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बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

एक एक कदम--(प्रवचन-07)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

संतति नियमन-प्रवचन-सातवां

मेरे प्रिय आत्मन्,
संतति-नियमन या परिवार नियोजन पर मैं कुछ कहूं, उसके पहले दोत्तीन बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा।
पहली बात तो यह कहना चाहूंगा कि आदमी एक ऐसा जानवर है जो इतिहास से कुछ भी सीखता नहीं। इतिहास लिखता है, इतिहास बनाता है, लेकिन इतिहास से कुछ सीखता नहीं है। और यह इसलिए सबसे पहले कहना चाहता हूं कि इतिहास की सारी खोजों ने जो सबसे बड़ी बात प्रमाणित की है, वह यह कि इस पृथ्वी पर बहुत-से प्राणियों की जातियां अपने को बढ़ा कर पूरी तरह नष्ट हो गईं। इस जमीन पर बहुत शक्तिशाली पशुओं का निवास था, लेकिन वे अपने को बढ़ा कर नष्ट हो गए।

एक एक कदम--(प्रवचन-06)

एक एक कदम (विविध)-ओशो
समाज परिवर्तन के चौराहे पर-प्रवचन-छठवां  

मेरे प्रिय आत्मन् ,
समाज परिवर्तन के चौराहे पर--इस संबंध में थोड़ी-सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। आज सबसे पहले यह आपसे कहना चाहूंगा कि समाज बाद में बदलता है, पहले मनुष्य का मन बदल जाता है। और हमारा दुर्भाग्य है कि समाज तो परिवर्तन के करीब पहुंच रहा है, लेकिन हमारा मन बदलने को बिलकुल भी राजी नहीं है। समाज के बदलने का सूत्र ही यही है कि पहले मन बदल जाए, क्योंकि समाज को बदलेगा कौन?
चेतना बदलती है पहले, व्यवस्था बदलती है बाद में। लेकिन हमारी चेतना बदलने को बिलकुल भी तैयार नहीं है। और बड़ा आश्चर्य तो तब होता है कि वे लोग, जो समाज को बदलने के लिए उत्सुक हैं, वे भी चेतना को बदलने के लिए उत्सुक नहीं हैं। शायद उन्हें पता ही नहीं है कि चेतना के बिना बदले समाज कैसे बदलेगा! और अगर चेतना के बिना बदले समाज बदल भी गया तो वह बदलाहट वैसी ही होगी, जैसा आदमी न बदले और सिर्फ वस्त्र बदल जाएं, कपड़े बदल जाएं। वह बदलाहट बहुत ऊपरी होगी और हमारे भीतर प्राणों की धारा पुरानी ही बनी रहेगी।

एक एक कदम--(प्रवचन-05)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

विचार क्रांति की आवश्यकता-प्रवचन-पांचवां
मेरे प्रिय आत्मन् ,
एक आदमी परदेस गया, एक ऐसे देश में जहां की वह भाषा नहीं समझता है और न उसकी भाषा ही दूसरे लोग समझते हैं। उस देश की राजधानी में एक बहुत बड़े महल के सामने खड़े होकर उसने किसी से पूछा, यह भवन किसका है? उस आदमी ने कहा, कैवत्सन। उस आदमी का मतलब था: मैं आपकी भाषा नहीं समझा। लेकिन उस परदेसी ने समझा कि किसी 'कैवत्सन' नाम के आदमी का यह मकान है। उसके मन में बड़ीर् ईष्या पकड़ी उस आदमी के प्रति जिसका नाम कैवत्सन था। इतना बड़ा भवन था, इतना बहुमूल्य भवन था, हजारों नौकर-चाकर आते-जाते थे, सारे भवन पर संगमरमर था! उसके मन में बड़ीर् ईष्या हुई कैवत्सन के प्रति। और कैवत्सन कोई था ही नहीं! उस आदमी ने सिर्फ इतना कहा था कि मैं समझा नहीं कि आप क्या पूछते हैं।

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

एक एक कदम--(प्रवचन-04 )

एक एक कदम (विविध)-ओशो

संगठन और धर्म—प्रवचन-चौथा

सुबह मैंने आपकी बातें सुनीं। उस संबंध में पहली बात तो यह जान लेनी जरूरी है कि धर्म का कोई भी संगठन नहीं होता है; न हो सकता है। और धर्म के कोई भी संगठन बनाने का परिणाम धर्म को नष्ट करना ही होगा। धर्म नितांत वैयक्तिक बात है, एक-एक व्यक्ति के जीवन में घटित होती है; संगठन और भीड़ से उसका कोई भी संबंध नहीं है।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि और तरह के संगठन नहीं हो सकते हैं। सामाजिक संगठन हो सकते हैं, शैक्षणिक संगठन हो सकते हैं, नैतिक-सांस्कृतिक संगठन हो सकते हैं, राजनैतिक संगठन हो सकते हैं। सिर्फ धार्मिक संगठन नहीं हो सकता है।
यह बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है कि अगर मेरे आस-पास इकट्ठे हुए मित्र कोई संगठन करना चाहते हैं, तो वह संगठन धार्मिक नहीं होगा। और उस संगठन में सम्मिलित हो जाने से कोई मनुष्य धार्मिक नहीं हो जाएगा। जैसे एक आदमी हिंदू होने से धार्मिक हो जाता है,

एक एक कदम--(प्रवचन-03)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

क्या भारत धार्मिक है?—प्रवचन—तीसरा
एक बहुत पुराने नगर में उतना ही पुराना एक चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि उस चर्च में भीतर जाने में भी प्रार्थना करने वाले भयभीत होते थे। उसके किसी भी क्षण गिर पड़ने की संभावना थी। आकाश में बादल गरजते थे, तो चर्च के अस्थिपंजर कंप जाते थे। हवाएं चलती थीं, तो लगता था, चर्च अब गिरा, अब गिरा!
ऐसे चर्च में कौन प्रवेश करता, कौन प्रार्थना करता? धीरे-धीरे उपासक आने बंद हो गए। चर्च के संरक्षकों ने कभी दीवार का पलस्तर बदला, कभी खिड़की बदली, कभी द्वार रंगे। लेकिन न द्वार रंगने से, न पलस्तर बदलने से, न कभी यहां ठीक कर देने से, वहां ठीक कर देने से वह चर्च इस योग्य हुआ कि उसे जीवित माना जा सके। वह मुर्दा ही बना रहा। लेकिन जब सारे उपासक आने बंद हो गए, तब चर्च के संरक्षकों को भी सोचना पड़ा, क्या करें?

एक एक कदम--(प्रवचन-02)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

जिज्ञासा साहस और अभीप्सा-प्रवचन-दूसरा  

अभी-अभी आपकी तरफ आने को घर से निकला। सूर्यमुखी के फूलों को सूर्य की ओर मुंह किए हुए देखा और स्मरण आया कि मनुष्य के जीवन का दुख यही है, मनुष्य की सारी पीड़ा, सारा संताप यही है कि वह अपना सूर्य की ओर मुंह नहीं कर पाता है। हम सारे लोग जीवन भर सत्य की ओर पीठ किए हुए खड़े रहते हैं। सूर्य की ओर जो भी पीठ करके खड़ा होगा उसकी खुद की छाया उसका अंधकार बन जाती है। जिसकी पीठ सूर्य की ओर होगी उसकी खुद की छाया उसके सामने पड़ेगी और उसका मार्ग अंधकारपूर्ण हो जाएगा। और जो सूर्य की ओर मुंह कर लेता है उसकी छाया उसके लिए विलीन हो जाती है तथा उसकी आंखें और उसका रास्ता आलोकित हो जाता है।

एक एक कदम--(प्रवचन-01)

एक एक कदम-ओशो

(विविध)
प्रवचन-पहला

कोई दो सौ वर्ष पहले, जापान में दो राज्यों में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था; हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी। थोड़ी कम नहीं थी, बहुत कम थी। दुश्मन के पास दस सैनिक थे, तो उसके पास एक सैनिक था। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है। और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर जाने से...उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है, जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती।