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मंगलवार, 18 जून 2024

17 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक कुत्ते की आत्म कथा


अध्‍याय -17 

समय की गति

समय की गति मंथर जरूर थी, परंतु वह अपने में एकरसता कुछ मधुरता भी समाई साथसाथ चल रही थी। दीपावली के गुजर जाने के बाद हवा में थोड़ी ठंडक बढ़ गई थी। दिन के समय तो तेज धूप जो शरीर को ताप दे रही थी। परंतु उस में लेटने से अभी भी बहुत अच्छा महसूस होने लगा था। जो तपीस के साथसाथ एक अजीब तृप्‍ति का एहसास शरीर में भर रही थी। जो मेरे शरीर की थकावट के दर्द को भी कम कर रही थी। जैसेजैसे धूप में ताप कम होता जा रहा था, वह कितनी सुहावनी लगने लग जाती है। पहले जिस धूप में थोड़ी देर भी नहीं लेटबैठ पाता था, अब मैं उसमें घंटो लेटा रहता था। इसलिए हमारी जाति के प्रत्‍येक प्राणी को आप जून के महीने में भी धूप में लेटा हुआ देख सकते है। वैसे तो और बहुत प्राणी जो शीतल खून के होते है। जैसे मगरमच्छ या छिपकली उन्हें भी घंटाआधा घंटा धूप में रहना ही होता है। पर हमारा शरीर तो वैसे ही प्रकृति ने बालों रूपी कंबल से ढका रखा था। भारतीय जाति के हमारे भाई बहन तो कम और छोटे बाल ही लिए होते है। परंतु यूरोप या पहाड़ों के उन कुत्तों को आप देखे जहां पर बहुत बर्फ पड़ती है। उनके बाल कितने बड़े और घने होते है। प्रकृति भी कितनी समझदार है, प्रत्येक प्राणी को उसकी जरूरत के हिसाब से उसे देती है।

यही सब कुदरत प्रत्येक प्राणी को एक उपहार रूप में दे देती है, जो उसके जीने में सहयोगी होता है। देखिये ये कैसा चमत्‍कार था प्रकृति का। पर वो विदेशी हमारे भाई जब यहां गर्म परदेश में आ जाते है। तो उन्‍हें कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता होगा। अगर हम वहां ठंड में चले जाये तो वहां की ठिठुरन को हम सहन करने से पहले ही राम नाम सत्‍य हो जायेगा। खेर चलो दिल्‍ली का मौसम भी बहुत विचित्र रहता है। हर एक माह में अपना मिज़ाज बदल लेता है। शायद दिल्‍ली में जितनी ऋतु आती है। इतनी पूरी पृथ्‍वी पर कहीं भी नहीं देखी जाती। कभी राजस्थान के रेगिस्‍तान ने धक्‍के मारे तो दिल्‍ली तपने लग जाती है।

कभी बंगाल की खाड़ी से बादलों का तूफान उठा तो सब जल थल हो जाता है। और कभी हिमालय महाराज की श्वेत धवल बर्फ को छूकर हवा दिल्‍ली की हड्डियाँ तक को जमा जाती है। और इन सब के मध्य में एक पूर्णता होती है। जो आती ठंड और जाती गर्मी, या जाती ठंड और आती गर्मी के कारण कभी बसंत बन जाता है, तो कभी सावन। यहाँ की अरावली पर्वत माला...ही इस सब को वरदान के रूप में सब प्राणियों में वितरण करती है। चाहे वह यमुना का जल हो अंबर का प्रकाश।

