैं।
तुम
किसी को मरता
हुआ देखते हो
और तभी अचानक
अरस्तुवादी
मन में एक
समस्या उठ खड़ी
होती है : यदि
परमात्मा भला
है, तो
मृत्यु क्यों
त्र: यदि
परमात्मा भला
है, तो
निर्धनता
क्यों? यदि
परमात्मा भला
है, तो
कैंसर क्यों?
यदि
परमात्मा भला
है, तो सभी
कुछ अच्छा
होना चाहिए।
वरना संदेह
उपजता है। तब
परमात्मा हो
ही नहीं सकता।
या यदि वह है
तो वह भला
नहीं हो सकता।
और उस
परमात्मा को
तुम कैसे
परमात्मा कह
सकते हो जो
भला तक नहीं
है गुम इसलिए
सारा ईसाई धर्मशास्त्र
शताब्दियों
से इस समस्या
पर कार्य करता
रहा है कि
इसकी
व्याख्या किस
प्रकार से की
जाए? लेकिन
यह असंभव है।
क्योंकि
अरस्तुवादी
मन के साथ यह
संभव नहीं है।
तुम इसकी
उपेक्षा कर
सकते हो, लेकिन
तुम इस समस्या
को पूरी तरह
से मिटा नहीं
सकते, क्योंकि
यह प्रश्न मन
की संरचना के
कारण ही उठता
है।
पूरब
में हम यह
कहते हैं कि
परमात्मा न तो
भला है, न बुरा है, इसलिए जो
कुछ घट रहा है
घट रहा है।
इसमें कोई
नैतिक मूल्य
नहीं है। इसे
तुम अच्छा या
बुरा नहीं कह
सकते। इसको
तुम अच्छे या
बुरे की भांति
पुकारते हो क्योंकि
तुम्हारे पास
एक निश्चित मन
है। यह
तुम्हारे मन
का संदर्भ है
कि कोई चीज
अच्छी बन जाती
है और कोई चीज
बुरी बन जाती
है।
अब
देखो, एडोल्फ
हिटलर का जन्म
हुआ; यदि
मां ने एडोल्फ
हिटलर को मार
डाला होता, तो यह अच्छा
होता या बुरा?
अब हम देख
सकते हैं कि
यदि मां ने
एडोल्फ हिटलर
को मार दिया
होता तो यह
संसार के लिए
बहुत अच्छा
हुआ होता।
लाखों लोग
मारे गए इसके
स्थान पर यह
बेहतर रहा
होता कि एक
व्यक्ति मारा
जाता। लेकिन
यदि मां ने
एडोल्फ हिटलर
को मार दिया होता
तो उसको
कठोरता से
दंडित किया
गया होता।
उसको उम्र कैद
की सजा दी गई
होती या फिर
उसको सरकार
द्वारा, न्यायालय
द्वारा, पुलिस
द्वारा गोली
मार दी गई
होती। और किसी
ने नहीं कहा
होता कि सरकार
गलत थी, क्योंकि
बच्चे की
हत्या पाप है।
लेकिन क्या
तुम परिणाम
देखते हो? फिर
एडोल्फ हिटलर
ने लाखों
लोगों की
हत्या की। वह
सारे संसार को
करीब—करीब मौत
के कगार पर ले
आया था। पहले
कभी कोई भी
इतनी बड़ी आपदा
सिद्ध नहीं हुआ
था। उसके
सामने सारे
चंगीज खान और
तैमूरलंग
फीके पड़ जाते
हैं। वह अभी
तक का सबसे
बड़ा हत्यारा
था। लेकिन
क्या कहा जाए?
उसने अच्छा
किया या बुरा
इसका निर्णय
करना अभी भी
कठिन है, क्योंकि
जीवन कभी
पूर्ण नहीं
होता, और
जब तक यह
पूर्ण न हो
तुम
मूल्यांकन
किस भांति कर
सकते हो? हो
सकता है कि
उसने जो कुछ
भी किया वह
अच्छा हो। हो
सकता है कि
उसने गलत
लोगों को मार
कर उनसे पृथ्वी
को साफ कर
दिया हो—कौन
जाने? और
कौन निर्णय कर
सकता है? हो
सकता है कि
उसके बिना
संसार उससे भी
अधिक बुरा हो
जाता, जितना
यह इस समय है।
जिस
किसी बात को
भी हम अच्छा
कहते हैं वह
किसी विशेष
प्रकार के
सीमित मन के
अनुसार अच्छी
होती है। जिस
किसी बात को
हम बुरा कहते
हैं वह भी
किसी विशेष
प्रकार के
सीमित मन के
अनुसार बुरी
होती है।
ताओवादियो
की एक कहानी
है। एक व्यक्ति
के पास एक
बहुत ही सुंदर
घोड़ा था, यह इतना
बेशकीमती था
कि सम्राट तक
उसके प्रति शत्रुता
और ईर्ष्या का
भाव रखता था।
अनेक बार उसके
पास घोड़े के
लिए अनेक
प्रस्ताव आए,
और वह जितने
भी धन की
अपेक्षा करता
या चाहता लोग
उतना देने को
तैयार थे।
लेकिन वह का
व्यक्ति हंसता,
वह कहता था,
मैं घोड़े को
प्रेम करता
हूं और तुम
अपने प्रेम को
कैसे बेच सकते
हो? इसलिए
तुम्हारे
प्रस्ताव के
लिए धन्यवाद,
लेकिन इसे
मैं बेच नहीं
सकता।
फिर एक
दिन रात्रि
में घोड़ा चुरा
लिया गया या कुछ
और हो गया।
अगले दिन सुबह
घोड़ा अस्तबल
में नही था।
सारा नगर
एकत्रित हो
गया और
उन्होंने कहा, अब देखो,
इस मूर्ख
बुढ़े को!
