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रविवार, 20 जुलाई 2025

मां- (उपन्यास) - मनसा-मोहनी दसघरा



 

     मां

                                (एक जीवन यात्रा)

अध्याय-01

मां का घर का नाम तो वैसे कृष्णा प्यारी था। परंतु देहाती भाषा में उसे किशनो प्यारी ही कहते थे। वैसे मां ने अपने हाथ पर जो नाम गुदवा रखा था उस में भी लिखा था किशनो प्यारी। उनके उस नाम लिखे हाथ को मैं बार-बार बचपन से ही गुदा हुआ देखता आया था। परंतु वक्त ने उसे धीरे-धीरे चमड़ी के साथ-साथ उसके आकार-प्रकार को भी धुंधला कर दिया था। और मां के अंत समय में तो जब उनके पूरे हाथ पर झुर्रियां पड़ गयी थी तब तो उस नाम को चिन्हित भी करना अति कठिन था। एक तो हाथ पर पड़ी उम्र की झुर्रियां,  जिससे चमड़ी आलू की तरह मुरझा गई थी। उस पर सिमटती उड़ती उस शाही का रंग। जो अब उनके हाथ पर खोजना भी अति कठिन हो रहा था। फिर भी मैं उसे बार-बार जब उस नाम को देखने की जिद करता तो मां कहती तू तो पागल है। अब इसे कहां पढ़ा जा सकता है। मैं उस नाम में गुदे उन शब्दों को  जोड़ने की हमेशा भरसक कोशिश करता ही रहता था।

मां का जन्म आज जो गुरु ग्राम, है यानि उस जमाने में उसे गुड़गांव कहा जाता था। उसी के पास सटा हुआ एक छोटा सा गांव हैं खांड़सा उसी सुंदर से गांव में हुआ था। वैसे तो खांड़सा गांव के पास खेती बाड़ी की जमीन का रकबा बहुत बड़ा था। दूर मीलों पार जो दादी का गांव था झाड़सा उसकी से सीमा मिलती थी। परंतु वो जमाना और था, साधन और पानी के आभाव में अधिक धरती तो परती पड़ी ही रह जाती थी।

वैसे तो मेरा बचपन से ही बहुत कम जाना हुआ मेरा मां के गांव में। क्योंकि मां के परिवार की हालत कुछ ठीक नहीं थी। हमारे नाना जी बहुत कम उम्र में ही गुजर गये थे। जिससे दोनों मामा की उम्र कम होने के कारण और भी परिवार की हालत बद से बदतर हो गई थी। अब मां ही वहां बहुत कम जाती थी, तब हमारा  वहां जाना न के बराबर हुआ था। बस वहां बचपन की कुछ ही यादें है वहां की जो मस्तिष्क में समाई हुई है। बचपन में जब हम मां के गांव जाने की कुछ घटना आज भी याद है। जब मैं अपने चचेरे मां के लड़के की शादी में गया तब मेरे छोटे मामा की शादी हुए कुछ ही दिन हुए थे। इस लिए हमारी मामी एक दम से हमारे साथ घूल-मिल कर खेलती थी। हालांकि हमारी नानी तब जीवित थी। वह उसे डाटती भी थी की तुम क्या बच्चों के साथ बच्ची बन जाती हो। परंतु सच ही हमारी मामी बहुत अच्छे स्वभाव और प्रेम वाली थी। आज न बातों को बीते कितने ही वर्ष बीत गए परंतु वह सुंदर आये आज भी एक दम से ताजा थी।

दूसरी याद तब की है जब हमारी मामी के घर पहला बच्चा हुआ तो मां को जापे (बच्चा होने में)  के लिए नानी ने बुलाया था। तब मेरी आयु करीब आठ साल रही होगी। मैं बचपन से ही मां की तरह से राजसी परवर्ती का रहा हूं। यानि बहुत उर्जा मेरे पास होती थी। इसलिए जब सब खेतों में काम करते तो। मेरे लिए तो वह काम एक खेल ही होता था। यानि की हल चलने के बाद फटी हुई घास को इकट्ठा करना। क्योंकि सालों से जमीन परती पड़ी हुई थी इस लिए वहां हर साल घास उग आती थी। उसे कितना ही निकालो परंतु उसके जड़े तो सालों से अपना प्रभुत्व जमाये हुए थी। इतनी जल्दी पीछा छोड़ने वाली नहीं थी।  खेत में काम करते हुए मेरा धूप में लाल मुख हो जाता था। मानों गालों को किसी ने लाली से रंग दिया हो। मां का और पिता का रंग बहुत गोरा था। इस लिए हमारे परिवार में सब बहुत गोरे थे। तब काम खत्म हो जाता तो, मैं पास की नहर में नहाने के लिए चला जाता। मुझे यूं वहां जाते देख कर लगता मां कुछ कहना चाहती थी। परंतु केवल  मां हंस भर देती थी। मैं जानता था की मां को तैरने का बहुत शोक है। शायद उसे अपने दिन याद आ जाते होंगे। मैं जाते-जाते अचानक मुड़ कर कहता की मां चलो नद्दी में नहा कर आते है। वह एक बार मुझे देखती दूसरी और मामा जी ताक कर आज्ञा चाहती। तब मामा जी केवल हंस भर देते। एक शब्द भी नहीं कहते थे। छोटे मामा मां से बहुत छोटे थे करीब दस साल। वह हंस देते क्योंकि वह मां का बहुत सम्मान करते थे। उसे मां की तरह से ही मानते थे। और मां मामा की मुस्कान के साथ बच्ची बन जाती।  बस फिर क्या था हम दोनों वहां से तेजी दौड़ते नदी की और। और मां तो मुझ से भी पहले नदी में छलांग लगा देती थी। क्योंकि उसे तो कपड़े भी नहीं उतारने होते थे। वह कपड़ों समेत नहाती थी।

फिर हम दोनों नदी में दूर तक तैरने चले जाते थे। सच ही मां बहुत अच्छी तैराक थी। जब वह तैरती थी तो लगता ही नहीं की वह ताकत लगा रही है। किस सहज और सरलता से वह तैरती थी। मानों पानी के साथ लयवदित हो रही हो। उसके साथ कोई जद्दोजहद नहीं करती थी। हम दूर तक तैरते चले जाते थे। मां मुझे यूं तैरता देख कर खुश होती थी। और कहती की तुझे बहुत अच्छा तैरना आता है। तब वह पूछती की किस से सीखा तूने तैरना। तब मैं कंधे उचका कर कह देता किसी से नहीं । तब मां को मुझ पर कितना गर्व होता था। उसे लगता की उसका एक अंश उसके जैसा ही तो है। सच घंटों तैरने के बाद भी मां थकती नहीं थी। परंतु उसे एक परेशानी यह रहती थी की उसके गीले कपड़ों का क्या किया जाये। तब मैंने उसे सुझाव दिया की कल से एक दूसरे जोड़ी कपड़े लेकर आया करेंगे। तब मां ने खुशी से गर्दन हिला दी। परंतु घर जाने के बाद नानी ने मां को बहुत डांटा की इतनी बूढ़ी हो गई है परंतु बचपना नहीं गया। और इस बच्चे को भी साथ डूबो देगी। परंतु मां केवल हंस भर देती। परंतु इस सब लड़ाई झगड़े से मुझे कुछ लेना देना नहीं होता था। इस बीच मामी जी मुझे आवाज दे कर अपने पास बूला लेती थी। और चुपके से एक बड़े से बेले में एक बड़ा सा सौंठ का लड्डू खाने को देती थी। मामी पास के दूसरे कमरे में अलग एक चारपाई पर रहती थी। क्योंकि मामी के पहला बच्चा हुआ था। इस लिए वहां पर कम ही लोग आते जाते थे। वह दबी जुबान में मुझसे कहती थी की अपनी नानी को मत कहना वरना मुझे डाटेगी। सच ही मुझे पानी में नहाने के कारण बहुत भूख लगी होती थी। बाद में मामी ने मुझे बतलाया की वह सौंठ का जो लड्डू मैं तुझे खाने को देती थी। उसके खाने के कारण मेरा मुख जलता था। खेर मैं तो उनका प्रेम हो मानता हूं, आज भी, चाहे कोई दूसरी बात हो न हो मुझे इस बात की जरा भी परवाह नहीं है। मुझे  तो वह मामी का प्रेम ही उस लड्डू में झलकता हुआ दिखाई देता था। और आज भी मन मानने को तैयार नहीं होता की मामी झूठ बोल कर मुझे प्रेम से वो लड्डू खाने को देती थी। वह जानती थी की मैं नदी में तैर कर आया हूं। और दूसरा खेत में भी बहुत काम किया था। तब भूख तो बहुत लगी होगी। क्योंकि लड़कपन में जब मनुष्य का शरीर विकास कर रहा होता है तो उसे बहुत पो स्टिक खाने की जरूरत होती है। ताकि वह अपना विकास सही तरह से कर सके।

