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सोमवार, 31 दिसंबर 2018

जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-05)

जनसंख्या विस्फोट-ओशो

प्रवचन-पांचवां – (कुटुंब नियोजन)

‘स्वर्णपाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का प्रवचन 5 से संकलित

एक दूसरे मित्र ने पूछा है--वह अंतिम सवाल, फिर मैं अपनी बात पूरी करूं--उन्होंने पूछा है, कुटुंब नियोजन के बाबत, बर्थ-कंट्रोल के बाबत आपके क्या खयाल हैं?

यह अंतिम बात, क्योंकि यह भारत की अंतिम और सबसे बड़ी समस्या है। और अगर हमने इसे हल कर लिया तो हम सब हल कर लेंगे। यह अंतिम समस्या है। यह अगर हल हो गई तो सब हल हो जाएगी। भारत के सामने बड़े से बड़ा सवाल जनसंख्या का है; और रोज बढ़ता जा रहा है। हिंदुस्तान की आबादी इतने जोर से बढ़ रही है कि हम कितनी ही प्रगति करें, कितना ही विकास करें, कितनी ही संपत्ति पैदा करें कुछ परिणाम न होगा। क्योंकि जितना हम पैदा करेंगे उससे चैगुने मुंह हम पैदा कर देते हैं। और सब सवाल वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं, हल नहीं होते।
मनुष्य ने एक काम किया है कि मौत से एक लड़ाई लड़ी है। मौत को हमने दूर हटाया है।

जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-04)

जनसंख्या विस्फोट-ओशो

प्रवचन-चौथा ( नियोजित संतानोत्पत्ति)

दिनांक २२ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
‘प्रीतम छबि नैनन बसी’ प्रवचन १२ से संकलित
01-पहला प्रश्न : भगवान,
आपने योजनापूर्ण ढंग से संतानोत्पत्ति की बात कही और उदाहरण देते हुए कहा कि महावीर, आइंस्टीन, बुद्ध जैसी प्रतिभाएं समाज को मिल सकेंगी। मेरा प्रश्न है कि ये नाम जो उदाहरण के नाते आपने दिए, स्वयं योजित संतानोत्पत्ति अथवा कम्यून आधारित समाज की उपज नहीं थे। इसलिए केवल कम्यून से प्रतिभाशाली संतानोत्पत्ति की बात अथवा संतान का विकास समाज की जिम्मेवारी वाली बात पूरी सही नहीं प्रतीत होती।
02-क्या जीवन-मूल्य समयानुसार रूपांतरित होते हैं?
03-आप कहते हैं: न आवश्यकता है काबा जाने की, न काशी जाने की। क्या आपकी दृष्टि में स्थान का कोई भी महत्व नहीं है?
04-कल आपने एक कवि के प्रश्न के संबंध में जो कुछ कहा उससे मेरे मन में भी चिंता पैदा होनी शुरू हुई है। मैं हास्य-कवि हूं। इस संबंध में आपका क्या कहना है?
05-मेरी विनम्र लघु आशा है
बनूं चरण की दासी
स्वीकृत करो कि न करो
पर हूं मैं एक बूंद की प्यासी।

रविवार, 30 दिसंबर 2018

जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-03)

जनसंख्या विस्फोट

प्रवचन –तीसरा

कम्पलसरी फैमिली प्लानिंग (अनिवार्य संतति-नियमन)

‘देख कबीरा रोया प्रवचन 28 से संकलित

प्रश्न: संतति नियमन को आप कंपल्सरी मानते हैं?
बिलकुल कंपल्सरी मानता हूं। मेरी बात समझ लें थोड़ा सा--मैं कंपल्सरी मानता हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कंपल्सरी कर दूंगा। कंपल्सरी का मतलब कुल इतना है कि मैं आपके विचार को अपील करता हूं कि कंपल्सरी हो जाने जैसी चीज है। और अगर मुल्क की मेजारिटी तय करती है तो कंपल्सरी होगा। कंपल्सरी का मतलब कोई माइनारिटी थोड़े ही मुल्क के ऊपर तय कर देगी! लेकिन मेरा कहना यह है कि अगर एक आदमी भी इनकार करता है मुल्क में, तो भी कंपल्सरी है वह। अगर हिंदुस्तान के चालीस करोड़ लोगों में से एक आदमी भी कहता है कि मैं संतति नियमन मानने को तैयार नहीं हूं और चालीस करोड़ लोग कहते हैं कि मानना पड़ेगा तो भी कंपल्सरी है।

जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-02)

जनसंख्या विस्फोट-ओशो 

प्रवचन-दूसरा - संतति नियमन

‘एक एक कदम’ प्रवचन 7 से संकलित

मेरे प्रिय आत्मन् ,

संतति-नियमन या परिवार नियोजन पर मैं कुछ कहूं, उसके पहले दोत्तीन बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा।
पहली बात तो यह कहना चाहूंगा कि आदमी एक ऐसा जानवर है जो इतिहास से कुछ भी सीखता नहीं। इतिहास लिखता है, इतिहास बनाता है, लेकिन इतिहास से कुछ सीखता नहीं है। और यह इसलिए सबसे पहले कहना चाहता हूं कि इतिहास की सारी खोजों ने जो सबसे बड़ी बात प्रमाणित की है, वह यह कि इस पृथ्वी पर बहुत-से प्राणियों की जातियां अपने को बढ़ा कर पूरी तरह नष्ट हो गईं। इस जमीन पर बहुत शक्तिशाली पशुओं का निवास था, लेकिन वे अपने को बढ़ा कर नष्ट हो गए।

आज से पांच लाख वर्ष पहले--और जो मैं कह रहा हूं वह वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर कहता हूं--जमीन पर हाथी से भी बड़ी छिपकलियां थीं। अब तो आपके घर में जो छिपकली बची है वही उसका एकमात्र वंशज है। वह इतना शक्तिशाली जानवर था। उसकी अस्थियां तो उपलब्ध हो गई हैं, वह सारी पृथ्वी पर फैल गया था। अचानक विदा कैसे हो गया?

जनसंख्या विस्फोट-(प्रवचन-01)

जनसंख्या विस्फोट

प्रवचन: पहला 

 ‘संभोग से समाधि की ओर’ प्रवचन ९ से संकलित

पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की तलहटी में खोजे गए ऐसे बहुत से पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं जिनका अब कोई भी निशान शेष नहीं रह गया। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्वी बहुत से सरीसृपों से भरी थी, सरकने वाले जानवरों से भरी थी। लेकिन आज हमारे घर में छिपकली के अतिरिक्त उनका कोई प्रतिनिधि नहीं रह गया है। छिपकली भी बहुत छोटा प्रतिनिधि है। दस लाख साल पहले उसके पूर्वज हाथियों से भी पांच गुने और दस गुने बड़े थे। वे सब कहां खो गए? इतने शक्तिशाली पशु पृथ्वी से कैसे विनष्ट हो गए? किसी ने उन पर हमला किया? किसी ने एटम बम, हाइड्रोजन बम गिराया?

नहीं; उनके खत्म हो जाने की बड़ी अदभुत कथा है। उन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि वे समाप्त हो जाएंगे। वे समाप्त हो गए अपनी संतति के बढ़ जाने के कारण! वे इतने ज्यादा हो गए कि पृथ्वी पर जीना उनके लिए असंभव हो गया। भोजन कम हुआ; पानी कम हुआ; लिविंग स्पेस कम हुई; जीने के लिए जितनी जगह चाहिए, वह कम हो गई।

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

ध्यान योग-ओशो-(अध्याय-04)

ध्यान योग-(प्रथम और अंतिम मुक्ति) 

अध्याय -चौथा -(विभिन्न ध्यान प्रयोग)


01-सक्रिय ध्यान

हमारे शरीर और मन में इकट्ठे हो गए दमित आवेगों, तनावों एवं रुग्णताओं का रेचन करने, अर्थात उन्हें बाहर निकाल फेंकने के लिए ओशो ने इस नई ध्यान विधि का सृजन किया है। शरीर और मन के इस रेचन अर्थात शुद्धिकरण से, साधक पुनः अपनी देह-ऊर्जा, प्राण-ऊर्जा, एवं आत्म-ऊर्जा के संपर्क में--उनकी पूर्ण संभावनाओं के संपर्क में आ जाता है--और इस तरह साधक आध्यात्मिक जागरण की ओर सरलता से विकसित हो पाता है।
सक्रिय ध्यान अकेले भी किया जा सकता है और समूह में भी। लेकिन समूह में करना ही अधिक परिणामकारी है।
स्नान कर के, खाली पेट, कम से कम वस्त्रों में, आंखों पर पट्टी बांधकर इसे करना चाहिए।
यह विधि पूरी तरह प्रभावकारी हो सके, इसके लिए साधक को अपनी पूरी शक्ति से, समग्रता में इसका अभ्यास करना होगा। इसमें पांच चरण हैं। पहले तीन चरण दस-दस मिनट के हैं तथा बाकी दो पंद्रह-पंद्रह मिनट के।
सुबह का समय इसके लिए सर्वाधिक उपयोगी है, यूं इसे सांझ के समय भी किया जा सकता है।