घोड़ा चला गया।
और तुम उसे
बेच कर काफी
धनवान हो सकते
थे। इस नगर
में ऐसी
मुसीबत कभी
नहीं आई। और
तुम निर्धन हो
और वृद्ध हो।
तुम्हें इसे
बेच डालना
चाहिए था, तुमने
गलत किया।
वह का
व्यक्ति हंसा, उसने कहा,
मूल्यांकन
करने के चक्कर
में मत पड़ो, और अच्छा या
बुरा होने के
बारे में कुछ
मत कहो, और
आपदा या आशीष
के बारे में
बात मत करो।
मैं केवल एक
बात जानता हूं
कि पिछली रात
घोड़ा अस्तबल
में था और इस
सुबह वह वहां
नहीं है, बस
यही है पूरी
बात। लेकिन
मैं इसके बारे
में और कुछ
नहीं कहूंगा।
तथ्य के साथ
रहो कि घोड़ा
अस्तबल में
नहीं है, बस
बात समाप्त।
इस घटना में
किसी प्रकार
का मन बीच में
क्यों लाते हो
कि यह अच्छा
है या बुरा, कि ऐसा नहीं
होना चाहिए, कि यह एक
आपदा है, इसके
बारे में सब
कुछ भूल जाओ।
लोग
स्तंभित रह गए।
उन्होंने अपमान
अनुभव किया कि
वे अपनी
सहानुभूति
दिखाने आए थे
और यह मूर्ख
दर्शनशास्त्र
की बातें कर
रहा है। इसलिए
यह अच्छा रहा, इस आदमी
को सजा मिलनी
चाहिए थी, और
देवता लोग
सदैव ठीक करते
हैं।
लेकिन
पंद्रह दिन
बाद घोड़ा वापस
लौट आया। इसको
चुराया नहीं
गया था, यह जंगल में भाग
गया था। और
इसके साथ बारह
और घोड़े आ गए
थे—जंगली घोड़े,
बहुत सुंदर,
बहुत
बलशाली। सारा
नगर एकत्रित
हो गया।
उन्होंने कहा,
यह का आदमी
अवश्य कुछ
जानता है, वह
ठीक कह रहा था,
यह कोई आपदा
नहीं थी, हम
गलत थे। और वे
बोले, हमें
खेद है। हम
पूरी
परिस्थिति को
समझ नहीं सके,
लेकिन यह एक
बड़ा आशीष है।
न केवल
तुम्हारा
घोड़ा वापस आ
गया, लेकिन
बारह और घोड़े!
और हमने इतने
सुंदर और बलशाली
घोड़े कभी नहीं
देखे। तुम
बहुत सा धन
एकत्रित कर
लोगे।
उस
वृद्ध
व्यक्ति ने
पुन: कहा, इसकी चिंता
मत लो कि यह
आशीष है या
आपदा। कौन
जाने? भविष्य
अज्ञात है, और हमें तब
तक कुछ नहीं
कहना चाहिए जब
तक कि हमें
भविष्य शांत न
हो। तुम फिर
वही गलती कर
रहे हो। बस
इतना कहो, घोड़ा
वापस आ गया है,
और बारह
अन्य घोड़ों के
साथ वापस आया
है, बस बात
खत्म।
उन्होंने कहा,
अब हमको
मूर्ख बनाने
का प्रयास मत
करो। हम जानते
हैं कि तुमने
इन घोड़ों के
रूप में बहुत
सारा धन
एकत्रित कर
लिया है।
लेकिन
एक सप्ताह बाद
उस के व्यक्ति
का एकमात्र
पुत्र जो एक
घोड़े को सिखा
रहा था, जंगली घोड़े
को साधने का
प्रयास कर रहा
था, वह
घोड़े से गिर
पड़ा। उसको
बहुत चोटें
आईं, अनेक
हड्डियां टूट
गईं। उस के
आदमी का वह एक
मात्र सहारा
था। और लोगों
ने कहा, यह
का आदमी जानता
है, वास्तव
में उसे पता
है... अब यह एक
बड़ी आपदा है।
घोड़े का ऐसे
आना एक
दुर्भाग्य हो
गया। उसकी
वृद्धावस्था
का एकमात्र
सहारा, उसका
पुत्र, अब
करीब—करीब
मरने जैसी
हालत में है।
वह के व्यक्ति
को सहारा दिया
करता था, अब
उस के व्यक्ति
को युवक की
सेवा करनी
पड़ेगी, क्योंकि
वह तो अपनी
पूरी जिंदगी
अब बिस्तर पर काटेगा।
और उस युवक का
तो बस अभी
विवाह होने जा
रहा था। अब तो
विवाह भी
असंभव हो
जाएगा।
और वे
पुन: एकत्रित
हो गए, और
फिर से वे
बोले, और
उस बूढ़े
व्यक्ति ने
कहा, तुमको
कैसे बताया
जाए? तुम
लोग बार—बार
वही काम किए
चले जाते हो।
केवल इतना कहो
कि मेरे युवा
पुत्र की अनेक
हड्डियां टूट
गई हैं, बस
बात समाप्त।
भविष्य में
क्यों जाते हो?
तुम इतनी
तेजी से
भविष्यकाल
में क्यों पहुंच
जाते हो? और
तुम लोगों ने
देखा है कि इन
दिनों बार—बार
तुमने जो
विचार प्रकट
किए थे, वे
गलत थे, लेकिन
फिर भी बार—बार
तुम वर्तमान
से हट जाते हो
और मूल्यांकन
करना आरंभ कर
देते हो।
और ऐसा
हुआ कि कुछ
दिन बाद उस
देश का पड़ोसी
देश से युद्ध
कि गया और नगर
के सारे
युवकों को बलपूर्वक
सेना में
भर्ती कर लिया
गया। केवल इस बूढ़े
आदमी का पुत्र
बच गया
क्योंकि उसकी
हड्डियां
टूटी हुई थीं।
वे लोग फिर
एकत्रित हो गए, लेकिन
इससे पूर्व कि
वे एकत्रित
होते के आदमी ने
कहा, खामोश
रहो! तुम लोग
कब समझोगे? जीवन जटिल
है।
सार—रूप
में पूर्वीय
दृष्टिकोण
यही है।
योगी
मौलिक मन में
रहता है, तथाता में
जीता है। जो
कुछ भी घटता
है, घट
जाता है; वह
कभी इसका
मूल्यांकन
नहीं करता है।
और वह अपने से
कुछ भी नहीं
करता है, वह
समग्र के लिए
बस एक वाहन बन
जाता है।
समग्र उससे
होकर
प्रवाहित हो
जाता है। वह
एक पोला बांस,
एक बांसुरी
जैसा बन जाता
है। योगी वही
करता है जो उसके
पास परमात्मा
से, समग्र
से आता है।
इसीलिए
भगवद्गीता
में कृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं, चिंता
मत करो और इस
बारे में मत
सोचो कि जो
तुम करने जा
रहे हो वह
हिंसा होगी, और तुम अनेक
लोगों को मार
दोगे। यदि
परमात्मा की
इच्छा यही
होगी तो इसे
होने दो। यदि
वह मारना चाहता
है, तो वह
मार देगा, भले
ही वह
तुम्हारे
माध्यम से
मारे या किसी
अन्य के
माध्यम से
मारे। कृष्ण
कहते हैं, वास्तव
में वह पहले
से ही मार
चुका है। तुम
मात्र एक
उपकरण हो, इसलिए
अपने कृत्यों
से बहुत अधिक
तादात्म्य मत
करो। साक्षी
बने रहो।
'योगी
के कर्म न
शुद्ध होते
हैं, न
अशुद्ध; न
नैतिक होते
हैं और न
अनैतिक, लेकिन
अन्य सभी त्रि—आयामी
होते हैं—शुद्ध,
अशुद्ध, और
मिश्रित।’
जो कुछ
भी सामान्य
लोग कर रहे
हैं—सामान्य
से मेरा
अभिप्राय है, वे लोग
जिनको अभी
अपने
अस्तित्व का
अंतर्तम केंद्र
उपलब्ध नहीं
हुआ है; वे
लोग जो अपने
मन के साथ जी
रहे हैं.