टोनी के बिछड़ने के बाद मुझे अकेलापन कभी भी अचानक आकर घेर लेता था। इस का कोई समय या नियम नहीं था। जब भी मैं अकेला होता, टोनी की याद बहुत आती थी। शायद जिसे हम समजाति प्रेम भी कह सकते है। शायद अतृप्ति जिसे आप पूर्णता से उस समय नहीं जी पाते एक पछतावा भी कह सकते है। पहले तो मुझे वो अपना दुश्मन दिखाई देता था। वो भी किसलिए की ये सब मेरे हिस्‍से का भोजन कर जायेगा। अगर ये न होता तो मुझे और कितना खाने को मिलता। लेकिन अब तो खाना पड़ा रहता है। मुझे अंदर से मन मार कर उसे खाना पड़ता था। ये बात मेरी समझ में नहीं आई की उस समय मुझे इतनी भूख क्‍यों लगती थी। और इसी सब के कारण में टोनी को अपना दुश्मन समझता था। और आज पेट भरा है तो उसकी कमी खलती है। पेट भर खाना तो तब भी मिलता था। परंतु एक ईर्षा एक डाह एक जलन भी इसका कारण थी। स्थितियाँ भी हमारे चित को कैसे परिवर्तित कर देती है। ये मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। ये नियम शायद सभी प्राणियों पर लागू होता होगा। इसमें मनुष्‍य को भी अपवाद नहीं समझना चाहिए। अब में टोनी के साथ की भरपाई, कभी सो कर या कभी वरूण भैया के साथ खेल कर पूरी करने की कोशिश करता था। श्‍याम के समय मैं और वरूण भैया खुब मस्‍ती करते भाग दौड़ कर खुब खेलते थे। कभी वह पलंग पर चढ़ जाता और अब तो मैं एक ही छलांग में उसके पीछे वहां चढ़ जाता। मैं कभी भागकर उसका हाथ अपने मुंह से पकड़ लेता और कभी टाँग और गुस्‍से का दिखाव कर उसे डराने कि कोशिश करता। कभीकभी मेरी पकड़ थोड़ी तेज हो जाती। ये सब शायद मेरे दाँत जो अब बहुत बड़े और मजबूत हो गये थे।

उस समय थोड़े नये और तीखे थे। कभी तो मेरी पकड़ से वरूण भैया इतना डर जाता की मम्‍मी को आवाज देता। तब मैं समझ जाता की कुछ गलत हुआ है। ये सब मैं चाह कर रही नहीं कर रहा था। फिर कभी मैं उसका कपड़ा पकड़ता और मुझे क्रोध आ जाता। और वह उसे छुड़ाने की भरपूर कोशिश करता पर मेरी पकड़ के आगे लाचार हो जाता। सच कहूं तो उस पकड़ में मुझे क्रोध भी आ जाता था। उसके लाख जतन करने पर मैं छोड़ता नहीं था शायद मेरा मुख बंद हो जाता था। आखिर कार वह कपड़ा फट कर ही खेल खत्म होता था। पर ये सब हमारे खेल का हिस्‍सा ही था। और मैं देख रहा था की कल तक जो वरूण भैया मुझ को डरा देते थे अब मैं उस पर हावी होने लगा था। अपने साथ खेलते हुए ये सब साफ देख रहा था, कि मैं बड़ा हो रहा हूं। और वरूण भैया मुझसे पीछे छूट रहे थे। पर इस सब का कारण मेरी समझ के परे था। परंतु ये था एक आश्चर्य कि मैं जो पहले इतना छोटा था। जो कभी पापा जी के हाथ पर खड़ा हो जाता था। अचानक इस दौड़ में इतना बड़ा कैसे हो रहा हूं। ये सब हमें साझे परिवार की परम्परा से मिला होगा...की झूंड में जब बच्चा सबसे कमजोर होता है, फिर धीरेधीरे...वह अपने झूंड में अपने स्थान को ऊपर उठते देखता है। क्योंकि हमारी जाति भी एक झूंड में रहने वाले प्राणीयों की ही तो थी।

पहले मैं वरूण भैया के स्‍कूल बैग के अंदर छुप कर सो जाता था। पानी की उस टबरी में नहाते हुए पूरा का पूरा डूब जाता था। और आज देखो उसमें समाता भी नहीं। जब कि घर के दूसरे प्राणियों को देख रहा था वो लगभग उतने के उतने ही थे। तब में समझने की कोशिश करता ये रहस्‍य क्‍या है? पर उस समय ये सब मेरी समझ से परे था। और सच मानो मैं इसे समझना भी नहीं चाहता था। जो कुछ मेरे साथ ही हो रहा था मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। पर इस सब का एहसास मुझ जीवन के अंतिम दिनों में समझ आया था। जब मैं बूढ़ा और लाचार हो गया था। तब चारों और सब को देख रहा था। वह आज भी उतने ही जवान है। और जो बच्चे थे वो भी जवान हो रहे थे। शायद समय की गति जो हमारे और मनुष्‍य के शरीर की भिन्‍न थी। जो शरीर जिस गति से विकास करता है। वह उतनी जल्‍दी मिट भी जाता है। और हिमांशु भैया के पास एक छोटी सी साइकिल थी। जिस पर मैं जब छोटा था बैठ जाता तब कैसे डर के मारे उससे कूद पड़ता था। जल्‍दबाजी या भय के कारण जब मैं कूदता तो मेरी थूथन जमीन पर लगती और मैं प्यांऊ कर के भाग जाता था। सच उस साइकिल रूपी दानव की तो शकल भी मुझे नहीं भाती थी। उसे तो मैं देख कर ही डर जाता था। पर अब देखो मैं उस पर दोनों पैर रख कर खड़ा हो जाता हूं। और भैया चाह कर भी उस पर मुझे बिठा नहीं पाते क्‍योंकि मैं बहुत बड़ा और तगड़ा हो गया था।

