1—मैं आपके
और रूडोल्फ
स्टींनंरं के
उपायों के बीच
बंट गया हूं?
2—प्रकृति के
सान्निध्य
में ठीक लगता
है, लोगों
के साथ नहीं, यह विभाजन
क्यों?
3—स्त्री के
रूप मैं मेरे
लिए संबोधि
क्या है?
4—क्या हम
वास्तव में
अपने जीवन में
घटित होने
वाली चीजों को
चुनते हैं?
पहला
प्रश्न:
ओशो,
मेरा लालन
पालन रूडोल्फ
स्टीनर की
शिक्षाओं के
बीच हुआ है, किंतु अभी
तक मैं उसके
प्रति अपने मन
के अवरोधो को
नहीं तोड़
पाया हूं।
यद्यपि मेरा
विश्वास है
कि पश्चिम को
जो रास्ता
उसने दिखाया, ‘उचित
ढंग से विचार
करना खीखना
अपने आपको
माया से मुक्त
करने की
संभावना है।’ उसका कहना
है कि ऐसा
करके और ध्यान
करके हम अपने
अहंकारों को
खोज और अपने
मैं को पाने
में समर्थ हो
जाते है। उसके
लिए केंद्रीय व्यक्ति
क्राइस्ट है, जिनको वह
जीसस से
पूर्णत: भिन्न
व्यक्तित्व
के रूप में
अलग कर देता
है। आपके उपाय
मुझको अलग
प्रतीत होते
है। क्या आप
कृपा करके
मुझको सलाह दे
सकते है?
एक प्रकार से
मैं तो आपके
और उस उपाय के
बीच जो स्टीनर
दिखाता है,
बंट जाता है।
रूडोल्फ
स्टीनर एक
महान मनीषी था, लेकिन
तुम ध्यान रखो,
मैं कहता
हूं एक महान
मनीषी, और
मन को, जैसा
यह है, धर्म
से कुछ भी
लेना—देना
नहीं है।
आत्यंतिक रूप
से
प्रतिभाशाली
था वह। वास्तव
में रूडोल्फ
स्टीनर से
तुलना किए जाने
के लिए और कोई
मनीषी मिल
पाना अत्यंत
दुर्लभ बात है।
वह अनेक
दिशाओं और
आयामों में
इतना
प्रतिभावान
था कि यह करीब—करीब
अतिमानवीय
प्रतीत होता
है. महान
तार्किक, विचारक,
महान
दर्शनशास्त्री,
महान
वास्तुविद, महान
शिक्षाशास्त्री,
और न जाने
क्या—क्या। और
जिस विषय को
भी उसने छू
दिया उस विषय
में वह बहुत
अनूठे विचार
ले आया। जिस
किसी ओर भी
उसने
दृष्टिपात
किया, उसने
विचारों के
नये प्रारूप
निर्मित कर
दिए। वह एक
महान व्यक्ति,
श्रेष्ठ मन
था, लेकिन
मन अक्षम हो
या सक्षम, चाहे
वह जैसा भी हो
उसका धर्म से
जरा भी लेना—देना
नहीं है।
धर्म
का उदय अ—मन से
होता है। धर्म
कोई प्रतिभा
नहीं है, यह
तुम्हारा
स्वभाव है।
यदि तुम एक
महान
चित्रकार
बनना चाहते हो,
तब तुमको
प्रतिभाशाली
होना पड़ेगा; यदि तुम एक
महान कवि बनना
चाहते हो, तब
तुमको
प्रतिभावान
होना पड़ेगा; यदि तुम एक
वैज्ञानिक
बनना चाहते हो
तो निःसंदेह
तुमको
प्रतिभाशाली
होना पड़ेगा, किंतु यदि
तुम धार्मिक
होना चाहते हो,
तो किसी
विशेष
प्रतिभा की
आवश्यकता
नहीं है। कोई
भी व्यक्ति, चाहे छोटा
हो या बड़ा, जो
भी मन को गिरा
देने की
अभीप्सा रखता
है, दिव्यता
के आयाम में
प्रविष्ट हो
जाता है। और
निःसंदेह
महान
प्रतिभाशाली
मन के लोगों के
लिए अपने मनों
को गिरा देना
बहुत कठिन है,
क्योंकि
उन्होंने मन
में अपना बहुत
कुछ लगा रखा
है। एक
सामान्य
व्यक्ति के
लिए' जिसके
पास कोई
प्रतिभा नहीं
है अपने मन को
गिरा देना
बहुत सरल है।
फिर भी यह
कितना कठिन
प्रतीत होता
है। उसके पास
खोने के लिए
कुछ भी नही है,
फिर भी वह
मन से चिपके
चला जाता है।
जब तुम्हारे
पास एक
प्रतिभाशाली
मन हो, जब
तुम मेधावी हो,
तब
निःसंदेह यह
कठिनाई
बहुगुणित हो
जाती है। तब
तुम्हारा
सारा अहंकार
तुम्हारे मन
में ही निवेशित
हो गया है।
तुम उसे गिरा
नहीं सकते।
रूडोल्फ
स्टीनर ने
थियोसॉफी के
विरोध में एथोपोसॉफी
नाम से एक नये आंदोलन
की आधारशिला
रखी। आरंभ में
वह
थियोसॉफिस्ट
था,
फिर आंदोलन
में सम्मिलित
अन्य
अहंकारों से
उसके अहंकार ने
संघर्ष करना
आरंभ कर दिया।
वह उसका
शीर्षस्थ
अधिकारी, संसार
भर के
थियोसॉफिस्ट आंदोलन
का सर्वोच्च,
वैश्विक
अध्यक्ष बनना
चाहता था। यह
संभव न था, वहां
बहुत से अन्य
अहंकार भी थे।
और सबसे बड़ी
समस्या जे.
कृष्णमूर्ति—जों
अहंकार तो जरा
भी नहीं थे— की
ओर से आ रही थी।
और निःसंदेह
थियोसॉफिस्ट
लोग
कृष्णमूर्ति की
ओर उन्मुख
होने के बारे
में और—और सोच
रहे थे। धीरे—
धीरे वे मसीहा
बनते जा रहे
थे। इसी बात ने
रूडोल्फ
स्टीनर के मन
में चिंता
उत्पन्न कर दी।
उसने आंदोलन
से नाता तोड़
लिया।
थियोसॉफी आंदोलन
की पूरी जर्मन
शाखा उसके साथ
ही अलग हो गई।
वास्तव में वह
अत्यंत
प्रभावशाली
वक्ता, एक
प्रभावशाली
लेखक था, उसने
लोगों को अपनी
बात मानने के
लिए राजी कर लिया।
उसने थियोसॉफी
को बहुत बुरी
तरह से नष्ट
कर दिया उसने इसे
विभाजित कर
दिया। और इसके
बाद से
थियोसॉफी आंदोलन
कभी संपूर्ण
और समग्र नहीं
हो सका।
स्कोल्फ
स्टीनर के पास
पश्चिमी मन के
लिए एक आकर्षण
है,
और यही खतरा
है—क्योंकि
पश्चिमी मन
मूलतः तर्क
उन्मुख है, तर्क रखना, विचार करना,
व्यवस्थित
अध्ययन करना।
वह इसी के
बारे में बात
करता है, और
वह कहता है, 'पश्चिमी मन
के लिए यही
ढंग है।’ नहीं,
पूर्वीय हो
या पाश्चात्य,
मन तो मन है,
और अ—मन है
इसे गिराने का
उपाय। यदि तुम
पूर्वीय हो, तो तुमको
पूर्वीय मन को
गिराना पड़ेगा।
यदि
तुम पाश्चात्य
हो,
तो तुम्हें
पश्चिमी मन को
गिराना पडेगा।
ध्यान में गति
करने के लिए
मन को जैसा वह
है उसी रूप
में गिरा देना
पड़ता है। यदि
तुम ईसाई हो, तो तुम्हें
ईसाई मन
गिराना पड़ेगा।
यदि तुम हिंदू
हो, तो तुम
को हिंदू मन
को गिराना
पड़ेगा। ध्यान
को ईसाई, हिंदू
पूर्वीय, पाश्चात्य,
भारतीय या
जर्मन, इन
सभी से कोई
सरोकार नहीं
है।
मन
क्या है? समाज
के द्वारा
तुम्हें दी गई
संस्कारिता
का नाम मन है।
यह उस मौलिक
मन के ऊपर
अध्यारोपण है,
जिसको हम अ—मन
कहते हैं। बस
जरा भी
संशयग्रस्त
मत होओ, पूरा
मन, चाहे
यह जैसा भी है,
को गिरा
देना पड़ता है।
दिव्यता के
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
करने के लिए
रास्ता पूरी
तरह खाली होना
चाहिए। विचार
करना ध्यान
नहीं है। यहां
तक कि सम्यक
विचार भी
ध्यान नहीं है।
उचित हो या
अनुचित विचार
करने को गिरा
देना पड़ता है।
जब तुम्हारे
भीतर कोई
विचार न हो, विचार—प्रक्रिया
की कोई धुंध
तुम्हारे
भीतर न हो, तब
अहंकार मिट
जाता है। और
स्मरण रखो, जब अहंकार
मिट जाता है, तो मैं भी
नहीं मिलता।
प्रश्नकर्त्ता
ने कहा, कि
रूडोल्फ
स्टीनर कहता
है, 'जब
अहंकार मिट
जाता है तो 'मैं' मिलता
है।’ नहीं,
जब अहंकार
खो जाता है तो
मैं नहीं
मिलता। कुछ भी
नहीं मिलता।
ही, बिलकुल
ठीक, कुछ
नहीं.. .मिलता
है।
अभी
उस रात्रि को
मैं महान झेन
मास्टर तो—सान
की एक कथा
सुना रहा था।
वह रिक्त हो
गया,
वह सबुद्ध
हो गया—वह
अनस्तित्व, जिसको बौद्ध
अनत्ता, अ—मन
कहते हैं, वही
हो गया। यह
खबर देवताओं
तक पहुंच गई
कि कोई
व्यक्ति पुन:
सबुद्ध हो गया
है। और, निःसंदेह
जब कोई
व्यक्ति
सबुद्ध हो
जाता है, तो
देवतागण उसका
चेहरा, चेहरे
का सौंदर्य, मौलिकता का
सौंदर्य, उसका
कुंवारापन
देखना चाहते
हैं। देवतागण
नीचे उतर कर
उस आश्रम में
आए जिसमें तो—सान
रहता था।
उन्होंने
यहां देखा और
वहां देखा, और उन लोगों
ने कोशिश की, और वे उसके
भीतर एक ओर से
प्रविष्ट
होते और दूसरी
ओर से बाहर
निकल जाते, और तो—सान के
भीतर उनको कोई
न मिलता। बहुत
हताश हो गए थे
वे सभी। वे
चेहरा, मौलिक
चेहरा देखना
चाहते थे, और
वहां भीतर कोई
नहीं था।
उन्होंने
अनेक उपाय
करके देखे। और
फिर एक बहुत
चालाक, चतुर
देवता ने कहा,
एक काम करो—वह
आश्रम के चौके
में दौड़ कर
गया, वह एक
मुट्ठी चावल
और गेहूं लेकर
आया। तो—सान
अपनी सुबह की
सैर करके वापस
लौट रहा था, और उस देवता
ने ये अनाज
उसके रास्ते
में बिखेर दिए।
झेन
आश्रम में
प्रत्येक
वस्तु का
आत्यंतिक सम्मान
किया जाता है, चावल
और गेहूं
पत्थर तक, प्रत्येक
वस्तु का
सम्मान किया
जाता है।
व्यक्ति को
सतत सावधान और
जागरूक रहना
पड़ता है। झेन
आश्रम में तुम
अनाज का एक
दाना भी यहां—वहां
पड़ा हुआ नहीं
देख सकते हो, तुमको
सम्मानपूर्ण
होना पड़ता है।
और याद रहे, इस सम्मान
का गांधी के
अर्थशास्त्र
से कोई संबंध
नहीं है। यहां
कोई
अर्थशास्त्र
का प्रश्न
नहीं है, क्योंकि
गांधीवादी
अर्थशास्त्र
तर्कयुक्त
कंजूसी के
सिवाय और कुछ
भी नहीं।
क्योंकि इस
झेन
दृष्टिकोण का
कंजूसी से कुछ
भी लेना—देना
नहीं है। यह
प्रत्येक
वस्तु के
प्रति सम्मान,
आत्यंतिक
सम्मान है।
अनाज को इस
भांति फेंक
देना, असम्मानजनक
था यह। यह वही
मूल विचार था
जिसे उपनिषद
में ऋषियों ने
कहा था, 'अन्नम्
ब्रह्म' —भोजन
परमात्मा है—क्योंकि
भोजन तुमको
जीवन देता है,
भोजन
तुम्हारी
ऊर्जा है।
परमात्मा
तुम्हारे
शरीर में भोजन
के माध्यम से
आता है, तुम्हारा
रक्त, तुम्हारी
अस्थियां बन
जाता है।
इसलिए
परमात्मा को
परमात्मा की
तरह समझना चाहिए।
जब इन देवताओं
ने उस रास्ते
पर गेहूं और
चावल के दाने
बिखेर दिए, जहां से तो—सान
आने वाला था, तो यह देख कर
वह विश्वास न
कर सका, 'यह
किसने किया है?
कौन इतना
लापरवाह हो
गया है?' उसने
मन में एक
विचार उठा, और कथा यह है
कि तभी एक
क्षण के लिए
देवतागण उसका
चेहरा देख सके,
क्योंकि उस
एक क्षण के
लिए एक बहुत
सूक्ष्म ढंग
से 'मैं' उठ खड़ा हुआ
था, 'यह
किसने किया है?