सामान्य हैं,
जो लोग अपने
आदर्शों और
विचारों और
विचारधाराओं
और शास्त्रों
के साथ जी रहे
हैं, जो
कुछ भी वे कर
रहे हैं—या तो
उनके कृत्य
शुद्ध हैं, या उनके
कृत्य अशुद्ध
हैं, या
उनके कृत्य
मिश्रित हैं;
लेकिन उनके
कृत्य सहज
नहीं हैं, मौलिक
नहीं हैं। वे
प्रतिकर्म
करते हैं, वे
कर्म नहीं
करते। उनका
प्रत्युत्तर
एक प्रतिकर्म
होता है। यह
कोई ऊर्जा का
अतिशय प्रवाह
नहीं है। वे
ठीक अभी इस
क्षण में नहीं
जी रहे हैं।
किसी
ने झेन मास्टर
लिन ची से
पूछा, यदि
कोई आए और
आपके ऊपर
आक्रमण कर दे,
तो आप क्या
करेंगे? उसने
अपने कंधे झटक
दिए और कहा :
उसको आने दो
और मैं
देखूंगा। मैं
पहले से
तैयारी नहीं
रख सकता। मैं
नहीं जानता।
मैं हंस सकता
हूं या मैं रो
सकता हूं या
मैं उस व्यक्ति
के ऊपर कूद कर
उसकी हत्या कर
सकता हूं। या
हो सकता है कि
मैं उस आदमी
की जरा सी भी
चिंता न लूं।
किंतु मुझको पता
नहीं। उस
व्यक्ति को
आने दो। वह
क्षण स्वत:
निर्णय कर
लेगा, मैं
नहीं। समग्र
निर्णय लेगा,
मैं नहीं।
मैं कैसे कह
सकता हूं कि
मैं क्या
करूंगा?
एक संबुद्ध
व्यक्ति मन के
माध्यम से
नहीं जीता है।
उसके चारों ओर
कोई ढांचा
नहीं होता। एक
विराट
शून्यता है वह।
कोई नहीं
जानता उस क्षण
में परमात्मा
उसके माध्यम
से किस प्रकार
से कार्य
करेगा। वह
परमात्मा के
कार्य में
रुकावट नहीं
डालेगा, बस उतनी सी
बात है, क्योंकि
वहा रुकावट
डालने के लिए
कोई है ही नहीं।
मन रुकावट
डालता है, अब
वह मन नहीं
रहा। वह कुछ
ऐसा करने का
प्रयास नहीं
करेगा जिसको वह
अच्छा समझता
है, और वह
किसी ऐसे
कृत्य से बचने
का भी प्रयास
नहीं करेगा
जिसे वह समझता
है कि यह
कार्य बुरा है।
वह कुछ भी
करने का
प्रयास नहीं
करेगा। वह
केवल
परमात्मा के
हाथों में
होगा और जो कुछ
भी घटित होना
ही है उस घटना
को घटने देगा।
बाद में वह
व्याख्या भी
नहीं करेगा कि
जो कुछ भी हुआ
था वह अच्छा
है या बुरा।
नहीं, एक
समाधिस्थ
व्यक्ति कभी
पीछे नहीं
देखता, कभी
मूल्यांकन
नहीं करता, कभी भविष्य
में नहीं
देखता, कभी
योजना नहीं
बनाता। जो कुछ
भी उस क्षण
द्वारा हो और
वह क्षण को
निर्णय करने
देता है। उस
क्षण में सभी
कुछ एक साथ
सहभागी हो
जाता है।
.सारा
अस्तित्व
इसमें भाग
लेता है, इसलिए
कोई नहीं
जानता कि क्या
होगा?
लिन ची
ने कहा : यदि
मुझ पर कोई
आक्रमण करता
है, कोई
नहीं जानता कि
मैं क्या
करूंगा। यह
निर्भर करेगा
कि आक्रमण कौन
कर रहा है। वे
गौतमबुद्ध हो
सकते हैं, और
यदि वे मुझ पर
आक्रमण करते
हैं तो मैं
हंसूंगा। मैं
उनके
चरणस्पर्श कर
सकता हूं कि
मुझ पर बेचारे
लिन ची पर
आक्रमण करना
उनकी कैसी
करुणा है।
किंतु यह उस
क्षण पर
निर्भर होगा,
इतनी अधिक
बातों पर
निर्भर होगा
कि इसके बारे
में कुछ कहा
नहीं जा सकता
है।
बस
बीसवीं
शताब्दी के
आरंभ में ही
सन उन्नीस सौ
में एक महान
वैज्ञानिक, मैक्स
प्लैंक ने अभी
तक खोजी गई
महान खोजों में
से एक खोज की
है। उनको यह
अनुभव हुआ और
उन्होंने यह
खोजा कि यह अस्तित्व
सतत प्रवाह
जैसा नहीं है,
इसमें कोई
सातत्य नहीं
है। यह कोई
ऐसा नहीं है
जैसे कि तुम
एक बर्तन से
दूसरे बर्तन
में तेल लौट
दो। तो तेल के
प्रवाह में एक
सातत्य होता
है; यह एक
सतत धारा के
रूप में गिरता
है। मैक्स.
