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सोमवार, 9 अप्रैल 2018

अजहू चेत गवांर-(पलटू दास)-प्रवचन-10

अनंत भजनों का फल : सुरित-प्रवचन-दसवां

दिनांक 30 जूलाई 1977, ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:
1-क्या भजन जब पूरा हो जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही सुरति है?

2-रामकृष्ण परमहंस अपने संन्यासियों को कामिनी और कांचन से दूर रहने के लिए सतत चेताते रहते थे। आप प्रगाढ़ता से भोगने को कहते हैं। इस फर्क का कारण क्या है?

3-जहां ज्ञानी मुक्ति या मोक्ष की महिमा बखानते हैं, वहां भक्त उत्सव और आनंद के गीत गाते हैं। ऐसा क्यों है?

4-आपने कहा कि तुम जो भी करोगे गलत ही करोगे, क्योंकि तुम गलत हो। ऐसी स्थिति में आप हमें साफ-साफ क्यों नहीं बताते कि हम क्या करें?

अजहू चेत गवांर-(पलटू दास)-प्रवचन-09

भक्ति आंसुओ से उठी एक पूकार-प्रवचन-नौवा

दिनांक 29 जुलाई, 1977 ओशो आश्रम पूना।
सारसूत्र:

सोई सती सराहिए, जरै पिया के साथ।।
जरै पिया के साथ, सोइ है नारि सयानी।
रहै चरन चित लाय, एक से और न जानी।।
जगत् करै उपहास, पिया का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाय, मेहर की चादर ओढ़ै।
ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारै भूख-पियास याद संग चलती स्वासा।।
रैन-दिवस बेरोस पिया के रंग में राती।
तन की सुधि है नाहिं, पिया संग बोलत जाती।। 
पलटू गुरु परसाद से किया पिया को हाथ।
सोई सती सराहिए, जरै पिया के साथ।।
तुझे पराई क्या परी अपनी आप निबेर।।

अजहू चेत गवांर-(पलटू दास)-प्रवचन-08

धर्म का जन्म..एकांत में—प्रवचन-आठवां

प्रशनसार-

1-क्या ध्यान की तरह भक्ति भी एकाकीपन से ही शुरू होती है?

2-पलटूदास जी कहते हैं : "लगन-महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम'। और नक्षत्र-विज्ञान कहता है कि लग्न-मुहूर्त से काम बनने की संभावना बढ़ जाती है?

3-काम पकने पर उसमें रुचि क्षीण होने लगती है। प्रेम पकने पर क्या होता है?

4-सब कुछ दांव पर लगा देने का क्या अर्थ है?

5-प्रबल जीवेषणा के होते हुए भी किस भांति भक्त को अपने हाथ से अपना सीस उतारना संभव होता है?

6-संत पलटूदास उसे गंवार कहते हैं जो जगत् की झूठी माया में फंसा है और उसे बेवकूफ, जो प्रेम की ओर कदम बढ़ाता है। फिर बुद्धिमान कौन है?

अजहू चेत गवांर-(पलटू दास)-प्रवचन-05


जीवन : एक बसंत की बेला—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 जुलाई, 1977;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:


क्या सोवै तू बावरी, चाला जात बसंत।।

चाला जात बसंत, कंत ना घर में आए।

धृग जीवन है तोर, कंत बिन दिवस गंवाए।।

गर्व गुमानी नारि फिरै जोवन की माती

खसम रहा है रूठि, नहीं तू पठवै पाती।।

लगै न तेरो चित्त, कंत को नाहिं मनावै।।

कापर करै सिंगार, फूल की सेज बिछावै।।

पलटू ऋतु भरि खेलि ले, फिर पछतावै अंत।

क्या सोवै तू बावरी, चाला जात बसंत।।7।।

शनिवार, 7 अप्रैल 2018

कहै कबीर मैं पूरा पाया--(प्रवचन-10)


एकांत की गरिमा—दसवां प्रवचन

प्रश्न-सार

1. संत परमात्मा की खोज में समाज और परिवार का छोड़ने जंगल क्यों चले जाते हैं?
2. आपके आश्रम में यदि कोई एक ही साधना पद्धति हो, तो क्या साधकों को ज्यादा सुविधा नहीं होगी?
3. एक मस्ती छा रही है, लेकिन भय लगता है कि यह खो तो नहीं जाएगी?
4. सती-प्रथा का आज क्या मूल्य है?
5. जीवन का अर्थ क्या है?