कुछ गलत हो
गया है।’
और
जब कभी तुम यह
निर्णय लेते
हों—क्या उचित
है और क्या
अनुचित, उस
समय तुम वहां
उपस्थित होते
हो। उचित और
अनुचित के
मध्य अहंकार
का अस्तित्व होता
है। एक विचार
और दूसरे
विचार के मध्य
अहंकार का अस्तित्व
होता है।
प्रत्येक
विचार अपना
स्वयं का अहं
लेकर आता है।
एक पल के लिए
तो—सान की
चेतना में एक
बादल उठ गया— 'यह किसने
किया है?' — एक
तनाव।
प्रत्येक
विचार एक तनाव
है। यहां तक
कि बहुत
सामान्य, बहुत
मासूम दीखने
वाले विचार भी
तनाव हैं।
तुम
देखते हो—उपवन
सुंदर है, सूर्योदय
हो रहा है और
पक्षी चहचहा
रहे हैं, और
एक विचार उठता
है, 'कितना
सुंदर!' यह
भी, यह भी
एक तनाव है। इसीलिए
यदि तुम्हारे
साथ कोई चल
रहा है, तो
तुरंत तुम
उससे कहोगे, 'देखो कितनी
खूबसूरत सुबह
है!' तुम
क्या कर रहे
हो? तुम बस
उस तनाव को
निकाल रहे हो
जो उस विचार
के माध्यम से आ
गया है। सुंदर
सुबह.. .एक
विचार आ गया, इसने
तुम्हारे
चारों ओर एक
तनाव निर्मित
कर दिया है।
अब तुम्हारा
अस्तित्व
तनावरहित
नहीं रहा। इस
तनाव को
निकालना
पड़ेगा, इसलिए
तुमने दूसरे
व्यक्ति से कह
दिया।
अर्थहीन है यह
कहना, क्योंकि
वह भी वहीं
खड़ा है जहां
तुम खड़े हो।
वह भी
पक्षियों के
गीतों को सुन
रहा है, वह
भी सूर्य को
उदित होते हुए
देख रहा है, वह भी
पुष्पों को
देख रहा है, इसलिए इस
प्रकार की बात
कहने में कि 'यह सुंदर है'
क्या सार है?
क्या वह
अंधा है? किंतु
वह बात नहीं
है। तुम उस तक
कोई संदेश
पहुंचा नहीं
रहे हो। संदेश
उसके लिए भी
उतना ही
स्पष्ट है
जितना कि
तुम्हारे लिए।
वास्तव में
तुम अपने आपको
उस तनाव से
मुक्त कर रहे
हो इस बात को
कह कर। वह
विचार
वातावरण में
विसर्जित हो
गया, तुम
एक बोझ से
निर्भार हो गए।
तो—सान
के मन में एक
विचार उठा, एक
बादल संघनित
हो गया, और
उस बादल के
माध्यम से
देवतागण उसका
चेहरा देख
पाने में
समर्थ हो सके,
बस एक झलक।
पुन: वह बादल
मिट गया, पुन:
वहां कोई तो—सान
न रहा।
स्मरण
रखो,
ध्यान बस
यही कुछ है :
तुमको इस
परिपूर्णता
से विनष्ट कर
देना कि यदि
देवतागण भी
आएं तो वे तुमको
खोज न सकें, उनको तुम
मिल न सकी।
तुमने स्वयं
भी देखा होगा
कि जब ऐसी
परिस्थितियां
उत्पन्न होती
हैं कि देवता
भी तुमको नहीं
पा सकते, तब
भीतर मिलने के
लिए कोई नहीं
होता। वह 'कुछ
होने की मनो—दशा'
तनाव का एक
ढंग है।
इसीलिए वे लोग
जो सोचते हैं
कि वे कुछ हैं
अधिक
तनावग्रस्त
रहते हैं। वे
लोग जो सोचते
हैं कि वे ना—कुछ
हैं, कम
तनावग्रस्त
रहते हैं। वे
लोग जो पूरी
तरह से भूल
चुके हैं कि
वे हैं, तनाव—शून्य
हैं। इसलिए
स्मरण रखो, जब अहंकार
खो जाता है, तब मैं नहीं
मिलता। जब
अहंकार खो
जाता है, तो
मिलता कुछ भी
नहीं है। वह
ना—कुछपन, वह
कुछ न होने की
शुद्धता
तुम्हारा
अस्तित्व, तुम्हारा
अंतर्तम
केंद्र, तुम्हारा
परम स्वभाव, तुम्हारा
बुद्ध—स्वभाव,
तुम्हारी
जागरूकता है—ऐसे
विराट आकाश की
भांति जिसमें
कोई भी बादल नहीं
तैर रहा है।
अब
प्रश्न को
दुबारा सुनो।
'मेरा लालन—पालन
स्कोल्फ
स्टीनर की
शिक्षाओं के
बीच हुआ है।’
हां, वे
शिक्षाएं हैं।
और मैं यहां
जो कर रहा हूं
वह तुम्हें
कुछ शिक्षा
देना नहीं है,
बल्कि इसके
विपरीत मैं
तुमसे सारी
शिक्षाएं
छीने ले रहा
हूं। मैं कोई
शिक्षक नहीं
हूं। मैं तुम
पर कोई
जानकारी
आरोपित नहीं
कर रहा हूं।
मेरा सारा
प्रयास तो उसे
नष्ट करने का
है जिसे तुम
सोचते हो कि
तुम जानते हो।
मेरा सारा
प्रयास तुमसे
सारी जानकारी
छीन लेने का
है। मैं यहां
तुम्हारी
अनसीखा होने
में सहायता
करने के लिए
हूं।
'मेरा लालन—पालन
स्कोल्फ
स्टीनर की
शिक्षाओं के
बीच हुआ है, किंतु अभी
तक मैं उसके
प्रति अपने मन
के अवरोधों को
तोड़ नहीं पाया
हूं।’
कोई
भी उस व्यक्ति
के प्रति अपने
अवरोधों को तोड़
पाने में
समर्थ नहीं हो
पाता जो स्वयं
ही अहंकार
उन्मुख हो।
ऐसे व्यक्ति
के प्रति अपने
मन के अवरोधों
को तोड़ पाना
कठिन है जो
मिट चुका है।
फिर भी अपने
अवरोध तोड़
पाना कितना
कठिन है, क्योंकि
तुम्हारा
अहंकार
प्रतिरोध
करता है।
किंतु जब तुम
किसी ऐसे
शिक्षक के आस—पास
हो जिसकी
स्वयं की
अहंकार—यात्रा
अभी तक चल रही
है, अभी तक
जो, जो अभी
तक कुछ होने
के प्रयास में
संलग्न है, जो अभी भी
तनावग्रस्त
है, तो
तुम्हारा
अहंकार गिर
पाना असंभव है।
'यद्यपि मेरा
विश्वास है कि
पश्चिम को जो
रास्ता उसने
दिखाया, उचित
ढंग से विचार
करना सीखना
अपने आपको
माया से मुक्त
करने की
संभावना है।’
नहीं, पूरब
के लिए या
पश्चिम के लिए
उपाय यही है :
किस भांति
विचार करने को
अनसीखा किया
जाए; किस
भांति विचार न
किया जाए—बस
हुआ जाए। और
पूरब के बजाय
पश्चिम को
इसकी अधिक
आवश्यकता है,
क्योंकि
अरस्तु के बाद
की दो
सहस्राब्दियों
से पश्चिम में
तुम्हारी सीख
सोचने, सोचने
और सोचने की
ही रही है।
सोचना ही
लक्ष्य रहा —
है। पश्चिम
में विचारक मन
लक्ष्य रहा है;
किस प्रकार
से अपनी विचार—प्रक्रिया
में और अधिक
ठीक और
वैज्ञानिक
हुआ जाए।
विज्ञान का
पूरा का पूरा
संसार इसी
प्रयास से उठ
कर खड़ा हुआ है,
क्योंकि जब
तुम एक
वैज्ञानिक के
रूप में कार्य
कर रहे हो तो
तुमको सोचना
पड़ता है।
वस्तुगत
संसार में
तुमको कार्य
करना पड़ता है और
तुमको विचार
करने के और
उचित, ठीक
और प्रमाणिक
उपायों की खोज
करनी पड़ती है।
और इसने
अत्यधिक
लाभांवित
किया है।
विज्ञान एक
बड़ी सफलता बन
चुका है। इसलिए
निःसंदेह लोग
सोचते हैं कि
जब तुम भीतर जाते
हो तब वही
विधि—विज्ञान
सहायक होगा।
रूडोल्फ
स्टीनर की
भ्रांति यही
है।
वह
सोचता है कि
जिस प्रकार से
हम पदार्थ के 'भीतर
प्रवेश करने
में सफल हो
चुके हैं, वही
उपाय भीतर
प्रवेश जाने
में सहायता
करेगा। यह
उपाय सहायता
नहीं कर सकता,
क्योंकि
भीतर जाने के
लिए व्यक्ति
को विपरीत दिशा,
ठीक उलटी
दिशा में जाना
पड़ता है। यदि
विचार करना
पदार्थ को
जानने में
सहायता करता
है, तो
निर्विचार
रहना
तुम्हारी
स्वयं को
जानने में
सहायता करेगा।
यदि तर्क
पदार्थ को
जानने में
सहायता करता
है, तो झेन
कोऑन जैसा कुछ,
कुछ असंगत,
अतर्क्य
तुमको अंदर
जाने में
सहायता करेगा;
भीतर जाने
के लिए, विश्वास,
श्रद्धा, प्रेम तो कम
पड़ सकते हैं, किंतु तर्क
कभी काम न
आएगा। संसार
को बेहतर ढंग
से जानने में
जिस किसी साधन
से तुमको
सहायता मिली
है, वह
भीतर की ओर
जाने में अवरोध
होने जा रहा
है। और यही
बाहर के संसार
के बारे में
भी सत्य है; जो कुछ भी
तुमको अपने
आपको जानने
में सहायता करता
है, वह
पदार्थ को जान
लेने में
अनिवार्यत:
तुम्हारी
सहायता नहीं
करेगा। यही
कारण है कि
पूरब विज्ञान
को विकसित
नहीं कर सका।
विज्ञान
की पहली
झलकियां पूरब
में ही आई थीं, परंतु
पूरब इसे
विकसित नहीं
कर सका। उस
दिशा में पूरब
गया ही नहीं।
प्रारंभिक
मूलभूत
जानकारी पूरब
में विकसित हुई
थी।
उदाहरण
के लिए, गणितीय
प्रतीक, एक
से दस तक के
अंक भारत में
विकसित हुए।
उन्होंने
गणित को संभव
बनाया। यह एक
महान खोज थी, किंतु यह
वहीं रुक गई।
आरंभ तो हो
गया, लेकिन
पूरब उस दिशा
में बहुत दूर
नहीं जा सका।
उसके कारण
विश्व की सभी
भाषाओं में
अंक गणितीय
संख्याओं के
नाम का मूल
संस्कृत से
आया है।
उदाहरण
के लिए, संस्कृत
में दो, द्व
है, यह ट्वा
बन गया, और
तब टू। तीन
संस्कृत में
त्रि है, यह
थ्री बन गया।
छह संस्कृत का
षष्ठ है, यह
सिक्स बन गया।
सात संस्कृत
में सप्त है, यह सेवेन बन
गया। आठ
संस्कृत का
अष्ट है, यह
एट बन गया। नौ
संस्कृत का नव
है, यह
नाइन बन गया।
मूलभूत खोज
भारतीय है, किंतु फिर
यह वहीं ठहर
गई।
चीन
में उन्होंने
पहली बार, करीब—करीब
पांच हजार
वर्ष पूरब ही
बारूद का
विकास कर लिया
था, लेकिन
उन्होंने
इससे कभी कोई
बम नहीं बनाए।
उन्होंने
केवल
आतिशबाजियां
बनाईं।
उन्होंने
इसका आनंद
उठाया, उन्होंने
इसको प्रेम
किया, वे
इसके साथ खेले,
लेकिन उनके
लिए यह एक
खिलौना ही था।
उन्होंने
इसके द्वारा
कभी किसी की
हत्या नहीं की।
वे इसके साथ
बहुत दूर तक
नहीं गए।
पूरब
ने अनेक
आधारभूत
वस्तुएं खोज
लीं,
लेकिन वह
इनके भीतर
गहरा नहीं
उतरा। यह
वस्तुओं के
भीतर गहराई तक
जा भी नहीं
सकता, क्योंकि
पूरब का सारा
प्रयास भीतर
जाने का है।
विज्ञान
पाश्चात्य
प्रयास है, धर्म
पूर्वीय
प्रयास है,।
पश्चिम में
धर्म तक वैज्ञानिक
होने का
प्रयास करता
है, यही तो
है जो स्कोल्फ
स्टीनर कर रहा
था; धार्मिक
ढंग को और—और वैज्ञानिक
बनाने का
प्रयास, क्योंकि
पश्चिम में विज्ञान
ही मूल्यवान
है। यदि तुम
सिद्ध कर सको
कि धर्म भी
वैज्ञानिक है,
तब धर्म भी
एक दूसरे
रास्ते से, अप्रत्यक्ष
रूप से
मूल्यवान हो
जाता है।
इसलिए पश्चिम
में प्रत्येक
धार्मिक
व्यक्ति यह
सिद्ध करने का
प्रयास करता
रहता है कि विज्ञान
ही एकमात्र
वितान नहीं है,
धर्म भी एक
विज्ञान है।
पूरब में हमने
इसकी जरा भी
चिंता नहीं ली
है। बल्कि
यहां तो दूसरे
ढंग का प्रयास
किया गया है, यदि कोई वैज्ञानिक
खोज हुई तो
जिन लोगों ने
इसे खोजा उनको
यह सिद्ध करना
पड़ा कि इसका
कोई धार्मिक
महत्व है।
अन्यथा यह
अर्थहीन था।
'उसका कहना
है कि ऐसा
करके और ध्यान
करके हम अपने
अहंकार को
खोने और अपने 'मैं' को
पाने में
समर्थ हो जाते
हैं।’
रूडोल्फ
स्टीनर को
नहीं शांत है
कि ध्यान क्या
है,
और जिसको वह
ध्यान कहता है
वह एकाग्रता
है। वह
पूर्णत:
संशयग्रस्त
है : वह
एकाग्रता को
ध्यान कहता है।
एकाग्रता
ध्यान नहीं है।
एकाग्रता तो वैज्ञानिक
विचारणा के
लिए एक
अत्यधिक
उपयोगी
माध्यम है। यह
मन को एकाग्र
करना, मन
को संकुचित
करना, मन
को किसी विशेष
वस्तु पर
केंद्रित
करना है।
किंतु मन रहता
है, और
संकेंद्रित
हो जाता है, और —समग्र हो
जाता है।
ध्यान
किसी पर
एकाग्रता
करना नहीं है।
वास्तव में यह
विश्रांत हो
जाना है, संकुचित
होना नहीं है।
एकाग्रता
में एक लक्ष्य
होता है।
ध्यान में कोई
भी लक्ष्य
नहीं होता जिस
पर हमें ध्यान
लगाना है। तुम
बस एक लक्ष्य—मुक्त
चैतन्य में, चेतना
के विस्तार
में खो जाते
हो। एकाग्रता
में किसी एक
पर ही सारा
अवधान रहता है
और दूसरी सभी
वस्तुओं से
सरोकार नहीं
रहता। यह केवल
एक वस्तु को
अपने अवधान
में सम्मिलित
करती है, यह
प्रत्येक
अन्य वस्तु को
बहिष्कृत कर
देती है।
उदाहरण
के लिए, यदि
तुम मुझे सुन
रहे हो, तो
तुम मुझको दो
उपायों से सुन
सकते हो : तुम
एकाग्रता के
द्वारा सुन
सकते हो; तब
तुम तनाव में
होओगे, और
तुम जो मैं कह
रहा हूं उस पर
केंद्रित रहोगे।
फिर पक्षी गा
रहे होंगे, किंतु तुम
उनको नहीं
सुनोगे। तुम
सोचोगे कि यह
एक व्यवधान है।
एकाग्रता
के लिए किए
जाने वाले
तुम्हारे प्रयास
से ही व्यवधान
का जन्म होता
है। व्यवधान
एकाग्रता का
सह—उत्पाद है।
तुम मुझको
ध्यानपूर्ण
ढंग से भी सुन
सकते हो, तब
तुम मात्र
खुले हुए हो—उपलब्ध—
तुम मुझे
सुनते हो और
तुम पक्षियों
को भी सुनते
हो, और
वृक्षों से
होकर हवा बहती
है, .और एक
ध्वनि
निर्मित करती
है; उसे भी
तुम सुनते हो—तब
यहां पर पूरी
तरह से
उपस्थित हो।
फिर जो कुछ भी
यहां पर घटित
हो रहा है
उसके लिए तुम
बिना अपने
किसी निजी मन
के हस्तक्षेप
के, बिना
तुम्हारे
किसी निजी
चुनाव के तुम
उपलब्ध रहते
हो। तुम यह
नहीं कहते कि
मैं केवल इसी
को सुनूंगा और
मैं उसको नहीं
सुनूंगा।
नहीं, तुम
सारे
अस्तित्व को
सुनते हो। फिर
पक्षी और मैं
और हवा तीन
भिन्न
वस्तुएं नहीं
हैं। वे अलग—अलग
नहीं हैं। वे
उसी क्षण में
साथ—साथ, एक
संग घटित हो
रहे हैं।
निःसंदेह तब
तुम्हारी समझ
आत्यंतिक रूप
से समृद्ध हो
जाएगी, क्योंकि
पक्षी भी अपने
ढंग से उसी
बात को कह रहे
हैं, हवा
भी उसी संदेश
को अपने ढंग
से संवाहित कर
रही है, और
मैं भी उसी
बात को भाषा
के रूप में कह
रहा हूं जिससे
कि तुम इसको
और अधिक समझ
सको। अन्यथा
संदेश तो वही
है। माध्यम
भिन्न होते
हैं किंतु
संदेश एक ही
है, क्योंकि
परमात्मा ही
संदेश है।
जब
कोई कोयल
दीवानगी से भर
उठती है, तो यह
परमात्मा ही
दीवाना हो रहा
है। इनकार मत
करो, उसको
अस्वीकार मत
करो, ऐसा
करके तुम परमात्मा
को बाहर कर
रहे होंगे।
किसी वस्तु को
निष्कासित मत
करो, सभी
को समाहित कर
लो।
चेतना
का संकुचित हो
जाना
एकाग्रता है, ध्यान
है चेतना का
विस्तीर्ण हो
जाना, सभी
द्वार खुले
हैं, सारी
खिड़कियां
खुली हैं, और
तुम कोई चुनाव
नहीं कर रहे
हो। निःसंदेह
जब तुम चुनाव नहीं
करते तब
तुम्हें कोई
व्यवधान भी
नहीं पड़ता।
ध्यान का
सौंदर्य यही
है. ध्यान
करने वाले के लिए
कुछ भी
व्यवधान नहीं
बन सकता। और
इसी को कसौटी
बन जाने दो।
यदि तुम्हें
व्यवधान होता
है तो जान लो
कि तुम
एकाग्रता का
अभ्यास कर रहे
हो, ध्यान
नहीं। कोई
कुत्ता
भौंकना आरंभ
कर देता है—ध्यान
करने वाले को
बाधा नहीं
पड़ती। वह इसे
भी स्वीकार कर
लेता है, वह
इसका भी मजा
लेता है। तब
वह कहता है, देखो......तो
परमात्मा
कुत्ते के
माध्यम से
भौंक रहा है।
बिलकुल ठीक।
मेरे ध्यान
करते समय
भौंकने के लिए
आपका धन्यवाद।
इस तरह आप
अनेक उपायों
से मेरा ध्यान
रखते हैं, लेकिन
कोई तनाव नहीं
उठता। वह यह
नहीं कहता, यह कुत्ता
मेरा विरोधी
है। वह मेरी
एकाग्रता भंग
करने का
प्रयास कर रहा
है। मैं इतना
धार्मिक, गंभीर
व्यक्ति हूं
और यह बेवकूफ
कुत्ता.. .यह यहां
कर क्या रहा
है? फिर
शत्रुता उठ
खड़ी होती है, क्रोध जाग
जाता है। और
तुम सोचते हो
कि यह ध्यान
है? नहीं, किसी कीमत
का भी नहीं है
यह, यदि
तुम एक कुत्ते
पर, बेचारे
कुत्ते पर
क्रोधित हो
उठते हो, जो
कि केवल अपना
स्वयं का काम
कर रहा है। वह
तुम्हारी
एकाग्रता या
तुम्हारे
ध्यान या किसी
भी चीज को
नष्ट नहीं कर
रहा है। वह
तुम्हारे
धर्म के बारे
में, तुम्हारे
बारे में, जरा
भी चिंतित
नहीं है। हो
सकता है कि
उसे पता भी न
हो कि तुम
क्या मूर्खता
कर रहे हो। वह
तो बस अपने
जीवन का अपने
ढंग से मजा ले
रहा है। नहीं,
वह
तुम्हारा
शत्रु नहीं है।
जरा
निरीक्षण
करना. .घर में
यदि एक व्यक्ति
धार्मिक हो
जाता है, तो
सारा घर
मुसीबत में पड़
जाता है, क्योंकि
वह व्यक्ति
लगातार
विचलित होने
की सीमा रेखा
पर रहता है।
वह प्रार्थना
कर रहा है; कोई
जरा भी आवाज न
करे। वह ध्यान
कर रहा है; बच्चों
को खामोश रहना
चाहिए, कोई
भी खेलेगा
नहीं। तुम
अस्तित्व पर
अनावश्यक
शर्तें थोप
रहे हो। और तब
यदि तुम
विचलित हो
जाते हो और तुमको
व्यवधान
अनुभव होता है,
तो केवल तुम
ही उत्तरदायी
हो। केवल तुम
पर ही आरोप
लगाया जाना
चाहिए, किसी
और पर नहीं।
जिसे
रूडोल्फ
स्टीनर ध्यान
कहता है वह
एकाग्रता के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। और एकाग्रता
के द्वारा तुम
अहंकार खो
सकते हो और
तुमको 'मैं' मिल जाएगा
और यह 'मैं'
एक बहुत
सूक्ष्म
अहंकार के
सिवाय और कुछ
भी नहीं होगा।
तुम एक पवित्र
अहक़ारी बन
जाओगे, तुम्हारा
अहंकार धर्म
की भाषा से
अलंकृत हो जाएगा,
किंतु यह
वहीं होगा।
'उसके लिए
केंद्रीय
व्यक्तित्व
क्राइस्ट हैं,
जिनको वह
जीसस से
पूर्णत: भिन्न
व्यक्तित्व के
रूप में अलग
कर देता है।’
अब
ध्यान करने
वाले के लिए
केंद्रीय
व्यक्तित्व
कोई हो ही
नहीं सकता, उसकी
कोई आवश्यकता
नहीं है।
किंतु जो
एकाग्रता
करता है उसे
एकाग्र होने के
लिए किसी की
आवश्यकता
पड़ती है। रूडोल्फ
स्टीनर कहता
है कि
क्राइस्ट
केंद्रीय व्यक्तित्व
हैं। बुद्ध
क्यों नहीं
हैं? पतंजलि
क्यों नहीं है?
महावीर
क्यों नहीं
हैं? क्राइस्ट
क्यों? बौद्धों
के लिए बुद्ध
केंद्रीय
व्यक्तित्व हैं,
क्राइस्ट
नहीं। उन सभी
को
एकाग्रता
साधने के लिए, कोई
ऐसी वस्तु जिस
पर वे अपने मन
को केंद्रित
कर सकें, कुछ
चाहिए। धार्मिक
व्यक्ति के
लिए कोई
केंद्रीय
व्यक्तित्व
नहीं होता।
यदि तुम्हारा
स्वयं का
केंद्रीय
अहंकार खो चुका
है या खो रहा
है, तो
तुम्हें इसको
सहारा देने के
बाहर किसी अन्य
अहंकार की जरा
भी आवश्यकता
नहीं है। वह
क्राइस्ट या
वह बुद्ध, पुन:
कहीं और का एक
अहंकार है।
तुम एक मैं—तू
की ध्रुवीयता
निर्मित कर
रहे हो। तुम
कहते हो, क्राइस्ट,
आप मेरे
मालिक हैं, किंतु यह
कहेगा कौन? यह कहने के
लिए एक 'मैं'
की
आवश्यकता है।
देखो, झेन
बौद्धों की
सुनो। वे कहते
हैं, यदि
रास्ते में
तुम्हारा
बुद्ध से
मिलना हो जाए,
तो तुरंत
उनको मार डालो।
यदि रास्ते
में तुम्हारा
बुद्ध से
मिलना हो जाए
तो, तुरंत
उनको मार डालो,
अन्यथा वे तुमको
मार डालेंगे।
उनको एक मौका
भी मत दो, अन्यथा
वे तुम पर
हावी हो
जाएंगे, और
वे, केंद्रीय
व्यक्तित्व
बन जाएंगे।
उनके चारों ओर
पुन: तुम्हारा
मन उठ खड़ा
होगा। तुम एक
बौद्ध का मन
बन जाओगे। तुम
एक ईसाई का मन
हो जाओगे। एक
विशेष प्रकार
के मन के लिए
एक विशेष
केंद्रीय
व्यक्तित्व
की आवश्यकता
पड़ती है।
और
वह निःसंदेह
जीसस की तुलना
में क्राइस्ट
के पक्ष में
अधिक है। इसको
भी समझ लेना
पड़ेगा। पवित्र
अहंकार ऐसे ही
तो उठ खड़ा
होता है। जीसस
ठीक हम लोगों
की भांति हैं
एक इनसान जिसके
पास शरीर है, सामान्य
जीवन है, नितांत
मानवीय हैं
जीसस। एक बहुत
बड़े अहंकारी
के लिए अब
इससे काम नहीं
चलेगा। उसको
एक अत्यधिक
परिशोधित
व्यक्तित्व
की आवश्यकता
है। क्राइस्ट
परिशोधित
जीसस के सिवाय
कुछ और नहीं
हैं। यह बस
ऐसा ही है कि
तुम दूध का
दही जमा लो
फिर इससे
मक्खन निकाल
लो, और फिर
उस मक्खन से
घी निकाल लो।
वह घी दूध का
शुद्धतम अवयव,
सर्वाधिक
आवश्यक तत्व
है। अब तुम घी
से और कुछ
नहीं बना सकते।
घी अंतिम
परिशोधन है।
सफेद पेट्रोल
की तरह :
मिट्टी के तेल
से पेट्रोल; पेट्रोल से
सफेद पेट्रोल।
अब और नहीं, परिशोधन का
अंत हो गया।
क्राइस्ट तो
बस परिशोधित
जीसस हैं।
रूडोल्फ
स्टीनर के लिए
जीसस को
स्वीकार कर पाना
कठिन है, और
सभी अहंकारियों
के लिए यह
कठिन है। वे
कई उपायों से
अस्वीकृत
करने का प्रयास
करते हैं।
उदाहरण
के लिए, ईसाई
कहते हैं, उनका
जन्म एक
कुंवारी मां
से हुआ।
मूलभूत
समस्या यह है
कि ईसाई लोग
यह स्वीकार नहीं
कर सकते कि
जीसस का जन्म
हम सामान्य
इनसानों की
भांति हुआ था।
फिर वे भी
सामान्य
दिखाई पड़ेंगे।
उनको विशिष्ट
होना पड़ेगा, और हमें
विशेष गुरु का
शिष्य होना
चाहिए। बुद्ध
की भांति नहीं,
जिनका जन्म
आम मानवीय
प्रेम संबंध
से, सामान्य
मानवीय काम—संभोग
से हुआ है, नहीं—जीसस
विशिष्ट हैं।
विशिष्ट
लोगों को
विशिष्ट
पैगंबर की
जरूरत होती है,
जो कुंआरी
मां से जन्मा
हो! और वे
ईश्वर के एकमात्र
पुत्र हैं, एकमात्र, क्योंकि यदि
और पुत्र हो
तो वे विशिष्ट
नहीं रह
पाएंगे। वे एक
मात्र मसीहा
हैं, एकमात्र
जिनको ईश्वर
ने इस कार्य
हेतु स्वयं सत्तारूढ़
किया है। सभी
दूसरे, अधिक
से अधिक
संदेशवाहक हो
सकते हैं, लेकिन
उस तल और उस
स्तर के नहीं
हो सकते जो क्राइस्ट
का है।
ईसाइयों ने इस
बात को अपने
ढंग से कह
दिया है, किंतु
मैं चाहूंगा
कि क्राइस्ट
से अधिक तुम जीसस
को समझो—क्योंकि
जीसस को समझना
और अधिक
आनददायी रहेगा,
उनको समझना
और अधिक
शांतिदायी
रहेगा, और
इस पथ पर
अत्यधिक
सहायक होगा।
क्योंकि तुम
जीसस होने की
स्थिति में हो,
क्राइस्ट
होना बस एक
स्वप्न है।
पहले
तुमको जीसस
होने से
गुजरना पड़ेगा, और
केवल तब किसी
दिन तुम्हारे
भीतर
क्राइस्ट जाग
जाएगा।
क्राइस्ट तो
अस्तित्व की
मात्र एक
अवस्था है, जैसे कि
बुद्ध
अस्तित्व की
मात्र एक
अवस्था हैं।
गौतम बुद्ध बन
गए, जीसस
क्राइस्ट बन
गए। तुम भी
क्राइस्ट बन
सकते हो, लेकिन
ठीक इस समय
क्राइस्ट
बहुत दूर है।
तुम उसके बारे
में विचार कर
सकते हो, और
इसके बारे में
दर्शनशास्त्रों
और धर्म—
विज्ञानों का
निर्माण कर
सकते हो, लेकिन
इससे कोई
सहायता नहीं
मिलने जा रही
है। ठीक अभी
जीसस को समझ
लेना बेहतर है,
क्योंकि
यही वह अवस्था
है जहां तुम
हो। यही वह
बिंदु है जहां
से यात्रा को
आरंभ किया जाना
है। जीसस से
प्रेम करो, क्योंकि
जीसस को प्रेम
करने के
माध्यम से तुम
अपनी
इनसानियत को
प्रेम करोगे।
जीसस को, और
विरोधाभास को
समझने का
प्रयास करो, और उस
विरोधाभास के
माध्यम से तुम
स्वयं को कम
दोषी अनुभव
करने में
समर्थ हो
सकोगे। जीसस
के प्रति अपनी
समझ के माध्यम
से तुम स्वयं
को और अधिक
प्रेम कर
पाओगे।
अब
ईसाई लोग जीसस
के जीवन के
विरोधाभास को, क्राइस्ट
की अवधारणा के
द्वारा किसी
भांति छिपाने
का प्रयास
करते रहते हैं।
उदाहरण के लिए
ऐसे क्षण भी हैं
जब जीसस क्रोध
में हैं, अब
यह एक समस्या
है, क्या
किया जाए? इस
तथ्य को
छिपाना बेहद
कठिन है, क्योंकि
अनेक बार वे
क्रोधित होते
हैं, यह
उनकी
शिक्षाओं के
विरोध में
जाता है। वे
लगातार प्रेम
के बारे में
बात करते रहते
हैं, और
स्वयं ही
क्रोधित हैं।
और वे अपने
शत्रुओं को
क्षमा करने की
बात करते है—न
केवल यह, बल्कि
अपने शत्रुओं
को प्रेम करने
की बात करते
हैं—लेकिन वे
स्वयं अपने
क्रोध में
कोड़े बरसाते हैं।
जेरुसलम के
मंदिर में
उन्होंने
कोड़ा उठा लिया
और सूदखोरों
को पीटना आरंभ
कर दिया, और
अकेले ही उनको
मंदिर के बाहर
धकेल दिया। वह
तो अवश्य ही
वास्तविक रोष
में, आक्रोश
में, लगभग
विक्षिप्त
अवस्था में
होंगे। अब यह
घटना.. .इसको
किस भांति
समझाया जाए? इसकी
व्याख्या
करने के लिए
ईसाइयों ने जो
उपाय खोजा है—और
रूडोल्फ
स्टीनर ने
अपनी
विचारधारा का
आधार इसी बात
पर रखा है—वह
है क्राइस्ट को
निर्मित करना,
जिसको पूरी
तरह समझाया जा
सकता है। जीसस
के बारे में
सब कुछ भूल
जाओ, क्राइस्ट
की एक शुद्ध
अवधारणा
प्रस्तुत करो।
उस क्षण के
लिए तुम कह
सकते हो, 'जब
वे क्रोध में
थे, उस समय
वे जीसस थे।’ और जब क्रास
पर, सूली
चढ़ाए जाते समय
उन्होंने कहा,
'हे प्रभु, मेरे पिता, इन लोगों को
क्षमा कर दे, क्योंकि वे
नहीं जानते कि
वे क्या कर
रहे हैं।’ उस
समय वे
क्राइस्ट थे।
अब इस
विरोधाभास की
व्याख्या की
जा सकती है।
जब वे किसी
स्त्री के साथ
जा रहे हैं, तब वे जीसस
हैं; जब
उन्होंने
मेरी
मेग्दलीन से
कहा कि वह
उनको न छुए, तब वे जीसस
थे। इन दो
अवधारणाओं ने
घटनाओं को
समझाने में
सहायता की—किंतु
ऐसा करके तुम
जीसस का
सौंदर्य नष्ट
कर देते हो, क्योंकि
उनका सारा
सौंदर्य इसी
विरोधाभास में
है।
उन्हें
संबंधित करने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है, क्योंकि
जीसस के
अस्तित्व की
गहराई में वे
अंतर— संबंधित
हैं। वास्तव
में वे इसीलिए
क्रोधित हो
पाए, क्योंकि
उन्होंने
अत्यधिक
प्रेम किया था।
उन्होंने
इतने
आत्यंतिक रूप
से प्रेम किया
था, इसलिए
वे क्रोधित हो
पाए। उनका
क्रोध घृणा का
भाग नहीं था, यह उनके
प्रेम का एक
अंग था। क्या
कभी तुमने
प्रेम से
जन्मे क्रोध को
नहीं देखा है?