प्लैंक ने कहा,
अस्तित्व
ऐसा है जैसे
कि तुम एक
डिब्बे से मटर
के दाने दूसरे
डिब्बे में
डाल रहे हों—अनवरत
प्रवाह नहीं
है—मटर का
प्रत्येक
दाना अलग— अलग
ढंग से अलग—अलग
स्थान पर गिर
रहा है। उसने
कहा, सारा
जीवन
विच्छिन्न है।
इन विच्छिन्न
अवयवों को वह
क्वांटा, तन्मात्रा
कहता है। यही
उसका
तन्मात्रा
सिद्धांत, क्वांटम
थ्योरी है।
क्वांटा का
अर्थ है : प्रत्येक
वस्तु दूसरी
हर वस्तु से
भिन्न है, और
उसके सातत्य
में नहीं है, और दो
वस्तुओं के
मध्य एक
अंतराल है। अब
यह अंतराल
प्रत्येक चीज
को सम्हाले
हुए है, क्योंकि
दो वस्तुएं
परस्पर जुड़ी
हुई नहीं हैं,
दो परमाणु
एक—दूसरे से
जुड़े हुए नहीं
हैं। वह
अंतराल, वह
रिक्तता
दोनों को
सम्हाले हुए
है। वे
प्रत्यक्षत:
जुड़े हुए नहीं
हैं, वे
अंतराल के
द्वारा जुड़े
हुए हैं। अभी
तक किसी ने मन
के बारे में
ऐसे ही
समानांतर
सिद्धांत पर
ध्यान नहीं
दिया है, लेकिन
मन के बारे
में ठीक यही
बात है।
दो
विचार एक—दूसरे
से जुड़े हुए
नहीं हैं, और विचार
विच्छिन्न
होते हैं। एक
विचार, अन्य
विचार, अन्य
विचार और इन
विचारों के
मध्य में
अंतराल हैं, बहुत छोटे
अंतराल—वह
तुम्हारा
अंतर—आकाश है।
यही है जिसे
मौलिक मन कहा
जाता है। एक
बादल गुजरता
है, दूसरा
बादल गुजरता
है, दोनों
के मध्य आकाश
है। एक विचार
गुजरता है, दूसरा विचार
गुजरता है, दोनों के
मध्य मौलिक मन
है। यदि तुम
सोचते हो कि
तुम्हारे
विचार सातत्य
में हैं, तो
तुम स्वयं को
मन के रूप में
सोचते हो।
वास्तव
में मन जैसी
कोई चीज नहीं
है, केवल
विचार है, विच्छिन्न
विचार, तुम्हारे
भीतर घूमते
हुए, इतनी
तेज भागते हुए
कि तुम
अंतरालों को
देख नहीं पाते।
इन विचारों को
तुम्हारे
अंतर—आकाश ने
धारण किया हुआ
है। परमाणुओं
को बाह्मआकाश
सम्हालता है,
विचारों को
अंतर—आकाश
द्वारा
सम्हाला जाता
है। यदि तुम
पदार्थ का
हिसाब लगाते
हो तो तुम पदार्थवादी
हो जाते हो, यदि तुम
अपने विचारों
का हिसाब
लगाते हो तो
तुम मनवादी हो
जाते हो।
लेकिन मन और
पदार्थ दोनों
भ्रम हैं। वे
प्रक्रियाएं
हैं, विच्छिन्न
हैं। और मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं कि
योग का परम संश्लेषण
यही है कि
अंतर—आकाश और
बाह्य—आकाश दो
नहीं हैं।
तुम्हारा
मौलिक मन और
परमात्मा का
मौलिक मन दो
नहीं हैं।
तुम्हारा
कृत्रिम मन
परमात्मा के
मन से भिन्न
है, लेकिन
तुम्हारा
मौलिक जरा भी
भिन्न नहीं है।
यह वही है।
'जब
उनकी पूर्णता
के लिए
परिस्थितियां
सहायक होती
हैं, तो इन
त्रि—आयामी
कर्मों से
इच्छाएं उठती
हैं।’
यदि
तुम
शुद्धकर्म, कोई
शुभकार्य, कोई
साधु जैसा
कृत्य करते हो
तो इच्छा का
जन्म होगा, निःसंदेह और
शुभ करने की
इच्छा। यदि
तुम कोई
अशुद्ध कर्म
करते हो, तो
और अशुद्ध
कर्म करने की
इच्छा जाग्रत
होगी, क्योंकि
जो कुछ भी तुम
करते हो, वह
तुम्हारे
भीतर इसको
दोहराने की एक
खास आदत निर्मित
करता है। लोग
दोहराए चले
जाते हैं। जो
कुछ भी तुम कर
चुके हो, तुम
इसको करने में
कुशल हो जाते
हो। यदि तुम
कोई मिश्रित
कृत्य करते हो,
तो
निःसंदेह एक
मिश्रित
इच्छा उपजेगी
जिसमें शुभ और
अशुभ दोनों
मिले हुए
होंगे। लेकिन
ये सभी
कृत्रिम मन
हैं। एक
महात्मा का मन
तक, अब भी
कृत्रिम मन है।
मैने सुना है,
एबी कोहेन,
एक बड़ा
व्यवसायी, जो
यहूदी था, एक
हत्या के
मामले में
राज्य
न्यायालय में
दोषी पाया गया।
उसकी सजा वाले
दिन की सुबह
कारागार
अधीक्षक उससे
मिलने आया।
मिस्टर कोहेन,
उसने कहा, तुम्हें
फांसी पर
लटकाने में
देश को सौ पाउंड
खर्च करना
पड़ेंगे। बुरा
व्यवसाय
रहेगा यह, द्वी
ने कहा, मुझको
केवल पिचानवे
पाउंड दे दो
और मैं खुद को
गोली मार
लूंगा।
एक
व्यवसायी
व्यवसायी
रहता है। वह
व्यापार के
बारे में, धन के
बारे में
सोचता रहता है।
वह इसके बारे
में कुशल हो
गया है। जरा
देखो, जो
कुछ तुम करते
रहे हों—तुम्हारे
भीतर, बेहोशी
में, अवचेतन
में इसे
दोहराने की
प्रवृत्ति
होती है। तुम
वे ही चीजें
बार—बार
दोहराए चले
जाते हो, और
निःसंदेह
जितना अधिक
तुम दोहराते
हो उतना ही
अधिक तुम आदत
की पकड़ में आ
जाते हो। एक
समय ऐसा आता है
कि तुम आदत को
छोड़ना भी चाहो
तो आदत इतनी
गहराई तक जड़ें
जमा चुकी होती
है कि तुम इसे
छोड़ना चाहते
हो, लेकिन
यह तुम्हें
छोड़ना नहीं
चाहती।
मैंने
सुना है, ऐसा हुआ, एक
मास्टर साहब
गरीबी के कारण
शीत ऋतु में
भी सूती कपड़े
पहने हुए थे।
एक तूफान में
पहाड़ों से एक
भालू बह कर
नदी में आ गया।
उसका सिर पानी
में छिपा हुआ
था। उसकी पीठ
देख कर बच्चे
चिल्लाए
मास्टर साहब,
देखिए पानी
में एक फर का
कोट गिर पड़ा
है, और
आपको सर्दी
लगा करती है।
जाकर उसे ले
आइए। मास्टर
साहब ने अपनी
जरूरत की
मजबूरी के वश
में फर का कोट
लाने के लिए
नदी में छलांग
लगा दी। भालू
ने तुरंत उन
पर आक्रमण
किया और उनको
पकड़ लिया।
मास्टर साहब,
किनारे पर
खड़े बच्चे
चिल्लाए या तो
कोट को लेकर
लौटें या उसे
बह जाने दें—और
वापस लौट आएं।
मैं फर का कोट
बह जाने देने
को राजी हूं
मास्टर साहब
चिल्लाए
लेकिन फर का
कोट मुझे वापस
नहीं लौटने दे
रहा है।
आदतों
के साथ यही
समस्या है :
पहले तुम उनको
विकसित करते
हो, फिर
धीरे—धीरे वे
करीब— करीब
तुम्हारा
दूसरा स्वभाव
बन जाती हैं।
फिर तुम उनको
छोड़ना चाहते
हो, लेकिन
उनको छोड़ देना
इतना सरल नहीं
है। क्या किया
जाए?