ध्यान योग-ओशो-(अध्याय-03)

ओशो ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति) 

अध्याय -तीसरा

ध्यान-एक वैज्ञानिक दृष्टि

मेरे प्रिय आत्मन्!
सुना है मैंने, कोई नाव उलट गई थी। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा लगा। दिन, दो दिन, चार दिन; सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था, वहां से कोई उसे बचाने आ जाएगा। फिर महीने भी बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। फिर किसी को आते न देखकर वह धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल गया। पांच वर्षों के बाद कोई जहाज वहां से गुजरा, उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज ने लोगों को उतारा। और जब उन लोगों ने उस खो गए आदमी को वापस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया।

ध्यान योग-ओशो-(अध्याय-02)

ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति)

अध्याय-दूसरा-प्रवचन अंश 

ध्यान है भीतर झांकना

बीज को स्वयं की संभावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है। ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है--क्या हो सकता है। लेकिन, बीज शायद स्वयं के भीतर झांक भी नहीं सकता है। पर मनुष्य तो झांक सकता है। यह झांकना ही ध्यान है। स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यहीं, हियर एंड नाउ जानना ही ध्यान है। ध्यान में उतरें--गहरे और गहरे। गहराई के दर्पण में संभावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है। और जो हो सकता है, वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है, उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है। बीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है, वैसे ही अंकुरित होने लगता है। शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दें। क्योंकि ध्यान ही वह द्वार हीन द्वार है जो कि स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है।

ध्यान योग-ओशो-(अध्याय-01)

ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति) 

अध्याय -पहला - (साधकों लिखे पत्र)

ध्यान में घटने वाली घटनाओं, बाधाओं, अनुभूतियों, उपलब्धियों, सावधानियों, सुझावों तथा निर्देशों संबंधी साधकों को लिखे गए ओशो के इक्कीस पत्र अंततः सब खो जाता है
सुबह सूर्योदय के स्वागत में जैसे पक्षी गीत गाते हैं--ऐसे ही ध्यानोदय के पूर्व भी मन-प्राण में अनेक गीतों का जन्म होता है। वसंत में जैसे फूल खिलते हैं, ऐसे ही ध्यान के आगमन पर अनेक-अनेक सुगंधें आत्मा को घेर लेती हैं। और वर्षा में जैसे सब ओर हरियाली छा जाती है, ऐसे ही ध्यान-वर्षा में भी चेतना नाना रंगों से भर उठती है, यह सब और बहुत-कुछ भी होता है। लेकिन यह अंत नहीं, बस आरंभ ही है। अंततः तो सब खो जाता है। रंग, गंध, आलोक, नाद--सभी विलीन हो जाते हैं। आकाश जैसा अंतर्आकाश (इनर स्पेस) उदित होता है। शून्य, निर्गुण, निराकार। उसकी करो प्रतीक्षा। उसकी करो अभीप्सा। लक्षण शुभ हैं, इसीलिए एक क्षण भी व्यर्थ न खोओ और आगे बढ़ो। मैं तो साथ हूं ही।

रविवार, 16 दिसंबर 2018

कार्यकर्ताओं से चर्चा-ओशो

कार्यकर्ताओं से चर्चा-3

वर्कर्स कैंप, लोनावला

मेरी आवाज़ अकेली नहीं है

देश को, समाज को, मनुष्य को- जैसा वह आज है- उसे देखकर जिस आदमी के हृदय में आंसू न भर जाते हों, वह आदमी या तो मर चुका है या मरने के करीब है। जो आदमी अभी जीवित है वह आज के देश की, आज के समाज की, आज के मनुष्य की दशा को देखकर रोता होगा; उसकी हंसी झूठी होगी; उसकी रातें उसके तकियों को उसकी आंखों के आंसुओं से गीला कर देती होंगी।

मुझे पता नहीं आपका, लेकिन मैं अंधकार में अक्सर रो लेता हूं। आदमी जैसा है उसे देखकर सिवाय रोने के और कुछ ख्याल भी नहीं आता। लेकिन रोने से और कुछ भी नहीं हो सकता, कुछ करना जरूरी है। और अगर हम कुछ नहीं कर सके गिरते हुए चरित्र में, खोती हुई आत्मा के लिए...। पूरे देश की प्रतिभा नष्ट होती हो, पूरे प्राण बिखरते जाते हों, आदमी रोज नीचे से नीचे उतरता जाता हो, और अगर हम कुछ न कर सके तो आने वाले भविष्य की अदालत में हम अगर अपराधी ठहराए जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। हम अपराधी हैं।

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-10)

सत्संग का संगीत—(प्रवचन—बीसवां) 

दिनांक 8 जून, 1975, प्रातः, ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

प्रश्नसार :

1—आपकी भक्ति साधना में प्रार्थना का क्या स्थान होगा?
2--कबीर पर बोलते हुए आपने सत्संग पर बहुत जोर दिया। आज के परिप्रेक्ष्य में सत्संग पर कुछ और प्रकाश डालेंगे?
3—समर्पण कब होता है?

पहला प्रश्न :
संत कबीर पर बोलते हुए आपने भक्ति को बहुत-बहुत महिमा दी। लेकिन कबीर की भक्ति तो जगह-जगह प्रार्थना करती मालूम होती है। यथा--"आपै ही बहि जाएंगे जो नहिं पकरौ बांहि।" और आपने प्रार्थना को भी ध्यान बना दिया है। आपकी भक्ति-साधना में प्रार्थना का क्या स्थान होगा?

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-09)

सुरति करौ मेरे सांइयां—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक 8 जून, 1975, प्रातः,ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सारसूत्र :

सुरति करौ मेरे सांइयां, हम हैं भवजल मांहि।
आपे ही बहि जाएंगे, जे नहिं पकरौ बाहिं।।
अवगुण मेरे बापजी, बकस गरीब निवाज।
जे मैं पूत कपूत हों, तउ पिता को लाज।।
मन परतीत न प्रेम रस, ना कछु तन में ढंग।
ना जानौ उस पीव सो, क्यों कर रहसी रंग।।
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कछु है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।। 

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-08)

गंगा एक घाट अनेक—(प्रवचन—अट्ठारहवां)

दिनांक 8 जून, 1975, प्रातः,ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

प्रश्नसार :

1—जब आप पूना आए। तब यहां कुछ तोते थे; लेकिन अब एक वर्ष में ही न जाने कितने प्रकार के पक्षी यहां आ गए। क्या ये आपके कारण आ गए हैं? क्या आपका उनसे भी कोई विगत जन्म का वादा है?
2—आपसे प्रश्नों का समाधान तो मिलता है, पर समाधि घटित नहीं हो पा रही है। क्या करूं?
3—ज्ञानी का मार्ग भक्त के मार्ग से क्या सर्वथा भिन्न है? यदि होश हो तो प्रेम कैसे घटेगा?
4—कबीर किस गुरु के प्रसाद से आनंद विभोर हुए जा रहे हैं?
5—सत्य की उपलब्धि भीतर, फिर बाहर समर्पण पर इतना जोर क्यों?

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-07)

उनमनि चढ़ा गगन-रस पीवै—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 7 जून, 1975, प्रातः, ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सारसूत्र :

अवधू मेरा मन मतिवारा।
उनमनि चढ़ा गगन-रस पीवै, त्रिभुवन भया उजियारा।। 
गुड़ करि ग्यान ध्यान करि महुआ, व भाठी करि भारा। 
सुखमन नारी सहज समानी, पीवै पीवन हारा।। 
दोउ पुड़ जोड़ि चिंगाई भाठी, चुया महारस भारी। 
काम क्रोध दोइ किया बलीता, छूटि गई संसारी।। 
सुंनि मंडल में मंदला बाजै, तहि मेरा मन नाचै। 
गुरु प्रसादि अमृत फल पाया, सहजि सुषमना काछै।।
पूरा मिल्या तबै सुख उपज्यौ, तन की तपनि बुझानी। 
कहै कबीर भव-बंधन छूटै, जोतिहिं जोति समानी।।

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-06)

सुरति का दीया—(प्रवचन—छट्टवां)

दिनांक 6 जून, 1975, प्रातः, ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूनां

प्रश्नसार:

1—ज्ञानी साथ साथ रोता और हंसता है। क्या देखकर रोता है और क्या देखकर हंसता है?
2—क्या हम सबकी मनःस्थितियों को देखकर भी आप कह सकते हैं "साधो सहज समाधि भली"?
3—आपके पास कभी-कभी अकारण सघन पीड़ा का अनुभव। यह क्या है?
4—कृपया बताएं, कि ऊंट किस करवट बैठे?

