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मंगलवार, 8 नवंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--036)

अंतश्चक्षु खोल—(प्रवचन—छत्‍तीसवां)

पहला प्रश्न :


मेरे व्यक्तित्व के दो हिस्से हैं; एक प्रतिदिन जमीन पर लेटकर आपको साष्टांग प्रणाम करता है और उससे सुखी होता है; और दूसरा प्राय: प्रतिदिन ही पूछ बैठता है कि तुम्हें क्या पता कि ये भगवान ही हैं! क्या दोनों मेरे अहंकार के हिस्से हैं और क्या श्रद्धा निर—अहंकार में ही जन्म लेती है?

न जहां तक है, वहां तक द्वंद्व भी रहेगा। मन बिना द्वंद्व के ठहर भी नही सकता; पलभर भी नहीं ठहर सकता। मन के होने का ढंग ही द्वंद्व है। वह उसके होने की बुनियादी शर्त है।
अगर तुम्हारे मन में प्रेम होगा तो साथ ही साथ कदम मिलाती घृणा भी होगी। जिस दिन घृणा विदा हो जाएगी, उसी दिन प्रेम भी विदा हो जाएगा।

एस धम्‍मों सनंतनो--(प्रवचन--035)

जीवन ही मार्ग है—(प्रवचन—पैतीसवां)  

सारसूत्र:

गतद्धिनो विसोकस्स विप्‍पमुतस्‍स सब्बाधिा।
सबगंथप्पहीनस्स परिलाहो न बिज्जति ।।81।।

उय्यज्‍जन्‍ति सतीमन्तो न निकेते रमति ते।
हंसा' व पल्‍ललं हित्वा ओकमोकं जहन्ति तो ।।82।।

ये सं सन्निचयो नत्थि ये परिज्जातभोजना ।
सुज्‍जतो अनिमित्तो व विमोक्खो यस्स गोचरो।
आकासे' व सकुन्तानं गति तेसं दुरन्नया ।।83।।


यस्सा'सवा परिक्सीणा आहारे व अनिस्सतो ।
सुज्‍जातो अनिमितो व विमोक्खो यस्स गोचरो।
आकासे'  व सकुन्तानं पदं तेस दुरन्नयं ।।84।।

सोमवार, 7 नवंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--034)

प्यासे को पानी की पहचान--(प्रवचन—चौतीसवां)

पहला प्रश्‍न—


क्‍या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है? क्या आप एक सदगुरू हैं? क्या आप परमात्मा को मुझ तक लाने में समर्थ है?

दीवानों की बस्ती में कोई समझदार आ गया! समझदारी से उठाए गए प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं। नीचे लिखा है, सत्य का एक जिज्ञासु। न तो जिज्ञासा है, न खोज है; मान्यताओं से भरा हुआ मन होगा।
      जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि ईश्वर है। जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि धर्म है। जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि सदगुरु है। जिज्ञासु प्रश्न थोड़े ही पूछता है, जिज्ञासु अपनी प्यास जाहिर करता है।

      प्रश्न दो ढंग से उठते हैं : एक तो प्यास की भांति; तब उनका गुणधर्म और। और एक जानकारी से, बुद्धि भरी है कूडा—करकट से, उसमें से प्रश्न उठ आते हैं। पहला प्रश्न, 'क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?'

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--033)

एकला चलो रे—(प्रवचन—तैतीसवां)

सारसूत्र:

ये चखो सम्‍मदक्‍खाने धम्‍मे धम्‍मानुवत्‍तिनो ।
ते जना पारमेस्‍सन्‍ति मच्‍युधेय्यं सुदुत्‍तरं ।।77।।

कण्‍हं धम्‍मं विप्‍पहाय सुक्‍कं भविथ पंड़ितो ।
ओका अनौकं आगम्‍म विवेके यत्‍थ दूरमं ।।78।।

तत्रभिरतिमिच्‍छेय्य हित्‍वा कामे अकिंचनो ।
परियोदपेय्य अत्‍तनं चित्‍तक्‍लेसेहि पंड़िता ।।79।।

ये सं सम्‍बोधि-अड्गे सु समा चितं सुभावितं ।
आदान-परिनिस्‍सग्‍गे अनुपादाय ये रता।
रवीणासवा जुतीमंतो ते लोके परिनिब्‍बुता ।।80।।

रविवार, 6 नवंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--032)

तू आप है अपनी रोशनाई—(प्रवचन—बत्‍तीसवां)

पहला प्रश्‍न—

मेरी समझ में कुछ नहीं आता। कभी लगता है कि पूछना क्या है, सब ठीक है; और कभी प्रश्न ही प्रश्न सामने होते हैं।

मझ की बहुत बात भी नहीं। समझने का बहुत सवाल भी नहीं। जो समझने में ही उलझा रहेगा, नासमझ ही बना रहेगा।
      जीवन कुछ जीने की बात है, स्वाद लेने की बात है। समझ का अर्थ ही होता है कि हम बिना स्वाद लिए समझने की चेष्टा में लगे हैं, बिना जीए समझने की चेष्टा में लगे हैं। बिना भोजन किए भूख न मिटेगी। समझने से कब किसकी भूख मिटी? और भूख मिट जाए तो समझने की चिंता कौन करता है!

      आदमी ने एक बड़ी बुनियादी भूल सीख ली है—वह है, जीवन को समझ के द्वारा भरने का। जीवन कभी समझ से भरता नहीं; धोखा पैदा होता है।
      प्रेम करो तो प्रेम को जानोगे। प्रार्थना करो तो प्रार्थना को जानोगे।
      अहंकार की सीढ़िया थोड़ी उतरो तो निरहंकार को जानोगे।
      डूबो, मिटो, तो परमात्मा का थोड़ा बोध पैदा होगा।

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--031)

तप्रज्ञ, सत्पुरुष है—(प्रवचन-इक्‍तीसवां)  

 सारसूत्र:

सब्‍बत्थ वे सप्‍परिसा चजान्ति न कामकामा लपयन्ति संतो
सुखेन फुठ्ठा अथवा दुखेन न उच्चावचं पंडिता दस्सयन्ति ।।74।।

न अत्‍तहेतु न परस्स हेतु न पुत्‍तमिच्‍छे न धनं न रठ्ठं ।
नइच्‍छेय्य अधम्मेन समिद्धिमत्तनो सीलवा पन्जवा धम्मिको सिया ।।75।।

अप्‍पका ते मनुस्‍सेयु ये जना पारगामिनो ।
अथायं इतरा पजा तीरमेवानुधावति ।।76।।
क प्राचीन कथा है जंगल की राह से एक जौहरी गुजरता था। देखा उसने राह में, एक कुम्हार अपने गधे के गले में एक बड़ा हीरा बांधकर चल रहा है। चकित हुआ! पूछा कुम्हार से, कितने पैसे लेगा इस पत्थर के? कुम्हार ने कहा, आठ आने मिल जाएं तो बहुत। लेकिन जौहरी को लोभ पकड़ा। उसने कहा, चार आने में दे—दे, पत्थर है, करेगा भी क्या?

एस धम्‍मो सनंतनो--ओशो (भाग--04)

एस धम्‍मो सनंतनो
भाग—4

ओशो




 एक ऐसी यात्रा पर तुम्‍हें ले चल रहा हूं, जिसकी शुरूआत तो है, लेकिन जिसका अंत नहीं। एक अंतहीन यात्रा है जीवन की; उस अनंत यात्रा का नाम परमात्‍मा है। उस अनंत यात्रा को खोज लेने की विधियों का धर्म है। एस धम्‍मो सनंतनो।


ओशो