तुमको
.और सजग हो
जाना पड़ेगा।
आदतों को
छोड़ा नहीं जा
सकता। उनको
छोड़ने के केवल
दो उपाय हैं :
एक है आदत को किसी
वैकल्पिक आदत
से बदल लिया
जाए—लेकिन यह
बस एक समस्या
को दूसरी
समस्या से बदल
लेना है, इससे कोई
बहुत अधिक मदद
नहीं मिलने
वाली है; दूसरा
उपाय है और
सजग हो जाना।
जब कभी तुम
किसी आदत को
दोहराते हो, सजग हो जाओ।
भले ही तुमको
इसे दोहराना
पड़े, दोहराओ
इसे, लेकिन
एक साक्षीभाव
से, सजगता
से, बोधपूर्वक
दोहराओ। वह
जागरूकता
तुमको आदत से
अलग कर देगी, और वह ऊर्जा
जिसे तुम
अनजाने में
आदत को देते रहते
थे अब और नहीं
दी जाएगी।
धीरे—धीरे आदत
सिकुड़ जाएगी,
इसके माध्यम
से जलधार का
प्रवाह हो रहा
था, रास्ता
बंद हो गया है,
अत: धीरे—धीरे
यह लुप्त हो
जाएगी।
कभी
किसी आदत को
दूसरी आदत से
मत बदलों, क्योंकि
सभी आदतें
बुरी हैं।
अच्छी आदतें
तक बुरी हैं, क्योंकि वे
आदते हैं।
अशुद्ध आदतों
को शुद्ध
आदतों में
बदलने का प्रयास
मत करो। समाज
के लिए यह
अच्छा है कि
तुम बुरी
आदतों को
अच्छी आदतों
से बदल लो।
रोज शराबखाने
जाने के स्थान
पर यदि तुम
प्रतिदिन
चर्च या मंदिर
जाते हो तो
समाज के लिए
यह अच्छा है।
किंतु जहां तक
तुम्हारा
प्रश्न है, इससे कोई
बहुत सहायता
नहीं मिलने
वाली है।
तुमको आदतों
के पार जाना
पड़ेगा। तभी यह
सहायक होगा।
समाज
चाहता है कि
तुम नैतिक हो
जाओ, क्योंकि
अनैतिक होकर
तुम
कठिनाइयां
पैदा करते हो—
समाज मिट जाता
है। एक बार
तुम नैतिक हो
जाओ—समाज का
काम समाप्त।
अब समाज का यह
काम नहीं रहा
कि वह
तुम्हारी चिंता
करे। यदि तुम
अनैतिक हो तो
समाज का तुमसे
मतलब समाप्त
नहीं होता, तुम्हारे
बारे में कुछ
किया जाना शेष
है। एक बार
तुम नैतिक हो
गए, समाज
का काम समाप्त।
समाज तुम्हें
फूलमाला
पहनाता है और
तुम्हारा
सम्मान करता
है और कहता है,
आप एक बहुत
अच्छे आदमी
हैं। समाप्त
हो गई समाज की
तुम्हारे
प्रति चिंता,
समाज को अब
तुमसे कोई
परेशानी न रही,
लेकिन
स्वयं
तुम्हें अभी
बहुत दूर जाना
है, यात्रा
अभी पूरी नहीं
हुई है। बुरी
आदत समाज के
विरुद्ध है, और आदत जैसी
कि वह है
तुम्हारे मूल
स्वभाव के
विरुद्ध है।
एक
पिस्सू बंद
होने से ठीक
पहले एक
शराबखाने में
दौड़ता हुआ
पहुंचा, पांच डबल
स्कॉच का
आर्डर किया, उन्हें वह
गटागट पी गया,
गली की ओर
भागा, हवा
में ऊपर की ओर
उछला और मुंह
के बल जमीन पर
आ गिरा। किसी
तरह से वह उठ
कर खड़ा हुआ और
इधर—उधर देख
कर बड़बड़ाया, हद हो गई, किसी
ने यहां से
मेरा कुत्ता
भगा दिया।
अनेक
जन्मों से तुम
पी रहे हो और
अचेतनता के कारण
पिए जा रहे हो।
प्रत्येक
व्यक्ति
नशेबाज है, और
निःसंदेह तुम
बार—बार गिरते
चले जाते हो।
यही
गहन समस्या है, सजग कैसे
हुआ जाए, कैसे
अचेतन न रहा
जाए, आरंभ
कहां से करें?