तब समस्या
कहां है? तुम
अपने बच्चे को
प्रेम करते हो;
कभी तुम
बच्चे को थप्पड़
मार देते हो, तुम बच्चे
को पीट देते
हो, कभी तो
तुम करीब—करीब
क्रोध के
पागलपन में हो
जाते हो, लेकिन
यह सब प्रेम
के कारण होता
है। ऐसा इसलिए
नहीं होता
क्योंकि तुम
घृणा करते हो।
वे इतना अधिक
प्रेम करते
थें—जीसस के
बारे में मेरी
समझ यही है—कि
वे इतना प्रेम
करते थे कि वे
क्रोध में सभी
कुछ भूल गए और
वे क्रोधित हो
उठे। उनका
प्रेम बहुत
अधिक था। वे
मात्र एक
मुर्दा संत
नहीं थे, वे
एक जीवित
व्यक्ति थे, और उनका
प्रेम मात्र
दर्शनशास्त्र
नहीं था, यह
एक
वास्तविकता
था। जब प्रेम
वास्तविकता
होता है तो
कभी—कभी प्रेम
क्रोध भी बन
जाता है।
वे
उतने ही
मनुष्य थे
जितने कि तुम
हो। ही, वे
वहीं समाप्त
नहीं हो गए।
वे एक मनुष्य
से कुछ और
अधिक भी थे, लेकिन
प्राथमिक और
आधारभूत रूप
से वे मनुष्य,
मनुष्य से
अधिक थे। ईसाई
लोग यह सिद्ध
करने का
प्रयास करते
रहे हैं कि वे
अति मानव थे
और उनकी
मानवता मात्र
एक आकस्मिक
घटना थी, एक
अनिवार्य
बुराई थी, क्योंकि
उनको शरीर
धारण करना पड़ा
था। यही कारण
था कि वे
क्रोधित हुए
थे। अन्यथा वे
तो मात्र एक
शुद्धता थे।
लेकिन मेरे अनुसार
ऐसी शुद्धता
मुर्दा होगी।
यदि
शुद्धता
वास्तविक और
प्रमाणिक है, तो
यह अशुद्धता
से भय नहीं
खाती है। यदि
प्रेम सच्चा
हो तो यह
क्रोध से
भयभीत नहीं
होता; यदि
प्रेम असली हो,
इसे लड़ने—झगड़ने
से जरा भी भय
नहीं होता।
इससे यह
प्रदर्शित
होता है कि
लड़ाई—झगड़ा भी
इसे नष्ट नहीं
कर सकता, यह
जीवित रहेगा।
ऐसे भी संत
हुए हैं
जिन्होंने
मानवता को
प्रेम करने की
बातें की हैं,
लेकिन वे एक
मनुष्य तक को
प्रेम न कर
सके। मानवता
को प्रेम करना
बहुत सरल है।
इस बात को
सदैव स्मरण
रखो, यदि
तुम प्रेम
नहीं कर सकते
हो तो तुम
मानवता को
प्रेम करने
लगते हो। यह
बहुत सरल है, क्योंकि
मानवता से
तुम्हारी कभी
भेंट तक नहीं
होती; और
मानवता
तुम्हारे
लिण्र कोई
झंझट भी नहीं
खड़ी करने वाली
है। केवल एक
ही मनुष्य
बहुत सी, और
भी बहुत सी
झंझटें खडी कर
देगा। और
तुम्हें बहुत
ही अच्छा लग
सकता है कि
तुम मानवता को
प्रेम करते हो।
तुम किसी
व्यक्ति को
कैसे प्रेम कर
सकते है? तुम
तो मानवता को
प्रेम करते हो।
तुम तो विराट
हो, तुम्हारा
प्रेम महान है।
लेकिन मैं
तुमसे कहूंगा
: किसी मनुष्य
से प्रेम करो;
मानवता को
प्रेम करने के
लिए यही
आधारभूत तैयारी
है। यह कठिन
होने वाला है,
और यह एक
बड़ी झंझट, एक
लगातार चलने
वाली झंझट और
चुनौती होने
जा रहा है।
यदि तुम इसके
पार जा सको, और तुम
कठिनाइयों के
कारण प्रेम को
नष्ट न करो, और तुम अपने
प्रेम को
सशक्त बनाते
चले जाओ, जिससे
कि यह सभी—संभव,
असंभव
कठिनाइयों का
सामना कर सके—
तभी तुम समग्र
हो पाओगे।
क्राइस्ट ने
मनुष्य को
प्रेम किया था,
और बहुत
अधिक प्रेम
किया था, और
उनका प्रेम
इतना विराट था
कि यह
मनुष्यों का
अतिक्रमण कर
गया और समूची
मानवता के
प्रति प्रेम
बन गया। फिर
इस प्रेम ने
मानवता का भी
अतिक्रमण कर
लिया, यह
अस्तित्व के
प्रति प्रेम
बन गया। यह प्रभु
के प्रति
प्रेम है।
'आपके उपाय
मुझको अलग
प्रतीत होते
हैं।’
मेरे
उपाय न केवल
अलग हैं, बल्कि
नितांत
विपरीत हैं।
पहली बात तो
यह है कि यह
उपाय तो जरा
भी नहीं है।
यह कोई पथ
नहीं है; या
यदि तुमको पथ
शब्द से लगाव
है तो इसे पथ—विहीन—पथ,
द्वार—
विहीन—द्वार
कह सकते हो।
किंतु यह पथ
नहीं है, क्योंकि
किसी पथ या
रास्ते की
आवश्यकता तभी
पड़ती है जब
तुम्हारी
वास्तविकता
तुमसे बहुत अधिक
दूर हो। तब
इससे रास्ते
के माध्यम से
जुड़ना पड़ता है।
लेकिन मेरा
पूरा जोर इसी
बात पर है कि
तुम्हारी
वास्तविकता
तुम्हें ठीक
अभी, यहीं
उपलब्ध है। यह
तो बस
तुम्हारे
भीतर है। इस
तक पहुंचने के
लिए पथ की
आवश्यकता
नहीं है।
वास्तव में
यदि तुम सारे
रास्तों को
छोड़ दो, तब
अचानक तुम
स्वयं को
लक्ष्य पर खड़ा
हुआ पाओगे।
तुम जितने
अधिक रास्तों
पर चलते हो, उतना ही तुम
स्वयं से दूर
हो जाते हो।
रास्ते
भटकाते हैं, दिग्भ्रमित
करते हैं, क्योंकि
तुम पहले से
ही वह हो
जिसको तुम खोज
रहे हो। इसलिए
रास्तों की
आवश्यकता
नहीं है, किंतु
तुम्हारा
प्रशिक्षण
इसी भांति
सोचने के लिए
हुआ है, तब
मैं कहूंगा कि
मेरा उपाय
नितांत
विपरीत है।
स्टीनर कहता
है, उचित
ढंग से विचार
करना, और
मैं कहता हूं
उचित हो या
अनुचित, विचार
करते रहना ही
गलत है। विचार
करना गलत है; निर्विचार
होना सही है।
'क्या आप
कृपा करके
मुझको सलाह दे
सकते हैं? एक
प्रकार से मैं
तो आपके और उस
उपाय के बीच
जो स्टीनर
दिखाता है, बंट गया हूं।’
नहीं, तुमको
कुछ दिनों के
लिए तनाव की अवस्था
में रहना
पड़ेगा। मैं
कोई सलाह नहीं
दूंगा और कोई
सहायता भी नहीं
करूंगा।
क्योंकि यदि
मैं सलाह देता
हूं और मैं
तुम्हारी
सहायता करता
हूं तो तुम
मेरी ओर आ
सकते हो और
मेरी ओर झुक
सकते हो; लेकिन
यह
अपरिपक्वता
हो सकती है।
इसके पहले कि
तुम मेरे पास
आ सको तुमको
स्टीनर से जम
कर संघर्ष
करना पड़ेगा, और वह
स्टीनर
निश्चित रूप
से तुमको कड़ी
टक्कर देगा।
तुमको वह इतनी
आसानी से
छोड़ने वाला
नहीं है। और
मैं तुम्हारी
कोई सहायता
नहीं करने
वाला हूं ताकि
तुम अपने आप
से आ सको।
केवल तभी तुम
मेरे पास तक
आते हो, जब
तुम अपने आप
से आते हो। जब
कोई फल पक
जाता है तो यह
स्वत: ही गिर
पड़ता है। नहीं,
मैं इस फल
पर जरा सी
ककड़ी तक नहीं
मारूंगा, क्योंकि
हो सकता है कि
फल न पका हो और
ककड़ी इसे नीचे
गिरा दे... और इस
तरह अधपके फल
का नीचे गिर जाना
यह एक आपदा बन
जाएगा। तुम
अपने मन की
बंटी हुई
अवस्था में बने
रहोगे।
तुमको
निर्णय लेना
पडेगा, क्योंकि
कोई भी लंबे
समय तक मन की
बंटी हुई अवस्था
में नहीं रह
सकता। एक
बिंदु ऐसा आता
है जब व्यक्ति
को निर्णय लेना
पड़ता है। और
यदि मैं
तुम्हारी
सहायता करता
हूं तो यह रूडोल्फ
स्टीनर के
प्रति न्याय
नहीं होगा।
उसका
देहावसान हो
चुका है, वह
मेरे साथ
संघर्ष नहीं
कर सकता। उसकी
तुलना में
मेरे लिए
तुमको अपनी ओर
खींचना अधिक
सरल है। इसलिए
उसके प्रति भी
न्याय करने के
लिए यही बेहतर
है कि मैं इसे
तुम पर छोड़
दूं। तुम तो
बस उससे
संघर्ष करते
रहो। या तुम
मुझको छोड़
दोगे.. .वह भी एक
उपलब्धि होगी,
क्योंकि
फिर तुम
रूडोल्फ
स्टीनर का और
समग्रता से
अनुगमन कर
पाओगे।
लेकिन
मैं नहीं
सोचता कि यह
अभी संभव है..
.मेरे संक्रमण
का विष
तुम्हारे
भीतर
प्रविष्ट हो चुका
है। अब यह बस
कुछ समय की
बात रह गई है।
दूसरा
प्रश्न :
जब
मैं पौधों,
नदियों,
पर्वतों,
पशुओं, पक्षियों
और आकाश के
सान्निघ्य
में होता हूं, तो मुझको
ठीक लगता है।
किंतु जब मैं
लोगों के मध्य
आ जाता हूं, तो मुझको
ऐसा लगता है, जैसे कि मैं
किसी
पागलखाने में
आ गया हूं,
यह विभाजन क्यो
है?