अब भैया अपनी साइकिल पर बैठ कर मेरे साथ दौड़ लगाते पर ये सब दौड़ जीतना तो मेरे दाएं हाथ का खेल बन कर रह गया था। वो चूँ....चूँ साइकिल अब कहां मुझे पकड़ सकती थी। इस बात का पता तो जंगल में जाकर लगा। जब एक दिन मेरी दौड़ वरूण भैया और पापा जी के साथ भी हुई थी। और चमत्कार देखो मैंने सब को पीछे छोड़ दिया। उस दिन मुझे अपने पर कितना गर्व महसूस हो रहा था। और सब लोगों ने मेरी कितनी तारीफ करकर के मुझे शाबासी दे रहे थे। दीदी और हिमांशु भैया तो मेरे मुलायम बालों पर हाथ फेर कर मुझे प्‍यार कर रहे थे। तब फूली सांसों और फटे मुख से मैं जोरजोर से ठंडी साँसे ले कर अपने बदन की गर्मी कम करने की कोशिश कर रहा था।

मेरी जीभ से लार जरूर टपक रही थी। पर एक जीत की खुशी थी। जिसे मैंने पहली बार महसूस किया था। कि मैं किसी एक काम में तो मनुष्‍य से महान हूं, और मेरे अंदर एक उमंग और उत्साह जोर मारने लगा। यही छोटीछोटी घटनाएं मुझे बता रही थी कि मैं जवान और ताकत वर होता जा रहा हूं। पहले मैं घर का नाजुक और छोड़ा प्राणी था जो बढ़ कर अपना स्‍थान और रुतबा बढ़ा रहा था।

फिर अचानक एक दिन वरूण भैया के लिए बड़ी साइकिल आ गई। मैं उसके रंग और आकर को देख कर बहुत प्रसन्‍न हो रहा था। और सही मायने में वह प्रसन्नता का कारण भी थी। क्‍योंकि इतनी बड़ी साइकिल को घर में चलाया नहीं जा सकता। और कही बहार चलाने जायेगे तो मैं भी साथ जा सकता था। और मजे से दौड़ सकता था। एक प्रकार का जंगली पन मुझे घर रहने नहीं दे रहा था। यहां किसी बात की कोई कम नहीं थी। न ही कोई बंधन ही था। मुझे यहां कभी चेन से बांधा नहीं गया था। मैं हमेशा यहां स्वतंत्र था कहीं जाकर सो सकता जा आ सकता था। पर एक आवारा पन जो मेरे खून में था। बो हमेशा धक्‍के मारता ही रहा था। जब भी कहीं बहार जाने की बात या घूमने की बात चलती तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था।

श्‍याम को सबने साइकिल चलाने का प्रोग्राम बनाया। साइकिल किसी को चलानी नहीं आती थी। सो अब ये तो बड़ी मुश्किल बात थी। पर ये सब मेरी मुसीबत नहीं थी। मुझे तो देरी होने के कारण बेचैनी हो रही थी। की ये लोग जल्‍दी क्‍यों नहीं करते। दीदी को साइकिल पैदल चलाने के लिए दे दी गई। और पापा जी मुझे चेन से बाँध कर आपने साथ चल पड़े। हिमांशु बारबार जिद कर रहा था कि मैं साइकिल पर बैठूंगा। पर दीदी ने उसे मना कर दिया। गांव को पार कर के जंगल का कच्‍चा रास्ता आ गया। अब मुझे गाड़ी और सड़क से कोई खतरा नहीं था सो मुझे खोल दिया गया। और पापा जी ने साइकिल को अपने हाथ में ले लिए।