किसी गहरी
जड़ों वाली आदत
से संघर्ष
करने की कोशिश
मत करो। तुम
हार जाओगे। फर
का कोट तुमको
इतनी आसानी से
नहीं छोड़ेगा।
बहुत सामान्य
बातों से आरंभ
करो।
उदाहरण
के लिए, तुम टहलने
जाते हो; बस
सजग हो जाओ कि
तुम टहल रहे
हो। यह एक
सामान्य बात
है। इसमें कुछ
भी नहीं जा
रहा है। तुम
वृक्षों को
देख रहे हो; बस वृक्षों
को देखो और
सजग हो जाओ।
धुंधली आंखों
से मत देखो।
सारे विचारों
को छोड़ दो। बस
कुछ क्षणों के
लिए ही, जरा
वृक्षों को
देखो— और बस
देखो।
सितारों को
देखो 1 तैरते
हुए, बस उस आंतरिक
अनुभूति के
प्रति सजग हो
जाओ, जो
तुम्हारे
शरीर के भीतर
तब होती है जब
तुम तैर रहे
होते हो, अंतस
की अनुभूति।
इसे अनुभव करो।
तुम धूपस्नान
ले रहे हो, अनुभव
करो तुमको
भीतर कैसा
लगने लगा है :
उष्णता, विश्राम,
ठहराव। जब
सोने जा रहे
हो, जरा
देखो तुमको
भीतर कैसी
अनुभूति हो
रही है। भीतर—बाहर,
चादर की
ठंडक के प्रति,
कमरे में
व्याप्त
अंधकार के
प्रति, बाहर
के मौन के
प्रति, या
बाहर के
शोरगुल के
प्रति सजग
होने का प्रयास
करो। अचानक एक
कुत्ता
भौंकता है—सामान्य
बातें; पहले
अपनी चेतना को
उन पर लाओ। और
फिर धीरे—
धीरे आगे बढो।
फिर
अपनी अच्छी
आदतों के
प्रति सजग
होने का प्रयास
करो, क्योंकि
अच्छी आदतों
की जड़ें उतनी
गहरी नहीं होतीं
जितनी बुरी
आदतों की।
अच्छी आदतों
को तुम्हारे
कठोर परिश्रम
की आवश्यकता
होती है, इसलिए
बहुत कम लोग
अच्छी आदतें
डालने का प्रयास
करते हैं। और
वे लोग जो
अच्छी आदतें
डालने का
प्रयास करते
हैं बहुत कम
अच्छी आदतें
डालने की
कोशिश करते
हैं, बस
उनकी ओट में
अनेक बुरी
आदतें जारी
रहती हैं।
पहले
सामान्य
बातों के
प्रति, फिर अच्छी
आदतों के
प्रति और फिर
धीरे— धीरे
बुरी आदतों के
प्रति सजग
होते जाओ। और
अंतत: स्मरण
रखो कि
प्रत्येक आदत
के प्रति सजग
होना है। एक
बार तुम अपनी
आदतों के पूरे
ढांचे के
प्रति सजग हो
जाओ, यह
आदतों का
ढांचा ही
तुम्हारा मन
है; तब
किसी भी दिन
अवधान का
विषयांतरण
घटित हो जाएगा।
अचानक तुम अ—मन
में होओगे। जब
तुम अपनी सभी
आदतों के
प्रति सजग हो
चुके होते हो
तुम उनको
अचेतनता से
नहीं करते, और तुम
बेहोशी में
उनके साथ
सहयोग नहीं
करते, तब
किसी दिन जब
संतृप्तता का
बिंदु आता है—सौ
डिग्री पर—अचानक
एक विषयांतरण
घट जाएगा। तुम
स्वयं को
शून्यता में
पाओगे जो न
शुद्ध है और न
अशुद्ध।
'जब
उनकी पूर्णता
के लिए
परिस्थितियां
सहायक होती
हैं, तो इन
त्रि— आयामी
कर्मों से
इच्छाएं उठती हैं।’
जो कुछ
भी तुम करते
हो वह
तुम्हारे
भीतर बीज की
भांति पड़ा
रहता है। और
जब कभी कोई
विशेष
परिस्थिति
पैदा हो जाती है
जो तुम्हारे
लिए सहायक हो
सकती हो, तो यह बीज
अंकुरित हो
जाता है। कभी—कभी
हम इन बीजों
को अनेक
जन्मों तक साथ
लिए फिरते हैं।
उचित
परिस्थिति, उचित मौसम
नहीं आ पाता
है, किंतु
जब कभी भी यह
माहौल बन जाता
है, इससे
बहुत जटिल
समस्याएं उत्पन्न
हो जाती हैं।
अचानक सड़क
चलते हुए एक
आदमी से
तुम्हारा
सामना होता है
और तुमको उसके
प्रति बहुत ही
विकर्षण
अनुभव होता है,
और तुम उस
आदमी को पहले
कभी जानते भी
नहीं थे।
तुमने उसके
बारे में कभी
सोचा भी न था, न कभी उसके
बारे में सुना
था, एक
नितांत अनजान
व्यक्ति और
अचानक तुम
प्रतिकर्षण
अनुभव करते हो,
या तुम
आकर्षित
अनुभव करते हो।
अचानक तुमको
लगता है कि
उससे तुम पहले
कभी मिल चुके
हो। अचानक तुम
इस अनजान
व्यक्ति के
लिए अपने भीतर
प्रेम—ऊर्जा
की एक बडी लहर
उठती हुई
अनुभव करते हो,
जैसे कि तुम
सदैव उसके
निकट, उसके
अंतरंग रहे हो।
अतीत के किसी
अन्य जन्म से
कोई बीज भीतर
पड़ा हुआ था—एक
विशेष
परिस्थिति—और
बीज ने
अंकुरित होना आरंभ
कर दिया।
अचानक तुम
बिना किसी कारण
के
संतापग्रस्त
हो गए। और तुम
सोचते हो, मैं
क्यों
संतापग्रस्त
हूं? क्यों?
इस दृश्य
संसार में कोई
कारण भी नहीं
दिखाई पड़ता है।
इस संताप के
लिए तुम कोई
बीज लिए हुए
हो सकते हो; बस उसका सही
समय आ गया है।
जूलिया
शर्म से सिर
झुकाए अपने
पिता के पास
आई, पापा,
वह बोली, आप उस अमीर
मिस्टर वोल्फ
को जानते हैं?
उसने मेरे
साथ धोखा किया
है, और
मुझे बच्चा
होने वाला है।
ओह
भगवान! पिता
ने कहा, वह है कहां? मैं उसको
मार डालूंगा।
उसको पता दो।
मैं उसका खून
कर दूंगा।
उतावला होकर
वह उस अमीर
आदमी के घर
पहुंचा, उसने
तेज आवाज में
उसे पुकारा और
पूछा कि उसका
क्या करने का
इरादा है।
लेकिन अमीर
मिस्टर वोल्फ
तो बिलकुल
शांत रहा, उत्तेजित
मत हो, उसने
कहा, मैं
कहीं भागा
नहीं जा रहा
हूं। और मैं
तुम्हारी
बेटी के साथ
उचित बर्ताव
करना चाहता
हूं। यदि उसके
पुत्र
उत्पन्न होता
है तो उसे
पचास हजार डालर
मिलेंगे और
यदि उसके
पुत्री हुई तो
पैंतीस हजार
डालर। क्या यह
ठीक है?