जब तुम
वृक्षों के, आकाश
के, नदी के,
चट्टानों
के, फूलों
के साथ होते
हो और तुमको
ठीक लगता है, तो तुमसे
इसका जरा भी
लेना—देना
नहीं है। इसका
संबंध
वृक्षों से, नदियों से
और चट्टानों
से है। यह
ठीकपन उनके
मौन से आता है।
जब तुम
मनुष्यों के
निकट आते हो, तब तुम्हें
पागलपन लगने
लगता है, जैसे
कि तुम
पागलखाने में
आ गए हो।
क्योंकि लोग
तो दर्पण हैं,
वे तुमको
प्रतिबिंबित
करते हैं। तब
तो तुमको ही
पागल होना
चाहिए, इसीलिए
जब तुम लोगों
के साथ होते
हो उस समय तुमको
लगता है जैसे
कि तुम किसी
पागलखाने में
हो। मुझको ऐसा
अनुभव कभी
नहीं हुआ।
यहां तक कि
तुम जैसे पागल
लोगों के साथ
भी मुझे ऐसा
अनुभव कभी
नहीं हुआ।
यह
उन मूलभूत
समस्याओं में
से एक है
जिसका सामना
धर्म का
प्रत्येक
खोजी करता है।
जब
तुम अकेले
होते हो तो
सभी कुछ ठीक—ठाक
लगता है, क्योंकि
वहां पर शांति
भंग करने के
लिए कोई नहीं
होता। कोई
तुम्हें
विचलित होने
का अवसर
प्रदान नहीं
करता। सभी कुछ
शांत है, इसलिए
तुम भी एक
विशेष शांति
अनुभव करते हो,
लेकिन यह
मौन
प्राकृतिक है।
इसमें
आध्यात्मिकता
जरा भी नहीं
है। यह
प्रकृति का
मौन है। यदि
तुम हिमालय पर,
हिमालय के
शिखरों की
शीतलता और
उनके सन्नाटे में
चले जाओ, तो
तुमको शांति
अनुभव होगी।
लेकिन इसका
श्रेय हिमालय
को जाता है, तुमको नहीं।
जब तुम वापस
लौटोगे तो तुम
उसी व्यक्ति
की भांति लौट
कर आओगे जो
गया था। तुम
अपने भीतर
हिमालय को
नहीं ला पाओगे।
इसीलिए अनेक
लोग वहां गए, और यह सोच कर
गए कि अब यदि
वे संसार में
वापस चले जाते
हैं तो जो कुछ
उन्होंने
अर्जित किया
है उसको वे खो
देंगे, वे
सदा के लिए
वहीं रह गए।
उनको कुछ भी
उपलब्ध नहीं
हुआ है।
क्योंकि एक
बार तुम इसे
अर्जित कर लो,
तो यह खो
नहीं सकती; और संसार
इसी की
परीक्षा है।
इसलिए जब कोई
मनुष्य नहीं
होता, और
तब तुमको
अच्छा लगता है,
यह बस इतनी
सी बात
प्रदर्शित
करता है कि लोगों
के बीच
तुम्हारा
भीतरी पागलपन
सक्रिय हो जाता
है। इसलिए
पलायनवादी मत
बनो, और
समाज को, लोगों
को, भीड़ को
दोषी मत ठहराओ।
ऐसा मत कहो कि
यह पागलखाना
है। बल्कि यह
सोचना आरंभ
करो कि अवश्य
ही तुम विक्षिप्तता
की
मनोवृत्तियां
अपने भीतर लिए
घूम रहे हो, जो जब तुम लोगों
से संबंधित
होते हो तो
प्रकट हो जाती
हैं।
एक
सड़क पर दो मनोवैज्ञानिक
मिल गए। एक ने
कहा : 'हैलो।’
दूसरे
ने कहा : 'मैं
हैरान हूं कि
इस बात से
उसका क्या आशय
है?'
बस
एक जरा सी बात
कि कोई हैलो
कर रहा है और
समस्या उठ खड़ी
होती है... 'मैं
हैरान हूं कि
इस बात से
उसका क्या आशय
है?'
रोगी
ने डाक्टर को
बताया कि उसको
अपनी आंखों के
सामने धब्बे
दिखाई पड़ते
रहते हैं।
डाक्टर ने उसे
चितकबरी
त्वचा वाली
महिलाओं के
साथ घूमना—फिरना
बंद करने के
लिए कहा। जब
वह बाहर जाने
लगा तो डाक्टर
ने उसे जीभ
बाहर निकाले
हुए जाने को
कहा। ऐसा किसलिए? रोगी
ने पूछा।
क्योंकि मैं
अपनी बाहर
बैठी हुई नर्स
से घृणा करता
हूं डाक्टर ने
कहा।
रोगी
और डाक्टर
दोनों एक ही
नाव में सवार
हैं।
निःसंदेह
जब तुम लोगों
के बीच आते हो
जब तुम अपने
जैसे लोगों के
बीच आते हो, तो
अचानक
तुम्हारे
भीतर कुछ
प्रतिसंवेदित
होने लगता है।
वे विक्षिप्त
हैं, तुम
भी विक्षिप्त
हो—जिस क्षण
तुम उनके निकट
आते हो ऊर्जा
का एक सूक्ष्म
संवाद घटित
होने लगता है।
तुम्हारी
विक्षिप्तता
उनकी
विक्षिप्तता
को बाहर ले
आती है, उनकी
विक्षिप्तता
तुम्हारी
विक्षिप्तता
को बाहर लाती
है। यदि तुम
अकेले रहते हो,
तब तुम
प्रसन्न रहते
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मुझसे कह रहा
था,
मैं और मेरी
पत्नी पच्चीस
वर्षों तक
बहुत प्रसन्नतापूर्वक
जीए। मैंने
पूछा, फिर
क्या हो गया? उसने कहा :
फिर हमारी
मुलाकात हो गई,
तब से जरा
भी प्रसन्नता
नहीं है। यहां
तक कि दो
प्रसन्न
व्यक्ति
मिलते हैं और तुरंत
अप्रसन्नता
शुरू हो जाती
है। तुम अपने
भीतर
अप्रसन्नता
के सूक्ष्म
बीज लिए घूम
रहे हो। ठीक
मौका मिला और
वे अंकुरित हो
जाते हैं। और
निसंदेह
मनुष्य में
उसकी सभी
संभावनाओं को
साकार करने के
लिए मानवीय
वातावरण की
आवश्यकता
होती है।
तुम्हारे
वातावरण का
निर्माण
वृक्षों से
नहीं होता।
तुम एक वृक्ष
के पास पहुंच
सकते हो और
वहां चुप होकर
बैठ सकते हो, या तुम कुछ
भी चाहो कर
सकते हो, किंतु
तुम वृक्ष से
असंबंधित
रहोगे।
तुम्हारे और
वृक्ष के मध्य
कोई संवाद, कोई भाषा
नहीं होती।
वृक्ष अपने
स्वयं के
अस्तित्व में
जीए चला जाता है
और तुम अपने
स्वयं के
अस्तित्व में
जीए चले जाते
हो। दोनों के
मस्त कोई सेतु
नहीं है। नदी
एक नदी है, तुम्हारे
और नदी के
मध्य कोई सेतु
नहीं है। जब
तुम किसी
मनुष्य के
निकट आते हो
अचानक तुम पाते
हो कि सेतु बन
गया है, और
वह सेतु तुरंत
ही इस ओर से उस
ओर, उस ओर से
इस ओर
मनोभावनाओं
का
स्थानांतरण
आरंभ कर देता
है।
लेकिन
आधारभूत रूप
से इसका कारण
तुम ही हो, इसलिए
समाज पर
आरोपित मत करो,
लोगों पर
दोषारोपण मत
करो। वे तो बस
तुम्हें
अनावृत करते
हैं। और यदि
तुम जरा भी
समझपूर्ण हो
तो तुम उन्हें
तुम्हारे
प्रति एक महान
कार्य के लिए
धन्यवाद दोगे।
वे तुम्हें
अनावृत करते
हैं, वे
दिखा देते हैं
कि तुम कौन हो,
तुम कहां हो,
तुम क्या हो।
यदि तुम
विक्षिप्त हो,
तो
तुम्हारी
विक्षिप्तता
प्रदर्शित
करते हैं। यदि
तुम बुद्ध हो,
तो वे
तुम्हारे
बुद्धत्व को
प्रदर्शित
करते हैं।
अकेले
तुम्हारे पास कोई
संदर्भ नहीं
होता। अकेले
तुम्हारे पास
कोई पृष्ठभूमि
नहीं होती।
अकेले में तुम
नहीं जान सकते
कि तुम कौन हो।
मैं
तुमको एक
सुंदर कहानी, एक
दुखांत कहानी
सुनाता हूं।
यह
कोई असाधारण
परिस्थिति
नहीं थी। एक
बड़ी और लाभ
कमाती हुई
फर्म के बॉस
ने एक सुंदर
युवती को नौकरी
पर रखा। बीस
चालीस वर्ष से
कुछ अधिक आयु
का अविवाहित व्यक्ति
था। उसके पास
एक बड़ी कार, एक
शानदार फ्लैट
था, और उसे
संग—साथ के
लिए महिलाओं
की कोई कमी न
थी। लेकिन
उसको अपना
जोड़ा इस सुंदर
सचिव में दिखा।
उस युवती ने बॉस
के लंच या
डिनर के सभी
प्रस्ताव
विनम्रतापूर्वक
अस्वीकार कर
दिए, और बॉस
के मंहगे
उपहार और
वेतनवृद्धि
के प्रलोभन भी
उसी गरिमा और
शालीनता से
अस्वीकृत कर
दिए। उस युवती
की नौकरी के
आरंभिक सप्ताहों
में बॉस ने
अपने मन में
राय बनाई कि
वह संबंध
बनाने के प्रति
अनिच्छा का बस
अभिनय कर रही
है। इन कुछ
महीनों में बॉस
ने अपना साबुन,
अपना
टूथपेस्ट, अपना
आफ्टर शेव सभी
कुछ बदल डाला,
किंतु कोई
लाभ नहीं हुआ।
अंत्ततः उसने
अपने आप को यह
मानने के लिए
राजी कर लिया
कि वह सुंदर
है और अत्यधिक
कार्यकुशल है,
लेकिन उसके
साथ किसी भी
प्रकार के
व्यक्तिगत
संबध बन पाने
की जरा भी संभावना
नहीं है। फिर
उस दिन वह यह
देख कर बहुत
हैरान हुआ कि
सुबह जब वह
अपने
कार्यालय
पहुंचा, तो
उसने अपनी
सचिव को अपनी
मेज पर फूल
सजाते हुए
देखा, और
इससे भी अधिक
आश्चर्य तो तब
हुआ जब सचिव
ने उसको
गंभीरतापूर्वक
देखा और बोली,
जन्म—दिन
मुबारक हो, सर। उसने
धीमे स्वर में
सचिव को
धन्यवाद दिया
और शेष सारे
दिन पूरी तरह
से चकित—
भ्रमित रहा।
जैसे ही घड़ी
की सुइयां
पांच पर
पहुंची, सचिव
कार्यालय में
आई और उसने
स्वीकार किया
कि बॉस का
जन्म—दिन उसने
स्टाफ फाइलों
से पता लगाया
था। मैं आशा
करती हूं कि
आप बुरा नहीं
मानेंगे, उसने
बात पूरी की। बॉस
ने उत्तर दिया
कि उसने इस
बात का जरा भी
बुरा नहीं
माना है, तो
सचिव ने राहत
की श्वास ली।
तब ऐसा है सर, उसने बात को
जारी रखते हुए
कहा, यदि
आप आज रात
लगभग नौ बजे
मेरे घर पधार
सकें तो मुझे
बेहद खुशी
होगी। आपके
लिए मेरे पास
एक छोटा सा
आश्चर्य है, जो मैं
सोचती हूं किए
आपको बहुत
अच्छा लगेगा। बॉस
ने अपने आप को
इस बात के लिए
मानसिक रूप से
बधाई दी कि
अंततः युवती
ने मान ही
लिया कि वह
उसकी ओर
आकर्षित है, और बॉस ने
पूरे दिन
सामान्य
दिखने का
प्रयास किया।
रात
को ठीक नौ बजे
हाथ में
शैम्पेन की
बोतल लिए हुए बॉस
सचिव के फ्लैट
पर पहुंचा। वह
उस समय बहुत
प्यारी दीख
रही थी। और जब
उसने स्कॉच का
एक बड़ा पैग
बना कर बॉस को
दिया तो बॉस
ने सोचा, कहीं
युवती उसके
जोरों से
धड़कते हुए दिल
की आवाज न सुन
ले, युवती
ने उससे कहा
कि वह आराम से
बैठे। यदि
आपको अधिक
गर्मी लग रही
है तो अपने
कपड़े ढीले कर
लें, वह
बोली, मैं
तैयार होने के
लिए जरा
शयनकक्ष में
जा रही हूं।
जब मैं वहां
से आपको
बुलाऊं तो
कृपया आप आ
जाएं। यह तो
कमाल ही हो
गया। वह भी
मेरे लिए उतनी
ही उत्सुक है
जितना कि मैं
उसके लिए था, बॉस ने अपनी
उपलब्धि पर
प्रसन्न होते
हुए सोचा। अब
आप अंदर आ
सकते हैं, अंततः
युवती की
पुकार आई, लेकिन
सावधानी से
आइएगा जिससे
कि आप गिर न
पड़े। यहां की
सारी
रोशनियां
बुझी हुई हैं।
हमारे हीरो
बॉस ने इसे एक
इशारा समझा।
जल्दी से अपने
सारे वस्त्र
उतार कर वह
अंधेरे कमरे
में प्रविष्ट
हो गया, और
अपने
पीछे का द्वार
जिससे वह भीतर
आया था, बंद
कर दिया। जैसे
ही उसने ऐसा
किया कि कमरा
रोशनी से
जगमगा उठा और
उसने देखा कि
उसके
कार्यालय का
सारा स्टॉफ
कमरे के मध्य
में खड़ा है और गा
रहा है : 'आपको
जन्म—दिन
मुबारक हो...।’
लोग
केवल उसी बात
को प्रकट करते
हैं जिसे तुम अपने
भीतर छिपाए
हुए हो। यदि
तुमको अनुभव
होता है कि
तुम पागलखाने
में हो, तो
निस्संदेह
तुम पागल हो।
पुरुषों के
साथ और अधिक
रहने का
प्रयास करो, महिलाओं के
साथ और अधिक
रहने का
प्रयास करो, लोगों के
साथ और अधिक
रहने का
प्रयास करो।
और अधिक
संबंधों का
प्रयास करो।
यदि तुम मनुष्यों
के साथ
प्रसन्न नहीं
रह सकते तो
तुम्हारे लिए
किसी वृक्ष या
किसी नदी के
साथ प्रसन्न रह
पाना संभव
नहीं है—असंभव
है यह। यदि
तुम एक मनुष्य
को नहीं समझ
सकते जो कि
तुम्हारे
इतना निकट है,
तुमसे इतना
मिलता—जुलता
है, तो तुम
यह आशा कैसे
लगा सकते हो
कि तुम किसी वृक्ष,
किसी नदी, किसी पर्वत
को समझने में
समर्थ हो
