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बुधवार, 29 अप्रैल 2015

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--181

दैवीय लक्षण(प्रवचनदूसरा)

अध्‍याय—16
सूत्र—181

अहिंसा सत्‍यमक्रोधस्‍त्‍याग: शान्‍तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्‍वलोलुप्‍त्‍वं मार्दवं ह्ररिचापलम्।। 2।।
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानिता ।
भवन्ति संपदं दैवीमीभिजातस्य भारत।। 3।।

दैवी संयदायुक्‍त पुरुष के अन्य लक्षण हैं : अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव; तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु— भाव का न होना और अपने में पूज्‍यता के अभिमान का अभाव— ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरूष के लक्षण हैं।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं--(प्रवचन--02)

आध्यात्मिक विश्व आंदोलन—ताकि कुछ व्‍यक्‍ति प्रबुद्ध हो सकें(प्रवचनदूसरा)


 जिनके भीतर भी पुकार है उनके ऊपर एक बड़ा दायित्व है आज जगत के लिए। आज तो जगत के कोने— कोने में जाकर कहने की यह बात है कि कुछ थोड़े से लोग बाहर निकल आएं और सारे जीवन को समर्पित कर दें ऊंचाइयां अनुभव करने के लिए।

मेरे प्रिय आत्मन्।
कल संध्या की चर्चा में कुछ बातें मैने कही हैं। उस संबंध में स्पष्टीकरण के लिए कुछ प्रश्न आए हैं। एक मित्र ने पूछा है कि यदि मां के पेट में पुरुष और स्त्री आत्मा के जन्मने के लिए अवसर पैदा करते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि आत्माएं अलग— अलग हैं और सर्वव्यापी आत्मा नहीं है। उन्होने यह भी पूछा है कि मैने तो बहुत बार कहा है कि एक ही सत्य है एक ही परमात्मा है एक ही आत्मा है फिर ये दोनों बातें तो कंट्राडिक्टरी विरोधी मालूम होती हैं।

रविवार, 26 अप्रैल 2015

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--180

दैवी संपदा का अर्जन—(प्रवचन—पहला)

अध्‍याय—16
सूत्र—
(श्रीमद्भगवद्गीता)

श्रीभगवानवाच:
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।
दानं दमश्च यज्ञश्‍च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।। 1।।

उसके उपरांत श्रीकृष्‍ण भगवान फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरूषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक—पृथक कहता हूं। दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरूष के लक्षण हैं :
अभय, अंतःकरण की अच्छी प्रकार से शुद्धी, ज्ञान— योग में निरंतर दृढ़ स्थिति और दान तथा इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय तथा तय एवं शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--179

प्‍यास और धैर्य(प्रवचनसातवां)

अध्‍याय—15
सूत्र—

            यो मामैवमसंमूढो जानति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वोविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।। 19।।
इति गुह्यतमं शास्त्रीमदमुक्‍तं मयानघ।
एतदबद्ध्वा बुद्धिमान्‍स्‍यत्‍कृतकृत्‍यश्‍च भारत।। 20।।

है भारत, हस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार मे निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है।
है निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्‍त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, हमको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं--(ध्यान--साधना)-ओशो

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं
(ओशो)

प्रसतावना:

जीवन के गर्भ में क्‍या छुपा है उसकी शुन्‍य अंधेरी तलहेटी की जड़े किस स्‍त्रोत की और बह रही है.....कहां से और किन छुपे रहस्‍यों से उनको पोषण मिल रहा है....ये कुदरत का एक अनुठाओर अनसुलझा रहस्‍य है। और यही तो है जीवन का आंनद....लेकिन न जाने क्‍या हम इस रहस्‍य को जानना चाहते है, कभी ज्‍योतिष के माध्‍यम से, कभी दिव्‍य दृष्‍टी या और तांत्रिक माध्‍यमों से परंतु सब नाकाम हो जाते है। और कुदरत अपने में अपनी कृति को छपाये ही चली आ रही है।
ठीक इसी तरह कभी नहीं सूलझाया जा सकता उस रहस्‍य का नाम परमात्‍मा है। परंतु कृति के परे प्रकृति और कही दूर अनछुआ सा कर्ता जो पास से भी पास और दूर से भी दूर। परंतु जब कृति जब प्रकृति में उतपति ओर लवलीन होती है,