फिर भी समस्‍या वहीं की वहीं थी। हम पांच और साइकिल एक। सब तो एक साथ बैठ नहीं सकते थे। सो पापा जी ने पहले हिमांशु भैया को सीट पर बैठ कर उसके हैंडल पकड़ कर सम्हालने को कहा। और पीछे से खुद पकड़े रहे और हिमांशु भैया बड़े गर्व से साइकिल का हैंडल सम्हालते रहे। और साइकिल चल रही थी। अब ये सब दीदीऔर वरूण भैया देख कर सोच रहे थे कि हमसे पहले तो हिमांशु साइकिल चलाना सिख गया है। पर ये उनका भ्रम था। क्‍योंकि पापा जी पीछे से साइकिल को खुद सम्हाल हुए थे। जंगल पार कर के अचानक एक बहुत पुरानी सड़क आ गई शायद यह अँग्रेजों की बनवाई हुई थी। इस पर आज कोई गाड़ी घोड़ा नहीं आता था।

लेकिन किसी समय दिल्‍ली छावनी जाने के लिए अंग्रेज इसी सड़क का उपयोग करते थे। अब तो उस पर जहां तहां जंगली पेड़पौधों ने अपना अधिकार जमा लिया था। अब वरूण भैया बारबार जिद कर रहे थे की अब मेरी बारी। आखिर हिमांशु भैया को उतार कर वरूण भैया को साइकिल का सिंहासन सोप दिया गया। देखें वो कितना बड़ा पाईलेट बनता है। पापा जी ने साइकिल को पीछे से पकड़ रखा था, हां एक बात थी जिन पैडल तक हिमांशु भैया के पैर नहीं पहुंच पा रहे थे।

वहां पर वरूण भैया के पैर पहुंच  रहे थे। जिसके कारण वह खुद ही साइकिल को पैडल मार कर चला रहा था। ये सब देख कर मुझे अचरज हो रहा था। कि मनुष्‍य के विकास क्रम ये उनके परस्‍पर आपस में देने का भी हाथ है। उनके पूर्वजों ने जो विकास किया है या जो जान है वो आने वाली पीढ़ी को उपहार स्वरूप दे जाते है। और हम पशुओ को क ख ग से प्रत्‍येक जन्‍म में शुरू करना होता है। जो कुछ भी जीना समझा है आपकी अपनी पूंजी है। चाहे वह सड़क पार करना हो या किसी से लड़ना झगड़ना या तो आप जीते या ये अनुभव ले कर मर गये तो फिर शुरू करो। परंतु मनुष्‍य ने जो भी खोजा वह उसने आने वाली पीढ़ी को दे दिया। मैं इस समय स्थूल खोज की बात कर रहा था। फिर भी मनुष्‍य इस बात को भूल जाता है। की आज न जाने कितने छोटे बड़ काम हो जो मेरे पूर्वजों ने मेहनत और अपना जीवन देखकर उसे खोजा वह हमें अनायास ही मिल गये थे। इसलिए यह मनुष्‍य भी अजीब प्राणी है, कभी न किसी का एहसान मानता। और नहीं मिले वरदान की कदर करता है वह सोचता है ये मैंने पैसे से प्राप्त किया है। बस पैसा ही महान है उसके के लिए मेहनत करता है। क्योंकि उस पैसे से सब वो खरीदा जा सकता है। जो बिना मेहनत के मिल जाए उसका कोई मूल्य नहीं चाहे वह जीवन ही क्‍यों न हो।

साइकिल बारबार इधर से उधर डोल रही थी। लग रहा था अभी गिरी की तभी गिरी। भले ही इसे वरण भैया चला रहे हो परंतु इसे पीछे से तो पापा जी पकड़े हुए थे। इसलिए वह गिर नहीं पा रही थी। वरूण भैया पैर से पैडल को दबाते और साइकिल उधर ही झुक जाती। फिर दूसरे पैर से पैडल को दबाते तो साइकिल इधर झुक जाती। काफी दूर तक ऐसे ही चलता रहा। मुझे ये सब ठीक नहीं लग रहा था। भैया इस तरह तो कभी भी गिर सकते थे। और ये भी क्‍या साइकिल चलाना पापा जी तो नाहक परेशान हो रहे है। तुम्हारे पीछे दौड़दौड कर। ऐसे वह कब तक चलते रहेंगे आपके पीछे।