मां के गांव में जाने के लिए हमें दूर गुरु गांव ही उतर कर पैदल ही जाना होता था। क्योंकि कम ही वहां पर बस चलती थी। फिर इतनी सी दूर के लिए भला कौन बस में चढ़ने उतरने की झंझट मोल ले। चार कदम ही तो है। कभी कभार कोई तांगे वाला मिल जाता था। जो मां को जानता होता था। वह रोक कर जबरदस्ती हमें तांगे मे बिठा लेता था। क्योंकि उस जमाने में गांव की लड़की पूरे गांव की लड़की होती थी। उस तांगे में हिलते ढलते चलना मानो शरीर का कोई व्यायाम कर रहे हो। परंतु मुझे उस में बढ़ना जरा भी नहीं भाता था। और मैं कुछ भी बहाना लगा कर उतर जाता था। मुझे लगता था नाहक ही हम पशु पर अत्याचार कर रहे है। जब भगवान दो टांगे दी है। मां लाख बुलाती परंतु में नहीं आता और तांगे के साथ-साथ चलता या दौड़ता रहता था।  परंतु मैंने देखा की अगर तांगा मां के गांव को होता तो वह पैसे नहीं लेता था। वह तो कहता तुम गांव की बेटी हो भला तुम से लेकर क्या मुझ नर्क में जान है। कैसे थे वो लोग उनके पास पैसा नहीं था फिर भी लालच नहीं करते थे। वह  हृदय से जीते थे। आज भी सालों बाद वे बाते इस लिए इतनी अपनी-अपनी सी लगती है क्योंकि वो ह्रदय  से कहीं गई थी और आज उन्हें ह्रदय से ही याद किया जा रहा है। मस्तिष्क जीवन में एक तनाव एक बेचैनी लेकर आया है। पहले के लोग शब्दों को नहीं पढ़ पाते थे चाहे परंतु वह विवेक वान थे।

एक बात और खांड़सा गांव की याद आति है। गांव के बाहर मैन सड़क जो गुड़गांव से होती हुई रेवाड़ी या उससे भी आगे जयपुर चली जाती है। उस समय हाईवे नहीं बना था। वहीं एक मात्र मार्ग था जिसे अंग्रेजी राज ने बनाया था। गांव के पास सड़क के किनारे पर एक बहुत उंचा सा स्तूप बना था। जिसे झंडे वाला कहा जाता था। क्योंकि उस पर एक झंडा भी लहरता रहता था। कहते है रगूंन की लड़ाई में इस गांव के पाँच जवान राजपूताना राई फल की और से लड़ते हुए शहीद हुए थे। ये झंडा वाला उन्हीं की याद में ये स्तूप बनवाया था अंग्रेजों ने। आज जब मैंने उसे 25 साल बाद देखा तो वह बहुत छोटा सा लग रहा था। न जाने क्यों ऐसा होता है। मन किसी तरह से कार्य करता ह। अपने गांव की पहाड़ी जो बचपन में बहुत गहरी खाने लगती थी। उनकी गहराई हमें बचपन में बहुत अधिक लगती थी। और आज बड़े होने पर वही गहरी खाने न जाने क्यों इतनी उथली-उथली लगती है। लेकिन बचपन में जब भी हम बच्चे मामा के गांव में उस झंडे वाले के आस पास खेलते थे तो वह बहुत बड़ा और उंचा दिखाई देता था। और ये कोई कल्पना नहीं थी। हम जब उसके आस पास ऊंच-नीच का खेल खेलते तो उस पर भाग कर चढ़ना भी अति कठिन होता था। उस समय मेरी उम्र करीब सात-आठ साल की तो रही होगी। तब क्या मन पर छपी वह छवि बहुत गहरे में अंकित रहती है। आज हम बड़े हो गये है। शरीर के साथ-साथ मन का भी तो विकास हुआ है। या आस पास के रेत मिट्टी ने उसे दबा दिया है। खेर खांड़सा एक छोटा सा गांव है। जिस में प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार की तरह से रहता था। सब एक दूसरे के दूख को जानते और जीते थे। ये भी एक चमत्कार है मेरी बड़ी मां (दादी) झाड़सा गांव की और मां खांडसा गांव की थी।

शायद मन का कार्य करना एक विचित्र रहस्य अपने में समेटे चलता है। वो प्रति छवि जो बचपन में मन पर अंकित हो जाती है। वह तो उसी अनुपात में रहती है। परंतु हमारा शरीर समय की गति पा कर बड़ा हो जाता है। जैसे की हमारे हाथ जब बचपन में खाने की कोई वस्तु पकड़ते थे तो वह कितनी बड़ी लगती थी। जैसे की लड्डू चाहे वह कितना ही छोटा क्यों ने हो परंतु बच्चे का हाथ कितना बड़ा होगा। वह उसे बहुत ही बड़ा दिखाई देता है। जैसे की वह कोई क्रिकेट की बॉल हो। हाथ तो बड़ा हो जाता है। परंतु स्मृति वही अटकी रह जाती है। इन सब वस्तुओं को जानने के लिए हमें मन का ही तो सहारा है। वहीं तो स्मृति अंकित करता चलता है।

ठीक इसी तरह से जब हम किसी पेड़ पर चढ़ते है तो वह टहनियां उस समय कितनी ऊंची लगती थी। और शरीर हलका होने के कारण पतली से पतली टहली पर जाकर फल तोड़ लेते थे। चाहे वह जामुन हो, शहतूत हो, पीपल की बरबंटी हो या नीम की निमोली हो। वैसे भी पेड़ तो अपने फलों को एक दम से  उतुंग फलूंगी पर जाकर लगता है। कम ही वृक्ष होते है जो तनों के साथ या उसके आस पास फल लगते है। जैसे पिलखन हो, या कटहल हो वह तो तने पर ही अपना फल चिपका लेता है। बचपन भी कैसा चमत्कार अपने में समेटे रहता है। एक विस्मय के साथ इस लिए मन भी कैसा है, उन मधुर स्मृतियों को कभी भूल नहीं पाता है।

खेर ये सब तो बचपन-बचपन ही बना रहे तो अति सुंदर लगता है। परंतु वक्त की गर्त उसे कैसे दबाती चली जाती है। जिसका बचपन जितना लम्बा रहता है, उसका जीवन सच ही बहुत सुंदर बिना किसी बाधा या तनाव के चलता रहता है। ये बात मैंने मां के जीवन से जानी है। वह कितनी भी उम्र की हो गई परंतु उसका बचपन कभी खत्म नहीं हुआ। किसी भी क्षण वह अपने बचपन को निकाल कर बच्चा बन जाती थी।

मनसा-मोहनी 

 

 

 

 

 

 

1 टिप्पणी:

  1. मां का जीवन पर चार शब्द-एक उपन्यास के रूप में लिख रहा हूं।

    मां के जीवन को शब्दों में पिरोने की लालसा बचपन से ही मैं ह्रदय में लिए चलता आ रहा हूं। परंतु वक्त ने उसे कभी कागज पर उतारने का साहस नहीं दिया। क्योंकि मां का जीवन अति विशाल था। उसे शब्दों में जब भी पिरोता तो वह बहुत छोटे हो जाते थे। सच ही जो भी हम कहना चाहते है उसे शब्दों में बाँधना अति कठिन हे। लगता है जो कहना चाहते थे वह तो दूर ही कहीं रह गया। और मन एकदम से खिन्न हो उठता है। खास कर जिसे आपने जाना और जीया हो। परंतु कल्पना के लिए ये सब आसान होता है।
    परंतु अब समय कम है जीवन के लिए, सो उसे लिखने का साहस कर रहा हूं।
    पहले मैंने अपने गांव के लिए चार शब्द लिखें-थे अपने गांव में बचपन से जो मैंने देखा था उसे कहानी के रूप में शब्दों में बांधा था। उसे पुस्तक रूप दिया जिसका नाम था। ‘दसघरा गांव की दस कहानियां’,
    फिर उसके बाद अपने कुत्ते को ले कर हमारा ओशो से जुड़ना और ओशोबा हाऊस का बनना या हमारे जीवन में ओशो का प्रवेश ये सब मैंने पोनी को माध्यम बना कर उस पुस्तक में मैंने लिखा है। जिस पुस्तक का नाम है, ‘’पोनी -एक कुत्ते की आत्म कथा’’

    उसके बाद मोहनी का दोबारा बीमार हो जाना। जो अंदर तक गहरे उतर गया। क्योंकि ध्यान की इस अवस्था पर आकर यूं इस तरह से भला कोई बीमार होता है। परंतु जीवन में जो घटना है वह तो घटना ही होता है। ये तो नियति है। इस से बचा नहीं जा सकता। हां इस भोगना का तरीका समय के साथ सरल वह सहज हो सकता है। की बीमारी को ले कर उसके जीवन पर ‘सदमा’ उपन्यास लिखा। अब मां को लेकर उसके जीवन को लिखने का साहस कर रहा हूं। मैं जानता हूं मैं उस के साथ न्याय नहीं करूंगा परंतु ना कुछ से तो कुछ तो सहीं ही लिखा जायेगा।

    अब मेरे हिम्मत जबाव नहीं देने वाली। मन चाहे कितना ही डरा ले। परंतु अब पहले दो अध्याय लिख दिये है। एक अध्याय आपके सामने परीक्षा के लिए लेकर आया हूं आप उस विषय पर कुछ भी कहें कमी हो तो जरूर बतलाये। क्योंकि अभी तो वह अपने हाथ में है उसे दूर किया जा सकता हे।
    मनसा-मोहनी दसघरा

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