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--178

पुरूषोत्‍तम की खोज(प्रवचनछठवां)

अध्‍याय—15
सूत्र—

 द्वाविमौ पुरूषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्‍यते।। 16।।
उत्तम: पुरूषस्‍त्‍वन्य: परमात्मेत्युदाह्वत:।
यो लस्केत्रयमाविश्य बिभर्त्सव्यय ईश्वर:।। 17।।
यस्मात्‍क्षरमर्तोतोऽहमक्षरादीप चोत्तम:।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।। 18।।

हे अर्जुन, हम संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ जीवात्‍मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है।
तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है कि जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण—पोषण करता है, एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्‍मा, ऐसे कहा गया है।

क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अक्षर, अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं इसलिए लम्बे में और वेद में पुरूषोत्तम नाम मे प्रसिद्ध हूं।

सोमवार, 20 अप्रैल 2015

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--177

एकाग्रता और ह्रदयशुद्धि(प्रवचनपांचवां)

अध्‍याय—15
सूत्र—

      यदादित्यगतं तेजो जगद्यासयतेऽखिलम्।
यच्‍चन्द्रमलि यचाग्नौ तत्तेजो विद्धि मांक्कम्।। 12।।
गामांविश्य च भूतानि धारयाथ्यमोजसा।
पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:।। 13।।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमांश्रित:।
प्राणायानसमांयुक्त: पचाम्यन्‍नं चतुर्विधम्।। 14।।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत: स्मृतिज्ञनिमयहेनं च।
वेदैश्च सवैंरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदीवदेव चाहम्।। 15।।

और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थ्ति हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थ्ति है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान।
और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्‍ति से सब भतों को धारण करता हूं और रस—स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।
मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अश्निरूप होकर प्राण और अपान मे स्थ्ति हुआ चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं।

मन ही पूजा मन ही धूप--प्रवचन-10

आओ और डूबो—(प्रवचनदसवां)

प्रश्न—सार:

 1—ओशो, संन्‍यास लेने के बाद वह याद आती है—
जू—जू दयारे—इश्‍क में बढ़ता गया।
तोमतें मिलती गई, रूसवाइयां मिलती गई।

2—ओशो, आज तक दो प्रकार के खोजी हुए है। जो अंतर्यात्रा पर गए उन्‍होंने बाह्म जगत से अपने संबंध न्‍यूनतम कर लिए। जो बहार की विजय—यात्राओं पर निकले उन्‍हें अंतर्जगत का कोई बोध ही नहीं रहा। आपने हमें जीनें का नया आयाम दिया है। दोनों दिशाओं में हम अपनी यात्रा पूरी करनी है। ध्‍यान और सत्‍संग से जो मौन और शांति के अंकुर निकलते है, बाहर की भागा—भागी में वे कुचल जाते है। फिर बाहर के संघर्षों में जिस रूगणता और राजनीति का हमें अभ्‍यास हो जाता है, अंतर्यात्रा में वे ही कड़ियां बन जाती है।
प्रभु, दिशा—बोध देने की अनुकंपा करे।

      3—ओशो, साक्षीभाव और लीनता परस्‍पर—विरोधी दिखाई देती है। क्‍या वे सचमुच विरोधी है?

      4—ओशो,आपका मूल संदेश?

रविवार, 19 अप्रैल 2015

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--176

समर्पण की छलांग(प्रवचनचौथा)

अध्‍याय—15
सूत्र—

            उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्‍जानं वा गुणान्यितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचमुष:।। 10।।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यज्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यक्यधेतस:।। 11।।

परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी ज्ञानीजन नहीं जानते है केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।
क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए हस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्व से जानते हैं और जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी हम आत्मा को नहीं जानते हैं।

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--42)

संन्यास का निर्णय और ध्यान में छलांग—(प्रवचन—बयालीसवां)

'नव—संन्यास क्या?':  
से संकलित प्रवचनांश
गीता—ज्ञान—यज्ञ पूना।
दिनांक 26 नवम्बर 1971

 क्या संन्यास ध्यान की गति बढ़ाने में सहायक होता है?