परन्‍तु जो मैंने देखा वो अचरज था या एक चमत्‍कार था। पाप जी ने वरूण भैया को नीचे उतार दिया और खुद साइकिल पर बैठ गये। उनके कद और काठी के हिसाब से वह साइकिल थोड़ी छोटी थी। हम सब पापा जी को घेर कर खड़े हो गये। और पापा जी सब को समझाया की देखो जिधर साइकिल गिरती है, हम डर के मारे अगले हेंडल को दूरी तरफ कर देती है। जब की हमें उसी तरफ मोड़ना चाहिए। और पापा जी ने खड़ी साइकिल को कितनी ही देर तक गिरने नहीं दिया और न ही चलाया। खड़ेखड़े ही उस हेंडल से सम्हाले रहे। इस घटना को घटते हुए, इस सब को बच्‍चों के साथ मैं भी देख रहा था। परंतु इस सब का मैं फायदा नहीं उठा सकता था। पर बच्चों को ये बात पहली बार समझ में आ गई। जो की साइकिल चलाने का यहीं गूढ़ मंत्र था। साइकिल के विषय में तब बात मेरी समझ में आई की वह गिरती क्‍यों नहीं। अब पापा जी ने उसे चला कर भी दिखाया। और मैं पापा जी के साथ दौड़ने लगा। पापा जी ने साइकिल तेज कर दी बच्‍चे तो पीछे रह गये पर मैं साथ दौड़ता रहा। पापा जी और तेज करते रहे और मैं थकता गया और पापा जी मुझे बहुत दूर निकल गये। सब बच्‍चे भी पीछे अकेले रह गये थे, इस बात का भी मुझे फिकर था। कुछ इसलिए भी मैं चाह कर पापा जी के साथ दौड़ नहीं सका। पर साइकिल की गति के आगे तो मैं मात खा ही गया था। कुछ दिन पहले जो मेरे मन में जीत की खुशी थी वह आज काफुर हो गई। कुछ दूर और जा कर पापा जी ने साइकिल को मोड़ कर हमारी तरफ वापस आ गये। तब हम सब ने खुशी के मारे ताली बजा कर पापा जी का स्‍वागत किया था।

हम सब इस खेल से बहुत खुश थे। हां ये खेल ही था इसी कारण सब बच्‍चे और मैं उस में आनंद ले रहे थे। अगर साइकिल चलाना भी कोई काम होता तो हम कब के थक चूके होते। इस के बाद तो वरूण भैया साइकिल पर बैठे कुछ दूर तो पापा जी साथ चले पर अब बात बन गई थी। और वह देखते ही देखते खुद ही साइकिल चलाने लगा। पर अभी उसे चलानी और संभालनी भर आई थी। अभी कैसे उसे रोकना और उस से उतरना है ये काम बाकी था। क्‍योंकि वरूण भैया के पैर अभी जमीन तक नहीं जाते थे। पापा जी ने कितनी जल्दी साइकिल चलानी सिखाई ये मेरी समझ के बाहर की बात थी। वरूण भैया को इस तरह से साइकिल चलाते देख कर अब दीदी को भी लगा कि वह भी साइकिल चला सकती है। और ऐसा ही हुआ। दोनों बच्‍चों ने इस मुश्‍किल काम को कुछ ही देर में सीख लिया। ये सब पापा जी की समझबूझ और प्रेम के कारण हुआ था।

तब पापा जी ने सब को बतलाया की एक तो साइकिल चलाना और दूसरा तैरना मैंने कितने दोस्तों को एक ही घंटे में सिखा दिया था। और सच मैं पापा जी ने वो चमत्कार हमारे सामने कर के दिखलाया था। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या। वाली बात हो गई।

हम साइकिल चलाते हुए वार सिमेट्री के पास पहुंच  गये। कोटा पत्‍थर की बनी करीब तीस फिट ऊंचे आठ पाओ पर एक ताज की तरह से बना उसका दरवाजा कला का अद्भुत नमूना था। मुझे ऐसा लगा माना पार्लियामेंट के बचे पाये ही यहां पर इस्तेमाल हुए थे। या उन्‍हीं कलाकारों के हाथों ने यह जादू भी किया था। चारों तरफ फैली हरियाली, तरतीब से उगाये हुए गुलमोहर के पेड़ सामने वो विशाल पहाड़ी जो देखने में सुंदर प्रतीत हो रही थी। मन इस अद्भुत दृश्य को देख थोड़ी देर के लिए थिर हो गया था। दूर उसके पीछे कही रेलवे लाईन थी। जहां से अभीअभी किसी रेल गाड़ी के जाने की धड़धड़ की आवाज आ रहती थी। उस ऊँची पहाड़ी को देख कर मेरा मन कर रहा था की मैं भाग उस पर चढ़ जाऊं। दीदी और वरूण भैया बारीबारी से साइकिल चलाना सीखते रहे और मैं और हिमांशु भैया बोर हो रहे। हिमांशु भैया अभी छोटे थे चाह कर भी साइकिल चलाना नहीं सिख सकते थे। और मेरे तो हाथ पेर ही इस लायक नहीं बने थे। पर हम दोनों खोजियों को कुछ तो करना था। सो हम उस वार सिमेट्री के अंदर चले गये। वहां क्‍या देखते है। पत्‍थरों की कतारे ही कतारे बहुत एक लाईन से लगी थी।

वो सभी पत्थर एक फौजियों के अनुशासन की तरह खड़े थे। मानो उसके मरने के बाद भी वो मुक्‍त नहीं हुए थे इस नियम से। यह दिल्ली छावनी की वार सिमेट्री (स्मारक) असल में 19421945 के बीच मरे उन अंग्रेज सैनिकों की याद में बनाया गया था। जो रंगुन में शहीद हो गये थे। कितना विचित्र है ये देश अपने ही देश के लोगों को मारने वालों को शहीद कहता है। वहां पर जो मरे थे वह भारतीय आजाद हिन्द फौज के सिपाही थे। उनका तो कोई नाम लेने वाला भी नहीं है इस देश में। इन की आज तक पूजा होती है। किस गुलामी में ये देश जी रहा है आज भी। एक बार तो मैं उस दृश्य को देख कर डर गया। क्‍योंकि ऐसा दृश्य मैंने पहली बार देखा था। पर वहां की मुलायम और हरी घास मखमल की तरह से पैरों में गुदगुदाहट कर रही थी। इस पर मैं और हिमांशु भैया तो सब कुछ भूल कर दौड़ने और खेलने लगे। अचानक एक पत्थर के सामने कुछ फूल उगे थे। जिस देख कर हिमांशु भैया कुछ देर के लिए रुके और उन्‍हें तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि अचानक पीछे से पापा जी आवाज आई नहीं फूल को नहीं तोड़ना, पापा जी पेड़पौधों को बहुत प्‍यार करते थे। और हमारे पास आकर कहने लगे कि देखो ये फूल इस टहनी पर लगे कितने खुश है कितने सुंदर लग रहे है।

क्‍योंकि ये अपनी मां के साथ है। जब इस हम तोड़ लेते है। तो ये उससे अलग हो जाते है। और कुछ ही देर में उदास हो कर मुरझा जाते है। और फिर बेचारे मर जाते है। ये यहां पर कितने जीवित है, कितने प्रसन्न है। इस मिलने बिछड़ने कि पीड़ा को मैं भी झेल चुका था। मुझे मेरी मां की याद आ गई। इसलिए ये बात मेरी भी समझ में आई और शायद हिमांशु भैया ने भी अपना हाथ रोक लिया। ये बात उसकी समझ में आई या न आई परंतु उस दिन के बाद मैंने कभी भी हिमांशु भैया को किसी पेड़पौधे से फूल तो क्‍या किसी पत्‍ते को भी तोड़ते नहीं देखा।

कुछ देर में हम बाहर वारसिमेट्री की सीढ़ियों पर बैठ कर डूबते हुए सूरज को देख रहे थे। दीदी और वरूण भैया बारीबारी से उस खुले मैदान में अब साइकिल चला रहे थे। वह एक दूसरे की मदद कर के उतरना चढ़ना सिखा रहे थे। वार सिमेट्री के सामने जो पहाड़ी थी वह देखने में अति सुंदर लग रही थी। मेरा मन कर रहा था इस डूबते हुए सूरज को क्‍यों न उस पर चढ़ कर देखा जाये। और अचानक मेरे विचार पापा जी पढ़ लिए और हम तीनों उस पहाड़ी पर चढ़ने लगे। रास्‍ते कुछ उबड़ खाबड़ थे।

कहींकहीं तो पत्‍थर के एक दम किनारे से गुजरना पड़ रहा था। उस जगह से फिसल कर गिरने का डर लग जाता था। हिमांशु भैया की उँगली को पापा जी पकड़े हुए थे। ऊपर चढ़ कर उस उतंग चोटी से जो मैंने देखा तो देखता ही रह गया। नीचे वारसिमेट्री कितनी छोटी सी लग रही थी। मुझे यह देख कर बड़ा अचरज हुआ। कि यह इतनी छोटी कैसे हो गई। जैसे कि कोई खिलौना रखा हो। और भैयादीदी तो इतने छोटे लग रह थे जैसे कोई चींटी रेंग रही हो। हिमांशु भैया ने जोर से आवाज दे कर दीदी को बुलाया। पर शायद उसकी आवाज उनके कानों तक नहीं गई उसके बाद पापा जी ने आवाज दी, तब भी नहीं देखा हमें न दीदीभैया ने, अब की बार मेरी बारी थी।