पहला प्रश्न :
सुना है, कभी-कभी ज्ञानी साथ-साथ रोता है और हंसता है। वह क्या देखकर रोता है और क्या देखकर हंसता है?
भी-कभी नहीं, सदा ही ज्ञानी साथ-साथ रोता और हंसता है। हंसता है अपने को देखकर, रोता है तुम्हें देखकर। हंसता है यह देखकर, कि जीवन की संपदा कितनी सरलता से उपलब्ध है। रोता है यह देखकर, कि करोड़ों-करोड़ों लोग व्यर्थ ही निर्धन बने हैं।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-05)

पांचवां-- प्रवचन

आई ज्ञान की आंधी

सारसूत्र:

संतों भाई आई ज्ञान की आंधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बांधी।।
हिति-चत की द्वै थूनी गिरानी, मोह बलींदा तूटा।
त्रिस्ना छानि परी घर ऊपरि, कुबुधि का भांडा फूटा।।
जोग जुगति करि संतौ बांधी निरचू चुवै न पानी।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जानी।।
आंधी पीछे जो जल बूढ़ा, प्रेम हरी जन भीना।
कहै कबीर भान के प्रकटे उदित भया तम खीना।।

और ज्ञान में बड़ा फर्क है। एक तो ज्ञान है पंडित का और एक ज्ञान है प्रज्ञावान का। इन दोनों का भेद साफ न हो जाए तो अज्ञान के पार उठना कठिन है।और भेद बारीक है। भेद बहुत सूक्ष्म और नाजुक है। दोनों एक जैसे दिखाई पड़ते हैं। जुड़वां भाई जैसे मालूम होते हैं, लेकिन दोनों न केवल भिन्न हैं, बल्कि विपरीत भी हैं। दोनों का गुणधर्म शत्रुता का है।अज्ञान से भी ज्यादा दूरी प्रज्ञावान के ज्ञान की, पंडित के ज्ञान से है।

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-04)

चौथा-- प्रवचन

गुरु-शिष्य दो किनारे

प्रश्नसार :

01-सबके इतने सारे प्रश्न पाकर क्या आप धर्म-संकट में नहीं पड़ते?
02-न संदेह को बढ़ा सकता हूं; न श्रद्धा को शुद्ध कर सकता हूं; ऐसे में क्या करूं?
03-भाव और विचार में कब और कैसे सही-सही फर्क करें।
04-मन में कई प्रश्न का उठना किंतु न पूछने का भाव।
05-जीवन में गहन पीड़ा का अनुभव। फिर भी वैराग्य का जन्म क्यों नहीं?

पहला प्रश्न ः सबके इतने सारे प्रश्न पाकर क्या आप धर्म-संकट में नहीं पड़ते कि इसका जवाब दूं, या उसका, या किसका?प्रश्न तीन तरह के पूछे जाते हैं।एक तो, तुम्हारी मूढ़ता से जन्मते हैं।
उनका मैं कभी उत्तर नहीं देता। क्योंकि तुम्हारी मूढ़ता को उतना सहारा देना भी नुकसान, तुम्हें हानि पहुंचाएगा। तुम्हारी मूढ़ता को उतनी स्वीकृति भी देना--कि मूढ़ता से उठे प्रश्न का भी कोई अर्थ होता है, घातक है।मूढ़ता से उठे प्रश्न इस भांति पूछे जाते हैं कि जैसे पूछने वाला मुझ पर कोई पूछ कर एहसान कर रहा हो।

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-03)

तीसवां --प्रवचन

पिया मिलन की आस

सारसूत्र:

आंखरिया झांई पड़ी, पंथ निहार निहार।
जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि पुकारि।।
इस तन का दीवा करौं, बाती मैल्यूं जीव। .
लोही सीचौं तेल ज्यूं, कब मुख देख्यौं पीव।।
सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।
नैन तो झरि लाइया, रहंट बहै निसुवार।
पपिहा ज्यों पिउ फिउ रटै, पिया मिलन की आस।।
कबीरा वैद बुलाइया, पकरि के देखो बांहि।
वैद न वेदन जानई, करक कलेजे मांहि।।

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-02)

दूसरा--प्रवचन

गुरु मृत्यु है

प्रश्न-सार:

01-सूत्रों की अपेक्षा हमारे प्रश्नों के उत्तर में आपके प्रवचन अधिक अच्छे लगते हैं। ऐसा क्यों?
02-झटका क्यों, हलाल क्यों नहीं?
03-शिक्षक देता है ज्ञान और गुरु देता है ध्यान। ध्यान देने का क्या अर्थ है?
04-आपके सतत बोलने में मिटाने की कौन सी प्रक्रिया छिपी है?
05-आपने कहा, शिष्य की जरूरत और स्थिति के अनुसार सदगुरु मार्ग-दर्शन करता है। आपके कथन में आस्था के बावजूद मार्गनिर्देशन के अभाव की प्रतीति।
06-आशा से आकाश टंगा है। क्या आशा छोड़ने से आकाश गिर न जाएगा?
07-क्या ब्राह्मणों ने जातिगत पूर्वाग्रह के कारण कबीर को अस्वीकार कर दिया?

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(प्रवचन-01)

मेरा मुझमें कुछ नहीं-(कबीरदास)

पहला-- प्रवचन

करो सत्संग गुरुदेव से

संत कबीर की वाणी पर ओशो जी द्वारा बोले गये दस अमृत प्रवचनों का संकलन जो दिनांक १ जून, १९७५, प्रातः, ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सारसू्त्र :

गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै।
गुरुदेव बिन जीव की भला नाहिं।।
गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासै नहिं।
समझि विचार लै मन माहि।।
रहा बारीक गुरुदेव तें पाइये।
जनम अनेक की अटक खोलै।।
कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै।
जीव और सीव तब एक तोलै।।
करो सतसंग गुरुदेव से चरन गहि।
जासु के दरस तें भर्म भागै।।
सील औ सांच संतोष आवै दया।
काल की चोट फिर नाहिं लागै।।
काल के जाल में सकल जीव बांधिया।
बिन ज्ञान गुरुदेव घट अंधियारा।।
कहै कबीर बिन जन जनम आवै नहीं।
पारस परस पद होय न्यारा।।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

जीवन आलोक-(प्रवचन-05)

जीवन आलोक-(प्रश्नोत्तर)

पांचवां प्रवचन

नाचो--क्रांति है नाच

एक गुरु अपने शिष्य के कमरे के बाहर रोज आता है और एक ईंट को पत्थर पर घिसता है। शिष्य वहीं ध्यान करता है और ईंट के घिसने से, रोज-रोज घिसने से नाराज होता है। एक रोज तो उसे बहुत गुस्सा आया कि यह और कोई कर रहा हो तो ठीक है, यह मेरा गुरु ही आकर मुझे परेशान करता है, ईंट घिसता है। आंख खोली और कहाः आप यह क्या पागलपन करते हैं? क्यों मुझे परेशान कर रहे हैं? उसने कहाः तुझे मैं परेशान नहीं कर रहा। मैं ईंट को घिस-घिस कर आईना बनाना चाहता हूं। वह हंसने लगा, उसने कहाः तुम पागल हो गए हो। ईंट को कितना ही घिसो, आईना कभी नहीं हो सकती। तो उसके गुरु ने कहाः अगर मैं मेहनत करूंगा तो भी नहीं बनेगी क्या? मैं पूरी मेहनत करूंगा, मैं जीवन भर घिसता रहूंगा, फिर तो बनेगा?

 जीवन भर भी घिसोगे, तो भी नहीं बनेगा। ईंट घिसने से आईना नहीं बनती। उसके गुरु ने कहाः तू भी बहुत घिस रहा है, लेकिन मेरी दृष्टि में ईंट घिस रहा है और आईना बनाना चाहता है। और सोचता है, मेहनत करूंगा तो हो जाएगा।

जीवन आलोक-(प्रवचन-04)

जीवन आलोक-(प्रश्नोत्तर)

प्रवचन चौथा

नाचो--समग्रता है नाच

धर्म हमारा सर्वग्राही नहीं है। वह जवान को आकर्षित ही नहीं करता है। जब आदमी मौत के करीब पहुंचने लगे तभी हमारा धर्म उसको आकर्षित करता है।इसका मतलब यही है कि धर्म हमारा मृत्योन्मुखी है। मृत्यु के पार का विचार करता है, जीवन का विचार नहीं करता है। तो जो लोग मृत्यु के पार जाने की तैयारी करने लगे वे उत्सुक हो जाते हैं। ठीक है उनको उत्सुक हो जाना। उसके लिए भी धर्म होना चाहिए। धर्म में मृत्यु के बाद का जीवन भी सम्मिलित है लेकिन इस पार का जीवन भी सम्मिलित है और उसकी कोई दृष्टि नहीं है।

और ऐसे ही मैं मान नहीं सकता कि बच्चों के लिए वही धर्म काम का हो सकता है जो बूढ़ों और वृद्धों के लिए है। बच्चों का तो जो धर्म होगा वह इतना गंभीर नहीं हो सकता है। वह तो खेलता, कूदता, हंसता हुआ होता है। बच्चों का ऐसा धर्म चाहिए जो उनको खेलने के साथ धर्म आ जाए, वह उनकी प्लेफुलनेस का हिस्सा हो। वह मंदिर में जाते हैं और बच्चे, वह तो वहां भी शोरगुल करना चाहते हैं। हम उनको डांट कर चुप बैठा देते हैं।

जीवन आलोक-(प्रवचन-03)

जीवन आलोक-(प्रश्नोत्तर)

तीसरा--प्रवचन

नाचो--प्रेम है नाच

दान मैत्री और प्रेम से निकलता है तो आपको पता भी नहीं चलता है कि आपने दान किया। यह आपको स्मरण नहीं आती कि आपने दान किया। बल्कि जिस आदमी दान स्वीकार किया, आप उसके प्रति अनुगृहीत होते हैं कि उसने स्वीकार कर लिया। लेकिन अब दान का मैं विरोध करता हूं, जब वह दान दिया जाता है तो अनुगृहीत वह होता है जिसने लिया। और देने वाला ऊपर होता है। और देने वाले को पूरा बोध है कि मैंने दिया, और देने का पूरा रस है और आनंद। लेकिन प्रेम से जो दान प्रकट होता है वह इतना सहज है कि पता नहीं चलता कि दान मैंने किया। और जिसने लिया है, वह नीचा नहीं होता, वह ऊंचा हो जाता है। बल्कि अनुगृहीत देने वाला होता है, लेने वाला नहीं। इन दोनों में बुनियादी फर्क है। दान हम दोनों के लिए शब्द का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन दान उपयोग होता रहा है उसी तरह के दान के लिए, जिसका मैंने विरोध किया। प्रेम से जो दान प्रकट होगा, वह तो दान है ही।

जीवन आलोक-(प्रवचन-02)


जीवन आलोक-(प्रश्नोत्तर)

दूसरा प्रवचन

नाचो--शून्यता है नाच

एक बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है।
पूछा हैः श्रद्धा के बिना शास्त्र का अध्ययन नहीं, अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना आत्मा का अनुभव नहीं होगा।
‘श्रद्धा के बिना शास्त्र का अध्ययन क्यों नहीं होगा?’
हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम श्रद्धा करेंगे या अश्रद्धा करेंगे। हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम किसी को प्रेम करेंगे या घृणा करेंगे। तटस्थ हम हो ही नहीं सकते। जो श्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत, जो अश्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत है। शास्त्र का ध्यान तटस्थ होकर करना होगा। तटस्थ होकर ही कोई अध्ययन हो सकता है। श्रद्धा का अर्थ हैः आप पक्ष में पहले से मान कर बैठ गए, पक्षपात से भरे हैं। अश्रद्धा का अर्थ हैः आप पहले से ही विपरीत मान कर बैठ गए, आप पक्षपात से भरे हैं। पक्षपातपूर्ण चित्त अध्ययन क्या करेगा? पक्षपातपूर्ण चित्त तो पहले से पक्ष तय कर लिया। वह शास्त्र में अपने पक्ष के समर्थन में दलीलें खोज लेगा और कुछ नहीं करेगा। पक्षपात शून्य होकर ही कोई अध्ययन कर सकता है। इसलिए मुझे श्रद्धा भी व्यर्थ मालूम होती है, अश्रद्धा भी व्यर्थ।

जीवन आलोक-(प्रवचन-01)

जीवन आलोक-(प्रश्नोत्तर) 

पहला--प्रवचन

नाचो--जीवन है नाच

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहता हूं।
एक महानगरी में सौ मंजिल एक मकान के ऊपर सौवीं मंजिल से एक युवक कूद पड़ने की धमकी दे रहा था। उसने अपने द्वार, अपने कमरे के सब द्वार बंद कर रखे थे। बालकनी में खड़ा हुआ था। सौवीं मंजिल से कूदने के लिए तैयार, आत्महत्या करने को उत्सुक। उससे नीचे की मंजिल पर लोग खड़े होकर उससे प्रार्थना कर रहे थे कि आत्महत्या मत करो, रुक जाओ, ठहर जाओ, यह क्या पागलपन कर रहे हो? लेकिन वह किसी की सुनने को राजी नहीं था। तब एक बूढ़े आदमी ने उससे कहाः हमारी बात मत सुनो, लेकिन अपने मां-बाप का खयाल करो कि उन पर क्या गुजरेगी? उस युवक ने कहाः न मेरा पिता है, न मेरी मां है। वे दोनों मुझसे पहले ही चल बसे। बूढ़े ने देखा कि बात तो व्यर्थ हो गई। तो उसने कहाः कम से कम अपनी पत्नी का स्मरण करो, उस पर क्या बीतेगी? उस युवक ने कहाः मेरी कोई पत्नी नहीं, मैं अविवाहित हूं। उस बूढ़े ने कहाः कम से कम अपनी प्रेयसी का खयाल करो। किसी को प्रेम करते होगे, उस पर क्या गुजरेगी? उस युवक ने कहाः प्रेयसी! मुझे प्रेम से घृणा है। स्त्री को मैं नरक का द्वार समझता हूं। मैं कोई स्त्री को प्रेम करता नहीं। मुझे कूद जाने दें।

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-11)

फिर पत्तों की पाजेब बजी -प्रश्नोंत्तर 

प्रवचन-ग्याहरवां 

धर्म नितांत वैयक्तिक है

 भगवान, गौतम बुद्ध के साथ धर्म ने एक बहुत बड़ी छलांग, ‘क्वांटम लीप’ ली; परमात्मा निरर्थक हो गया, ध्यान सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया। अब बुद्ध के पश्चात, पच्चीस सदियों के बाद, धर्म पुनः एक बार आपकी उपस्थिति में वैसी ही छलांग ले रहा है, और धार्मिकता बन रहा है।   इस घटना को समझाने की अनुकंपा करें।
धर्म की छलांग, यह ‘क्वांटम लीप’ गौतम बुद्ध से भी पच्चीस सदियों पहले एक बार लगी थी, और उसका श्रेय आदिनाथ को मिलता है। उन्होंने पहली बार अनीश्वरवादी धर्म की देशना दी। यह एक बहुत बड़ी क्रंाति थी क्योंकि पूरे जगत में इसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी कि ईश्वर के बिना भी धर्म हो सकता है। ईश्वर सभी धर्मों का आवश्यक अंग, एक केंद्रीय तत्व रहा है- ईसाइयत, यहूदी धर्म, इस्लाम सभी का।  लेकिन ईश्वर को धर्म का केंद्र बनाने से मनुष्य सिर्फ एक परिधि हो जाता है। ईश्वर को यदि इस सृष्टि का स्रष्टा माना जाए तो मनुष्य सिर्फ एक कठपुतली हो जाता है। इसलिए हिबू्र भाषा में, जो कि यहूदी धर्म की भाषा है, मनुष्य को आदम कहा जाता है। अदम यानी कीचड़। इस्लाम धर्म की जो अरेबिक भाषा है, उसमें मनुष्य को आदमी कहा जाता है, जो कि आदम शब्द से बना है। उसका अर्थ फिर कीचड़ होता है। अंगरेजी में जो कि ईसाई धर्म की भाषा बनी, जो शब्द है ‘ह्यूमन’ वह ह्यूमस से आता है; और ह्यूमस यानी मिट्टी।  स्वभावतः परमात्मा अगर स्रष्टा है, तो उसे कुछ तो बनाना चाहिए। जैसे मूर्ति बनाते हैं वैसे उसे मनुष्य को बनाना चाहिए।

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां

18 दिसंबर, 1985, प्रातः, कुल्लू-मनाली

कम्यून अर्थात आध्यात्मिक विश्वविद्यालय

भगवान, ओरेगान के कम्यून के निर्माण-काल में आपने मौन व्रत लिया हुआ था; फिर कम्यून के निर्माण कार्य में आप सहभागी कैसे हुए? और इस किस्म का कम्यून किसकी जरूरत है- आपकी, आपके शिष्यों की, या बृहत समाज की? 
पहली बात, मैं उसमें किसी भी तरह भागीदार नहीं था। इसे समझाना जरा कठिन होगा कि बिना भाग लिए भी चीजें संभव हैं।  उदाहरण के लिए, सुबह सूरज उगता है, पक्षी गीत गाने लगते हैं- सूरज उसमें सहभागी नहीं है। वह किसी भांति कोई कृत्य नहीं कर रहा है, पक्षियों को गाने के लिए प्रवृत्ति नहीं कर रहा है। फूल खिलते हैं- सूरज सहभागी नहीं है।  तो मैं कहूंगा कि मैं जरा भी सहभागी नहीं था, वह समक्रमिकता थी। मैं वहां उपस्थित था। और मेरे मौन में तो यह उपस्थिति और भी सघन थी। और मेरी उपस्थिति ने कम्यून निर्मित करने में मेरे लोगों की मदद की।  कम्यून के बारे में मैं वर्षों चर्चा करता रहा हूं। उसको मैंने पूरी दृष्टि दी है, लेकिन जब वह निर्मित हो रहा था तब मैं उसमें कोई सक्रिय भाग नहीं लिया। मैं सिर्फ एक उपस्थिति था।  तो मैं सहभागिता शब्द का उपयोग नहीं कर सकता, लेकिन मैं समक्रमिकता शब्द का उपयोग कर सकता हूं।

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां

17 दिसंबर 1985, कुल्लू-मनाली

इस खेल में गुरु ही जीतता है

प्यारे भगवान, रजनीश टाइम्स परिवार तथा रजनीशधाम नव संन्यास कम्यून के प्रत्येक सदस्य की ओर से बधाई। भारत तथा विदेश में बहुत से संन्यासी ऐसे हैं जिन्होंने आपको कभी नहीं देखा परंतु आपके प्रति उनका प्रेम एवं आपकी दृष्टि के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रेरणा दायक है। यह कैसे घटित होता है, इतना प्रेम, इतनी श्रद्धा? 
वस्तुतः यह आसान है अगर तुमने मुझे न देखा हो और फिर भी प्रेम घटित हुआ हो। यह प्रतिबद्धता कहीं ज्यादा शुद्ध, ज्यादा बेशर्त, ज्यादा अवैयक्तिक होगी। मुझे देखना, मेरे साथ होना और फिर भी मुझसे प्रेम करना कठिन बात है।  कारण यह है कि हमारे मन का इस ढंग से पालन-पोष्ण हुआ है कि हम हमेशा आकांक्षाओं से भरे हैं। अगर मैं तुम्हारी आकांक्षाओं की पूर्ति करता हूं। तुम्हारी श्रद्धा डावांडोल होने लगती है। और जहां तक मेरा संबंध है, मैं तुम्हारी आकांक्षाओं के पूरा नहीं कर सकता। यदि मैं तुम्हारी आकांक्षाओं को पूरा करता चलूं, तब मैं तुम्हारे विकास में मदद करने वाला न रहा। कोई द्वार नहीं खुलता। मैं यहां तुम्हारे मन को सहारा देने के लिए नहीं हूं। इसे आत्यंतिक ऊंचाई तक ले चलने के लिए मैं यहां हूं। लेकिन तुम्हारी आकांक्षाएं ही समस्या है।

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-08)

प्रवचन-आठवां

16 दिसंबर 1985, अपराह्म, कुल्लू-मनाली

जीवन सदा अनिश्चित है

रजनीशपुरम के कम्यून के असफल हो जाने के बाद अब कम्यून के भविष्य के संबंध में आपके क्या विचार हैं? 
पहली बात, वह असफल नहीं हुआ। क्या तुम सोचते हो कि सुकरात को जहर देकर मार डालना सुकरात और उसके दर्शन की असफलता थी? वस्तुतः वह तो उस आदमी की परम विजय थी। उसने सिद्ध कर दिया, एक अकेला आदमी और उसका सत्य, समाज और उसकी ताकत, उसकी संपदा, जनसंख्या, फौजें- इन सबसे शक्तिशाली है। वे लोग उस आदमी के साथ सिर्फ एक बात कर सकेः वे उसकी हत्या कर सके। लेकिन मनुष्य की हत्या करने से सत्य की हत्या नहीं होती। वस्तुतः उल्टे सुकरात को मारकर उन्होंने उसके सत्य को अमर कर दिया है।  क्या तुम सोचते हो कि जीसस की सूली उनकी असफलता था? यदि जिस को सूली नहीं दी जाती तो ईसाइयत पैदा ही नहीं होती। उनको दी गई सूली ही, उनकी महिमा को उच्चतम शिखर पर ले जाती है।  तो मैं नहीं मानता कि अमेरिका में कम्यून का नष्ट होना उसकी असफलता है; वह सफल हुआ है। हम कई चीजें सिद्ध करने मग सफल रहे हैं।  हम यह सिद्ध करने में सफल हुए कि विश्व की सब से बड़ी रा य-सत्ता भी एक छोटे से कम्यून से डरती है, जिसके पास प्रेम के अलावा और कोई ताकत नहीं है। इसका मतलब हुआ, प्रेम ताकत से अधिक ताकतवर है।

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-07)

प्रवचन-सातवां

14 दिसंबर 1985, अपराह्म, कुल्लू-मनाली 

मेरी निंदाः मेरी प्रशंसा

भगवान, लंबे अनुभव से यही दिखाई देता है कि ऋषियों का तथा बुद्धपुरुषों का संदेश हमेशा गलत समझा जाता है या उपेक्षित रह जाता है। क्या इसका यह अर्थ है कि अपनी भूलों के कारण मनुष्यता अनंत काल तक दुख झेले, यही उसकी नियति है?

 मैं निराशावादी नहीं हूं। मैं आशा के विपरीत आशा करता हूं। और यह प्रश्न भी कुछ उसी प्रकार का है।  प्रज्ञापुरुष के, बुद्धपुरुष के रास्ते में अपरिसीम कठिनाइयां होती हैं।  पहलीः उसकी अनुभव मन की निर्विचार स्थिति में घटता है। तो जब वह उसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करता है, तो मजबूरन उसे शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। सौ बुद्धपुरुषों में से निन्यानबे चुप रहे हैं; क्योंकि जैसे ही तुम निःशब्द अनुभव को शब्दों में ढालते हो, तो उसकी आत्मा खो जाती है। फर्क यह है कि तुम एक सुंदर पक्षी को खुले आकाश में उड़ते हुए देखते हो; वह इतना सुंदर दृश्य होता है- उसकी स्वतंत्रता वह खुला आकाश, वह अनंतता! और फिर तुम उस पक्षी को पकड़कर सोने के पिंजरे में रखते हो, जो कि बेशकीमती होता है। एक तरह से वह वही पक्षी है, लेकिन फिर भी वही नहीं है। उसका आकाश कहां गया? उसके पंख कहां है? उसकी स्वतंत्रता कहां गई?

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छट्ठवां

दिसंबर, अपराह्म, कुल्लू-मनाली 

ध्यान प्रक्रिया है रूपांतरण की

भगवान श्री, भारत में जनसंख्या के कारण गरीबी बढ़ती जा रही है और गरीबी के कारण जनसंख्या। यदि दोनों एक दूसरे से बढ़कर। मौजूदा हालात में जनसंख्या को कंट्रोल में कैसे लाया जाए, बल्कि परिवार नियोजन को यहां स्वैच्छिक रूप से ही अपनाया जाता है? कृपया अपनी ओर से कुछ सुझाव दें।  यह इतनी बड़ी समस्या है, जितनी दिखाई पड़ती है। जनसंख्या अपने आप नहीं बढ़ती हैं और गरीबी उसका स्वाभाविक परिणाम होता है।  पहली बात, जो भारत की चेतना में प्रविष्ट हो जानी चाहिए, वह यह है कि जनसंख्या बढ़ती नहीं है, हम बढ़ाते हैं। गरीबी पढ़ती नहीं, हमारी सृष्टि है। और हमने सदियों तक गलत विचारों के अंतर्गत जीना सीखा है। जैसे, हमें बताया गया है कि बच्चे भगवान की देन हैं। यह भी समझाया गया है कि बच्चे प्रत्येक के भाग्य में लिखे हैं। और धर्मगुरु यह भी समझा रहे हैं सदियों से कि बच्चों को रोकना, पैदा होने से, ईश्वर का विरोध है। इन सब बातों का एक ही अर्थ होता है कि जैसे ईश्वर को एक ही काम है, और वह है कि लोग कैसे ज्यादा से ज्यादा गरीब हों। जो कि ईश्वर शब्द के बिल्कुल विपरीत है। ईश्वर शब्द का मूल उदगम ही ऐश्वर्य है।

बुधवार, 12 दिसंबर 2018

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-05)

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-पांचवां)

5 दिसंबर 1985, प्रातः कुल्लू-मनाली 

अपनी वास्तविकता को पा लेना स्वर्ग है

आज के मनुष्य के लिए आपका क्या संदेश है?  मनुष्य-जाति का इतिहास हजारों वर्षों का है और मनुष्य ने कुछ गलत विचार, कुछ गलत किस्म की धारणाएं, अंधविश्वास बना लिए हैंः और वही बातें उसकी हड्डी, रक्त मांस-म जा बन गयी हैं।  यह बात बिल्कुल भुला ही दी गयी है कि एक बच्चा न तो हिंदू के रूप में पैदा होता है, न ही मुसलमान के रूप मग पैदा होता है, न ही भारतीय के रूप में और न ही अमेरीकी के रूप में। हम हजारों वर्षों की जानकारियां बच्चों में भर देते हैं, उन्हें उन में संस्कारित कर देते हैं, और नष्ट कर देते हैं उनकी निर्दोष्तिा। और जिस क्षण कोई बच्चा अपनी निर्दोष्तिा खो देता है, वह अर्थहीन जीवन जीने लगता है। वह स्वयं नहीं हो सकता, वह बिल्कुल भूल ही जाता है कि वह कौन है, और वह ऐसी विचारधाराओं द्वारा भर दिया जाता है, जो उसकी अपनी होती ही नहीं।  सह स्कीजोफ्रेनिया, यह खंडित होने की स्थिति ही मनुष्य-जाति की मौलिक समस्या हैः और मेरा मौलिक संदेश यही हो सकता है कि इस स्थिति के स्वरूप को, इसके पूरे वातावरण को मिटा दो। प्रत्येक बच्चे को अपनी निर्दोष्तिा में ही विकसित होने देना है।

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-04)

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-चौथा)

सब प्रश्नों का एक उत्तरः ध्यान भगवान, विश्व भर में आपके संन्यासी और प्रेमी आपके स्वास्थ्य को लेकर बहुत चिंतित हैं। अब आप कैसे हैं।  मेरा स्वास्थ्य ठीक है। उन्होंने मुझे नुकसान पहुंचाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उन्हें इसमें सफलता न मिल सकी। दो कारण से; पहला कारण तो यह रहा कि जिन लोगों को उन्होंने नियुक्त किया था मुझे तकलीफ देने के लिए, छिपे-छिपे ढंग से ऐसी स्थितियां बनाने के लिए जिनके द्वारा मुझे पीड़ित किया जाए, वे लोग जल्दी ही मेरे प्रेम में पड़ गये। वे मुझसे कहने लगे, इस तरह का काम तो हम नहीं कर सकते।  एक जेल में तो खास तौर से ऐसा हुआ, उसे जेल का शेरिफ, उप शेरिफ, डॉक्टर, नर्सें और सारे कैदी व वहां नियुक्त तमाम व्यक्ति- तीन सौ साठ व्यक्ति- वह तो करीब-करीब कम्यून बन गया। छः दिन तक मैं वहां था, और जेल का सारा वातावरण ही बदल गया।  वे शेरिफ वृद्ध था, और वह मुझसे कहने लगा, ‘ऐसा पहली बार हुआ है और शायद अंतिम बार ही होगा कि आप जैसा व्यक्ति इस जेल में आया।

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-03)

फिर पत्तों की पाजेब बजी-तीसरा 

एक पृथ्वी, एक मनुष्यता टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।  मैं झंझावात का केंद्र बिन्दु हूं, इसलिए मेरे आसपास जो भी घटता है उससे मेरे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता- फिर चाहे वह तूफान हो या किसी झरने का कल-कल निनाद हो; मैं दोनों का साक्षी हूं। और यह साक्षित्व निश्चल बना रहता है। जहां तक मेरे अंतरतम अस्तित्व का सवाल है, हर परिस्थिति में मैं केवल साक्षी होता हूं।  और यही मेरी सारी देशना है कि चीजें बदलती रहेंगी लेकिन तुम्हारी चेतना बिल्कुल अचल बनी रहे। चीजों की बदलाहट अनिवार्य है, वह उनका स्वभाव है। एक दिन तुम सफल होते हो, एक दिन तुम असफल होते हो। एक दिन तुम शिखर पर होते हो, दूसरे दिन तुम खाई में होते हो; लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ तत्व हमेशा बिल्कुल अचल होता है। वही कुछ तत्व तुम्हारी वास्तविकता है। और मैं अपनी वास्तविकता में जीता हूं, उन स्वप्नों और दुःस्वप्नों में नहीं, जो वास्तविकता को घेरे रहते हैं।  क्या आप यहां रहने की योजना बना रहे हैं?  मैं कभी कोई योजना नहीं बनाता।  टेप में प्रश्न सुना नहीं जा सकता।

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-02)

27 अक्टूबर 1986 संध्या, सुमिला जुहू बंबई  

  फिर पत्तों की पाजेब बजी-प्रवचन-दूसरा

मैं केवल एक मित्र हूं आपके अमेरिका के अनुभव के बाद, अब आप शारीरिक और मानसिक रूप से कैसा अनुभव करते हैं?  यह सवाल बड़ा जटिल है; हालांकि सरल दिखाई देता है।  मनुष्य को तीन तलों पर विभाजित किया जा सकता हैः शारीरिक, मानसिक, आत्मिक। और एक और भी तल है, जिसे युगों-युगों से रहस्यदर्शियों ने कोई नाम नहीं दिया। भारत में उसको कहते हैं, ‘तुरीय’। अंग्रेजी में हम उसको ‘द फोर्थ’ कह सकते हैं।  और मैं अपने मार्ग को तुरीय का, ‘द फोर्थ का मार्ग कह सकता हूं। मैं तुरीय हूं। तुम भी तुरीय हो। कोई जानता हो या न जानता हो, लेकिन तुरीय उसकी वास्तविकता है। वह हमारी चेतना है। वह अस्तित्व का परम विकास है। एक बार तुमने तुरीय को जान लिया, तो बाकी तीन तुमसे अलग हो जाते हैं। मैं देखता हूं कि मेरे शरीर को सताया जा रहा है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं सताया जा रहा हूं। मैं अपनी भूख देख सकता हूं, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैं भूखा हूं- शरीर भूखा है और मैं देख रहा हूं।  ये बारह दिन मेरे लिए अत्यंत अर्थपूर्ण थे। मैं अमेरिका के फासिस्ट शासन के प्रति अनुगृहीत हूं कि उन्होंने मुझे यह अवसर दिया। उन्होंने हर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ढंग से मुझे उत्पीड़ित किया,

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-01)

फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रश्नोत्तर)

प्रवचन-पहला 

भारतः एक सनातन यात्रा

प्यारे भगवान, वह कौन-सा सपना है, जिसे साकार करने के लिए आप तमाम रुकावटों और बाधाओं को नजरअंदाज करते हुए पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से निरंतर क्रियाशील हैं? 
हर्षिदा, सपना तो एक है, मेरा अपना नहीं, सदियों पुराना है, कहें कि सनातन है। पृथ्वी के इस भू-भाग में मनुष्य की चेतना की पहली किरण के साथ उस सपने को देखना शुरू किया था। उस सपने की माला में कितने फूल पिरोये हैं- कितने गौतम बुद्ध, कितने महावीर, कितने कबीर, कितने नानक, उस सपने के लिए अपने प्राणों को निछावर कर गये। उस सपने के मैं अपना कैसे कहूं? वह सपना मनुष्य का, मनुष्य की अंतरात्मा का सपना है। इस सपने को हमने एक नाम दे रखा है। हम इस सपने को भारत कहते हैं। भारत कोई भूखंड नहीं है। न ही कोई राजनैतिक इकाई है, न ऐतिहासिक तथ्यों का कोई टुकड़ा है। न धन, न पद, न प्रतिष्ठा की पागल दौड़ है।  भारत है एक अभीप्सा, एक प्यास- सत्य को पा लेने की।  उस सत्य को, जो हमारे हृदय की धड़कन-धड़क में बसा है। उस सत्य को, जो हमारी चेतना की तहों में सोया है। वह जो हमारा होकर भी हमें भूल गया है।

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-07)

नव संन्यास क्या?

प्रवचन-सातवां

सावधिक संन्यास की धारणा मेरे मन में इधर बहुत दिन से एक बात निरंतर ख्याल में आती है और वह यह है कि सारी दुनिया से आनेवाले दिनों में संन्यासी के समाप्त हो जाने की संभावना है। संन्यासी आनेवाले पचास वर्ष के बाद पृथ्वी पर नहीं बच सकेगा, वह संस्था विलीन हो जाएगी। उस संस्था की नीचे की ईंटें तो खिसका दी गयी हैं और अब उसका मकान भी गिर जाएगा। लेकिन संन्यास इतनी बहुमूल्य चीज है कि जिस दिन दुनिया से विलीन हो जाएगा उस दिन दुनिया का बहुत अहित हो जाएगा।  मेरे देखे पुराना संन्यास तो चला जाना चाहिए पर संन्यास बच जाना चाहिए और इसके लिए सावधिक संन्यास का, पीरियाडिकल रिनन्सिएशन का मेरे मन में ख्याल है। ऐसा कोई आदमी नहीं होना चाहिए जो वर्ष में एक महीने के लिए संन्यासी न हो। जीवन में तो कोई भी ऐसा आदमी नहीं होना चाहिए जो दो-चार बार संन्यासी न हो गया हो। स्थायी संन्यास खतरनाक सिद्ध हुआ है। कोई आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी हो जाए, उसके दो खतरे हैं।  एक खतरा तो यह है कि वह आदमी जीवन से दूर हट जाता है, और परमात्मा के प्रेम की, और आनंद की जो भी उपलब्धियां हैं वे जीवन के घनीभूत अनुभव में हैं, जीवन के बाहर नहीं।

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-06)

नव संन्यास क्या?

प्रवचन-छट्ठवां

संन्यास का एक नया अभियान जो भी मैं कह रहा हूं, संन्यास के संबंध में ही कह रहा हूं। यह सारी गीता संन्यास का ही विवरण है। और जिस संन्यास की मैं बात कर रहा हूं, वह वही संन्यास है जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं- करते हुए अकर्ता हो जाना, करते हुए भी ऐसे हो जाना जैसे मैं करनेवाला नहीं हूं। बस संन्यास का यही लक्षण है।  गृहस्थ का क्या लक्षण है? गृहस्थ का लक्षण है, हर चीज में कत्र्ता हो जाना। संन्यासी का लक्षण है, हर चीज में अकत्र्ता हो जाना। संन्यास जीवन को देखने का और ही ढंग है। बस ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में घर का फर्क नहीं है, ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में जगह का फर्क नहीं है, भाव का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में परिस्थिति का फर्क नहीं है, मनः स्थिति का फर्क है। संसार में जो है .....हम सभी संसार में ही होंगे। कोई कहीं हो- जंगल में बैठे, पहाड़ पर बैठे, गिरि-कंदराओं में बैठे, संसार के बाहर जाने का उपाय नहीं है- परिस्थिति बदलकर नहीं है! संसार से बाहर जाने का उपाय है मनः स्थिति बदलकर, बाई द म्यूटेशन आकृफ द माइंड, मन को ही रूपांतरित करके। मैं जिसे संन्यास कह रहा हूं वह मन को रूपांतरित करने की एक प्रक्रिया है। दो-तीन उसके अंग हैं, उनकी आपसे बात कर दूं।  पहला तो, जो जहां है, वहां से हटे नहीं। क्योंकि हटते केवल कमजोर हैं।

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-05)

 प्रवचन-पांचवां

आनंद व अहोभाव में डूबा हुआ नव-संन्यास

अभी-अभी साधना मंदिर में जो भजन चल रहा था उसे देखकर मुझे एक बात ख्याल में आती है। वहां सब इतना मुर्दा, इतना मरा हुआ था जैसे जीवन की कोई लहर नहीं है। सब औपचारिक था- करना है, इसलिए कर लिया। तुम्हारा भजन, तुम्हारा नृत्य, तुम्हारा जीवन जरा भी औपचारिक न हो, फॉरमल न हो। उदासी के लिए तो नव-संन्यास में जरा भी जगह न हो। क्योंकि संन्यास अगर मरा तो उदास लोगों के हाथ में पड़कर मरा।  ‘हंसता हुआ संन्यास’, पहला सूत्र तुम्हारे ख्याल में होना चाहिए। अगर हंस न सको तो समझना कि संन्यासी नहीं हो। पूरी जिंदगी एक हंसी हो जानी चाहिए। संन्यासी ही हंस सकता है। उदासी एवं गंभीरता संन्यासी के लिए एक रोग जैसा है। इसलिए आज तक संन्यासी होना एक ऐसा बोझ-सा और भारी गंभीरता का काम कर रहा है, जिसमें सिर्फ रुग्ण और बीमार आदमी ही उत्सुक होते रहे हैं। स्वस्थ आदमी न तो उदास हो सकता, न गंभीर हो सकता।  नव-संन्यासी तो नाचता-गाता, प्रसन्न होगा। इसका यह मतलब नहीं है कि वह उथला होगा। सच तो यह है कि गंभीरता गहरेपन का सिर्फ धोखा है। वह गहरी होती नहीं, सिर्फ दिखावा है।

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-04)

नव संन्यास क्या?

प्रवचन-छट्ठवां 

संन्यास का एक नया अभियान जो भी मैं कह रहा हूं, संन्यास के संबंध में ही कह रहा हूं। यह सारी गीता संन्यास का ही विवरण है। और जिस संन्यास की मैं बात कर रहा हूं, वह वही संन्यास है जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं- करते हुए अकर्ता हो जाना, करते हुए भी ऐसे हो जाना जैसे मैं करनेवाला नहीं हूं। बस संन्यास का यही लक्षण है।  गृहस्थ का क्या लक्षण है? गृहस्थ का लक्षण है, हर चीज में कत्र्ता हो जाना। संन्यासी का लक्षण है, हर चीज में अकत्र्ता हो जाना। संन्यास जीवन को देखने का और ही ढंग है। बस ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में घर का फर्क नहीं है, ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में जगह का फर्क नहीं है, भाव का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में परिस्थिति का फर्क नहीं है, मनः स्थिति का फर्क है। संसार में जो है .....हम सभी संसार में ही होंगे। कोई कहीं हो- जंगल में बैठे, पहाड़ पर बैठे, गिरि-कंदराओं में बैठे, संसार के बाहर जाने का उपाय नहीं है- परिस्थिति बदलकर नहीं है! संसार से बाहर जाने का उपाय है मनः स्थिति बदलकर, बाई द म्यूटेशन आकृफ द माइंड, मन को ही रूपांतरित करके। मैं जिसे संन्यास कह रहा हूं वह मन को रूपांतरित करने की एक प्रक्रिया है। दो-तीन उसके अंग हैं, उनकी आपसे बात कर दूं।  पहला तो, जो जहां है, वहां से हटे नहीं। क्योंकि हटते केवल कमजोर हैं।

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा
संन्यास और संसार संसार को छोड़कर भागने का कोई उपाय ही नहीं है, कारण हम जहां भी जाएंगे वह होगा ही, शक्लें बदल सकती हैं। इस तरह के त्याग को मैं संन्यास नहीं कहता। संन्यास मैं उसे कहूंगा कि हम जहां भी हों वहां होते हुए भी संसार हमारे मन में न हो। अगर तुम परिवार में भी हो तो परिवार तुम्हारे भीतर बहुत प्रवेश नहीं करेगा। परिवार में रहकर भी तुम अकेले हो सकते हो और ठेठ भीड़ में खड़े होकर भी अकेले हो सकते हो।  इससे उल्टा भी हो सकता है कि एक आदमी अकेला जंगल में बैठा हो लेकिन मन में पूरी भीड़ घिरी हो और ठेठ बाजार में बैठकर भी एक आदमी अकेला हो सकता है।  संन्यास की जो अब तक व्यवस्था रही है उसमें गलत त्याग पर ही जोर रहा है। उसके दूसरे पहलू पर कोई जोर नहीं है। एक आदमी के पास पैसा न हो तो भी उसके मन में पैसे का राग चल सकता हैं। इससे उल्टा भी हो सकता है कि किसी के पास पैसा हो और पैसे का कोई लगाव उसके मन में न हो। बल्कि ज्यादा संभावना दूसरे की ही है, पैसा बिल्कुल न हो तो पैसे में लगाव की संभावना ज्यादा है। पैसा हो तो पैसे से लगाव छूटना ज्यादा आसान है। जो भी चीज तुम्हारे पास है उससे तुम आसानी से मुक्त हो सकते हो। असल में तुम मुक्त हो ही जाते हो। सिर्फ गरीब आदमी को ही पैसे की याद आती है।

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-02)

नव संन्यास क्या? प्रवचन-दूसरा 

संन्यासः नयी दिशा, नया बोध

आपको अपने संन्यास का स्मरण रखकर ही जीना है ताकि आप अगर क्रोध भी करेंगे तो न केवल आपको अखरेगा, दूसरा भी आपसे कहेगा कि आप कैसे संन्यासी हैं? साथ-ही-साथ उनका नाम भी बदल दिया जाएगा। ताकि अन्य पुराने नाम से उनकी जो आइडेंटिटी, उनका जो तादात्म्य था वह टूट जाए। अब तक उन्होंने अपने व्यक्तित्व को जिससे बनाया था उसका केंद्र उनका नाम है। उसके आस-पास उन्होंने एक दुनिया रचायी, उसको बिखेर देना है ताकि उनका पुनर्जन्म हो जाए। इस नए नाम से वे शुरू करेंगे यात्रा और इस नए नाम के आस-पास अब वे संन्यासी की भांति कुछ इकट्ठा करेंगे। अब तक उन्होंने जिस नाम के आस-पास सब इकट्ठा किया था वह गृहस्थ की तरह इकट्ठा किया था।  तो एक तो उनकी पुरानी आइडेंटिटी तोड़कर नाम बदल देना है। दूसरे उनके कपड़े बदल देना है, ताकि समाज के लिए उनकी घोषणा हो जाए कि वे संन्यासी हो गए और चैबीस घंटे उनके कपड़े उनको भी याद दिलाते रहेंगे कि वे संन्यासी हैं। रास्ते पर चलते हुए, पाठ करते हुए, काम करते हुए वे कपड़े जो हैं उनके लिए कांस्टेंट रिमेंबरिंग का काम करेंगे।

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला

नव-संन्यास का सूत्रपात

संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं, आनंद है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है। लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है- त्याग के अर्थों में, छोड़ने के अर्थों में- पाने के अर्थ में नहीं। मैं संन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में। निश्चित ही जब कोई हीरे-जवाहरात पा लेता है तो कंकड़-पत्थरों को छोड़ देता है। लेकिन कंकड़-पत्थरों को छोड़ने का अर्थ इतना ही है कि हीरे-जवाहरातों के लिए जगह बनानी पड़ती है। कंकड़-पत्थरों का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो हम उसी बात का करते हैं जिसका बहुत मूल्य मालूम होता है। कंकड़-पत्थर तो ऐसे छोड़े जाते हैं जैसे घर से कचरा फेंक दिया जाता है। घर से फेंके हुए कचरे का हम हिसाब नहीं रखते कि हमने कितना कचरा त्याग दिया।  संन्यास अब तक लेखा-जोखा रखता रहा है- उस सबका, जो छोड़ा जाता रहा है। मैं संन्यास को देखता हूं उस भाषा में, उस लेखे-जोखे में, जो पाया जाता है। निश्चित ही इसमें बुनियादी फर्क पड़ेगा।

नव संन्यास क्या? (भुमिका)

नव संन्यास क्या? 