पिता
रुक गया, उसके चेहरे
से क्रोध के
भाव मिट गए।
और यदि
गर्भपात हो
गया, उसने
आक्षेप करते
हुए कहा, तो
क्या आप उसको
एक मौका और
देंगे?
अचानक
परिस्थितियां
बदल गईं। अब
लोभ का बीज
अंकुरित हो गया
है। वह हत्या
करने आया था, लेकिन बस
धन का उल्लेख
हुआ और वह
हत्या के बारे
में सब कुछ
भूल गया; वह
पूछ रहा है, क्या आप
उसको एक मौका
और देंगे?
निरीक्षण
करो......लगातार
अपना
निरीक्षण
करते रहो, परिस्थितियां
बदलती हैं और
तुम तुरंत बदल
जाते हो।
तुम्हारे
भीतर कुछ अंकुरित
होने लगता है,
कुछ बंद
होने लगता है।
मौलिक
मन वाला
व्यक्ति वही
रहता है। जो
कुछ भी घटता
है वह इसका
निरीक्षण
करता है, लेकिन उसके
भीतर अतीत से
कोई इच्छा के
बीज शेष नहीं
बचे हैं। वह
अपने अतीत के
माध्यम से
कृत्य नहीं
करता, वह
बस
प्रतिसंवेदना
करता है, उसका
प्रतिसंवेदन
शून्यता से
आता है। कभी—कभी
तुम भी उसी
प्रकार से
कृत्य करते हो,
लेकिन बहुत
कम। और जब कभी
तुम इस प्रकार
से कृत्य करते
हो, तुमको
अत्यधिक
पूर्णता और
परितृप्ति और
संतुष्टि
अनुभव होती है।
यह कभी—कभी
घटित होता है।
कोई मर
रहा है, नदी में डूब
रहा है और तुम
बस बिना किसी
विचार के नदी
में छलांग लगा
देते हो। तुम
यह नहीं सोचते
कि उस व्यक्ति
को बचाना है या
नहीं, वह
हिंदू है या
मुसलमान, या
कोई पापी है
या
पुण्यात्मा, तुम्हें
चिंता क्यों
करनी चाहिए? नहीं, तुम
जरा भी नहीं
सोचते। अचानक
यह घटित हो
जाता है।
अचानक तुम्हारा
कृत्रिम मन
पीछे धकेल
दिया जाता है और
तुम्हारा
मौलिक मन
कार्य करता है।
और जब तुम उस
व्यक्ति को
बाहर निकाल
लाते हो तो
तुमको
अत्यधिक
परितृप्ति
अनुभव होती है,
जैसी कि तुम्हें
पहले कभी नहीं
हुई थी।
तुम्हारे
भीतर एक
लयबद्धता उदित
होती है। तुम
बहुत
संतुष्टि
अनुभव करते हो।
जब कभी
तुम्हारी
शून्यता से
कुछ भी घटित
होता है तुम
आनंदित अनुभव
करते हो।
आनंद
तुम्हारी
शून्यता का
कृत्य है।
'क्योंकि
स्मृति और
संस्कार समान
रूप में ठहरते
हैं, इसलिए
कारण और
प्रभाव का
नियम जारी
रहता है, भले
ही वर्ण, स्थान
और समय में
उनमें अंतर हो।’
और यह
चलता चला जाता
है.. .तुम्हारा
जीवन बदलता है.
तुम इस शरीर
में मर जाते
हो, तुम
एक और गर्भ
में प्रवेश
करते हो, लेकिन
अंतर्तम रूप
तुम्हारे साथ
संलग्न रहता
है। तुमने जो
कुछ भी किया
है, चाहा
है, अनुभव
किया है, संचित
किया है, वही
फर का कोट
तुम्हारे साथ
चिपक जाता है,
तुम इसे
अपने साथ ले
जाते हो।
मृत्यु, सामान्य
मृत्यु, केवल
शरीर की
मृत्यु होती
है, मन
नहीं मरता।
वास्तविक
मृत्यु, परम
मृत्यु, जिसको
हम समाधि कहते
हैं, न
केवल शरीर की
मृत्यु है
बल्कि यह मन
की भी मृत्यु
है। फिर अब
कोई और जन्म
नहीं होता, क्योंकि
वापस लौटने के
लिए कोई बीज न
बचा, पूरी
होने के लिए
कोई इच्छा न
रही, कुछ
शेष नहीं रहा,
व्यक्ति बस
एक सुगंध की
भांति खो जाता
है
'और
इस प्रक्रिया
का कोई
प्रारंभ नहीं
है, जैसे
कि जीने की
इच्छा शाश्वत
होती है।’
दर्शनशास्त्री
पूछे चले जाते
हैं, संसार
कब आरंभ हुआ? योग एक
अत्यधिक
अनूठी बात
कहता है.