पाओगे जो इतने
दूर हैं? एक
पर्वत और
तुम्हारे बीच
में लाखों
वर्ष की दूरी
है। कभी लाखों
जन्म पहले तुम
पर्वत रहे
होंगे लेकिन
अब तुम वह
भाषा पूरी तरह
भूल चुके हो
और पर्वत
तुम्हारी
भाषा नहीं समझ
सकता। पर्वत
को अभी मनुष्य
होना है, उसे
दीर्घ काल के
विकास की
आवश्यकता है।
तुम्हारे और
पर्वत के मध्य
एक विशाल खाई
है। यदि तुम
अपने आप को
मनुष्यों से,
जो इतने पास,
इतने समीप
हैं, नहीं
जोड़ सके; तो
तुम्हारे लिए
अपने आप को
किसी और से
जोड़ पाना
असंभव है।
पहले
अपने आपको
मनुष्यों से
जोडो। धीरे—
धीरे तुम
मनुष्यों को
जितना अधिक
समझ पाने में
समर्थ हो
जाओगे उतना ही
अधिक तुम
भीतरी संवाद, लय
और सुसंगति के
योग्य होते
चले जाओगे।
फिर तुम
क्रमश: आगे बढ़
जाते हो। फिर
पशुओं की ओर
बढ़ो, यह
दूसरा कदम है।
फिर पक्षियों
की ओर जाओ, फिर
वृक्षों की ओर
बढ़ो, फिर
चट्टानों की
ओर जाओ, और
केवल तब तुम
शुद्ध
अस्तित्व की
ओर जा सकते हो,
क्योंकि
स्रोत वही है।
और हम उस
स्रोत से इतने
अधिक समय से
दूर हैं कि हम
पूरी तरह से
भूल गए हैं कि
कभी हम इससे
संबंधित रहे
थे या यह हमसे
संबंधित था।
तीसरा प्रश्न:
प्यारे
ओशो, मैं आपको, आपके शब्दों
के पीछे, एक
स्त्री के एक
रूप में आपके
प्रति आपकी
प्रेमपूर्ण
करूणा को,
सुनती हूं,
यह कभी—कभी
मुझे आंदोलित
कर देती है, और मैं यह भी
अनुभव करती
हूं कि संबोधि
के आनंद को
अनुभव करने के
लिए मेरा स्त्रीपन
मुख्य बाधा
है। क्योंकि
सभी संबुद्ध व्यक्ति
जिनको आप बात
करते है,
पुरूष है,
और शायद यह
इसलिए है क्योंकि आपके
निजी अनुभव भी
एक पुरूष के
रूप में है।
एक स्त्री के
रूप में मेरे
लिए संबोधि क्या
है, कृपा
इसके बारे में
आप कुछ कहना
चाहेंगे।
पहली
बात,
समझ पाने के
लिए स्त्री
होना कभी
अवरोध नहीं
होता है।
वस्तुत: मुझको
समझ पाने का
इससे बेहतर
अवसर तुमको
नहीं मिल सकता।
पुरुष के लिए
समझ पाना कठिन
है क्योंकि
पुरुष के पास आक्रामक
मन है। पुरुष
आसानी से
वैज्ञानिक बन
जाता है, लेकिन
उसके लिए एक
धार्मिक
व्यक्ति बन
पाना बहुत
कठिन है, क्योंकि
धर्म को
ग्रहणशीलता
की, चेतना
की एक
निष्क्रिय
अवस्था की
आवश्यकता होती
है, जिसमें
तुम आक्रमण न
करो, आमंत्रित
करो। समझने के
लिए, शिष्य
होने के लिए
स्त्रैण मन
बिलकुल उचित
मन है। पुरुष
मन को भी
स्त्रैण मन
बनना पड़ता है।
इसलिए इसे एक
अवरोध की
भांति मत समझो,
यह रुकावट
नहीं है।
दूसरी
बात,
यह वास्तव
में एक बड़ी
समस्या है, क्योंकि हम
इसको नहीं
समझते।
समस्याएं
केवल इसीलिए
हैं क्योंकि
हम उन्हें
समझते नहीं
हैं। बार—बार
यह मुझसे पूछा
जाता है कि
मैं सदैव उन
पुरुषों के
बारे में
क्यों बोलता
हूं जो सबुद्ध
हुए, लेकिन
सबुद्ध
स्त्रियों के
बारे में
क्यों नहीं
बोलता हूं।
अनेक
स्त्रियां ज्ञानोपलब्ध
हुई हैं, जितने
पुरुष उतनी
स्त्रियां।
प्रकृति एक
विशेष संतुलन
बना कर रखती
है। देखो..
.संसार में
स्त्रियों और
पुरुषों की संख्या
करीब—करीब एक
सी रहती है।
ऐसा होना तो
नहीं चाहिए, लेकिन
प्रकृति
संतुलन बना कर
रखती है। हो
सकता है कि एक
व्यक्ति के घर
में केवल लडकों
का ही, दस
लड़कों का जन्म
हो; किसी
और के घर में
शायद केवल एक
ही लड़के का
जन्म हो, किसी
और के घर में
केवल एक लड़की
का जन्म हो—लेकिन
पूरे संसार
में प्रकृति
सदैव संतुलन बना
कर रखती है।
यहां पर उतने
ही पुरुष हैं
जितनी कि
स्त्रियां
हैं। न केवल
यही, बल्कि
स्त्री पुरुष
की तुलना में
अधिक शक्तिशाली
होती है—अपनी
प्रतिरोधक
क्षमता, स्थायित्व,
समायोजन की
क्षमता में, लोचपूर्ण
होने में, वह
अधिक बलशाली
है—सौ लड़कियों
पर एक सौ
पंद्रह लड़कों
का जन्म होता
है। लेकिन जिस
समय तक वे
लड़कियां
विवाह योग्य
होती हैं वे
पंद्रह लड़के
विदा हो चुके
होते हैं।
लड़कियों की
तुलना में
अधिक लड़कों की
मृत्यु होती
है। प्रकृति
यह व्यवस्था
भी करती है।
सौ लडकियां और
एक सौ पंद्रह
लड़कों का जन्म
होता है, फिर
विवाह योग्य
अवस्था आते—आते
पंद्रह लड़के
काल के गाल में
समा जाते हैं।
संतुलन को
पूरी तरह बना
कर रखा जाता
है। न केवल
यही, बल्कि
जब युद्ध के
समय में अधिक
पुरुष मरते हैं
तब भी संतुलन
बना दिया जाता
है।
प्रथम
विश्वयुद्ध
ने मनोवैज्ञानिकों, जीववैज्ञानिकों
के सम्मुख एक
समस्या खड़ी कर
दी। उनको
विश्वास नहीं
हो सका कि क्या
हो गया है।
युद्ध में
अधिक पुरुष
मरते हैं, लेकिन
युद्ध के
तुंरत बाद
अधिक लड़कों का
जन्म होता है
और लड़कियों का
जन्म कम होता
है। पुन:
संतुलन बना
दिया जाता है।
प्रथम
विश्वयुद्ध
में यही हुआ। इसका
कारण उस समय
जरा भी समझ
में नहीं आया।
यह बस एक
रहस्य था।
द्वितीय
विश्वयुद्ध
में पुन: यही
हुआ। युद्ध के
बाद जन्म लेने
वाले लड़कों की
संख्या बढ़ गई।
मरे हुए
पुरुषों के
स्थानापन्न
के रूप में अधिक
लड़कों का जन्म
हुआ और कम
लड़कियां
जन्मी, क्योंकि
वहां पहले से
ही अधिक
महिलाएं
जीवित थीं। जब
युद्ध समाप्त
हो गया तो पुन:
संतुलन उपलब्ध
कर लिया गया, और लड़कों और
लड़कियों की
संख्या पुन:
पुराने ढांचे
पर वापस लौट
आई—सौ लड़कियां
और एक सौ
पंद्रह लड़के—क्योंकि
पंद्रह लड़के
मर जाएंगे।
लड़के
लड़कियों की
तुलना में कम
ताकतवर होते
है।
स्त्रियों की
तुलना में
पुरुष पांच
वर्ष कम जीवित
रहते हैं। यही
कारण है कि
संसार में
तुम्हें
वृद्धों की
तुलना में वृद्धाएं, विधुरों
की तुलना में
विधवाएं सदैव
अधिक मिलेंगी।
यदि स्त्री के
लिए औसत आयु
अस्सी वर्ष हो,
तो पुरुष के
लिए यह औसत
पचहत्तर वर्ष
है। यह पांच
वर्ष अधिक है।
लेकिन क्यों,
स्त्रियां
पांच वर्ष
अधिक क्यों
जीवित रहती
हैं? यह भी
कहीं न कहीं
एक महत आंतरिक
संतुलन
प्रतीत होता
है। स्त्री
पुरुष की
तुलना में
स्वीकार करने
में अधिक
समर्थ होती है।
यदि पुरुष की
मृत्यु पहले
हो जाती है, तो स्त्री
रोकी, चिल्लाकी,
दुखी होगी,
किंतु इस
तथ्य को
स्वीकार करने
में समर्थ रहेगी।
वह पुन संतुलन
प्राप्त कर
लेगी। किंतु
यदि स्त्री मर
जाती है, तो
पुरुष पुन:
संतुलन नहीं
पा सकता।
संतुलन पा
लेने का जो
एकमात्र उपाय
उसे पता है वह
है पुन: विवाह
कर लेना, पुन:
एक अन्य
स्त्री को पा
लेना, वह
अकेला नहीं जी
सकता। स्त्री
की तुलना में
वह अधिक असहाय
है।
सामान्यत:
सारे संसार
में विवाह
योग्य आयु
अप्राकृतिक
है। हर कहीं
पुरुष ने एक
व्यवस्था थोप
दी जो अप्राकृतिक, प्रकृति
के विपरीत है।
यदि लड़की की
आयु बीस वर्ष
है तो हम
सोचते हैं कि
जो लड़का उसके
साथ विवाह
करने जा रहा
है उसकी आयु
पच्चीस या
छब्बीस वर्ष
होनी चाहिए।
इसे तो बिलकुल
विपरीत हो
जाना चाहिए, क्योंकि बाद
में लड़कियां
पांच वर्ष
अधिक जीने
वाली हैं।
इसलिए यदि
विवाह के लिए
लड़कों की आयु
बीस वर्ष हो
तो लड़कियों की
आयु सीमा
पच्चीस वर्ष
होनी चाहिए।
प्रत्येक
पुरुष को उस
स्त्री से
विवाह .करना चाहिए
जो आयु में
उससे कम से कम
पांच वर्ष बड़ी
हो। तब संतुलन
ठीक होगा। तब
उनकी मृत्यु
एक—दूसरे से
लगभग छह माह
के अंतराल पर
होगी, और
तब संसार में
पीड़ाएं और कम
हो जाएंगी।
लेकिन
ऐसा हो क्यों
नहीं पाया है ?—क्योंकि
विवाह कोई
प्राकृतिक
बात नहीं है।
अन्यथा
प्रकृति ने
उसे इसी ढंग
से व्यवस्थित कर
लिया होता। यह
पुरुष
निर्मित
संस्था है। और
पुरुष, यदि
वह किसी ऐसी
स्त्री के साथ
विवाह करने
जाए जो आयु
में बड़ी है, अधिक अनुभवी
है, उसकी
तुलना में
अधिक जानकारी
रखती है, तो
उसे जरा
कमजोरी अनुभव
होती है। वह
अपना पुरुष
श्रेष्ठता का
अहंकार, कि
वह प्रत्येक
प्रकार से
श्रेष्ठ है, कायम रखना
चाहता है। कोई
पुरुष ऐसी
स्त्री से
विवाह नहीं
करना चाहता जो
उससे लंबाई
में ज्यादा हो।
मूर्खतापूर्ण
है यह सब।
क्या अर्थ है
इसमें? उस
स्त्री से
विवाह क्यों
नहीं करते जो
तुमसे लंबी है?
लेकिन
पुरुष का
अहंकार स्वयं
से अधिक लंबी
स्त्री के साथ
घूमने—फिरने
में आहत अनुभव
करता है। हो
सकता है यही
कारण है कि
इसीलिए
स्त्रियां इतनी
लंबी नहीं
होतीं—क्योंकि
स्त्री के
शरीर ने इस
बात को सीख
लिया है।
उन्होंने
उपाय सीख लिया
है, क्योंकि
उनको जरा सा
छोटा ही बना
रहना है, वरना
उनको अपने लिए
कभी कोई पुरुष
नहीं मिल
पाएगा। यही
योग्यतम की
उत्तरजीविता
है। उनका
समायोजन तभी
हो पाएगा जब
वे अधिक लंबी
न हों। कोई
बहुत लंबी
स्त्री.. .जरा
एक सात फीट
लंबी स्त्री
के बारे में
सोचो; उसे
पति नहीं मिल
पाएगा। वह
बिना पति के
ही मर जाएगी।
और वह बच्चों
को जन्म भी
नहीं देगी, वह खो जाएगी।
एक स्त्री जो
पांच फीट लंबी
है, उसे
पुरुष सरलता
से मिल जाएगा।
बची रहेगी वह;
उसका पति
होगा, उसके
बच्चे होंगे।
निस्संदेह
अधिक लंबी
स्त्रियां
धीरे— धीरे
मिट जाएंगी, क्योंकि
उनमें
उत्तरजीविता
की योग्यता
नहीं होगी।
यही कारण है
कि धीरे— धीरे
संसार से
कुरूप
स्त्रियां खो
जाएंगी, क्योंकि
वे बची नहीं
रह सकतीं।
संसार उनकी
सहायता करता
है जो बच सकते
हैं, और जो
बच नहीं सकते
वे मिट जाते
हैं। पुरुष और
लंबा, और
शक्तिशाली हो
गया, क्योंकि
वह हर ढंग से
स्वयं को
स्त्रियों से
कुछ ऊंचा बनाए
रखना चाहता है।
वह सदैव हर
चीज के शिखर
पर रहना चाहता
है।
पश्चिम
तक में, लोगों
ने पूरब आकर
वात्मायन के
काम—सूत्रों
की जानकारी से
पहले, कभी
सुना तक नहीं
था कि स्त्री
पुरुष के ऊपर
होकर संभोग कर
सकती है।
पश्चिम इसको
जानता ही नहीं
था। और तुमको
यह जान कर
हैरानी हो
सकती है कि
स्त्री के ऊपर
से पुरुष
द्वारा संभोग
करते समय की
मुद्रा को
पूरब में
मिशनरी आसन
कहा जाता है, क्योंकि
पूरब ने इसे
पहली बार ईसाई
मिशनरियी के
द्वारा जाना।
यह मिशनरी आसन
है। पुरुष को
हर तरह से
शीर्ष पर होना
चाहिए, संभोग
करते समय भी।
उसकी लंबाई
अधिक होनी
चाहिए, शिक्षा
अधिक होना
चाहिए। यदि
तुम किसी ऐसी
स्त्री से
विवाह करने जा
रहे हो जो
पीएचडी. है, तो यदि तुम
पीएचडी. नहीं
हो तो तुमको
थोड़ी सी बेचैनी
अनुभव होगी।
तुम्हें कम से
कम डीलिट तो
होना चाहिए, केवल तभी
तुम पीएचडी.
