पहला
प्रश्न :
मेरे
व्यक्तित्व
के दो हिस्से
हैं; एक प्रतिदिन
जमीन पर लेटकर
आपको साष्टांग
प्रणाम करता
है और उससे
सुखी होता है; और
दूसरा प्राय:
प्रतिदिन ही
पूछ बैठता है
कि तुम्हें
क्या पता कि
ये भगवान ही
हैं! क्या दोनों
मेरे अहंकार
के हिस्से हैं
और क्या श्रद्धा
निर—अहंकार
में ही जन्म
लेती है?
मन जहां तक है, वहां
तक द्वंद्व भी
रहेगा। मन
बिना द्वंद्व
के ठहर भी नही
सकता; पलभर भी
नहीं ठहर सकता।
मन के होने का
ढंग ही
द्वंद्व है।
वह उसके होने
की बुनियादी
शर्त है।
अगर
तुम्हारे मन
में प्रेम
होगा तो साथ
ही साथ कदम
मिलाती घृणा
भी होगी। जिस
दिन घृणा विदा
हो जाएगी, उसी
दिन प्रेम भी
विदा हो जाएगा।