संन्यास का अAर्थ ही यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र ध्यान होगा। और कोई अर्थ ही नहीं है संन्यास का। जीवन का केंद्र धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंद्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा—ऐसे निर्णय का नाम ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है—इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह शइक्त की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु—मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है।

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--41)

की पूरब श्रेष्ठतम देन : संन्यास—(प्रवचन—इक्‍कतालिसवां)

'नव— संन्यास क्या?':  
से संकलित 'संन्यास: मेरी दृष्टि में' :
रेडिओ—वार्ता आकाशवाणी बम्बई से प्रसारित
दिनांक 3 जुलाई 1971

नुष्‍य है एक बीज—अनन्त सम्भावनाओं से भरा हुआ। बहुत फूल खिल सकते हैं मनुष्य में, अलग—अलग प्रकार के। बुद्धि विकसित हो मनुष्य की तो विज्ञान का फूल खिल सकता है और हृदय विकसित हो तो काव्य का और पूरा मनुष्य ही विकसित हो जाए तो संन्यास का।
संन्यास है, समग्र मनुष्य का विकास। और पूरब की प्रतिभा ने पूरी मनुष्यता को जो सबसे बड़ा दान दिया—वह है संन्यास।
संन्यास का अर्थ है, जीवन को एक काम की भांति नहीं वरन एक खेल की भांति जीना। जीवन नाटक से ज्यादा न रह जाए, बन जाए एक अभिनय। जीवन में कुछ भी इतना महत्वपूर्ण न रह जाए कि चिन्ता को जन्म दे सके।

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

मन ही पूजा मन ही धूप--प्रवचन--09

संगति के परताप महातम—(प्रवचन—नौंवां)

सूत्र:

अब कैसे छूटै नामरट लागी।
प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग—अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा।।
प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी। जग—जीवन राम मुरारी।।
गली—गली को जल बहि आयो, सुरसरी जाय समायो।
संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।।

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--175

संकल्‍पसंसार का या मोक्ष का(प्रवचनतीसरा)

अध्‍याय—15
सूत्र—

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पाक्क:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 6।।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। 7।।
शरीरं यदवाम्नोति यच्‍चाप्‍युत्‍क्रामतीश्‍वर:।
गृहीत्‍वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्:।। 8।।
श्रोत्रं चक्षु: स्यर्शनं च रमनं घ्राणमेव च।
आधिष्ठाय मनश्चायं विश्यानुपसेवते।। 9।।

उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिम परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में गौं आते है वही मेरा परम धाम है।
और हे अर्जुन, हम देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और की इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है।

जैसे कि वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इंद्रियों की ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।
और उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्‍मा श्रोत्र, चक्षु और त्‍वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों की सेवन करता है।

दि स्‍प्रिचुअल टीचिंग ऑफ-(060)

दि स्‍प्रिचुअल टीचिंग ऑफ—रमण महर्षि-(ओशो की प्रिय पुस्‍तके) 

श्री रमण महर्षि बीसवीं सदी के प्रारंभ में तमिलनाडु के एक पर्वत अरुणाचल पर रहते थे। परम ज्ञान को उपलब्ध रमण महर्षि भगवान कहलाते थे। अत्यंत साधारण जीवन शैली को अपनाकर वे सादगी से जीवन बिताते थे। उनका दर्शन केवल तीन शब्दों में समाहित हो सकता है : 'मैं कौन हूं?' यही उनकी पूरी खोज थी, यही यात्रा और यही मंजिल। अधिकतर मौन रहनेवाले रमण महर्षि के बहुत थोड़े से बोल शिष्यों के साथ संवाद के रूप में उपलब्ध हैं। ऐसी तीन छोटी—छोटी पुस्तिकाओं का इकट्ठा संकलन है : 'दि स्पिरिचुअल टीचिंग ऑफ रमण महर्षि।'
इस किताब की भूमिका लिखी है विख्यात मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने। यह भूमिका वस्तुत: जूंग ने भगवान रमण महर्षि की जीवनी के लिए लिखी थी। इस जीवनी के लेखक थे डा. झिमर। उस लंबी भूमिका का एक अंश इस पुस्तक के आमुख में लिया गया है।
जूंग के वक्तव्य का सार—निचोड़ यही है कि पश्चिम का मनोविज्ञान अभी अपने बचपन में है और श्री रमण जैसे प्रबुद्ध पुरूषों की चेतना से बहुत दूर, बहुत छोटे उसके कदम हैं। जुग को स्वयं तो आत्मज्ञान नहीं था लेकिन उसे मनोविज्ञान की सीमाओं का और श्री रमण में प्रस्कृटित असीम का अहसास था। उसकी भूइमका का शीर्षक है : 'श्री रमण और आधुनिक मानव के लिए उनका संदेश। 'श्री रमण के बारे में जुग लिखता है : 'श्री रमण भारत श्रम के सच्चे सुपुत्र हैं।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--174