स्त्री से
विवाह कर सकते
हो। अन्यथा
प्राकृतिक
रूप से तो
स्त्री को पुरुष
से पांच वर्ष
बड़ा होना
चाहिए। और यह
बिलकुल उचित
व्यवस्था
प्रतीत होती
है, क्योंकि
स्त्री को
अधिक अनुभवी
होना चाहिए।
वह मां बनने
जा रही है, न
केवल अपने
बच्चों की मां
बल्कि अपने
पति की भी मां
बनने जा रही
है। और पुरुष
बचकाना बना
रहता है। चाहे
उसकी आयु जो
भी हो, वह
पुन बच्चा
बनने को
लालायित रहता
है। वह सदैव
थोड़ा सा
किशोरवय बना
रहता है।
अब
संबोधि के साथ
भी यही हो गया
है—प्रकृति
ठीक संतुलन
बना कर रखती
है। लेकिन यह
सच है कि हमने
बहुत सी
सबुद्ध स्त्रियों
के बारे में
नहीं सुना हैं—क्योंकि
समाज पुरुषों
का है। वे स्त्रीयों
के बारे में
कोई खास
अभिलेख नहीं
रखते हैं। वे
गौतम बुद्ध के
बारे में बहुत
कुछ अभिलेखित
करते हैं, लेकिन
वे सहजो के
बारे में अधिक
अभिलेखन नहीं करते।
वे मोहम्मद के
बारे में बहुत
कुछ
अभिलेखित
करते हैं, किंतु
वे राबिया के
बारे में कोई
बहुत अधिक अभिलेखन
नहीं करते। वे
इस ढंग से
अभिलेखन करते
हैं कि पुरुष
बहुत प्रभावशाली
प्रतीत होते
हैं। भारत में
ऐसा हुआ है : एक
जैन तीर्थंकर,
एक जैन
सदगुरु, एक
सबुद्ध
व्यक्ति
पुरुष नहीं था,
वह स्त्री
थी। उसका नाम
मल्ली बाई था,
लेकिन जैन
धर्म के
अनुयायियों
के एक बड़े
समुदाय ने उसका
नाम
परिवर्तित कर
दिया। वे उसको
मल्ली बाई
नहीं, मल्ली
नाथ कहते हैं।’बाई' यह
प्रदर्शित
करता है कि वह
स्त्री थी; 'नाथ' यह
प्रदर्शित
करता है कि वह
पुरुष था।
जैनों
के दो पंथ हैं :
श्वेतांबर और
दिगंबर।
दिगंबरों का
कहना है कि वह
स्त्री नहीं
थी,
मल्लीनाथ।
उन्होंने
उसका नाम तक
बदल डाला। यह
बात पुरुष
अहंकार के
प्रतिकूल
प्रतीत होती
है कि एक
स्त्री
तीर्थंकर, एक
महान सदगुरु,
सबुद्ध, धर्म
की संस्थापक,
दिव्यता की
ओर जाने वाले
पथ की प्रणेता
बन जाए? नहीं,
संभव नहीं
है यह।
उन्होंने नाम
ही बदल डाला
है।
इतिहास
का अभिलेखन पुरुषों
द्वारा किया
गया है, और
स्त्रियों को
घटनाओं के
अभिलेखन में
जरा भी रस
नहीं है। वे
उनको जीने और
अनुभव करने
में अधिक
उत्सुक हैं.
एक बात तो यही
है। दूसरी बात
यह है कि
स्त्री के लिए
शिष्य बन जाना
सरल है, शिष्य
बन पाना
स्त्री के लिए
अत्यधिक सरल
है, क्योंकि
वह ग्रहणशील
है। पुरुष के
लिए शिष्य बन
पाना कठिन है
क्योंकि उसे
समर्पण करना
पड़ता है, और
यही उसकी
परेशानी है।
वह संघर्ष कर
सकता है लेकिन
वह समर्पण
नहीं कर सकता।
इसलिए जब
शिष्यत्व की
बात आती है तो
इसके लिए स्त्रियां
बिलकुल उचित
पात्र हैं।
लेकिन जब
तुमको सदगुरु
बनना हो तो
बिलकुल
विपरीत घटता
है।
एक
पुरुष आसानी
से सदगुरु बन
सकता है।
स्त्री के लिए
सदगुरु हो
जाना बहुत
कठिन लगता है।
क्योंकि
सदगुरु हो
पाने के लिए
तुमको वास्तव में
आक्रामक होना
पड़ता है।
तुमको बाहर
निकल कर
दूसरों की
मानसिक
संरचनाएं
नष्ट करनी
पड़ती हैं।
तुम्हें करीब—करीब
हिंसक हो जाना
पड़ता है, तुमको
अपने शिष्यों
को मारना पड़ता
है। तुमको
उनके मन को
साफ करना पड़ता
है। इसलिए
स्त्री को
सदगुरु होना
कठिन लगता है,
पुरुष को
शिष्य हो पाना
कठिन लगता है।
लेकिन पुन:
वहां एक
संतुलन है, स्त्रियों
को शिष्य बन
जाना सरलतर लगता
है, और
शिष्य बन कर
वे सबुद्ध हो
जाती हैं, लेकिन
वे सदगुरु कभी
नहीं बनतीं।
पुरुष के लिए
शिष्य बन पाना
कठिन है, लेकिन
एक बार वह
शिष्य बन जाए,
सबुद्ध हो
जाए, तो
उसके लिए
सदगुरु बन
जाना बहुत सरल
है, यह
उसके लिए बहुत
आसान है, सरलतर
है। यही कारण
है कि तुमने
कभी स्त्री
सदगुरु के
बारे में नहीं
सुना है.. .लेकिन
उसकी चिंता
में मत पड़ो।
तुम्हारे
स्वयं के
अनुभव एक
स्त्री की
भांति हैं।
स्मरण रखो, परम
के अनुभव को
स्त्री या
पुरुष से कुछ
भी लेना—देना
नहीं है। परम
का अनुभव इस
द्वैत के परे
है। इसलिए जब
तुम्हें
संबोधि घटित
होती है, उस
क्षण में तुम
न पुरुष होते
हो और न
स्त्री। उस पल
में तुम सारे
द्वैत का
अतिक्रमण कर
जाते हो। तुम
एक पूर्ण
वर्तुल बन
चुके हो, किसी
विभाजन का
अस्तित्व
नहीं रहा है।
इसलिए जब मैं
तुमसे बात कर
रहा हूं तो
मैं एक पुरुष
की भांति, संबोधि
के बारे में, नहीं बोल
रहा हूं। कोई
भी संबोधि के
बारे में एक
पुरुष की
भांति नहीं
बोल सकता, क्योंकि
संबोधि न
पुरुष है और न
स्त्री। भारत
में परम सत्ता
न तो स्त्री
है, न
पुरुष, वह
उभयलिंगी है।
तुम
.कठिनाई में
पड़ जाओगी.
पश्चिम मन में
ईश्वर पुरुष
है। महिला
मुक्ति आंदोलन
की स्त्रियों
के अतिरिक्त, जिन्होंने
ईश्वर को 'शी'
कहना आरंभ
कर दिया है, तुम ईश्वर
के लिए 'ही'
का प्रयोग
करते हो। वरना
ईश्वर के लिए
कोई भी 'शी'
का प्रयोग
नहीं करता; तुम 'ही' प्रयोग करते
हो। और मैं भी
सोचता हूं कि— 'शी' बेहतर
रहेगा।’शी'
में 'ही'
सम्मिलित
है— 'एस' के
बाद वहां 'ही'
हैं—लेकिन 'ही' में 'एस' शामिल
नहीं है। यह
बेहतर है, यह
ईश्वर को थोड़ा
बड़ा कर देता
है।’ही' से 'शी' बडा है; इसमें
कुछ भी गलत
नहीं है।
लेकिन
पश्चिम के मन
में ईश्वर 'ही'
है। पश्चिम
की भाषाओं में
केवल दो ही
लिंग होते हैं
स्त्रीलिंग
और पुरुषलिग। भारतीय
भाषाओं में, विशेषतौर से
संस्कृत में
हमारे पास तीन
लिंग होते हैं
: स्त्रीलिंग,
पुरुषलिग
और उभयलिग।
ईश्वर
उभयलिंगी है।
वह न ही पुरुष
है और न ही
स्त्री, वह
दोनों ही नहीं
है। वह यह है, तत, वह है—व्यक्तित्व
खो चुका है।
वह अवैयक्तिक
है, मात्र
ऊर्जा है। इसलिए
इसके बारे में
जरा भी चिंता
मत करो।
'एक स्त्री
के रूप में
मेरे लिए
संबोधि क्या
है, कृपया
इसके बारे में
आप कुछ कहना
चाहेंगे।
स्वयं
को एक स्त्री
के रूप में
सोचना बंद कर
दो,
वरना तुम
स्त्रैण मन से
चिपक जाओगी।
पुरुष या
स्त्री, सभी
मनों का त्याग
करना पड़ेगा। गहन
ध्यान में तुम
स्त्री या
पुरुष दोनों
में से कुछ भी
नहीं होते।
गहरे प्रेम
में भी तुम
स्त्री या
पुरुष कुछ नहीं
होते। क्या
तुमने कभी इसे
देखा है?
यदि
तुमने किसी
स्त्री या
पुरुष के साथ
प्रेममय
संभोग किया है, और
तुम्हारा
प्रेम वास्तव
में परिपूर्ण
और चरम था तो
तुम भूल जाते
हो कि तुम कौन
हो, पुरुष
या स्त्री? यह मन को
हतप्रभ करने
वाला अनुभव है।
तुम बस जानते
ही नहीं कि
तुम कौन हो।
काम— भोग की
गहराई में, उत्कर्ष के
किसी क्षण में
एकात्मता
घटित हो जाती
है। तंत्र का
पूरा प्रयास
यही है. काम—
भोग को
एकात्मता की
अनुभुति में
रूपांतरित कर
देना—क्योंकि
तुम्हारे लिए
यह एकात्म
होने का पहला
अनुभव होगा, और संबोधि
एकात्म होने
का अंतिम
अनुभव है।
गहरे संभोग
में तुम मिट
जाते हों—पुरुष
स्त्री की
भांति हो जाता
है, स्त्री
पुरुष की
भांति हो जाती
है, और
अनेक बार वे
अपनी भूमिकाएं
बदल लेते हैं।
और फिर एक पल आता
है जब तुम
दोनों एक
परिपूर्ण
लयबद्धता में
हो जाते हो, तब ऊर्जा का
एक वर्तुल उठ
जाता है, वह
दोनों नहीं
होता। उसको
अपना पहला
अनुभव बन जाने
दो। संबोधि का
आधारभूत
अनुभव पहली
झलक प्रेम है।
फिर एक दिन जब
तुम और समग्र
गहन
प्रेमालिंगन में
मिलते हो, यही
समाधि, एक्सटैसी
है। तब तुम
स्त्री या
पुरुष नहीं रह
जाते। इसलिए
बिलकुल आरंभ
से ही विभाजन
को गिराना आरंभ
कर दो।
पश्चिम
की चेतना में
यह विभाजन
बहुत, बहुत ही
मजबूत बन चुका
है, क्योंकि
पुरुष ने
स्त्री का
इतना अधिक दमन
किया है कि
स्त्री को
प्रतिरोध करना
पड़ता है। और
वह प्रतिरोध
तभी कर सकती
है जब वह अपने
स्त्री होने
के प्रति और—
और चेतन होती
चली जाए।
पश्चिम से तुम
जब मेरे पास
आते हो तो
तुम्हारे लिए
यह समझना कठिन
हो जाता है, किंतु तुमको
इस बात को
समझना पड़ेगा
और स्त्री—पुरुष
के विभाजन को
छोड़ना पडेगा।
बस मनुष्य बन
कर रहो। और
यहां मेरा
पूरा प्रयास
तुम्हें
तुम्हारा मौलिक
अस्तित्व बना
देना हैं, जो
स्त्री या
पुरुष कुछ भी
नहीं है।
अंतिम
प्रश्न:
मुझे
ऐसा प्रतीत
होता है कि
जैसे कि आपके
पास आने में
मेरा कोई
चुनाव नहीं
था। क्या कभी
हम वास्तव उन
चीजों को चून लेते
है जो हमारे जीवन
में घटित होती
है?
सामान्यत:
नहीं। आमतौर
से तुम रोबोट, एक
यांत्रिक
वस्तु की
भांति
आकस्मिक ढंग
से चलते—
फिरते हो। जब
तक कि तुम
पूर्णत:
जाग्रत न हो
जाओ तुम चुनाव
नहीं कर सकते।
और यहां एक
विरोधाभास
आता है तुम
जागरूक तभी हो
सकते हो जब
तुम चुनाव—शून्य
हो जाओ; और
तुम जागरूक हो
जाओ, तो
तुम चुनाव
करने में समर्थ
हो जाते हो।
तुम चुनाव कर
सकते हो—क्योंकि
जब तुम जागरूक
हो तभी तुम
निर्णय कर सकते
हो कि क्या
करना है और
क्या नहीं
करना है।
आमतौर पर तुम
करीब—करीब नशे
की अवस्था में
रहते हों—एक
निद्रागामी, जो कि तुम हो।
मैं
तुमको कुछ
कहानियां
सुनाता हूं।
एक
पादरी अपने मित्र
से
निराशापूर्वक
कह रहा था कि
उसकी साइकिल
चोरी हो गई है।
मित्र
ने कहा. ठीक है, तुम
आगामी रविवार
को अपने उपदेश
के लिए 'दस
आशाओं' को
विषय के रूप
में क्यों
नहीं चुनते? उनको
श्रद्धालुओं
के सम्मुख पढ़
कर सुना देना।
जब तुम उस आशा
को पढो जो
कहती है.