मेरी भारी भरकम आवाज दूर वार सिमेट्री से टकरा कर मुझे खुद ही सुनाई दे रही थी। लग रहा था कोई दूसरा कुत्ता भोंक कर मुझे चिढ़ा रहा था। पर इसी बीच दीदी ने हमें देख कर हाथ हिलाया। मैंने खुशी के मारे पूछ हिलाई। पापा जी ने मुझे शाबाशी दी। परंतु आपने देखा प्रत्येक आवाज का भी अपना घनत्व होता है। मनुष्‍य की आवाज इतनी भारी नहीं होती की जमीन की और जा सके। उसकी ध्वनि ऊपर की तरफ गति करती है। और हम पशुओ की जमीन से छू कर गति करती है। इस रहस्‍य को मैंने आज जाना था।

दूर आसमान में सूर्य अपने घर जाने की तैयारी कर रहा था। उबड़खाबड़ दिखती उस पहाड़ी पर दूर तक जहां भी नजर जाती वहां हरियाली फैली थी। पर मेरी आंखें इतनी दूर तक देख और समझ नहीं पा रही थी। यहीं मनुष्‍य के शरीर और हमारे शरीर में भेद है। मुझे यह देख कर बड़ा अचरज होता था। ये मनुष्‍य इतनी दूर का देख और समझ कैसे सकता है। दूर आसमान में सूर्य को बादलों ने ढक लिया था। कुछ देर पहले तक नितांत अकेला सूर्य आसमान पर चमक रहा था। परंतु न जाने कहां से अचानक आकर आसमान को बादलों घेरना शुरू कर दिया था।

कहां से बन गए ये बादल पल भर पहले तो इनका नामों निशान नहीं था। मानो ये सूर्य को अपनी गोद में छूपाना चाहते है। ताकि वह अपने घर न जा पाए। फिर अचानक ये बादल डूबते सूर्य को देख कर उसे चारों और से क्यों घेर लेते है। फिर भी उसकी नारंगी रोशनी बादलों को भेदती हुई चारों और बिखर रही थी। कितना सुंदर दृश्य होता है, डूबते सूर्य को देखना परंतु आज एक नया अनुभव भी मुझे हुआ। जैसेजैसे सूर्य डूब रहा था....मन अंदर से एक उदासी से भर रहा था अकारण ही। जिसे मैं कभी समझ नहीं पाया। शायद ये सभी प्राणियों के साथ होता होगा। पेड़-पौधे, या जीव या मनुष्य। इस लिए देखा आपने श्याम के समय ही लोग शराब अधिक पीते है। आज के दिन गुजर गया आपको एक मृत्यु का आभास करा जाती है ये संध्या काल। दूर सूर्य भगवान अपने घर लोट रहे है और हमें दे जा रहे है एक उदासी।

परंतु अचानक पापा ने कुछ देखा और हम नीचे की और उतरने को कहा। चढ़ने से कही अधिक डर उतने में मुझे लग रहा था। क्योंकि उतरते हुए आपका सर नीचे की और हो जाता है। जिससे शरीर को संभालना थोड़ा कठिन होता है। पर एक बात जरूर है। चढ़ने में जितनी देर लगी थी उससे आधे समय में हम नीचे उतर गए थे। और थकावट भी बहुत कम हुई थी। हम जैसे ही नीचे उतरे दीदीभैया हमारे पास आ गये। पापा जी कुछ कहां और हम वार सिमेट्री की सीढ़ीयों की और चल दिये। उस समय मुझे चैन से बाँध दिया गया। ये मेरी समझ में नहीं आ रहा था। इस बार पापा जी और हिमांशु भैया उस साइकिल को लेकर कहीं चले गए थे।

कहां ये मेरी समझ के बाहर की बात थी। पर मैं रो कर साथ जाना चाहता था। शायद इसलिए पापा जी ने मुझे चेन से बाँध कर दीदी को पकड़ा दिया था कि ये मुर्ख जरूर हमारे पीछे आयेगा। दीदी और वरूण भैया मुझे समझा रहे थे। हिमांशु भैया गर्व से साइकिल पर बैठ कर मुझे देख रहे थे। और में उसे भोंक रहा था, इस बात का पता तो कुछ देर में चला जब पापा जी और हिमांशु भैया आइसक्रीम लेकर आये। वहां से कुछ ही फर्लांग की दूरी पर रेलवे फाटक है। वहीं पर खाने का सामान बेचने वाले खड़े रहते थे। जब मैंने उनके हाथ में आइसक्रीम देखी तो मारे खुशी के मैं पागल हो गया। पापा जी के आने बाद मुझे चैन से मुझे खोल दिया गया। सब बच्‍चों के साथसाथ पापा जी मेरे लिए भी एक आइसक्रीम का कप ले कर आए थे। चाहे मैं मनुष्‍य की तरह नहीं था फिर भी मैं इस परिवार का सदस्य था। पर इस बात का मुझे उस घर में कभी भी एहसास नहीं होने दिया गया की मैं कुत्ता हूं। जहां मेरा मन होता मैं बैठ सकता था। पर एक बात थी ताली दोनों हाथों से बजती है। मैं अकसर अपनी सीमा को पहचानता था। कभी खेलखेल में जरूर में सोने वाले पलंग पर चढ़ जाता था। वरना जो मेरा सोने का बिस्‍तरा अलग था, मैं हमेशा उसी पर ही सोता था। हां सोफा आदि पर मैं बैठने का अपना अधिकार समझता था।

कई घंटे से हम खेलते और दौड़ते रहे थे। कुछ थकावट तो महसूस हो ही रही थी। मेरा कप पापा जी ने मेरे सामने रख दिया। मैंने खुशी के मारे अपनी पूछ हिलाई और पापा जी को धन्‍यवाद दिया। ये ठंडी और मीठी अजीब सी चीज थी। ये आदमी भी क्‍या चमत्‍कार है इस ने खाने के लिए क्‍याक्‍या स्वादिष्ट चीजे बना ली थी। शायद हमारी वफादारी और गुलामी का एक कारण हमारी जीभ भी थी। इसलिए आपने एक कहावत जरूर सूनी होगी ‘’खाने का कुत्‍ता’’ खेर लोग कुछ भी सोचे पर मनुष्‍य के लिए हमारा मन एक दम से साफ था। हम उसे प्‍यार भी करते है और उस पर विश्वास भी। सब अपनीअपनी आइसक्रीम खा कर अति प्रसन्न थे। मैं अपनी आइसक्रीम खा कर दीदी के समाने जाकर बैठ गया। दीदी ने प्यार से एक चम्मच आइसक्रीम मेरे कप में डाल दी। न जाने क्यों हमें अपनी मिली चीज उतनी तृप्ति नहीं देती जितनी प्यार से मिली एक बूंद दे जाती है। इस भेद भर रहस्य को मैं कभी समझ नहीं पाया था। अपने कप से जो तृप्ति नहीं हुई वह दीदी की एक चम्मच आइसक्रीम से हो गई। सब ने पानी की बोतल से हाथ धोए..दीदी ने हाथ के चलु में पानी रख कर मेरे सामने किया मैं लाड़ से जीभ मार कर उसे ग्रहण किया। और अब घर चलने की तैयारी शुरू हो गई। घर की और जाते समय मुझे चेन से बाँध कर दीदी ने मुझे पकड़ रखा था। मैं चेन से बांधा हुआ दीदी के साथ खुशखुश चल रहा था। वैसे तो वहां पर पक्‍का तारकोल का रोड बना था। पर वहां पर गाड़ियों की आवाजाहि बहुत कम थी। क्‍योंकि वह इलाका दिल्‍ली छावनी के आधीन आता था। इसलिए वहां दौड़ना साइकिल चलाना सुरक्षित था। पर इस समय रात घिरने लगी थी। इसलिए हम सब साथ चल रहे थे। क्योंकि गांव के पास के जंगल से होकर ही तो हमें गांव जाना था।

दूर जंगल से गीदड़ों के रोने की आवाज आ रही थी। जिसे सुन कर कम से कम मैं तो थोड़ा डर जाता था। पर अपने को किसी मनुष्‍य के हाथों में सुरक्षित बंधा हुआ जान कर मुझे अच्‍छा लग रहा था। घर आतेआते काफी रात हो गई थी। पर पापा के साथ होने के कारण किसी को भी कोई भय नहीं था। घर आकर मैं इतना थक जाता था कि कुछ खाता भी नहीं था। और रात भर एक दम मस्‍त नींद आती थी। इतनी गहरी नींद की मानो मैं मर गया हूं..

आज का दिन भी कितना न्यारा और प्यारा गुजरा...उसके लिए परमात्मा के साथसाथ इस परिवार को प्रेम आभार...नमन।

भू...... भू...... भू.......

आज इतना ही। 

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