सात प्रवचन

आमुख

एक संन्यास है जो इस देश में हजारों वर्ष से प्रचलित है, जिससे हम सब भलीभांति परिचित हैं। उसका अभिप्राय कुल इतना है कि आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़े जंगल की ओर। वह संन्यास तो त्याग का दूसरा नाम है, वह जीवन से भगोड़ापन है, पलायन है। और एक अर्थ में आसान भी है- अब है कि नहीं, लेकिन कभी अवश्य आसान था। भगवे वस्त्रधारी संन्यासी की पूजा होती थी। उसने भगवे वस्त्र पहन लिए, उसकी पूजा के लिए इतना पर्याप्त था। वह दरअसल उसकी नहीं, उसके वस्त्रों की ही पूजा थी। वह संन्यास इसलिए भी आसान था कि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। क्योंकि समस्याओं से कौन मुक्त नहीं होना चाहता?  लेकिन जो लोग संसार से भागने की अथवा संसार को त्यागने की हिम्मत न जुटा सके, मोह में बंधे रहे, उन्हें त्याग का यह कृत्य बहुत महान लगने लगा, वे ऐसे संन्यासी की पूजा और सेवा करते रहे और संन्यास के नाम पर परनिर्भरता का यह कार्य चलता रहाः संन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसारी पर निर्भर

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-10)

दसवां समापन प्रवचन

अभिनय अर्थात अकर्ता-भाव पूर्णक्रांतिः आध्यात्मिक क्रांति परमात्मा को भोगो

प्रश्न-सार

  1. अभिनय में क्या झूठ समाहित न हो जाएगा?
  2. कुशल अभिनेता भी दुखों और परेशान क्यों रहते हैं?
  3. अभिनय क्या प्रेम को झूठा न बना देगा?
  4. जयप्रकाश नारायण की पूर्णक्रांति नर कुछ कहें। आपकी दृष्टि में पूर्णक्रांति का क्या अर्थ है?
  5. भोगवादी या संतों के इस वचन में क्या भिन्नता है कि पल-पल जीओ; खाओ; पीओ, मोज करो?
  6. घर वालों की आज्ञा लि बिना संन्यास कैसे लूं?

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

मुक्ति का सूत्र

सारसूत्र:

बहु बैरी घट में बसैं, तू नहिं जीतत कोय।
निस-दिन घेरे ही रहैं, छुटकारा नहिं होय।।
या मन के जाने बिना, होय न कबहूं साध।
जक्त-वासना ना छुटै, लहै न भेद अगाध।।
सरकि जाय बिष ओरहिं, बहुरि न आवै हाथ।
भजन माहिं ठहरै नहीं, जो गहि राखूं नाथ।।
इन्द्री पलटैं मन विषै, मन पलटै बुधि माहिं।
बुधि पलटै हरि-ध्यान में, फेरि होय लय जाहिं।।
तन मन जारै काम हीं, चित कर डांवाडोल।
धरम सरम सब खोय के, रहै आप हिय खोल।।
मोह बड़ा दुख रूप है, ताकूं मारि निकास।
प्रीत जगत की छोड़ दे, जब होवै निर्वास।।

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

संत क्यों बोलते हैं परमात्मा यानी क्या ?

भक्त की आकांक्षी हृदय की भाषा ध्यान और प्रेम विरह

प्रश्न-सार:

  1. सत्य कहा नहीं जा सकता है, फिर भी संत क्यों बोलते हैं?
  2. परमात्मा यानी क्या?
  3. भक्त की आधारभूत आकांक्षा क्या है?
  4. आनन्द ब. रहा है--और पीड़ा भी। यह ब.ते प्रेम का चिह्न है--या पागलपन है कोरा?
  5. जैन संस्कारों में पली हूं लेकिन ध्यान में कृष्णमय रास में डूब जाती हूं। ऐसा क्यों होता है?
  6. भक्त की विरह-दशा के संबंध में कुछ कहें।

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

गुरु-कृपा-योग

सारसूत्र:

किसू काम के थे नहीं, कोइ न कौडी देह।
गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।
सीधे पलक न देखते, छूते नाहीं छांहिं।
गुरु सुकदेव कृपा करी, चरनोदक ले जाहिं।।
बलिहारी गुरु आपने, तन मन सदके जावं।
जीव ब्रह्म छिन में कियो, पाई भूली ठावं।।
सतगुरु मेरा सूरमा, करै शब्द की चोट।
मारै गोला प्रेम का, है भ्रम्म का कोट।।
सतगुरु शब्दी तेग है, लागत दो करि देहि।
पीठ फेरि कायर भजै, सूरा सनमुख लेहि।।
सतगुरु शब्दी तीर है, कीयो तन मन छेद।
बेदरदी समझै नहीं, विरही पावै भेद।।

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

पात्रता का अर्जन प्रार्थना कैसी हो एकरसता यानी परमात्मा संन्यासी कौन

प्रश्न-सार

  1. प्रभु-कृपा से ही प्रभु-प्राप्ति होती है, तो क्या प्रभु-प्राप्ति के लिए किया गया मनुष्य का श्रम व्यर्थ है?
  2. हमारी प्रार्थना अनसुनी क्यों रह जाती है?
  3. एकरसता यानी क्या?
  4. रजनीश का संन्यासी कैसा हो?


पहला प्रश्नः सुनते हैं कि प्रभु की कृपा से ही प्रभु मिलते हैं। तो क्या प्रभु प्राप्ति के लिए मनुष्य का श्रम व्यर्थ है?

हां भी और नहीं भी। अंतिम अर्थो में मनुष्य का श्रम व्यर्थ है। अंतिम अर्थो में तो प्रसाद ही सार्थक है--प्रयास नहीं। क्योंकि अंतिम क्षण में अहंकार भी छोड़ना होगा; और अहंकार में ही चला जाता है श्रम का भाव। मैं कुछ करता हूं--यह ‘मैं’ की ही छाया है।

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

भक्ति की कीमिया

सासूत्र: 

जागै न पिछलै पहर, ताके मुखड़े धूल।
सुमिरै न करतार कूं, सभी गवाधै मूल।।
पिछले पहरे जागि करि, भजन करै चित लाय।
चरनदास वा जीव की, निस्चै गति ह्नै जाय।।
पहिले पहरे सब जगैं, दूजे भोगी मान।
तीजे पहरे चोर ही, चैथे जोगी जान।।
जो कोई विरही नाम के, तिनकूं कैसी नींद।
सस्तर लागा नेह का, गया हिए कूं बींध।।

सोए हैं संसार सूं, जागे हरि की और।
तिनकूं इकरस ही सदा, नहीं सांझ नहीं भोर।।
सोवन जागन भेद की, कोइक जानत बात।
साधूजन जगत तहां, जहां सबन की रात।।
जो जागै हरि-भक्ति में, सोई उतरै पार।
जो जागै संसार में, भव-सागर में ख्वार।।

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

सदगुरुओं की निंदा ध्यान और साक्षीभाव विचारो पर नियंत्रण ज्वलंत -यास

प्रश्न-सार

  1. सदगुरुओं की निंदा क्यों की जाती है?
  2. क्या बिना ध्यान के साक्षीभाव को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता
  3. विचारों पर नियंत्रण कैसे हो
  4. अपनी बातें हमारा अनुभव कैसे बनें

पहला प्रश्नः आप अक्सर कहते हैं कि यह जगत् एक प्रतिध्वनि बिंदु है जहां से हमारे पास वही सब लौट आता है जो हम उसे देते हैं। प्रेम को प्रेम मिलता है और घृणा का घृणा। यदि ऐसा ही है तो क्यों बुद्ध और महावीर को यातनाएं दी गई क्यों ईसा और मंसूर की हत्या की गई और क्यों यहां आपको झूठे लांछन निंदा और गालियां मिल रही हैं और क्या आप जैसों से बस कर भी निश्छल प्रेम और आशीष देने वाले लोग इस जगत को मिल सकते हैं।