संसार का आरंभ
कभी नहीं हुआ
था। इच्छा का
कोई आरंभ नहीं
है, क्योंकि
जीने की इच्छा
शाश्वत है। यह
सदैव से वहां
थी। योग संसार
के किसी सृजन
में विश्वास
नहीं रखता है।
ऐसा नहीं है
कि किसी दिन, किसी क्षण
में ईश्वर ने
ससार का सृजन
किया। नहीं, इच्छा सदा
से वहां थी।
इच्छा के लिए
कोई आरंभ नहीं
है, लेकिन
इसका अंत है, इसको समझ
लिया जाना
चाहिए। यह बात
बहुत बेतुकी
है, किंतु
यदि तुमने
इसको समझ लिया
तो तुम ठीक
अर्थ को अनुभव
करने में
समर्थ हो
जाओगे।
इच्छा
का कोई आरंभ
नहीं है, किंतु इसका
अंत होता है।
इच्छा—शून्यता
का आरंभ है, लेकिन इसका
कोई अंत नहीं
है, और
वर्तुल पूरा
हो जाता है।
इच्छा का कोई
आरंभ नहीं है
लेकिन अंत है।
यदि तुम सजग
हो जाओ तो अंत
आता है और तब
इच्छा—शून्यता
आरंभ होती है।
इच्छा—शून्यता
का आरंभ है किंतु
फिर इसका कोई
अंत नहीं है।
संसार का कोई
आरंभ नहीं है,
हम पूर्व
में कहते रहे
हैं, यह
सदा से और
सदैव चल रहा
है; लेकिन
इसका अंत है।
बुद्ध के लिए,
यह मिट जाता
है। फिर यह
वहां नहीं
बचता। ठीक एक
स्वप्न की
भांति यह
तिरोहित हो
जाता है।
लेकिन संसार
के जो परे हैं—निर्वाण,
कैवल्य, मोक्ष—इसका
एक आरंभ है
लेकिन कोई अंत
नहीं है।
इसलिए हम यह
कभी नहीं
पूछते कि
संसार कब आरंभ
हुआ। हमने
इसकी चिंता ही
नहीं ली है
क्योंकि इसका कभी
आरंभ नहीं हुआ
था।
हमने कृष्ण, बुद्ध, महावीर की
जन्मतिथियो
पर कभी अधिक
ध्यान नहीं
दिया, किंतु
हमने उस दिन
पर बहुत ध्यान
दिया जब उन्हें
समाधि घटित
हुई—क्योंकि
यह किसी ऐसी
बात का
वास्तविक
आरंभ है जिसका
कभी अंत नहीं
होगा। बुद्ध
का संबोधि—दिवस
बहुत
महत्वपूर्ण
है, उसको
हमने स्मरण
रखा है, और
उसकी हमने बार—बार
अनेक बार पूजा
की है। कोई
नहीं जानता कि
उनका जन्म कब
हुआ था, किसी
ने इसकी चिंता
ही नहीं ली।
वास्तव में
पौराणिक कथा
यह है कि उनका
जन्म उसी दिन
हुआ था जिस
दिन उनकी
मृत्यु हुई थी,
और उसी दिन
उन्हें बोध भी
प्राप्त हुआ
था:। मेरी
अनुभूति यह है
कि हमने उनके
जन्म का दिन और
उनकी मृत्यु
का दिन भुला
दिया है; हम
केवल उनके
संबोधि—दिवस
को याद रखते
हैं। लेकिन
केवल वही
महत्वपूर्ण
है कि उनका
जन्म—दिवस
उनका मृत्यु—दिवस
भी है क्योंकि
यही जीवन की
एकमात्र महत्वपूर्ण
घटना है जो
घटित होती है—अंतहीन
का आरंभ।
इच्छा
का कोई आरंभ
नहीं है, यह सदा से यहां
है, किंतु
इसका अंत हो
सकता है।
इच्छा—शून्यता
का आरंभ हो
सकता है और
अंत कभी नहीं
होगा। और
इच्छा तथा
इच्छा—शून्यता
के मध्य
वर्तुल पूरा
हो जाता है।
यह वही ऊर्जा
है जो इच्छा
बन गई थी, इच्छा—शून्यता
बन जाती है।
यह वही ऊर्जा
है। और
निःसंदेह
इच्छा—शून्यता
का अंत कभी
नहीं होता है।
वह व्यक्ति
जिसने इसको
उपलब्ध कर
लिया है, वह
मुक्त हो गया
है, वह कभी
वापस नहीं
लौटता; क्योंकि
विकास कभी
पीछे नहीं जा
सकता। पीछे
जाने का कोई
रास्ता नहीं
होता है। जब
तक कि परम
उपलब्ध न हो, हम ऊंचे और
ऊंचे जाते हैं।
किंतु वहां से
वापस गिर पड़ने
का कोई बिंदु
नहीं है।
'और
इस प्रक्रिया
का कोई
प्रारंभ नहीं
है; जैसे
कि जीने की
इच्छा शाश्वत
होती है।’
अपनी
इच्छा के
प्रति सजग
होने का
प्रयास करो, क्योंकि
अब तक का
तुम्हारा
जीवन यही है।
इसकी पकड़ में
मत आओ। इसे
समझने का
प्रयास करो।
और लड़ने का
प्रयास भी मत
करो, क्योंकि
इससे तुम
दूसरे ढंग से
बार—बार इसी
में फंस जाओगे।
बस इसको समझने
का प्रयास करो;
कैसे यह
तुमको पकड़
लेती है, कैसे
यह तुम्हारे
भीतर
प्रविष्ट हो
जाती है और
तुमको नितांत
अचेतन बना
देती है।
मैंने
सुना है, एबी, मेरे
पास तुम्हारे
लिए एक
आश्चर्यजनक सौदा
है। मैं दो सौ
डालर में एक
हाथी ला सकता
हूं।
लेकिन
इज्जी, मूर्ख मत
बनो। हाथी को
लेकर मुझको
क्या करना है?
तुमको
हाथी को लेकर
क्या करना है? तुम खुद
मूर्ख मत बनो।
सौदे के बारे
में सोचो। बस
दो सौ डालर
में हाथी
तुम्हें कहां
मिल सकता है, बताओ मुझे?
लेकिन
मेरे पास दो
कमरों का
फ्लैट है।
हाथी को मैं
कहां रख सकता
हूं?
आखिर
मामला क्या है
तुम्हारे साथ? क्या
तुमको एक
अच्छा सौदा
समझ में नहीं
आ रहा है?
वास्तव
में मामला यह
है कि
तुम्हारे लिए
मेरे पास एक
बेहतर खबर है।
यदि तुम चाहो
तो तुम्हारे
लिए मैं तीन
सौ डालर में
दो हाथी ला
सकता हूं।
वाह, अब तुम
ठीक बात कर
रहे हो।
अब एक
व्यक्ति, जिसके पास
केवल दो कमरों
का फ्लैट है, इस बात को
पूरी तरह भूल
गया है। इच्छा
का निरीक्षण
करो, यह
तुम्हें
मूर्ख बनाती
रहती है, यह
तुम्हें
रास्ते से
भटकाती चली
जाती है। यह
तुमको भ्रमों
में, स्वप्नों
में ले जाती
रहती है।
निरीक्षण
करो।
इसके
पूर्व कि तुम
कोई कदम उठाओ, निरीक्षण
करो, सजग
रहो। और धीरे—धीरे
तुम देखोगे कि
इच्छा खो जाती
है, और वह
ऊर्जा जो
इच्छा में
फंसी हुई थी, मुक्त हो
जाती है।
लाखों हैं
इच्छाएं, और
जब उन सभी
इच्छाओं से
ऊर्जा मुक्त
हो जाती है तो
तुम ऊर्जा की
एक विराट
उत्ताल तरंग
बन जाते हो।
तुम ऊपर की ओर
और ऊंचे उठने
लगते हो, स्वभावत:
भीतर ऊर्जा का
कुंड भरता चला
जाता है।
ऊर्जा का स्तर
ऊंचा और ऊंचा
होता चला जाता
है और एक दिन
तुम्हारी
ऊर्जा
सहस्रार से
प्रकीर्णित
होने लगती है।
तुम एक कमल, एक सहस्र
पंखुड़ियों
वाला कमल बन
जाते हो।
आज इतना
ही।
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