तुमको चोरी
नहीं करना
चाहिए, तब
रुक जाना और
धर्मसभा पर एक
दृष्टि डालना,
और यदि वह
चोर वहां
उपस्थित होगा
तो शायद उसके
चेहरे के
भावों से वह
पहचान में आ
जाएगा।
अगले
सप्ताह उसी
मित्र ने
पादरी को गांव
में साइकिल पर
भ्रमण करते
हुए देखा और
उसको रोक लिया, मैं
देख रहा हूं
कि तुम्हारी
साइकिल वापस
मिल गई है।
क्या मेरी राय
से काम बन गया?
ठीक
है,
पूरी तरह से
तो नहीं, पादरी
ने कहा, मैंने
दस आशाओं पर
बोलना आरंभ कर
दिया था लेकिन
जब मैंने पढ़ा :
तुमको
वेश्यागमन
नहीं करना चाहिए,
तब मुझे याद
आ गया कि मैं
अपनी साइकिल
कहां छोड़ आया
था।
एक
दूसरी कहानी :
एक
प्रतिष्ठित
व्यवसायी
चिकित्सक के
पास गया, डाक्टर
साहब, उसने
कहा. मुझको
आपसे अपने
पुत्र के बारे
में बात करनी
है। मुझे
विश्वास है कि
उसको खसरा हो
गया है।
आजकल
इस बीमारी का
प्रकोप बहुत
अधिक है, डाक्टर
ने कहा. लगता
है कोई भी
परिवार इससे
बच नहीं पा रहा
है।
लेकिन
डाक्टर साहब, उसने
कहना जारी रखा,
मेरा लड़का
कहता है कि
उसे यह बीमारी
नौकरानी का
चुंबन लेने से
लगी है। और
आपको सच्ची
बात बता दूं
मुझको भय है
कि मुझको इसी
बीमारी का
खतरा है.। और
बुरी बात तो
यह है कि प्रत्येक
रात्रि को मैं
अपनी पत्नी का
चुंबन लिया
करता हूं
इसलिए उसे भी
बीमारी हो
जाने का खतरा
है।
ओह
मेरे भगवान!
डाक्टर ने
कहा. मुझे
क्षमा करें
महोदय, मुझे
तुंरत जाना है
और अपने गले
की जांच करवानी
है।
समझ
गए?
प्रत्येक
व्यक्ति
अचेतनता के एक
वर्तुल में घूम
रहा है, और
लोग अपनी
बीमारियों, रोगों, अपनी
बेहोशियों का
लेन—देन कर
रहे हैं, एक—दूसरे
के साथ केवल
अपनी अचेतनता
बांट रहे हैं।
आमतौर
से तुम इस
भांति जीते हो
जैसे कि तुम
सोए हुए हो।
जब तुम सोए
हुए हो तब तुम
निर्णय नहीं
ले सकते। कैसे
निर्णय लोगे
तुम?
बुद्ध
के पास एक
व्यक्ति आया
और उसने कहा, 'मैं
मानवता की
सेवा करना
चाहता हूं।’ अवश्य ही वह
बहुत
लोकोपकारी
व्यक्ति रहा
होगा। बुद्ध
ने उसकी ओर
देखा, और
कहा जाता है
कि बुद्ध की आंखों
से आंसू छलक
पड़े। यह
विचित्र बात
थी। बुद्ध रो
रहे हैं।—किसलिए?
उस व्यक्ति
को बहुत
बेचैनी अनुभव
हुई। उसने कहा
: आप किसलिए रो
रहे हैं? क्या
मैंने कुछ गलत
कह दिया है? बुद्ध ने
कहा नहीं, कुछ
गलत नहीं कहा।
लेकिन तुम
मानवता की
सेवा किस
प्रकार कर
सकते हो? —अभी
तो तुम हो ही
नहीं। मुझको
दिखाई पड़ रहा
है कि तुम गहन
निद्रा में हो;
मैं
तुम्हारे
खर्राटे भी
सुन सकता हूं।
यही कारण है
कि मैं रो रहा
हूं। और तुम
मानवता की
सेवा करना
चाहते हो? पहली:
बात है, जागरूक,
सजग हो जाना।
पहली बात है, होना।
एक
बॉस अपनी
सुंदर किंतु
बहरी सचिव से
बहुत परेशान था, एक
सुबह तो वह
अपना आपा खो
बैठा। तुम फिर
से देर से आई
हो। वह गरज कर
बोला, तुम
उस अलार्म घड़ी
का प्रयोग
क्यों नहीं
करती जो मैंने
तुमको खरीद कर
दी थी?
लेकिन
मैं सदैव उसका
प्रयोग करती
हूं। उसने
विनम्रतापूर्वक
कहा,
हर रात्रि
अलार्म लगा कर
सोया करती हूं।
ठीक
है,
बॉस ने कहा,
जब अलार्म
बजता है तो
तुम जागती
क्यों नही?
लेकिन
वह सदैव उसी
समय बोलता है
जब मैं सो रही होती
हूं।
जो
हो रहा है वह
यही तो है।
तुम सो रहे हो, और
जब तुम सो रहे
हो तो अलार्म
घडी भी कुछ कर
नहीं सकती है।
क्या तुमने
कभी यह बात
नहीं देखी है
कि यदि तुम सो
रहे और अलार्म
घड़ी बजने लगे
तो तुम कोई
स्वप्न देखने
लगते हो ऐसा
स्वप्न कि तुम
एक मंदिर में
हो और मंदिर
की घंटियां बज
रही हैं? इस
तथ्य से बचाव
करने के लिए
कि अलार्म घड़ी
बज रही है, तुम
इसके चारों ओर
एक स्वप्न
निर्मित कर
लेते हो। और
तब निःसंदेह
तुम सोना जारी
रखते हो, अब
वहां कोई
अलार्म घड़ी
नहीं है। यही
तो है जो
तुम्हारे साथ
लगातार घट रहा
है। तुम मुझको
सुनते रहते हो,
लेकिन मैं
जानता हूं कि
तुम इसके
चारों ओर एक स्वप्न
निर्मित कर
लोगे। यदि तुम
मुझे सुनते हो
तो तुम्हें
जागना पड़ता है,
लेकिन
समस्या यह है
कि क्या तुम
मुझको सुनोगे?
या क्या जो
मैं कहता हूं
तुम उसके
चारों ओर कोई
स्वप्न
निर्मित कर लोगे?
और
तुम स्वप्न
निर्मित करते
हो। तुम समाधि
के बारे में
भी स्वप्न
निर्मित कर सकते
हो। तुम समाधि
के बारे में
स्वप्न देखना
आरंभ कर सकते
हो,
तुम मुझसे
चूक गए हो। और
लोग चूकते चले
जाते हैं।
संदेश की
व्याख्या
तुम्हें करनी
पड़ती है, यही
समस्या है।
मैंने
सुना है, एक
बड़ी कंपनी के
मालिक ने एक
सूचना—पट
खरीदा, जिस
पर लिखा था 'इसे अभी कर
लो।’ और
उसने इस सूचना—पट
को कार्यालय
में इस आशा
में लटका दिया
कि इससे 'उसके
कर्मचारियों
को काम त्वरित
ढंग से निपटाने
में प्रेरणा
मिलेगी। कुछ
दिन बाद उसके
एक' मित्र
ने पूछा कि
क्या उस सूचना—पट
को कोई प्रभाव
पड़ा? उस
ढंग से तो
नहीं जिस ढंग
से मैंने सोच
रखा था, बॉस
ने स्वीकार
किया। कैशियर
दस हजार डालर
लेकर भाग गया— 'इसे अभी कर
लो',—मुख्य
अभिलेख
अधीक्षक मेरी
निजी सचिव को
लेकर भाग गया— 'इसे अभी कर लो'
—तीनों
लिपिकों ने
वेतन वृद्धि
की मांग कर दी
है, टाइप
करने वाली ने
अपना पुराना
टाइपराइटर खिड़की
से बाहर फेंक
दिया है— 'इसे
अभी कर लो' —और
चपरासी ने
लगता है कि..
.मेरी कॉफी
में... आह.. .जहर
मिला दिया... आह!
तुम
अपनी निद्रा
की अवस्था के
माध्यम से
सुनते हो, तुम
अपने स्वयं के
ढंग से इसक्तई
व्याख्या कर लोगे।
इसलिए यदि तुम
वास्तव में
मुझे सुनना
चाहते हो, तो
व्याख्या मत
करो।
अभी
उस रात को ही, एक
नये आए हुए
युवक ने
संन्यास लिया,
मैंने उससे
कहा, कुछ
दिन के लिए
यहां रहो। उसने
कहा लेकिन मैं
तो दो या तीन
दिन में जा
रहा हूं।
मैंने कहा
लेकिन यह ठीक
नहीं है। बहुत
कुछ किया जाना
शेष है, और
तुम तो बस अभी
आए हो। अभी तो
तुम्हारा
मुझसे संपर्क
भी नहीं हो
पाया है।
इसलिए कम से
कम आगामी
ध्यान शिविर
तक तो रुको और
कुछ दिन और
ठहरो। वह बोला,
मैं इसके
बारे में
विचार करूंगा।
तब मैंने उससे
कहा फिर तो
विचार करने की
कोई आवश्यकता
नहीं है, तुम
चले जाओ।
क्योंकि तुम
जो कुछ भी
सोचोगे वह गलत
ही होने वाला
है। और
संन्यास की
पूरी बात यही
है कि तुम
मेरी बात को, इसके बारे
में सोचे—विचारे
बिना सुनना
आरंभ कर दो। सारी
बात यही है कि
मैं तुमसे जो
कुछ भी कहूं वह
तुम्हारे लिए
तुम्हारे
स्वयं के मन
से अधिक महत्वपूर्ण
बन जाए।
संन्यास का
सारा
अभिप्राय यही
है। अब यदि, जो मैं कहता
हूं और
तुम्हारे मन
के बीच कोई संघर्ष
हो तो तुम
अपने मन को
छोड़ दोगे और
तुम मुझको सुन
लोगे। यही तो
खतरा है। यदि
तुम लगातार यह
निश्चित करने
के लिए कि जो मैं
कह रहा हूं
उसे किया जाना
है या नहीं, अपने मन का
उपयोग किए चले
जाते हो, तो
तुम जैसे तुम
थे वैसे ही
बने रहते हो।
तुम बाहर नहीं
निकलते। तुम
अपना हाथ मेरे
निकट नहीं
लाते, ताकि
मैं उसे थाम
सकूं।
आमतौर
से सभी कुछ
तुम्हारे साथ
घट रहा है, तुमने
कुछ भी नहीं
किया है।
'मुझे ऐसा
अनुभव होता है
जैसे कि आपके
पास आने में
मेरा कोई
चुनाव नहीं था।’
बिलकुल
सच है यह बात।
तुम किसी तरह
से भटकते हुए
आ गए हो। कोई
मित्र मेरे
पास आ रहा था
और उसने तुमसे
साथ चलने के
लिए कह दिया, या
तुम बस किसी
पुस्तकों की
दुकान में गए
थे और वहा
तुमको मेरी
कोई पुस्तक
मिल गई।
एक
संन्यासी आया
और मैंने उससे
पूछा, तुम
मुझसे मिलने
किस प्रकार से
आए? पहली
बार मुझमें
तुम्हारी
रुचि कैसे
जाग्रत हुई? उसने कहा
मैं गोआ में
समुद्र—तट पर
बैठा हुआ था, और बस रेत में
मुझे संन्यास
पत्रिका पड़ी
हुई दिखाई दी,
कोई
व्यक्ति उसे
वहां छोड़ गया
था। अब करने
को कुछ था भी
नहीं सो मैंने
उसे पढ़ना शुरू
कर दिया। इस
प्रकार से मैं
यहां पर आ गया।
आकस्मिक ढंग
से
तुम
मेरे पास
आकस्मिक ढंग
से आ गए हो, लेकिन
अब मेरे साथ
सजगतापूर्वक
रहने का, मेरे
साथ पूरे होश
से रहने का यह
एक अवसर है।
यह शुभ है कि
तुम आकस्मिक
रूप से मेरे
पास आ गए हो
लेकिन यहां पर
आकस्मिक ढंग
से मत रहो। अब
इस आकस्मिकपन
को छोड़ दो। अब
अपनी
जागरूकता का
स्वामी बनना
आरंभ करो।
अन्यथा फिर
कोई और पुन:
तुम्हें
आकस्मिक ढंग से
कहीं और ले
जाएगा।
पुन:
तुम भटकते हुए
मुझसे दूर हो
जाओगे—क्योंकि
जो यूं ही
भटकता हुआ आ
गया है उस पर
भरोसा नहीं
किया जा सकता
है। वह पुन:
भटक जाएगा, कुछ
और घटित हो
जाएगा। कोई
नेपाल जा रहा
है, और यह
खयाल' —तुमको
आएगा—क्यों न
नेपाल चला जाए?
और तुम
नेपाल चले
जाते हो। और
वहां तुम्हें
कोई
गर्लफ्रेंड
मिल जाती है, जो कि
संन्यास के
विरोध में है,
अब क्या
किया जाए? तुमको
अपना संन्यास
छोड़ना पड़ता है।
अब
जब कि तुम
यहां हो, तो इस
अवसर का उपयोग
कर लो, लोग
अवसरों का
नितांत अचेतन
ढंग से भी
उपयोग कर लेते
हैं। इसका
चेतन ढंग से
उपयोग कर लो।
मजिस्ट्रेट
ने पूछा : किस बात
ने तुमको
पत्नी को चोट
पहुंचाने के
लिए उकसाया था?
पति
ने कहा : योर
ऑनर,
उसकी पीठ
मेरी ओर थी, फ्राइंगपैन
हलका था, पिछला
दरवाजा खुला
हुआ था, और
मैं हलके नशे
में था, इसलिए
मैंने सोचा कि
मैं एक कोशिश
करूंगा।
लोग
अपने अवसरों
का अचेतन ढंग
से प्रयोग कर
लेते हैं। इस
अवसर का चेतन
ढंग से उपयोग
कर लो, क्योंकि
यह अवसर ऐसा
है कि इसका
प्रयोग केवल चैतन्यतापूर्वक
ही किया जा
सकता है।
आज
इतना ही।
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