पहला प्रश्नः संत परमात्मा की खोज में समाज और परिवार को छोड़ कर जंगल में क्यों चले जाते हैं? कृपया समझाएं।

कहै कबीर मैं पूरा पाया--(प्रवचन-09 )


मन लागो यार फकीरी में—नौवां प्रवचन

सूत्र :

मन लागो मेरा यार फकीरी में।
जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाहिं अमीरी में।
भला बुरा सबको सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में।।
प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनी आइ सबूरी में।
हाथ में कूरी बगल में सोंटा, चारो दिसि जागीरी में।।
आखिरी यह तन खाक मिलेगा, कहा फिरत मगरूरी में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहब मिले सबूरी में।।

समझ देख मन मीत पियरवा, आसिक होकर सोना क्या करे।
पाया हो तो दे ले प्यारे, पाय-पाय फिर खोना क्या रे।।
जब अंखियन में नींद घनेरी, तकिया और बिछौना क्या रे।
कहै कबीर प्रेम का मारग, सिर देना तो रोना क्या रे।।

कहै कबीर मैं पूरा पाया--(प्रवचन-08)


प्रेम का अंतिम निखार-(परमात्मा)—आठवां प्रवचन


प्रश्न-सार
1. आप प्रेम को सर्वोपरि महिमा क्यों देते हैं?
2. अदृश्य और अश्राव्य परमात्मा कैसे दृश्य और श्राव्य बनता है?
3. कबीर--आप--बेबूझ हैं। बेबूझ में कैसे डूबें?
4. चैथा प्रश्नः आपका मूल संदेश क्या है?
5. मुझे आपका प्रेम है या नहीं इससे मुझे जरा भी आंच नहीं है।
6. आखिरी प्रश्नः प्रार्थना यानी क्या?


पहला प्रश्नः कमोबेश सभी संतों ने प्रेम की महिमा बताई है। लेकिन आपने प्रेम को गौरीशंकर पर आसीन कर दिया! क्या सच ही प्रेम इस महापद का अधिकारी है? और क्या अस्तित्व में प्रेम इतना अधिक स्थान घेरता है, जितना आप उसे देते हैं?

कहै कबीर मैं पूरा पाया--(प्रवचन-07 )


प्रभु-प्रीति कठिन-सातवां प्रवचन

 सूत्र :

साई से लगन कठिन है भाई।
जैसे पपीहा प्यासा बूंद का, पिया पिया रट लाई।।
प्यासे प्राण तरफै दिनराती, और नीर ना भाई।।
जैसे मिरगा सब्द-सनेही, सब्द सुनन को जाई।।
सब्द सुने और सत-प्राणदान दे, तनिको नाहिं डराई।
जैसे सती चढ़ी सत-ऊपर, पिया की राह मन भाई।।
पावक देखि डरै वह नाहीं, हंसते बैठे सदा माई।
छोड़ो तन अपने का आसा, निर्भय हवे गुन गाई।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, नाहिं तो जन्म नसाई।।

लोका जानि न भूलो भाई!
खालिक खलक खलक में खालिक, सब घर रह्यो समाई।

कहै कबीर मैं पूरा पाया--(प्रवचन-06)

सदगुरु की महत्ता-छठवां प्रवचन


 प्रश्न-सार

1. कबीर के इन दो विरोधाभासी वचनों पर आपका क्या कहना हैः
 राम ही मुक्ति के दाता हैं, सदगुरु तो केवल प्रभु-स्मरण जगाते हैं।
 हरि सुमिरै सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार।
2. मैं अपने दुखभरे अतीत को क्यों नहीं भूल पाता हूं?
3. क्या ममता और मेरेपन के भाव के बिना प्रेम संभव है?
4. संतों ने जीवन को दुखा की भांति क्यों निरूपित किया है? क्या यह दुखवाद उचित है?
5. आप आश्रम दूसरी जगह ले जा रहे हैं, तो पूना छोड़ आपके साथ चलूं या यहीं रुक कर काम करूं?

कहै कबीर मैं पूरा पाया-प्रवचन-05


क्या तेरा क्या मेरा-पांचवां प्रवचन


सूत्र :

रे यामै क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।
चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।
जैसे बनिए हाट पसारा, सब जग कासो सिरजनहारा।।
ये ले जारे वे ले गाड़े, इन दुखिइनि दोेऊ घर छाड़े।
कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई।।

मन तू पार उतर कहं जैहौं।
आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहों।।
नहिं तहं नीर नाव नहिं खेवट, ना गुन खैंचनहारा।
धरती-गगन-कल्प कछु नाहीं, ना कुछ वार न पारा।।
नहिं तन नहिं मन, नहीं अपनपौं, सुन्न में सुद्ध न पैहौ।
बलीवान होय पैठो घट में, वाहीं ठौंरें होइहौ।।
बार हि बार विचार देख मन, अन्त कहूं मत जैहो।
कहै कबीर सब छाड़ि कल्पना, ज्यों के त्यों ठहरैहौ।।

कहै कबीर मैं पूरा पाया--(प्रवचन-04 )


आनंद पर आस्था-चौथा प्रवचन


प्रश्न-सार

1. सच में ही आनंद बरस रहा है, या मैं कल्पना और अतिशयोक्ति कर रहा हूं?
2. मैं अकारण ही उदास क्यों रहता हूं?
3. यह पूछूं कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं?
4. प्रभु-खोज कहां से शुरू करूं?

पहला प्रश्नः मुझ पर आनंद की वर्षा हो रही है, उसके लिए आपको धन्यवाद देने की इच्छा होती है। लेकिन पता नहीं है कि सच में आनंद बरसता है या मैं कल्पना कर रहा हूं या अतिशयोक्ति कर रहा हूं!

मनुष्य का मन बड़ा उपद्रवी है। दुख हो तो भरोसा करता है और आनंद हो तो संदेह करता है। दुख पर कभी संदेह नहीं आता कि कहीं यह कल्पना तो नहीं है! दुख को तो तुम एकदम मान लेते हो--बड़ी निष्ठा, बड़ी श्रद्धा से। मैंने आदमी ही नहीं देखा, जो दुख पर संदेह करता आता हो कि मैं बहुत दुखी हूं, मुझे संदेह होता है कि सच में मैं दुखी हूं कि मैं कल्पना कर रहा हूं! कोई ऐसा कहता नहीं कि कहीं मैं दुख के संबंध में अतिशयोक्ति तो नहीं कर रहा!

कहै कबीर मैं पूरा पाया--(प्रवचन-03 )

कहै कबीर मैं पूरा पाया

तीसरा प्रवचन
साधो, सब्द साधना कीजै

सूत्र

साधो, सब्द साधना कीजै।
जेही सब्द ते प्रकट भए सब, सोइ सब्द गहि लीजै।।
सब्द गुरु सब्द सुन सिख भए, सब्द सो बिरला बूझै।
सोई सिष्य सोई गुुरु महातम, जेही अन्तर गति सूझै।।
सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब ठहरावै।
सब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै।।
सब्दै सुन सुन भेष धरत हैं, सब्दै कहै अनुरागी।
खट-दरसन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै वैरागी।।
सब्दै काया जग उतपानी, सब्दै केरि पसारा।
कहै कबीर जहं सब्द होत हैं, भवन भेद है न्यारा।।
कबीर सबद सरीर में, बिन गुण बाजै तंत।
बाहर भीतर भरि रह्या, ताथै छूटि भंरति।।
सब्द सब्द बहु अंतरा सार सब्द चित देय।
जा सब्दै साहब मिलै, सोई सब्द गहि लेय।।
सब्द बराबर धन नहीं, जो कोई जानै बोल
हीरा तो दामों मिलै, सब्दहिं मोल न तोल।।
सीतल सब्द उचारिए। अहम आनिए नाहिं।
तेरा प्रीतम तुज्झमें, सत्रु भी तुझ माहिं।।

कहै कबीर मैं पूरा पाया--(प्रवचन-02 )

कहै कबीर मैं पूरा पाया

दूसरा प्रवचन
शून्य में छलांग

प्रश्न-सार

1. मैं शून्य होता जा रहा हूं; अब क्या करूं?
2. कबीर का धर्म-गुरु की तरह व्यापक प्रभाव क्यों नहीं पड़ा?
3. दुख से मुक्ति कैसे मिले?
4. गुरु-कृपा कब मिलेगी मुझे?

पहला प्रश्नः मैं शून्य होता जा रहा हूं; अब क्या करूं?

भई, अब किए कुछ भी न हो सकेगा! थोड़ी देरी कर दी। थोड़े समय पहले कहते, तो कुछ किया जा सकता था। शून्य होने लगे--फिर कुछ किया नहीं जा सकता। करने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि शून्य तो पूर्ण का द्वार है।
तुम शून्य होओगे, तो ही परमात्मा तुम में प्रविष्ट हो सकेगा। तुम अपने से भरे हो, यही तो अड़चन है। पर खाली होने में डर लगता है। तुम्हारा प्रश्न सार्थक है, संगत है।
जब भी शून्यता आएगी, तो प्राण कंपते हैं; भय घेर लेता है। क्योंकि शून्यता ऐसी ही लगती है, जैसे मृत्यु; मृत्यु से भी ज्यादा। ज्ञानियों ने उसे महामृत्यु कहा है। क्योंकि मृत्यु में तो देह ही मरती है, शून्यता में तो तुम ही मर जाते हो।

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-01)


सावधान--पांडित्य से-पहला प्रवचन
दिनांक 21-09-1977 से 30-09-1077 तक
ओशो आश्रम पूना।

सूत्र

पंडित वाद बदंते झूठा।
राम कह्या दुनिया गति पावे, खांड कह्या मुख मीठा।।
पावक कह्या पांव ते दाझै, जल कहि तृषा बुझाई।
भोजन कह्या भूख जे भाजै, तो सब कोई तिरि जाई।।
नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबाहुं उड़ि जाय जंगल में, बहुरि न सुरतैं आनै।।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।
धन के कहे धनिक जो हो तो, निरधन रहत न कोई।।
सांची प्रीति विषतु माया सूं, हरि भगतन सुं हांसी।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ, बांध्यो जमपुर जासी।।

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-11)

अहिंसा-दर्शन--प्रवचन-ग्याहरवां

प्रिय चिदात्मन्,
मैं आपकी आंखों में झांकता हूं। एक पीड़ा, एक घना दुख, एक गहरा संताप, एंग्विश वहां मुझे दिखाई देते हैं। जीवन के प्रकाश और उत्फुल्लता को नहीं, वहां मैं जीवन-विरोधी अंधेरे और निराशा को घिरता हुआ अनुभव करता हूं। व्यक्तित्व के संगीत का नहीं, स्वरों की एक विषाद भरी अराजकता का वहां दर्शन होता है। सब सौंदर्य, सब लययुक्तता, सब अनुपात खंडित हो गए हैं। हम अपने को व्यक्ति, इंडिविजुअल कहें, शायद यह भी ठीक नहीं है। व्यक्ति होने के लिए एक केंद्र चाहिए, एक सुनिश्चित संगठन, क्रिस्टलाइजेशन चाहिए, वह नहीं है। उस व्यक्तित्व संगठन और केंद्रितता, इंडिविजुएशन के अभाव में हम केवल अराजकता, एनार्की में हैं।

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-10)

अहिंसा: आचरण नहीं, अनुभव है--(प्रवचन-दसवां)

  अहिंसा एक अनुभव है, सिद्धांत नहीं। और अनुभव के रास्ते बहुत भिन्न हैं, सिद्धांत को समझने के रास्ते बहुत भिन्न हैं..अक्सर विपरीत। सिद्धांत को समझना हो तो शास्त्र में चले जाएं, शब्द की यात्रा करें, तर्क का प्रयोग करें। अनुभव में गुजरना हो तो शब्द से, तर्क से, शास्त्र से क्या प्रयोजन है? सिद्धांत को शब्द के बिना नहीं जाना जा सकता और अनुभूति शब्द से कभी नहीं पाई गई। अनुभूति पाई जाती है निःशब्द में और सिद्धांत है शब्द में। दोनों के बीच विरोध है। जैसे ही अहिंसा सिद्धांत बन गई वैसे ही मर गई। फिर अहिंसा के अनुभव का क्या रास्ता हो सकता है?
अब महावीर जैसा या बुद्ध जैसा कोई व्यक्ति है तो उसके चारों तरफ जीवन में हमें बहुत कुछ दिखाई पड़ता है। जो हमें दिखाई पड़ता है, उसे हम पकड़ लेते हैं: महावीर कैसे चलते हैं, कैसे खाते हैं, क्या पहनते हैं, किस बात को हिंसा मानते हैं, किस बात को अहिंसा। महावीर के आचरण को देख कर हम निर्णय करते हैं और सोचते हैं कि वैसा आचरण अगर हम भी बना लें तो शायद जो अनुभव है वह मिल जाए।

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-09)

सत्य का अनुसंधान—(प्रवचन-नौवां)

मेरे प्रिय आत्मन्,
भगवान महावीर की पुण्य-स्मृति में थोड़े से शब्द आपसे कहूंगा तो मुझे आनंद होगा। सोचता थाक्या आपसे इस संबंध में कहूं! महावीर के संबंध में इतना कहा जाता हैइतना आप जानते होंगेइतना लिखा गया हैइतना पढ़ा जाता है। लेकिन फिर भी कुछ दुर्भाग्य की बात हैजो ऐसे व्यक्ति पैदा होते हैं जिन्हें हमें जानना चाहिएउन्हें हम करीब-करीब जानने से वंचित रह जाते हैं। उनसे हम परिचित नहीं हो पाते। और उनके अंतस्तल को भी हम नहीं देख पाते। पूजा करना एक बात है। आदर देना एक बात है। श्रद्धा से स्मरण करना एक बात है। लेकिन ज्ञान सेसमझ सेविवेक से जान लेनापहचान लेना बड़ी दूसरी बात है। महावीर की पूजा का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य है महावीर को समझने का।

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-08)

जीवन-चर्या के तीन सूत्र—(प्रवचन-आठवां)  

एक घटना से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। एक संन्यासी किसी अजनबी देश से गुजरता था। वह देश अग्निपूजकों का देश था। संन्यासी जब देश के भीतर प्रविष्ट हुआ तो पहले ही उसे जो गांव मिले--वह देख कर दंग रह गया--उन गांवों में रात अंधेरा था। उन गांवों में घरों में चूल्हे नहीं जलते थे। उन गांवों के लोग आग जलाना भी नहीं जानते थे। वह तो चकित रह गया। उसने सुना थावह अग्निपूजकों का देश है। वहां अग्नि को लोग पूजते जरूर थेलेकिन अग्नि को जलाना नहीं जानते थे।
उसने लोगों से बात की। उन लोगों ने कहाअग्नि अब नहीं जलतीवह सतयुग की बात हैपहले जलती थी। वे दिन बीत गए। यह कलियुग हैअब अग्नि जलने का कोई उपाय नहीं है। और फिर अग्नि सभी तो नहीं जला सकते! कोई महापुरुषकोई तीर्थंकरकोई ईश्वरपुत्रकोई अवतार अग्नि को जलाने में समर्थ होता है। हम साधारणजन अग्नि को कैसे जला सकते हैं! हम तो सिर्फ अग्नि की पूजा करते हैं।

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-07)

अंतस-जीवन की एक झलक--(प्रवचन--सातवां
)
 मेरे प्रिय आत्मन्,
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात को शुरू करना चाहूंगा।
एक फकीर, एक संन्यासी प्रभु की खोज में पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा था। वह किसी मार्गदर्शक की तलाश में था..कोई उसकी प्रेरणा बन सके, कोई उसे जीवन के रास्ते की दिशा बता सके। और आखिर उसे एक वृद्ध संन्यासी मिल गया राह पर ही, और वह उस वृद्ध संन्यासी के साथ सहयात्री हो गया।
लेकिन उस वृद्ध संन्यासी ने कहा कि मेरी एक शर्त है यदि मेरे साथ चलना हो तो। और वह शर्त यह है कि मैं जो कुछ भी करूं, तुम उसके संबंध में धैर्य रखोगे और प्रश्न नहीं उठा सकोगे। मैं जो कुछ भी करूं, उस संबंध में मैं ही न बताऊं, तब तक तुम पूछ नहीं सकोगे। अगर इतना धैर्य और संयम रख सको तो मेरे साथ चल सकते हो।

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-13


अप्रमाद—(प्रवचन—तेरहवां) 

दिनांक 17 नवंबर 1970, क्रास मैदान, बंबई

प्रश्नोत्तर :
 आचार्य श्री, अचेतन, समष्टि अचेतन और ब्रह्म अचेतन में जागने की साधना से गुजरते समय साधक को क्या-क्या बाधाएं आ सकती हैं तथा उनके निवारण के लिए साधक क्या-क्या सावधानियां रखें? कृपया इस पर प्रकाश डालें।
 जैसे कोई आदमी सागर की गहराइयों में उतरना चाहता हो और तट के किनारे बंधी हुई जंजीर को जोर से पकड़े हो और पूछता हो कि सागर की गहराई में मुझे जाना है, सागर की गहराई में जाने में क्या-क्या बाधाएं आ सकती हैं? तो उस आदमी को कहना पड़ेगा कि पहली बाधा तो यही है कि तुम तट पर बंधी हुई जंजीर को पकड़े हुए हो। दूसरी बाधा यह होगी कि तुम स्वयं ही सागर की गहराई में जाने के खिलाफ लड़ने लगो, तैरने लगो, बचने का उपाय करने लगो। और तीसरी बाधा यह होगी कि गहराई का अनुभव मृत्यु का अनुभव है। जितनी गहराई में जाओगे उतने ही खो जाओगे। अंतिम गहराई पर गहराई रह जाएगी, तुम न रहोगे। इसलिए यदि अपने को बचाने का थोड़ा-सा भी मोह है तो गहराई में जाना असंभव है।

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-12


तंत्र—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 16 नवंबर 1970, क्रास मैदान, बंबई

प्रश्नोत्तर :

आचार्य श्री, काम-ऊर्जा को ध्यान और समाधि की दिशा में रूपांतरित करने की साधना में तंत्र का क्या योगदान है? कृपया इसकी रूप-रेखा प्रस्तुत करें।

तंत्र अद्वैत दर्शन है। जीवन को उसकी समग्रता में तंत्र स्वीकार करता है--बुरे को भी, अशुभ को भी, अंधकार को भी। इसलिए नहीं कि अंधकार अंधकार रहे, इसलिए नहीं कि बुरा बुरा रहे, इसलिए नहीं कि अशुभ अशुभ रहे, बल्कि इसलिए कि अशुभ के भीतर भी रूपांतरित होकर शुभ होने की संभावना है। अंधकार भी निखर कर प्रकाश हो सकता है। और जिसे हम पदार्थ कहते हैं, वह भी अपनी परम गहराइयों में परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
तंत्र अद्वैत है। उस एक की ही स्वीकृति है। वह जो बुरा है, वह भी उस एक का ही रूप है। वह जो अशुभ है, वह भी उस एक का ही रूप है। तंत्र के मन में निंदा किसी की भी नहीं है। कंडेमनेशन है ही नहीं।

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-11


अकाम—(प्रवचन—ग्‍यारहवां) 

दिनांक 15 नवंबर 1970, क्रास मैदान, बंबई
प्रश्नोत्तर:

आचार्य श्री, मन की किन-किन स्थितियों के कारण यौन-ऊर्जा, सेक्स एनर्जी अधोगमित होती है, और मन की किन-किन स्थितियों के कारण यौन-ऊर्जा ऊर्ध्वगमित होती है? कृपया इस पर कुछ प्रकाश डालें।
 जीवन को उसके सभी स्तरों पर दो भांति देखा जा सकता है। दो पहलू हैं जीवन के। एक उसका पौदगलिक, मैटीरियल, पदार्थगत पहलू है, दूसरा उसका आत्मगत, स्प्रिचुअल पहलू है। यौन को भी दो दिशाओं से देखना आवश्यक है। एक तो यौन का जैविक, बायोलाजिकल पहलू है, पौदगलिक, पदार्थगत, शरीर से जुड़ा हुआ, शरीर के अणुओं से जुड़ा हुआ। दूसरा यौन का शक्तिगत, आत्मिक पहलू है, मन से, चेतना से जुड़ा हुआ।

इसलिए दो शब्दों को पहले समझ लें। एक तो जैविक ऊर्जा, जो मनुष्य के जीवकोष्ठों से संबंधित है, जिनके द्वारा व्यक्ति को शरीर उपलब्ध होता है। ये जो जीव कोष्ठ हैं, ये जो सेल्स हैं, ये शरीर के ही हिस्से हैं।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-10


संन्यास—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 14 नवंबर 1970, क्रास मैदान, बंबई
प्रश्नोत्तर :

आचार्य श्री, पंच महाव्रत: अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम और अप्रमाद की साधना फलीभूत हो सके तथा व्यक्ति और समाज का सर्वांगीण विकास हो सके, इसमें आपके द्वारा प्रस्तावित नयी संन्यास-दृष्टि का क्या अनुदान हो सकता है, कृपया इसे सविस्तार स्पष्ट करें।

अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम और अप्रमाद संन्यास की कला के आधारभूत सूत्र हैं। और संन्यास एक कला है। समस्त जीवन की एक कला है। और केवल वे ही लोग संन्यास को उपलब्ध हो पाते हैं जो जीवन की कला में पारंगत हैं। संन्यास जीवन के पार जाने वाली कला है। जो जीवन को उसकी पूर्णता में अनुभव कर पाते हैं, वे अनायास ही संन्यास में प्रवेश कर जाते हैं। करना ही होगा। वह जीवन का ही अगला कदम है। परमात्मा संसार की सीढ़ी पर ही चढ़कर पहुंचा गया मंदिर है।
तो पहली बात आपको यह स्पष्ट कर दूं कि संसार और संन्यास में कोई भी विरोध नहीं है। वे एक ही यात्रा के दो पड़ाव हैं। संसार में ही संन्यास विकसित होता है और खिलता है। संन्यास संसार की शत्रुता नहीं है, बल्कि संन्यास संसार का प्रगाढ़ अनुभव है। जितना ही जो संसार का अनुभव कर पायेगा, वह पाएगा कि उसके पैर संन्यास की ओर बढ़ने शुरू हो गए हैं।