दृढ़ वैराग्‍य और शरणागति(प्रवचनदूसरा)

अध्‍याय—15
सूत्र—174

            न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वथमेनं सुविरूद्धमूलम्
असङ्गशस्त्रेण दृढ़ेन छित्‍वा।। 3।।
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं
यीस्मन्गता न निवतर्न्ति भूय:।
तमेव ब्राह्य पुरुषं पुपद्ये
यत: प्रवृत्ति: प्रमृता पुराणी।। 4।।
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृक्कामा:।
द्वन्द्वैर्विमुक्‍ता: सुखदुखसंज्ञै:
गव्छज्यमूढा: पदमव्ययं तत्।। 5।।

इस संसार— वृक्ष का रूप जैसा कहा है, वैसा यहां नहीं पाया जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अंत है तथा न अच्‍छी प्रकार से स्थिति ही है। इसलिए हम अहंता? ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर, उसके उपरांत उस परम पद रूप परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिए कि जिसमें गए हुए पुरुष फिर पीछे संसार में नहीं आते हैं।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

मन ही पूजा मन ही धूप--(प्रवचन--08)

सत्‍संग की मदिरा—(प्रवचन—आठवां)

प्रश्‍न—सार:

1—ओशो, सत्‍संग क्या है? मैं कैसे करूं सत्‍संग—अपके संग—ताकि इस बुझे दीये को भी लौ लगे?

 2—ओशो, आपका धर्म इतना  सरल क्यों है? इसी सरलता के कारण वह धर्म जैसा ना लग कम उत्सव मालूम होता है और अनेक लोगों को इसी कारण आप धार्मिक नहीं मालूम होते है। मैं स्‍वंय तो अपने से कहता हूं: उत्‍सव मुक्‍ति है, मुक्‍ति उत्‍सव है।

3—ओशो, मैं पहली बार पूना आया एवं आपके दर्शन किए। आनंद—विभोर हो गया। आश्रम का माहौल देख कर आंसू टपकने लगे। मैंने, सुना और महसूस किया: यह सूरज सारी धरा को प्रकाशवान कर रहा है। किंतु ओशो, पूना में अँधेरा पाया। कारण बताने की कृपा करें।

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--173

मूल—स्‍त्रोतककी और वापसी—(प्रवचन—पहला)

अध्‍याय—15
सूत्र—

श्रीमद्भगवद्गीता अथ पन्‍चदशोऽध्याय:

 श्रीभगवानुवाच:
ऊर्ध्वमूलमध:शाखमश्वत्‍थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णीनि यस्तं वेद स वेदवित्।। 1।।
अधश्चोर्थ्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गण्णप्रवृद्धा विषयप्रवाला:।
अधश्च मूलान्यनुसंततनि कर्मानुबन्धीनि मनष्यलोके।। 2।।

गणन्‍तय— विभाग— योग को समझाने के बाद श्रीकृष्‍ण भगवान बोले हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर है, ऐसे संसाररूप पीपल के वृक्ष को
अविनाशी कहते हैं तथा जिसके वेद पत्ते कहे गए है, उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरूष मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।
उस संसार— वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय—भोगरूप कोंपलां वाले देव मनुष्य और तिर्यक आदि योगरूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं।
तथा मनुष्य— योनि में क्रमों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं।